कहानी - फर्क - विनोद विप्लव
इसमें कोई मुश्किल नहीं होती, अगर दुनिया में एक ही किस्म के साबुन होते। आखिर बोली को करना ही क्या था? घर से निकलना था और मालकिन ने जो रुपये दिए थे, उनसे दुकान जाकर साबुन खरीदना था। घर आकर मालकिन को साबुन और बाकी के पैसे दे देने थे। इसमें दिक्कत क्या थी? यह तो कोई बच्चा भी कर सकता है।