दुर्लभ रोगों पर अनुसंधान के लिए एक वैज्ञानिक एजेंडा के विकास कैसे हो

दुर्लभ बीमारियों को किसी दिए गए देश में जनसंख्या पर आधारित पीड़ित रोगियों की संख्या से परिभाषित किया गया है। दुर्लभ बीमारी की परिभाषा पर कोई आम सहमति नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी दुर्लभ बीमारी के होने की आवृत्ति की अनुमानित विश्वसनीय आंकड़े को प्राप्त करने, जैसे कि दुर्लभ बीमारी के प्रसार के आंकड़े को प्राप्त करने के लिए प्रायः अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। किसी दुर्लभ बीमारी की परिभाषा की सीमा और उसकी अनियंत्रित प्रकृति की पहचान करने के लिए, हम विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा परिभाषित परिभाषा का उपयोग कर सकते हैं: दुर्लभ बीमारी एक ऐसी बीमारी है जिसका किसी भी देश या क्षेत्र में प्रसार 10,000 लोगों में से 1 से कम हो। अगर हमारे पास गहराई से डेटा उपलब्ध हो, तो यह परिभाषा बदलने की आवश्यकता हो सकती है।


अनुमान लगाया गया है कि दुनिया भर में लगभग 7000 दुर्लभ रोग हो सकते हैं, हालांकि इस अनुमान का आधार अस्पष्ट है। भारत में केवल 400 दुर्लभ रोगों का दस्तावेजीकरण किया गया है। इन रोगों के निदान के बारे में समस्या को देखते हुए, संख्या मोटे तौर पर अनुमान के मुताबिक ही प्रतीत होती है। बच्चे दुर्लभ बीमारियों से सबसे अधिक पीड़ित होते हैं, क्योंकि लगभग 50 प्रतिषत रोगी 5 वर्ष के आयु वर्ग से कम के हो सकते हैं। हालांकि ये रोग व्यक्तिगत रूप से कभी- कभार ही हो सकते हैं, लेकिन ये सभी एक साथ मिलकर अलग- अलग आबादी के 5-7 प्रतिषत को प्रभावित कर सकती हैं, ये भारत के लिए भी लागू हो सकते हैं।


80 प्रतिषत से अधिक दुर्लभ रोगों में एक आनुवंशिक आधार होता है। यह जटिल आनुवंशिकता के साथ कई जीनों की भागीदारी से उत्पन्न सामान्य मेंडेलियन आनुवांषिकता के मोनोजेनिक के अनुसार अलग- अलग होता है। समस्या इस तथ्य से जुड़ी है कि यहां तक कि एक ही रोग के लिए एक ही जीन में उत्परिवर्तन की व्यापक विविधता होती है। इसके कारण इसके निदान में काफी समस्याएं आती है। इसके अलावा, इन रोगों में से अधिकतर रोगों के लिए कोई चिकित्सा उपलब्ध नहीं है जिसके कारण रोग और मृत्यु दर अधिक हो सकती है। कई दुर्लभ रोग रोगजनकों के कारण हो सकते हैं। हालांकि कई लोग इन रोगजनकों से संक्रमित होते हैं, लेकिन केवल कुछ लोगों में इसके लक्षण प्रकट होते हैं।


दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित रोगियों द्वारा सामना की जाने वाली समस्याएं अज्ञानता के कारण होते हैं। इन बीमारियों को लेकर न केवल आम जनता में, बल्कि क्लिनिकल और अनुसंधान कर्मियों में भी अज्ञानता है। इन बीमारियों के कम संख्या में होने के कारण इनके निदान के तरीकों और इलाज विकसित करने में कंपनियों में रुचि नहीं है जिसके कारण रोगियों के लाभ के लिए नए तरीकों और प्रौद्योगिकियों के उद्भव में बाधा उत्पन्न हो रही है। इसके अलावा, कठोर और कड़े विनियामक तंत्र इलाज को प्रयोगशाला से रोगियों तक तेजी से आने की अनुमति नहीं देता है। चूंकि इन रोगों में से अधिकांश रोग डिजनरेटिव हैं, इसलिए रोगियों को उचित उपचार नहीं मिलने पर रोगियों की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जाती है।, हालांकि एक रोग से दूसरे रोग के कारकों मंे अंतर होता है,, इसलिए एक इलाज सभी रोगों के प्रबंधन के लिए काम नहीं कर सकता है।


दुर्लभ रोगों के रोगियों की सहायता करने के लिए एक रणनीति विकसित करने के लिए, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली में 22 से 23 अप्रैल, 2016 तक एक कार्यशाला आयोजित की गई थी। बैठक में डॉ. वी. एम. काटोच, एफएनए, पूर्व डीजी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद एवं सचिव, स्वास्थ्य अनुसंधान; डॉ. पी. पी. मजूमदार, एफएनए, नेशनल बायोमेडिकल जीनोमिक्स इंस्टीट्यूट, कल्याणी और प्रोफेसर आलोक भट्टाचार्य, एफएनए, स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेस एंड स्कूल ऑफ कम्प्यूटेशनल एंड इंटिग्रेटिव साइंसेस, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली उपस्थित थे। कार्यशाला का उद्घाटन प्रोफेसर पी.एन. टंडन ने किया और इसमें इस क्षेत्र में काम करने वाले और दुनिया भर से 100 से अधिक चिकित्सकों, शोधकर्ताओं, सरकारी अधिकारियों, फार्मा उद्योग और गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों, मरीजों और छात्रों ने भाग लिया। 


भारत में महिलाओं में पित्ताशय का कैंसर पाचन अंगों का सबसे आम कैंसर है


* पित्ताशय के कैंसर की घटनाओं में पिछले कुछ वर्षों में उत्तरी भारत के शहरों में काफी वृद्धि हुई है
* डाक्टरों का कहना है कि आहार, मोटापा और अस्वास्थ्यकर जीवनशैली से बढ़ते हैं इस रोग के जोखिम 




आप क्या हाल में अपने पेट के ऊपर दाहिनी ओर तीव्र दर्द जैसी सनसनी को महसूस कर रहे हैं? क्या आपको बिना किसी स्पष्ट कारण के लिए भूख की इच्छा में कमी महसूस हो रही है या आप पाचन संबंधी समस्याओं का सामना कर रहे हैं? आप बहुत ज्यादा जंक फूड या स्ट्रीट फूड खाते हैं? अगर ऐसा है तो आपको पित्ताशय का कैंसर (जीबीसी) होने का खतरा हो सकता है। यह आपके पाचन तंत्र का एक बेहद घातक कैंसर है। 
वेंकटेश्वर अस्पताल, दिल्ली के डॉक्टरों का कहना है कि भारत में पिछले दषक के दौरान, पित्ताशय के कैंसर के मामलों का तेजी से पता चल रहा है, खास तौर पर देष के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में। यह कैंसर देष के उत्तरी और पूर्वोत्तर राज्यों - उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम में सबसे अधिक प्रचलित है। लेकिन शायद अधिक चैंकाने वाली बात यह है कि यह बीमारी महिलाओं में अधिक व्याप्त नजर आ रही है। पुरुशों की तुलना में यह महिलाओं में दोगुना अधिक व्याप्त है। आज से दस साल पहले यह कैंसर भारत में दुर्लभ किस्म के कैंसर में गिना जाता था। लेकिन मौजूदा समय में भारत में प्रति एक लाख की आबादी में इसके 7 से 9 मामले दर्ज किए जा रहे हैं। यह भारत में महिलाओं में पाचन तंत्र का सबसे आम कैंसर है।
हास्पीटल के गैस्ट्रो और हेपैटो-पैंक्रिएटो बाइलरी सर्जरी विभाग के प्रमुख डा. अनुपम साहा कहते हैं, ''पित्ताशय छोटी नाशपाती के आकार का अंग है जो जिगर के नीचे पेट के दांये तरफ स्थित होता है। यह पाचन तरल पदार्थों का संचय करने एवं उसे सान्द्र बनाने में मदद करता है। जब हम भोजन ग्रहण करते हैं तो यह छोटी आंत में प्रवेश करता है। उस समय पित्ताशय सिकृडता है और पित्त उत्सर्जित करता है जो भोजन को आसानी से पचने में मदद करती है। पित्ताशय कैंसर होने पर पेट में दर्द या पीलिया हो सकता है या कोई अस्पष्ट लक्षण हो सकता है जैसे पेट के उपरी हिस्से में अस्पश्ट दर्द या दिक्कत।'' 
पित्त की पथरी पित्ताशय के कैंसर का सबसे महत्वपूर्ण जोखिम कारक मानी जाती है। अल्ट्रासाउंड परीक्षण में पुरुषों में पित्त की पथरी की व्यापकता 1.99 प्रतिषत और महिलाओं में 5.59 प्रतिषत पाई गई। अक्सर पित्त की पथरी पित्ताषय के कैंसर के 60 से 90 प्रतिषत मरीजों में मौजूद होती है। 
पित्ताशय का पुराना संक्रमण भी पित्ताशय के कैंसर के बढ़ने के लिए जिम्मेदार है। 
पित्ताशय की पथरी और संक्रमण के अलावा, जीवन शैली संबंधी कारक भी इस रोग के जोखिम कारक माने जाते है। इनमें मोटापा, आहार में फल, सब्जियों और फाइबर की कमी, धूम्रपान और शराब का सेवन आदि शामिल हैं।
डा. अनुपम साहा कहते हैं, ''शहरों में महिलाओं की बात आती है तो मोटापा संभवतः पित्ताशय के कैंसर का सर्वाधिक उल्लेखनीय जोखिम कारक है। मोटापे का संबंध आंत में उल्लेखनीय मेटाबोलिक एवं हार्मोन संबंधी गड़बड़ियों के अलावा पित्त की पथरी के बढ़े हुए खतरे से है जो इस कैंसर के खतरे को बढ़ाते हैं। दूसरी तरफ अगर आपके आहार में कम फाइबर, सब्जियां एवं फल हंै तो आपको पित्ताषय के कैंसर का खतरा हो सकता है।'' 
डा. अनुपम साहा कहते हैं, ''पित्ताषय के कैंसर की प्रकृति बहुत ही आक्रामक होती है और दुर्भाग्य से अनेक मरीजों को इस कैंसर के बहुत अधिक बढ़ जाने पर अस्पताल ले जाया जाता है। प्रारंभिक चरणों में पित्ताशय के कैंसर के लक्षण अस्पष्ट होते हैं। इसमें पेट के दायें हिस्से में ऊपर की ओर अस्पष्ट तकलीफ अथवा दर्द हो सकता है। जब यह रोग बढ़ जाता है तो गंभीर स्थिति में पीलिया या गांठ प्रकट हो सकता है। अगर इस बीमारी का पहले पता चल जाए तो पित्ताशय के कैंसर का उपचार संभव हो जाता है। उपचार के तरीकों में लीवर के कुछ हिस्से के साथ-साथ पित्ताशय को शल्य क्रिया के जरिए सर्जिकल रिसेक्षन षािमल है। इसके अलावा दवाओं और रेडियोथेरेपी की सलाह दी जा सकती है।'' 
इसलिए, अगर आपको पित्ताषय के कैंसर के एक या अधिक लक्षण नजर आए तो तत्काल गैस्ट्रो आंत्र सर्जन से सलाह ली जा सकती है जो इमेजिंग और बायोप्सी जैसे आगे के परीक्षणों की सलाह दे सकते हैं।
यहाँ पित्ताशय के कैंसर की रोकथाम के लिए कुछ टिप्स दिए जा रहे हैं:
- बने-बनाए आहार की जगह पर अनाज एवं साबुत खाद्यान्न से भरपूर स्वस्थ आहार लें। रोजाना फल और सब्जियां खायें तथा वसा के सेवन में कटौती करें। 
- अगर आप 40 साल से ऊपर के हैं तो प्रसंस्कृत खाद्य और लाल मांस के सेवन में कमी लाएं। 
- रोजाना कुछ तरह के व्यायाम करें तथा सक्रिय जीवन जीएं। 
- पेट में दर्द या गांठ जैसे किसी भी बुनियादी लक्षण की उपेक्षा न करें। अगर आपको हैपेटाइटिस संक्रमण हुआ है तो विषेश सावधानी बरतें। 
-  धूम्रपान और अस्वस्थ जीवन शैली छोड़ दंे। यह लगभग सभी तरह के कैंसर के खतरे को बढ़ाता है। 


मेट्रो शहरों में फेफड़ों के कैंसर के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार माने वाले धूम्रपान की जगह अब तेजी से विषाक्त हवा ले रही है


- भारत के अत्यधिक प्रदूषित मेट्रो शहरों में आप धूम्रपान किए बगैर ही फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित हो सकते हैं। 
- हवा में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में प्रति क्यूबिक मीटर सिर्फ 10 माइक्रोग्राम की वृद्धि मात्र से ही फेफड़ों के कैंसर का खतरा 8 प्रतिषत तक बढ़ सकता है।
- पश्चिमी देशों में अध्ययन में पाया है कि फेफड़ों के कैंसर वैसे स्थानों के निवासियों में अधिक पाये जाते हैं जहां की बाहरी हवा प्रदूषित है।



भारत के प्रमुख शहरों में खराब वायु गुणवत्ता एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभर रही है। चिकित्सकों का कहना है कि पर्यावरण में विषाक्त पार्टिकुलेट पदार्थों की मात्रा बढ़ने के कारण, विषाक्त हवा ने फेफड़ों के कैंसर के लिए प्रमुख जोखिम कारक धूम्रपान की जगह ले ली है।
अपोलो ग्लेनीग्लेस अस्पताल, कोलकाता के कंसल्टेंट मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट डॉ. पी. एन. महापात्रा ने कहा, ''अब तक, धूम्रपान फेफड़ों के कैंसर के लिए सबसे महत्वपूर्ण जोखिम कारक के रूप में माना जाता था। वास्तव में, यह अनुमान लगाया गया है कि 80 प्रतिषत फेफड़ों के कैंसर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तम्बाकू धूम्रपान के कारण होते हैं। हालांकि, प्रमुख मेट्रो शहरों में रहने वाले लोगों को वाहनों से होने वाले अत्यधिक प्रदूषण के संपर्क में भी रहना पड़ता है, जिसके कारण उनके फेफड़े में खराब हवा जाती है जो एक दिन में कई सिगरेट धूम्रपान के बराबर है।''
कोलकाता की हवा पहले से ही खराब है और दीवाली में लाखों पटाखे फोड़े जाने के कारण हवा में पार्टिकुलेट मैटर के बढ़ने के कारण हवा और भी खराब हो गयी है।
2015 में, चीन में चिकित्सा विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की थी कि चीन में वर्ष 2020 तक हर साल फेफड़ों के कैंसर के 800,000 नए मामलों का पता चलेगा। वहां देश की खराब हो रही हवा की गुणवत्ता फेफड़ों के कैंसर में भारी वृद्धि का एक प्रमुख कारण बनती जा रही है।
टीएमसी, कोलकाता के कंसल्टेंट मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट डाॅ. दीपक दाबकर ने कहा, ''हालांकि हमने अभी तक भारत में इस तरह का विश्लेषण नहीं किया है, लेकिन चिकित्सा समुदाय में इस बात को लेकर आम सहमति है कि दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता जैसे प्रमुख महानगरों में साँस के जरिए ली जा रही विषाक्त हवा फेफड़ों के कैंसर के मामलों में बढ़ोतरी में प्रमुख योगदान दे रही है। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि धूम्रपान नहीं करने वालों में फेफड़ों के कैंसर के मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। क्लीनिकल साक्ष्यों से पता चलता है कि 20 साल पहले की तुलना में, न केवल फेफड़ों के कैंसर के मामलों में काफी हद तक वृद्धि हुई है बल्कि धूम्रपान नहीं करने वाले लोगांे में भी यह बीमारी होने के मामलों में लगभग 10 प्रतिषत की वृद्धि हुई है। ।
वर्ष 2015 में भारत में सभी मेट्रो शहरों में फेफड़ों के स्वास्थ्य पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि कोलकाता में 35 प्रतिषत लोगांे के फेफड़ों की क्षमता कम है। उनमें से 9 प्रतिषत लोगों के फेफड़ों की स्थिति 'खराब' है।
डाॅ. महापात्र ने कहा, ''द इंटरनेषनल एजेंसी फाॅर रिसर्च आॅन कैंसर (आईएआरसी) ने बाहरी वायु प्रदूशण को पहले से ही कैसरजन के रूप में घोषणा की है। द ग्लोबल बर्डेन आफफ डिजीज प्रोजेक्ट 2010 ने दुनिया में फेफड़ों के कैंसर के 223,000 मामलों सहित 32 लाख लोगों की मृत्यु के लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया है। 2013 में, आईएआरसी समर्थित एक विशेषज्ञ पैनल ने निष्कर्ष निकाला कि आउटडोर वायु प्रदूषण लोगों में कैंसर का कारण बन सकती है, यह कहने के लिए पर्याप्त सबूत हैं। ऐसा माना जाता है कि पीएम  2.5 के नाम से जाना जाने वाला वायु प्रदूषण का विषिश्ट भाग (ठोस धूल के कणों, या 'पार्टिकुलेट मैटर', जो  एक मीटर के 2.5 मिलियनवां भाग से भी कम हो) बाहरी हवा में कैंसर पैदा करने वाला प्रमुख घटक है।''
इससे होने वाला जोखिम वायु प्रदूषण के स्तर पर निर्भर करता है जिसके संपर्क मेें लोग नियमित रूप से रहते हैं। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाषित एक अध्ययन के अनुसार, हवा में पार्टिकुलेट मैटर में प्रति घन मीटर मात्र 10 माइक्रोग्राम की वृद्धि होने पर फेफड़ों के कैंसर होने की संभावना 8 प्रतिशत बढ़ सकती है। 
डाॅ. दाबकर ने कहा, ''पर्यावरण के लिए खतरनाक बन रहे इस जोखिम कारक से मुख्य रूप से शिकार बच्चे हो रहे हैं, जो न केवल क्रोनिक रेसपाइरेटरी डिसआर्डर से पीड़ित हो रहे हैं बल्कि विशाक्त हवा की सांस लेने के कारण उनमें फेफड़ों के कैंसर का खतरा भी बढ़ रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे बच्चों को हमारी पीढ़ी द्वारा बोये गये बीमारियों के जहरीले फल को काटना पड़ेगा।''
सरकार को इस पर एक स्वास्थ्य आपात स्थिति के रूप में विचार करने और प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सख्य उपायों को आरंभ करने की जरूरत है जिनमें सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं में सुधार करना और डीजल वाहनों की चरणबद्ध तरीके से हटाना षामिल है। साथ ही, हमें व्यक्तिगत नागरिक के तौर पर अधिक सक्रिय होने की जरूरत है। हमें पटाखे फोड़ने से बचने और सक्रिय रूप से कार-पूलिंग को अपनाने के लिए शपथ लेनी चाहिए।


