औपनिवेशिक बंगाल में आयुर्वेद का वर्चस्व था 

बंगाल में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आयुर्वेदिक आंदोलन चरम पर था।  यूरोपीय शासन ने ब्रिटिश शासन के दौरान इस देश में पश्चिमी चिकित्सा की शुरुआत की। आयुर्वेद ग्रामीण इलाकों में लोकप्रिय रहा और शहरी इलाकों में पश्चिमी दवाओं के साथी उसकी प्रतिद्वंद्विता जारी रही। हालांकि ब्रिटिश ने पारंपरिक प्रणाली को अवैज्ञानिक करार दिया। लेकिन, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राष्ट्रवादियों के उत्साह ने इस प्राचीन स्वदेशी प्रणाली के अध्ययन और अनुसंधान के पुनरुत्थान की मांग को उठाया। इससे कई प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सकों और निजी संगठनों का पुनरुद्धार हुआ और लोगों का आयुर्वेदिक चिकित्सा, उपचार और इलाज में गहरी दिलचस्पी पैदा हुई। बंगाल के विभिन्न जिलों में आयुर्वेदिक दवाखाने की शुरुआत हुई जो गरीबों के लिए निःशुल्क उपचार प्रदान करती थी। 
द एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता से सम्बद्ध सरबानी सेन के अनुसार आंदोलनों के मुख्य अग्रदूत गंगा प्रसाद सेन, जामिनी भूषण राय, गणनाथ सेन जैसे बंगाल के प्रसिद्ध कविराज थे। उन्होंने चिकित्सा प्रणालियों के संश्लेषण और आयुर्वेद के संस्थाकरण के लिए काम किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अंत में स्वदेशी चिकित्सा प्रणालियों पर बंगाली में काफी संख्या में पुस्तकों और पत्रिकाओं ने आम लोगों को आयुर्वेद की जानकरी देने में योगदान किया। 
उन्होंने बताया कि भीसक दर्पण, चिक्तिसाक, चिकित्सा-सम्मिलनी, स्वास्थ्य और आयुर्वेद संजीवनी कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में षामिल थी। बीसवीं सदी की शुरुआत से, बंगाल में प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सकों के द्वारा आयुर्वेद महाविद्यालयों की स्थापना की गई। यह आंदोलन प्राचीन, पूर्व-औपनिवेशिक स्वदेशी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की एक सरल, रैखिक पृथक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि काफी जटिल था जो उपनिवेशवाद के तहत परिवर्तित और बदलती परिस्थितियों में परंपरा पर बल देता था। 


आनुवंशिक एकल जीन विकारों के आनुवांशिक विष्लेषण में क्रांति

मानव स्वास्थ्य एवं रोगों के संदर्भों में हाल के वर्षों में मानव जीनोम में छिपी हुई जानकारी के बारे में हमारी समझ में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। हालांकि पिछले एक दशक में मानव जीनोम अनुक्रमण पर खोजी गई एकल न्यूक्लियोटाइड बहुरूपता ने भी आम जटिल विकारों के लिए महत्वपूर्ण आंकड़े उत्पन्न करने का मार्ग प्रशस्त किया, समकालीन अगली पीढ़ी के अनुक्रमण दृष्टिकोण ने जीनोम में दुर्लभ और अल्ट्रा दुर्लभ रूपों की पहचान को सक्षम किया है और इस प्रकार आनुवंशिक एकल जीन विकारों के आनुवांषिक विष्लेशण में क्रांति का सूत्रपात हुआ है। 
कार्यात्मक जीनोमिक्स और सिस्टम जीवविज्ञान दृष्टिकोणों में निकटवर्ती प्रगति, रोगों में अंतर्निहित रोगाणु तंत्रों के संबंध में अंतर्दृष्टि प्रदान कर रहे हैं और इस तरह से नई उपचार विधियों का मार्ग प्रषस्त हो रहा है। 
प्रोफेसर बी के थलमा, एफ एन ए, जेनेटिक्स विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, साउथ कैम्पस, नई दिल्ली के जेनेटिक्स विभाग में प्रोफेसर बी के थलमा के अनुसार
विभिन्न नस्ली भारतीय आबादी में उपलब्ध विशाल मरीज संसाधन का उपयोग करते हुए बौद्धिक विकलांगता और पार्किंसंस रोग के पारिवारिक रूपों वाले जीन और संधिशोथ गठिया और अल्सरेटिव कोलाइटिस के जोखिम वाले जीन के क्षेत्र में कुछ रोमांचक खोजें प्रयोगशालाओं में हुई हैं। 


शहरी लोगों के स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : वैज्ञानिक दृष्टिकोण

मानवता एन्थ्रोपोसेन युग में प्रवेश कर चूकी है और यह इतिहास के सबसे बड़े शहरीकरण के मध्य में है एशिया और अफ्रीका सबसे तेजी से बढ़ते शहरीकरण वाले महाद्वीप है। इसके अलावा, मानव निर्मित गतिविधियों के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य के पैटर्न में बदलाव हो रहा है और बीमारियों उभर रही है। संचारी और गैर-संचारी रोगों का पारंपरिक दोहरा बोझ सड़क दुर्घटनाओं के चलते होने वाली विकलांगता के कारण तीन गुना हो गया है। 
2007 में, हम एक ऐसी दहलीज पर पहुंच गए जहां विश्व की 50ः प्रतिषत आबादी शहरों में रहने लगी है। यह अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक आबादी का 70ः प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहने वाले लोगों का होगा। 
नेशनल इंस्टीट्यूट पैथोलॉजी, नई दिल्ली में बायोटेक्नोलॉजी विभाग की प्रमुख एवं सीनियर प्रोफेसर इंदिरा नाथ ने शांति स्वरूप भटनागर पदक व्याख्यान में बताया कि जलवायु परिवर्तनों के साथ तेजी से होने वाले शहरीकरण ने सभी देशों के लिए चुनौतियों को पेश किया है, लेकिन अधिक निम्न और मध्यम आय वाले देशों में यह अधिक है। संघर्षों और ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में होने वाले आंतरिक प्रवास के कारण शरणार्थियों का विस्थापन हुआ है और इसने अतिरिक्त समस्याएं खड़ी की है। 
अनौपचारिक बस्तियां शहरों के लिए श्रमिक प्रदान करती हैं, लेकिन खराब बुनियादी ढांचे और लोगों के अधिक घनत्व के कारण बीमारियों भी पैदा करती हैं। शहरीकरण के कारण 'गर्म द्वीपों' का भी विकास होता है जिसके कारण वेक्टरों के व्यवहार बदलते हैं और इस तरह संक्रामक रोगों का भी व्यवहार बदलता है। जहां मलेरिया साफ पानी में पनपती है और गर्म क्षेत्रों में इसमें कमी आती है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसका प्रकोप अधिक देखने को मिलता है। चिकनगुनिया और डेंगू पैदा करने वाले मच्छर गर्म क्षेत्रों और वाटर कूलर, खाली खाली बर्तनों, टायरों आदि में स्थिर पानी में पनपते हैं। स्वच्छता की कमी के कारण होने वाला हैजा शहरी क्षेत्रों में दूसरी बड़ी समस्या है। खराब शहर योजना के कारण शहरों में बाढ़ के कारण जल जनित बीमारियां बढ़ती हैं। विस्थापन के कारण वैसी बीमारियों भी फैलती है जो स्थानीय स्तर पर नहीं होती है। जीवन शैली की बीमारियां -ं जैसे हृदय संबंधी बीमारियां, मधुमेह, मोटापा और उच्च रक्तचाप भी शहरी जीवन से जुडी हुई होती है। 
शहरों के प्रबंधन और स्वास्थ्य और बेहतरी के लिए सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए एकीकृत ट्रांस विषयक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है और इसे अलग-थलग होकर नहीं किया जा सकता है। निर्णय निर्माताओं को समग्र सलाह प्रदान करने की आवश्यकता है। एक व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता है क्योंकि शहर में एक एकीकृत जैविक संरचना होती है। इस प्रकार कई एजेंसियों और विशेषज्ञों द्वारा प्रदत्त प्रासंगिक डेटा के साथ नीतियां बनाई जा सकती है और जागरूक निर्णय किया जा सकता है। नीति निर्माताओं को विशेषज्ञों, डॉक्टरों, शहर योजनाकारों के साथ-साथ नागरिक समाज के सदस्यों के साथ बातचीत करने की जरूरत है। अग देष में स्वास्थ्य की स्थिति गंभीरता के साथ प्रभावित होगी तो देश की अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी। इस प्रकार एंथ्रोपोसिन युग की शहरी दुनिया में स्वास्थ्य के प्रबंधन के लिए विश्वसनीय डेटा के साथ प्रणालीगत मुद्दों का विश्लेषण आवश्यक है।


आयुर्वेद की मदद से मस्तिष्क की कोशिकाओं की मौत क्या रोकी जा सकती है 

विकसित और विकासशील दोनों देशों में सभी बीमारियों के बोझ का एक तिहाई हिस्सा मस्तिष्क से संबंधी बीमारियों का है। मस्तिष्क संबंधी विकारों में न्यूरोलॉजिकल और मानसिक बीमारियां दोनों शामिल हैं और इन बीमारियों में गंभीर चिंता वाले विकार हैं उम्र-संबंधी विकार गंभीर डिमेंशिया जिनमें अल्जाइमर रोग (एडी) और पार्किंसंस रोग (पीडी) आदि षामिल हैं। ये विकार समय के साथ बढ़ने वाले और अपरिवर्तनीय हैं और इन विकारों के एटिओपैथोजेनेसिस को ठीक से समझा नहीं गया है। इन विकारों में मस्तिष्क के कुछ क्षेत्रों के भीतर विशिष्ट कोशिकाओं की क्षति हो जाती है जिसके कारण कामकाज संबंधी कुछ खास अक्षमता विकसित होती है। 
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलोर के सेंटर फार न्यूरोसांइस के वैज्ञानिक प्रोफेसर वी रविंद्रनाथ ने अपने शांति स्वरूप भटनागर पदक व्याख्यान में बताया कि उनके शोध को परम्परागत चिकित्सा के ज्ञान आधार में से ऐसे अणुओं की पहचान करने तथा रोगों का उपचार करने वाली थिरेपी के लिए उपयोग में लाए जा सकने वाले लक्ष्यों की पहचान करने के उद्देश्य से चुनी गई कोशिकाओं की मौत में निहित आण्विक तंत्रों को समझने के लिए केन्द्रित किया गया। पार्किंसन धीरे-धीरे बढ़ने वाला गति संबंधी विकार है जो मुख्य तौर पर स्वैस्टैंषिया निगरा (एसएनपीसी) में डोपोमाइनरेजिक न्यूराॅन्स की मौत के कारण पैदा होता है। 
हमने कोशिका विशिष्ट मृत्यु के मौत संकेतन पाथवे और कोशिका जीविका पाथवे के डाउन रेगुलेशन के रेडॉक्स संचालित सक्रियता की पहचान की है जिससे जिससे पार्किंसंस रोग के रोगजनन में मदद मिल सकती है और जो क्लिनिकल ट्रायल में औशधि निश्क्रिय हो जाने के बारे में जानकारी दे सकता है। 
आयुर्वेद जैसी पारम्परिक चकित्सा प्रणाली वैसे ज्ञान का आधार प्रदान करती है जिसका इस्तेमाल इस बीमारियों के उपचार के लिए चिकित्सीय हस्तक्षेप रणनीतियों के विकास के लिए हो सकता है। आयुर्वेद से ज्ञान के आधार का उपयोग करते हुए, हमने एक हर्बल सार की पहचान की है जो अल्जाइमर रोग (एडी) की पैथोलॉजी को उलट देता है। इस सार के उल्लेखनीय उपचारात्मक प्रभाव को लीवर में कम घनत्व वाले लाइपो प्रोटीन रिसेप्टर संबंधी प्रोटीन (एलआरपी) को देखा जा सकता है और इससे यह संकेत मिलता है कि पेरीफरी को लक्षित करने से अल्जाइमर्स रोग में प्रकट होने वाली व्यवहारात्मक क्षति तथा पैथोलाॅजी को उलटने के लिए एमिलाॅयड पेप्टिाइड को तीव्रता से नश्ट करने का एक अनूठा तंत्र प्रस्तुत हो सकता है। 


टमी टक और हर्निया सर्जरी की बदौलत मां बनने से पहले जैसा सुडौल शरीर वापस पा सकती हैं

दो बच्चों की मां 32 वर्षीय श्रीमती रितु चोपड़ा (अनुरोध पर नाम बदला हुआ) मां बनने के बाद के अपने शरीर के आकार-प्रकार में आये परिवर्तन को लेकर परेषान थी। वह अपने पेट की मांसपेशियों को दुरूस्त बनाना और अपने पेट के हिस्से की आसपास की अतिरिक्त त्वचा और वसा को हटाना चाहती थी। वह अपने शरीर को सही आकार देने के लिए सर्जरी कराने का विचार कर रही थी और इसी सिलसिले में उसने कैलाश कॉलोनी में अपोलो स्पेक्ट्रा हाॅस्पिटल्स में एक सर्जन से परामर्श किया। लेकिन जांच करने पर पता चला कि उन्हें हर्निया की समस्या है। 
नई दिल्ली के कैलाश काॅलोनी स्थित अपोलो स्पेक्ट्रा हाॅस्पिटल्स के वरिष्ठ लेप्रोस्कोपिक सर्जन डॉ. आशीष भनोट ने कहा, ''महिलाओं को अक्सर प्रसव के बाद प्रोट्रुडिंग 'मम्मी टम्मी' हो जाता है और उनमें से कई महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान एब्डोमिनल हर्निया हो जाता है। जैसे - जैसे शिशु का आकार बढ़ता है महिला के पेट की मांसपेशियों में खिंचाव होता है और मांसपेशियों के पतला और कमजोर हो जाने के कारण हर्निया हो जाता है।''
हर्निया सर्जरी और एब्डोमिनोप्लास्टी एक साथ 
बच्चे को जन्म देने और प्रसव से रिकवरी के बाद, आपको अपने हर्निया के इलाज के बारे में विचार करना चाहिए। आज जितना लंबे समय तक इंतजार करेंगी, यह उतना ही गंभीर होता जाएगा। याद रखें, हर्निया जीवन के लिए एक घातक स्थिति में बदल सकती है।
आपके हर्निया के इलाज के साथ-साथ एब्डोमिनोप्लास्टी भी की जा सकती है। अनुभवी सर्जन, मांसपेशियों की दीवार को दुरूस्त कर सकते हैं, पेट के हिस्से से अतिरिक्त वसा और त्वचा को हटा सकते हैं और रेक्टस एब्डोमिनस मांसपेशियों (गर्भावस्था के दौरान सबसे अधिक फैलने वाली मांसपेशियां) में कसाव ला सकते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, वे पेट के हिस्से के आसपास के वसा ऊतक को भी निकाल जा सकता है और आप पहले की सपाट एवं टाइट टमी वापस पा सकती हैं। 
श्रीमती चोपड़ा अपनी सर्जरी के परिणामों से बहुत खुश हैं। उनके पेट को सपाट करने के साथ ही, उन्हें एक बहुत ही गंभीर स्वास्थ्य समस्या होने से बचा लिया गया है।


आपके गर्भवती नहीं होने के कुछ कारण

तनाव: तनाव अच्छा हो या बुरा, इसका असर आप पर शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से पड़ता है। जब आप तनाव में होते हैं तो आपकी अधिवृक्क (एड्रिनल) प्रणाली पर इसका असर पड़ता है।
नींद में कमी: जो लोग पर्याप्त नींद नहीं ले पाते हैं, उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली में थोड़ी गिरावट आ जाती है और उनमें संक्रमण होने की अधिक संभावना होती है तथा उनके प्रजनन चक्र पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।
वजन संबंधित मुद्दे: कम वजन या अधिक वजन वाली महिला को गर्भ धारण करने में कुछ कठिनाई आ सकती है। दूसरी ओर, अत्यधिक वजन का प्रजनन क्षमता पर भी काफी प्रभाव पड़ सकता है।
प्रजनन चक्र संबंधित भ्रम: यदि आप अंडोत्सर्ग पर नजर रखती हैं और सही समय पर सेक्स करना शुरू करती हैं, तो आपके गर्भ धारण करने की संभावना अधिक होगी।


आसान, तेज और दर्दरहित न्यूनतम इनवेसिव सर्जरी से महिलाओं के जीवन में आयेगा बदलाव

यदि आप महिला हैं, और आपको पेट दर्द, भारी माहवारी होती हो और आप गर्भ धारण नहीं कर पा रही हैं, तो आपके फाइब्रॉएड से पीड़ित होने की आशंका अधिक है। नयी दिल्ली स्थित सनराइज हाॅस्पिटल्स की स्त्री रोग विशेषज्ञ और लैप्रोस्कोपिक सर्जन डॉ. निकिता त्रेहन कहती हैं, ''महिलाएं अब भी अपनी बीमारी को लेकर चुप रहती हैं और उनके लिए परिवार के स्वास्थ्य को ठीक रखना ही हमेशा प्राथमिकता होती है। वे यह सोचकर जान-बूझकर डॉक्टर से परामर्श लेने से बचती रहती हैं कि फाइब्रॉएड से छुटकारा पाने के लिए सर्जरी कराने पर वे अपना दैनिक कामकाज नहीं कर पाएंगी।'' हालांकि उनकी सोच सही है, लेकिन अब समय बदल गया है और लैप्रोस्कोपिक सर्जरी एक वरदान के रूप में सामने आया है। फाइब्रॉएड से पीड़ित अधिकतर महिलाएं वास्तव में यह सर्जरी करा सकती हैं और उत्सव के मौसम में वे अपनेे परिवार को गुणवत्ता पूर्ण समय दे सकती हैं।
डॉ निकिता त्रेहन कहती हैं, ''फाइब्रॉएड, एंडोमेट्रियोसिस, पीसीओएस और अन्य बीमारियों के इलाज के लिए लैप्रोस्कोपिक सर्जरी अब बहुत ही सरल, त्वरित और कम डरावना हो गई है। महिलाओं को अब इस बात को लेकर चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है कि ''उनके पास समय नहीं है''। मिनिमली इनवेसिव सर्जरी के नाम से भी जानी जाने वाली यह सर्जरी एक सुविधाजनक डे-केयर विकल्प है, जिसके पारंपरिक ''ओपन सर्जरी'' की तुलना में कई फायदे हैं। कई मामलों में, महिला को अस्पताल में सुबह भर्ती कराया जा सकता है और उसे शाम में डिस्चार्ज किया जा सकता है। अन्य महिलाएं 24 घंटे के भीतर घर जा सकती हैं।''
लैप्रोस्कोपिक सर्जरी में अस्पताल में कम समय तक रहने के कारण इस सर्जरी का खर्च कम आने के अलावा भी कई फायदे हैं। जैसे: अस्पताल में कम समय तक रहने के कारण कांट्रैक्टिंग इंफेक्शन की नणन्य संभावना होती है, सिर्फ एक या दो दिनों तक ही काम नहीं कर पाना, सिर्फ लगभग 1 से 2 सेंटीमीटर का चीरा लगने के कारण बहुत कम रक्तस्राव और आपरेशन के बाद बहुत कम दर्द या असुविधा होना, और बहुत छोटा निशान होता है जो आम तौर पर स्पष्ट नहीं होता है या दिखाई नहीं देता है।


