घरेलू हिंसा कानून : राह में हैं अभी भी कांटे – विनोद विप्लव


घरेलू हिंसा निषेध अधिनियम लागू हो तो गया है लेकिन इसे ज़मीन पर लाने में खासी दिक्कतें हैं। इस कानून के सामाजिक पक्षों की पड़ताल कर रहे हैं विनोद विप्लव 

घर की चाहरदीवारी के भीतर होने वाली हिंसा से औरतों को बचाने के मकसद से बनाया गया घरेलू हिंसा निषेध कानून, 2005 पिछले दिनों लागू कर दिया गया। इस कानून का मसौदा केन्द्र सरकार ने साल भर पहले ही तैयार कर लिया था लेकिन घरेलू हिंसा को व्यापक रूप से परिभाषित करने और कुछ और प्रावधानों को शामिल करने की मांग को देखते हुये इसके क्रियान्वयन को तब स्थगित कर दिया गया था। घरेलू हिंसा रोकने संबंधी विधेयक पिछले वर्ष अगस्त में संसद में पारित हुआ था। 13 सितंबर, 2005 को राष्ट्रपति की संस्तुति से इसे कानून को दर्जा मिला।

तबसे महिला संगठन इसे जल्द लागू कराने का प्रयास कर रहे थे। शुरू में इस कानून के तहत पति और बिना विवाह पुरुष के साथ रह रही महिलाओं को पुरुष और उसके रिश्तेदारों के हाथों हिंसा से बचाने की बात थी। लेकिन आखिरकार पत्नी व बिना विवाह साथ रह रही महिला के अलावा मां, बहन तथा अन्य महिला रिश्तेदारों को भी इसके तरह संरक्षण देने का फैसला किया गया। 



महिलाओं के खिलाफ तेजी से बढ़ रही घरेलू हिंसा के मद्देनजर इस कानून को लागू किया जाना महिलाओं को सुरक्षित वातावरण मुहैया कराने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। स्वयंसेवी संस्थायें एवं महिला संगठन लंबे अर्से से ऐसे विशेष कानून की मांग कर रहे थे जो बंद दरवाजों के पीछे होने वाले हिंसक बर्ताव को रोकने, महिलाओं को सुरक्षा दिलाने तथा दोषियों को सजा दिलाने में कारगर साबित हो सके। 

यह कानून इस मायने में महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे समाज में हिंसा की सबसे ज्यादा शिकार महिलायें ही होती हैं। उनके उत्पीड़न की सबसे ज्यादा घटनाओं में परिजनों का हाथ होता है और आरोपियों को सजा न मिल पाने की सबसे ऊंची दर औरतों के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामले में ही है। 

इस कानून के तहत घर में रह रही किसी भी महिला के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन और शरीर को कोई नुकसान या चोट पहुंचाना, शारीरिक या मानसिक कष्ट देना अथवा ऐसा करने की मंशा रखना, यौन उत्पीड़न करना, गरिमा और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना, गाली-गलौज करना, रौब जमाना, बच्चे और खासतौर पर पुत्र न होने पर ताने मारना, अपमानित करना या पीड़ा पहुंचाने की धमकी देना घरेलू हिंसा के दायरे में आयेगा । यही नहीं, महिला के आर्थिक और वित्तीय संसाधनों तथा जरूरतों को संसाधनों तथा जरूरतों को पूरा नहीं किया जाना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आएगा। इस कानून में सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि महिला जिस घर में रह रही है उसे वहां से निकाला नहीं जा सकेगा। इस कानून में पीड़ित महिला की मदद के लिए एक संरक्षण अधिकारी और गैरसरकारी संगठन की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया है। ये पीड़ित महिला की मेडिकल जांच, कानूनी सहायता, सुरक्षा और छत मुहैया कराने जैसे काम देखेंगे। कानून के तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा को दंडनीय और गैरजमानती अपराध माना गया है और अपराधी को एक साल की कैद या 20 हजार रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। इस कानून में इस बात का भी उल्लेख है कि पीड़ित महिला के पक्ष में मजिस्ट्रेट के आदेश के उल्लंघन पर क्या कार्रवाई होगी। 

