मेहमां जो हमारा होता है…
सुख, शांति और सुकून उनके लिए मृग मरीचिका बन गए थे। जब वे पटना में थे. इन्हें पाने के लिए मकान पर मकान बदलते रहे, लेकिन ये उन्हें हासिल नहीं हुए। अंत में उन्होंने सुख, चैन और शांति की तलाश में भाग-दौड़, खर्च और पैरवी करके अपना तबादला दिल्ली कराया।
जब तक ये पटना में थे, तब तक उनके यहां शांति और सुकून के नामोनिशान नहीं थे। उनकी शादी हुए दो साल से अधिक हो गए थे, लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा होगा जब दोनों पति-पत्नी ने इतमीनान और बेफिक्री के साथ दापत्य सुख का भोग किया होगा। वे अपने घर में भी आपस में खुलकर प्यार मोहब्बत की बातें तो क्या, हस-बोल भी नहीं पाते। वे ऐसा कर भी कैसे पाते-घर में हर घडी, हर वक्त कोई न कोई मौजूद जो होता चाहे परिवार के लोग हों, चाहे रिश्ते के, चाहे गाव के लोग हों, चाहे ससुराल के और अगर ये लोग नहीं होते तो पास-पड़ोस के लोग तो होते ही थे, जिनका वक्त-बेवक्त घर आ धमकना, घटों गप्पें हांकना, कोई सामान मांगकर ले जाना और लौटाने का नाम तक नहीं लेना परमाधिकार था। लोगों के आने-जाने के कारण उनके घर से दांपत्य व पारिवारिक सुख और शांति ने जैसे यह कहते हुए अलविदा ले लिया था कि इस घर में या तो मेहमान रहेंगे या वे ।
मेहमानों को लेकर पति-पत्नी में रोज झगड़ा होता। घर में अगर सौभाग्य से मेहमान नहीं मौजूद होते, तब भी पति-पत्नी के दिमाग में मेहमानों की खौफनाक छाया मंडराती रहती। ऐसे में मेहमानों के प्रकोप के लिए दोनों एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे होते, आपस में झगड़ रहे होते या मेहमान समस्या से निजात पाने के उपायों पर विचार कर रहे होते। एक तरह से मेहमानों के कारण उनका जीना हराम हो गया था। मेहमानों के कारण घर में हमेशा शीत या गर्म युद्ध चलता रहता । पत्नी रोजाना ही धमकी देती रहती, "आगे से कोई आया तो कहे देती हूं मायके चली जाऊगी।"
ऐसा नहीं था कि गुप्ताजी मेहमानों के कारण पत्नी को होने वाली परेशानी नहीं समझते थे। उन्हें जितनी दिक्कत होती थी उससे कई गुना अधिक परेशानी पत्नी को होती थी। लेकिन वह क्या करें। वह मेहमानों को बुलाते तो नहीं थे। अगर कोई मेहमान आ जाये तो उसे भगाया तो नहीं जा सकता है। गुप्ताजी को पत्नी की धमकी, गुस्सा और रूठना तो झेलना ही पड़ता-मकान मालिक की टोका-टाकी और चेतावनी भी सुननी पड़ती, "अगर आगे भी इसी तरह मेहमान आते रहे तो कहे देता हूं-या तो किराया दो गुना कर दीजिए या कोई और मकान ढूंढ लीजिए। यह घर है-होटल या धर्मशाला नहीं कि रोज आप मेरे मकान में बाहरी लोगों को ठहराते रहें ।"