अब लेजर उपचार से मिलेगा मोतियाबिंद से छुटकारा

हम में से कई लोगों के लिए, स्पष्ट दृष्टि पाना चश्मे में सुधार के बिना संभव नहीं है, और स्पष्ट दृष्टि का आनंद लेने के लिए समुचित चश्मे पहनना महत्वपूर्ण है।
मोतियाबिंद, या आंख के अंदर लेंस की अस्पष्टता, प्रकाश को रेटिना तक पहुंचने से रोक सकता है या विकृत कर सकता है, जिसके कारण स्पश्ट नहीं दिख पाता। हमारी उम्र बढ़ने के साथ, लेंस के धुधला बनने की प्रक्रिया हम में से ज्यादातर को कुछ हद तक प्रभावित करती है। लेकिन अच्छी बात यह है कि मोतियाबिंद हटाने की सर्जरी धुंधले लेंस को निकालकर और इसकी जगह स्पष्ट इंट्राओकुलर लेंस (आईओएल) को प्रत्यारोपित कर दृष्टि बहाल कर सकती है।
आईकेयर आई हाॅस्पिटल, नोएडा के रिफ्रैक्टिव सर्जरी विभाग के प्रमुख डॉ. सौरभ चौधरी ने कहा कि ''आईओएल प्रत्यारोपण प्रेसक्रिप्शन लेंस है जिसे आपकी आंखों की निकट की दृष्टि या दूर की दृष्टि के लिए विशेष रूप से चुना जाता है जो स्पष्ट दृष्टि की जरूरत के लिए चश्मे की जरूरत को कम करने में मदद करता है। इसके अलावा, आईओएल प्रत्यारोपण प्रौद्योगिकी अब इतनी विकसित हो गई है कि यह आस्टिगमैटिज्म (आंख में प्रकाश का नियमित रूप से फोकस) को निष्प्रभावी करने के लिए प्रीमियम लेंसों को सक्षम बनाती है और यहां तक कि मल्टीफोकल आईओएल दूर से और पास से पढ़ने के लिए स्पष्ट दृष्टि प्रदान करता है।
डॉ सौरभ चौधरी कहते हैं कि रूटीन मोतियाबिंद सर्जरी में, चिकित्सक काॅर्निया के माध्यम से आंख में प्रवेश करते हैं और आईओएल को प्रत्यारोपित करने से पहले अल्ट्रासाउंड ऊर्जा का उपयोग कर मोतियाबिंद को तोड़ते हैं और फिर निकालते हैं। मौजूदा प्रौद्योगिकी सर्जन को 20 मिनट से भी कम समय में प्रक्रिया को पूरा करने में मदद करती है और इसके लिए अत्यंत छोटे चीरे (टूथपिक के व्यास से केवल थोड़ा बड़ा) लगाने की जरूरत पड़ती है, जिसके कारण रोगी तेजी से स्वस्थ होता है और उसे अस्पताल से जल्द डिस्चार्ज कर दिया जाता है। हाल तक, सर्जन को हाथ से ब्लेड और औजारों का इस्तेमाल कर चीरा लगाकर कॉर्निया और लेंस तक पहुंचना पड़ता था, लेकिन अब चिकित्सक नई लेजर तकनीक का इस्तेमाल कर इसे पूरा कर सकते हैं जो मोतियाबिंद सर्जरी में आवश्यक चीरों को यहां तक कि अधिक सटीकता से लगाने में भी सक्षम बनाता है।
फेमटोसेकंड लेजर सर्जरी नामक लेजर उपचार, प्रक्रिया की शुरुआत में किया जाता है। यह प्रक्रिया दर्द रहित होती है और इसमें केवल 30 सेकंड लगता है। यह मोतियाबिंद को और अधिक कुशलता से हटाने में सक्षम बनाता है, इससे आंखों के लिए कम ऊर्जा और कम तनाव की आवश्यकता होती है और हमें अधिक स्पष्ट और गुणवत्तापूर्ण दृष्टि प्रदान करता है। 


सेव द चिल्ड्रन द्वारा पांच राज्यों के लिए निमोनिया संबंधी 

भारत में बचपन में होने वाले निमोनिया के खिलाफ प्रभावी प्रयत्नों की शुरुआत के तहत सेव द चिल्ड्रन ने भारत में निमोनिया के परिस्थिति का विश्लेषण रिपोर्ट को प्रकाशित किया है। रिपोर्ट का विमोचन केंद्रीय मातृत्व एवं बाल स्वास्थ्य विभाग के आयुक्त डॉ. अजय खेरा द्वारा दिल्ली में किया गया, जिसमें पांच उच्च भार वाले राज्यों उत्तर प्रदेश, ​बिहार. मध्य प्रदेश. झारखंड, राजस्थान का गहराई से मूल्यांकन, चुनौतियों के बारे में पहचान और कार्रवाई करने के लिए आह्वान किया गया है। 
इस अवसर पर डॉ. अजय खेरा, आयुक्त, मातृत्व एवं बाल स्वास्थ्य, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने भारत सरकार की योजना लक्ष्य (लेबर रूम क्वालिटी इंप्रूवमेंट इनिशिएटिव गाइडलाइन) के बारे में बताया और समझाया किस तरह ये जन्म के समय देखभाल की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए केंद्रित है जिसमें आशा महिला कर्मचारियों को सुसज्जित करना और महिलाओं को स्वास्थ्य केंद्रों में एकत्रित करना शामिल है। 
उन्होंने आगे कहा, स्वास्थ्य प्रणाली में स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र नए तौर पर जुड़ा है, जो जमीनी तौर पर लोगों तक पहुंचने में मदद करेगासरकार ने बचपन में होने वाली मातृत्व से निपटने के लिए वाकई महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है और इस उद्देश्य के लिए परी तरह प्रतिबद्ध हैसेव द चिल्ड्रन के डायरेक्टर प्रोग्राम्स अनिंदित रॉय चौधरी ने कहा, बच्चों में आज भी निमोनिया मौत का सबसे प्रमुख कारण है और भारत में 51 साल के कम उम्र के बच्चों में इसकीदर 14.3 फीसदी है, जिसका मतलब हैप्रत्येक 4 मिनट में एक बच्चे की मौत। पूरे विश्व में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की निमोनिया से होने वालीमौतों में भारत का आंकड़ा 17 फीसदी है। बचपन में होने वाले निमोनिया कीसमस्या से निपटना सेव द चिल्ड्रन के शताब्दी वर्ष की तीन प्रतिबद्धताओं मेंसे एक है और हम रोके जा सकने वाली निमोनिया मौतों को खत्म करने के लिए। प्रतिबद्ध है। ये मौजूदा रिपोर्ट जिसका शीर्षक है भारत में साँस के लिए संघर्ष जिसे हम प्रकाशित कर रहे हैं इसीप्रतिबद्धता की ओर बढ़ाया गया कदम है।


रिपोर्ट के प्रमख निष्कर्षों से खुलासा होता है कि : 5 साल सेकम उम्र के बच्चों में अध्ययन किए। गए 5 राज्यों में कुल मिलाकर एक्यूट रेस्पिरेटरी इंफेक्शन (एआरआई) काप्रचलन दर 13.4 फीसदी रहा। जहां एक ओर बिहार में प्रचलन दर सबसेज्यादा (18.2 फीसदी) रहा उसके बाद यूपी (15.9 फीसदी), झारखंड (12.8 फीसदी), मध्य प्रदेश (11.61 फीसदी) और वहीं राजस्थान मेंसबसे कम प्रचलन दर (8.41 फीसदी) दर्ज किया गया। बचपन में होने वाले निमोनियाके लिए घर में वायु प्रदूषण जोखिम का एक महत्वपूर्ण कारक है। जिन घरों में खाना बनाने के लिए एलपीजी जैसे सुधारित ईंधन का इस्तेमालहोता है उसका बचावात्मक प्रभाव देखा गया है। 


 


 


 


 


 


 


जलवायु परिवर्तन से निपटने की पहल

दक्षिण एशिया क्षेत्र के अनेक देशों की साझा संस्कृति व समान भौगोलिक आयाम हैं लेकिन वे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए साझा दृष्टिकोण अपनाने से दूर हैं।
दुनिया भर में अब मानव-गतिविधियों से पैदा जलवायु परिवर्तन के खिलाफ ८ वैश्विक कार्रवाई के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। इसमें सरकारों, बिजनेसों, सिविल सोसाइटी तथा आम जनता की सहभागिता शामिल है। 2011 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समितिआईपीसी ने एक विशेष रिपोर्ट जारी की थी जिसका संबंध जलवायु परिवर्तन के कारण आत्यन्तिक घटनाओं के जोखिम से निपटना शामिल था। इसने जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया। इसके बाद जनता ने जलवायु परिवर्तन का खतरा समझा जिसके कारण सारी दुनिया में मौसम खराब होने की घटनाओं की गंभीरता व बारंबारता बढ़ी। 
राष्ट्रीय सरकारों की पेरिस समझौते के अनुसार ज्यादा जिम्मेदारी है, पर क्षेत्रीय पहलें भी जरूरी हो गई हैं। निसंदेह ग्रीनहाउस गैस-जीएचजी व खासकर कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन रोकने के प्रयास होने चाहिए। लेकिन भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और खतरों के बारे में सारी चीजें अभी ठीक से नहीं समझी गई हैं। पोप फ्रांसिस ने 'जीवधारियों की देखभाल में विश्व प्रार्थना दिवस' पर संदेश देते हुए कहा है कि 'यह मौसम हमें अपनी जीवनशैली तथा भोजन, उपभोग, परिवहन, पानी के प्रयोग, ऊर्जा व अनेक अन्य भौतिक वस्तुओं पर विचार के लिए उपयुक्त है जो अक्सर विचारहीन व हानिकारक हो सकती हैं। हममें से बहुत से लोग जीवधारियों के प्रति अत्याचारियों के रूप में काम करते हैं।' दुर्भाग्य से पूरी दुनिया में जीवनशैली अत्यधिक उपभोक्तावाद तथा ज्यादा से ज्यादा कचरा पैदा करने की ओर बढ़ रही है। यह बात विकसित व विकासशील देशों, दोनों के लिए सही है। अनेक समाज अपनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक जड़ों को अनदेखा करते हुए आंख बंद कर ऐसी जीवनशैलियां स्वीकार कर रहे हैं जिनको विकसित देशों, खासकर अमेरिका ने स्थापित किया है। ऐसे में समाजों को अपने भीतर झांक कर देखने तथा अपनी संस्कृति के अनुकूल जीवनशैली अपनाने की आवश्यकता है। इसके लिए जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप समान समस्याओं का सामना करने वाले देशों के साथ सहयोग के नए अवसर खुले हैं। प्रकृति भौगोलिक बाधायें नहीं स्वीकार करती है। लेकिन अनेक देश जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों का सामना करते हुए समान लक्ष्य देखने तथा एकसाथ काम करने में विफल रहते हैं । 
दक्षिण एशिया एक ऐसा ही क्षेत्र है जो गरीबी की अनदेखी से पैदा यथार्थ नहीं देख रहा है, जबकि इसके कारण जलवायु परिवर्तन का संकट और गंभीर हो जाता हैआईपीसी ने अपनी पांचवीं आंकलन रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा था कि 'जलवायु परिवर्तन प्रकृति तथा मानव व्यवस्थाओं के लिए वर्तमान खतरों के साथ नए खतरे भी पैदा कर रहा है। इन खतरों का वितरण असमान है तथा आमतौर से यह विकास के सभी स्तरों पर वंचित लोगों व समुदायों के लिए और गंभीर हो जाता है।' इसमें यह भी कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन से लोगो के विस्थापन का खतरा बढ़ा है तथा कुछ


लोग 'मौसम में आत्यन्तिक परिवर्तनों के कारण नुकसान का सामना करेंगे। विकासशील देशों तथा गरीब लोगों पर इसका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। इसके साथ ही गरीबी व आर्थिक झटकों के साथ जलवायु परिवर्तन के कारण हिंसक टकरावों का खतरा भी बढ़ जाता है। - दक्षिण एशिया में साझा संस्कृति और इतिहास है तथा वह जलवायु परिवर्तन के खतरों की अत्यधिक आशंका वाला क्षेत्र है। यदि हम अफगानिस्तान से भारत के दक्षिणी छोर तक भूमि पर गौर करें तथा श्रीलंका व मालदीव को इससे बाहर रखें तो यह लगभग 1.75 बिलियन लोगों की भूमि है। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय प्रभावों में तेजी से वृद्धि हुई है। पता चला है कि तापमान में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होने पर गेंहूं की उत्पादकता पर सात प्रतिशत प्रभाव पड़ सकता है, जबकि 3 डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि होने पर यह 24 प्रतिशत हो सकती है। दक्षिण एशिया मौसम में आत्यन्तिक परिवर्तनों का शिकार है जिनकी बारंबारता व गंभीरता बढ़ती जा रही है। इसके कारण मानव स्वास्थ्य, सुरक्षा, आजीविका व गरीबी पर प्रभाव पड़ सकता है। आईपीसीसी ने लू चलने, भारी बरसात, बाढ़ व सूखे की घटनाओं में वृद्धि का अनुमान लगाया था। इनमें से कुछ के कारण दस्तरोग, डेंगू व मलेरिया से होने वाली मौतों की संख्या बढ़ जाती है। इस क्षेत्र में जल की अधिकांश सप्लाई करने वाले मानसून में परिवर्तन के कारण अत्यधिक या बहुत कम बरसात जैसी घटनायें हो सकती हैं। इनके कारण वर्षा-आधारित तथा अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उत्पादकता प्रभावित हो सकती है। दक्षिण एशिया में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा निचले स्तर के समुद्र तटीय क्षेत्रों व बाढ़ वाले मैदानों में रहता है। समुद्र जल स्तर में वृद्धि से यह संकट का शिकार हो सकती है। चूंकि श्रीलंका और मालदीव जैसे द्वीप देशों को दक्षिण एशिया की मुख्यभूमि की तुलना में अलग समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसलिए वर्तमान समय में हमें उनके लिए अलग प्रयासों व पहलों की आवश्यकता है। लेकिन अभी दक्षिण एशिया में समान सरोकार के मुद्दों पर सहयोग की भावना मोटेतौर से गायब है। इस क्षेत्र में जनसंख्या के अधिक घनत्व को देखते हुए बड़ी संख्या में मनुष्यों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पड़ेंगे जो दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में अधिक होंगे।


दक्षिण एशिया आतंकवाद से गंभीर रूप से प्रभावित है जिसे कुछ देशों ने सरकारी नीति के रूप में बढ़ावा दिया है। यह स्पष्ट है कि आतंकवाद को पैदा करने और उसका समर्थन करने वाले देशों पर भी इसका गंभीर व दीर्घकालीन खतरा मौजूद है। यदि वे अपनी जनता के कल्याण के प्रति गंभीर हों तो उनको आतंकवाद छोड़ना होगादुर्भाग्य से क्षेत्र के कुछ देशों के बीच गंभीर राजनीतिक मतभेद हैं, पर जलवायु परिवर्तन की साझा चुनौतियों को देखते हुए उनको सबके हित में परस्पर लाभदायक गतिविधियों के माध्यम से शत्रुतापूर्ण व विवादास्पद मुद्दों से ऊपर उठना होगा। इस प्रकार की पहल में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल व पाकिस्तान में लागत-प्रभावी उपायों की आवश्यकता होगी।


विकासशील देशों के वार्ताकार कई साल से संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन-यूएनएफसीसी में 'साझा पर अलग-अलग जिम्मेदारियों' पर काम कर रहे हैं। हालांकि, ऐतिहासिक रूप से जीएचजी का उच्च स्तर पर उत्सर्जन करने वाले देशों को विकासशील देशों की तुलना में इनको घटाने के ज्यादा प्रयास करने होंगे। विकसित देशों को तार्किक रूप से ज्यादा वित्तीय संसाधन विकासशील देशों को देने चाहिए ताकि वे जलवायु परिवर्तन पर सामूहिक कार्रवाई को मजबूत कर सकें। लेकिन दुर्भाग्य से इन मांगों के पीछे छिपे सिद्धान्तों को विकसित देशों ने भुला दिया है। दक्षिण एशिया के देशों को सामूहिक रूप से उन परियोजनाओं के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए जिनका वित्तपोषण औद्योगिक देशों को करना है। दक्षिण एशिया में पवन ऊर्जा प्रयोग की संभावनायें असाधारण हैं और वह इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीय सीमाओं के पार वैज्ञानिक व आर्थिक रूप से सहयोग कर सकता हैक्या दक्षिण एशिया के नेता वर्तमान तनावों और राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठ कर अपनी वंचित जनसंख्या के हित में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर काम करेंगे जो लगातार गंभीर होते जा रहे हैं? शायद एक शुरुआत के रूप में इस विषय को हाल ही में स्थापित दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय में शोध एवं एडवोकेसी के तौर पर लिया जा सकता है।


आर के पचौरी (लेखक जलवायु परिवर्तन अंतरशासकीय समिति के पूर्व अध्यक्ष हैं)


कैंसर ने एक साल में छह करोड़ लोगों को किया बर्बाद 

मुंबई स्थित टाटा मेमोरियल सेंटर (टीएमसी) ने हाल ही में संसद की स्थायी समिति को बताया कि हर साल करीब छह करोड भारतीय कैंसर जैसी बीमारी के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। टीएमसी ने कहा कि यह जानलेवा बीमारी पूर्वोत्तर के राज्यों के लोगों के लिए एक भारी आर्थिक बोझ साबित हो रही है जो बेहतर इलाज के लिए ट्रेन से तीनचार दिन का सफर तय कर के टीएमसी आते हैं। 
देश में कैंसर के इलाज की सुविधाओं को लेकर निराशाजनक तस्वीर पेश करते हुए टीएमसी ने समिति से कहा 'इस मसले (कैंसर के इलाज) से निपटने में मौजूदा बुनियादी सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं। यहां तक कि आयुष्मान भारत के पिछले एक साल के रिकॉर्ड को हमने देखा और पाया कि कैंसर के इलाज में दो तिहाई निजी क्षेत्र की भागीदारी रिपोर्ट है जिसका परिणाम यह है कि भारत की छह करोड़ की आबादी गरीबी रेखा से नीचे चली जाती है क्योंकि कैंसर के इलाज का खर्चा भारी भरकम है। राज्यसभा सदस्य जयराम प्रौद्योगिकी रमेश की अध्यक्षता वाले पैनल ने यह रिपोर्ट सौंपी है। 
रिपोर्ट में टीएमसी के प्रतिनिधियों के बयान का हवाला काफी विस्तृत में दिया गया है। टीएमसी देश के 11 संस्थानों में से एक है जिसे केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत आने वाले परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) द्वारा मदद दी जाती है। यह देश में कैंसर के इलाज और शोध में शामिल है। 
टीएमसी ने बताया कि पूरे देश में स्वास्थ्य सुविधाओं के असमान वितरण के कारण मरीजों को कैसे आर्थिक, शारीरिक और मानसिक परेशानियों का सामना करना पडता है। कैंसर के इलाज में देश के इस अग्रणी केंद्र ने छह महीने के दौरान पूरे देश से इलाज के लिए संस्थान में आने वाले 75,000 कैंसर मरीजों की जियो टैगिंग की और पाया कि इसमें पूर्वोत्तर से आने वाले मरीजों की संख्या सबसे ज्यादा है उसके बाद उत्तर और पर्व भारत का स्थान है। टीएमसी प्रतिनिधियों के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश से मुंबई का सफर दो से तीन दिन का होता है। यह मरीजों पर आर्थिक बोझ भी डालता है क्योंकि आमतौर पर वे अपने परिवार के एक सदस्य के साथ आते हैं। इससे पूरे परिवार के जीविकोपार्जन पर असर पड़ता है। टीएमसी ने कहा, 'हमें यह भी कहना है कि स्वास्थ्य सुविधा पर कुल खर्च का करीब दो तिहाई जेब से जाता है, जो निजी खर्च होता है और केवल एक तिहाई सरकारी मदद होती है और यह तब और कम हो जाता है जब इलाज निजी क्षेत्र में हो। कैंसर पर शोध कर रही अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ग्लोबोकैन के मुताबिक भारत में 2018 में कैंसर के 13 लाख मामले सामने आए हैं, जो 2035 में बढ़कर 17 लाख तक हो जाएंगे। कैंसर के बढ़ते मामलों से चिंतित पैनल ने केंद्र को सलाह दी है कि इसके इलाज के लिए राज्य और जिले में केंद्र स्थापित किए जाए। समिति ने पूर्वोत्तर में बड़ी संख्या में कैंसर के मरीजों पर चिंता जताई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के कारण संवाद की कमी और कैंसर केंद्रो तक पहुंच न हो पाने के कारण यह समस्या लगातार बनी हुई है।


वैरिकोज वेन्स को झेलते रहें या इसका इलाज कराएं?