महिलायें कैसे करें अपनी आंखों की हिफाजत 

जगमगाती, सुंदर आँखें किसी महिला की सबसे बेशकीमती धरोहर हो सकती है। हालांकि कोई भी व्यक्ति आंखों की बीमारियों से ग्रस्त हो सकता है, लेकिन महिलाएं विशेषकर गर्भावस्था के दौरान और रजोनिवृति के बाद पुरुषों की तुलना में आंखों की बीमारियों के प्रति अधिक ग्रस्त हो सकती है। इसलिए महिलाओं को आंखों की देखभाल को लेकर अतिरिक्त सतर्क रहने की जरूरत है। इसलिए आपको अपनी आंखों की विशेष देखभाल करने के लिए समय निकालने की जरूरत है।
मोतियाबिंद
मोतियाबिंद में आंख के लेंस में धुधलापन आ जाता है, जिसके कारण दृष्टि धुधली और अस्पष्ट हो जाती है। विटामिन ई, विटामिन सी और बीटा कैरोटीन सप्लिमेंट मोतियाबिंद के खतरे को कम करने में मदद करते हैं। रजोनिवृत्ति के बाद, एस्ट्रोजन सप्लिमेंट भी मोतियाबिंद के खतरे को कम कर सकते हैं। यह स्थिति दृष्टि को बहुत नुकसान पहुंचाती है और यह उम्रदराज लोगों में अधिक सामान्य है।
धुंधली दृष्टि
गर्भनिरोधक गोलियां का सेवन करने वाली और धुधली दृष्टि अनुभव करने वाली महिलाओं को माइग्रेन सिर दर्द होने का भी खतरा हो सकता है। नेत्र रोग विशेषज्ञ आपको यह बता सकते हैं कि इस तरह के सिर दर्द को दृष्टि की उचित देखभाल से कैसे ठीक किया जा सकता है।
एआरएमडी
महिलाओं को पुरुषों की तुलना में उम्र से संबंधित मैकुलर डीजेनेरेशन (एआरएमडी) होने का अधिक खतरा होता है। इसलिए यदि आपको पढ़ने में कठिनाई होती हो या देखने के लिए अधिक प्रकाश की जरूरत होती हो तो आप नेत्र विशेषज्ञ से अवश्य परामर्श करें। मैकुलर डीजेनेरेशन के अल्य लक्षणों में परिधीय दृष्टि में कमी या रंगों को लेकर समस्याएं शामिल हैं।
ड्राई आई
महिलाएं, विशेषकर गर्भवती या रजोनिवृत हो चुकी महिलाएं ड्राई आई सिंड्रोम के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। इसमें आँखें पर्याप्त मात्रा में आँसू का उत्पादन नहीं करती हैं या खराब गुणवत्ता के आँसू उत्पन्न करती हैं और ये तेजी से लुप्त हो जाती हैं। इस समस्या के होने पर आंखों में चुभन या जलन होने लगती हैं, आंखों में कुछ गड़ने का अहसास होता है, आँखों में इरीटेशन महसूस होती है या अधिक पानी आने लगता है।
अल्ट्रा वायलेट संरक्षण
सभी महिलाओं को धूप में निकलने पर अल्ट्रा वायलेट से 100 प्रतिशत सुरक्षा प्रदान करने वाले धूप के चश्मे को अवश्य पहनना चाहिए। आंखों के उतकों को नुकसान पहुंचाने वाले सूर्य के पराबैंगनी विकिरण से आंखों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है। गर्भनिरोधक गोलियां, ट्रैंक्विलाइजर्स और कुछ सल्फा आधारित दवाओं जैसी कुछ दवाएं आंखों को धूप के संपर्क में रहने पर अधिक खतरा पैदा करती हैं। यदि आप इन्हें नियमित रूप से ले रही हैं तो आपको अपनी आंखों को सूर्य के प्रकाश के सपंर्क में रहने पर बहुत सावधान रहना चाहिए।
पोषण
यदि आप गर्भवती हैं, तो अच्छी तरह से संतुलित आहार का सेवन कर अपनी आंख के स्वास्थ्य की रक्षा करें और किसी भी प्रकार की दृष्टि संबंधित समस्या होने पर तुरत नेत्र विशेषज्ञ से परामर्श लें। यदि आप अपने बच्चों का लालन-पालन कर रही हैं, तो रतौंधी को रोकने के लिए विटामिन ए युक्त फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों  (बीटा कैरोटीन के रूप में) का चयन करें।


फाइब्रॉएड के बारे में मिथक और तथ्य

मिथक 1: फाइब्रॉएड से राहत पाने के लिए गर्भाशय को निकाल दिया जाना चाहिए।
तथ्य: फाइब्रॉएड के सभी मामलों में, यदि रोगी अपनी प्रजनन क्षमता को बनाये रखना चाहती है तो सिर्फ फाइब्रॉएड को निकाला जा सकता है और गर्भाशय को पूरी तरह से सुरक्षित रखा जा सकता है। यदि रोगी भविष्य में बच्चे पैदा नहीं करना चाहती है, तब भी कुछ प्रक्रियाओं की मदद से रोगी को फाइब्रॉएड से राहत प्रदान कर गर्भाशय को सुरक्षित रखा जा सकता है। इसके लिए अब लैप ग्राॅस वेजिंग जैसी प्रक्रिया उपलब्ध है।


मिथक 2: बहुत बड़े फाइब्रॉएड के लिए लेप्रोस्कोपिक सर्जरी संभव नहीं है और इसलिए बड़े फाइब्रॉएड में ओपन सर्जरी अनिवार्य हो जाता है।
तथ्य: लेप्रोस्कोपी सर्जरी हर मामले में संभव है। सनराइज हाॅस्पिटल में, हमने लेप्रोस्कोपी की मदद से गर्भाषय को नुकसान पहुंचाये बगैर ही दुनिया के सबसे बड़े फाइब्रॉएड (4.8 किलोग्राम) को निकाला और उसके बाद उस महिला ने स्वस्थ गर्भ धारण किया। 


मिथक 3: फाइब्रॉएड हमेशा दोबारा होता है और इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता है।
तथ्य: हालांकि फाइब्रॉएड आम तौर पर दोबारा होता है लेकिन अब हम लेप्रोस्कोपिक यूटेरिन आर्टरी लिगेशन (एलयूएएल) नामक प्रक्रिया की मदद से 96 प्रतिशत रोगियों में फाइब्रॉएड की पुनरावृत्ति को रोक सकते हैं।


मिथक 4: यदि रोगी की पहले सर्जरी हो चुकी हो तो उस रोगी में लेप्रोस्कोपी करना संभव नहीं है।
तथ्य: लेप्रोस्कोपिक सर्जरी करना हर रोगी में संभव है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रोगी की पहले कितनी ओपन सर्जरी (सीजेरियन जैसी) हुई है। इसके लिए सिर्फ सर्जन का विशेषज्ञ होना और अस्पताल में अच्छे लेप्रोस्कोपिक उपकरणों की उपलब्धता जरूरी है।


मिथक 5: फाइब्रॉएड कैंसर में बदल सकते हैं।
तथ्य: फाइब्रॉएड 99 प्रतिशत मामलों में कैंसर रहित होते हैं। हालांकि एक प्रतिशत मामले में वे कैंसरयुक्त हो सकते है। इसलिए फाइब्रॉएड से संबंधित कैंसर के मामले बिल्कुल नहीं के बराबर होते हैं।


मिथक 6: यदि मुझे अधिक रक्तस्राव नहीं होता है, तो मुझे फाइब्रॉएड का इलाज कराने की जरूरत नहीं है।
तथ्य: फाइब्रॉएड कई रूप में मौजूद हो सकते है और इसमें दबाव, पेल्विस में भारीपन या मूत्र त्याग करने की आवृति में वृद्धि, कब्ज, कमर दर्द या पेट में बड़ा गांठ जैसे लक्षण हो सकते हैं जिनका इलाज कराने की जरूरत होती है। फाइब्रॉएड में गर्भ धारण न कर पाना एक बड़ी समस्या हो सकती है जिसके कारण रोगी को फाइब्रॉएड निकलवाने की जरूरत होती है। बहुत कम फाइब्रॉएड में ही उनके द्वारा दबाव पैदा होने के कारण किडनी फेल्योर की संभावना होती है।


  सर्दियों में जोड़ों के दर्द का समाधान 

सर्दियों की शुरुआत के साथ जैसे- जैसे हवा ठंडी होती जाती है, जोड़ों के आर्थराइटिस से पीड़ित लोगों को काफी असुविधा होने लगती है, उनकी मांसपेशियों और जोड़ों में जकड़न और दर्द बढ़ने लगता है। हड्डियों की बीमारियों से पहले से पीड़ित लोगों में सदी का मौसम उनके जोड़ों को अधिक दर्दनाक और सख्त बना देता है जिसके कारण उनके लिए सर्दी का मौसम आम तौर पर भयावह होता है। कुछ लोगों में ठंडे तापमान का दर्द बढ़ने से सीधा संबंध होता है जबकि कुछ लोगों का कहना है कि वे अचानक हड्डियों और जोड़ों में मामूली बदलाव महसूस करने लगते हैं जो सर्दी आने का संकेत होता है।
हालांकि सर्दियों के दौरान जोड़ों के दर्द के बढ़ने का समर्थन करने वाले बहुत कम वैज्ञानिक सबूत हैं, लेकिन, पारा के नीचे जाने के साथ ही आर्थराइटिस के अधिकतर रोगियों में गर्दन दर्द, पीठ दर्द और कमर दर्द बढ़ने, सूजन और चलने- फिरने से संबंधित अन्य समस्याएं बढ़ने लगती हैं। वास्तव में, उनमें ऑस्टियोआर्थराइटिस अनुभव करने की संभावना बढ़ जाती है। यह कई कारकों की एक जटिल पारस्परिक क्रिया है जो घुटने, कंधे, या कूल्हे के जोड़ों के आर्थराइटिस से पीड़ित लोगों के लिए सर्दियों को और अधिक कठिन बना देता है ।
सर्दियों में दर्द क्यों बढ़ जाता है?
सबसे पहली बात तो यह है कि हमारे दर्द सहन करने की क्षमता सर्दियां षुरू होते ही आष्चर्यजनक रूप से कम हो जाती है। इसके अलावा, इस मौसम में रक्त बहुत अच्छी तरह से संचरित नहीं हो पाता है और शरीर के अगले भागों में रक्त का बहाव बहुत कम हो जाता है। बैरोमीटर के दबाव में बदलाव होने से जोड़ों में परेशानी या सूजन हो सकती है जो बदलते मौसम के अनुसार खुद को ढालने के लिए हमेषा तैयार नहीं होता है। यही कारण है कि सर्दी के मौसम में यहां तक कि एक छोटी सी चोट या सिर्फ एक छोटी सी कट भी अत्यधिक तेज और चुभन वाला दर्द पैदा कर सकती है।
सर्दियों में, हमारे शरीर हृदय के पास के रक्त को गर्म रखना चाहता है और इसके कारण जोड़ों में रक्त का संचरण कम हो जाता है। इसके कारण जोड़ों में अधिक दर्द एवं कड़ापन होता है। इसलिए सर्दियों में उन लोगों को जोड़ों में अधिक दर्द होता है जिन्हें अतीत में आर्थोपेडिक संबंधी चोट लगी हो या फ्रैक्चर अथवा मोच की समस्या हुई हो या जिनकी हड्डियों को जोड़ा गया हो। वायुमंडलीय दबाव में अचानक परिवर्तन के साथ, हमारे तंत्रिका के आखिरी छोर अधिक संवेदनशील हो जाते हैं जिससे और अधिक दिक्कत होती है। 
सर्दियों के दौरान जोड़ों के दर्द में वृद्धि का एक और बहुत ही महत्वपूर्ण कारण यह है कि सर्दियों में शारीरिक गतिविधियां काफी कम हो जाती है। अनेक लोग, खास तौर पर बुजुर्ग लोग अपने घरों में ही रहना पसंद करते हैं या अपने को पूरी तरह सिकोड़ कर रखते हैं। 
ज्यादातर मामलों में रोजाना पैदल चलने या व्यायाम करने के कार्यक्रम को पूरा नहीं किया जाता क्योंकि घर से बाहर निकलने में दिक्कत होती है। हम जानते हैं कि जोड़ों को स्वस्थ्य रखने के लिए नियमित रूप से कसरत करना कितना जरूरी है। आर्थराइटिस के जोड़ों के मामले में तो गतिषीलता और जरूरी हो जाती है ताकि जोड़़ों में जकड़न होने से रोका जा सके। सर्दियों में व्यायाम एवं शारीरिक गतिविधि की कमी के कारण सर्दियों में जकड़न और बढ़ती है। 
जोड़ों के तेज दर्द से कैसे निजात पाएं?
हालांकि जोड़ों के दर्द से पूरी तरह से निजात पाना कठिन है। लेकिन अगर आप पहले से ही जोड़ों की आर्थराइटिस से पीड़ित हैं, तो हमें इसकी स्थिति और खराब होने से रोकना है। सर्दी के मौसम में, विषेशकर जब मौसम में अधिक नमी हो, तो आर्थराइटिस के दर्द से निपटने के लिए हमारे शरीर की रक्षा प्रणालियों को गर्म और सक्रिय रखना होगा।
यहाँ कुछ और सुझाव दिये गये हैं जिन पर अमल कर आप सर्दियों के दौरान जोड़ों के दर्द को नियंत्रित रख सकते हैं:
ऽ व्यायाम रक्त परिसंचरण को बढ़ाता है और गर्म खून को जोड़ों सहित शरीर के सभी अगले भागों (पेरिफेरल)ं तक पहुँचने में सक्षम बनाता है। नियमित व्यायाम से हमारी मांसपेशियों को मजबूत और स्वस्थ बनाने में भी मदद मिलती है। दुर्भाग्य से, हममें से ज्यादातर लोग सर्दी की ठंड के दौरान अपने दैनिक व्यायाम के रूटीन का पालन नहीं करते हैं। याद रखें, आपको यह सब इस मौसम के दौरान और अधिक करने की जरूरत है। इसलिए, अगर आपने पहले से ही व्यायाम करने की योजना पर अमल करना शुरू कर दिया है, इसे निष्चित रूप से जारी रखें।
ऽ विटामिनों की कमी जोड़ों के दर्द या सूजन के रूप में प्रकट हो सकती है, क्योंकि उनमंे षिथिल होने की प्रवृत्ति होती है। आप अपने आहार पर निगरानी रखकर इस समस्या का प्रभावी ढंग से समाधान कर सकते हैं। अदरक और हल्दी जैसे सरल खाद्य पदार्थों का रोजाना सेवन करने की आदत बना लें जो दर्द से राहत प्रदान करने में मदद करते हैं। इसके अलावा, संतरे, पत्तागोभी, गाजर, पालक और टमाटर जैसे विटामिन युक्त फलों और सब्जियों का भी प्र्याप्त मात्रा में सेवन करें।
ऽ यदि आपको सर्दियों में कम प्यास लगती है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपके शरीर को पानी की कम जरूरत है। जोड़ों के बीच मौजूद कार्टिलेज एक चिकना कोमल ऊतक होता है जो घर्षण को कम करने के लिए जिम्मेदार होता है। चूंकि इसकी सतह चिकनी होती है, इसलिए इसे हाइड्रेटेड रहने की जरूरत होती है। इसलिए, जोड़ों के दर्द को और तेज होने से रोकने के लिए काफी मात्रा में पानी पीएं।
ऽ अपने आप को एक आरामतलब कुर्सी में बिठाए रखने की बजाय हर समय चलते रहनेे की कोशिश करें। सुबह की सैर करें और पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी प्राप्त करने के लिए जितना अधिक संभव हो  धूप में रहें।
ऽ एरोबिक्स, तैराकी, भारोत्तोलन, और मध्यम गति से साइक्लिंग जैसी कम प्रभावी गतिविधियां जकड़न को कम कर सकती है और जोड़ों में रक्त के प्रवाह को बढ़ा सकती हैं। दूसरी ओर, सूजन को कम करने के लिए आइस पैक उपयोगी साबित हो सकता है और सर्दियों में दर्द को कम कर सकता है। आइस पैक का इस्तेमाल करने से पहले, पैरे के पूरे जोड़ को ढकना न भूलें।
ऽ इस मौसम के दौरान जोड़ों के दर्द से निपटने के लिए सबसे प्रभावी उपचार फिजियोथेरेपी और हीट थेरेपी का संयोजन है। आप मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द से आराम पाने के लिए अतिरिक्त गर्मी प्राप्त करने के लिए हीटिंग पैड और कंबल का उपयोग कर सकते हंै। फिजियोथेरेपी और कभी- कभी शरीर की मालिश से भी मांसपेशियों और नव्र्स को और मजबूत और लचीला रखने में मदद मिलती है।
ऽ आपके डॉक्टर आर्थराइटिस से पीड़ित जोड़ों के लिए अतिरिक्त ध्यान देने की सलाह दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, जोड़ों को अधिक सहारा और स्थिरता प्रदान करने के लिए ब्रेसिज को पहना जा सकता है। अधिक तीव्र दर्द होने पर, घुटने के ब्रेसिज काफी राहत प्रदान करते हैं। यदि आपके जोड़ों और मांसपेशियों में मामूली दर्द भी हो तो किसी आर्थोपेडिक विशेषज्ञ से परामर्श करना न भूलें।


डाॅ. विवेक महाजन, कंसल्टेंट ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन, इंडियन स्पाइनल इंजुरीज सेंटर (आईएसआईसी), नई दिल्ली


भारत में सरकारी गर्भनाल रक्त बैंक की सख्त जरूरत

भारत के अधिकतर हिस्सों में, गर्भनाल को प्रसव प्रक्रिया का एक बेकार चीज समझा जाता है और उसे फेंक दिया जाता है। प्रसव के बाद नवजात की नाभि को झूलते हुए छोड़ दिया जाता है और यह अलग होकर अपने आप एक सप्ताह के भीतर गिर जाता है। लेकिन वैज्ञानिक इसे काफी मूल्यवान मानते हंै और कई बीमारियों के इलाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। बच्चे का गर्भनाल स्टेम कोशिकाओं का एक समृद्ध स्रोत होता है (वयस्क अस्थि मज्जा से 10 गुना अधिक), जिसे अगर ठीक से निकाला जाये, जांच की जाये, और सरकारी रक्त बैंक में संग्रहित किया जाये तो यह न सिर्फ बच्चे के लिए बल्कि उसके भाई- बहन/माता- पिता के लिए भी और यहां तक कि वैसे लाखों के लिए भी जिनका रक्त उसके रक्त के साथ मेल खाता हो, कई प्रकार के ल्यूकेमिया, लिम्फोमा और अस्थि मज्जा विकारों सहित कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है।
पहला सफल गर्भनाल रक्त स्टेम सेल प्रत्यारोपण फ्रांस में किया गया था, उसके 28 से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी, भारत में अभी तक आसानी से उपलब्ध इस कीमती सम्पत्ति की विशाल क्षमता का पता नहीं लगाया गया है और न ही देष में इसकी सरकारी बैंकिंग की व्यवस्था की गई है। हमें देष में एक सुसंगठित सरकारी गर्भनाल रक्त बैंकिंग की सख्त जरूरत है जो जरूरत पड़ने पर रोगियों का इलाज कर सके और जिसे इस विषय पर आगे के चिकित्सा अनुसंधान के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
हालांकि अस्थि मज्जा और बाहरी अंगों (पेरिफेरल) के रक्त स्टेम सेल के प्रत्यारोपण की सफलता वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी उतरी हैै। इसलिए, यूसीबी उचित वयस्क दाताओं की कमी वाले मरीजों के लिए प्रत्यारोपण के स्रोत के एक विकल्प के रूप में लोकप्रिय हो चुका है और इसे लोगों ने स्वीकार  कर लिया है। यूसीबीटी अस्थि मज्जा (बीएम) या बाहरी अंगों के रक्त (पीबी) की तुलना में कई लाभ प्रदान करता है। यूसीबीटी में 4/6 मैच की ही जरूरत होती है जबकि बीएम या पीबी में 6/6 मैच की जरूरत होती है। इसके अलावा, यूसीबी को कोशिकाओं की गुणवत्ता को किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाये बगैर आसानी से एकत्र और संग्रहित किया जा सकता है और जरूरत पड़ने पर आसानी से उपलब्ध कराया जा सकता है।
भारत में, गर्भनाल रक्त बैंकिंग के लाभों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है, लेकिन अमेरिका में, अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, द अमेरिकन कांग्रेस आॅफ आॅब्सटेट्रिषियन्स एंड गाईनेकोजाॅजिस्ट्स, और अमेरिकन अकेडमी आॅफ पेडिएट्रिक्स जैसे प्रतिश्ठित चिकित्सा समूहों ने निजी बैंकिंग की तुलना में सरकारी बैंक डोनेषन की सिफारिष की है क्योंकि गर्भनाल रक्त के व्यक्तिगत इस्तेमाल सीमित हैं।
एएसबीएमटी के अनुसार, बच्चे को बाद में अपने बैंकिंग गर्भनाल रक्त से लाभ पहुंचने की संभावना वर्तमान में 0.04 प्रतिशत से भी कम है। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है क्यांेकि वर्तमान में गर्भनाल रक्त से बहुत ही कम बीमारियों का इलाज किया जा सकता हैं, बल्कि कई बच्चों के लिए गर्भनाल रक्त इसलिए भी व्यर्थ साबित होगा क्योंकि उन स्टेम कोशिकाओं में एक ही जैसे आनुवंशिक दोष होते हैं।
भारत में उच्च जन्म दर और आनुवंशिक विविधता के कारण यूसीबी बैंकिंग के लिए काफी संभावना है। जिन भारतीयों को अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण की जरूरत होती है उनमें से करीब 70 फीसदी रोगियों को अपने स्वयं के परिवार में मैच नहीं मिलता है। इसलिए, असंबंधित यूसीबी हीमैटोपोएटिक स्टेम सेल प्रत्यारोपण के लिए पुरखों का एक व्यापक रूप से स्वीकृत स्रोत है। हालांकि, यूसीबी के अत्यधिक महंगा होने और सालाना 50,000 इकाइयों की अनुमानित आवश्यकता के बजाय सीमित संख्या में यूसीबी इकाइयों के उपलब्ध होने के कारण भारत में बहुत सीमित संख्या में यूसीबी प्रत्यारोपण किये जा रहे हैं। यूसीबी के सरकारी बैंक की स्थापना में आने वाले वर्षों में वृद्धि की संभावना है। गर्भनाल रक्त बैंक के प्रभावी होने के लिए कम से कम 50,000 इकाइयां होनी चाहिए और तब यह अपने 98 प्रतिषत रोगियों के लिए एक मिलान कॉर्ड प्रदान करने में सक्षम होगा।
भारत में भविष्य के प्रत्यारोपण की जरूरत को पूरा करने के लिए, पश्चिमी दुनिया की तरह ही सरकारी सहायता और निवेश की आवश्यकता है। पिछले 30 साल से भारत में सरकारों ने घातक रक्त संबंधी विकारों से पीड़ित अपने नागरिकों को उपचार उपलब्ध कराने की दरकार को नजरअंदाज कर दिया है। लेकिन हाल के दिनों में हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने यूसीबीटी के द्वारा इलाज किये जाने वाले सिकल सेल डिजीज से पीड़ित आदिवासियों की दुर्दषा को संसद के ध्यान में लाया।