गुप्ताजी की जान तो चारों तरफ से आफत में फंसी थी-मेहमानों के कारण। ऊपर से खर्च भी अधिक होता। आधा वेतन तो मेहमानों को खिलाने पर खर्च हो जाता। मेहमानों से छुटकारा पाना-उनके जीवन का मुख्य ध्येय बन गया था। उन्होंने दसियों मकान बदले, मकान के पते गांव और रिश्ते के लोगों से बचाकर रखे-लेकिन मेहमान जासूस की तरह हर बार मकान ढूंढते ढांढते उनके यहां धावा बोल ही देते। पति-पत्नी ने घर बदलने तथा पता गुप्त रखने के अलावा मेहमानों को धोखा देने तथा उन्हें टरकाने के अनेक उपायों पर अमल किया-लेकिन मेहमान चकमा नहीं खाये। मसलन, घर में होने पर भी दरवाजे पर ताले लगा देने की तरकीब निकाली दरवाजे पर किसी दूसरे व्यक्ति के नेम प्लेट लटकाये, मेहमान के आने पर खुद, पत्नी या बेटे की बीमार होने के बहाने बनाये-लेकिन उनके सभी उपाय विफल होते गए। अंत में कोई और तदबीर नजर नहीं आने पर दोनों ने दिल्ली तबादला कराने का उपाय सोचा। महीनों की दौड़-धूप, पैरवी और अधिकारियों की जेब गर्म करने के बाद अपना तबादला कराने में सफल हुए।
दिल्ली तबादला कराने का उनका उपाय वाकई सफल रहा और वे मेहमान समस्या से छुटकारा पा गये। कभी-कभार भूले-भटके कोई मेहमान भले ही आ जाते. लेकिन उनके घर पर मेहमानों का वैसा लगातार हमला नहीं हुआ जैसा पटना में हुआ करता था। यहां उन दोनों ने पूरी तन्मयता, बेफिक्री और शांति के साथ दापत्य सुख का भोग किया।
दिल्ली में उन दोनों को न केवल मेहमानों से बल्कि पड़ोसियों के अतिक्रमण से बचाव हो गया था। दिल्ली के पडोसी शांत और सौम्य किस्म के थे, जिन्हें दूसरे के मामलों में दखलअंदाजी और टांग अड़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। यहां के पड़ोसी पटना के पडोसियो की तरह नहीं थे जिन्हें अपने घर में बैठने में बुखार आता था और दूसरे के घरों में घुसे रहने में आनंद आता था। दिल्ली के पड़ोसी सभ्यता के उस मुकाम तक पहुच चुके थे जहां 'न उधो से लेना न माधो को देना आदर्श वाक्य बन जाता है। यहां के पड़ोसी अगर कभी भूले से दूसरे के घर जाते भी तो एकाध मिनट से ज्यादा नहीं रुकते जबकि पटना में बार-बार हर समय घर में कोई न कोई पड़ोसी टपकता रहता, जो घंटों वहां से नहीं सरकता। किसी को चाय पीने की पेशकश करने की गलती करने पर आधे दिन का समय बर्बाद होना तो तय था। पटना के पड़ोसी ऐसे भीषण 'समय नष्टक' थे कि जिनके बारे में सोचते ही भीषण गर्मी में भी कंपकंपी हो जाती। दूसरी तरफ दिल्ली के पड़ोसी थे-सभ्य, शांत और सौम्य । इनके प्रति दोनों पति-पत्नी के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी। ऐसे खलल विरोधी पड़ोसी पाकर दोनों को अपने आप पर गुमान होने लगता। वे दोनों अपने पडोसियों की 'गुट निरपेक्षता' और 'अहस्तक्षेप' की नीति की सहराहना करते थकते नही ।
दिल्ली में मेहमानों और पड़ोसियों की दखलअंदाजी से मुक्ति पाने पर दोनों को प्यार करने, घर-परिवार पर ध्यान देने और घर की बढ़ती जरूरतों की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक पैसा कमाने का समय मिलने लगा। पटना में जन्म लेने वाला उनका लड़का स्कूल में पढ़ने लगा था। दिल्ली में उन्हें एक पुत्री की प्राप्ति हुई। घर में जगह और पैसे की किल्लत होने लगी। उन्होंने पैसा कमाने के लिए शेयर के धंधे शुरू कर दिये। भाग-दौड़ और पैरवी करके अपनी पत्नी को एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी पर लगवाया। इस तरह पैसे की किल्लत दूर हुई और उनका बैंक बैलेंस भी बढ़ने लगा। ये दोनों तमाम तरह की उपभोक्ता सामग्रियों के साथ-साथ जंगल से पॉश कॉलोनी में तब्दील हो गये। इलाके में बने बहुमंजिले महाकाय अपार्टमेंट्स में एक अपार्टमेंट खरीदकर महानगरीय जीवन में पूरी तरह घुल-मिल गये ।