यदि आपके मन में ऐसे सवाल आते हैं, तो ऐसा सोचने वाले अकेले नहीं हैं। वेरिकोज वेन से पीड़ित कई लोग किसी भी लक्षण के बगैर अपनी पूरी जिंदगी जीते रहते हैं। समस्या तब होती है जब वैरिकोज वेन्स आपके जीवन को सीमित करने लगती है। इसकी शुरुआत त्वचा के रंग में परिवर्तन और नसों का उभरा होना जैसी हल्की काॅस्मेटिक समस्या से होती है, और उसके बाद पैर में दर्द, पैरों में भारीपन और खड़े रहने पर टखनों के आसपास सूजन जैसे गंभीर लक्षण प्रकट होते हैं। समय पर इलाज नहीं कराने पर, यह कभी ठीक नहीं होने वाले घाव के रूप में विकसित हो सकती है। यही नहीं, बढ़ी हुई नस फट सकती है और अचानक रक्तस्राव हो सकता है या फैली हुई नस के अंदर रक्त का थक्का जमा हो सकता है जो हृदय तक जा सकता है।
हैरानी की बात यह है कि, पीडित व्यक्ति न्यूरोलॉजिस्ट से परामर्श तब लेता है जब वेन्स उभर आती हैं या त्वचा रोग विशेषज्ञ के पास तब जाता है जब उसकी त्वचा के रंग में परिवर्तन आता है। यह वास्तव में वीनस स्टैसिस से संबंधित डर्माटिटिस है जिसे सिर्फ संवहनी आपूर्ति का इलाज कर ही ठीक किया जा सकता है। इस चिकित्सकीय स्थिति के इलाज के लिए इंटरवेंशनल रेडियोलाजिस्ट ही सही विशेषज्ञ साबित होते हैं।
वैरिकोज वेन्स का पता शारीरिक परीक्षण से आसानी से लगाया जा सकता है और कुछ मामलों में, लीक कर रहे वाल्व और सूजन वाले वेन्स का पता लगाने के लिए साधारण सोनोग्राफी परीक्षण - वीनस डॉपलर अल्ट्रासाउंड किया जाता है। ऐसे काफी लोग हैं जो वेरिकोज वेन्स के लक्षणों को चुपचाप सहते रहते हैं, और अक्सर मलहम, कम्प्रेशन स्टाकिंग्स जैसे अस्थायी समाधान को अपनाकर समझौता करते हैं। जब तक अंतर्निहित कारणों का इलाज नहीं जाता, यह समस्या बार-बार होती रहेगी।
सर्जरी और इसकी जटिलताओं के डर के कारण, वैरिकोज वेन्स से पीड़ित कई रोगी इलाज नहीं कराते हैं। वेरिकोज वेन्स की परंपरागत ओपन सर्जरी - वेन स्ट्रिपिंग दर्दनाक है, इसमें सर्जरी के निशान रह जाते हैं और रिकवरी में अधिक लंबा समय लगता है, जबकि वेरिकोज वेन्स का लेजर एब्लेशन से प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सकता है। लोकल एनीस्थिसिया के तहत, इंडो - वीनस लेजर ट्रीटमेंट (ईवीएलटी) ओपीडी में ही किया जा सकता है और वेन को बिना दर्द के बंद करने के लिए करीब आधे घंटे की ही आवश्यकता होती है। इससे भी महत्वपूर्ण बात, यह प्रक्रिया उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दिल और गुर्दे की बीमारियों जैसी सहरूग्णता वाली स्थितियों वाले रोगियों के लिए सुरक्षित है। इस प्रक्रिया के चीरा रहित और निशान रहित होने के कारण प्रक्रिया के तुरत बाद ही मरीज चल सकता है और अधिकतर रोगी अगले ही दिन अपनी दैनिक क्रियाकलापों को कर सकते हैं।


गाउट आर्थराइटिस से कैसे पायें निजात 

गाउट आर्थराइटिस जैसी इंफ्लामेट्री आर्थराइटिस युवा लोगों में अधिक आम होती जा रही है। गाउट से निजात पाने के तरीकों के बारे में बता रहे हैं नयी दिल्ली स्थित अपोलो स्पेक्ट्रा हाॅस्पिटल्स के वरिष्ठ ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन, डॉ. पुनीत दिलावरी। 
गाउट एक प्रकार की इंफ्लामेट्री आर्थराइटिस है। यह वैसे लोगों को होती है जिनके रक्त में यूरिक एसिड की मात्रा अधिक हो। यह एसिड जोड़ में सुई की तरह के क्रिस्टल का निर्माण करता है और अचानक तेज दर्द,  नरमी, लालिमा, गर्मी और सूजन पैदा करती है।
लक्षण
गाउट का पहला लक्षण पैर के अंगूठे में तेज दर्द और सूजन होना है। यह टखने या घुटने जैसे अन्य जोड़ों में भी दिखाई दे सकती है। गाउट एक समय में आम तौर पर एक जोड़ को प्रभावित करती है, लेकिन इलाज नहीं कराने पर यह कई जोड़ों को प्रभावित कर सकती है।
कारण
गाउट शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा अधिक हो जाने के कारण होती है। यह स्थिति हाइपरयूरिसीमिया कहलाती है। गाउट के मुख्य कारण आहार में कुछ अधिक प्यरिन वाले खाद्य पदार्थों (अधिक प्रोटीन वाले आहार) का सेवन, शराब का अत्यधिक सेवन, मोटापा और टाइप 2 मधुमेह हैं।
परीक्षण
— रक्त में यूरिक एसिड के स्तर को मापने के लिए रक्त परीक्षण।
— साॅफ्ट टिश्यू और हड्डी की जांच करने के लिए एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन या एमआरआई।
— चिकित्सक प्रभावित जोड़ से तरल पदार्थ को निकालकर माइक्रोस्कोप से यूरिक एसिड क्रिस्टल की जांच कर सकते हैं। जोड़ के तरल में यूरिक एसिड क्रिस्टल का पता लगाना गाउट की पहचान करने का पक्का तरीका है।
इलाज
एंटी- इंफ्लामेट्री दवाइयों के एक कोर्स से जोड़ की लाइनिंग को इनफ्लेम करना एक प्रचलित तरीका है। गंभीर गाउट के लिए, काॅर्टिकोस्टेराॅयड लेने की सलाह दी जा सकती है। जोड़ में स्टेरॉयड इंजेक्शन लगाकर समस्या को तेजी से कम किया जा सकता है। मरीजों को आराम करना चाहिए, प्रभावित अंग को उपर रखना चाहिए और जोड़ को चोट से बचाना चाहिए।
रोकथाम
— शराब से परहेज करें।
— जिगर, गुर्दे, चर्बी वाली मछली, समुद्री भोजन और मांस के सेवन से परहेज करें।
— कम वसा वाले डेयरी उत्पादों का अधिक सेवन करें क्योंकि यह गाउट से सुरक्षा प्रदान करता है। दूध प्रोटीन यूरिक एसिड को दूर कर शरीर की क्षमता को बढ़ाता है।
— आहार में अधिक एंटीऑक्सीडेंट युक्त खाद्य पदार्थों को शामिल करें।
— वजन को कम रखकर और अधिक व्यायाम कर यूरिक एसिड के स्तर को कम करने में मदद मिलेगी।


 


मेनोरेजिया — लापरवाही पड़ सकती है भारी

माहवारी के दौरान अत्यधिक रक्तस्राव होना कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का लक्षण है, लेकिन महिलाओं को  निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इन समस्याओं का अब कारगर इलाज मौजूद है।
जब किसी महिला को माहवारी के दौरान रक्त के थक्के (क्लाॅट्स) सामान्य से अधिक सात से ज्यादा दिनों तक निकलते हैं, तो इस स्थिति को अत्यधिक मासिक रक्तस्राव मेनोरेजिया कहा जाता है। 
समस्याएं
अत्यधिक रक्तस्राव के कारण महिला खून की कमी (एनीमिया) की समस्या से ग्रस्त हो सकती है। इस वजह से वह कमजोरी महसूस करती है और कई मामलों में उसके जीवन के लिये खतरा भी पैदा हो सकता है।
असामान्य रूप से अत्यधिक रक्तस्राव अनेक कारणों से हो सकता है, जिसका रोग के स्वरूप के अनुसार इलाज किया जाता है।
1. हार्मोन संबंधी गडबड़ियां - इनके अंतर्गत थायराॅयड संबंधी समस्या या अंडाशय (ओवरी) से अंडाणु (एग) का नहीं निकलना या पाॅलीसिस्टिक ओवरी डिजीज (पीसीओडी) को शामिल किया जाता है। इनके कारणों की जांच रक्त परीक्षणों और अल्ट्रासाउंड के जरिये आसानी से हो सकती है और दवाओं के जरिये इलाज संभव है।
2. गर्भाशय संबंधी समस्यायें - गर्भाशय में फाइब्राॅइड, पाॅलिप या अन्य विकृतियां होने के कारण अत्यधिक मासिक रक्तस्राव हो सकता है। इन सभी का उपचार ''कीहोल'' सर्जरी के जरिये आसानी से हो सकता है। लैप्रोस्कोपी मायोमेक्टमी के माध्यम से किसी भी आकार के और एक से अधिक फ्राइब्राॅइड को निकाला जा सकता है। जबकि हिस्टेरोस्कोपी के जरिये गर्भाशय की कैविटी में मौजूद पाॅलिप व अन्य विकृतियों को हटाया जा सकता है। 
3. कैंसर का खतरा - असामान्य रक्त स्राव की कमी की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिये। ऐसा इसलिये, क्योंकि इस तरह का रक्तस्राव सर्विक्स (गर्भाशय के मुख का कैंसर) और गर्भाशय कैंसर का लक्षण हो सकता है। आज लैप्रोस्कोपी (कीहोल सर्जरी) के जरिये कैंसर सर्जरी सफलतापूर्वक की जा रही है। 
4. अन्य कारण: अत्यधिक मासिक रक्त स्राव के अन्य कारण भी हो सकते हैं, जैसे गर्भपात। स्त्री रोग विशेषज्ञ इन कारणों की आसानी से जांच कर सकती है। 
जब रक्तस्राव के किसी कारण का पता नहीं चलता है तो इसे डीयूबी (डिसफंक्शन यूटेराइन ब्लीडिंग) कहा जाता है। डीयूबी के उपचार के लिये कई और भी तरीके हैं। जैसे आधुनिक इंट्रा यूटेराइन उपकरणों के द्वारा, इंजेक्शन या खाने वाली दवाओं के रूप में। जब उपचार की सभी विधियों से पीड़ित महिला को राहत नहीं मिलती है तब अंतिम उपाय के रूप में हिस्टेरेक्टॅमी (गर्भाशय निकालने) की जरूरत पड़ सकती है। 
जिन महिलाओं को पूर्व में आपरेशन के जरिये बच्चा हो चुका है, उनमें भी लैप्रोस्कोपी का फायदा यह है कि महिला को केवल एक दिन अस्पताल में रहने की जरूरत पड़ती है, रक्त की बहुत कम क्षति होती है, रक्त चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है और कम से कम दर्द होता है। याद रखें, महिलाएं पूरे परिवार के लिये स्वास्थ्य की धुरी होती है। इसलिय उनके स्वास्थ्य के संदर्भ में किसी भी तरह की अनदेखी नहीं की जानी चाहिये। 


गांठ होने का मतलब कैंसर होना नहीं होता 

यदि आप अपने स्तन में किसी प्रकार का परिवर्तन या कुछ असामान्य महसूस करती हैं, तो जितनी जल्दी हो सके चिकित्सक को दिखाएं। यह बात ध्यान में अवश्य रखें कि स्तन में होने वाले अधिक परिवर्तन कैंसर नहीं होते हैं। यदि आपका चिकित्सक आपको बायोप्सी कराने की सलाह देता है तो इसका यह मतलब नहीं है कि आपको स्तन कैंसर है। बिनाइन स्तन रोग बहुत आम हैं। लगभग दो तिहाई महिलाएं अपने जीवन में एक या अन्य प्रकार के बिनाइन स्तन रोग से पीड़ित होती हैं।
कैलाश काॅलोनी स्थित अपोलो हॉस्पिटल्स स्पेक्ट्रा की वरिष्ठ स्तन सर्जन डॉ. उषा माहेश्वरी ने बताया, ''स्तन के कैंसर रहित रोग बहुत आम हैं। स्तन के कैंसर रहित दो मुख्य प्रकार के रोग फाइब्रोएडीनोसिस या फाइब्रोसिस्टिक परिवर्तन और कैंसर रहित या बिनाइन स्तन ट्यूमर हैं। कुछ प्रकार के बिनाइन स्तन रोगों का यदि इलाज नहीं कराया गया या सही समय पर इलाज नहीं कराया गया तो इनमें कैंसर में विकसित होने की क्षमता होती है। कैंसर रहित ट्यूमर का प्रभावी ढंग से इलाज कराने पर जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है।''
फाइब्रोएडीनोसिस और सिस्ट स्तन के ऊतकों में होने वाले बिनाइन परिवर्तन हैं जो कई महिलाओं में उनके जीवन में किसी भी समय हो सकते हैं। इनमें स्तनों में गांठ का बनना, भारी होना, नरम होना, निपल से स्राव का निकलना या स्तन में दर्द जैसे लक्षण हो सकते हैं। कई रोगियों में बिनाइन ट्यूमर दुग्ध नलिकाओं में विकसित हो जाता है जिससे निपल से असामान्य स्राव हो सकता है।
डाॅ. माहेश्वरी ने बताया, ''हालांकि इसका अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में भी आसानी से पता लगाया जा सकता है। गांठ के दर्दरहित होने पर ज्यादातर महिलाएं गांठ की अनदेखी करती हैं। जब गांठ में दर्द होने लगता है या गांठ बड़ा हो जाता है तब वे चिकित्सक से परामर्श करती हैं। सभी महिलाओं को कम उम्र (पीरियड या रजोधर्म की शुरुआत) से ही हर महीने अपने स्तनों में परिवर्तन का पता अवष्य लगाना चाहिए और 40 साल की उम्र के बाद किसी स्तन विषेशज्ञ से नियमित रूप से शारीरिक परीक्षण और जांच (एक वर्ष से कम से कम एक बार) अवश्य कराना चाहिए। सालाना शारीरिक परीक्षण के साथ-साथ किसी विशेषज्ञ से स्तन का मासिक स्वयं परीक्षण करने के लिए सीखना बहुत अच्छा उपाय है। ऐसी स्क्रीनिंग की मदद से प्रारंभिक अवस्था में ही समस्याओं की पहचान होने और इलाज होने की अधिक संभावना होती है। किसी विशेषज्ञ से परामर्श लिये बगैर कोई वैकल्पिक या परंपरागत इलाज कराने पर इलाज में देरी हो सकती है और इससे अपूरणीय क्षति हो सकती है।
ऐसी स्क्रीनिंग से प्रारंभिक अवस्था में ही रोग की पहचान होने की अधिक संभावना होती है। 


 


हर्निया का दूरबीन पद्धति (लैप्रोस्कोपिक सर्जरी) से हो सकता है स्थाई इलाज

हर्निया एक सामान्य बीमारी है, जिससे कई लोग पीड़ित हैं। पेट की दीवार के विशेष हिस्से की मांसपेषियां कमजोर होने के कारण पेट के हिस्से बाहर निकल आते हैं, इसी स्थिति को हर्निया कहा जाता है। यह समस्या बच्चों, पुरुषों व महिलाओं को कभी भी हो सकती है।
हर्निया कई प्रकार के होते हैं:
एपिगैस्ट्रिक, इनसिजिनल, डायरेक्ट इनग्युइनल, अमबिलिकल इनडायरेक्ट, इनग्युइनल फीमोरल इत्यादि।
इस बीमारी में कुछ रोगी, सूजन व दर्द का अनुभव करते हैं। ये खड़े होने, खांसने या भारी सामान उठाने पर बढ़ जाता है।
नई दिल्ली, करोल बाग स्थित अपोलो स्पैक्ट्रा हाॅस्पिटल के लैप्रोस्कोपिक व गैस्ट्रो सर्जरी के वरिष्ठ शल्य चिकित्सक डाॅ. विनय सब्बरवाल एवं डाॅ. सुखविंदर सिंह सग्गु इस पीड़ादायक बीमारी का बिना चीरे के, दूरबीन तकनीक (लैप्रोस्कोपिक) से सफलतापूर्वक आपरेषन करते हैं। यह एक स्थाई इलाज है, जिससे पुनः हर्निया होने की संभावना नहीं के बराबर है।
डाॅ. विनय सब्बरवाल के अनुसार, 'लैप्रोस्कोपिक सर्जरी' में उपयोग की जाने वाली आधुनिक हाइब्रिड जाली की गुणवत्ता हर्निया के रोगियों के लिए वरदान सिद्ध हुई है, जो आंतों से चिपकते नहीं हैं। ये पतले होते हैं व बायो डिग्रेडेबल फैब्रिक की परत से बने होते हैं। 
डाॅ. सुखविंदर सिंह सग्गु के अनुसार, आम तौर पर हर्निया के परंपरागत आपरेशन में मरीज को लंबा चीरा लगाया जाता था, जो अत्यंत पीड़ादायक होता था और कई जटिल समस्याओं को जन्म देता था। लेकिन दूरबीन तकनीक (लैप्रोस्कोपिक) से आपरेशन करने के लिए रोगी के शरीर में मात्र तीन छेद करने पड़ते हैं, जो पूर्णतया दर्द रहित हैं और जिसके निशान भी प्रायः दिखाई नहीं देते। रोगी जल्द ही अपनी नियमित दिनचर्या में लौट आता है।' 


गर्भाशय संबंधी विकार, इनकी होगी हार

आधुनिक दौर में व्यक्तिगत वजह (जैसे देर से शादी करना) और पर्यावरण से संबंधित कारणों से महिलाओं में गर्भाशय संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं। इन समस्याओं में गैर-कैंसरस ग्रंथियों जैसे फाइब्राॅइड्स और एडोनोमायोसिस के मामले बढ़ रहे हैं। अतीत में इस तरह की समस्याओं का एकमात्र इलाज हिस्टेरेक्टॅमी था। इसके तहत ऐसी पीड़ित महिलाओं के गर्भाशय को आपरेशन के जरिए निकाल दिया जाता था, जिनका परिवार पूरा हो चुका हो यानी जिनके बच्चे हो चुके हों। हमने गर्भाशय के विकारों को दूर करने के लिए एक नई चिकित्सा विधि विकसित की है, जिसे लैप्रोस्कोपिक ग्राॅस वेजिंग कहा जाता है।
नई प्रक्रिया के लाभ
परंपरागत हिस्टेक्टॅमी की तुलना में नई लैप्रोस्कोपिक ग्राॅस वेजिंग प्रक्रिया के कई फायदे हैं। जैसे इस प्रक्रिया में अंडाशय (ओवरी) को 30 से 60 फीसदी रक्त की आपूर्ति गर्भाशय की धमनियों के जरिये होती है। वहीं जिन महिलाओं की हिस्टेरेक्टॅमी होती है, उनमें अगर अंडाशय को बचा भी लिया जाता है, तब भी अंडाशय में रक्त की आपूर्ति घट जाती है। इस कारण समय से पूर्व रजोनिवृति (प्रीमैच्योर मेनोपाॅज) की आशंका रहती है। नतीजतन पीड़ित महिला में डिप्रेशन, पेशाब की थैली की समस्या, हड्डियों में कमजोरी, हृदय संबंधी समस्या और याददाश्त कमजोर होने का खतरा रहता है। इसके विपरीत ग्राॅस वेजिंग के जरिये ओवरी पर किसी तरह के असर के बगैर महिलाओं को गर्भाशय से संबंधित समस्या से छुटकारा पाने में मदद मिलती है। इस प्रक्रिया को लैप्रोस्कोपी के माध्यम से किया जाता है, जिससे मरीजों को कई राहतें मिलती हैं। ग्राॅस वेजिंग के दौरान गर्भाशय के सपोर्ट को छेड़ा नहीं जाता है जबकि हिस्टेरक्टॅमी के दौरान इस सपोर्ट को काट दिया जाता है। ग्राॅस वेजिंग के बाद गर्भाशय ग्रीवा सुरक्षित रहती है। इस कारण मरीज को ग्राॅस वेजिंग के कुछ समय बाद सेक्स से जुड़ी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता।