- डॉ राहुल भार्गव, निदेशक एवं प्रमुख, हीमैटो- ऑन्कोलॉजी एवं स्टेम सेल ट्रांसप्लांट, आर्टेमिस हाॅस्पिटल, गुड़गांव


गुर्दे की पथरी के बारे में मिथक एवं तथ्य

1. मिथक: गुर्दे की पथरी की बीमारी में बियर का सेवन लाभदायक साबित होता है।
तथ्य: बियर गुर्दे की पथरी की बीमारी में लाभदायक साबित नहीं होती है, बल्कि यह गुर्दे में पथरी पैदा करती है। यह शरीर के महत्वपूर्ण तरल पदार्थ को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाती है। इसके अलावा, बियर में ऐसे कई रसायन होते हैं जो गुर्दे की पथरी पैदा कर सकते हैं।
2. मिथक: मुझे गुर्दे की पथरी नहीं होनी चाहिए क्योंकि मेरेे परिवार में किसी को भी गुर्दे की पथरी नहीं हुई है।
तथ्य: जिन लोगों में गुर्दे की पथरी का पारिवारिक इतिहास होता है, उनमें वैसे लोगों की तुलना में जिनमें गुर्दे की पथरी का इतिहास नहीं होता है, गुर्दे की पथरी होने का खतरा 2.5 गुना अधिक होता है। गुर्दे की पथरी से पीड़ित अधिकतर लोगों में वास्तव में पारिवारिक इतिहास नहीं होता है।
3. मिथक: दर्द खत्म हो जाने का अर्थ पथरी का गायब हो जाना है। 
तथ्य: तथ्य यह है कि जो पथरी पहले दर्द पैदा कर रही थी, लेकिन अब दर्द पैदा नहीं कर रही है, इस बात का संकेत नहीं है कि पथरी निकल चुकी है। वास्तव में, कई बार, दर्द अचानक बंद हो जाता है क्योंकि गुर्दा कार्य करना बंद कर देता है। यहां तक कि अल्ट्रासाउंड में भी पथरी नहीं दिखने पर इस बात की पुष्टि नहीं हो सकती कि पथरी निकल चुकी है।
4. मिथक: किसी भी व्यक्ति को पथरी से छुटकारा पाने के लिए काफी मात्रा में सभी प्रकार के तरल पदार्थ का सेवन करना चाहिए।
तथ्य: गुर्दे की पथरी को रोकने और इसका इलाज करने के लिए सबसे बेहतर गांरटीशुदा तरल पदार्थ काफी मात्रा में पानी पीना है। लेकिन विशेष रूप से चीनी या नमक के बगैर नींबू- पानी लेना पथरी की बीमारी में काफी हानिकारक साबित हो सकता है। चाय, कॉफी, सोडा, शीतल पेय जैसे अन्य सभी तरल पदार्थ का सेवन कम मात्रा में किया जाना चाहिए! ये सभी तरल पदार्थ मूत्र के प्रवाह को तो बढ़ा सकते हैं लेकिन दरअसल ये शरीर के अपने तरल पदार्थ का नुकसान पहुंचाते हैं।
5. मिथक: ''फ्लशिंग'' / ''लैसिक्स थेरेपी'' या ''फ्ल्युड डियूरेसिस'' से पथरी से छुटकारा मिल सकता है।
तथ्य: इस बात के कोई भी चिकित्सकीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है कि लैसिक्स थेरेपी / फोस्र्ड डियूरेसिस पथरी से छुटकारा पाने में मदद करता है। इस तथ्य के बावजूद, इस प्रकार की चिकित्सा का सबसे अधिक दुरुपयोग हो रहा है। 
यदि गुर्दे में पथरी है तो मूत्र प्रवाह में वृद्धि से यह प्रभावित नहीं होगी। यदि पथरी मूत्रवाहिनी में है, और यह उस तंत्र में अवरोध पैदा कर रही है, तो ''फ्लशिंग'' इतना खतरनाक साबित हो सकता है कि इससे रोगी की मौत भी हो सकती है। कुछ चिकित्सक गलत तरीकों से इलाज करने की कोशिश करते हैं इसलिए आपात स्थिति में लाये गये रोगियों में सभी मूत्र रोग विशेषज्ञ सेप्टिसीमिया पाते हैं।
6. मिथक: पथरी को सर्जरी से निकालना बेकार होता है क्योंकि पथरी दोबारा बन सकती है।
तथ्य: सर्जरी से पथरी को निकालना दरअसल नयी पथरी बनने का कारण नहीं हो सकती! मूत्र रोग विशेषज्ञ पथरी को दोबारा बनने से रोकने के लिए रोगी को आम तौर पर विस्तृत आहार और चिकित्सीय सलाह देते हैं। इसलिए सलाह पर कड़ाई से अमल करना रोगी और चिकित्सक दोनों का कर्तव्य बन जाता है।
7. मिथक: कैल्शियम युक्त दूध पीने से गुर्दे की पथरी हो सकती है।
तथ्य: अपने भोजन में एक गिलास दूध या दही को शामिल करने और मैग्नीशियम युक्त खाद्य पदार्थों के सेवन करने से आक्जेलेट को बांध कर रखने और गुर्दे की पथरी की रोकथाम करने में सहायता मिलती है। दूध और कैल्शियम युक्त दवाओं के सेवन से भी गुर्दे की पथरी के निर्माण पर किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं देखा गया है। हालांकि मांस, चिकन और मछली जैसे अधिक प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए।
8. मिथक: केवल पुरुषों में ही गुर्दे की पथरी होती है।
तथ्य: महिलाओं को भी गुर्दे की पथरी होती है। यहां तक कि बच्चों में भी गुर्दे की पथरी हो सकती है। हालांकि पुरुषों में महिलाओं की तुलना में गुर्दे की पथरी अधिक बार होने की प्रवृति होती है। गुर्दे की पथरी से पीड़ित महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। यहां तक कि बच्चों को भी गुर्दे की पथरी हो सकती है, लेकिन अक्सर वयस्कों की तुलना में कम होती है। यदि आपका गुर्दे की पथरी का पारिवारिक इतिहास है, तो आपमें भी गुर्दे की पथरी होने की अधिक संभावना होगी। ऐसा माना जाता है कि गुर्दे की पथरी के पारिवारिक इतिहास वाले कुछ लोगों में दोषपूर्ण जीन होते हैं जिसके कारण उनके मूत्र में अतिरिक्त कैल्शियम होता है।


न्यूरो रोगों के लक्षणों की अनदेखी हो सकती है खतरनाक 

क्या आपको अचानक सिर दर्द होने लगता है? क्या आपकी स्मृति में धीरे- धीरे कमी आ रही है? क्या आपको अक्सर चक्कर आते हैं, दौरे पड़ते हैं या आप अंगों में कंपन अनुभव करते हैं? यदि हाँ, तो आप तुरंत न्यूरोलॉजी विशेषज्ञ से परामर्श करें क्योंकि आपके लक्षणों का मूल कारण मस्तिष्क या रीढ़ की हड्डी के डिसआर्डर हो सकते हैं।
भारत में न्यूरो से संबंधित डिसआर्डर को अब भी बहुत अधिक नजरअंदाज किया जाता है जो कि स्वास्थ्य से संबंधित चिंता का विषय है। न्यूरो से संबंधित बीमारियों के लक्षणों से पीड़ित लोग या तो अपनी स्थिति की गंभीरता से अनजान बने हुए हैं या इसे उम्र बढ़ने का एक सामान्य लक्षण समझकर विशेषज्ञों से परामर्श नहीं लेते हैं। हालांकि, यह रेखांकित करना आवष्यक है कि ऐसी स्थितियों में रोग के बढ़ने की जांच करने के लिए और उनके लक्षणों का इलाज करने के लिए चिकित्सा हस्तक्षेप की आवश्यकता है। 
न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. सतवंत सचदेवा ने कहा, ''भारत में न्यूरो संबंधित बीमारियों के बारे में जागरूकता की काफी कमी है। ज्यादातर लोगों को यह पता ही नहीं होता है कि अचानक शुरू होने सिर दर्द को डॉक्टर को अवष्य दिखाना चाहिए क्योंकि यह सब- ड्युरल हीमैटोमा या यहां तक कि ब्रेन ट्यूमर जैसी गंभीर स्थिति का संकेत हो सकता है। अधिकतर लोगों का यह भी मानना है कि स्मृति में कमी या अंगों में कमजोरी उम्र बढ़ने का ही सामान्य लक्षण है जबकि यह अल्जाइमर या पार्किंसंस रोग का संकेत हो सकता है। हमारे शिविर का उद्देश्य न्यूरो संबंधित बीमारियों के लक्षणों वाले सभी लोगों को विषेशज्ञ से परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित करना है।
मुख्य और बाहरी अंगों (पेरिफेरल) के तंत्रिका तंत्र के रोगों को न्यूरोलाॅजिकल डिसआर्डर कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी, कपाल नसों, पेरिफेरल नव्र्स, नर्व रूट्स, आटोनाॅमिक नर्वस सिस्टम, न्यूरोमस्कुलर जंक्षन और मांसपेशियों के डिसआर्डर से संबधित स्थितियां न्यूरोलाॅजिकल बीमारियां होती हैं। इन स्थितियों में मिर्गी, डिमेंषिया, स्ट्रोक, माइग्रेन, मल्टीपल स्क्लेरोसिस, पार्किंसंस रोग, न्यूरो संक्रमण, ब्रेन ट्यूमर, तंत्रिका तंत्र के ट्राॅमेटिक डिसआर्डर शामिल हो सकते हैं और ये कुपोषण का परिणाम हो सकते हैं। बैक्टीरियल, वायरल, फंगल और परजीवी के संक्रमण भी तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में लाखों लोग न्यूरो से संबंधित बीमारियों से प्रभावित हैं। हर साल स्ट्रोक के कारण 60 लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है और इन मौतों में से 80 प्रतिशत से अधिक मौत भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती है। दुनिया भर में 5 करोड़ से अधिक लोगों को मिर्गी की बीमारी है। अनुमान लगाया है कि दुनिया भर में 4 करोड़ 75 लाख लोग डिमेंसिया से पीड़ित हैं और हर साल डिमेंसिया के 77 लाख नये मामले सामने आते हैं। अल्जाइमर रोग डिमेंसिया का सबसे आम कारण हैं और डिमेंसिया के 60-70 प्रतिषत मामले अल्जाइमर रोग से ही संबंधित होते हैं। माइग्रेन से दुनिया भर में 10 प्रतिषत से अधिक लोग पीड़ित होते हैं।


आईवीएफ के बारे में मिथक एवं तथ्य 

संतानहीनता के उपचार के लिये आईवीएफ अथवा इन विट्रो फर्टिलाइजेशन तकनीक एक लोकप्रिय एवं कारगर उपाय है लेकिन इसे लेकर कई भ्रांतियां भी हैं। भ्रांतियां एवं तथ्य इस प्रकार हैं: 
मिथक: आईवीएफ के जरिये जन्म लेने वाले बच्चे अन्य बच्चों से अलग होते हैं। 
तथ्य: इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि आईवीएफ के जरिये जन्म लेने वाले बच्चे अन्य बच्चों से अलग होते हैं। आईवीएफ के जरिये जन्म लेने वाले बच्चे भी अंडाणु एवं शुक्राणु से उत्पन्न होते हैं और किसी अन्य बच्चे की तरह ही स्वस्थ होते हैं। 
मिथक: सभी तरह की संतानहीनता संबंधी समस्याओं का समाधान आईवीएफ है। 
तथ्य: चिकित्सा तकनीकों के विकास की बदौलत प्रजनन केन्द्र अब उन दम्पतियों को सम्पूर्ण प्रजनन सुविधायें उपलब्ध करा रहे हैं। आज निंसंतान दम्पतियों को संतान जनने में मदद करने के लिये आईवीएफ के अलावा आर्टिफिषियल इनसेमिनेशन, इंट्रासाइटोप्लाजमिक स्पर्म इंजेक्शन (आईसीएसआई), आईएमएसआई तथा अन्य विकल्प भी उपलब्ध हैं। कई बार हमें डोनर एग्स, डोनर स्पर्म ओर सरोगेसी का सहारा लेना पड़ता है। किस मरीज के लिये किस विकल्प का इस्तेमाल किया जाना है यह मरीज की जांच रिपोर्टों के आधार पर तय होता है। 
मिथक: आईवीएफ को अप्राकृतिक माना जाता है। 
तथ्य: आईवीएफ अत्यंत सामान्य प्राकृतिक चिकित्सकीय प्रक्रिया है जिसकी मदद से जन्म लेने वाले बच्चे माता-पिता से आनुवांशिक रूप से जुड़े रहते हैं। 
मिथक: आईवीएफ उपचार के कारण एक साथ कई बच्चों, जुड़वा बच्चों, तीन बच्चों आदि का जन्म होता है। 
तथ्य: पहले आईवीएफ उपचार कराने वाली महिलाओं के लिये एक साथ कई बच्चों के जन्म देने की बात सामान्य थी, लेकिन पिछले दशक में तकनीकी विकास के कारण एक साथ कई बच्चों के जन्म होने के मामले काफी हद तक घट गये हैं, यहां तक कि जुड़वा बच्चों के जन्म के मामले भी तेजी से घटे हैं। 
मिथक: सभी मामलों में आईवीएफ सफल है।
तथ्य: यह गलत है। आईवीएफ 40 से 50 प्रतिशत मामलों में सफल होता है। सफलता कई कारणों पर निर्भर करती है, जैसे महिला की उम्र, संतानहीनता के कारण, उपचार केन्द्र की विषेशज्ञता, जैविक और हार्मोनल कारण, लैब की गुणवत्ता, भ्रूण स्थानांतरण का दिन, ब्लास्टोसिस्ट का निर्माण आदि। 
मिथक: आईवीएफ के लिये अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत होती है।
तथ्य: यह गलत है। इसके लिये अस्पताल में रात में रूकने की जरूरत नहीं होती है। यह मुख्य तौर पर ओपीडी उपचार है। अंडा लेने की प्रक्रिया के लिये मरीज को दिन में अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत होती है। 
मिथक: आईवीएफ खतरनाक है। 
तथ्य: आईवीएफ खतरनाक नहीं है। दरअसल यह सुरक्षित उपचार है। केवल एक या दो प्रतिशत मरीज की उपचार के दौरान गंभीर ओवेरियन हाइपर स्टिमुलेशन सिंड्रोम के कारण अस्वस्थ होती हैं। इसे भी चिकित्सकीय निगरानी के जरिये कम से कम किया जा सकता है। 
मिथक: संतानहीनता महिला की समस्या है। 
तथ्य: संतानहीनता के एक तिहाई मामलों में महिला, एक तिहाई मामलों में पुरूष तथा एक तिहाई मामलों में या तो दोनों जिम्मेदार होते हैं या इसके कारण स्पष्ट नहीं होते हैं। इस कारण से संतानहीनता केवल महिला से जुड़ी समस्या नहीं है। 
मिथक: आईवीएफ बहुत ही कष्टदायक प्रक्रिया है। 
तथ्य: आईवीएफ कष्टदायक प्रक्रिया नहीं है, जैसा कि लोग सोचते हैं। इसमें कई इंजेक्शन लेने होते हैं और इसके कारण मरीज को कुछ असुविधा एवं दिक्कत होती है, लेकिन इसके अतिरिक्त मरीज के लिये कोई अन्य कष्टदायक प्रक्रियायें शामिल नहीं है। आईवीएफ के तहत 10 से 14 दिनों के लिये हर दिन एक या दो इंजेक्शन लेने होते हैं। अंडा लेने की प्रक्रिया कष्टदायक हो सकती है, लेकिन यह प्रक्रिया एनीस्थिसिया के तहत की जाती है और इसलिये मरीज को कोई दर्द नहीं होता है। भ्रूण स्थानांतरण की प्रक्रिया भी दर्द रहित प्रक्रिया है। 
मिथक: आईवीएफ से होने वाली गर्भावस्था में सम्पूर्ण बेड रेस्ट की जरूरत नहीं होती है। 
तथ्य: हालांकि गर्भावस्था के पहले तीन महीनों के दौरान अतिरिक्त सावधानियां बरती जाती है लेकिन ज्यादातर मरीज गर्भावस्था के अंतिम चरण के आने तक नौकरी समेत सभी सामान्य काम काज करती हैं। 


 