घरेलू हिंसा : आंकड़ों में 

भारत में प्रतिदिन 26 वें मिनट में महिला का उत्पीड़न 

  • 34 वें मिनट में बलात्कार 
  • 42 वें मिनट में यौन उत्पीड़न 
  • 43 वें मिनट में महिला का अपहरण 
  • 93 वें मिनट में जलाई जाती है एक महिला 
  • अमेरिका में हर 18 मिनट में महिला की पिटाई 
  • कोलंबिया में महिला मरीजों में 20 प्रतिशत घरेलू हिंसा की शिकार ब्रिटेन में हर तीसरे परिवार में एक महिला उत्पीड़ित 
  • ऑस्ट्रिया में डेढ हजार तलाकशुदा महिलाओं में से 59 प्रतिशत ने घरेलू हिंसा के चलते लिया तलाक 

हमारे समाज में महिलाओं के खिलाफ सदियों से हो रहे अत्याचारों खास तौर पर घरों की चाहरदीवारी में हो रही हिंसा का सीधा संबंध पुरुष मानसिकता से है जिसके कारण पुरुष अपने को श्रेष्ठ और महिला को हीन मानता है। महिलाओं के खिलाफ जारी हिंसा को समाप्त करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारी परंपरागत सोच है और इस कारण महिलाओं के खिलाफ जारी हिंसा को रोकने के कानून को कारगर तरीके से लागू करने के लिये सबसे अधिक जरूरत परंपरागत सोच को बदलने तथा जागरूकता कायम करने की है। औरतों को सम्पत्ति, वस्तु और भोग्या मानने की मानसिकता से ग्रस्त हमारे समाज में औरतों को पीटना एवं उन्हें प्रताड़ित करना मर्दों का मूल अधिकार माना जाता है। महिलाओं को सदियों से पुरुषों के संरक्षण में रहने की सीख दी जाती रही है। यह कहा जाता रहा है कि औरत को जीवन भर किसी न किसी पुरुष के संरक्षण में रहना चाहिये। बचपन में पिता के संरक्षण में। युवावस्था में पति के संरक्षण में और बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में ऐसे में महिलायें अपने पतियों, बेटों, अथवा घर के अन्य सदस्यों के हाथों पिटना एवं उनकी क्रूरता का शिकार होना अपना नियति समझ कर चुपचाप सहती रहती हैं। यह मानसिकता आज भी नहीं बदली है। 


यह पाया गया है कि घरेलू हिंसा की शिकार महिलायें अशिक्षित या कम शिक्षित होती हैं इसलिए वे आर्थिक रूप से अपने आप को सहारा नहीं दे पातीं। अधिकतर महिलाओं के लिये पति के घर के अतिरिक्त कोई और आश्रय नहीं होता इसलिए पति के हाथों होने वाली हिंसा को सहन करती रहती हैं। पति की हिंसा की शिकार अधिकतर महिलायें अपने पिता के घर नहीं जा मृत्यु हो पाती हैं क्योंकि या तो उनके पिता की चुकी होती है या वे सामाजिक लांछन के डर से बेटी को रखने में समर्थ नहीं होते। आमतौर पर पुलिस भी घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला की कोई मदद नहीं करती। इस तरह, घरेलू हिंसा से पीड़ित ज्यादातर महिलाओं को उसी स्थिति में रहना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15-49 वर्ष की 70 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार पति और रिश्तेदारों द्वारा महिलाओं पर हिंसा के मामलों में पिछले एक साल में 9.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 

आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में घरेलू हिंसा के 55 हजार 439 मामले दर्ज हुए जिनकी संख्या वर्ष 2003 में 50 हजार 703 थी। यह हालत तो तब है जबकि घरेलू हिंसा के ज्यादातर मामले थानों तक जाते ही नहीं हैं। गरीब और अनपढ़ ही नहीं, पढ़ी-लिखी और संपन्न महिलाएं भी घरेलू हिंसा की यंत्रणा भोगती रहती हैं। घरेलू हिंसा के जो मामले दर्ज होते भी हैं उनमें से ज्यादातर में अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती। यह इस तथ्य से भी जाहिर है कि देश भर में बलात्कार के करीब 49 हजार मामले आज तक लंबित हैं। यह पाया गया है कि बलात्कार के 100 में से 84 मामलों में अपराधी पीड़ित महिला का परिचित ही होता है। बलात्कार के हर 10 में से तीन मामलों में पड़ोसी ही आरोपी होता है। 