ठंड बढ़ने के साथ बढ़ रहा है गले में संक्रमण का प्रकोप

बाहर के वातावरण के तापमान में गिरावट आने का एक ही मतलब है ..... नहीं, यह छुट्टियों का समय नहीं है, बल्कि अब आपको गले में खराश और जुकाम का सामना करना पड़ सकता है। राजधानी में मौसम में आये अचानक बदलाव के कारण वायरल बुखार और गले में संक्रमण का प्रकोप काफी बढ़ गया है। वर्तमान समय का तापमान बैक्टीरिया, वायरस और अन्य सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होने और संक्रमण के लिए उपयुक्त है।
मौसम में परिवर्तन के दौरान गले में खराश लोगों को आम तौर पर प्रभावित करने वाली एक आम समस्या है। यह अक्सर वायरल संक्रमण के कारण होता है। हालांकि बैक्टीरिया गंभीर रूप से गले में खराष पैदा कर सकते हैं जिसके कारण गंभीर जटिलताएं हो सकती हैं। ये वायरस बेहद संक्रामक होते हैं और तेजी से फैलते हैं।
एशियन इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल सांइस, एनसीआर के पल्मोनोलाॅजिस्ट डॉ. मानव मनचंदा कहते हैं, ''गले में खराश या फैरिंजाइटिस (ग्रसनीशोथ) ऊपरी श्वसन मार्ग के आसपास होने वाला संक्रमण है। यह ठंड के कारण होता है और इसके कारण सर्दी, खांसी और सीने में संक्रमण होता है। यह संक्रमण पैदा करने वाली बीमारी है और छींकने और खांसने के दौरान मुंह और नाक से निकले तरल की छोटी बूंदों के संक्रमण से फैलता है।'' मौसम में बदलाव के दौरान, एलर्जिक राइनाइटिस से पीड़ित कई लोगों को गले में खराश भी हो जाती है।
गले में खराश में, मुंह या गले के पीछे के भाग में सूजन हो जाती है। इसके अलावा, विशेषकर बच्चों में टॉन्सिल प्रभावित हो जाती है, जिसके कारण टांसिलाइटिस हो जाती है। गले में खराश के कारण का पता आम तौर पर गले के इतिहास और परीक्षण के आधार पर लगाया जाता है। संक्रामक रोगजनक का पता लगाने के लिए अक्सर गले के स्वाब का परीक्षण किया जाता है।
अपोलो स्पेक्ट्रा हॉस्पिटल्स के ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. ललित मोहन पाराशर कहते हैं, ''यदि आप अपने गले में खुजली या चुभन महसूस करते हैं, तो गले में खराश की अधिक संभावना हो सकती है। हालांकि यह समस्या मामूली लग सकती है, लेकिन इसे खांसी होने से पहले रोकना बेहतर है। हालांकि सिर्फ गले में खराश के कारण ही आपको काफी परेशानी हो सकती है और यह आपके दैनिक जीवन को प्रभावित कर सकता है।''
डॉ. पराशर कहते हैं, ''वायरल और बैक्टीरियल संक्रमण, ऊपरी श्वसन मार्ग में संक्रमण पैदा करता है और नाक में लगातार कन्जेस्चन पैदा करता है और नाक बहने लगती है। यह कान के बीच के हिस्से में यूस्टाचियन ट्यूब (कान के अंतिम हिस्से का वेंटिलेशन ट्यूब, जो नाक और कान के बीच के हिस्से में दूसरे हिस्से के पीछे खुलता है) के माध्यम से ऊपर की ओर बढ़ता है। इसके कारण कान में तेज दर्द, बहरापन हो सकता है और कान से स्राव निकल सकता है और चक्कर आ सकता है।''
कारण: गले में खराश का सबसे आम कारण संक्रमण है जो वायरल या बैक्टीरियल संक्रमण हो सकता है।
— वायरल संक्रमण: वायरस के कारण होने वाले गले में खराश में आमतौर पर बुखार, थकान, शरीर में दर्द, नाक का बहना और आंखों का लाल होना जैसे लक्षण होते हैं। इसके अलावा, रोगी उल्टी, पेट दर्द और डायरिया जैसे लक्षण से पीड़ित हो सकता है। ऐसे लक्षण बच्चों में आमतौर पर अधिक देखे जाते हैं।
— बैक्टीरियल संक्रमण: गले में खराश ग्रुप ए बीटा हीमोलाइटिस स्ट्रेप्टोकोकस जैसे बैक्टीरिया के कारण हो सकता है। इसमें वायरस से होने वाले संक्रमण के कारण नाक से साफ पानी का बहना और आंखों का लाल होना जैसे लक्षण नहीं होते हैं।
इलाज
वायरस के कारण होने वाले गले में खराश में, गले में खराश को नियंत्रित करने के लिए गर्म पानी से गार्गल और कफ लाजिंज के सेवन के अलावा किसी और उपचार की जरूरत नहीं होती हैै। यदि बुखार, खांसी या पीले रंग के कफ जैसे बैक्टीरियल संक्रमण के कोई संकेत हों, तो ईएनटी परीक्षण कराना और एंटीबायोटिक के सेवन की जरूरत होती है।
गले में खराश से राहत पानेे के लिए सुझाव:
— गर्म पानी में नमक डालकर कुल्ला करें।
— भाप लें क्योंकि यह नासिका मार्ग में जमा हुए बलगम को निकालता है।
— नाक की झिल्ली को नम रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में तरल का सेवन करें।
— अपने नाक और गले में एकत्र बलगम को निकालने के लिए गर्म तरल पदार्थ का सेवन करें। इससे गले में खराश के लिए जिम्मेदार सूजन को कम करने में मदद मिलेगी।
— लाजेंज को चूसें। मेन्थॉल युक्त लाजेंज के सेवन से आपके गले के पीछे का हिस्सा सुन्न होगा है जिससे आपको गले में खराश के साथ जलन और बेचैनी से राहत मिलेगी।
निम्न चीजें से परहेज करें:
— धूम्रपान
— कोल्ड ड्रिंक्स
— तैलीय और तले हुए खाद्य पदार्थों
— मसालेदार भोजन
ये पहले से ही सूजी हुई म्यूकोसा को षुश्क करते हैं, जलन पैदा करते हैं और नमी रहित करते हैं इसलिए इनसे परहेज करें। सार्वजनिक स्थानों में जाने से बचें क्योंकि आप अन्य लोगों को भी संक्रमित कर सकते हैं।


स्तन कैंसर की आधुनिक उपचार विधियों से स्तन रहेंगे सही सलामत

अक्टूबर स्तन कैंसर जागरूकता माह के तौर पर मनाया जाता है। यह रोग के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए एक वार्षिक अभियान है। हालांकि अधिकतर लोगों को स्तन कैंसर के बारे में पता है, फिर भी अधिकतर लोग इस बीमारी को इसके प्रारंभिक अवस्था में ही पता लगाने के लिए उचित कदम उठाना भूल जाते हैं और अन्य लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं। 
स्तन कैंसर महिलाओं में होने वाली सबसे खतरनाक बीमारियों में से एक है। अनुमान है कि 8 में से एक महिला को जीवन में कभी न कभी स्तन कैंसर होगा। लेकिन अच्छी खबर यह है कि अधिकतर महिलाएं कैंसर की जल्द पहचान और इलाज कराकर स्तन कैंसर से निजात पा सकती हैं।
कैंसर असामान्य कोशिकाओं के समूह के द्वारा अनियंत्रित ढंग से विकसित होने और अक्सर ट्यूमर के निर्माण के कारण होता है। स्तन कैंसर में, ट्यूमर आसपास के ऊतकों में भी विकसित हो जाता है और कभी-कभी शरीर के अन्य भागों (मेटास्टेसाइजिंग के रूप में जाना जाता है) तक भी फैल जाता है। 
जोखिम कारक:
धूम्रपान, मोटापा, व्यायाम की कमी और अस्वास्थ्यकर आहार जैसे जीवन शैली से संबंधित कारक आपके स्तन कैंसर से पीड़ित होने के खतरों को बढ़ा सकते हैं। 
स्तन कैंसर के मामले में महिलाएं आम तौर पर सबसे पहले स्तन में गांठ का अनुभव करती है। कुछ महिलाएं अपने स्तन में तेज दर्द और संभवतः स्तन के कुछ मुलायम होने का भी अनुभव कर सकती हैं।
स्तन कैंसर के प्रारंभिक लक्षण:
— निप्पल के आकार में परिवर्तन
— स्तन में दर्द जो आपके अगले पीरियड के बाद भी दूर नहीं होता है
— एक नया गांठ जो अगले पीरियड के बाद भी खत्म नहीं होता है 
— एक स्तन के निपल से साफ, लाल, भूरे, या पीले रंग के स्राव का निकलना 
— किसी स्पष्ट कारण के बगैर स्तन का लाल होना, सूजन होना, त्वचा में जलन, खुजली, या रैशेज होना
— काॅलरबोन या कांख के पास सूजन या गांठ
क्लिनिकल डायग्नोसिस:
— किसी महिला के द्वारा स्तन कैंसर के लक्षण का अनुभव करने से पहले ही कैंसर की पहचान करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका मैमोग्राफी है। मैमोग्राफी एक विशेष प्रकार की स्तन की इमेजिंग है जिसमें कैंसर का पता लगाने के लिए कम मात्रा में एक्स-रे का इस्तेमाल किया जाता है।
— मैमोग्राम या परीक्षण में स्तन में कैंसर की संभावना वाले परिवर्तन (या विषमता) पाये जाने पर बायोप्सी की जाती है। कैंसर के वास्तव में मौजूद होने का पता लगाने का एकमात्र उपाय बायोप्सी है।
स्तन कैंसर की शल्य चिकित्सा से उपचार
ब्रेस्ट कंजर्विग सर्जरी
स्तन कैंसर की परंपरागत सर्जरी में, चिकित्सक मास्टेक्टाॅमी करते हैं, जिसमें पूरे स्तन या स्तन के कुछ हिस्सों को सर्जरी से निकालने सहित उसके आसपास की मांसपेशियों को भी काटकर निकाल दिया जाता है। ब्रेस्ट कंजर्विंग सर्जरी में, ट्यूमर को उसके आसपास के ऊतक के साथ निकाल दिया जाता है। उसके बाद ट्यूमर को निकालने के बाद वहां हुए गड्ढे को शरीर के किसी अन्य भाग के ऊतक से भर दिया जाता है।
इस आपरेशन के लाभ यह हैं कि इसके तहत स्तन में ग्राफ्ट किये गये मांस जीवित ऊतक होते हैं जो स्तन में रक्त परिसंचरण शुरू कर देते हैं। इस सर्जरी के सस्ती होेने के साथ-साथ सर्जरी में अत्यधिक सटीकता, कम दर्द, तेजी से घाव का ठीक होना, संक्रमण का कम जोखिम होना और अस्पताल में कम समय तक रहने सहित कई अन्य लाभ भी हैं।


कमर दर्द से निजात दिलायेगी मिस तकनीक

स्पाइन से संबंधित एक सामान्य डिसआर्डर है कमर दर्द, जिसका व्यक्ति के जीवन के समग्र गुणवत्ता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कमर दर्द सबसे अधिक बार-बार होने वाला दर्द है और दर्द के मामले में यह सिर दर्द के बाद दूसरे स्थान पर है। पाँच में चार वयस्कों को अपने जीवन में कभी न कभी कम से कम एक बार कमर दर्द का अनुभव जरूर होता है। स्पाइन में दर्द के लिए सबसे सामान्य जगह पीठ का निचला हिस्सा यानी कमर है क्योंकि यह हमारे वजन का भार सहता है और इसलिए इसके प्रभावित होने की अधिक संभावना होती है।
लंबे समय से हो रहे कमर दर्द के लक्षण
— तीन महीने से अधिक समय से कमर में हल्का से गंभीर दर्द
— सुबह की जकड़न
— दर्द के कारण नींद में व्यवधान
— थकान और / या चिड़चिड़ापन
— डिप्रेशन
— लंबे समय तक बैठने या खड़ा रहने में असमर्थ होना
कारण
अधिक उम्र, शारीरिक क्रियाकलापों / पास्चर के सही नहीं होने, आराम तलब जीवन शैली, मोटापा, ट्रामा और यात्रा के कारण स्पाइन की संरचना में बदलाव आपके स्पाइन को चोटिल कर सकते है और जिसके कारण कमर दर्द और पैर में दर्द और / या सुन्नपन या यहां तक कि पैरों में कमजोरी जैसे अन्य लक्षण हो सकते हैं।
इलाज
दवाओं और शारीरिक चिकित्सा जैसी सर्जरी रहित चिकित्सा से लक्षण से राहत नहीं मिलने पर स्पाइन सर्जरी कराने की सलाह दी जा सकती है। सर्जरी रहित चिकित्सा में फिजिकल थेरेपी, दर्द निवारक दवाइयां - एंटी इंफ्लामेटरी या ब्रेसिंग शामिल हैं।
सर्जरी
परंपरागत सर्जरी: परंपरागत, ओपन स्पाइन सर्जरी में, चिकित्सक स्पाइन को स्पष्ट रूप से देखने के लिए एक चीरा लगाते है और रिट्रैक्स करते हैं या मांसपेशियों को एक तरफ खींचकर हटाते हैं। उसके बाद सर्जन स्पाइन तक पहुंचकर रोगग्रस्त और क्षतिग्रस्त हड्डी या इंटरवर्टिब्रल डिस्क को निकाल सकते हैं।
नवीनतम सर्जरी: तकनीकी विकास के कारण अब मिनिमली इंवैसिव सर्जिकल तकनीक की मदद से कमर दर्द की अधिकतर समस्याओं का इलाज करना संभव हो गया है। चिकित्सक छोटे चीरों के माध्यम से स्पाइन में पहुंचने के लिए विशेष उपकरणों का उपयोग करते हैं। मिनिमली इंवैसिव स्पाइन सर्जरी (मिस) में लंबा चीरा लगाने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें कम रक्तस्राव होने, अस्पताल में कम समय तक रहने और जल्दी स्वस्थ होने के अलावा स्पाइन के आसपास की मांसपेशियों के अधिक नुकसान से बचा जा सकता है। 
ओपन सर्जरी की तुलना में लाभ
ओपन सर्जरी की प्रमुख कमियां में से एक कमी मांसपेशियों को खींचना या ''रिट्रैक्शन'' है जिससे मुलायम ऊतकों को नुकसान पहुंच सकता है। इसके कारण मांसपेशी में इंजुरी होने की अधिक संभावना होती है और रोगी को सर्जरी के बाद दर्द हो सकता है जो सर्जरी के पहले महसूस किये जाने वाले दर्द से अलग होता है। इससे रोगी को स्वस्थ होने में अधिक समय लग सकता है।


अधिक उम्र के लोगों में अंधेपन का कारण बन सकता है मोतियाबिंद

मोतियाबिंद क्या है?
मोतियाबिंद में आंख की आईरिस और पुतली के पीछे स्थित आंख की प्राकृतिक लेंस पर झाई हो जाती है। यह 50 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में दृष्टि हीनता का सबसे आम कारण है और दुनिया में अंधापन का प्रमुख कारण है।
मोतियाबिंद क्यों होता है?
मोतियाबिंद तब होता है जब आंख की लेंस में प्रोटीन जमा होकर इसे धुंधला बना देता है। यह दृष्टि को कुछ नुकसान पहुंचाते हुए प्रकाश को लेंस के माध्यम से स्पष्ट रूप से गुजरने से रोकता है। लेंस के बाहर नयी लेंस कोशिकाएं बन जाती हैं और पुरानी कोशिकाएं लेंस के केन्द्र में जमा हो जाती हैं और मोतियाबिंद बनाती हैं। 
इसके लक्षण क्या हैं?
— धुँधली, धूमिल, या अस्पश्ट दृष्टि
— अधिक उम्र के लोगों में प्रोग्रसिव नीयरसाइटेडनेस (मायोपिया), जिसे अक्सर 'दूसरी दृष्टि' कहा जाता है। हालांकि उनकी दूर की दृष्टि खराब होने के बावजूद, उन्हें लंबे समय तक पढ़ने के चश्मे लगाने की जरूरत नहीं पड़ सकती है।
— रंगों को देखने के तरीकों में परिवर्तन
— रात में गाड़ी चलाने में समस्या होना, जैसे आनेवाली गाड़ी के हेडलाइट्स का चमकना
— दिन के दौरान चमक से समस्या होना
— दोहरी दृष्टि
— आपके चश्मे के नंबर में अचानक परिवर्तन
कैसे करें इसकी पहचान?
नेत्र चिकित्सक आंख का परीक्षण कर बता देंगे कि आप कितनी अच्छी तरह से देख सकते हैं। आपके चिकित्सक लेंस और आंख के अन्य भागों की जांच करने के लिए आपकी आंख की पुतली को चौड़ा करेंगे।
इलाज
यदि आपकी दृष्टि चश्मे या कांटैक्ट लेंस से सही नहीं की जा सकती है और मोतियाबिंद आपके दैनिक जीवन में बाधा उत्पन्न कर रहा है, तो आपको मोतियाबिंद सर्जरी की जरूरत हो सकती है। मोतियाबिंद सर्जरी आम तौर पर आउट पेशेंट आधार पर की जाती है और दृष्टि को बहाल करने में यह काफी सफल साबित होती है। सर्जन आपके लेंस को निकालता है और इसकी जगह एक स्पष्ट कृत्रिम लेंस प्रत्यारोपित कर देता है।
नवीनतम उपचार: फेमटोसेकंड लेजर असिस्टेड कैटेरेक्ट सर्जरी
फेमटोसेकंड लेजर रोगी को माइक्रोन स्तर की सटीकता, सुई रहित, ब्लेड-रहित सर्जरी उपलब्ध कराता है और मोतियाबिंद की सर्जरी में यह सबसे अधिक सफल साबित हुई है। इससे एक पिन के चुभने जितने चीरे के माध्यम से लेंस को निकाला जा सकता हैै और यह वर्तमान मोतियाबिंद शल्य चिकित्सा तकनीकों से कहीं अधिक सुरक्षित और बेहतर है।
इस नई तकनीक में, रोगी की दृष्टि में तेजी से सुधार होता है क्योंकि इसमें कम अल्ट्रासाउंड ऊर्जा होती है, और आंख में सूजन कम होती है।