औषधि लेपित स्टेंट से होगा क्रोनिक साइनुसाइटिस का इलाज 

साइनस गाल की हड्डियों (चीक बोन्स) और ललाट (फोरहेड) के अंदर छोटा, हवा से भरा रिक्त स्थान होता है। साइनस कुछ श्लेष्मा (म्यूकस) पैदा करते हैं जो छोटे रास्तों (चैनलों) के माध्यम से नाक में चले जाते हैं। साइनुसाइटिस का अर्थ साइनस में सूजन है।
साइनुसाइटिस चेहरे और नाक के हिस्से में स्थित श्लेष्मा झिल्ली में सूजन के कारण होती है। यह आंख, नाक  और सिर के एक तरफ के हिस्से पर दबाव डालती है जिसके कारण सिरदर्द होता है। बीमारी के सामान्य कारणों में बैक्टीरियल या वायरल संक्रमण, सर्दी, एलर्जी, वायु जनित फंगस, नाक या साइनस में अवरोध, और श्वसन तंत्र में संक्रमण शामिल हैं।
साइनुसाइटिस के रूप
— एक्यूट साइनुसाइटिस का अर्थ वैसा संक्रमण है जो तेजी से विकसित होता है (कुछ ही दिनों में) और कम समय तक रहता है। एक्यूट साइनुसाइटिस के कई मामले एक सप्ताह तक रहते हैं। लेकिन इनका 2 से 3 सप्ताह तक रहना असामान्य नहीं है। यह अधिकतर खांसी-जुकाम की तुलना में लंबा होता है।
— क्रोनिक साइनुसाइटिस एक सामान्य स्थिति है जिसमें नासिका मार्ग (साइनस) के आसपास की कैविटी में सूजन हो जाती है और इलाज कराने के बावजूद यह कम से कम आठ सप्ताह तक रहता है। यह स्थिति श्लेष्मा के निष्कासन में बाधा पहुंचाती है और श्लेष्मा के निर्माण को बढ़ावा देती है। यदि आपको क्रोनिक साइनुसाइटिस है, तो आपको अपनी नाक से साँस लेने में परेशानी हो सकती है। आप अपनी आंखों और चेहरे के आसपास के क्षेत्र में सूजन महसूस कर सकते हैं, और रूक-रूक कर चेहरे में दर्द या सिर में दर्द महसूस कर सकते हैं।
कारण:
क्रोनिक साइनुसाइटिस किसी संक्रमण की वजह से हो सकता है, लेकिन यह साइनस (नेजल पाॅलिप) में वृद्धि या नेजल सेप्टम के अपनी जगह से हट जाने के कारण भी हो सकता है। क्रोनिक साइनुसाइटिस सबसे अधिक युवा और मध्यम उम्र के वयस्कों को प्रभावित करता है, लेकिन यह बच्चों को भी प्रभावित कर सकता है।
लक्षण
क्रोनिक साइनुसाइटिस की पहचान के लिए निम्नलिखित संकेतों और लक्षणों में से कम से कम दो का मौजूद होना जरूरी है:
— नाक से या गले के पिछले भाग के निचले हिस्से से गाढ़ा, पीला या हरे स्राव का निकलना।
— नाक में रुकावट या नाक के भरे होने के कारण नाक से साँस लेने में कठिनाई होना।
— आपकी आंखों, गाल, नाक या ललाट के आसपास दर्द, अधिक संवेदनशीलता और सूजन होना।
— गंध और स्वाद का कम अनुभव होना।
पहचान
— नेजल एंडोस्कोपी: आपके चिकित्सक आपकी नाक के माध्यम से एक फाइबर ऑप्टिक लाइट के साथ एक पतला एंडोस्कोप डालकर आपकी साइनस के अंदर के भाग का निरीक्षण करेंगे।
— इमेजिंग स्टडीज: कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) या मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) के इस्तेमाल से ली गयी तस्वीरों में आपकी साइनस और नाक के हिस्से का विस्तृत ब्यौरा दिख सकता है। ये गहरी सूजन या शारीरिक बाधा की पहचान कर सकते हैं जिसे एंडोस्कोप के इस्तेमाल से पहचान करना मुश्किल है।
इलाज
सर्जरी का इस्तेमाल मुख्य रूप से तब किया जाता है जब उपरोक्त चिकित्सा उपचार से स्थिति में सुधार नहीं होता है। सर्जरी का मुख्य उद्देश्य प्रभावित साइनस के ड्रैनेज में सुधार करना है।
परंपरागत
— बैलून कैथेटर डायलेशन: इसके तहत सर्जन नथुने में, अवरुद्ध साइनस में, एक लचीले ट्यूब के माध्यम से एक छोटा सा गुब्बारा धकेलते हैं। उसके बाद उस गुब्बारे को फूला दिया जाता है जो अवरूद्ध हिस्से को फैला देता है। उसके बाद गुब्बारे को पिचकाकर निकाल लिया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद साइनस ड्रैनेज चैनल के चैड़ा होने और साइनस के ठीक से ड्रेन करने की अच्छी संभावना होती है।
नवीनतम दृष्टिकोण
— वैसे क्रोनिक साइनुसाइटिस जिनका इलाज दवा से नहीं हो पाता है उनका इलाज करने के लिए अब औशधि लेपित स्टेंट का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस प्रक्रिया के तहत साइनस कैविटी में स्टेरॉयड सोल्युशंस से लेपित एक छोटे ट्यूब के आकार के तार को प्रविष्ट कराया जाता है। एंजियोप्लास्टी के मामले में, स्टेंट शरीर के अंदर बना रहता है। लेकिन यहां, चिकित्सक स्टेंट को नासिका मार्ग में डालते हैं, और यह औषधि लेपित स्टेंट तब तक वहां बना रहता है जब तक बीमारी ठीक नहीं हो जाती है और चार सप्ताह के बाद इसे आसानी से निकाल दिया जाता है।


व्हाइट कोट हाइपरटेंशन में घबराएं नहीं

''यह सिर्फ एक नियमित स्वास्थ्य जांच है। घबराइए मत, शांत रहिए।'' अगर आपके डाक्टर आपसे ऐसा कहते हैं और आपकी रक्त चाप की दोबारा जांच करते हैं तो आप ऐसे एकलौते व्यक्ति नहीं हैं। ऐसे कई व्यक्ति हैं जो अस्पताल या क्लिनिक में रक्त चाप की जांच के समय घबरा जाते हैं। रक्त चाप की जांच के दौरान अगर कोई मरीज घबराता है तो इससे रीडिंग गलत हो सकती है। इसे ''व्हाइट कोट हाइपरटेंशन'' कहा जाता है। जब कोई डाॅक्टर किसी मरीज को देखता है, खास तौर पर जब मरीज के रक्त चाप की जांच करता है तो मरीज को एंग्जाइटी या स्ट्रेस होता है। यह व्हाइट कोट हाइपरटेंशन है। 
व्हाइट कोट हाइपरटेंशन बहुत ही आम है। करीब दस में पांच मरीज जब अस्पताल में रक्त चाप की जांच कराते हैं तो उसकी जो रीडिंग आती है उससे कम रीडिंग तब आती है जब वही मरीज अपने घर पर रक्त चाप की जांच करता है। इसके कारण मरीज का गलत उपचार होने की आशंका रहती है। जब आप चिंतित होते हैं तब आपका शरीर अधिक मात्रा में कैटेकोलामाइन्स उत्सर्जित करता है और इसके परिणामस्वरूप आपके हृदय की गति एवं रक्त चाप में बढ़ोतरी हो जाती है। कैटेकोलामाइन्स एड्रेनल ग्रंथियों द्वारा उत्पादित स्ट्रेस हार्मोन है। 
मानक यह है कि जब मरीज तनाव मुक्त होता है उससे पांच मिनट के बाद तनावमुक्त अवस्था में ली गई रीडिंग के आधार पर ही यह माना जाना चाहिए कि उस व्यक्ति को अनियंत्रित रक्त चाप है। कई मामलों में 24 घंटे की मानिटरिंग के आधार पर की गई रक्त चाप की जांच उपयोगी साबित होती है। 
डॉक्टर मरीज को घर पर ही रक्तचाप रीडिंग करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इससे रक्त चाप की जांच उस समय होगी जब आप वास्तव में सक्रिय रहते हैं। यही नहीं इससे मरीज के बारे में ऐसी कई जानकारी मिलती है जिससे यह समझा जा सकता है कि किस तरह से जीवन की छोटी सी छोटी असावधानी अगले दिन आपके रक्त दाब को प्रभावित करती है। 
व्हाइट कोट हाइपरटेंशन को दूर करने के सरल उपाय इस प्रकार हैं: 
— सबसे पहले, यह सुझाव दिया जाता है कि मरीज को तनाव मुक्त होना चाहिए। एक जगह से दूसरी जगह पर जाने पर आपको शांत होने में मदद मिलती है। स्वास्थ्य प्रदाता से इसके लिए कहें। 
— गहरी और धीमी सांस लेने से एंग्जाइटी को कम करने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा, कुछ लोग कविता या गीत को गुनगुनाने पर तनाव से छुटकारा पा सकते हैं।
— बातचीत के विषय को बदलने से भी तनाव मुक्त होने में मदद मिल सकती है। अगर बातचीत से आपका ध्यान बटता है तो ऐसा करें। 


भारत में मरीजों की सुरक्षा को लेकर हम कब होंगे जागरूक 

मरीजों की सुरक्षा स्वास्थ्य सेवा का एक बुनियादी तत्व है और इसे मरीज को स्वास्थ्य सेवा से हो सकने वाले संबंधित अनावश्यक नुकसान या संभावित नुकसान से मरीज को सुरक्षित रहने की स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। 
आंकड़ें भयावह हैं: अस्पताल की ओर से की जाने वाली गलतियों और असुरक्षित चिकित्सा की वजह से दुनिया भर में अस्पतालों में भर्ती होने वाले 10 प्रतिषत मरीजों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। निजी तौर पर किए गए अध्ययनों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले 4-17 प्रतिषत मरीजों ने प्रतिकूल प्रभाव के बारे में बताया। अस्पताल की गलतियों और असुरक्षित देखभाल की वजह से इनमें से, 5-21 प्रतिषत रोगियों की मौत हो जाती है। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में, अस्पताल में मरीजों को लगने वाले संक्रमणों - हास्पीटल एक्वायर्ड इंफेक्षंस (एचएआई) बढ़कर 2 से 20 गुना हो गया है। विकसित देषों में एचएआई की व्यापकता 3.5 प्रतिषत से लेकर 12 प्रतिषत के बीच है जबकि विकासषील देषों में एचएआई की व्यापकता 5.7 प्रतिषत से लेकर 19.1 प्रतिषक के बीच है। 
ऐसा क्यों होता है: चिकित्सा शास्त्र में अस्पताल मंे होने वाले संक्रमणों का जिक्र किया गया है। ऐसे संक्रमण रोगियों को तब नहीं होते हैं, जब वे अस्पताल नहीं आते हैं। हालांकि साक्ष्यों से यह भी पता चलता है कि इनमें से आधे मामलों को अस्पताल की व्यवस्था, रास्ते में सुधार, और प्रक्रियाओं की योजना बनाते समय बजट में थोड़ी वृद्धि करके रोका जा सकता है। चूंकि सरकारी अस्पतालों में आम तौर पर लोगों की देखभाल के लिए जरूरत से कम मानव संसाधन होते हैं इसलिए इस क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी की अहम भूमिका है। काम के बोझ के अनुपात में सभी प्रकार के संसाधनों के उचित आबंटन नहीं किये जाने के बारे में मामले भी दर्ज किये गये हैं। अक्सर, न सिर्फ व्यक्तियों के द्वारा अनजाने में गलती की जाती है, बल्कि यहां होने वाले संक्रमणों की रोकथाम के लिए प्रणालियां और प्रक्रियाएं भी पर्याप्त रूप से प्रभावी नहीं हो सकती है।
अब कार्रवाई करने की जरूरत क्यों है: यह मुद्दा हाल ही में आरंभ किए जाने वाले राष्ट्रीय स्वास्थ्य गारंटी मिशन (एनएचएएम) के साथ खबर में आया है जिसका उद्देष्य भारत में पूरी आबादी के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज उपलब्ध कराना है। अगस्त और सितंबर में, राष्ट्रीय स्तर पर और विश्व स्वास्थ्य संगठन में मरीज की सुरक्षा पर दो विचार विमर्श किये गये। डब्ल्यूएचओ ने भारत सहित दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के मरीज की सुरक्षा के लिए एक नीति की रूपरेखा भी जारी की। विकसित दुनिया में कई देशों ने ''स्पीक अप फाॅर पेषेंट सेफ्टी'' अभियान चलाया है। मरीजों की सुरक्षा में सुधार करने के लिए व्यवस्थापरक प्रयासों की जरूरत है जिनमें कामकाज में सुधार, वातावरण सुरक्षा एवं संक्रमण नियंत्रण सहित जोखिम प्रबंधन, दवाइयों का सुरक्षित उपयोग, उपकरणों की सुरक्षा और सुरक्षित क्लिनिकल आचरण तथा देखभाल के लिए सुरक्षित वातावरण जैसे व्यापक क्षेत्रों में कार्रवाइयां किए जाने की जरूरत है। 
हमें क्या करने की जरूरत है: हमें सुरक्षा की संस्कृति को अवष्य लागू करना चाहिए जैसा एयरलाइन उद्योग में किया जाता है। हालांकि इस संबंध में अस्पतालों और स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं के राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड (एनएबीएच) और उसके विभिन्न कार्यक्रमों, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (एमओएचएफडब्ल्यु) के नेशनल क्वालिटी एश्योरेंस मिशन (एनक्यूएएस), संयुक्त आयोग इंटरनेशनल (जेसीआई) द्वारा प्रयास किये गये हैं। उन्होंने रोगियों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं मेें विष्वास की भावना कायम किया है ताकि मान्यता प्राप्त अस्पतालों में तय किये गये न्यूनतम मानकों को कायम रखा जा सके। मान्यता प्राप्त अस्पतालों में क्लिनिकल ऑडिट के कार्य किये जाते हैं और डिजाइन के द्वारा गुणवत्ता आश्वासन प्रक्रियाओं को लागू किया जाता है और इस प्रकार समय पर कई चिकित्सा त्रुटियों से बचा जा सकता है। स्वास्थ्य बीमा उद्योग ने भी गुणवत्ता पूर्ण सेवा में सुधार करने और मानकीकरण करने के लिए अपने ग्राहकों पर परोक्ष रूप से दबाव डालकर कम से कम भारत के प्रमुख शहरों में एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई है।
हम यह कैसे कर सकते हैं: कई अन्य मुद्दों की तरह, मरीज की सुरक्षा की चुनौती को भी एक बहु-आयामी दृृष्टिकोण के माध्यम से संबोधित किया जाना चाहिए। भारत के पास रक्त बैंक सुरक्षा, अंग प्रत्यारोपण की सुरक्षा और बुनियादी मातृ एवं नवजात शिशु स्वास्थ्य सेवाओं के मामलों में मजबूत तंत्र है, लेकिन सुरक्षित इंजेक्शन, सुरक्षित फलेबोटोमी, सुरक्षित सर्जरी, और जैव चिकित्सा अपशिष्ट के सुरक्षित निपटान के लिए एक मजबूत तंत्र की जरूरत है। हम मरीज की सुरक्षा के मुद्दों को उठाने के लिए सभी हितधारकों के लिए निम्नलिखित 4 सूत्री कार्यक्रम का प्रस्ताव देते हैं।
1. राष्ट्रीय रोगी सुरक्षा सप्ताह मनाने पर विचार करें, यह सभी सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य के क्षेत्र के संस्थानों और स्टैंडअलोन क्लीनिकों के लिए प्रासंगिक होना चाहिए।
2. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (एमओएचएफडब्ल्यु) को विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यु एच ओ) को क्षेत्रीय रणनीति अपनाने के लिए प्रेरित करने के अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए जिनमें व्यवहार परिवर्तन की पहल के अलावा राष्ट्रव्यापी मरीज की सुरक्षा आकलन और क्षमता विकास शामिल हैं। 
3. राज्य और जिला स्तर पर अधिकारियों और टेक्नोक्रेट्स को इस मुद्दे पर हर हफ्ते कम से कम 15-20 मिनट व्यतीत करना चाहिए। विभिन्न स्वास्थ्य संस्थानों में इस ओर गहराई से ध्यान देने से उन्हें प्रेरणा मिलेगी और वे अपने प्रशासनिक कौशल का उपयोग मरीज की सुरक्षा बढ़ाने के लिए स्थानीय स्तर पर अंतराल को कम करने के लिए कर सकंेगे।
4. पेशेवर और उद्योग निकायों को भी नए विचार विकसित करना चाहिए और रोगी देखभाल प्रदान करने के मामले में सरकार के प्रयासों में मदद करना चाहिए।
अब हम सभी को भारत में रोगी सुरक्षा के मुद्दे को उठाना चाहिए। 


