मोहम्मद रफी साहब मेरे बाबा थे – नाहिद तबस्सुम


हमारे गाँव उत्तर प्रदेश में सहारनपुर के पास बसा एक छोटा सा गांव था‚ भारत के बाकी गांवों की तरह, जहाँ ज़िंदगी की रफ्तार खेतों में लहलहाती फसलों की तरह खिली हुई थी और सुबह की ओस की बूँदों जितनी कोमल और नम थी। चारों तरफ हरियाली का समंदर पसरा हुआ था —धान के खेत, गन्ने की लंबी-लंबी पंक्तियाँ, और बीच-बीच में आम और नीम के पेड़, जिनकी छाँव में गाँव के बुजुर्ग चौपाल लगाया करते थे। 

हमारे घर मिट्टी के बने थे, दीवारें कच्ची, छत पर मोटी-मोटी बल्लियाँ और ऊपर से घास-फूस की छप्पर। बरसात में छत टपकती थी, तो पापा और चाचा मिलकर उसे ठीक करते, और हम बच्चे नीचे से चिल्लाते, "पानी यहाँ से आ रहा है!" गाँव में बिजली का नामोनिशान नहीं था।

शाम होते ही गांव अंधेरे में डूब जाते। घरों में लालटेन या ढिबरी की धुंधली रौशनी में हम बातें करते। हमारे लिए रोशनी का मतलब था ढिबरी की टिमटिमाती लौ और चाँदनी रातों का उजाला। 


उसी माहौल में हमारा रेडियो था—एक पुराना सा बक्सा ऐसा जिसके एंटीना से तार बांध कर उसे हम छत तक ले जाते थे ताकी आवाज साफ आ सके। उस रेडियो से निकलने वाले सुरीले स्वर दूर–दूर तक गूंजते। रेडियो की  आवाज़ में कभी खरखराहट होती, तो कभी साफ़-सुथरी धुनें गूँजतीं। सुबह खेतों में काम शुरू होने से पहले, या शाम को जब सूरज ढल जाता और आसमान में तारे झिलमिलाने लगते, पापा रेडियो ऑन करते। और फिर शुरू होती थी मोहम्मद रफ़ी साहब की जादुई दुनिया। उनकी आवाज़ ऐसी थी कि लगता था जैसे कोई फरिश्ता आसमान से उतरकर हमारे मिट्टी के आँगन में आ बैठा हो। पापा कहते, "रफ़ी साहब की आवाज़ में वो बात है जो सीधे दिल को छू लेती है।" वो खुद भी गुनगुनाते—"बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है"—और उनकी आवाज़ में भले ही सुर न मिलें, पर जोश इतना होता कि हम सब ताली बजाने लगते।



अम्मी की अपनी कहानी थी। वो हमें बतातीं, "रफ़ी साहब तुम्हारे बाबा हैं।" 

हम बच्चों ने इसे सच मान लिया। हमारे लिए रफ़ी साहब कोई गायक नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा थे। हम कल्पना करते कि शायद वो कभी हमारे गाँव आए होंगे—शायद किसी शाम को, जब हवा में सरसों के फूलों की खुशबू घुली हो, उन्होंने हमारे खेतों के पास बैठकर कोई गीत गाया हो। अम्मी कहतीं, "बड़ी बहन, जरा अपने बाबा का गीत सुनाओ," और फिर रेडियो की सुई घूमती। जब तेरी दुनिया से दूर‚ चले होके मजबूर‚ "चौदहवीं का चाँद हो" या "तेरी आँखों के सिवा" बजता, तो पूरा घर ठहर सा जाता। गायें चुपचाप अपनी पूँछ हिलातीं, और आँगन में खेलते हुए मुर्गियाँ भी शायद उस धुन को सुनने के लिए रुक जातीं।