उम्र बढ़ने के साथ बढ़ती है ऑस्टियो आर्थराइटिस की समस्या

ऑस्टियो आर्थराइटिस (ओए) भारत में आर्थराइटिस का सबसे प्रचलित रूप है। यह हर साल डेढ़ करोड़ से अधिक वयस्कों को प्रभावित करता है। दो में से एक वयस्क में घुटने की ओस्टियो आर्थराइटिस के लक्षण विकसित होते हैं जबकि चार में से एक वयस्क में 85 साल की उम्र तक कूल्हे की ओस्टियो आर्थराइटिस के लक्षण विकसित होते हैं और 12 में से एक लोग में 60 साल या उससे अधिक उम्र में हाथ के ओस्टियो आर्थराइटिस होते हैं। हालांकि ओस्टियोआर्थराइटिस सभी उम्र के लोगों में होता है, लेकिन 65 साल से अधिक उम्र के लोगों में ऑस्टियो आर्थराइटिस सबसे आम है।
ऑस्टियो आर्थराइटिस क्या है
यह एक डिजेनरेटिव ज्वाइंट रोग है। यह जोड़ों की सबसे गंभीर स्थिति है। यह किसी भी जोड़ को प्रभावित कर सकता है, लेकिन यह घुटनों, कूल्हों, पीठ के निचले हिस्से, गर्दन और उंगलियों के छोटे जोड़ों में सबसे अधिक होता है। इस तरह के रोग जोड़ों की पूरी तरह से विकलांगता पैदा कर सकते हैं। यदि लंबे समय तक दवा के सेवन या फिजियोथेरेपी से राहत नहीं मिलती है, तो आखिरकार व्यक्ति अपाहिज हो सकता है।
कारण
— ऑस्टियो आर्थराइटिस उम्र बढ़ने का एक सामान्य परिणाम है। यह जोड़ो के घिसने और टूटने के कारण भी होता है।
— जोड़ों में कार्टिलेज होते हैं, रबड़ जैसे ऊतक होते हैं जो जोड़ों में आपकी हड्डियों के लिए कुशन का काम करते हैं, और हड्डियों को एक दूसरे पर फिसलने में सक्षम बनाते हैं। जब कार्टिलेज टूट जाती है और अपनी जगह से हट जाती है, तो हड्डियां आपस में रगड़ खाने लगती हैं। इस कारण दर्द, सूजन और जकड़न पैदा होती है।
— जोड़ों के चारों ओर बोनी स्पर या अतिरिक्त हड्डी का निर्माण हो सकता है। जोड़ के आसपास के लिगामेंट और मांसपेशियां अधिक कमजोर और कड़ी हो जाती हैं।
जोखिम कारक
— ओस्टियोआर्थराइटिस में पीढ़ी दर पीढ़ी होने की प्रवृत्ति होती है।
— अधिक वजन होने पर कूल्हे, घुटने, टखने और पैर के जोड़ों में ओस्टियो आर्थराइटिस होने का खतरा बढ़ जाता है क्योंकि अतिरिक्त वजन से जोड़ अधिक घिसते हैं और टूटते-फूटते हैं।
— फ्रैक्चर या जोड़ों के अन्य चोट जीवन में बाद में ओस्टियो आर्थराइटिस होने का खतरा बढ़ा सकते हैं। इसमें आपके जोड़ों में कार्टिलेज और लिगामेंट शामिल होते हैं।
— प्रतिदिन एक घंटा घुटना टेककर या घुटना मोड़कर बैठने वाले कार्यो को करने से ओस्टियो आर्थराइटिस होने का खतरा काफी बढ़ जाता है। वजन उठाने, सीढ़ियां चढ़ने या अधिक पैदल चलने से भी इसका खतरा बढ़ जाता है।
— ऐसे खेल जिनमें जोड़ पर सीधा प्रभाव पड़ता है (जैसे फुटबॉल), घुमना पड़ता हो (जैसे बास्केटबॉल या साॅसर) या फेंकना पड़ता हो, खेलने पर आर्थराइटिस का खतरा बढ़ जाता है।
— जोड़ में रक्तस्राव पैदा करने वाले हीमोफिलिया जैसे ब्लीडिंग डिसआर्डर
— जोड़ के निकट रक्त की आपूर्ति में अवरोध पैदा करने वाले और वैस्कुलर नेक्रोसिस पैदा करने वाले डिसआर्डर 
— क्रोनिक गाउट, स्यूडो गाउट या रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस सहित अन्य प्रकार के आर्थराइटिस
लक्षण 
— जोड़ों में दर्द और जकड़न इसके सबसे आम लक्षण हैं। व्यायाम करते समय, जब आप अपने जोड़ पर वजन या दबाव डालते हैं, तो अक्सर दर्द बढ़ जाता है। यदि आपको ऑस्टियो आर्थराइटिस है, तो समय के साथ आपके जोड़ कठोर हो सकते हैं और उनमें जकड़न हो सकता है। जब आप जोड़ को मूव करते हैं तो आप रगड़ खाने, सख्त या चटचटाहट की आवाज सुन सकते हैं। ''मार्निंग स्टिफनेस'' शब्दावली का अर्थ दर्द और जकड़न से है जो आप सोकर उठने के बाद महसूस कर सकते हैं। जकड़न आम तौर पर 30 मिनट या उससे कम समय तक रहता है। इसमें जोड़ को सक्रिय करने वाली हल्की गतिविधि से सुधार होता है। दिन के दौरान, जब आप सक्रिय होते हैं तो दर्द बढ़ सकता है और जब आप आराम कर रहे होते हैं तो बेहतर महसूस होता है। जब आप आराम करना षुरू करते हैं तो थोड़ी देर तक दर्द मौजूद रह सकता है, उसके बाद दर्द कम होगा। इसके कारण यहां तक कि रात में आपकी नींद भी खुल सकती है। कुछ लोगों में एक्स-रे में ओस्टियो आर्थराइटिस के परिवर्तन दिखने के बावजूद भी इसके लक्षण नहीं हो सकते हैं।
— जोड़ में मूवमेंट करने पर रगड़ खाने (चटचटाहट) की आवाज होती है, जिसे क्रेपिटेशन कहा जाता है।
— जोड़ में सूजन (जोड़ों के आसपास की हड्डियां सामान्य से बड़ा महसूस कर सकते हैं)
— सीमित दूरी तक चल पाना
— जोड़ को दबाने पर कोमल महसूस होना
— सामान्य गतिविधियां करने में दर्द महसूस होना
जांच
— प्रभावित जोड़ों के एक्स-रे में जोड़ वाले क्षेत्र में क्षति दिखाई देगी। गंभीर मामलों में, हड्डी के सिरों और बोनी स्पर का नीचे आना।
उपचार
ओस्टियो आर्थराइटिस को ठीक नहीं किया जा सकता है, बल्कि समय के साथ इसके और अधिक बदतर होने की संभावना होती है। हालांकि, ओस्टियो आर्थराइटिस के लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है। आप सर्जरी करा सकते हैं, लेकिन अन्य उपचार से आपको दर्द से राहत मिल सकती है और आप अपनेे जीवन को ज्यादा बेहतर बना सकते हैं। हालांकि इन उपचार से आर्थराइटिस को ठीक नहीं किया जा सकता है, लेकिन सर्जरी को टाला जा सकता है।
दवा
— डॉक्टर के पर्चे के बिना आप दर्द निवारक दवा खरीद सकते है, जिससे आपको ओस्टियो आर्थराइटिस के लक्षणों को कम करने में मदद मिल सकती है।
— कुछ समय के लिए दर्द से राहत पाने के लिए घुटने में कृत्रिम ज्वांट तरल इंजेक्ट किया जा सकता है।
सर्जरी
— ओस्टियो आर्थराइटिस के गंभीर मामलों में क्षतिग्रस्त जोड़ों की मरम्मत करने के लिए सर्जरी की जरूरत हो सकती है। 
सर्जरी के विकल्पों में शामिल हैं:
— टूटे-फूटे और क्षतिग्रस्त कार्टिलेज को तराषने के लिए आथ्रोस्कोपिक सर्जरी 
— हड्डी या जोड़ पर दबाव को कम करने के लिए हड्डी के अलाइनमेंट में बदलाव लाना (ओस्टियोटाॅमी)
— हड्डियों का सर्जिकल फ्युजन, आमतौर पर रीढ़ की हड्डी (आथ्रोडेसिस) में
— कृत्रिम ज्वाइंट रिप्लेसमेंट (नी रिप्लेसमेंट, हिप रिप्लेसमेंट, शोल्डर रिप्लेसमेंट, ऐंकल रिप्लेसमेंट, एल्बो रिप्लेसमेंट) से क्षतिग्रस्त जोड़ का टोटल या पार्शियल रिप्लेसमेंट।


 


ब्रेन स्ट्रोक के संकेतों पर ध्यान दें

ब्रेन स्ट्रोक क्या है
स्ट्रोक या ब्रेन स्ट्रोक मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति में बाधा आने के कारण होता है। यह आमतौर तब होता है जब रक्त वाहिका फट जाती है या किसी थक्के के कारण अवरुद्ध हो जाती है। इससे मस्तिष्क को ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की आपूर्ति में कमी आ जाती हैए जिससे मस्तिष्क के ऊतकों को नुकसान पहुंचता है। जब मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाएं मर जाती हैं, तो शरीर के विभिन्न हिस्सों को नियंत्रित करने की उनकी कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचता है या उसमें कमी आ जाती है। 
भारत में ब्रेन स्ट्रोक के मामले
भारत में यह मौत का दूसरा सबसे आम कारण है और विकलांगता का चौथा प्रमुख कारण है। भारत में हर साल हर एक लाख लोगों में से 139 लोगों को ब्रेन स्ट्रोक होता है। 
दुनिया भर में यह मौत का दूसरा और विकलांगता का चौथा सबसे आम कारण है।
स्ट्रोक के प्रकार : स्ट्रोक मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं— इस्किमिक और हेमोरेजिक। 
इस्किमिक स्ट्रोक : इस्किमिक स्ट्रोक मस्तिष्क में रक्त आपूर्ति में बाधा पहुंचने के कारण होता है।
हेमोरेजिक स्ट्रोक : हेमोरेजिक स्ट्रोक रक्त वाहिका के फटने या असामान्य वैस्कुलर संरचना के कारण होता है। सभी स्ट्रोकों में से लगभग 87 प्रतिशत स्ट्रोक इस्किमिया के कारण होते हैं, और शेष रक्तस्राव के कारण होते हैं।
इसके अलावा एक अन्य प्रकार का भी स्ट्रोक होता है जिसे ट्रांसियेंट इस्किमिक अटैक —टीआईए कहा जाता है जो इस्किमिक स्ट्रोक के समान होता है। इसके लक्षण आम तौर पर एक घंटे से कम समय में ही पूरी तरह से स्पष्ट हो जाते हैं। ज्यादातर टीआईए केवल पांच या दस मिनट के लिए होते हैं। चूंकि इस तरह के स्ट्रोक बहुत छोटे और दर्दनाक नहीं होते हैंए इसलिए उन्हें अक्सर रोगियों के द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है। हालांकिए स्ट्रोक पड़ने से कुछ दिन या कुछ हफ्ता पहले टीआईए हो सकता है और इसलिए टीआईए को चेतावनी संकेत माना जाता है। टीआईए वाले मरीजों को जल्द से जल्द व्यापक मूल्यांकन करना चाहिएए क्योंकि कभी—कभी जांच में अंतर्निहित समस्या का पता चलता है जिसका इलाज किया जा सकता हैए और स्ट्रोक पर काबू पाया जा सकता है।
कारण
बुजुर्ग लोगों में स्ट्रोक के सर्वाधिक सामान्य कारण उच्च रक्तचाप, शराब का सेवन, धूम्रपान और हाइपरलिपिडेमिया है जबकि युवाओं में उपरोक्त कारणों के अलावा अधिक मोटापा एवं मधुमेह भी स्ट्रोक के कारण हो सकते हैं। 
लक्षण
स्ट्रोक के सबसे आम लक्षण चेहरे, हाथ या पैर में अचानक कमजोरी या सुन्नपन है, जो अक्सर शरीर के एक तरफ होती है। इसके अन्य लक्षणों में शामिल हैं : भ्रम, बोलने में कठिनाई या समझने में कठिनाई, एक या दोनों आंखों से देखने में कठिनाई, चलने में कठिनाई, चक्कर आना, संतुलन या समन्वय में कमी, किसी ज्ञात कारण के बिना ही तेज सिरदर्द, बेहोशी या अचेत होना।
स्ट्रोक के शुरुआती संकेतों को पहचानना बहुत महत्वपूर्ण है। फास्ट —एफएएसटी एक ऐसा संक्षिप्त शब्द है जिससे स्ट्रोक के शुरुआती संकेतों को याद रखने में आपकी मदद मिलेगी।
फास्ट — एफएएसटी : स्ट्रोक के शुरुआती संकेतों को याद रखने में आपकी मदद करने के लिए एक संक्षिप्त शब्द है।
चेहरे का लटकना — फेस ड्रूपिंग :  चेहरा एक तरफ से लटक जाता है या सुन्न पड़ जाता है। जब व्यक्ति को मुस्कुराने के लिए कहा जाता हैए तो व्यक्ति की मुस्कुराहट असामान्य दिखती है।
हाथ में कमजोरी —आर्म विकनेस : एक हाथ में कमजोरी या सुन्नपन महसूस होगा। जब व्यक्ति को दोनों हाथ उठाने के लिए कहा जाता हैए तो व्यक्ति का एक हाथ नीचे की तरफ गिर जाता है।
बोलने में कठिनाई —स्पीच डिफिकल्टी : व्यक्ति को बोलने में परेशानी होगी। आवाज लड़खड़ाने लगी या उसके द्वारा बोले गये शब्दों को समझना मुश्किल होगा। जब व्यक्ति को एक साधारण वाक्य दोहराने के लिए कहा जाता है तो उसे सही ढंग से दोहराने में परेशानी होगी।
एम्बुलेंस मंगाए — टाइम टू कॉल एम्बुलेंस : यदि व्यक्ति में उपर्युक्त लक्षणों में से कोई भी लक्षण प्रकट होता है तो एम्बुलेंस को बुलाएं और मरीज को अस्पताल ले जाएं। उस समय को दर्ज करें जब लक्षण पहली बार प्रकट हुए थे।
निदान
उपचार को निर्धारित करने के लिए नैदानिक परीक्षणों में शामिल हो सकते हैं :
— स्ट्रोक के प्रकार, स्थान और सीमा को समझने के लिए सीटी या एमआरआई जैसे न्यूरोलॉजिक ब्रेन इमेजिंग टेस्ट।
— रक्त प्रवाह और रक्तस्राव की जगहों का पता लगाने के लिए कैरोटीड और ट्रांसक्रैनियल अल्ट्रासाउंड और एंजियोग्राफी।
— रक्त के थक्के जो मस्तिष्क में जा सकते हैं उनके कार्डियेक स्रोत की पहचान करने के लिए हृदय की ईकेजी या अल्ट्रासाउंड परीक्षण।
इलाज 
इस्किमिक स्ट्रोक का इलाज करने के लिए मानक तरीका रोगी को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराना है। रोगी के अस्पताल आने के 60 मिनट के अंदर उसे क्लॉट को घुलाने वाली दवा — टिशू प्लास्मिनोजेन एक्टिवेटर,ए या टीपीए दी जाती है जो संभावित रूप से स्ट्रोक के लक्षणों को खत्म कर सकता है।
स्ट्रोक के इलाज और रोकथाम में मदद करने के लिए सर्जरी के कई विकल्प हैं। कुछ सर्जरी का इस्तेमाल इस्किमिक स्ट्रोक के इलाज और रोकथाम के लिए महत्वपूर्ण धमनियों से प्लेक को हटाने में मदद के लिए किया जाता है। अन्य प्रकार की सर्जरी का इस्तेमाल मस्तिष्क के रक्तस्राव — हेमोरेजिक स्ट्रोक को रोकने या बंद करने के लिए किया जाता है। 


महिलाओं के संतान जनने में असमर्थ होने के लिए कई कारण हो सकते हैं जिम्मेदार

अगर कोई महिला एक साल के प्रयास के बाद भी गर्भवती नहीं हो पाती है तो यह माना जाता है कि वह इंफर्टिलिटी से ग्रस्त है। इसके लिए कई जैविक कारण जिम्मेदार हैं जिनमें ओवुलेशन समस्याए पोलिसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम — पीसीओएसए फैलैपियन ट्यूब या यूटरस में समस्याएं, फाइब्रायड एवं इंडोमेट्रियोसिस शामिल हैं। इन सभी का उपचार लैपरोस्कोपी की मदद से हो सकता है। लैपरोस्कोपी उन महिलाओं के लिए वरदान साबित हुई है जो इंफर्टिलिटी से ग्रस्त हैं। महिलाओं में बढ़ती इंफर्टिलिटी के लिए आधुनिक जीवन शैली काफी हद तक जिम्मेदार है। इंफर्टिलिटी के कारणों में उम्र, धूम्रपान, शराब का सेवन, खराब खान—पान, तनाव, अधिक वजन या कम वजन तथा यौन संचारित रोग शामिल है। 
आज के समय में महिलाएं न केवल देर से शादी करती हैं बल्कि देर से बच्चे पैदा करती है। आज महिलाएं अपने जीवन के 30 वें साल में संतान जनने के बारे में सोचती हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि उम्र बढ़ने के साथ संतान जनने की संभावना घटती जाती है क्योंकि उनकी ओवरी अंडे उत्सर्जित करने की क्षमता खोने लगती है। उम्र बढ़ने से उनकी ओवरी में कम संख्या में अंडे बचते हैं और बचे हुए ये अंडे स्वस्थ भी नहीं होते। इंफर्टिलिटी से ग्रस्त महिलाओं को इलाज के लिए सबसे पहले सर्जिकल विकल्पों पर विचार करना चाहिए और उसके बाद ही आईवीएफ का सहारा लेना चाहिए। इंफर्लिलिटी पैदा करने वाली मेडिकल समस्याओं का लैपरोस्कोपी से उपचार करने पर अनेक महिलाएं गर्भधारण करने में सक्षम हो जाती हैं। 


पोलियो से पीड़ित सर्दी में रखें अपना विशेष ध्यान

कई लोगों को ठंड बढ़ने पर परेशानी होती है, लेकिन जो लोग पोलियो से प्रभावित रह चुके हैं उन्हें इस मौसम में अतिरिक्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। इस मौसम में खुद को स्वस्थ रखने और गर्म रखने के लिए और इस मौसम का सामना करने के लिए तैयार रहने के कुछ उपाय यहां दिए गये हैं। ठंड का मौसम मांसपेशियों में सिकुड़न पैदा करता है। लेकिन पोलिया प्रभावित व्यक्ति की मांसपेशियां पहले से ही कम होती हैं या कम घनी होती हैं। इस मौसम में पोलियो प्रभावित लोग यहां तक कि ताकत और धीरज भी खो देते हैं।
सलाह :
— दिन में कम से कम एक बार गर्म भोजन करें और कई बार गर्म पेय पीयें।
— कोई एक भारी कपड़ा पहनने के बजाय कई हल्के कपड़े पहनें।
— खुद को सक्रिय रखना भी आम तौर पर एक और अच्छा उपाय है लेकिन जाहिर है ऐसा करना हमेशा संभव नहीं है।
यदि आपको चलने—फिरने में दिक्कत आती है तो अपने हाथों और पैरों को मूव कराने और बैठकर अपने पैर के अंगूठे और उंगलियों को घुमाने की कोशिश करें।