 भारतीय कृषि में अनुसंधान और विकास तथा प्रौद्योगिकी का महत्व

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों का योगदान करीब 14 प्रतिशतत है और हमारी पूरी श्रम शक्ति (कार्य बल) का 50 प्रतिशतत भाग इन्हीं क्षेत्रों में शामिल है। भारत अब गेहूं और चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और दुनिया में प्रमुख खाद्य जिंसों का प्रमुख उत्पादक है। पिछले कुछ वर्षों में, हमारे देश में कुछ कृषि वस्तुओं की पैदावार में प्रति हेक्टेयर उपज प्रति किलोग्राम के हिसाब से स्थिर वार्षिक दर से बढ़ोतरी हुई है।
यह तथ्य है कि पिछले कुछ दषकों के दौरान भारतीय कृषि में उल्लेखनीय बदलाव आया है। घरेलू आय में वृद्धि, खाद्य प्रसंस्करण में विस्तार और कृषि निर्यात में वृद्धि जैसे अनेक कारकों ने इस क्षेत्र में विकास में दोहरे अंक की वृद्धि की है। हरित क्रांति प्रमुख तकनीकी कामयाबी थी जिसने भारतीय कृषि पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। हालांकि, जहां तक अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) के बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी कार्यान्वयन में निवेश की बात आती है, तो इस मामले में बहुत कुछ करने की जरूरत है।
कृषि में अनुसंधान एवं विकास: जमीनी हकीकत
आपूर्ति पक्ष में बढ़ती दिक्कतों के साथ, अनुसंधान एवं विकास की भूमिका तेजी से महत्वपूर्ण हो गई है और अनुसंधान एवं विकास से भारतीय कृषि के क्षेत्र में दीर्घकालिक समाधान की संभावना निहित है। किसानों को नवीनतम शोधों के बारे में जानकारी पहुंचे तो बीज की समस्याओं, कीट और रोग की समस्याओं, फसल स्थिरता, जलवायु परिवर्तन, सिंचाई की समस्याओं, मिट्टी के कटाव, और इसी तरह की अन्य समस्याओं पर काबू पाने में उन्हें मदद मिल सकती हैं।
पूर्व में, अनुसंधान संस्थान, कृषि विश्वविद्यालय, और सार्वजनिक क्षेत्र के निगम टिकाऊ कृषि के तौर-तरीकों के लिए अनुसंधान एवं विकास पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण हितधारक थे। आज, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और निजी क्षेत्र की कंपनियां (क्रिस्टल क्रॉप प्रोटेक्शन प्राइवेट लिमिटेड जैसे एग्रोकेमिकल भी शामिल हंै) भी अनुसंधान एवं विकास पर काफी निवेष कर रही हैं और वैज्ञानिक कृषि तरीकों के लागू किये जाने तथा इनको बढ़ावा दिए जाने के कारण कृशि उद्योग में क्रांतिकारी बदलाव आ रहा है। 
अनुसंधान एवं विकास और प्रौद्योगिकी के लाभ
यहां कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास तथा प्रौद्योगिकी के महत्वपूर्ण पहलुओं और संभावित लाभों के बारे में चर्चा की जा रही है जिनका कार्यान्वयन करके किसान लाभ उठा सकते हैं। 
बीज और फसलों का आनुवंशिक परिवर्तन 
आनुवंशिक तौर पर संशोधित बीजों की मदद से कृशि संसाधनों और कृषि रसायनों का न्यूनतम उपयोग करके भी अधिक पैदावार हासिल की जा सकती है - मौसमी और दीर्घकालिक आधार पर भी। भारत में इस प्रौद्योगिकी का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण पूर्व अनुसंधान एवं विकास के साथ बीटी कपास की शुरूआत है।
क्रॉस-प्रजनन और आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों का बेहतर वाली जेनेटिक इंजीनियरिंग और कृषि जैव प्रौद्योगिकी के साथ समायोजन करके नई तरह की फसलों को लाया जा सकता है जो इन प्रजातियों में प्राकृतिक तौर पर उत्पन्न नहीं होती हैं और इस तरह से पैदावार बढ़ाने में मदद मिलती है तथा साथ ही साथ कीटों से भी सुरक्षा होती है। आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) उच्च उपज वाली बीज ने दुनिया भर के किसानों के बीच लोकप्रियता हासिल की है। आजकल,  ट्रांसजेनिक और संकर बीज भारत में ग्रामीण बाजार पर हावी हो रहे हैं, खासकर अनाज, सब्जियों, और तिलहन के मामले में। 
कीटनाशकों और उर्वरकों पर परीक्षण और अनुसंधान
उर्वरकों और कीटनाशकों के विवेकपूर्ण उपयोग को समझने के महत्व को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। कम मात्रा मे इनके ं प्रयोग और स्थानीय कृशि स्थितियों के अनुकूल उच्च क्षमता वाले कृशि रसायनों के उपयोग पर जोर दिया जाना चाहिएं। यह जरूरी है कि सही समय पर सही मात्रा में कृशि रसायनों एवं उर्वरकों का उपयोग हो ताकि अधिक से अधिक लाभ उठाए जा सकें। सही तरीका यह है कि बाजार में उपलब्ध जेनेरिक कृशि रसायनों की मार्केटिंग तथा ''सदाबहार हरित क्रांति'' लाने वाले नए अणुओं की खोज के बीच संतुलन कायम किया जाए। 
कृषि के क्षेत्र में इस्तेमाल किए जाने वाले एग्रोकेमिकल्स की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए, भारत सरकार ने हाल ही में 71 कीटनाशक परीक्षण प्रयोगशालाओं को देश भर में स्थापित किया है। कई निजी कंपनियां भी कृषि रसायन और उर्वरक के उचित उपयोग के लिए गुणवत्ता को सुनिष्चित करने वाले अनुसंधान पर निवेश कर रही हैं। क्रिस्टल की गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशाला आईएसओ से प्रमाणित है और इसे परीक्षण और अंशांकन प्रयोगशालाओं के राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त है। क्रिस्टल की अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) टीम एग्रोकेमिकल्स की गुणवत्ता उत्पादन को सुनिश्चित करने के लिए बेहतर विनिर्माण प्रक्रियाओं पर जोर देती है।
कुशल जल प्रबंधन
जल सभी कृषि गतिविधियों के लिए अपरिहार्य है। अप्रत्याशित मानसून के साथ-साथ खाद्य उत्पादन के लिए बढ़ती मांग ने स्मार्ट सिंचाई को भारतीय कृषि के लिए जरूरी बना दिया है। जल प्रबंधन को स्थानीय जल संसाधनों और अपशिष्ट निश्पादन के लिहाज से कारगर बनाया जाना चाहिए। सिंचाई प्रौद्योगिकियां एवं क्षेत्र विशेष अनुसंधान एवं विकास इस संबंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। भारत में, बिजली और डीजल पंप का इस्तेमाल आम तौर पर भूजल निकालने के लिए होता है। 
नए युग में ड्रिप सिंचाई जैसी कारगर जल प्रबंधन प्रणालियों तथा ट्रेडल पंप जैसे पानी खींचने वाले उपकरणों की मदद से कम खर्च पर डिजाइन की गई प्लास्टिक की पाइपों के नेटवर्क के जरिए पौधों की जड़ों में नियमित रूप से पानी की आपूर्ति को सुनिष्चित किया जा सकता है। उपरोक्त उल्लेखित प्रौद्योगिकियों तथा आगे के अनुसंधान एवं विकास के प्रभावकारी उपयोग से छोटे किसान भी पूरे वर्श खेती कर सकते हैं तथा फसल उत्पादकता में वृद्धि कर सकते हैं।
पर्यावरण अनुकूल कृषि
कृषि के क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी के उपयोग से पर्यावरणीय प्रभाव से उपज के खराब होने तथा पैदावार बढ़ाने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले रसायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को कम किया जा सकता है। हाल में ही, बायो फार्मुलेशंस के संबंध में प्रौद्योगिकियों को मिट्टी जनित रोगनकों के खिलाफ प्रभावी पाया गया है। इससे कृषि पारिस्थितिकियों की उत्पादन क्षमता को बरकरार रखा जा सकता है। अनुसंधान से पता चलता है कि बिना जुताई वाली कृषि को अपनाने से पारंपरिक बुआई तकनीकों की तुलना में 11 प्रतिशत अधिक पानी बचाया जा सकता है।
अनुसंधान एवं विकास इकाइयों ( निजी और सरकारी दोनों) ने पर्यावरण के अनुकूल कृषि पद्धतियों के लिए और भूमि के उपयोग पैटर्न के बारे में किसानों को शिक्षित करने के लिए फील्ड अनुसंधान एवं विकास की प्रक्रिया का संचालन किया। इससे पता चलता है कि पर्यावरण अनुकूल कृषि पद्धतियों को अपनाने से कृषि उत्पादन में सुधार हो सकता है। साथ ही साथ, जैव विविधता के संरक्षण की दिशा में कार्य किया जाना चाहिए ग्रामीण समुदायों की आजीविका में सुधार हो। क्रिस्टल उल्लेखनीय एकीकृत आम खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन के लिएगुजरात इनवारो प्रोटेक्षन एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड का सदस्य है।
भविष्य का रास्ता 
प्रौद्योगिकी एकीकरण में कृषि उत्पादन और व्यापार शुरू करने के पूरे कृषि व्यवसाय मूल्य श्रृंखला को बदलने की क्षमता है, और यह किसानों को जागरूक निर्णय लेने में भी मदद करता है। इंटरनेट से संबंधित चीजों का इस्तेमाल करने से, जोखिम की गंभीरता को कम करना और खेत से फार्म तक फसल को ले जाना अधिक आसान हो गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कृषि तकनीक भविष्य के लिए टिकाऊ कृषि में सहायता करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। प्रौद्योगिकी और अनुसंधान एवं विकास संयुक्त रूप से भारतीय कृषि उद्योग के महत्वपूर्ण अंतर करने वाले के रूप में उभरा है, चाहे यह प्राथमिक (उत्पादन), माध्यमिक (प्रोसेसिंग) या तृतीयक (मार्केटिंग और पैकेजिंग) के स्तर पर हो।
अनुसंधान एवं विकास नई प्रौद्योगिकियों उत्पन्न करता है और उन्हें किसानों के लिए उपलब्ध कराता है। आने वाले वर्षों में कृषि प्रौद्योगिकी ग्रामीण संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन से संबंधित समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। क्रिस्टल लगातार भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई), केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (सीआरआरआई), और चावल अनुसंधान निदेशालय (डीआरआर) के साथ निरंतर संबद्ध रहा है। ये सभी विभिन्न अनुसंधान एवं विकास से संबंधित परीक्षण के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से मान्यता प्राप्त हैं। 
फसल पैदा करने और फसल संरक्षण और निजी क्षेत्र से भारी निवेश से संबंधित अनुसंधान एवं विकास की सफल पहल के बावजूद, भारत में काफी किसान विशेषज्ञ वैज्ञानिक सलाह के अभाव में अधिकतम पैदावार प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं और इसलिए अनुसंधान और व्यवहार के बीच की खाई को पाटना अत्यंत आवश्यक है।


 


वातावरण में अधिक धुंध हाने पर बाहर की सैर करने से बचें

बुजुर्ग लोगों और हृदय रोगियों को ठंड में पर्याप्त एहतियात बरतना चाहिए
सुबह की सैर पारंपरिक रूप से बहुत ही स्वस्थ दैनिक व्यायाम माना जाता है क्योंकि यह आपके फेफड़ों को ताजी हवा देकर और आपकी मांसपेशियों को स्वस्थ रूप से सक्रिय कर आपके दिन की सही शुरुआत कर सकता है। हालांकि, कुछ निश्चित परिस्थितियों में, सुबह की सैर करने से फायदे से अधिक नुकसान हो सकता है।
सर्दियों के षुरू होते ही, मौसम का अंदाजा लगाना और रोजाना सुबह की सैर के लिए बाहर निकलने से पहले व्यायाम के लिए सावधानी बरतना महत्वपूर्ण है। हृदय रोगियों, दमा रोगियों और सभी बुजुर्ग लोगों को अत्यधिक सावधानी बरतना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जो अत्यधिक ठंड और सर्दियों की धुंध के संपर्क में आने पर बीमार हो सकते हैं।
सुबह की सैर एक बहुत ही स्वास्थ्यकारी अभ्यास है। वास्तव में, सुबह-सुबह सैर करने के कार्यक्रम का सख्ती से पालन करने वाले कभी भी सुबह घर में नहीं रहते, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाहर कितनी ठंड पड़ रही है। हालांकि षहरों में पर्यावरण की हालत को देखते हुए आपको कुछ सावधानी बरतनी चाहिए और सुबह में सैर के आपके रोजमर्रे के कार्यक्रम में थोड़ा बदलाव लाना चाहिए। सुबह के समय सर्दियों में स्मोग बहुत ही घना होता है। सुबह के समय कोहरा गाडियों से निकलने वाले धुंये से मिलकर स्मोग की जहरीली परत बनाता है और जो हमारे सांस के जरिए षरीर के अंदर जाता है। बाहर के वातावरण में पीएम 2.5 कणों के साथ - साथ हानिकारक प्रदूशकों की सघनता सुबह के समय सबसे अधिक होती है। ऐसी स्थिति में घर से बाहर सैर करने से लाभ की तुलना में हानि ज्यादा होती है। 
सर्दियों में वायु में विषाक्तता की बढ़ोतरी के अलावा हवा में ठंडक सबसे अधिक होती है और हवा में तैरते खतरनाक कणों से युक्त ठंडी हवा को सांस के जरिए षरीर के अंदर लेने से आपकी श्वसन प्रणाली में गंभीर  एलर्जिक प्रतिक्रिया हो सकती है, खास तौर पर उन रोगियों में जो पहले से ही दमा या ब्रोन्कियल एलर्जी से पीड़ित हैं।'' 
हृदय रोगियों के लिए, सर्दियों के मौसम को अनुकूल नहीं माना जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बहुत अधिक सर्द मौसम हृदय पर बहुत अधिक दवाब डालता है। क्लिनिकल सबूतों से पता चलता है कि सर्दियों में दिल के दौरे के मामले बढ़ जाते हैं। इसलिए दिल के मरीजों के लिए सुझाव है कि वे सर्दियों में सुबह-सुबह घर से बाहर निकलने से परहेज करें क्योंकि अत्यधिक ठंड आपके हृदय पर अधिक जोर डालते हैं जबकि आपका हृदय पर पहले से ही दवाब है और वह काफी कमजोर हो चुका है। अतिरिक्त षारीरिक दवाब कार्डियोवैस्कुलर रोगों से ग्रस्त लोगों के लिए काफी खतरनाक हो सकते हैं। 
हालांकि, इस सब का मतलब यह नहीं है कि सर्दियों के निष्क्रिय महीनों के दौरान आप रोजमर्रे के व्यायाम को छोड़ दें। अगर आप कम से कम 30 मिनट तक भारी व्यायाम करतें हैं तो मधुमेह, हृदय रोग और यहां तक कि कुछ तरह के कैंसर जैसे जीवन षैली से जुड़े रोगों से बचाव हो सकता है। व्यायाम के दौरान कुछ सावधानियां रखनी चाहिए जो निम्नलिखित हैं: 
आप देर से सैर पर जाएं - अगर सुबह बहुत ठंड है तो बेहतर यह है कि आप थोड़ी देर से बाहर निकलें ताकि बाहर की हवा में ठंडक कम हो जाए। सुबह की सैर जरूरी है लेकिन आप इसे सुबह 6 बजे से लेकर 10 बजे तक कर सकते हैं। आप रोजाना की सैर के लिए घर से बाहर निकलने के पहले सूर्य के निकलने का इंतजार कर सकते हैं। 
यह देखें कि बाहर स्मोग है या नहीं: अगर आकाष में काफी स्मोग है तो सैर के लिए घर से बाहर जाने के बजाए घर में ही रहकर व्यायाम करें। आप सुबह की सैर के बदले घर में ही एरोबिक व्यायाम या कोई कार्डियो व्यायाम कर सकते हैं। 
मास्क पहनें: अगर आप स्वस्थ व्यक्ति हैं तो आप सैर के लिए बाहर निकलते वक्त नाक को ढकने वाले मास्क लगा लें ताकि आप सांस के जरिए विषाक्त हवा ग्रहण नहीं कर सकें। अगर आपको दमा या ब्रोन्कियल एलर्जी है या आप दिल के मरीज है तो आपके लिए सलाह यह है कि मास्क लगाकर भी बाहर निकलना ठीक नहीं है। 
अपने आप को सुरक्षित रखें :  आप सर्दियों के मौसम में कई तह वाले गर्म कपड़े पहनें ताकि आप बहुत अधिक ठंड के अचानक संपर्क में आने से या हाइपोथर्मिया से बच सकें। यह सुनिष्चित करें कि आपका शरीर - नाक तक अच्छी तरह ढका हो ताकि ठंडी हवा को आपके फेफड़े में जाने से रोका जा सके। 
घर से बाहर निकलने से पहले अपने को तैयार कर लें: ठंड के समय आपके हृदय, मांसपेषियों एवं शरीर को अपने-आप को गर्म करने के लिए कुछ अधिक समय की जरूरत होती है। आपके लिए सुझाव यह है कि घर से बाहर निकलने के पहले आप घर के भीतर ही कुछ एरोबिक व्यायाम कर लें। 
सैर के लिए सुरक्षित मार्ग चुनें: आप अपने मोहल्ले में ही सैर करें या वैसी जगह पर सैर करें जहां वाहनों की आवाजाही नहीं होती हो या जहां पर वाहनों के प्रदूषण का स्तर कम हो। बड़े आकार वाले पार्कों या गार्डन में जाने से परहेज करें, क्योंकि वहां ठंडी हवा का बहाव अधिक होता है। 


रात का खर्राटा कर सकता है आपका दिन खराब

44 वर्षीय श्री विकास गुप्ता को रात में जल्दी बिस्तर पर जाने और सही समय पर जागने के बावजूदए अलार्म की आवाज सुनने पर रोने का मन करता था। जब वह जागते थे तो बिल्कुल तरोताजा महसूस नहीं करते थे और दिन का काम करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं रहते थे। उन्हें दिन के दौरान झपकी आती रहती थी जो उनके लिए ठीक नहीं था। इसका पहला संकेत उनकी पत्नी से मिला जो वर्षों से उनके खर्राटों की शिकायत कर रही थी। उनकी पत्नी ने उन्हें डॉक्टर से परामर्श करने का सुझाव दिया कि वह हर समय थकावट महसूस क्यों करते हैं और पूरी तरह से जांच करने पर पता चला कि स्लीप डिसआर्डर से पीड़ित थे जिसे ऑबस्ट्रक्टिव स्लीप एप्निया (ओएसए) कहा जाता है।
क्यूआरजी हेल्थ सिटी, फरीदाबाद के रेस्पिरेटरी एंड स्लीप मेडिसिन के वरिष्ठ कंसल्टेंट और विभागाध्यक्ष डॉ. गुरमीत सिंह छाबड़ा ने बताया, ''स्लीप एप्निया एक क्रोनिक स्थिति है। नींद के दौरान मांसपेशियां के रिलैक्स होने पर मुलायम ऊतक कालैप्स होकर वायुमार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं, उसी के कारण यह होता है। इसके कारण, बार—बार सांस रुकती है जिसके कारण अक्सर ऑक्सीजन का स्तर कम हो जाता है। रुक—रुक कर सांस लेने के बाद नींद खुलती रहती है जिससे नींद बाधित होती है।''
स्लीप एप्निया से पीड़ित अधिकांश लोगों में इसका पता नहीं चलता। स्लीप एप्निया से 20.30 प्रतिशत लोगों के पीड़ित होने का अनुमान हैए लेकिन इनमें से 90 प्रतिशत लोगों को इसका पता नहीं होता है और वे इस कारण वे इसका इलाज नहीं कराते हैं। लेकिन इसका इलाज नहीं कराने पर अक्सर नीद के दौरान अत्यधिक नींद या थकान महसूस होती हैए साथ ही सुबह के समय सिरदर्द होता है और याददाश्त में कमी आने लगती है। स्लीप एप्निया का इलाज नहीं होने पर यह उच्च रक्तचाप, स्ट्रोक, हृदय रोग, मधुमेह और क्रोनिक एसिड रिफ्ल्स जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के जोखिम को बढ़ाती है।
स्लीप एप्निया का पता लगाने के लिए सबसे बेहतर तरीका स्लीप स्डटी है। इसके तहत मुंह का परीक्षण किया जाता है जिससे संभावित स्लीप एप्निया का पता चलता है।
इसके उपचार के विकल्पों में कंटीनुअस पॉजिटिव एयरवे प्रेशर (सीपीएपी) या बिलीवेल पॉजिटिव एयरवे प्रेशर (बीपीएपी) थेरेपी, ओरल अप्लायन्स थेरेपी और सर्जरी शामिल हैं। स्लीप एप्निया का सबसे आम उपचार सीपीएपी थेरेपी है। इसके तहत वायुमार्ग को खोलने के लिए वायुमार्ग में लचीली ट्यूब के माध्यम से अधिक दबाव के साथ हवा डाली जाती है।


 


ब्रेस्ट कंजर्वेशन सर्जरी से स्तन कैंसर के रोगी जी सकते हैं उच्च गुणवत्तापूर्ण जीवन 


जिन महिलाओं के पूरे स्तन को हटा दिया जाता है, सर्जरी के बाद उनके जीवन की गुणवत्ता में काफी गिरावट देखने को मिलती है
 