घरेलू हिंसा निषेध कानून के तहत निम्न आचरण अपराध माने गये हैं 

शारीरिक हिंसा 

0 नौकरी करने में बाधा डालना 

0 अपने वेतन का उपभोग न करने देना 

0 घर से बाहर निकाल देना 

० मारपीट, डांटना 

0 थप्पड़ मारना 

0 धक्का देना 

0 किसी भी तरह की शारीरिक चोट पहुंचाना 

 यौन हिंसा 

0 सेक्स संबंध स्थापित करने के लिए मजबूर करना 

0 अश्लील फिल्म, साहित्य या चित्र देखने के लिए बाध्य करना अथवा ऐसी कोई हरकत करना जो महिला के सम्मान को ठेस पहुंचाती हो 

0 बालिकाओं से यौन दुर्व्यवहार करना 

आर्थिक हिंसा 

0 महिला व बच्चों को भरण-पोषण के लिए पैसा नहीं देना 

0 महिला व बच्चों को खाना, दवाइयां आदि न उपलब्ध कराना 

0 यदि किराए के मकान में रह रही है तो किराया न देना 

0 घरेलू सामान का उपयोग करने से रोकना 


मौखिक व भावनात्कम हिंसा 

0 बेइज्जत करना 

0 नाम लेकर फिकरे कसना 

0 महिला के चरित्र व कार्यों पर आक्षेप करना 

0 लड़का नहीं पैदा करने के लिए ताने देना 

0 नौकरी करने से रोकना 0 शादी के लिए बाध्य करना 0 आत्महत्या की धमकी देना 

0 अन्य कोई भी मौखिक व भावनात्मक हिंसा 


घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाने के मार्ग में जो मुख्य बाधायें हैं उनमें परंपरागत सोच, सामाजिक लांछन और आर्थिक पराधीनता के अलावा जटिल और लंबी कानूनी प्रक्रियायें भी हैं। पति के अत्याचार या घरेलू हिंसा की वजह से जो महिलायें शादी के बंधन से मुक्त होना चाहती हैं उन्हें कानून का सहारा या तो मिलता ही नहीं या लंबे समय की जद्दोजहद के बाद तब मिलता है जब उसका कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। जिन महिलाओं को शादी के बाद जान का खतरा बना रहता है उन्हें भी शादी के बंधन से आजाद होने की दिशा में कोई कानूनी मदद नहीं मिल पाती है। भारत में तलाक के लिये वैवाहिक संबंधों में न सुधरने वाली दरार होना मात्र ही पर्याप्त कारण नहीं समझा जाता। अदालतों में बच्चों के स्वामित्व को लेकर होने वाले विवादों का निपटारा भी पौराणिक तरीकों से किया जाता है। ऐसे विवादों में वैवाहिक सम्पत्ति, स्त्री धन की वापसी और गुजारा भत्ता आदि भी शामिल है जिसे स्त्री के हितों के खिलाफ ही आंका जाता रहा है। पर्याप्त जन अदालतों के अभाव में महिलाओं को तलाक के निपटारे के लिए मजबूरन पुलिस और अनुच्छेद 498-ए का सहारा लेना पड़ता है। एक गुमराह पति की स्वीकृति मात्र से भारतीय दंड गुमराह पति की स्वीकृति मात्र से भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के अनुच्छेद 498-ए के तहत तलाक नहीं मिल जाता। महिला को अदालत में जाना पड़ता है और थाने में पति के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराना पड़ता है। अगर वह अपने पति पर आर्थिक रूप से निर्भर है और यदि पति को जेल हो जाए तो गुजारा भत्ते का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। इसलिए महिलाएं सभी वैवाहिक विवादों के जल्द निपटारे के लिए अनुच्छेद 498-ए का प्रयोग करती हैं।



