संगीतकार शंकर के साथ कविराज शैलेन्द्र |
शैलेन्द्र का जीवन संघर्षों और समाज के लिए समर्पण का प्रतीक है। वे अपनी लेखनी से पूंजीवाद और जाति-व्यवस्था के खिलाफ खड़े हुए। उनके गीतों और कविताओं ने समाज को दिशा दी और आज भी उनकी रचनाएं प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।
एक मार्क्सवादी कवि का सफर
शैलेन्द्र की विचारधारा मार्क्सवादी थी। उनका मानना था कि कला का उद्देश्य समाज की बेहतरी के लिए होना चाहिए। 1947 में वे मथुरा से मुंबई आए और रेलवे की माटुंगा वर्कशॉप में मैकेनिक की नौकरी के साथ-साथ इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गए। इप्टा के जरिए उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ काम किया और मजदूर आंदोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई।
शैलेन्द्र की पहली किताब "न्यौता और चुनौती" 1955 में प्रकाशित हुई, जिसे पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने छापा। इस पुस्तक को मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार अन्नाभाऊ साठे को समर्पित किया गया था। इसमें उनके 32 गीत शामिल थे, जिनमें से कोई भी फिल्मी नहीं था।
शैलेन्द्र और फिल्मों का सफर
शैलेन्द्र का फिल्मी सफर राज कपूर के साथ "बरसात" (1949) फिल्म से शुरू हुआ। आर्थिक तंगी के कारण शैलेन्द्र ने राज कपूर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। "बरसात में हमसे मिले तुम सजन" जैसे गीतों ने उन्हें फिल्म जगत में एक नई पहचान दिलाई।
इसके बाद उन्होंने "श्री 420", "आवारा", और "जिस देश में गंगा बहती है" जैसी फिल्मों के लिए यादगार गीत लिखे। उन्होंने सचिन देव बर्मन, शंकर-जयकिशन, और सलिल चौधरी जैसे महान संगीतकारों के साथ काम किया। उनके लिखे गीत "सजन रे झूठ मत बोलो" और "मुन्ना बड़ा प्यारा" आज भी प्रासंगिक हैं।
"तीसरी कसम": एक कृति, एक त्रासदी
शैलेन्द्र ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी "तीसरी कसम" पर आधारित फिल्म बनाने का सपना देखा। उन्होंने फिल्म के निर्माण में अपनी पूरी पूंजी लगा दी। राज कपूर और वहीदा रहमान जैसे कलाकारों के साथ यह फिल्म बनाई गई। लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल रही और शैलेन्द्र को भारी वित्तीय नुकसान हुआ। मुख्य वितरक ने उन्हें कोर्ट में घसीटा, और इस अवसाद ने उनके जीवन को गहरा आघात दिया।
फिर भी, "तीसरी कसम" को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिला और इसे हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। शैलेन्द्र की मृत्यु से पहले उन्होंने राज कपूर की फिल्म "मेरा नाम जोकर" के लिए थीम गीत "जीना यहां, मरना यहां" लिखना शुरू किया, जिसे उनके पुत्र शैली ने पूरा किया।
राजकपूर‚ शंकर और शैलेन्द्र
जनगीत और मजदूर आंदोलन
शैलेन्द्र के लिखे गैर-फिल्मी गीत, जैसे "तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर", मजदूर आंदोलनों में क्रांति की आवाज बने। उनके गीतों ने संघर्ष और प्रेरणा का संदेश दिया। उनका लिखा नारा "हर जोर-जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है" भारत के मजदूर आंदोलनों का प्रतीक बन गया।
व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक पृष्ठभूमि
शैलेन्द्र का जन्म एक दलित परिवार में हुआ। बचपन में जातिगत भेदभाव का सामना करते हुए, उन्होंने समाज में व्याप्त असमानता को अपनी रचनाओं का केंद्र बनाया। उनके पिता सेना में थे, और परिवार मथुरा आकर बसा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मथुरा में हुई। आर्थिक कठिनाइयों के कारण उन्हें रेलवे में नौकरी करनी पड़ी।
उनकी पत्नी शकुंतला बताती हैं कि शैलेन्द्र बेहद संवेदनशील व्यक्ति थे। उनका गीत "मुन्ना बड़ा प्यारा, एक दिन मां से बोला" उनके पुत्र शैली के सवाल से प्रेरित था। यह उनके रचनात्मक व्यक्तित्व और पारिवारिक संवेदनशीलता को दर्शाता है।
सांस्कृतिक आंदोलन और शैलेन्द्र
शैलेन्द्र प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। उन्होंने हिंदी सिनेमा के गीतों में हिंदुस्तानी भाषा का बेहतरीन इस्तेमाल किया और लोकभाषा को शामिल कर गीतों को जन-जन तक पहुंचाया। "श्री 420" का गीत "मेरा जूता है जापानी" इस बात का उदाहरण है कि वे अपनी रचनाओं के जरिए संकीर्ण राष्ट्रवाद का विरोध करते थे।
शैलेन्द्र और मोहम्मद रफी
शैलेन्द्र की कविताएं और उनका प्रभाव
शैलेन्द्र की कविताएं समाजवादी विचारधारा, मजदूर वर्ग के संघर्ष, और पूंजीवाद के विरोध पर आधारित थीं। उनके गीतों में युद्धोन्माद और साम्राज्यवाद की आलोचना प्रमुख विषय रहे।
उन्होंने 19 वर्षों के करियर में 177 फिल्मों के लिए लगभग 800 गीत लिखे, जिनमें 6 भोजपुरी फिल्में भी शामिल हैं। उनकी कविताओं और गीतों का संग्रह "अंदर की आग" 2015 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उनके पुराने जनवादी गीत शामिल हैं।
जातिगत विवाद और गुंडागर्दी
शैलेन्द्र के पुत्र दिनेश शैलेन्द्र ने अपनी पुस्तक "अंदर की आग" में शैलेन्द्र की जातिगत पृष्ठभूमि का उल्लेख किया, जिससे साहित्यिक जगत में विवाद खड़ा हो गया। 2015 में उनके घर पर गुंडों द्वारा हमला किया गया, जिसमें शैलेन्द्र की हस्तलिखित कविताएं और अन्य धरोहरें लूट ली गईं।
शैलेन्द्र: भारत के पुश्किन
राज कपूर ने शैलेन्द्र को "भारत का पुश्किन" कहा था, जबकि फणीश्वरनाथ रेणु ने उन्हें "कविराज" की उपाधि दी। जगजीवन राम ने उन्हें "रविदास के बाद हिंदी के सबसे लोकप्रिय हरिजन कवि" कहा। उनकी रचनाएं सामाजिक न्याय, समानता, और मानवीय मूल्यों का प्रतीक हैं।