स्तन कैंसर लंबे समय से शहरों में अधिक उम्र की महिलाओं की बीमारी मानी जाती रही है। लेकिन अब इसने भारत के कोने- कोने में अपनी लंबी छाया फैला दी है। इस बीमारी मंे सिर्फ एक दशक में 250 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, और अब यह न केवल ग्रामीण-शहरी विभाजन को नजरअंदाज कर रही है, बल्कि युवा महिलाओं में भी फैल रही है।
देश में अभी हर साल स्तन कैंसर के 1.3 लाख से अधिक मामले दर्ज किये जाते हैं जबकि 10 साल पहले इसके 54 हजार मामले ही सामने आते थे। यह शहरों में सबसे आम कैंसर के रूप में उभरा है, और ग्रामीण क्षेत्रों में दूसरा सबसे आम कैंसर है। वास्तव में, यह बीमारी भारतीय महिलाओं में कैंसर के सभी मामलों में एक चैथाई मामलों के लिए जिम्मेदार है, और कैंसर से संबंधित मौतों का पांचवां सबसे महत्वपूर्ण कारण है।
गैर स्वयं सेवी संगठन - द पिंक इनीशिएटिव द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, देश में स्तन कैंसर के रोगियों की आयु वर्ग में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। लगभग 25 साल पहले, हर 100 स्तन कैंसर के रोगियों में, 2 रोगी 20-30 आयु वर्ग के, 7 रोगी 30-40 आयु वर्ग के और 69 रोगी 50 साल से अधिक उम्र की होते थे। दूसरे शब्दों में, अब स्तन कैंसर के सभी रोगियों में से लगभग आधे रोगी 50 साल से कम उम्र के होते हैं। इसके अलावा, 25-40 साल के रोगियों की संख्या बढ़ रही है, जो बहुत ही परेशान करने की प्रवृत्ति है।
स्तन कैंसर का अगर समय पर पता चल जाए और पर्याप्त रूप से इलाज किया जाए, तो इसका इलाज संभव है। डिजिटल मैमोग्राफी एक विशेष प्रकार की एक्स-रे जांच होती है, जिससे बहुत ही प्रारंभिक अवस्था में कैंसर का पता लग जाता है। 40 साल की हो चुकी हर महिला को यह जांच साल में एक बार अवष्य कराना चाहिए।
स्तन कैंसर के लिए सर्जरी में पहले की जाने वाली रैडिकल मास्टेक्टोमी (स्तन को पूरी तरह हटाना) के बाद काफी बदलाव आया है। स्तन कैंसर के लिए सबसे आम सर्जरी आज मोडिफायड रैडिकल मास्टेकटोमी (एमआरएम) है, जो पुनर्निर्माण के साथ या इसके बिना स्तन को पूरी तरह से हटाने पर जोर देता है। दूसरा विकल्प ब्रेस्ट कंजर्वेषन सर्जरी (बीसीएस) है, जिसके तहत केवल ट्यूमर को हटाया जाता है, और बाकी स्तन का बरकरार रखा जाता है।
ब्रेस्ट कंजर्वेशन ट्रीटमेंट (बीसीटी) में ब्रेस्ट कंजर्वेशन सर्जरी (बीसीएस) और पूरी ब्रेस्ट रेडियोथेरेपी शामिल होती है, जिसकी पुनरावृत्ति दर और जीवित रहने की सम्पूर्ण दर मोडिफायड रैडिकल मास्टेकटोमी (एमआरएम) से अधिक होती है और इसलिए ब्रेस्ट कंजर्वेशन ट्रीटमेंट (बीसीटी) अब पश्चिम में जल्द होने वाले स्तन कैंसर के लिए देखभाल का मानक बन गई है।
मीनाक्षी मिशन हाॅस्पिटल में, हमने कुछ साल पहले सर्जरी के बाद फौलो- अप वाली स्तन कैसर के रोगियों पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन का उद्देश्य स्तन हटाने के बाद उनके जीवन की गुणवत्ता का आकलन करना था। अध्ययन में कुछ चैंकाने वाले तथ्यों का पता चला था।
तीन में से लगभग एक रोगियों ने कहा कि वह अपने पति से ही उपेक्षित की जा रही थी। वास्तव में, इन महिलाओं में से कई महिलाओं को उनके पतियों ने छोड़ दिया था, संभवतः इस कारण से क्योंकि पुरुष अपनी पत्नी के स्तन को हटाने के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सके, तब भी जब उन्होंने इस निर्णय में शुरू में अपना समर्थन दिया था। करीब 38 प्रतिषत रोगियों ने सेक्स के प्रति उनके दृष्टिकोण पर  नकारात्मक प्रभाव के बारे में बताया, जबकि 73 प्रतिशत रोगियों ने कहा कि स्तन हटाने से उनके षरीर की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। 
अधिकतर स्तन कैंसर के रोगी, उनके पति और रिश्तेदार पूरा स्तन हटाने के पक्ष में निर्णय लेते हैं, तब भी जब रोग प्रारंभिक चरण में होता है और इलाज संभव होता है, इस भय और मिथ्या धारणा के कारण कि यदि पूरे अंग को निकाल दिया जाए तो कैंसर दोबारा नहीं होगा। इन रोगियों को सर्जरी के बाद के गुणवत्तापूर्ण जीवन को नुकसान पहुंचाने से बचाने के लिए ब्रेस्ट कंजर्वेषन ट्रीटमेंट का विकल्प चुनने के लिए शिक्षित करने की जरूरत है, जैसा कि हमने अपने अध्ययन में पाया है।
दुर्भाग्य से, भारत में, बीसीटी चिकित्सकों या रोगियों में अधिक लोकप्रिय नहीं है। केवल 11-23 प्रतिशत सर्जन इसे पसंद करते हैं जबकि पश्चिम में 60-70 प्रतिशत सर्जन इसे वरीयता देते हैं। एमआरएम की तुलना में बीसीएस के फायदों में बेहतर शारीरिक छवि, यौन सक्रियता और मनोवैज्ञानिक समायोजन शामिल हैं। यह चिकित्सा समुदाय की जिम्मेदारी है कि वे बीसीटी के बारे में मरीजों को जानकारी दें और उन्हें स्तन रहित जीवन जीने की बजाय एक संपूर्ण जीवन जीने में सक्षम बनाएं।
मीनाक्षी मिशन हाॅस्पिटल, मदुरै में 2006 से ही स्तन कैंसर के रोगियों के लिए बीसीटी की सुविधा उपलब्ध करायी जा रही है। सौभाग्य से, हम पहले की तुलना मंे आज अधिक से अधिक रोगियों को बीसीटी का विकल्प चुनते हुए देख रहे हैं।


डॉ. के. एस. किरुशना कुमार मीनाक्षी मिशन हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेन्टर, मदुरै में प्रमुख ऑन्कोलॉजिस्ट हैं।


देश में ही विकसित थक्का को घुलाने वाली दवा से दिल की बीमारी का इलाज होगा अधिक कारगर

भारतीय वैज्ञानिकों की कोशिश की बदौलत दिल के दौरे का प्रबंधन अब आसान होने वाला है। ये वैज्ञानिक रक्त वाहिकाओं में रक्त के प्रवाह में अवरोध पैदा करने वाले रक्त के थक्के को घुलाने वाली दवा का विकास कर रहे हैं। बाजार में उपलब्ध रक्त के थक्के को घुलाने वाली परम्परागत दवाओं के विपरीत भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित होने वाली दवा अधिक विशिष्ट होगी तथा इसके कम दुष्प्रभाव होंगे। 
हालांकि रक्त थक्का घुलाने वाली दवायें नयी नहीं है। ये दवायें पश्चिमी देशों में 1970 के दशक में विकसित हुयी थी। हमारे देश में स्वदेशी तौर पर विकसित थक्के घुलाने वाली दवायें भी उपलब्ध है। 
भारतीय वैज्ञानिकों का कहना है कि मौजूदा समय में इस्तेमाल की जाने वाली रक्त थक्का घुलाने वाली दवाइयों के साथ एक बड़ी समस्या जुड़ी हुयी है। ये दवाइयां खास जगह पर प्रभाव नहीं डालती। इसके कारण इन दवाइयों के सेवन से रक्त स्राव का खतरा हो सकता है और मरीज को यह दवाई अस्पताल में ही दी जाती है। 
नयी दवा का विकास करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया है कि नयी दवा खास जगह पर प्रभाव डालती है। यह न केवल रक्त स्राव को रोकती है बल्कि इसे एकल शॉट के इंजेक्शन के रूप में भी दिया जा सकता है। नैदानिक संदर्भों में इसके कई मुख्य लाभ हैं। 
इसका विकास विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के अधीन कार्यरत चंडीगढ़ स्थित माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी संस्थान (आईएमटैक) ने किया है। इस दवा पर गुजरात में चार केन्द्रों में दूसरे चरण के ट्रायल चल रहे हैं और इस दवा के अगले दो वर्शों में बाजार में आ जाने की उम्मीद है। 
सीएसआईआर के महानिदेशक गिरीश साहनी ने कहा कि इस नयी दवा को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है क्योंकि वर्तमान में इस्तेमाल होने वाली दवाइयों के विपरीत नयी दवा का इस्तेमाल ग्रामीण इलाकों में भी हो सकेगा। 
दिल का दौरा पड़ने पर चिकित्सक सबसे पहले थक्का घुलाने वाली दवाई का इस्तेमाल करते हैं और दिल के दौरे के लक्षण उभरने के छह घंटे के भीतर अगर मरीज को यह दवा दे दी जाये तो 40 से 50 प्रतिशत मामलों में मरीज की जान बचायी जा सकती है। 
डाॅ. साहनी ने बताया कि हमने दस मरीजों पर दूसरे दौर का आरंभिक सीमित ट्रायल पूरा कर लिया है और इस ट्रायल के परिणाम बहुत ही अच्छे हैं। हम दूसरे दौर का विस्तारित ट्रायल षुरू करने वाले हैं और हमें उम्मीद है कि अगले वर्श अक्तूबर तक दूसरे चरण का सम्पूर्ण ट्रायल पूरा कर लेंगे। 
उन्होंने उम्मीद जतायी कि दूसरे चरण के ट्रायल के पूरा हो जाने पर भारतीय औषधि महा नियंत्रक द्वारा इस दवाई के व्यावसायिकरण की अनुमाति मिल जायेगी। उन्होंने कहा, ''हमने भारतीय औषधि महानियंत्रक से इस नयी दवाई को फास्ट ट्रैक मंजूरी प्रदान करने का अनुरोध किया है क्योंकि यह जीवन रक्षक दवाई है। ''
नई दवा देश में विकसित थक्का घुलाने वाली तीसरी पीढ़ी की दवा है। पहले की पीढ़ियों की दवा भी इमटैक में ही विकसित की गयी थी।
चंडीगढ़ स्थित प्रयोगशाला ने 1990 के दशक में ही थक्का घुलाने वाली दवा का विकास करना शुरू कर दिया था और स्ट्रेप्टोकाइनेज के लिए एक तकनीकी पैकेज को विकसित में सफलता हासिल हुई थी। स्ट्रेप्टोकाइनेज एक प्रकार का प्रोटीन होता है, जो स्वाभाविक रूप से कुछ बैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न किया जाता है और यह रक्त वाहिकाओं में थक्कों को घुलाने वाला एक सक्रिय पदार्थ है। अत्यधिक सस्ती प्रक्रिया से किण्वन द्वारा निर्मित यह दवा 2002 में बाजार में आयी।
सात साल बाद, 2009 में, वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में रिकंबिनैंट तकनीक से स्ट्रेप्टोकाइनेज पर आधारित दूसरी पीढ़ी की थक्का को घुलाने वाली दवा विकसित की और यह पहले संस्करण की तुलना में बेहतर और सस्ती थी।


अब गुड़ से बनेंगे स्वादिष्ट और पौष्टिक चॉकलेट

गुड़ से बने स्वादिष्ट और पोषक तत्वों से भरे चॉकलेट, जल्द ही बाजार में मिलने लगेंगे और आपके घरों के रेफ्रिजरेटर में भी मौजूद होंगे। भारत के शोधकर्ताओं का एक समूह इस दिशा में काम कर रहा है। ये चाॅकलेट मधुमेह से ग्रस्त लोग भी खा सकतेहैं।
आम तौर पर चाॅकलेट में काफी मात्रा में कोका, दुग्ध पाउडर, मक्खन, परिष्कृत शक्कर और अधिक कैलोरी वाले स्वादिष्ट बनाने वाले पदार्थ होते हैं। हालांकि ये बहुत अधिक कैलोरी के होते हैं लेकिन इनमें कार्बोहाइड्रेड एवं प्रोटीन नगण्य होते हैं। चाॅकलेट में बहुत कम पौश्टिकता होती है क्योंकि इनमें घटक के रूप में परिष्कृत शक्कर मिलाया जाता है। चाॅकलेट के कारण दांत खराब होने, दांत में कैविटी होने तथा मधुमेह होने जैसी समस्यायें एवं बीमारियां होने के खतरे होते हैं।
राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय के लक्ष्मीनारायण प्रौद्योगिकी संस्थान के खाद्य प्रोद्योगिकी विभाग की सुश्री श्वेता एम. देवताले ने कहा, ''परिष्कृत शक्कर के स्थान पर हम विभिन्न तरह के गुड का उपयोग करते हैं। पिघले हुये गुड़ में हम स्वादिष्ट बनाने वाले पदार्थ के तौर पर काॅफी/कोको पाउडर का इस्तेमाल करते हैं ताकि इसे स्वादिष्ट बनाया जा सके। इसके अलावा स्वास्थ्य लाभ के लिये इसमें पोषक तत्व भी मिलाये जाते हैं।
उन्होंने कहा कि चॉकलेट महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त विभिन्न प्रकार के गुड़ का उपयोग करके तैयार किए गए हैं। कोल्हापुरी गुड़ अपनी गुणवत्ता के लिए राज्य में सबसे लोकप्रिय है। भारत में दुनिया के कुल गुड़ उत्पादन का 70 प्रतिशत उत्पादन होता है।
उन्होंने कहा, ''हमने तरल गुड़, जैविक ठोस गुड़, नारियल पौधों के रस से बनाये गए गुड़, खजूर और ताड़ के पौधों के रस से बनाए गए गुड़ और पाउडर गुड़ जैसे विभिन्न प्रकार के गुड़ का इस्तेमाल करके चॉकलेट बनाया है। गुड़ से बनाये जाने वाले स्वादिष्ट चाॅकलेट में कच्चे माल के रूप में मक्खन / कोको बटर सबस्टीच्यूट, इमल्सीफायर के रूप में सोया लेसितिण, कोको पाउडर, वसायुक्त दुग्ध पाउडर और कॉफी पाउडर मिलाये जाते हैं।''
विश्लेषण और प्रयोगात्मक कार्य खाद्य प्रौद्योगिकी विभाग, लक्ष्मीनारायण प्रौद्योगिकी संस्थान, नागपुर; केंद्रीय एगमार्क प्रयोगशाला, नागपुर; और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, नागपुर के द्वारा एक साथ मिलकर किया गया था।  
उन्होंने कहा, ''गुड़ के इस्तेमाल से बनाये गये चॉकलेट को पोषण की दृश्टि से अत्यधिक स्वीकार्य पाया गया था। इसे कम पोषण और कुपोषण से निपटने के लिए हेल्थ सेप्लिमेंट के रूप में लिया जा सकता है। आयुर्वेद में, गुड़, तंत्रिका तंत्र को मजबूत करने, एनीमिया को रोकने और हड्डियों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। यह पर्यावरण के विषाक्त पदार्थों से शरीर की रक्षा भी कर सकता है और कैल्शियम, फॉस्फोरस और लोहे जैसे खनिजों का अच्छा स्रोत होने के कारण यह फेफड़ों के कैंसर की संभावना को भी कम कर सकता है।''
सुश्री देवताले ने कहा कि इस चाॅकलेट के बाजार में उपलब्ध सामान्य चॉकलेट की तुलना में लगभग 20-30 प्रतिषत सस्ता होने की उम्मीद है। टीम ने इस उत्पाद के पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया है।
उन्होंने कहा, ''चॉकलेट को पोषण की दृष्टि से अधिक स्वस्थ बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। हम इसके स्वाद से कोई समझौता किए बिना ही एक सर्वश्रेष्ठ चॉकलेट विकसित करने की कोशिश की है।''
शोध टीम में डॉ. एम. जी. भोटमांगे, खाद्य प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख, एलआईटी नागपुर; श्री प्रबोध एस. हाल्दे, प्रमुख, तकनीकी रेगुलेटरी अफेयर्स, मैरिको लिमिटेड; और एम. एम. चितले, निदेशक, एफबीओ तकनीकी सेवा, ठाणे शामिल हैं।


 


 


न्यूरोनैविगेशन से ब्रेन ट्यूमर का इलाज

अत्यधिक घातक बीमारी माने जाने वाला मस्तिष्क का ट्यूमर अब भी चिंता का सबब बना हुआ है। चिंता का मुख्य कारण काफी हद तक इसके रोगियों के जीवित रहने की संभावना का कम होना है, क्योंकि इसके बहुत कम मरीज लंबी जिंदगी जी पाते हैं। हालांकि समय—समय पर चिकित्सा विज्ञान में इस संबंध में कई अभूतपूर्व विकास हुए हैं, जिससे इसका समय पर जल्द निदान करना और इसका सफलतापूर्वक इलाज करना आसान हो गया है।
ब्रेन ट्यूमर क्या है?
ब्रेन ट्यूमर मस्तिष्क में असामान्य कोशिकाओं का एक संग्रह या पिंड है। खोपड़ी के अंदर कोई भी वृद्धि समस्या पैदा कर सकती है। ब्रेन ट्यूमर कैंसरजन्य (मैलिग्नेंट) या कैंसर रहित (बिनाइन) हो सकता है। जब मैलिग्नेंट ट्यूमर बढ़ते हैंए तो वे आपकी खोपड़ी के अंदर दबाव बढ़ा सकते हैं। यह मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकता है, और यह जीवन को खतरे में डाल सकता है। ब्रेन ट्यूमर वयस्कों और बच्चों दोनों में हो सकता है।
ब्रेन ट्यूमर के लक्षण
ब्रेन ट्यूमर के सबसे आम लक्षणों में से एक सिरदर्द का बढ़ना है, जो सुबह के समय अधिक तेज होता है। इसके अन्य लक्षणों में मतली और उल्टी, हाथों और पैरों में कमजोरी, चलने के दौरान संतुलन में कमीए दौरे, देखने या सुनने में कठिनाई, व्यवहार और संज्ञानात्मक समस्याएं शामिल हैं।
ब्रेन ट्यूमर का निदान
ब्रेन ट्यूमर के निदान के लिए सबसे पहले शारीरिक परीक्षण किया जाता है जिसके तहत तंत्रिका विज्ञान का विस्तृत परीक्षण किया जाता है। आपके डाॅक्टर यह देखने के लिए एक परीक्षण करेंगे कि आपके क्रैनियल नर्व सही हैं या नहीं। ये वे नर्व हैं जो आपके मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं। शारीरिक परीक्षण के बाद रोग की पुष्टि के लिए सीटी स्कैन, एमआरआई, एंजियोग्राफी या सिर की बायोप्सी की जा सकती है।
इलाज
हाल तकए ब्रेन ट्यूमर का इलाज सर्जरीए रेडियेशन और कीमोथेरेपी के पारंपरिक तरीकों का उपयोग करके किया जाता था। लेकिन ओपन ब्रेन सर्जरी के मस्तिष्क में अंदरूनी रक्तस्राव, याददाश्त में कमी या संक्रमण जैसे कई खतरे भी थे। इसमें यहां तक कि थोड़ी सी त्रुटि के भी गंभीर परिणाम हो सकते हैं और गंभीर और स्थायी समस्याएं हो सकती हैं।
नवीनतम उपचार : न्यूरोनैविगेशन से सर्जरी
आज, ब्रेन ट्यूमर के निदान और उपचार के कुछ नए, अधिक क्रांतिकारी तरीकों की बदौलत ब्रेन ट्यूमर को हटाना और रोगी के जीवन काल को बढ़ाना संभव हो गया है। न्यूरो—नैविगेशन तकनीक सर्जन को मस्तिष्क में ट्यूमर कोे ठीक से नेविगेट करने में सक्षम बनाती है।
यह तकनीक जीपीएस के समान है। यह एक कंप्यूटर आधारित प्रोग्राम है जो कम्प्यूटर सिस्टम पर एमआरआई और सीटी स्कैन की छवियों को दर्ज करता है। एक बार जब सूचना को एक विशेष वर्क—स्टेशन में फीड कर दिया जाता है, तो सिस्टम एमआरआई छवियों के साथ—साथ ऑपरेटिंग रूम में वास्तविक रोगी के नाक और भौंह जैसे बाहरी क्षेत्रों को पहचानने पर काम करता है और डेटा के दो सेट में मिलान करता है।
उसके बाद रेफरेंस प्वाइंटर्स और ऑप्टिकल डिटेक्टर जीपीएस ट्राईएंगुलेशन सिद्धांत पर काम करते हैं ताकि सर्जन यह देख पाता है कि वह पॉइंटर का उपयोग कर समय पर किसी विशेष बिंदु पर कहां काम कर रहा है। यह सर्जनों को सटीक चीरा लगाने में मदद करता हैए जिससे सिर से पूरी तरह से बाल हटाने की जरूरत नहीं पड़ती है और सर्जरी के दौरान बाल को सिर्फ सर्जरी वाली जगह से हटाया जाता है।
न्यूरोनैविगेशन का मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी की सर्जरी के दौरान धीरे—धीरे बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है। इसका इस्तेमाल सुरक्षित रूप से बढ़ रहा है और यह त्रुटि होने की संभावना को काफी कम करता है।


 


भारतीय वैज्ञानिक विकसित कर रहे हैं रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस की नयी हर्बल दवा 