कई बार रेडियो प्रोग्राम में रफ़ी साहब के गीतों की बाढ़ आ जाती। एक के बाद एक—"दिन ढल जाए," "पुकारता चला हूँ मैं," "आज मौसम बड़ा बेईमान है"— और हम सब मंत्रमुग्ध। लेकिन अगर आखिरी गीत किसी और का हो जाता, जैसे किशोर कुमार या मुकेश का, तो पापा का मुँह लटक जाता। वो कहते, "अरे, ये क्या! रफ़ी साहब के बिना प्रोग्राम खत्म कैसे हो सकता है?" फिर हम सब मिलकर दूसरी फ्रीक्वेंसी ढूँढते। एक बार तो पापा ने रात के दस बजे तक रेडियो चलाया, सिर्फ इसलिए कि उन्हें "ये चाँद सा रोशन चेहरा" सुनना था।


पापा कस्बे से कैसेट भरवाकर लाते। वो कैसेट हमारे लिए सोने की तरह कीमती थे। एक बार गर्मी की दोपहर में, जब हम सब नीम के पेड़ की छाँव में लेटे थे, पापा ने नया कैसेट चलाया। उसमें फिल्म "चा चा चा" के गीत थे — "एक चमेली के मंडवे तलेʺ और ʺवो हम न थे वो तुम ना थेʺ‚ सुबह ना आई‚ शाम ना आई।ʺ

उस दिन हम छत पर गारा लगा रहे थे। आसमान नीला था, हल्की हवा चल रही थी, और दूर खेतों से कोयल की आवाज़ आ रही थी। अम्मी मिट्टी को पानी में गूँदकर गारा बना रही थीं, और हम बच्चे छोटे-छोटे डिब्बों में उसे छत तक ले जा रहे थे। रफ़ी साहब की आवाज़ उस सुरीले माहौल में गूँज रही थी, और ऐसा लग रहा था जैसे वो गीत हमारे लिए ही लिखा गया हो। मैं उस धुन में इस कदर खो गई कि एक बाल्टी मिट्टी मेरे हाथ से छूट गई, और नीचे आँगन में गिरकर बिखर गई। अम्मी ने डाँटा, "अरे, कहाँ खो गई।

आवाज में प्यार भरा गुस्सा था। फिर अम्मी की हँसी गूंजी। उपर से रफी साहब की रूहानी आवाज। आज भी जब वह गीत सुनती हूं तो मुझे वो मिट्टी की छत, गारे की ठंडक, और अम्मी की प्यार भरी डांट याद आ जाती है।


हमारे गाँव में हर मौसम का अपना रंग था। बरसात में जब खेत पानी से लबालब हो जाते, तो मेंढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों की आवाज़ के बीच रेडियो पर रफ़ी साहब का "आज मौसम बड़ा बेईमान है" बजता, और लगता जैसे वो मौसम को भी अपनी आवाज़ से बाँध रहे हों। सर्दियों की धूप में, जब हम आँगन में अलाव जलाकर बैठते, तो "चौदहवीं का चाँद हो" की धुन ठंडी हवा में तैरती हुई कानों तक पहुँचती। और गर्मियों की दोपहर में, जब गाँव सन्नाटे में डूब जाता, रफ़ी साहब का "दिन ढल जाए" सुनकर मन को सुकून मिलता।



स्कूल जाते वक़्त, जब हम साइकिल से खेतों के बीच बनी पगडंडियों पर निकलते, तो "गुलाबी आँखें जो तेरी देखी" अपने आप ज़ुबान पर चढ़ जाता। हवा में गन्ने की मिठास घुली होती, और दूर से आती भैंसों की घंटियों की आवाज़ के साथ वो गीत मिलकर एक अलग ही समां बाँधता। एक बार स्कूल में स्वतंत्रता दिवस पर देशभक्ति गीत गाने का मौका आया। पापा ने खास तौर पर कैसेट भरवाया—"ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी कसम"—और हमने उसे रट लिया। उस दिन मास्टर जी ने कहा, "तुममें रफ़ी साहब की झलक दिखती है," और पापा को ये बात सुनकर इतना गर्व हुआ कि उन्होंने पूरे गाँव में मिठाई बाँटी।

