त्रिभाषी समाचार एजेंसी यूएनआई की संघर्ष गाथा और डीयूडब्ल्यूजे का नेतृत्व

यूएनआई (यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया) को गैरकानूनी तरीके से अधिग्रहित करने और मीडिया में धांधली के खिलाफ डीयूडब्ल्यूजे ने संघर्ष का नेतृत्व किया। इस लड़ाई में पत्रकारों और कर्मचारियों की एकजुटता ने दिल्ली से लेकर अदालतों तक न्याय की आवाज बुलंद की। कई प्रमुख हस्तियों और नेताओं की भागीदारी से यह आंदोलन और भी प्रभावी बना। यह संघर्ष न केवल मीडिया की स्वतंत्रता को बचाने का था, बल्कि अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा भी है।

– चन्द्र प्रकाश झा 

अंग्रेज़ी, हिंदी, और उर्दू की त्रिभाषी समाचार एजेंसी यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया (यूएनआई) को जब उसके तत्कालीन बोर्ड अध्यक्ष और न्यू इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक मनोज कुमार सोंथालिया की मिलीभगत से गैरकानूनी तरीके से अधिग्रहित करने का प्रयास किया गया, तब यह लड़ाई केवल एक संस्था बचाने की नहीं थी। यह संघर्ष मीडिया में न्याय और पारदर्शिता स्थापित करने का था।

इस प्रयास में सबसे बड़ा विरोध उस वक्त जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा के खिलाफ हुआ, जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थन से हरियाणा से राज्यसभा चुनाव में धांधली कर जीत हासिल कर चुके थे। दिल्ली, मुंबई की सड़कों से लेकर आठ राज्यों की 18 अदालतों तक चलने वाली इस लड़ाई में डीयूडब्ल्यूजे (दिल्ली यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स) की दृढ़ता और नेतृत्व की अहम भूमिका रही। यह हमारी टीम की न्याय और समानता के प्रति अडिग प्रतिबद्धता का प्रमाण था।

डीयूडब्ल्यूजे की भूमिका और नेतृत्व

इस संघर्ष में मेरे साथ कई साथी कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। यूएनआई के पत्रकारों और गैर-पत्रकार कर्मचारियों की एकजुटता ने इस आंदोलन को ऊर्जा दी। मेरे कामरेड इन आर्म्स राजेश वर्मा ने इस लड़ाई को अमृतसर से दिल्ली तक के शांति मार्च के रूप में कवर किया। उनकी रिपोर्ट साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुई, जिसके संपादक उस समय मृणाल पांडे थीं।

इस मार्च में शामिल प्रमुख हस्तियों में यूएनआई वर्कर्स यूनियन के तत्कालीन अध्यक्ष और कृषि विशेषज्ञ सरदार जसपाल सिंह सिद्धू, पत्रकार और कवि उदय प्रकाश, और लेखक-अधिवक्ता अनिल चमड़िया भी थे।

डीयूडब्ल्यूजे के नेतृत्व ने अन्य मीडिया संस्थानों में भी मजदूर आंदोलनों को प्रेरित किया। संडे मेल जैसे अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों ने भी इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। इस दौरान मुझे अपनी छोटी बेटी को पीठ पर झोले में डालकर आंदोलन स्थल तक ले जाना पड़ा। वह बेटी आज अमेरिका के बॉस्टन में डॉक्टर बन चुकी है, लेकिन उसे मेरी संडे मेल में किए गए नारे आज भी याद हैं।

आईएफडब्ल्यूजे और अन्य सहयोगी

आईएफडब्ल्यूजे के कार्यालय में डीयूडब्ल्यूजे का भी केंद्र था। यहां सुरेश नौटियाल, मनोहर सिंह, पीयूष पंत, अनवर जमाल जैसे साथी अक्सर मौजूद रहते थे। जगह की कमी के चलते कई बार हरी घास पर बैठकर चाय और सिगरेट के दौर चलते थे।

डीयूडब्ल्यूजे के कार्यकाल में हमें कई बार केंद्र सरकार से सीधे टकराना पड़ा। एक बार मनोहर सिंह की दिल्ली परिवहन निगम की बस में हुई पिटाई के खिलाफ हमने तत्कालीन गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण को घेर लिया। इस संघर्ष में हमारे साथ यूनीवार्ता के संपादक मधुसूदन साठये भी शामिल हुए।

कुछ विवाद और राजनीतिक संदर्भ

डीयूडब्ल्यूजे से जुड़े पत्रकारों के काम और जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस दौरान हमने देखा कि कैसे कुछ प्रमुख नेता और पत्रकार अपने स्वार्थ में उलझे रहे। उदाहरण के लिए, के. विक्रम राव, जो आपातकाल के दौरान बड़ोदा डायनामाइट साजिश मामले में अभियुक्त रहे, ने आईएफडब्ल्यूजे को जर्मनी से मिली फोटोकॉपी मशीन हड़प ली।

रामबहादुर राय, जो पहले जनसत्ता में काम करते थे, को नरेंद्र मोदी सरकार ने इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स (आईजीएनसीए) का अध्यक्ष बनाया।

नर्मदेश्वर राय और अन्य प्रसंग

डीयूडब्ल्यूजे के लिए नए कार्यालय की जरूरत के संबंध में हमने पूर्वी उत्तर प्रदेश के नर्मदेश्वर राय से भी चर्चा की। वह भारत के 8वें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के करीबी माने जाते थे। राय साहब ने कई मौकों पर हमें समर्थन दिया।

रामबहादुर राय से जुड़े एक और प्रकरण में, उन्होंने यूएनआई की टेलीप्रिंटर से एक खबर अपने अखबार में छाप दी, जिससे नर्मदेश्वर राय को मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

संघर्ष से सीखा सबक

यह पूरी गाथा डीयूडब्ल्यूजे की अद्वितीय नेतृत्व क्षमता, एकता, और न्याय के प्रति समर्पण को रेखांकित करती है। यह सिर्फ अतीत की कहानी नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो अन्याय के खिलाफ खड़ा होना चाहता है।