युवा भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस के लिए एक प्रभावी और दुष्प्रभाव रहित दवा का विकास कर रही है। इन वैज्ञानिकों को बहुत जल्द यह दवा विकसित कर लेने की कामयाबी मिलने की उम्मीद है। रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस जोड़ों की एक गंभीर समस्या है जिसके प्रभावी उपचार के बहुत कम विकल्प उपलब्ध हैं।
भारत में एक करोड़ से अधिक लोग इस आटोइम्यून बीमारी से पीड़ित हैं। इसमें शरीर की रक्षा प्रणाली स्वस्थ ऊतकों के खिलाफ काम करने लगती है।
प्रशिक्षण से टाॅक्सिकोलाॅजिस्ट और इस टीम के प्रमुख शोधकर्ता 24 वर्षीय अंकित तंवर ने कहा कि उन्होंने रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस के लिए सबसे प्रभावी जड़ी बूटियों की खोज करने के लिए डीआरडीओ (रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) और जामिया हमदर्द की ओर से इस परियोजना पर काम करना शुरू किया।
श्री तंवर ने दावा किया कि उन्होंने रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस के लिए अधिक कारगर दवा बनाने के लिए अनुकूल जड़ी बूटियों की खोज करने के लिए दुनिया में पहली बार एक गणितीय मॉडल विकसित किया था।
श्री तंवर ने कहा कि टीम ने विभिन्न देशों और भारत के विभिन्न भागों से 50 संभावित प्रभावशाली जड़ी बूटियों की पहचान की और उनमें से 11 को छांटा।
जामिया हमदर्द (हमदर्द विश्वविद्यालय), दिल्ली के मेडिकल एलिमेंटोलाॅजी एंड टाॅक्सिकोलाॅजी विभाग के सहयोग से टीम अब स्तनधारी मॉडल पर अपने हर्बल फार्मुलेषन का परीक्षण करने के लिए काम कर रही है। अब तक के परिणाम से पता चला है कि यह नया उत्पाद न सिर्फ रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस की रोकथाम और इलाज कर सकेगा बल्कि किसी भी संभावित संक्रमण से देखभाल भी करेगा। यह गंभीर रोगियों के इलाज में भी कारगर साबित होगा।
रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस (आरए) के गंभीर मामले में क्रोनिक इंफ्लामेशन, जोड़ों में क्षति और हड्डियों में तेजी से नुकसान के कारण रोगी को अत्यधिक तकलीफ होती है। रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस की आणविक प्रक्रिया को अभी तक ठीक से समझा नहीं गया है। इसलिए इसके प्रभावी उपचार की खोज एक रहस्य बना हुआ है।
सौभाग्य से, रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस (आरए) की वास्तविक शुरुआत से वर्षों पहले लोगों में इसके प्रति संवेदनशीलता का पता लगाना संभव है। इसका अर्थ यह भी है कि सही दवा उपलब्ध होने पर इसके प्रति संवेदनशील व्यक्ति में इसकी शुरुआत को वर्षों तक देर किया जा सकता है और साथ ही बीमारी का अच्छी तरह से इलाज भी किया जा सकता है।
रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस के विकास को रोकने के लिए दर्द निवारक, स्टेरॉयड और संशोधक दवाओं का लंबे समय तक इस्तेमाल कर आटोइम्युनिटी को दबाने और जोड़ों को बाद में होने वाले क्षय से सुरक्षा करने के अधिक विषाक्त या अवांछित प्रभाव हो सकते हैं। इससे आटोइम्युनिटी को दबाने से संबंधित संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है। इसलिए इस स्थिति के लिए हर्बल दवाओं के एक गैर विषैले और प्रभावी उपचार का व्यापक रूप से पता लगाया जा रहा है।


स्ट्रोक की रोकथाम के लिए आप क्या कर सकते हैं

स्ट्रोक जानलेवा होता है लेकिन यहां ऐसे सुझाव दिए जा रहे हैं जिनकी मदद से आप स्ट्रोक के खतरे से बच सकते हैं। 
आप स्ट्रोक को रोकने के लिए निम्न 8 चीजें कर सकते हैं:
— रक्तचाप घटायें : आपका लक्ष्य -  रक्त दबाव को 120 (उपरी संख्या) तथा 80 (नीचे की संख्या) से कम बनाए रखें।
— वजन कम करें: अपनी बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) 25 या उससे कम रखें। रोजाना 1,500 से 2,000 कैलोरी से अधिक न खाने की कोशिश करें (आपकी गतिविधि का स्तर और आपके वर्तमान बॉडी मास इंडेक्स के आधार पर)
— अधिक व्यायाम करें: सप्ताह में कम से कम पांच दिन मध्यम तीव्रता के व्यायाम करें।
— कम मात्रा में शराब का सेवन करें
— छोटा एस्पिरीन लें: रोजाना एक छोटा एस्पिरीन लें (अपने चिकित्सक से परामर्श के बाद)
— आर्टियल फाइब्रिलेशन का इलाज कराएं: यदि आपमें दिल की धड़कन असामान्य होने या सांस की तकलीफ जैसे लक्षण हैं, तो परीक्षण के लिए अपने चिकित्सक को दिखाएं।
— मधुमेह का इलाज कराएं - आपका लक्ष्य : अपने चिकित्सक के निर्देशानुसार रक्त शर्करा को नियंत्रित रखें और अपने रक्त शर्करा पर निगरानी रखें।
— धूम्रपान छोड़ें: धूम्रपान थक्का बनने की प्रवृति को विभिन्न तरीको से बढ़ाता है। यह आपके रक्त को गाढ़ा करता है और यह धमनियों में बनने वाले प्लाक की मात्रा को बढ़ाता है। ''स्वस्थ आहार और नियमित व्यायाम के साथ-साथ, धूम्रपान बंद करना जीवन शैली में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक है जिससे आपको आपके स्ट्रोक के खतरे को काफी कम करने में मदद मिलेगी।


भारतीय वैज्ञानिकों ने विकसित किया पांच गुना सस्ता देशी डेंटल इम्प्लांट


भारत में वर्तमान में आयात किये जाने इंप्लांट से पांच गुना कम खर्च में बनाया जा सकता है यह इंप्लांट


भारत में वैज्ञानिकों ने एक अभिनव और सस्ता डेंटल इंपलांट का विकास किया है जिसकी बदौलत लाखों लोगों के लिए कम खर्च में ही दंत प्रतिस्थापन (टूथ रिप्लेसमेंट) और पुनस्र्थापन (रिस्टोरेशन) कराना संभव हो जाएगा।
केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की न्यू मिलेनियम इंडियन टेक्नोलाॅजी लीडरशिप इनीशिएटिव (एनएमआईटीएलआई) योजना के तहत भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली और मौलाना आजाद इंस्टीट्यूट आफ डेंटल साइंसेज ने इस इंप्लांट को विकसित किया है।
शोध टीम के अनुसार, इंप्लांट पर किये गये परीक्षण में पता चला है कि यह इंप्लांट वर्तमान समय में आयातित बेहतरीन इंप्लांट से भी बेहतर काम कर सकता है और उस इंप्लांट की तुलना में पांच गुना कम खर्च में ही इसे बनाया जा सकता है।
सरकार के 'मेक इन इंडिया' को बढ़ावा देने के एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में इसकी व्याख्या करते हुए आईआईटी, दिल्ली के परियोजना समन्वयक और एसोसिएट डीन (अनुसंधान एवं विकास) नरेश भटनागर, ने कहा कि इस इंप्लांट की कीमत प्रति इंप्लांट 3000 रुपये होगी जबकि आयातित इंप्लांट की कीमत 18000 से 20000 रुपये है।
डंेटल इंप्लांट को सर्जरी की मदद से क्राउन या डेन्चर जैसे प्रोस्थेटिक के लिए सपोर्ट या माउंट की तरह ही हड्डी से सहारा देते हुए प्रत्यारोपित किया जाता है। इंप्लांट की कारगरता का पता इंप्लांट के द्वारा तनाव और बायोकेमिकल दबाव को सहन करने की क्षमता से चलता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार नये इंप्लांट को इस प्रकार बनाया गया है ताकि यह तनाव को कम कर सके और इसके विकसित फीचर के कारण इसे बनाने में भी कम खर्च आता है और इसे एक दांत या कई दांतों के लिए आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। इस डिवाइस का कई केन्द्रों पर परीक्षण किया जा रहा है और वर्तमान में इसे शत प्रतिशत सफल पाया गया है।
डॉ. भटनागर के अनुसार, दंत प्रत्यारोपण भारत में अपेक्षाकृत कम कराया जाता है और इसका एक प्रमुख कारण इस प्रक्रिया का अत्यधिक खर्चीला होना है। यहां हर साल सिर्फ दो या तीन लाख दंत प्रत्यारोपण ही किये जाते हैं। यहां कोरिया जैसे देशों की तुलना में भी कम दंत प्रत्यारोपण किये जाते हैं जहां की आबादी यहां से बहुत कम है लेकिन दोनों देशों में हर साल लगभग बराबर संख्या में दंत प्रत्यारोपण किये जाते हैं। डाॅ. भटनागर ने कहा, ''यह स्पष्ट है कि इंप्लांट के अत्यधिक महंगा होने के कारण भारत में जरूरतमंद कई लोग डेंटल इंप्लांट नहीं करा पाते हैं। 


कैंसर और मूत्र रोगों की चिकित्सा के क्षेत्र में रोबोटिक सर्जरी की हुई शुरूआत 

कैंसर एवं मूत्र रोगों के इलाज के लिए भारत में रोबोटिक सर्जरी की शुरूआत हो गई है। भारत के कुछ बड़े अस्पतालों में शुरू हुई दा विंची सर्जिकल सिस्टम मिनिमली इनवेसिव या लैप्रोस्कोपिक (छोटा सा चीरा) सर्जरी की अगली पीढ़ी के रूप में प्रदर्शन करने में मदद करेगा और इस प्रकार, शल्य चिकित्सा प्रक्रियाएं पारंपरिक ओपन सर्जरी से कम कश्टदायी और परिपूर्ण हो जाएंगी। 
रोबोटिक सर्जरी में शरीर को कम तकलीफ होती है, अस्पताल में कम समय तक रहने की जरूरत पड़ती है, कम खर्च आता है, रक्त का कम नुकसान होता है, बहुत कम निशान रहता है और बहुत कम परेशानी होती है। आज की गई घोषणा से ओपन सर्जरी कराने के डर, दबाव और एंग्जाइटी से ग्रस्त हजारों रोगियों और उनके प्रियजनों को राहत मिलेगी। 
सभी जटिल मूत्र संबंधी रिकंस्ट्रक्टिव कैंसर सर्जरी रोबोट से की जा सकती है। यहां तक कि किडनी टीएक्स जैसी कम्प्लाई सर्जरी भी रोबोट से की जाती है। रोबोट सर्जरी, सर्जरी के सबसे उन्नत रूपों में से एक है जिसका आज चिकित्सा क्षेत्र में तेजी से इस्तेमाल किया जाने लगा है। इससे सर्जन का कौषल बढ़ता है, चिकित्सा खर्च में कमी आती है, सौंदर्य और काॅस्मेटिक दृश्टि से लाभदायक है और इसके अन्य लाभ भी हैं, इसलिए यह मरीजों और चिकित्सकों दोनों के लिए फायदेमंद है।
अत्याधुनिक दा विंची सर्जिकल रोबोट, रोबोट प्रौद्योगिकी का उपयोग कर छोटे चीरों के माध्यम से जटिल मूत्रविज्ञान सर्जरी करने में सर्जन को सक्षम बनाता है। शल्य रोबोट स्वयं से संचालित, कंप्यूटर से नियंत्रित होने वाला उपकरण है जिसे सर्जिकल उपकरणों की स्थिति और मैनीपुलेषन में सहायता करने के लिए प्रोग्राम किया जा सकता है। रोबोट के हाथों में अत्यधिक निपुणता होती है और यह सर्जन को षरीर के बहुत तंग जगहों में भी आॅपरेषन करने में सक्षम बनाता है जहां सिर्फ ओपन (लंबा चीरा) सर्जरी के माध्यम से ही पहुंचना संभव है। यह शल्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के क्षेत्र में एक जबरदस्त विकास का प्रतिनिधित्व करेगा।
मैक्स इंस्टिट्यूट ऑफ ओंकोलाॅजी के अध्यक्ष डॉ. हरित चतुर्वेदी ने अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के बारे में कहा, ''ओपन सर्जरी में कई घंटे लगते हैं, अस्पताल में अधिक समय तक रहना पड़ता है, रक्त की अधिक हानि होती है और काफी दर्द होता है और इनके अलावा कई अन्य असुविधाएँ भी होती हैं, लेकिन दा विंची सर्जिकल प्रणाली इन सभी चीजों को बदल देगी। रोबोट की मदद से की जाने वाली सर्जरी परम्परागत तकनीकों की तुलना में चिकित्सकों को बेहतर परिशुद्धता, लचीलापन और नियंत्रण के साथ सर्जरी करने में सक्षम बनाती है। वास्तव में, इस तकनीक के इजाद होने से अब जटिल सर्जरी विशेष रूप से थोरेसिक, यूरोलॉजी, सिर और गर्दन, पेट और स्त्री से संबंधित कैंसर की सर्जरी आसान हो जाएगी।''
रोबोटिक सर्जरी के लाभ
रोबोट सर्जरी, ओपन सर्जरी की तुलना में रोगियों को कई लाभ प्रदान करता है:
अस्पताल में कम समय तक भर्ती रहना
कम दर्द और परेशानी
तेजी से रिकवरी होना और जल्द ही सामान्य कामकाज करने में सक्षम होना
छोटे चीरों के कारण संक्रमण का खतरा कम होना
रक्त का कम नुकसान होना और रक्त चढ़ाने की नौबत कम आना
घाव के बहुत कम निशान रहना


भारत में अकाल मृत्यु और विकलांगता के लिये मुख्य तौर पर जिम्मेदार है स्ट्रोक

स्ट्रोक किसी के बीच भेदभाव नहीं करता है। यह किसी भी उम्र समूह, किसी भी सामाजिक स्तर और किसी भी लिंग के लोगों को प्रभावित कर सकता है। 
डाॅ. राजीव आनंद ने कहा, ''स्ट्रोक रक्त वाहिकाओं में थक्के बनने (इस्कीमिक स्ट्रोक) या रक्त वाहिकाओं के फटने (रक्तस्रावी स्ट्रोक) के कारण मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति के बाधित होने की वजह से होता है। हालांकि 87 प्रतिषत स्ट्रोक स्वभाव से इस्कीमिक होते हैं, और उनमें से अधिकतर स्ट्रोक का इलाज किया जा सकता है। स्ट्रोक के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात समय का सदुपयोग है। एक स्ट्रोक के बाद, हर दूसरे स्ट्रोक में 32,000 मस्तिष्क कोशिकाओं की मृत्यु हो जाती है। इसलिए स्ट्रोक होने पर रोगियों को निकटतम स्ट्रोक उपचार केंद्र में जल्द से जल्द ले जाया जाना चाहिए। मुख्य तौर पर दो तरह के स्ट्रोक होते हैं। अगर मस्तिश्क की किसी धमनी में अवरोध होने के कारण स्ट्रोक होता है तो यह इस्कीमिक स्ट्रोक का कारण बनता है। रक्त धमनी के फटने के कारण होने वाले रक्त स्राव के कारण होने वाली गड़बड़ी हेमोरेजिक स्ट्रोक का कारण बनती है। भारत में इन स्ट्रोकों में से 12 प्रतिषत स्ट्रोक 40 वर्ष से कम उम्र के लोगों में होता है। स्ट्रोक के 50 प्रतिषत मामले मधुमेह, उच्च रक्तचाप और उच्च कोलेस्ट्रॉल के कारण होते हैं, जबकि अन्य कुछ संक्रमण के कारण होते हैं। इन दिनों इसके पूर्व के कारण बड़ी चिंता के विशय हैं।''
डा. राकेश दुआ ने कहा, ''भारत जैसे विकासशील देशों को संचारी और गैर संचारी रोगों के दोहरे बोझ का सामना करना पड़ रहा है। स्ट्रोक भारत में मौत और विकलांगता के प्रमुख कारणों में से एक है और भारत में हर साल स्ट्रोक के 15 लाख नये मामले होते हैं। किसी व्यक्ति के चेहरे, हाथ, आवाज और समय (एफएएसटी) में परिवर्तन होने पर उस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है क्योंकि उस व्यक्ति को जल्द ही किसी भी समय स्ट्रोक हो सकता है। चेहरे का असामान्य होना जैसे, मुंह का लटकना, एक हाथ का नीचे लटकना और अस्पश्ट आवाज स्ट्रोक के कुछ सामान्य लक्षण हैं और समय पर उपचार होने पर इसे होने से रोकने में मदद मिल सकती है। उन्होंने कहा कि स्ट्रोक की पहचान करने तथा मरीज को अस्पताल ले जाने में समय की बर्बादी होती है।''
उन्होंने कहा, ''स्ट्रोक की पहचान करने और रोगी को अस्पताल लाने में अक्सर ज्यादा समय लग जाता है। रोगी को अस्पताल लाये जाने के बाद, उसकी सीटी स्कैन की जाती है जिससे स्ट्रोक की पुष्टि हो जाती है। उसके बाद हम मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति को बंद कर देने वाले मस्तिश्क के थक्के को घोलने के लिए दवा युक्त एक इंजेक्षन लगाते हैं। कई बार, हीमैटोमा बन जाने के बाद, जो मस्तिश्क में दबाव को बढ़ा देता है या स्ट्रोक के काफी बड़ा होने पर हमें मरीज की जान बचाने के लिए मस्तिश्क के दबाव को हटाने के लिए या मस्तिश्क के मृत भाग को निकालने के लिए न्यूरो सर्जरी करनी पड़ती है। स्ट्रोक के रोगी को हमेशा न्यूरोलाॅजी एवं न्यूरो सर्जरी की सुविधा वाले, और जहां एमआरआई, सीटी स्कैन, ब्लड बैंक और अच्छा न्यूरो आईसीयू टीम हो, वैसे केंद्र में ले जाया जाना चाहिए।''
डॉ. अमरदीप कोहली ने कहा, ''वर्तमान में, दिल्ली सहित भारत के कई शहरों में, स्ट्रोक रोगियों में से सिर्फ तीन प्रतिशत रोगियों को ही थक्के को हटाने के लिए थ्रोम्बो एम्बोलाइटिक दवाइयां मिल पा रही है क्योंकि उन्हें समय पर अस्पताल लाया जाता है। बाकी रोगियों को देर से सुपर स्पेषलिटी हाॅस्पिटल लाने और इसके कारण थक्के को घोलने वाली दवा नहीं मिल पाने के कारण वे लकवा से ग्रस्त हो जाते हैं। इसलिए हमें इन रोगों, इनके सही इलाज और इनके रोकथाम के उपायों के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए एक सचेत प्रयास करने की जरूरत है जिससे लोगों को इन समस्याओं से निपटने में मदद मिलेगी। 