वे दोनों इस तेज रफ्तारी महानगरीय जीवन का पूरा मजा उठा रहे थे। उन दोनों के आनंद में थोड़ी बाधा उस समय पहुंची जब गुप्ताजी बुरी तरह बीमार पड़ गये। गुप्ताजी एक दिन बीमारी के कारण दफ्तर से छुट्टी लेकर बिस्तर पर पड़े थे कि अचानक उनके सीने में तेज दर्द उठा। पत्नी ऑफिस गई हुई थी और बच्चे स्कूल । उन्हें लगा कि अगर उन्हें तुरंत अस्पताल नहीं पहुंचाया गया तो उनकी जान ही निकल जायेगी। उन्होंने पत्नी को फोन किया। पत्नी का दफ्तर दूर था और उनके आने में घंटा-दो-घंटा लगना मुमकिन था। इस बीच उन्होंने आसपास रहने वाले कई परिचितों को फोन करके उनसे जल्दी आकर उन्हें अस्पताल ले जाने का अनुरोध किया, लेकिन उस समय, समय निकालने की स्थिति में कोई भी नहीं था। यह सौभाग्य ही था कि उनका लड़का स्कूल से जल्दी घर आ गया। उन्होंने लड़के को भेजकर टैक्सी मंगायी और तब वह अस्पताल पहुंचे।
गुप्ताजी जितने दिन अस्पताल में या घर पर बिस्तर पर रहे तब तक उनके आराम में खलल डालने न तो कोई पड़ोसी आया, न कोई दोस्त, न कोई परिचित और न ही कोई सहकर्मी। अस्पताल से घर आने के बाद वह घर में अकेले रह जाते.
क्योंकि पत्नी ऑफिस चली जाती और बच्चे स्कूल। डॉक्टर ने उन्हें कई सप्ताह आराम करने को कहा था। ऐसे में उनकी आंख दरवाजे पर और कान कॉलबेल की तरफ लगे रहते। जब भी कॉलबेल बजता या दरवाजा खटखटाया जाता, वह तेजी से उठकर दरवाजा खोलते। लेकिन हर बार कोई सेल्समैन या किसी कंपनी का प्रचार एजेंट होता-उनसे मिलने या उनका हाल-चाल जानने के लिए आने वाला उनका कोई दोस्त, परिचित, सहकर्मी या पड़ोसी नहीं, जिसका वह दिन-रात इंतजार करते। ऐसे समय में उन्हें लगने लगा कि अगर कोई मेहमान ही आ जाता तो उनका वक्त आराम से कट जाता और खुदा न करे अगर उन्हें अचानक कुछ हो जाता तो उन्हें वह तुरंत अस्पताल ले जाता या डॉक्टर को बुला लाता ।
पिछली गर्मी में पत्नी को टायफाइड होने पर भी उन्हें ऐसा ही लगा था, मेहमानों या मिलने आने वालों की तीव्र जरूरत उन्होंने महसूस की थी। पत्नी को भी बीमारी की हालत में घर में अकेले रहना पड़ता- क्योंकि वह ऑफिस चले जाते और बच्चे स्कूल । पत्नी अक्सर कहती रहती कि वह घर में अकेले पड़े-पड़े बोर हो जाती है और खुद को अनाथ असहाय महसूस करने लगती है। गुप्ताजी यह सुनकर उल्टे पत्नी को डांट देते कि इस महानगर की व्यस्त जिंदगी में किसके पास इतना फालतू वक्त पड़ा है कि लोग एक-दूसरे के यहां आयें जायें।