की-होल सर्जरी से ‘‘नॉक नी’’ का इलाज 

नाॅक नी घुटने की ऐसी विकृति है जिसमें घुटने आपस में एक दूसरे के साथ टकराते हैं। यह बढ़ते बच्चों और किशोरों, विशेष रूप से किशोर लड़कियों में आम है। इससे न केवल पैर में भयानक विकृति हो जाती है और पैर में लंगड़ापन आ जाता है, बल्कि घुटने को लंबे समय में नुकसान पहुंचने की भी आशंका होती है। इस तरह के घुटने वाले लोगों में बाद में प्रारंभिक आर्थराइटिस हो जाती है। बचपन के शुरुआती दिनों में होने वाली इस विकृति का एक सामान्य कारण आहार में विटामिन डी की कमी है, लेकिन बड़े बच्चों में इसका कारण अक्सर पता नहीं चल सकता है।
8 साल से कम उम्र के बच्चों में थोड़ा नाॅक नी होना सामान्य है, और जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है, उसका नाॅक नी ठीक हो जाता है। आठ साल की उम्र के बाद बनी रह जाने वाली किसी भी प्रकार की विकृति के खुद ही सही होने की संभावना नहीं होती है। किशोरावस्था तक रह जाने वाले नाॅक नी और इसकी स्थिति अधिक खराब होने पर सर्जरी की आवश्यकता होती है। नाॅक नी विकृति की डिग्री का सही-सही पता पूरे पैर के विशेष 'वेट बियरिंग' एक्स-रे से चलता है जिसे हिप-नी-ऐंकल एक्स-रे कहा जाता है। 
सर्जरी के बगैर भी नाॅक नी ठीक हो सकती हैै?
नाॅक नी को ठीक करने के लिए पहले विभिन्न प्रकार के संशोधित जूते और ब्रेसिज़ का उपयोग इस उम्मीद से किया जाता था कि इससे समय के साथ विकृति ठीक हो जाएगी, लेकिन वे प्रभावी साबित नहीं हुए। ऐसे मामले में किसी भी तरह की मालिश और आहार से भी मदद नहीं मिलती है।
नाॅक नी को ठीक करने के लिए की-होल सर्जरी की क्या भूमिका है?
इस सर्जरी से एक सेमी के चीरे से घुटने की विकृति ठीक की जाती है। यह सर्जरी एनीस्थिसिया देकर की जाती है। इसके तहत हड्डी में एक छोटे से छेद के माध्यम से, ऑस्टियोटॉम नामक एक विशेष उपकरण की सहायता से हड्डी के विकृत हिस्से को अंदर से कमजोर कर दिया जाता है। जब हड्डी काफी कमजोर हो जाती है और लचीली हो जाती है, तो इसे धीरे-धीरे सही स्थिति में घुमाया जा सकता है। इसके बाद पैर को हड्डी को सही स्थिति में ठीक करने के लिए 4 सप्ताह के लिए पैर में प्लास्टर चढ़ाकर रखा जाता है। इसके लिए हड्डी को ढंकने वाली मांसपेशियों या पतली शीथ (पेरीओस्टेम) को नहीं काटा जाता है। दोनों पैरों की विकृति एक ही समय में ठीक की जा सकती है। प्लास्टर चढ़ाने के बाद रोगी को कुछ समय तक बेड रेस्ट करना होता है और चलना-फिरना नहीं होता है। लेकिन इस सर्जरी से किसी बड़ी सर्जरी के बगैर ही अंततः पैर सीधे हो जाते हैं और पैर में हल्का निशान रहता है। इस तकनीक का आविष्कार इसलिए किया गया है क्योंकि नाॅक नी अक्सर युवा किशोर लड़कियों को प्रभावित करता है। यह एक कॉस्मेटिक विकृति है, और रोगी इसे ठीक कराना चाहता है, लेकिन साथ ही वह यह भी चाहता है कि इस विकृति को ठीक कराने में परंपरागत सर्जरी की तरह निशान न रहे। इसलिए, इस तकनीक को “कॉस्मेटिक विकृति का कॉस्मेटिक सुधार“ कहा जा सकता है। 
परंपरागत रूप से, बढ़ती हुई हड्डी में नाॅक नी को ठीक करने के लिए की जाने वाली सर्जरी को 'ग्रोथ मॉडुलेशन सर्जरी' कहा जाता है। इस तकनीक में दो आपरेशन करने की आवश्यकता होती है - तेजी से बढ़ती हड्डी के किनारे विकास को रोकने के लिए 'क्लिप या प्लेट' लगाने और दूसरा आपरेशन विकृति के ठीक हो जाने के बाद क्लिप को हटाने के लिए। इसमें सुधार वर्षों में धीरे-धीरे होता है, और इस दौरान बच्चे में होने वाले सुधार पर नजर रखने के लिए बार-बार एक्स रे कराना पड़ता है। इसका फायदा यह है कि बच्चे के पैर में कोई प्लास्टर नहीं होता है, और बच्चा उपचार की अवधि के दौरान आम तौर पर पूरी तरह से सक्रिय रहता है।
ग्रोथ प्लेट और बाहरी इंप्लांट को लगाने के साथ कई जटिलताएं जुड़ी होती हैं। ऑपरेशन थिएटर में दो बार जाना और सालों तक अस्पताल में बार-बार जाना एक बड़ी समस्या है। इसके अलावा, यह सर्जरी केवल तब की जा सकती है जब बच्चे का पर्याप्त विकास होना शेष हो (12 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के बीच)।
नाॅक नी को ठीक करने की दूसरी विधि करेक्टिव ऑस्टियोटॉमी है। यह एक औपचारिक ओपन सर्जरी तकनीक है, जिसमें हड्डी में 10 से 15 सेमी चीरा लगाया जाता है, हड्डी को काटा जाता है और हड्डी को सही स्थिति में रखने के लिए प्लेटों और स्क्रू का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि इसका फायदा यह है कि इसमें प्लास्टर की कोई आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन ओपन सर्जरी से संबंधित जटिलताएं होने का खतरा और प्लेट को हटाने के लिए दोबारा सर्जरी की आवश्यकता एक समस्या है।
क्या की-होल सर्जरी किसी भी उम्र और किसी भी डिग्री की विकृति में की जा सकती है?
सर्जरी करने के लिए आदर्श उम्र 8 से 16 वर्ष है, जब हड्डियां अपेक्षाकृत नरम होती हैं और तेजी से ठीक होती हैं। बढ़ती उम्र के साथ, हड्डियां सख्त हो जाती हैं, और फिर इस तकनीक से हड्डियों का कमजोर होना मुश्किल होता है। इसके अलावा उस उम्र में, उपचार में अधिक समय लगता है, और लंबे समय तक प्लास्टर चढ़ाये रहने की आवश्यकता होती है। इसलिए 20 साल से अधिक उम्र के मरीजों और अधिक मोटापे वाले लोगों में यह सर्जरी कराने की सलाह नहीं दी जाती है।


नए प्रोटोकॉल से घुटना प्रत्यारोपण के बाद मरीज जल्दी ठीक होगा

घुटनों की समस्याओं से पीड़ित कई मरीज अक्सर कई कारणों से घुटना प्रत्यारोपण की सर्जरी कराने में देरी कर देते हैं। इसका एक मुख्य कारण जानकारी की कमी है। रोगियों द्वारा घुटना प्रत्यारोपण सर्जरी में देरी करने के अन्य कारणों में शरीर के एक हिस्से को खोने का डरए सर्जरी के बाद होने वाले दर्द का डर और टांके का डर आदि शामिल है। रोगी यह जानना चाहते हैं कि उनकी सर्जरी के बाद उनका जीवन कैसा रहेगाए सर्जरी के बाद उन्हें कितनी असुविधा होगी।
क्यूआरजी हेल्थ सिटी के ऑर्थोपेडिक्स एंड ज्वाइंट रिप्लेसमेंट के निदेशक डॉ. युवराज कुमार ने कहा, ''हर कीमत पर सर्जरी से बचने की इच्छा रखने वाले रोगी इसके लिए अन्य उपचार विधियों को आजमाने का प्रयास करते हैं जिनमें सर्जरी शामिल नहीं होती है। इनमें से कुछ वैज्ञानिक रूप से सही साबित नहीं हो सकती हैं। वे उन उपचारों पर पैसे खर्च करते हैं जिनके कोई वास्तविक लाभ नहीं हैं।''
पारंपरिक रूप से, नी रिप्लेसमेंट सर्जरी को बहुत ही दर्दनाक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। लेकिन नई तकनीक के ईजाद से सर्जरी के बाद होने वाले दर्द में काफी कमी आई है। क्यूआरजी हेल्थ सिटी के ज्वाइंट रिप्लेसमेंट विभाग ने एक नयी विधि का उपयोग करना शुरू किया है जो जोड़ों में दर्द और सूजन को कम कर देता है और रोगी की तेजी से रिकवरी होती है ताकि जितनी जल्दी संभव हो वह अपनी सामान्य दिनचर्या में लौट सके।
डॉ. युवराज ने कहा, ''दर्द एक बहुत ही व्यक्तिगत समस्या है और अलग—अलग रोगी में दर्द का स्तर भी अलग—अलग होता है। हमारे कुछ मरीजों ने हमें सर्जरी के बाद तत्काल आराम मिलने की बात बताकर और उसी दिन बिना किसी सहारे के चलकर हैरान कर दिया।''
क्यूआरजी हेल्थ सिटी के सर्जन ऐसी विधियों का इस्तेमाल कर घुटने के दर्द को कम करने में विशेषज्ञ हैं जिसके तहत बहुत कम इंवैसिव तरीके से नी रिप्लेसमेंट को इंसर्ट किया जाता है। इसमें घुटने के चारों ओर नरम ऊतकों में व्यवधान को कम करने और बाद में दर्द को कम करने के लिए शल्य चिकित्सा तकनीकों के संयोजन का इस्तेमाल किया जाता हैए साथ ही विशेष उपकरणों का उपयोग किया जाता है जो घुटना के जोड़ में दर्द को कम करते हैं।
दर्द को कम करने के लिएए सर्जन फिमोरल ब्लॉक्स एड्यूक्टर कैनाल ब्लॉक, इंडिविजुअल एपिडुरल एनाल्जेसिया और लोकल कॉकटेल इनफिल्टरेशन जैसी तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं। सर्जरी के बाद रिकवरी के लिए समर्पित सुइट कक्ष के अलावा, विभाग में प्रशिक्षित नर्स, फिजियोथेरेपिस्ट और क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट हैं जो दर्द होने पर रोगी को दर्द का प्रबंधन करने में मदद करते हैं।
डॉ. युवराज कहते हैं, ''हमने देखा है कि हमारे नए दृष्टिकोण से इलाज के बाद तीन महीने तक, अधिकांश लोगों ने सामान्य गतिविधियां फिर से शुरू कर दी और छह महीने तकए अधिकांश लोगों ने जोड़ों में या उसके आसपास अधिक दर्द नहीं बताया बल्कि सिर्फ मामूली दर्द बताया। घुटना प्रत्यारोपण के बाद पूरी तरह से रिकवर करने में एक साल तक लग सकता है।''


पेट की समस्याओं की अनदेखी पड़ सकती है भारी

जब हमें पेट में असुविधाए दर्द या बेचैनी जैसी समस्याएं होती हैं तो हममें से ज्यादातर लोग इन्हें गैस्ट्रिक या पेट दर्द समझ बैठते हैं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि पेट की समस्याएं कई कारणों से हो सकती है। 
क्यूआरजी हेल्थ सिटी के गैस्ट्रोएंटेरोलॉजी के निदेशक डॉ. संजय कुमार कहते हैं, ''आम तौर पर पेट में कोई दिक्कत होने पर रोगियों के रिश्तेदार या आस पड़ोस के लोग  उसे गैस्ट्रिक या वायु दोष बताने लगते हैं। लेकिन हमें यह जानना चाहिए कि पेट को प्रभावित करने वाली समस्याओं से जो लक्षण प्रकट होते हैं वे पनक्रियाज, पित्ताशय, छोटी और बड़ी आंतों या लीवर जैसे पाचन अंगों को प्रभावित करने वाली अन्य समस्याओं में उभरने वाले लक्षणों के समान हो सकते हैं। पेट के अल्सर, पित्ताशय में पथरी या कैंसर के कारण भी पेट में समस्याएं हो सकती हैं और इनसे गंभीर जटिलताएं और घातक परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं।
पेट की कुछ कम गंभीर समस्याएं गैस्ट्रोइसोफेजियल रीफ्लक्स डिजीज — जीईआरडी हैं जिनमें पेट में कई प्रकार की दिक्कत हो सकती है या मल त्यागने के पैटर्न में बदलाव हो सकता है। इसके कारण फंक्शनल डिस्पेप्सिया, इर्रिटेबल बाउल सिंड्रोम —आईबीएस और फंक्शनल हार्टबर्न हो सकता है। साथ ही समय—समय पेट दर्द हो सकता है और इसके साथ ही पेट फूलने, मतली, अनियंत्रित बेल्चिंग या मल त्यागने में कठिनाई आदि लक्षण प्रकट हो सकते हैं। डॉ. संजय कहते हैं कि कुछ प्रकार के भोजन के अलावाए ये समस्याएं तनाव और भावनात्मक तनाव से भी बढ़ सकती हैं।श्
उन्होंने कहा, ''हालांकि ये समस्याएं खतरनाक नहीं होती हैं, लेकिन जीईआरडी का जीवन की गुणवत्ता पर काफी प्रभाव पड़ता है। ये समस्याएं अक्सर लंबे समय तक कायम रहती हैं जिन्हें जीवन शैली में परिवर्तन और दवा से प्रबंधित किया जाता है।'' पेट में दर्द के लक्षणों वाली पेट की कुछ गंभीर बीमारियों में पेप्टिक अल्सरए पित्ताशय की पथरी की बीमारी और कैंसर शामिल हैं।
चूंकि पेट की समस्याएं कई चीजों के कारण हो सकती हैं — कुछ हल्की और परेशान करने वाली होती हैं लेकिन गंभीर नहीं होती है जबकि कुछ संभावित रूप से घातक हो सकती हैं। इसलिए, चेकअप कराना महत्वपूर्ण है।
डॉ. संजय कहते हैं, ''अगर आपको पेट में तेज दर्द होता है या आपको पेट में गंभीर असुविधा होती है तो तुरंत डॉक्टर को दिखाएं। आपको मल त्यागते समय रक्त आने बिना किसी कारण के वजन में कमी होनेए पीला दिखने या एनीमिक होने या खून की उल्टी होने जैसे गंभीर लक्षणों के प्रति सजग रहना चाहिए।''


युवाओं में भी हो सकता है ब्रेन स्ट्रोक

आप अगर यह सोच रहे हैं कि आपकी उम्र कम है और इसलिए आपको ब्रेन स्ट्रोक को लेकर चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है तो आप गलती कर रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसारए लगभग 15 से 20 प्रतिशत स्ट्रोक 30 से 50 साल की उम्र में होते हैं। इसलिए आपको ब्रेन स्ट्रोक होने के खतरे को लेकर सतर्क होने की जरूरत है। डॉक्टर युवा पीढ़ी को अपना उच्च रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल, मधुमेह, मोटापे को नियंत्रित करने और शराब और धूम्रपान छोड़ने के लिए अपील कर रहे हैं क्योंकि ये सभी उनके जीवन में कम उम्र में ही ब्रेन स्ट्रोक पैदा करने वाले मुख्य कारक हैं। इस समस्या से बचने का सबसे अच्छा समाधान स्वस्थ जीवन शैली को अपनाना, संतुलित आहार का सेवन करना, तैलीय खाद्य पदार्थों का कम सेवन करना, रिलैक्स करना, नियमित रूप से व्यायाम करना और किसी प्रकार की लत से बचना है।
युवाओं में स्ट्रोक बढ़ने का एक बड़ा कारण शायद मोटापा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 20 साल पहले की तुलना में आज एमआरआई की मदद से ब्रेन स्ट्रोक की पहचान अधिक हो रही है। एमआरआई की मदद से स्ट्रोक के बाद मस्तिष्क में शुरुआती परिवर्तन का पता लग जाता है। एमआरआई ऐसी तकनीक है जिसका 20 साल पहले व्यापक रूप से उपयोग नहीं किया जाता था।
स्ट्रोक क्या है 
स्ट्रोक या ब्रेन अटैक तब होता है जब मस्तिष्क में रक्त प्रवाह में बाधा आती है जिसके कारण न्यूरोलॉजिकल कार्यकलापों में अचानक कमी आ जाती है। ब्रेन स्ट्रोक के कारण चेतना के स्तर में परिवर्तन के साथ—साथ मोटरए संज्ञानात्मकए संवेदनाए चेतना और भाषा संबंधी दिक्कतें होती हैं। 
स्ट्रोक के प्रकार :
स्ट्रोक मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं. इस्किमिक और हेमोरेजिक। इस्किमिक स्ट्रोक रक्त आपूर्ति में बाधा पहुंचने के कारण होता हैए जबकि हेमोरेजिक स्ट्रोक रक्त वाहिका के फटने या असामान्य वैस्कुलर  संरचना के कारण होता है। सभी स्ट्रोकों में से लगभग 87 प्रतिशत स्ट्रोक इस्किमिया के कारण होते हैं, और शेष रक्तस्राव के कारण होते हैं।
इसके अलावा एक अन्य प्रकार का भी स्ट्रोक होता है जिसे ट्रांसियेंट इस्किमिक अटैक ;टीआईएद्ध कहा जाता है जो इस्किमिक स्ट्रोक के समान होता है। इसके लक्षण आम तौर पर एक घंटे से कम समय में ही पूरी तरह से स्पष्ट हो जाते हैंं। 
ज्यादातर टीआईए केवल पांच या दस मिनट के लिए होते हैं। चूंकि इस तरह के स्ट्रोक बहुत छोटे और दर्दनाक नहीं होते हैंए इसलिए उन्हें अक्सर रोगियों के द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है। हालांकि, स्ट्रोक पड़ने से कुछ दिन या कुछ हफ्ता पहले टीआईए हो सकता है और इसलिए टीआईए को चेतावनी संकेत माना जाता है। टीआईए वाले मरीजों को जल्द से जल्द व्यापक मूल्यांकन करना चाहिएए क्योंकि कभी—कभी जांच में अंतर्निहित समस्या का पता चलता है जिसका इलाज किया जा सकता है और स्ट्रोक पर काबू पाया जा सकता है।
स्ट्रोक के शुरुआती लक्षणों की पहचान करें
स्ट्रोक के शुरुआती संकेतों को पहचानना बहुत महत्वपूर्ण है। स्ट्रोक के शुरुआती लक्षणों की पहचान करने के तरीकों को सीखना और इसकी पहचान करना काफी आसान है।
फास्ट — एफएएसटी : स्ट्रोक के शुरुआती संकेतों को याद रखने में आपकी मदद करने के लिए एक संक्षिप्त शब्द।
चेहरे का लटकना — फेस ड्रापिंग :  चेहरा एक तरफ से लटक जाता है या सुन्न पड़ जाता है। जब व्यक्ति को मुस्कुराने के लिए कहा जाता हैए तो व्यक्ति की मुस्कुराहट असामान्य दिखती है।
हाथ में कमजोरी — आर्म विकनेस : एक हाथ में कमजोरी या सुन्नपन महसूस होगा। जब व्यक्ति को दोनों हाथ उठाने के लिए कहा जाता हैए तो व्यक्ति का एक हाथ नीचे की तरफ गिर जाता है।
बोलने में कठिनाई — स्पीच डिफिकल्टी : व्यक्ति को बोलने में परेशानी होगी। आवाज लड़खड़ाने लगी या उसके द्वारा बोले गये शब्दों को समझना मुश्किल होगा। जब व्यक्ति को एक साधारण वाक्य दोहराने के लिए कहा जाता है तो उसे सही ढंग से दोहराने में परेशानी होगी।
एम्बुलेंस मंगाए — टाइम टू कॉल एम्बुलेंस : यदि व्यक्ति में उपर्युक्त लक्षणों में से कोई भी लक्षण प्रकट होता है तो एम्बुलेंस को बुलाएं और मरीज अस्पताल ले जाएं। उस समय को दर्ज करें जब लक्षण पहली बार प्रकट हुए थे। 
इस्किमिक स्ट्रोक का इलाज करने के लिए मानक तरीका रोगी को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराना है। रोगी के अस्पताल आने के 60 मिनट के अंदर उसे क्लॉट को घुलाने वाली दवा — टिशू प्लास्मिनोजेन एक्टिवेटर या टीपीए दी जाती है जो संभावित रूप से स्ट्रोक के लक्षणों को खत्म कर सकता है।
स्ट्रोक के इलाज और रोकथाम में मदद करने के लिए सर्जरी के कई विकल्प हैं। कुछ सर्जरी का इस्तेमाल इस्किमिक स्ट्रोक के इलाज और रोकथाम के लिए महत्वपूर्ण धमनियों से प्लेक को हटाने में मदद के लिए किया जाता है। अन्य प्रकार की सर्जरी का इस्तेमाल मस्तिष्क के रक्तस्राव — हेमोरेजिक स्ट्रोक को रोकने या बंद करने के लिए किया जाता है। हर प्रकार की सर्जरी अपने जोखिम और फायदे होते हैं और इसलिए आपको आपका इलाज कर रहे चिकित्सक के साथ विशेष परिस्थितियों पर चर्चा करना चाहिए।
स्ट्रोक से बचने के उपाय
— शारीरिक रूप से सक्रिय रहें।
— बेहतर प्रबंधन के लिए नियमित रूप से योग का अभ्यास करें।
— अधिक कैलोरी, अधिक मीठी और अधिक नमकीन खाद्य पदार्थों को न कहें क्योंकि स्ट्रोक का जोखिम काफी हद तक आपके आहार और आपकी जीवनशैली पर निर्भर करता है।
— 30 वर्ष के होने पर हर साल स्वास्थ्य की जांच कराएं।
चेतावनी . स्ट्रोक में आनुवांशिक प्रवृत्ति होती है। किसी परिवार में स्ट्रोक होने पर स्ट्रोक होने की संभावना लगभग 8 प्रतिशत बढ़ जाती है। इन लोगों को अतिरिक्त सावधान रहना होगा।


