■ विनोद विप्लव
अमिताभ बच्चन की पहली और दूसरी फिल्मी पारी तथा जीवन के उतार-चढ़ावों के बीच राजनीति व राजनेताओं के साथ उनके अच्छे-बुरे रिश्तों पर एक नजर ।
दूसरी कहावत यह है कि 'बॉलीवुड में केवल उगते हुए सूरज की ही पूजा होती है, डूबते हुए सूरज को कोई पूछता नहीं'। अमिताभ बच्चन के मामले में ये दोनों कहावतें सौ फीसदी सही साबित होती हैं। आज अमिताभ बच्चन बॉलीवुड के शहंशाह बने हुए हैं। उनकी फिल्म नगरी में तूती बोलती है। बॉलीवुड ही क्या पूरा का पूरा मीडिया उन्हें एवं उनके परिवार को सिर आंखों पर बिठाए हुए है। मीडिया के लिए अमिताभ बच्चन और उनके परिवार की खुशी और गम ही सबसे बड़ी खबर हैं। उन्हें छींक भी आ जाए तो बॉलीवुड और मीडिया वालों की सांसें ऊपर-नीचे होने लगती हैं। आज बड़े से बड़े निर्माता-निर्देशक उन्हें लेकर फिल्म बनाना अपना सौभाग्य समझते हैं। आज मीडिया अमिताभ के स्तुति गान में इस कदर डूबा है कि शायद ही किसी को इस बात का ख्याल हो कि एक ऐसा भी दौर गुजरा है जब अमिताभ बच्चन नाम के इसी शख्स से निर्माता-निर्देशक कन्नी काटते थे, मीडिया में कोई नाम लेता नहीं था और दर्शकों ने उनकी फिल्मों से किनारा कर लिया था। आज करोड़ों में खेलने वाला यह शख्स कभी पैसे- पैसे का मोहताज था और उसके लिए अपने मकान बेचने को भी तैयार हो गया था।
सामान्य फिल्मी हस्तियों के मामले में यहां तक की कहानी के आगे कुछ खास नहीं होता है। ऐसी कहानियां कई बड़ी-बड़ी फिल्मी हस्तियों के बारे में हम सुनते आए हैं। भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के को अपने जीवन के अंतिम दिनों में भीख मांग कर गुजारा करना पड़ा था। सुरों के बादशाह ओ.पी. नैयर को अपने जीवन के अंतिम वर्षो में अपनी एक प्रशंसक के यहां बतौर पेइंग गेस्ट रहना पड़ा था। बात-बात में रुपए लुटाने वाले मोतीलाल को अपना अंतिम जीवन घोर मुफलिसी में काटना पड़ा था। सुरों की कोकिला सुरैया, जिसे देखने के लिए लोग सड़क जाम कर देते थे, की जीवन लीला गुमनामी में खत्म हुई। फिल्मी दुनिया का इतिहास ऐसी कहानियों एवं मिसालों से भरा पड़ा है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होता अगर अमिताभ बच्चन का नाम भी इन्हीं हस्तियों की सूची में शामिल हो जाता। लेकिन, अमिताभ बच्चन जिस शख्स का नाम है वह फीनिक्स पक्षी की तरह है जो अपनी ही राख से जी उठता है। अमिताभ बच्चन के कैरियर का दूसरा अध्याय फीनिक्स पक्षी की तरह बर्बादी से उठकर कामयाबी के आकाश में उड़ान भरने का अध्याय है।
1969 में सात हिंदुस्तानी से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अमिताभ बच्चन को इस माया नगरी में स्थापित होने के लिए अन्य लोगों की तरह काफी पापड़ बेलने पड़े थे।
उन्हें लंबू बोतल कहकर काम देने से इंकार कर दिया जाता था। उनकी जिस आवाज की मौजूदा पीढ़ी दीवानी है, वही आवाज आकाशवाणी की अदद नौकरी के लिए नाकाबिल समझी गई थी और यही आवाज उस समय के निर्माता-निर्देशकों की नजर में उनकी सबसे बड़ी खामी थी। यही कारण है कि रेशमा और शेरा में उन्हें गूंगे की भूमिका दी गई थी। सात हिंदुस्तानी बॉक्स ऑफिस पर पिट गई, लेकिन इसके बाद 1970 में उन्होंने अपने समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ आनंद में काम किया जो समीक्षकों द्वारा सराही गई तथा व्यावसायिक रूप से सफल रही।