गुप्ताजी अपनी बीमारी के बाद बिलकुल बदल गए थे। एक समय था जब दोनों के बीच मेहमानों, पड़ोसियों और मिलने वालों के आने को लेकर झगड़ा होता था। दोनों अब उस वक्त को कोसते जब उनके मन में पहली बार तबादले का विचार आया था। सुख और शुकून एक बार फिर उनसे दूर चले गए थे ।
दोनों पति-पत्नी ने गांव-घर के लोगों, सगे-संबंधियों और दूसरे शहरों में रहने वाले दोस्तों-रिस्तेदारों को पत्र लिख उन्हें दिल्ली आने तथा उनके यहां मेहमान बनकर दिल्ली घूमने के लिए आमंत्रित करने लगे। ऑफिस के लोगों और महानगर में रहने वाले दोस्त-परिचितों को घर आने के लिए कहने लगे। जब भी कोई पड़ोसी मिलता-भले ही उससे नाममात्र की जान-पहचान हो-घर आने की दावत दे देते। दोनों घर में भी किसी न किसी के आने की आशा में बैठे रहते। जब भी कॉलबेल बजती अथवा दरवाजे पर दस्तक होती-झट से दरवाजा खोलने दौड़ पड़ते। लेकिन आने वाला कोई सेल्समैन, एजेंट, अखबारवाला, दूधवाला या कूड़ा उठाने वाला होता वह नहीं, जिसका इंतजार करते-करते वे दोनों थक चुके थे ।
मेहमानों और मिलने वालों के बगैर घिसट रहे जीवन के दौर में एक सुबह जब पति-पत्नी एक दूसरे से लिपटकर गहरी नींद में सोये थे-दरवाजे पर जोरदार दस्तक हुई दोनों हड़बड़ाकर उठ बैठे। इतनी सुबह कौन आ सकता है ? गुप्ताजी ने घड़ी पर निगाह डाली-पांच बज रहे थे। इतनी सुबह किसी सेल्समेन, एजेंट,
दूधवाला, अखबारवाला आदि के आने का कोई सवाल नहीं था। फिर कौन हो सकता है ? जरूर ऐसा आदमी है जो उनके यहां रोजाना नहीं आता। क्या पता कोई दोस्त, परिचित या कोई मेहमान हो जिसकी वह लंबे समय से बाट जोह रहे थे। उनका दिल अज्ञात कितु नाजुक किस्म की उम्मीद और खुशी से भर गया। लेकिन मन में शंका बनी हुई थी। उनका दिल उसी तरह से धड़क रहा था जैसे बेरोजगारी के दिनो में अखबार में प्रतियोगी परीक्षा का रिजल्ट देखने के समय धड़कने लगता था। वह अपने कपड़े ठीक करते हुए दरवाजे की ओर तेजी से बढ़ गये।
दरवाजा खोलने में देर होने के कारण दरवाजे पर दोबारा दस्तक हुई जिससे उनकी उम्मीद को और बल मिल गया। उनकी उम्मीद खरी निकली। दरवाजा खोलने पर अधेड़ उम्र के धोती-कुर्ता पहने व्यक्ति का दर्शन हुआ। गुप्ताजी की खुशी बेइतहा हो गई। इतनी खुशी में वह भूल गये कि किसी मेहमान के घर आने पर क्या बोला जाता है। उन्होंने मेहमान के हाथ से अटैची अपने हाथ में ले ली। वह बेलगाम खुशी से चहक रहे थे, 'आइये, आइये। आप यहां बैठिये। कुर्सी पर नहीं, सोफे या गद्दे पर बैठिये । आराम रहेगा। थक गये होंगे। पैर फैला लीजिए। अपना ही घर समझें। आप क्या लेंगे-चाय या कॉफी ? आप चाहें तो पहले हाथ-मुंह धो लें-तब तक चाय तैयार हो जाती है। अरे भाई, देखो तो कौन आये हैं। आप किस गाड़ी से आये है ? गाडी लेट तो नही थी ? आप पटना से आ रहे हैं...।"
आगंतुक ने बताया कि वह पटना से नहीं, भोपाल से आये हैं जहा उनका लड़का नौकरी करता है। पूरा परिवार वही है। उनके लड़के ने बताया कि आप दोनो बचपन के दोस्त रहे हैं।