 


कमर दर्द के इलाज कराने के लिए सेकेंड ओपिनियन लेती हैं महिलाएं

सामान्य सर्दी के बादए पीठ दर्द सभी उम्र के लोगों में होने वाली दूसरी सबसे प्रचलित समस्या है। सेवानिवृत्त शिक्षिका 60 वर्षीय आशा शर्मा सक्रिय जीवन जीती थीं जब तक कि उनके पीठ दर्द ने उन्हें व्यावहारिक रूप से निष्क्रिय नहीं कर दिया। उन्होंने एक डॉक्टर से दिखाया जिन्होंने उन्हें सर्जरी की सलाह दी। लेकिन श्रीमती शर्मा सर्जरी कराना नहीं चाहती थीं और उन्होंने वेंकटेश्वर अस्पताल में एक विशेषज्ञ से एक और राय लेने का विचार किया। उन्होंने वेंकटेश्वर अस्पताल के न्यूरोसर्जरी के निदेशक और विभागाध्यक्ष डॉ. पुष्पिंदर कुमार सचदेव से मुलाकात कीए जिन्होंने सर्जरी के निर्णय लेने से पहले ट्रायल के तौर पर सेल्फ केयर की सलाह दी क्योंकि यह देखा गया है कि सेल्फ केयर से लगभग 50 प्रतिशत रोगियों को पीठ दर्द से राहत मिल जाती है। आज, वह अपने पैरों पर वापस खड़ी हो गई हैं। डॉ. सचदेव कहते हैं, ''सर्जरी उन लोगों के लिए सर्जरी आवश्यक हो जाती हैए जिनमें नर्व रूट पर दबाव पड़ रहा हो या रीढ़ की हड्डी अस्थिर हो गई हो।''
पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं न केवल कमर और रीढ़ की हड्डी की समस्याओं से ग्रस्त होती हैं, बल्कि उनकी समस्याएं भी गंभीर होती हैं। महिला की शारीरिक संरचना का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि उम्र बढ़ने के साथ प्राकृतिक रूप से तेजी से उनकी हड्डी का नुकसान होने लगता है और इसका खतरनाक भाग उम्र का बढ़ना है। आमतौर पर 30 वर्ष की आयु और रजोनिवृत्ति की शुरुआत के बीचए महिलाओं में हड्डी का घनत्व का और अधिक तेज़ी से कम होता है। ''महिलाओं की उम्र जैसे—जैसे बढ़ती जाती हैए वे डीजेनेरेटिव डिस्क रोग के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। यह एक सामान्य बीमारी है जिसे रप्चर्ड डिस्क कहा जाता है जो रीढ़ की हड्डी को धक्का देता हैए तंत्रिका पर दबाव डालता हैए जिससे हर्निएटेड या स्ल्प्डि डिस्क हो जाती है।'' 
रीढ़ एक स्तंभ के रूप में कार्य करता है जो आपके शरीर के वजन को वहन करता है। यही कारण है कि रीढ़ को स्वस्थ और मजबूत रखना बहुत महत्वपूर्ण है। अस्वस्थ जीवनशैली रीढ़ की हड्डी में दर्दए कमर दर्द, इत्यादि का खतरा पैदा करती है। इस तरह के परेशान करने वाले दर्द और पीड़ा से बचने के लिए, यहां कुछ बुनियादी सलाह दी गई हैं जिन पर अमल करने पर आपको फिट रहने में मदद मिलेगी।
अपने शरीर की सुनो : आपका शरीर आपको संकेत भेजता रहता है कि चीजें अस्वस्थ हैं। लेकिन अधिकतर बार हम इन संकेतों को तब तक अनदेखा करते रहते हैंए जब कि बहुत देर न हो जाए।
अपनी रीढ़ की हड्डी सीधे रखें : हमेशा सीधे खड़े हों और सीधे बैठें। ऐसा इसलिए क्योंकि जब आप बैठे होते हैंए तो यह आपकी रीढ़ की हड्डी पर अतिरिक्त दबाव डालता है क्योंकि यह झुकती है। 
जब आप बैठे होते हैं तो आपके घुटने सही स्थिति में हो और आपके पैर फ्लैट हों।
अपनी शारीरिक गतिविधियां जारी रखें : जब मांसपेशियां थक जाती हैं तो आगे झुक कर बैठना या चलना या अचानक गिरना और अन्य खराब मुद्राएं होने की अधिक संभावना होती हैं। इसके कारणए गर्दन और कमर पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है। रिलैक्स्ड लेकिन समर्थित मुद्रा को बनाए रखने के लिएए अक्सर अपनी पॉजिशन बदलें।
व्यायाम : रीढ़ की हड्डी को मजबूत और स्वस्थ रखने के लिए उन मांसपेषियों को मजबूत करना महत्वपूर्ण है जो रीढ़ की हड्डी को स्थिर करती हैं और आपको कुशलतापूर्वक चलने. फिरने में मदद करती हैं। 


स्तन कैंसर के प्रति रहें जागरूक और सावधान 

उसने कई सपने देखे थे। लेकिन उसे पता नहीं था कि स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान जो जीन उसे बहुत अधिक रोमांचित करते थे वही जीन जीवन के बाद के दौर में उसके लिए आफत लेकर आएंगे। शादी के बाद जब वह शादी की खुशियों में डूबी थी उसी समय स्तन कैंसर का पता चला। शादी के बाद खुशी—खुशी रहने की परी कथाओं वाली कल्पना चूर-चूर हो गई और वह कीमोथेरेपी, सर्जरी, रेडियो थेरेपी और हार्मोनल उपचार के चक्रव्यूह में फंस गई। आज के समय में यह कहानी किसी एक लड़की की नहीं बल्कि स्तन कैंसर उपचार की विशेषज्ञता रखने वाले हर ऑन्कोलॉजिस्ट के पास पहुंचने वाली कई महिलाओं की कहानी है। अब ऐसी कहानी आम होती जा रही है। 
पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित ताजा ग्लोबैकन 2018 में कहा गया है कि स्तन कैंसर भारत में सबसे आम कैंसर है - महिलाओं और पुरूषों दोनों में। इसने सभी अन्य कैंसर को पीछे छोड़ दिया है। यहां हर साल लगभग 1.6 लाख नए स्तन कैंसर की पहचान की जाती है। सभी कैंसर में 14 प्रतिशत स्तन कैंसर होते हैं। लेकिन अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि सभी कैंसर के कारण होने वाले मृत्यु में भी स्तन कैंसर पहले स्थान पर है। भारत में 25 महिलाओं में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का खतरा है। स्तन कैंसर के दो रोगियों में से केवल रोगी ही इलाज के बाद 5 साल तक जीवित रह पाती हैं। असामान्य उच्च मृत्यु दर के सामान्य कारण इस प्रकार हैं:
1. भारत में ज्यादातर महिलाएं बाद के चरणों में इलाज के लिए आती हैं। हालांकि उन शहरों में प्रवृत्ति बदल रही है जहां महिलाएं अधिक जागरूक हैं और जांच के लिए जल्दी आती हैं, लेकिन पूरे देश में अधिकतर महिलाएं देर से ही इलाज के लिए आती हैं।
2. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में उपलब्ध स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में काफी अधिक असमानता है।
3. भारत में अधिकतर महिलाएं न तो आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और न ही उनके पास स्वास्थ्य बीमा सुविधा है।
4. कैंसर को लेकर समाज में कायम भ्रांतियों, कैंसर के सामाजिक कलंक, वैकल्पिक उपचार के जरिए कैंसर का उपचार किए जाने के लिए झूठे दावों, कीमोथेरेपी के दुष्प्रभाव के डर आदि कारणों से काफी महिलाएं रोग की पहचान के बाद भी इलाज में देर कर देती हैं।
5. भारत में स्तन कैंसर के लिए अधिक कारगर मैमोग्राफिक या किसी अन्य स्क्रीनिंग कार्यक्रम की कमी है।
6. भारत में स्तन कैंसर से पीड़ित युवा महिलाओं का प्रतिशत लगभग 15 प्रतिशत है जो कि पश्चिमी देशों की तुलना में दोगुना है। कम उम्र वाली महिलाओं में कैंसर अधिक आक्रामक होते हैं, जो बाद के चरण में प्रकट होते हैं और उनके आनुवांशिक कारण हो सकते हैं।
क्या ऐसी कोई चीज है जो हम इस खतरनाक महामारी से बचने के लिए कर सकते हैं? हाँ। निश्चित रूप से ऐसा कुछ है जो हम में से हर महिला इस संकट को कम करने के लिए कर सकती है।
1. स्तन में बदलावों से अवगत रहें।
2. जोखिम से बचें या कम करें।
3. स्क्रीनिंग कराएं।
4. अपने जीन का प्रबंधन करें।
स्तन में बदलावों से अवगत रहें:
स्तन में बदलावों के बारे में जागरूक होने की दिशा में पहला कदम स्तन स्वयं परीक्षण है। हर महिला को अपने स्तन और उसके परिवर्तनों से अवगत होना चाहिए। किसी भी प्रकार का असामान्य परिवर्तन होने पर  विशेषज्ञ परामर्श की आवश्यकता होती है।
सचेत रहने के लिए संकेत:
1. स्तन में कोई दर्द रहित गांठ
2. स्तन की त्वचा में हाल में हुआ कोई परिवर्तन (त्वचा पर गड्ढा या निशान पड़ना)
3. निप्पल से किसी प्रकार के स्राव का निकलना
4. कांख में कोई भी गांठ
5. स्तन के आकार और बनावट में परिवर्तन।
6. स्तन की त्वचा पर लाली के साथ आरेंज पील का दिखना।
7. निप्पल का ढीला पड़ना या पीछे की ओर धंसना।
स्क्रीनिंग कराएं:
स्क्रीनिंग का मतलब स्तन के एक्स- रे के साथ-साथ डाॅक्टर या हेल्थकेयर प्रोफेशनल के द्वारा नियमित जांच कराना है। 50 साल से अधिक उम्र की महिलाओं को हर छह महीने पर स्वास्थ्य की जांच के साथ- साथ सालाना मैमोग्राम कराने की आवश्यकता होती है। चूंकि भारत में महिलाओं में स्तन कैंसर 10 साल पहले होता है, इसलिए प्रारंभिक स्क्रीनिंग जल्द शुरू करने (यानी 40 साल से पहले) में ही अधिक समझदारी है। स्क्रीनिंग मैमोग्राम का सबसे बड़ा फायदा यह है कि कैंसर को उस चरण में पकड़ा जा सकता है जहां यह महसूस नहीं किया जाता है और जल्द पता चलने पर इलाज के परिणाम भी बेहतर आते हैं।
जोखिम से बचें या कम करें:
स्तन कैंसर के लिए जोखिम कारकों में अपरिवर्तनीय जोखिम कारक या संशोधित जोखिम कारक शामिल हैं। अपरिवर्तनीय जोखिम कारक आयु, लिंग और जीन हैं। संशोधित जोखिम कारक जिन्हें कम किया जा सकता है या टाला जा सकता है, वे हैं:
1. अधिक वसा युक्त आहार
2. मोटापा
3. शराब
4. देर से बच्चे पैदा करना
5. हार्मोन की गोलियाँ।
अपने जीन को प्रबंधित करें:
लगभग 10 प्रतिशत स्तन कैंसर वंशानुगत होते हैं। वे एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक जाने में सक्षम होते हैं। हालांकि इसके लिए कई जीन जिम्मेदार होते हैं लेकिन बीआरसीए 1 और 2 सबसे सामान्य हैं। इन जीनों में उत्परिवर्तन 75 साल की उम्र तक स्तन कैंसर के आजीवन खतरे को 50 से 80 प्रतिशत तक बढ़ा देते हैं। यह जानना महत्वपूर्ण है कि क्या आपमें ये जीन मौजूद हैं और यदि ऐसा है तो जोखिम को कम करने के लिए उपाय करें,
1. अधिक निगरानी रखें: मैमोग्राम के अलावा सालाना स्तनों की एमआरआई कराएं।
2. कीमोप्रीवेन्शन: टैमॉक्सिफेन या रालोक्सिफेन रोजाना लेने पर स्तन कैंसर का खतरा कम हो जाता है।
3. खतरे को कम करने वाली सर्जरी: या तो दोनों अंडाशय या दोनों स्तन या दोनों अंडाशय और दोनों स्तन को हटाने से उच्च जोखिम वाली महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा कम हो जाता है।


पॉलिमेरिक दंत प्रत्यारोपण से युवा क्रिकेटर ने वापस पाई अपनी मुस्कुराहट

दाँत की बीमारी के इलाज में हो रही प्रगति के साथ-साथ, दंत प्रत्यारोपण में भी लगातार विकास हो रहा है। अब दंत प्रत्यारोपण की बेहतर डिजाइन और हड्डी ग्राफ्टिंग की विधियों के कारण दंत प्रत्यारोपण तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। 
ग्रीन पार्क डेंटल, नई दिल्ली के निदेशक डाॅ. एस. पी. अग्रवाल ने कहा, “एक 23 वर्षीय युवा क्रिकेटर की चोट लगने से उनके ऊपर के सामने के दो दांत टूट गए थे। जब दंत चिकित्सकों की टीम ने उन्हें आंशिक डेंचर कराने (नकली दांत लगाने) की सलाह दी, तो उन्होंने मना कर दिया और बेहतर समाधान का विकल्प चुना। कुछ लोगों ने उन्हें हमसे मिलने की सलाह दी। जब उन्होंने हमसे मुलाकात की, तो हमने उनसे चिंता नहीं करने को कहा और कहा कि दंत विज्ञान के क्षेत्र हुई प्रगति के कारण अब दंत प्रत्यारोपण संभव है, जो प्राकृतिक दांत की ही तरह लगता है। अत्यधिक विशिष्ट प्रक्रियाओं के माध्यम से पहले उनके जबड़े को पूरी तरह से ठीक किया गया ताकि इम्लांट ठीक से और अच्छी पकड़ के साथ फिट हो सके। उसके बाद उनके जबड़े के साथ 'बायोपिक' नामक सफेद पोलिमेरिक इंप्लांट लगा दिया गया। अब वह प्राकृतिक दांत की तरह चमक का आनंद ले रहे हैं।“
रोगी ने कहा, “मैंने कई दंत चिकित्सकों को दिखाया। उनमें से अधिकतर ने दांत को स्थायी रूप से भरने की सलाह दी, लेकिन उसके लिए आस-पास के दांतों को घिसने की आवश्यकता होती है जिससे संभवतः वे  कमजोर हो सकते थे। इसलिए मैंने सेकंड ओपिनियन लिया। प्रत्यारोपण सर्जरी उतनी मुश्किल नहीं थी, जितना मैंने सोचा था। पहले, मैं बहुत डर गया था, लेकिन वास्तव में, यह रूट कैनाल या दांत को निकालने की सर्जरी से सरल था। दंत प्रत्यारोपण के छह महीने बाद, अब मैं बहुत ही अच्छा महसूस करता हूं! एक चमत्कार की तरह, पूरी तरह से चेंजओवर। अब मुझे बिल्कुल महसूस नहीं होता कि मेरे दांत टूटे हुए हैं। मैं आसानी से मुस्कुरा सकता हूं और चबा सकता हूं, और मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ गया है।''
दांतों के क्षय के कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इससे जबड़े भी प्रभावित होते हैं और अधिक कमजोर हो जाते हैं और खराब होने लगते हैं। शेष दांत टूटे हुए दांत की खाली जगह को भरने के प्रयास में खुद में बदलाव करना शुरू कर देते हैं। सामान्य रूप से चबाना भी मुश्किल हो जाता है और पीड़ित के जबड़े में सूजन आ सकती है और तेज सिरदर्द हो सकता है। जितने अधिक दांत टूटते हैं, शेष दांतों को उतनी ही कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। दांतों पर इस अतिरिक्त बोझ के कारण दांतों का क्षय और टूटना बढ़ जाता है।
लाखों लोग कई स्थितियों से अपने दांतों की रक्षा करने में विफल रहते हैं और उनके दांतों का नुकसान हो जाता है। इसमें उम्र और लिंग से कोई मतलब नहीं है। दांतों को नुकसान होने के आकस्मिक कारण के अलावा, कुछ बीमारियां और आनुवांशिक विकृतियां सहित कई अन्य कारण भी होते हैं जो काफी अधिक योगदान देते हैं। दांतों को सुरक्षित रखने के लिए रोकथाम सबसे उचित कदम है। नियमित रूप से दंत चिकित्सक से परामर्श लें और प्राकृतिक दांतों के लंबे जीवन के लिए मुंह की समुचित स्वच्छता बनाए रखें।


पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड नी रिप्लेसमेंट सर्जरी से होता है शत प्रतिशत सटीक इलाज और जीवन की गुणवत्ता में होता है सुधार