इस फिल्म में हालांकि वह सहायक अभिनय में थे, लेकिन दमदार अभिनय की बदौलत उन्होंने अपनी पहचान बनाई। उन्हें इस अभिनय के लिए फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर अवॉर्ड से नवाजा गया। इस फिल्म के बाद अमिताभ ने 1971 में रेशमा और शेरा तथा निःशब्द जिसे लेकर काफी शोर मचा। लोगों को इस बात का मलाल था कि भारतीय संस्कृति के मूल्यों को तार-तार करने वाली फिल्म उन्होंने स्वीकार क्यों की? वैसे लोगों की यह अपेक्षा बेमानी भी नहीं थी। निजी जीवन में पारिवारिक मूल्यों का निर्वहन करने वाले अमिताभ से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे अपनी फिल्मों में भी ज्यादा नहीं, तो थोड़ा ही सही, इस मूल्य का निर्वाह करें। निःशब्द का शोर अभी थमा भी नहीं था कि उनकी एक और फिल्म चीनी कम प्रदर्शित हो गई। इस फिल्म की कहानी भी अधिक उम्र के पुरुष परवाना जैसी कई फिल्मों में काम किया लेकिन ये सभी फिल्में फ्लॉप रही। इसके बाद 1973 में प्रकाश मेहरा ने उन्हें फिल्म जंजीर में एक ईमानदार एवं विद्रोही पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका सौंपी और यहीं से फिल्म जगत के आकाश में एक धूमकेतु का उदय हुआ जो अगले कई दशकों तक अपनी चमक से चकाचौंध करता रहा। जंजीर में उनकी छवि उस समय की फिल्मों में नायकों की परंपरागत रोमांटिक छवि से बिल्कुल उलट थी और इसकी बदौलत उन्होंने एंग्री यंग मैन के रूप में अपने को स्थापित किया। इसके बाद 1975 में दीवार और शोले, 1978 में त्रिशूल, मुकद्दर का सिकंदर, डॉन और कसमे वादे, 1979 में काला पत्थर और 1981 में लावारिस जैसी फिल्मों में उन्होंने अपनी एंग्री यंग मैन की छवि को और पुख्ता किया।
इस बीच अमिताभ ने एक्शन भूमिकाओं के साथ हल्की-फुल्की भूमिकाएं भी कीं। मिसाल के तौर पर 1975 में चुपके-चुपके, 1977 में अमर अकबर एंथोनी और 1982 में नमक हलाल। 1976 में कभी- कभी तथा 1981 में सिलसिला में अपनी रोमांटिक भूमिकाओं में भी वे सफल रहे। उस समय तक वह अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच चुके थे। इसके बाद उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 1982 में फिल्म कुली में एक फाइटिंग सीन करने के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके बाद वह जीवन और मौत से जूझते हुए कई माह तक अस्पताल में रहे। पूरी तरह स्वस्थ होने के बाद उन्होंने इस फिल्म को पूरा किया। यह फिल्म 1983 में रिलीज हुई। निर्देशक मनमोहन देसाई ने उस सीन को फ्रीज करके दिखाया था जिसमें वह मुक्के की चोट खाकर गंभीर रूप से घायल होते हैं। इस दुर्घटना के कारण इस फिल्म को मिला भयानक प्रचार एवं लोगों की संवेदना के कारण यह फिल्म आश्चर्यजनक रूप से हिट रही।
1984 में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री और अपने दोस्त राजीव गांधी के कहने पर इलाहाबाद संसदीय सीट से हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ चुनाव लड़ा और 68 प्रतिशत से अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल की। लेकिन, तीन साल बाद ही बोफोर्स कांड के कारण उन्होंने लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया। हालांकि बाद में वह इस मामले में पाक-साफ साबित हो गए, लेकिन इसके बाद उन्होंने गांधी परिवार से 1999 में इन मकानों की बिक्री पर तब तक के लिए किनारा कर लिया।
राजनीति के कारण उन्हें तीन साल तक अभिनय से संन्यास लेना पड़ा था। वर्ष 1988 में उन्होंने फिल्म शहंशाह से वापसी की। उनकी वापसी को लेकर पैदा हुई जिज्ञासा की बदौलत यह फिल्म हिट रही, लेकिन उनका स्टार मूल्य गिरता गया। उनकी आगे की कई फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर विफलता का स्वाद चखना पड़ा। हालांकि 1991 में उनकी फिल्म हम सफल रही लेकिन यह सफलता क्षणिक ही साबित हुई और उनकी फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर पिटना जारी रहा। अनेक विफल फिल्मों के बाद भी 1990 में अग्निपथ में माफिया डॉन के रूप में दमदार भूमिका के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया, लेकिन एक तरह से वह पर्दे से गायब हो गए। हालांकि 1992 में उनकी फिल्म खुदा गवाह रिलीज हुई, लेकिन इसके बाद वे पांच वर्षों के लिए पर्दे से फिर दूर हो गए। हालांकि 1994 में उनकी रुकी हुई एक फिल्म इंसानियत रिलीज हुई, लेकिन यह भी बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही।