गुप्ताजी को तत्काल याद नहीं आया कि उनका कोई बचपन का दोस्त भोपाल में नौकरी करता है। लेकिन उन्होंने दिमाग पर जोर डालना फिलहाल मुनासिब नहीं समझा। हो सकता है कि कोई दोस्त भोपाल में भी नौकरी करता है। बचपन के दोस्त तो बिछड़ गये। नौकरी के चक्कर में कौन कहां पहुंच गया-इसका कोई हिसाब नही है। आजकल पत्राचार करने की फुर्सत ही कहां मिलती है। खैर, अब तो दोस्त के पिताजी आ गये हैं-दोस्त की विस्तार से खबर ली जायेगी ? अभी जल्दी क्या है ? कहीं ऐसा न हो अभी पूछने पर बुरा मान जायें ।
तब तक पत्नी भी कपड़े बदलकर और बाल ठीक कर आ गई थी। गुप्ताजी ने पत्नी से आगुतक का परिचय कराया बचपन के दोस्त के पिताजी हैं। भोपाल में रहते हैं।
पत्नी ने आगतुक को आदरपूर्वक प्रणाम किया और चाय बनाने में जुट गई। दोनों बच्चे भी जाग गये थे। वे आंख मलते हुए ड्राईंग रूम में आ गये। गुप्ताजी ने दोनों बच्चों से कहा, "ये दादाजी हैं। इन्हें प्रणाम करो।"
दोनों ने आगंतुक को प्रणाम किया। आगंतुक ने बच्चों को मिठाई का डिब्बा थमा दिया।
मेहमान के आने से घर में रौनक और चहल-पहल आ गई थी। चाय तैयार हो गई थी। सबने साथ चाय पी। बातचीत हुई। पटना, भोपाल, दिल्ली और घर गांव की बातें हुईं। अखबार आने पर सबने अखबार पढ़े और देश-दुनिया के बारे में चर्चा होने लगी। गुप्ताजी बातचीत में इस कदर मशगूल हो गए कि वह यह भी भूल गए कि मेहमान आने पर क्या-क्या किया जाता है। पत्नी ने उन्हें जगाया, "बातें होती रहेंगी या चाचाजी स्नान भी करेंगे। नहाने का पानी गर्म हो गया है।"
आगतुक स्नानघर चले गए, पत्नी नाश्ता बनाने की तैयारी करने लगी और गुप्ताजी ताजा सब्जी लाने बाहर निकल पड़े। मेहमान के आने से घर-परिवार में एक नई तरह की उमंग, उत्साह तथा सक्रियता आ गई थी।
मेहमान ने बातचीत के दौरान बताया कि वह अपनी लडकी की शादी के लिए लड़का देखने आये हैं जो दिल्ली में किसी प्राइवेट कंपनी में कम्प्यूटर इंजीनियर है। गुप्ताजी ने ऑफिस से छुट्टी लेकर आगंतुक के साथ जाकर लड़के से मिलने का कार्यक्रम बनाया। गुप्ताजी नहा-धोकर तैयार हुए। पत्नी ने भी ऑफिस से छुट्टी ले ली। उसने पूरे मन के साथ स्वादिष्ट खाना बनाया। सभी ने साथ खाना खाया। वर्षों बाद गुप्ताजी ने ऐसा लजीज खाने का मजा उठाया था। खाना खाने के बाद दोनों ने आराम किया। शाम होने के पहले लड़का देखने के लिए दोनों घर से निकले। दोनों शाम को घर लौटे। चाय पीने के बाद गप-शप करते हुए सबने कुछ देर टेलीविजन देखने का मजा उठाया। बहुत दिन बाद उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि टेलीविजन देखना भी मजेदार हो सकता है। इसके बाद सबके लिए मेज पर खाना लगाया गया। खाना खाने के बाद मेहमान को थोडी चहलकदमी करने की आदत थी। जब वह बाहर जाने लगे तो गुप्ताजी भी उनके साथ हो लिये। मेहमान के सोने के लिए बक्से से गद्दे, रजाई और तकिया निकाले गए जो खासतौर पर मेहमान के लिए वर्षों पहले बनवाये गए थे, लेकिन मेहमान के इंतजार में ये बक्से में ही पड़े रहते थे।