पति की के 81 प्रतिशत मामलों का निपटारा नहीं हो क्रूरता पाता। प्रत्येक एक लाख की जनसंख्या में पति या रिश्तेदारों की क्रूरता केमामले 4.4 फीसद दर्ज होते हैं जबकि दहेज हत्या के 0.7 और यौन उत्पीड़न के 0.9 फीसद अपराध होते हैं। इसी प्रकार पति या रिश्तेदारों की बर्बरता के मामलों में गिरफ्तारियों का प्रतिशत मात्र 10.3 है। इसलिए महिला के लिए कोई ऐसा रास्ता नहीं है जिसमें उसे आपातस्थिति में राहत मिल सके। चाहे वह हिंसा से सुरक्षा हो, पति के घर से निकाला जाना हो, पति को संपत्ति बेचने से रोकना हो, बैंक लॉकर खाली करना हो अथवा अपने बच्चों से अलग करके उनके साथ रहने का अधिकार छीनना ही क्यों न हो। परिणामस्वरूप, उत्पीड़ित महिला को अपने जायज हक से कम पर ही संतोष करने पर मजबूर होना पड़ता है। उत्पीड़न की शिकार महिलाएं आईपीसी के अनुच्छेद 498-ए के तहत मानसिक और शारीरिक बर्बरता का आपराधिक मामला दर्ज करा सकती हैं और इन्हीं के आधार पर तलाक का मामला भी दर्ज हो सकता है। लेकिन अदालती फैसला आने में लगने वाले लंबे समय के कारण महिला को आपसी सहमति के आधार पर ही तलाक लेना पड़ता है। 


जाहिर है कि घरेलू हिंसा (निरोधक) विधेयक घरेलू हिंसा से त्रस्त महिलाओं की समस्याओं को पहचानने और उन्हें राहत दिलाने की दिशा में एक अच्छा कदम साबित हो सकता है। सवाल है तो बस यह कि नया कानून कहां तक व्यावहारिक हो पायेगा। यह कानून रातोंरात नहीं बना बल्कि इसे बनाने और लागू करवाने के लिए तमाम महिला संगठनों ने खासा संघर्ष किया। और जिन संगठनों ने इसके लिए संघर्ष किया है उन्हें यह अच्छी तरह पता है कि अमलीकरण का असली संघर्ष तो इसके बाद शुरू होगा। घरेलू हिंसा निषेध कानून को किताबों से लाकर आम औरतों के लिए रोजमर्रा की जिंदगी की हिंसा से बचने की ढाल बनाना बड़ी चुनौती है। इसलिए भी कि इस रास्ते की बाधाएं ज्यादा बड़ी हैं और इसलिए भी कि किसी राजनीतिक संघर्ष से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है परंपरानिष्ठ समाज की मान्यताओं से लड़ना । जरूरी है कि इस कानून का इस्तेमाल किसी हथियार की तरह करने और प्रतिघात न्योतने के बजाय इसे औरतों के सशक्तिकरण की सकारात्मक मुहिम का हिस्सा बनाया जाए। 

आमतौर पर औरतें घरेलू हिंसा समेत बहुत सारे अन्याय अपनी किस्मत का हिस्सा मानकर सहती रहती हैं। ऐसे कानून तभी कारगर हो सकते हैं, जब पीड़ित पक्ष को यह जानकारी ही नहीं बल्कि यह भरोसा भी दिलाया जाए कि अन्याय उसकी किस्मत नहीं है। उसे इससे मुक्ति मिल सकती है और इस मामले में उसकी मदद के लिए न सिर्फ कानून वरन पूरी सामाजिक व्यवस्था उसके साथ है। स्त्री अधिकार को लेकर संवेदनशील सामाजिक व्यवस्था बनाना और उसका भरोसा दिलाना कानून बनाने जितना ही महत्वपूर्ण है ताकि उत्पीड़िता को यह न लगे कि यदि वह कानून का इस्तेमाल करती है तो पूरा जमाना उसका दुश्मन बन जाएगा। उसे यह भरोसा रहे कि कानून का इतेमाल करने के बाद भी वह समाज में सम्मान से जी सकेगी। इसके साथ ही जरूरी है उस मशीनरी की मानसिकता को बदलना, जो इसे निचले स्तर पर लागू करेगी। मसलन बलात्कार के मामलों में अक्सर यह शिकायत रहती है कि जब कोई पीड़ित औरत थाने रपट लिखाने जाती है तो वहां उसे सहानुभूति के बजाय अक्सर उसी नजर से देखा जाता है जिस नजर से बलात्कार करने वालों ने देखा था। घरेलू हिंसा के मामलों में भी ऐसे ही खतरे हैं। एक लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए हमें ऐसी तमाम छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़नी होंगी। घरेलू हिंसा निषेध कानून तो इस दिशा में एक कदम आगे भर है। 



घरेलू हिंसा कानून के बनने के मौके पर लिखा लेख जो कॉम्बैट लॉ में 2006 में अक्तूबर-नवंबर के अंक में प्रकाशित हुआ था। 


This article (On The Domestic Violence Prevention Act ) written by Journalist and writer Vinod Viplav and was published in Combat Law Magazine.