बच्चन ने 2000 से अपने फिल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय शुरू किया। शायद कम अभिनेता हों जो इस उम्र पर पहुंचने और भयानक आर्थिक संकटों में पड़ने के बाद भी पस्त नहीं होने का माद्दा रखते हों। उन्हें टूटना मंजूर नहीं था, लेकिन न टूटने की जिद में उन्हें बहुत अधिक झुकना पड़ा इतना अधिक कि उनके कई चहेतों को उनसे नफरत होने लगी।
अमिताभ बच्चन ने 2003 में अपने 61 वें जन्म दिन पर एबीसीएल को एबी कोर्प के रूप में दोबारा लांच करने के बाद कहा था, 'मेरे सिर पर हमेशा एक तलवार लटकती रहती थी। कई रातें सोए बगैर काटी। एक दिन मैं तड़के उठा और सीधे यश चोपड़ा जी के घर गया। मैंने उन्हें कहा कि मैं दिवालिया हो चुका हूं। मेरे पास कोई फिल्म नहीं है। नई दिल्ली में मेरा मकान और मेरी जो थोड़ी-बहुत संपत्ति है उसे CROREPATI गिरवी रख लिया गया है। यश जी ने मेरी बातों को शांति के साथ सुना और अपनी फिल्म मोहब्बतें में काम दिया। इसके बाद मैंने विज्ञापनों, टेलीविजन एवं फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया। आज मुझे कहते हुए खुशी है कि मैंने 90 करोड़ का सारा कर्ज उतार दिया और मैं नए सिरे से शुरुआत कर रहा हूं।'
मोहब्बतें बॉक्स ऑफिस पर हिट रही और इस फिल्म के साथ अमिताभ के फिल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। आज अमिताभ बच्चन के पास काम की भरमार है। अकूत संपत्ति के मालिक हैं। लेकिन इसके बाद भी पैसे कमाने के लिए हर काम करने के लिए उतावले दिखते हैं। जया बच्चन द्वारा राज्य सभा के लिए भरे गए नामांकन पत्र के अनुसार अमिताभ एवं जया के पास 2 अरब 27 करोड़ रुपए की संपत्ति है। जया के पास दो गाड़ियां हैं जबकि अमिताभ के पास बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज बेंज और टोयोटा लैंड क्रूजर जैसी 11 गाड़ियां हैं। बेनामी और अज्ञात संपत्ति का तो कोई हिसाब ही नहीं है।
आज अमिताभ बच्चन जिस तरह का जीवन जी रहे हैं उस पर हैरत ही की जा सकती है। जिस शख्स के पास अरबों रुपए की संपत्ति हो, उस पर बार-बार टैक्स चोरी, जमीन खरीदने के लिए कागजों में हेराफेरी और अन्य भ्रष्ट तरीके अपनाने के आरोप लगे तो यह साफ है कि आज वह कलाकार कम व्यापारी ज्यादा है। निःशब्द, कभी अलविदा ना कहना और बंटी और बबली जैसी फिल्मों में वह जिस तरह की भूमिकाएं कर रहे हैं उससे यह सवाल उठता है कि सिनेमा को वह कहां ले जाना चाहते हैं। साफ है कि आज अमिताभ बच्चन वह एंग्री यंग मैन नहीं रहे जो किसी भी तरह की बेईमानी, अत्याचार, और भ्रष्टाचार से लड़ने का संदेश देता था बल्कि आज वह खुद पैसे और शोहरत के लिए बेईमानी और भ्रष्टाचार में डूब गया है। किसी भी कीमत पर समझौते नहीं करने का पाठ पढ़ने वाला अभिनेता आज अपने और अपने परिवार के लिए तरह-तरह के समझौते कर रहा है।
अमिताभ बच्चन की हकीकतों को खोलता विनोद विप्लव का यह लेख आज से करीब 17 साल पहले सीनियर इंडिया मैग्जीन के 15 जून, 2007 के अंक में प्रकाशित हुआ था।
लेखक के बारे में –
विनोद कुमार मशहूर फिल्म लेखक और पत्रकार हैं जिन्होंने सिनेमा जगत की कई हस्तियों पर कई पुस्तकें लिखी हैं। इन पुस्तकों में ʺमेरी आवाज सुनोʺ‚ ʺसिनेमा के 150 सितारेʺ‚ ʺरफी की दुनियाʺ के अलावा देवानंद‚ दिलीप कुमार और राज कपूर की जीवनी आदि शामिल हैं। वह विनोद विप्लव के उपनाम से भी लिखते हैं।
मूल शीर्षक – एंग्री यंग मैन से हंग्री ओल्ड मैन
सीनियर इंडिया 15 जून, 2007
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