दूसरे दिन मेहमान के साथ-साथ घर के लोग भी अलसुबह उठ गए। मेहमान के लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध होने लगा। मेहमान को सुबह घूमने की आदत थी गुप्ताजी का चित् प्रसन्न था। वर्षों से उन्होंने उगते हुए सूरज की शक्ल नही देखी थी। देर से सोने और देर से उठने की आदत थी उनकी।
दोनों घूमने के बाद घर लौटे। चाय पीते हुए पति-पत्नी ने मेहमान के सामने कुछ दिन दिल्ली में ठहरने और दिल्ली घूमने का प्रस्ताव रखा। लेकिन मेहमान ने कहा कि वह आज शाम ही गाड़ी से भोपाल लौट जाना चाहते हैं। लड़की के शादी-ब्याह के मामले को पक्का करना चाहते हैं। शादी-ब्याह में देर करने से बात गड़बड़ा जाती है। लड़का पसंद आ ही गया है। वहां जाकर लड़के के परिवार वालों से शादी की बात पक्की करनी है।
मेहमान के आज ही लौट जाने की बात सुनकर पति-पत्नी को निराशा हुई। अचानक गुप्ताजी ने जैसे कुछ याद करते हुए मेहमान को बताया कि भोपाल के ही एक परिचित बगल के अपार्टमेंट्स में रहते हैं। जब वे दिल्ली आये ही हैं तो उनसे भी मिल लेना ठीक होगा। दोनों नाश्ता करने के बाद परिचित से मिलने घर से निकल पड़े। रास्ते में गुप्ताजी ने मेहमान से वह भेद खोला जिसे वह कल सुबह से ही अपने दिल में दबाये हुये थे। गुप्ताजी ने बताया कि वह कल सुबह उनके आने के बाद समझ गये थे कि वह गलत पते पर आ गये हैं। लेकिन वर्षों बाद घर आये मेहमान को लौटा देना अच्छा नहीं लगता, इसलिए उन्होंने यह भेद छिपाये रखा। उन्हें जिस व्यक्ति के यहां जाना था वह बगल के अपार्टमेंट्स में रहते हैं। दोनों अपार्टमेंट्स के नामों में काफी समानता है और इस कारण किसी ने उन्हें इस अपार्टमेंट्स का पता बता दिया होगा ।
गुप्ताजी ने अपने यहां उन्हें मेहमान बनाकर रखने के लिए क्षमा मांगी कि अगर उनकी खातिरदारी में कोई कमी रह गई हो तो उसे भूल जाएं क्योंकि वे लोग वर्षों से मेजबानी के अनुभव से वंचित थे। वैसे तो वह चाहते थे कि वह कुछ दिन और उनके यहां मेहमान बनकर रहें, लेकिन चूंकि उन्हें आज ही लौट जाना है, इस कारण उनका अपने सही मेजबान से मिल लेना उचित होगा। वैसे दिन का खाना उनके घर बन रहा है और खाने के समय यहीं आ जायें। गुप्ताजी मेहमान को उनके सही पते पर पहुंचाकर घर लौट आये। उन्होंने अपने घर का कॉलबेल बजाया। दरवाजा उनकी पत्नी ने खोला । पत्नी के चेहरे पर खुशी चमक रही थी। पत्नी ने धीमे से बताया कि कोई और मेहमान आये हैं। गुप्ताजी को नये मेहमान को पहचानने में देर नहीं लगी। उनके बचपन के जिगरी दोस्त श्यामल के पिताजी थे।
श्यामल के पिताजी ने बताया कि वैसे तो वह कल सुबह श्री श्रमजीवी एक्सप्रेस से यहां पहुंच गये थे। लेकिन वह गलती से दूसरे अपार्टमेंट्स में सतासी नंबर के मकान में चले गए थे। दोनों अपार्टमेंट्स के नाम इतने मिलते-जुलते हैं कि पता नहीं चला। उन लोगों को भी 'कंफ्यूजन' हो गया। बाद में पता चला। लेकिन उन्होंने आने नहीं दिया। बोले कि कल सुबह पहुंचा देंगे। बहुत भले आदमी हैं। बड़ी खातिरदारी की। अभी छोड़कर गये हैं।
गुप्ताजी सुनकर अवाक खड़े रह गये।