मोहम्मद रफ़ी साहब हमारे लिए सिर्फ़ एक गायक नहीं थे। हमारे परिवार का अभिन्न हिस्सा थे‚ जैसे हमारे पापा। जिस तरह से हम अपने पापा के बगैर नहीं रह सकते थे वैसे रफी साहब के बगैर नहीं रह सकते थे। वो ऐसे थे जो हमारे दुख – तकलीफ को भुला देते थे। वो एक जादूगर थे, जिनकी आवाज़ में हर भाव समा जाता था—खुशी, गम, प्यार, देशभक्ति। पापा हमें बताते, "रफ़ी साहब की आवाज़ में वो ताकत है जो दुःख – तकलीफ से छूटकारा दिलाती है। 

उनकी आवाज़ में एक सादगी थी, जो हमारे गाँव की मिट्टी से मिलती-जुलती थी, और एक गहराई, जो हमारे दिलों को छू लेती थी। हमने सुना था कि वो पंजाब के एक गाँव से आए थे, और शायद इसलिए उनकी आवाज़ में वो मिट्टी की महक थी, जो हमें अपनी लगती थी।


मेरी बड़ी बहन को अखबार से उनकी खबरें इकट्ठा करने का शौक था। गाँव में अखबार महीने में दो-चार बार ही आता, जब कोई कस्बे से लौटता। वो पन्ने पलटती, और अगर रफ़ी साहब की तस्वीर या कोई छोटी सी खबर मिलती‚ जैसे उनकी पुण्यतिथि या जन्मदिन का ज़िक्र—तो उसे कैंची से काटकर अपनी पुरानी कॉपी में चिपका देती। एक बार उसने कहीं पढ़ा कि रफ़ी साहब ने अपने आखिरी गीत "शाम फिर क्यों उदास है दोस्त" को रिकॉर्ड करने के बाद दुनिया को अलविदा कहा था। वो ये बात हमें सुनाकर रो पड़ी थी, और हम सब चुपचाप बैठे रहे, जैसे कोई अपना चला गया हो।


समय बीतता गया। बहनों की शादी हो गई, गाँव में बिजली आ गई, और रेडियो की जगह अब टीवी ने ले ली। पर रफ़ी साहब की यादें कभी पुरानी नहीं हुईं। पिछले साल की बात है, मैं अपने भांजे के साथ बैठी थी। वो आठ साल का है, और रेडियो पर "बहारों फूल बरसाओ" बज रहा था। उसने मुझसे पूछा, "मोहम्मद रफ़ी आपके बाबाजी हैं ना?" 

मैंने हँसकर पूछा, "किसने बताया?" 

उसने कहा, "बड़ी अम्मी ने।" मेरी अम्मी को गुज़रे पाँच साल हो चुके थे, पर उनकी बातें आज भी बच्चों की ज़ुबान पर थीं। अम्मी ने उन्हें भी वही कहा था जो हमें बचपन में सुनाया करती थीं—"रफ़ी साहब तुम्हारे बाबा हैं।"

मैं उसकी बात से इंकार नहीं कर सकी। 

आज भी उनके गीत हमारे लिए सिर्फ़ संगीत नहीं हैं, बल्कि एक एहसास है —जो हमें हँसाता, रुलाता, और हर मुश्किल में हौसला देता है। आज भी जब कोई पुराना गीत बजता है, लगता है जैसे वो गाँव का आँगन, वो ढिबरी की रोशनी, और अम्मी-पापा की आवाज़ें फिर से लौट आई हों। रफ़ी साहब हमारे लिए सिर्फ़ एक नाम नहीं, हमारे बाबा थे—और हमेशा हमारे दिल में रहेंगे।


रफी साहब को लेकर यह संस्मरण उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक गांव में रहने वाली नाहिद तबस्सुम ने भेजा है ।