प्रजनन केंद्रों में पुरुषों की अनदेखी

पुरुषों की इनफर्टिलिटी के इलाज के लिए कोई विशेषज्ञ केंद्र नहीं होने के कारण भारतीय महिलाएं प्रभावित हो रही हैं क्योंकि अधिकतर फर्टिलिटी क्लिनिक महिला केंद्रित होती हैं। दियोस (डीआईवाईओएस) मेन्स हेल्थ सेंटर के क्लिनिकल निदेशक डॉ. विनीत मल्होत्रा ने कहा, ''भारत में महिलाएं गर्भ धारण करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती हैं और पुरुष किसी भी कीमत पर इनफर्टिलिटी के उपचार से बचते रहते हैं। पुरुष बांझपन की समस्याओं की जांच और उपचार अक्सर समुचित तरीके से नहीं किया जाता है, और कई बार बिल्कुल ही नहीं किया जाता है।'' वह अमेरिकन सेंटर फाॅर रिप्रोडक्टिव मेडिसीन, क्लीवलैंड, अमरीका के सहयोग से दियोस (डीआईवाईओएस) मेन्स हेल्थ सेंटर के द्वारा आयोजित सम्मेलन में बोल रहे थे।
इस सम्मेलन में देश भर से गणमान्य व्यक्तियों के साथ- साथ कुछ प्रमुख स्त्री रोग विशेषज्ञों और प्रजनन चिकित्सा विशेषज्ञों ने भाग लिया जिनमें डॉ. सुधा प्रसाद, प्रमुख - आईवीएफ एंड रिप्रोडक्टिव बायोलाॅजी सेंटर, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज; डॉ. अशोक अग्रवाल, निदेशक, प्रजनन चिकित्सा विभाग, क्लीवलैंड क्लिनिक, अमेरिका; डॉ. रूपिन शाह, वैज्ञानिक निदेशक, दियोस मेंन्स हेल्थ सेंटर शामिल थे।
ऐसा पहली बार हुआ है कि राजधानी में पुरुषों के लिए एक समर्पित और विशेषज्ञ केंद्र की स्थापना की गयी है जहां पुरुषों में इनफर्टिलिटी और प्रजनन रोग का इलाज करने के लिए अत्याधुनिक तकनीकें उपलब्ध होंगी। भारत में अधिकांश प्रजनन क्लीनिकों में यहां तक कि एक भी पुरुष इनफर्टिलिटी विशेषज्ञ नहीं होते है, और सिर्फ महिलाओं की प्रजनन क्षमता के मुद्दों पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित किया जाता है।
अमरीका स्थित क्लीवलैंड क्लिनिक के प्रजनन चिकित्सा विभाग के निदेशक डाॅ. अशोक अग्रवाल ने कहा, ''भारत में पुरुषों की समस्या की पहचान नहीं हो पाती है और इस कारण उनका इलाज नहीं हो पाता है। लगभग 50 प्रतिशत पुरुष इनफर्टिलिटी समस्याओं का इलाज संभव है, लेकिन दुर्भाग्य से इसकी आम तौर पर अनदेखी की जाती है। इस चिकित्सीय अनदेखी के कारण महिलाओं को अनावश्यक आईवीएफ प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिसके कारण मरीज का आर्थिक नुकसान तो होता ही है, यह उनमें भावनात्मक संकट भी पैदा कर सकता है।'' पुरुष बांझपन के कारण का इलाज अपेक्षाकृत सस्ता और अधिक सफल है और कम इनवैसिव है, और यह दम्पत्ति को आईवीएफ के बगैर ही स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण करने में सक्षम बना सकता है।''
इनफर्टिलिटी के लगभग 40 प्रतिशत मामलों में पुरुष समस्याओं को या तो पूरी तरह से या आंशिक रूप से जिम्मेदार माना जाता है। पुरुष इनफर्टिलिटी का सबसे सामान्य कारण वैरिकोसील या अंडकोश की थैली (स्क्रोटम) में नस में सूजन है। दियोस मेन्स हेल्थ सेंटर के वैज्ञानिक निदेशक डाॅ. रूपिन शाह ने कहा, ''वैरिकोसील वृषण का तापमान बढ़ाता है, शुक्राणु को विकसित होने में संभावित नुकसान पहुँचाता है और पुरुष को कम फर्टाइल बनाता है।''
शुक्राणु मानकों का परीक्षण करने के लिए अधिकतर फर्टिलिटी केंद्रों में किये जाने वाले परम्परागत वीर्य विश्लेषण में पूरी समस्या का पता नहीं चल पाता। दियोस मेन्स हेल्थ सेंटर में विशेषज्ञ प्रोस्टेट की जाँच करेंगे और शुक्राणु के साथ प्रवाहित होने वाले, उसका पोषण करने वाले और उसे मदद करने वाले सभी अन्य तरल का अधिक व्यापक वीर्य विश्लेषण करेंगे।
डॉ. विनीत कहते हैं, ''यही कारण है कि हम दम्पत्तियों को फर्टिलिटी के उपचार के प्रारंभिक चरणों में किसी मूत्र रोग विशेषज्ञ के द्वारा वीर्य विश्लेषण कराने के लिए गंभीरता से प्रोत्साहित करते हैं।''
पुरुष इनफर्टिलिटी के कारणों में हार्मोनल गड़बड़ी से लेकर शारीरिक समस्याएं और मनोवैज्ञानिक समस्याएं शामिल हैं और उन्हें निर्धारित करने के लिए पूरी तरह से जांच आवश्यक है। कम शुक्राणु उत्पादन, शुक्राणु की खराब गुणवत्ता और वृषण की क्षति जैसे कारणों के कारण अंडकोष शुक्राणु उत्पादन करने में असमर्थता हो जाता है।


कार्बन डाइऑक्साइड लेजर: एंडोमेट्रियोसिस की नवीनतम शल्य चिकित्सा

एंडोमेट्रियोसिस वैसी स्थिति है जो महिला के प्रजनन अंगों को प्रभावित करती है। यह आपके गर्भाशय के अंदर सामान्य रूप से लाइनिंग बनाने वाले ऊतक - एंडोमेट्रियम के गर्भाशय के बाहर बढ़ने के कारण होता है। अनुमान के अनुसार, यह 10 में से एक महिला को उनके प्रजनन सालों (यानी आम तौर पर 15 से 49 वर्ष की उम्र के बीच) के दौरान प्रभावित करता है।  
लक्षण
एंडोमेट्रियोसिस के लक्षणों में कष्टदायक माहवारी, कष्टदायक अंडोत्सर्ग, शारीरिक संपर्क के दौरान या बाद में दर्द, भारी रक्तस्राव और क्रोनिक पैल्विक दर्द शामिल है जो सामान्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है। एंडोमेट्रियोसिस से पीड़ित महिलाओं को शारीरिक संपर्क के दौरान या बाद में दर्द भी हो सकता है। एंडोमेट्रियोसिस से पीड़ित महिला को इसके कारण लगातार थकावट रह सकती है और शौच के समय असुविधा अनुभव कर सकती हैं।
इनफर्टिलिटी के कारण
एंडोमेट्रियोसिस कभी-कभी, फैलोपियन ट्यूब या अंडाशय को भी नुकसान पहुंचा सकता है और प्रजनन संबंधित समस्याएं पैदा कर सकता है। यह महिला इनफर्टिलिटी के दर्ज किये गये सबसे उच्चतम कारणों में से एक है। इनफर्टिलिटी से पीड़ित करीब 30 प्रतिशत महिलाओं में यह पाया जाता है। अन्य जटिलताओं में कष्टदायक ओवरी सिस्ट और एडहीषन षामिल हैं। एडहीशन ऊतक के वैसे क्षेत्रों को कहते हैं जो अंगों को एक साथ जोड़ते हैं। 
जांच 
एंडोमेट्रियोसिस की पहचान होने में सालों का समय लग सकता है और यह इन समस्याओं के कारण पर निर्भर करता है। जब तक इसकी पहचान नहीं हो पाती है, तब तक कई महिलाएं अपने दर्द को झेलती रहती हैं क्योंकि उनका मानना है कि दर्द - यहां तक कि वास्तव में तेज दर्द - उनके मासिक धर्म की अवधि का एक सामान्य हिस्सा है।
जांच एवं उपचार
एंडोमेट्रियोसिस है या नहीं यह सुनिश्चित करने के लिए जेनरल एनीस्थिसिया के तहत एक लेप्रोस्कोपी प्रक्रिया की जाती है। एंडोमेट्रियोसिस पाये जाने पर आपके चिकित्सक वहां मौजूद किसी भी बड़े पैच का उसी समय इलाज करने के लिए आपकी सहमति मांगते हैं। इसके तहत दो लैप्रोस्कोपी - एक डायग्नोस के लिए और एक इलाज के लिए करने की बजाय एक ही लैप्रोस्कोपी में डायग्नोसिस और इलाज दोनों हो जाता है।
उपचार का मुख्य उद्देश्य दर्द और भारी रक्तस्राव जैसे लक्षणों में सुधार करना और यदि प्रजनन क्षमता प्रभावित हुई हो तो उसमें सुधार करना है।
नवीनतम उपचार
एंडोमेट्रियोसिस के शल्य चिकित्सा उपचार के क्षेत्र में एक बड़ी प्रगति कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) लेजर का इस्तेमाल है जिसका इस्तेमाल लेप्रोस्कोपी सर्जरी के साथ किया जा सकता है। यह तकनीक बहुत अलग है और इससे वहाँ के आसपास के ऊतकों को अनजाने में होने वाले नुकसान का बहुत कम खतरा होता है। एंडोमेट्रियोसिस के अधिक जटिल मामलों में जिस तरह से वृद्धि हुई है, यह तकनीक मूत्रवाहिनी, आंत्र या आसपास के अन्य अंगों और गर्भ धारण में मदद करने वाले अंगों में होने वाली इंजुरी की रोकथाम करने वाली सर्जरी के खतरे को कम करेगी।


टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित युवाओं में, साइकिल चलाना साबित होता है फायदेमंद: अध्ययन

साइक्लिंग अक्सर एक मनोरंजक गतिविधि मानी जाती है। यह टाइप 2 मधुमेह के खतरे को काफी हद तक कम कर सकती है। साइक्लिंग करने पर टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित लोगों में ग्लाइसीमिया में काफी सुधार हो सकता है और वजन कम करने में मदद मिल सकती है।'' डीडीआरसी के अध्यक्ष डॉ. ए. के. झिंगन ने डीडीआरसी के द्वारा टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित 40 वर्ष से कम उम्र के 20 पुरुष रोगियों पर किये गये एक पायलट अध्ययन के निष्कर्षों का हवाला दिया। इस अध्ययन के विवरण को हैदराबाद में आरएसएसडीआई के वार्षिक सम्मेलन में साझा किया गया। इस अध्ययन को एंडोक्राइन सोसायटी आफ इंडिया के प्रमुख जर्नल इंडियन जर्नल आफ एंडोक्राइनोलाॅजी एंड मेटाबोलिज्म में प्रकाशित किया गया है।
अध्ययन का उद्देश्य टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित युवा लोगों में 6 महीने में ग्लाइकोसिलेटेड हीमोग्लोबिन (एचबीए 1 सी) और वजन पर साइकिल चलाने के प्रभाव का आकलन करना था। इसकी कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ए. के. झिंगन ने कहा, ''इस क्रॉस- सेक्शनल आब्जरवेशनल अध्ययन के तहत, नई दिल्ली में एक कोर साइक्लिंग समूह से टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित वैसे युवा रोगियों (18 वर्श से 40 वर्ष तक) की पहचान की गई जिनका इलाज इंसुलिन के बगैर ≤ 2 ओरल एंटीडायबेटिक दवाओं से किया गया था। उन्हें 6 महीने तक लगातार एक सप्ताह में कम से कम 5 दिन, प्रतिदिन 25 से 30 किलोमीटर तक साइक्लिंग में शामिल किया गया। साइक्लिंग शुरू करने से पहले और साइक्लिंग कार्यक्रम के 6 महीने बाद, रूटीन क्लिनिकल माॅनिटरिंग के तहत उनके वजन और एचबीए 1 सी के स्तर का मूल्यांकन किया गया। प्रतिभागियों ने अध्ययन की अवधि के दौरान रेजिस्टेंस एक्सरसाइज सहित किसी प्रकार के व्यायाम में हिस्सा नहीं लिया।'' दोनों नमूना परीक्षण की आपस में तुलना की गई। इस दौरान मरीजों के लिपिड प्रोफाइल और रक्तचाप रिकॉर्ड की नियमित रूप से जांच की गयी। लिपिड प्रोफाइल साइक्लिंग शुरू करने से पहले और साइक्लिंग शुरू करने के 6 महीने बाद दोबारा किया गया।
इसके परिणाम रोगियों के लिए काफी उत्साहजनक और प्रेरणादायक थे। साइक्लििंग से रोगियों के एचबीए 1 सी (- 1.18) और वजन (- 5 किलो) में महत्वपूर्ण कमी आई। छह महीने तक नियमित रूप से साइक्लिंग करने के बाद एलडीएल लिपिड प्रोफाइल स्तर में महत्वपूर्ण सुधार हुआ और एलडीएल और ट्राइग्लिसराइड्स दोनों में कमी आई।
डॉ. ए. के. झिंगन ने कहा, ''साइक्लिंग को टाइप 2 मधुमेह के युवा रोगी व्यायाम के एक रूप में अपना सकते हैं। युवा लोगों, विशेष रूप से 40 वर्ष से कम उम्र के लोगों में इस रोग के बढ़ते मामलों ने इस एरोबिक व्यायाम को अपनाना आवश्यक बना दिया है। एचबीए 1 सी में सुधार होने पर हृदय और स्ट्रोक के अलावा मधुमेह से संबंधित डायबेटिक रेटिनोपैथी, न्यूरोपैथी और नेफ्रोपैथी जैसी जटिलताओं के जोखिम भी कम हो जाते हैं।
इससे पहले, डीडीआरसी ने एक ही स्थल पर मधुमेह रोगियों की अधिकतम संख्या की स्क्रीनिंग के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया था।
भारत में, मधुमेह का बोझ बहुत अधिक है। एक अनुमान के अनुसार यहां 6 करोड़ 60 लाख लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं और इसके कारण हर साल 10 लाख लोगों की मौत हो जाती है।


प्रोस्टेट की सामान्य समस्याओं की आम तौर पर की जाती है अनदेखी

प्रोस्टेट का बढ़ना पुरुषों में सबसे व्यापक स्वास्थ्य समस्याओं में से एक है। यह बिनाइन प्रोस्टेटिक हाइपरप्लेस्यिा (बीपीएच) के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब प्रोस्टेट फैल कर मूत्र मार्ग पर दबाव डालने लगता है, जिसके कारण पेशाब और मूत्राशय से संबंधित समस्याएं होती हैं।
मुम्बई के कल्याण स्थित फोर्टिस हाॅस्पिटल के मूत्र रोग विशेषज्ञ डाॅ. के. एम. नानजप्पा के अनुसार, ''हालांकि इस स्थिति में प्रोस्टेट का वह हिस्सा प्रभावित होता है जो मूत्रमार्ग के उपरी हिस्से के चारों ओर होता है। इसके लक्षणों में पेशाब करने की तत्काल जरूरत महसूस होना, बार-बार पेशाब करने की जरूरत और पेशाब करते समय दर्द होना आदि शामिल हो सकते हैं।''
प्रोस्टेट ग्रंथि अधिकतर पुरुषों में उम्र के साथ बढ़ती जाती है। लीलावती हाॅस्पिटल, मुम्बई के मूत्र रोग विषेशज्ञ प्रो. (डाॅ.) हेमंत पाठक कहते हैं, ''हालांकि यह घातक नहीं है, लेकिन इसके लक्षणों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि यह अधिक गंभीर स्थिति का भी संकेत हो सकता है। इसका इलाज नहीं कराने पर, प्रोस्टेट के बढ़ने पर मूत्राशय में रुकावट और गुर्दे की समस्याएं पैदा हो सकती है।''
विशेषज्ञों के अनुसार पुरुषों को अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करना चाहिए जिससे बीपीएच के लक्षणों को कम करने में मदद मिल सकती है। इसमें मूत्राशय की समस्या से बचने के लिए कैफीन और शराब का सेवन करना भी शामिल है। पुरुषों को अपने आहार और वजन पर भी निगरानी रखनी चाहिए। इसका इलाज जीवन शैली में परिवर्तन और दवाओं के संयोजन से किया जाता है।


ठंड बढ़ने से बढ़ रहा है घुटने का दर्द

तापमान में गिरावट आने के साथ सर्दी ने दस्तक दे दी है और ऐसे में आप सुखद धूप भरे दिन में बैठने का आनंद ले सकते हैं। लेकिन सर्दियों का मौसम घुटने के दर्द से पीड़ित लोगों के लिए कष्टकारी भी साबित हो सकता है क्योंकि सर्दियों में घुटने का दर्द बढ़ सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, घुटने के दर्द को नजरअंदाज करने से आपका स्वास्थ्य और खराब हो सकता है। कपूर बोन एंड चिल्ड्रेन हॉस्पिटल, जालंधर के ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन डॉ. जश्नीव कपूर कहते हैं, ''चूंकि तापमान गिरने से आर्थराइटिस के प्रकोप में स्वभाविक रूप से इजाफा होता है क्योंकि अधिक सर्दी का मौसम में सामान्य दिनों की तुलना में जोड़ अधिक सख्त बन जाते हैं और इसके कारण घुटनों में तेज दर्द होता है। तापमान में अधिक परिवर्तन के कारण प्रभावित जोड़ों के आसपास सूजन हो सकती हैए जिससे आस—पास के नसों में अधिक इरिटेशन होने लगती है, जिससे दर्द और जकड़न और बढ़ जाती है।''
कभी—कभी, वायुमंडलीय दबाव के कारण भी घुटने का दर्द बढ़ जाता है। दबाव में गिरावट आने से शरीर के ऊतकों का फैलाव होता हैए जिससे पहले से ही प्रभावित हिस्सों में और अधिक सूजन हो जाती है और दर्द बढ़ जाता है। डॉ. जश्नीव कपूर कहते हैं, ''आर्थराइटिस के रोगी कैसा महसूस कर रहे हैं या उनके जोड़ों में कितनी परेशानी हो रही हैए इनके आधार पर वे अक्सर मौसम की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। सर्दियों के दौरान इस कारण से भी घुटने का दर्द और बढ़ जाता है क्योंकि रोगी खुद को घर में ही सीमित रखते हैं और उनकी जीवन शैली निष्क्रिय हो जाती है।''
आर्थराइटिस की चिकित्सा के तौर पर एक से अधिक प्रकार के उपचार का सहारा लिया जाता है। समय के साथ—साथ उपचार में अंतर हो सकता है और आर्थराइटिस के प्रकार के आधार पर भी इलाज अलग—अलग हो सकता है। यदि सर्जरी के बिना इलाज के बाद भी आपके घुटने का दर्द बना रहता है, तो आपको पूरी तरह से राहत के लिए सर्जरी कराने की आवश्यकता हो सकती है।
सर्जरी को नई तकनीको के साथ करने से सर्जरी ज्यादा सटीक होती है और मरीज जल्दी स्वास्थ्य लाभ करता है। डॉ. जश्नीव कपूर ने बताया, ''नी रिप्लेसमेंट सर्जरी विशेष रूप से कंप्यूटर नेविगेशन प्रौद्योगिकी के ईजाद के बाद सबसे सफल और सुरक्षित प्रक्रिया साबित हुई है। घुटने की  सफल सर्जरी में सबसे महत्वपूर्ण सही अलाइनमेंट का होना है।'' कंप्यूटर की मदद से डॉक्टर घुटने को इस तरह से अलाइन करते हैं जिससे गलती होने की कोई संभावना नहीं हो। इसके अलावा लिगामेंट और मांसपेशियां की भी प्राकृतिक स्थिति बरकरार रहती है।
भारत सरकार द्वारा कीमतों को तय करने के अलावाए ऑक्सीडाइज्ड ज़िकोनियम (एक काला और सफेद इम्प्लांट) जैसे प्रीमियम नी इम्प्लांट भी काफी सस्ता हो गया है, जिन्हें 30 वर्षों के लिए यूएसएफडीए ने अनुमोदित किया है।
डॉ. जश्नीव कपूर कहते हैं, ''आक्सिनियम इम्प्लांट में शून्य घर्षण होता है और ये अत्यधिक घर्षण प्रतिरोधी होते हैं जिसके कारण ये मरीजों के लिए पसंदीदा विकल्प हो गये हैं। अन्य सामग्रियों से बने ये इम्प्लांट अच्छा काम करते हैं लेकिन इस संबंध में पर्याप्त क्लिनिकल डेटा की कमी है। 
इस तरह के इम्प्लांट का जीवन आमतौर पर 10 से 15 वर्ष होता है और वैसे कई मरीजों के लिए जो धातुओं के प्रति संवेदनशील होते हैंए यह एक दुःस्वप्न हो सकता है। क्सिनियम इम्प्ंलांट वास्तव में विशेष रूप से युवा लोगों के लिए वरदान हैं क्योंकि विशेषज्ञों के अनुसार अब युवा लोगों में टोटल नी रिप्लेसमेंट की दर में काफी वृद्धि होने का अनुमान हैंए लेकिन इन इम्लांटों को प्रत्यारोपित करने के बाद इनकी दोबारा जरूररत पड़ने की आशंका समाप्त हो जाती है। अक्सर देखा गया है कि रिवीजन सर्जरी अक्सर अधिक जटिल और कम फायदेमंद होती है।