घुटना प्रत्यारोपण सर्जरी के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण, अब पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड सर्जरी से घुटने का शत प्रतिशत सटीक इलाज हो सकता है और इसके सर्वोत्तम परिणाम हासिल होते हैं। पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड नी रिप्लेसमेंट सर्जरी एक अत्याधुनिक सर्जिकल तकनीक है जो सर्जरी की सटीकता को 99.9 प्रतिशत तक बढ़ा देती है, इंप्लांट के जीवन को बढ़ाती है और प्रत्यारोपित जोड़ों के कार्य करने की क्षमता में अधिक सुधार करती है।
एक आम धारणा है कि दिल की समस्याओं, मधुमेह जैसी उम्र बढ़ने से संबंधित बीमारियों से पीड़ित रोगी ऐसी सर्जरी नहीं करा सकते हैं। लेकिन मैक्स अस्पताल में यह सर्जरी कराने वाले 50 प्रतिशत से अधिक रोगी हृदय रोग की दवा ले रहे थे, उनमें से 30 प्रतिशत मधुमेह से पीड़ित थे और 10 प्रतिशत मोटापे से ग्रस्त थे (बीएमआई 30 से अधिक)। ऐसे सभी मरीजों में घुटना प्रत्यारोपण के बाद बेहतर परिणाम हासिल हुए हैं और वे इस नई तकनीक से लाभान्वित हुए हैं।
मैक्स सुपर स्पेशलिटी हाॅस्पिटल, पटपड़गंज के आर्थोपेडिक्स एंड ज्वाइंट रिप्लेसमेंट विभाग के वरिष्ठ निदेशक और यूनिट प्रमुख डॉ. (प्रोफेसर) अनिल अरोड़ा ने कहा, ''हालांकि “पारंपरिक“ कंप्यूटर नेविगेटेड सर्जरी 20 वर्षों से की जा रही है, लेकिन जांघ की हड्डी में पिन ड्रिल करने और फ्रैक्चर और संक्रमण के अतिरिक्त जोखिम जैसी गंभीर जटिलताओं की संभावना के कारण, यह लोकप्रिय नहीं हुई। लेकिन नवीनतम अत्याधुनिक पिनलेस कंप्यूटर नेविगेशन में पहले के पारंपरिक सर्जरी की तरह ड्रिल करने की जरूरत नहीं पड़ती है जिसके कारण इससे संबंधित खतरे और जटिलताएं भी नहीं होती हैं। यह सर्जरी की अवधि और सर्जरी के जोखिम को काफी बढ़ाए बिना आउटलाइअर के अनुपात को कम करने के लिए एक उत्कृष्ट उपकरण साबित हुई है। पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड सिस्टम को अलाइनमंेट में सुधार करने के साथ-साथ प्रोस्थेसिस (कृत्रिम घुटने) घटकों की स्थिति में सुधार करने, और घुटने के संतुलन को बेहतर बनाने के उद्देष्य से विकसित किया गया है, जिससे रोगी के समग्र स्वास्थ्य और कृत्रिम घुटने के जीवन में सुधार होता है। घुटना प्रत्यारोपण के लिए पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड सिस्टम की तुलना परंपरागत तकनीक से करने पर हम पाते हैं कि यह कृत्रिम घुटने के गलत अलाइनमेंट की संभावना को स्पष्ट रूप से काफी कर देती है।'' 
डाॅ. अरोड़ा ने कहा, “यह घुटना प्रत्यारोपण कराने को इच्छुक घुटने और पैर की विकृतियों वाले मरीजों के लिए वरदान है। पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड नी रिप्लेसमेंट से इन विकृतियों में पूरी तरह से सुधार होता है। पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड नी रिप्लेसमेंट से वसा के जमाव होने की घातक जटिलता की संभावना कम हो जाती है, क्योंकि मरीज के जांघ की हड्डी के मेड्यूलरी कैनाल में ड्रिल से छेद करने की आवश्यकता नहीं होती है। घुटना प्रत्यारोपण के लिए पिनलेस कंप्यूटर नेविगेटेड सिस्टम में विशेष स्टेराइल प्रोब का उपयोग किया जाता है जो इन्फ्रारेड कैमरे की मदद से कंप्यूटर में रोगी के घुटने का 3 डी मॉडल बनाने के लिए सर्जरी के दौरान प्रभावित घुटने के आसपास समान रूप से स्थानांतरित होता है। घुटना प्रत्यारोपण के लिए कंप्यूटर नेविगेटेड सिस्टम के मार्गदर्शन में, उसके बाद घुटने को बदल दिया जाता है, और इम्प्लांट की स्थिति की पुष्टि की जाती है, जो स्थिति और संतुलन के मामले में लगभग सौ प्रतिशत सटीक होती है।“
पूरी तरह से अलाइन किये गये घुटने न केवल लंबे समय तक चलते हैं बल्कि मिनिमली इनवैसिव सर्जरी के कारण रोगी की तेजी से रिकवरी भी होती है। सर्जरी के बाद, मरीज 4 घंटे बाद ही चलना शुरू कर सकता है। पिनलेस कंप्यूटर नेविगेशन तकनीक उचित समय पर 3-डी इमेजिंग प्रदान करती है और सर्जन को सटीकता के साथ चीरा लगाने के लिए मार्गदर्शन करती है जिसके कारण इंप्लांट का बेहतर और सटीक प्रत्यारोपण संभव हो पाता है। इसके अलावा, उन तकनीकों से कभी-कभार अनजाने में हो जाने वाली त्रुटियों का भी तुरंत पता चल जाता है और उसी समय उसे सही कर दिया जाता है। यह घुटना प्रत्यारोपण कराने के इच्छुक घुटने और उसके आसपास की विकृतियों से पीड़ित मरीजों के लिए एक वरदान है।


बच्चों में होने वाले स्ट्रोक की होती है अनदेखी

बच्चों में स्ट्रोक के मामले बहुत ही कम होते हैं लेकिन बच्चों में स्ट्रोक विकलांगता एवं असामयिक मौत का प्रमुख कारण हो सकता है। वयस्कों में होने वाले स्ट्रोक की तुलना में, बच्चों में स्ट्रोक के बिल्कुल अलग एवं अनोखे जोखिम कारक होते हैं। चूंकि बच्चों में स्ट्रोक के जोखिम कारक वयस्कों से अलग होते हैं और इस कारण बच्चों में स्ट्रोक का पता या तो बाद में चलता है अथवा उसकी पहचान ही नहीं हो पाती है। 
विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक, स्ट्रोक से पीड़ित 15 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर लगभग 25 प्रतिशत होती है और जबकि इससे ग्रस्त बाकी बच्चों में या तो इसकी पुनरावृत्ति होती है या लगातार न्यूरोलॉजिकल विकार बने रहते हैं। ऐसे बच्चों को सीखने में दिक्कत होती है या उन्हें दौरे पड़ते हैं। वयस्कों में ब्रेन स्ट्रोक के जोखिम कारक मधुमेह, उच्च रक्तचाप और एथेरोस्क्लेरोसिस के कारण बढ़ जाते हैं जबकि बच्चों में जोखिम कारक अलग-अलग होते हैं और इसके कई सारे जोखिम कारक होते हैं। 
हालांकि बच्चों में होने वाले स्ट्रोक के कम ही मामले सामने आ पाते हैं लेकिन हम जितना सोचते हैं उससे कहीं अधिक बच्चों में स्ट्रोक का प्रकोप है। इसका कारण यह है कि बच्चों में स्ट्रोक के लक्षण अन्य रोगों के लक्षण से मिलते-जुलते हैं और इसके कारण इसकी गलत पहचान होती है और उपचार में देरी होती है। न्यूरो-इंटरवेंशन के क्षेत्र में हालिया प्रगति के कारण बेहतर चिकित्सा सुविधाओं एवं अधिक जागरूकता आने के कारण स्ट्रोक से ग्रस्त बच्चों (यहां तक कि जन्मजात हृदय रोग, सिकल सेल रोग या अन्य रक्त विकारों से पीड़ित बच्चों) के जीवित रहने की दर दोगुनी हो गई है। 
पेडिएट्रिक स्ट्रोक क्या है?
स्ट्रोक मस्तिष्क में धमनियों और नसों में अवरोध आने या उनके फटने के कारण होता है। यह इस्किमिक या हेमोरेजिक दोनों हो सकता है। इस्किमिक स्ट्रोक आम तौर पर धमनियों में अवरोध के कारण होते हैं लेकिन यह नसों में रूकावट के कारण भी हो सकते हैं। जब अवरोध के कारण रक्त वाहिकाएं क्षतिग्रस्त होती है तो रक्त स्राव होने लगता है और इसे हेमोरेजिक स्ट्रोक कहा जाता है। वयस्कों में होेने वाले सभी स्ट्रोक में से 85 प्रतिशत इस्किमिक स्ट्रोक होते हैं जबकि बच्चों में होने वाले सभी स्ट्रोक में से केवल 50 प्रतिशत स्ट्रोक इस्किमिक होते हैं। 
बच्चों को मिनी स्ट्रोक (ट्रांजियेंट इस्किमिक अटेक - टीआईए) होने का भी खतरा अधिक होता है। यह स्ट्रोक तब होता है जब मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति बहुत ही कम समय के लिए बाधित होती है। आम तौर पर टीआईए के तुरंत बाद लक्षण कम हो जाते हैं, लेकिन अगले 24 घंटों के भीतर स्ट्रोक होने का खतरा होता है। 
इसके लक्षण क्या हैं?
चूंकि किसी भी उम्र में स्ट्रोक हो सकता है - बच्चों से लेकर वयस्कों को। इसलिए उम्र के आधार पर न्यूरो इंटरवेंशन विशेषज्ञ उचित उपचार विधि निर्धारित करते हैं। लेकिन अक्सर बच्चों में स्ट्रोक की पहचान इस कारण से नहीं होती है क्योंकि स्ट्रोक के प्रभाव एवं लक्षण की तरफ ध्यान नहीं जाता है। 
स्ट्रोक का पहली बार पता तब चलता है जब बच्चे सीखने लगते हैं और उनका विकास होने लगता है और इसके साथ ही समस्याएं उभरने लगती हैं। आम तौर पर इसका पता तब चलता है जब बच्चे के चलने-फिरने के दौरान उसके षरीर के एक हिस्से में कोई दिक्कत नजर आती है। 28 दिनों तक के शिशुओं में दौरे सबसे आम लक्षण हैं और 18 वर्ष तक के बच्चे शरीर के एक तरफ कमजोरी या पक्षाघात का अनुभव कर सकते हैं, चेहरे लटक सकते हैं, बोलने में दिक्कत हो सकती है और सिर दर्द हो सकता है। ये सभी लक्षण आम तौर पर इस्किमिक स्ट्रोक से जुड़े होते हैं। हेमोरेजिक स्ट्रोक के लक्षणों में उल्टी, दौरे और कभी-कभी सिरदर्द शामिल हैं। 
स्ट्रोक का प्रभाव इस बात पर निर्भर करते हैं कि मस्तिष्क के किस हिस्से में स्ट्रोक हुआ है अैर उसके कारण कितना नुकसान हुआ है। जिन्हें बड़े स्ट्रोक होते हैं उनके शरीर का एक हिस्सा स्थाई तौर पर लकवाग्रस्त हो सकता है या बोलने की उनकी षक्ति जा सकी है लेकिन छोटे स्ट्रोक होने पर केवल हाथ या पैर की कमजोरी जैसी अस्थायी समस्याएं हो सकती हैं। समय पर इलाज होने पर ज्यादातर मामलों में मरीज पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं। 
किसे अधिक जोखिम है? 
बच्चों में स्ट्रोक के जोखिम कारक और कारण अलग-अलग होते हैं। उनकी रक्त वाहिकाओं में विकृतियों और अन्य जन्मजात असामान्यताओं में भी अंतर होता है।
इस्किमिक स्ट्रोक बच्चों में स्ट्रोक का मुख्य कारण है और इसके जोखिम कारकों में शामिल हैं -
1. जन्मजात हृदय रोग - बच्चों में 25 प्रतिशत तक इस्किमिक स्ट्रोक का कारण हृदय की बीमारियां होती हैं। जन्म से होने वाले जन्मजात हृदय रोग या बाद में होने वाली दिल की बीमारी से होने वाली असामान्यता के कारण स्ट्रोक हो सकते हैं। स्ट्रोक आम तौर पर दिल की बीमारी का पहला संकेत नहीं होता है। अक्सर बच्चे के स्ट्रोक होने से पहले हृदय रोग का निदान किया जाता है।
2. जन्मजात रक्त विकार - इसे प्रोथ्रोम्बोटिक डिसआर्डर भी कहा जाता है। यह ऐसी स्थिति है जो खून को गाढ़ा कर देती है और तेजी से रक्त का थक्का बनने लगता है। सिकल सेल डिजीज (एससीडी) एक और आनुवांशिक बीमारी है जो आरबीसी के विकास को प्रभावित करती है और इसके आकार को गोल से सिकल में बदल देती है। हालांकि यह दुर्लभ है, लेकिन यह मस्तिष्क की रक्त वाहिकाओं में रक्तस्राव पैदा कर सकती है। अन्य बीमारियों में ल्यूकेमिया, एनीमिया और ऑटोइम्यून बीमारियां शामिल हैं।
3. धमनी में विकृति - मस्तिष्क में धमनियों के अनियमित गठन के कारण भी स्ट्रोक हो सकता है। जन्मजात होने के कारण, इस बीमारी के साथ पैदा होने वाले बच्चे में अक्सर तब तक इस बीमारी की पहचान नहीं हो पाती है जब तक कि स्ट्रोक के लक्षण सामने नहीं आ जाते हैं। ऐसे बच्चों की बार- बार स्ट्रोक के लिए नियमित रूप से निगरानी की आवश्यकता होती है। 
हेमोरेजिक स्ट्रोक बच्चों में स्ट्रोक के मामलों में से 50 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार होता है और इसका मुख्य कारण आर्टेरियो- वीनस मालफाॅर्मेशन (एवीएम) है। यह धमनियों और नसों की एक दुर्लभ विकृति है जिसमें हृदय से जो रक्त मस्तिष्क के लिए पंप किया जाता है वह रक्त उच्च दाब के साथ सीधे नसों में जाता है जो अपेक्षाकृत कम दबाव के साथ रक्त ले जाता है। दबाव में आए इस परिवर्तन के कारण रक्त वाहिकाएं फट जाती हैं और रक्तस्राव होने लगता है।
इसका इलाज कैसे किया जाता है?
हेमोरेजिक स्ट्रोक के उपचार को बच्चे के रक्तचाप और शरीर के तापमान को नियंत्रित करके बच्चे की स्थिति को स्थिर करने और हेमोरेजिक के इलाज से पहले सांस की तकलीफ को दूर करने पर फोकस किया जाता है। इसके शल्य चिकित्सा के विकल्पों में एन्यूरिज्म को क्लिप करने या असामान्य रक्त वाहिकाओं को हटाने के लिए माइक्रोस्कोर्जरी शामिल है। 
इस्किमिक स्ट्रोक के इलाज को मस्तिष्क के नुकसान को कम करने और एक और स्ट्रोक को रोकने पर फोकस किया जाता है। डॉक्टर रक्त का पतला करने वाली दवाइयां देते हैं और रिफ्लेक्स, आंखों के मूवमेंट, आवाज, निगलने और शरीर के अन्य कार्यों की निगरानी भी करते हैं। यह भी देखा जाता है कि बच्चा प्रकाश, चित्र, ध्वनि और स्पर्श के प्रति किस प्रकार की प्रतिक्रिया कर रहा है।


स्तनपान कराने से हृदय रोग एवं स्ट्रोक होने का खतरा 18 प्रतिशत तक घट जाता है

अगर माताएं अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराएं तो स्ट्रोक एवं हार्ट अटैक जैसे कार्डियोवैस्कुलर रोग होने का खतरा 18 प्रतिषत तक घट जाता है। 
फरीदाबाद के सर्वोदय अस्पताल के वरिश्ठ इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट डाॅ. एल. के. झा ने अपने एक नवीनतम अनुसंधान से निष्कर्ष निकाला है। हरियाणा के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के निदेशक राकेश गुप्ता ने यह जानकारी देते हुए कहा, ''स्वास्थ्य विभाग विषिश्ट स्तनपान कराने के बारे में लोगों को जागरूक बना रहा है।''
डाॅ. झा की ओर से तैयार रिपोर्ट में कार्डियोवैस्कुलर प्रणाली पर स्तनपान के प्रभाव के बारे में अध्ययन किया गया। इस अनुसंधान में मध्यम आयु वर्ग की 29000 महिलाओं को षामिल किया गया और उनसे प्राप्त निश्कर्शों का विष्लेशण किया गया। इससे निश्कर्श निकलता है कि जो महिलाएं जल्द से जल्द अपने बच्चे को स्तनपान षुरू कर देती हैं उन्हें स्तनपान नहीं कराने वाली महिलाओं की तुलना में दिल का दौरा पड़ने तथा स्ट्रोक होने का खतरा 18 प्रतिशत कम होता है।
यह देखा गया है कि दो बच्चों को स्तनपान करने वाली महिलाओं को एक बच्चे को स्तनपान कराने वाली महिलाओं की तुलना में दोगुनी सुरक्षा मिलती है। 
डॉ एल. के. झा कहते हैं कि हृदय रोगों के मामले में स्तनपान का माताओं को अल्पावधि के साथ-साथ दीर्घावधि लाभ मिलते हैं। अल्पावधि तौर पर स्तनपान से वजन घटाने, कोलेस्ट्रॉल कम करने, रक्तचाप को नियंत्रित करने और गर्भावस्था के बाद ग्लूकोज के स्तर को नियंत्रित रखने में मदद मिलती है। 
वह कहते हैं, ''गर्भावस्था के कारण महिला के चयापचय में परिवर्तन होता है क्योंकि गर्भावस्था के बाद उनके षरीर में होने वाले बच्चे के विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने और बच्चे के जन्म के बाद स्तनपान कराने के लिए वसा संरक्षित होने लगती है। स्तनपान कराने के कारण जमा वसा तेजी से और अधिक मात्रा में खत्म होती है और इससे बाद के जीवन में कार्डियोवैस्कुलर रोगों का खतरा घटता है। 
वह कहते हैं कि स्तनपान महिलाओं में हृदय रोग के बोझ को कम करने में काफी योगदान दे सकता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को दिल का दौरा पड़ने से मौत होने का खतरा अधिक होता है, और इसका मुख्य कारण महिलाओं में हृदय रोग के प्रति जागरूकता की कमी है। 
सीने में दर्द तथा सांस लेने में दिक्कत जैसे शुरुआती लक्षणों की उपेक्षा करने से दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ता है और देर करने से इन रोगों का उपचार अधिक जटिल होता जाता है। डाॅ. झा की हाल की रिपोर्ट के अनुसार यह देखा गया है कि जटिल हृदय रोगों के मामले 30 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं। 


  


डाइस्टनिक स्र्टोम नामक दुर्लभ मूवमेंट डिसआर्डर के मरीज को मिला नया जीवन

श्री नरेंद्र खन्ना डाइस्टनिक स्टोर्म नामक एक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित थे जिनका आर्टेमिस हाॅस्पिटल में सफलतापूर्वक आपरेशन किया गया है। यह रोगी पिछले 15 महीनों से सरवाइकल डाइस्टनिया से पीड़ित था और उसके शरीर की गतिविधियां अनियंत्रित हो चुकी थीं। उसे गंभीर स्थिति में अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 
आर्टेमिस हाॅस्पिटल में एग्रीम इंस्टीच्यूट फाॅर न्यूरो साइंसेज के न्यूरोसर्जरी के निदेशक डॉ. आदित्य गुप्ता ने कहा, ''उन्हें आईसीयू में डाइस्टनिक नामक बहुत ही गंभीर स्थिति में भर्ती कराया गया था। यह बीमारी बहुत ही दुर्लभ है और संभावित रूप से एक घातक मूवमेंट डिसआर्डर है। कई विशेषज्ञों और अस्पतालों में दिखाने के बाद, उन्हें एम्स के डॉक्टरों ने हमारे पास भेजा किया। रोगी के शरीर के गतिविधियां पूरी तरह से अनियंत्रित हो गई थी और इसलिए उनके शरीर की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए सीडेशन की बहुत अधिक खुराक पर रखा गया था। यही नहीं, सीडेशन की अधिक खुराक की भरपाई करने और उनके शरीर की गतिविधियों को पूरी तरह से रोकने के लिए एक ब्रीदिंग ट्यूब लगाई गई थी। यहां तक कि उन्हें 5 दिनों तक मैकेनिकल वेंटिलेटर पर रखने के बाद भी, दवाएं पूरी तरह से शारीरिक गतिविधियों को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं थीं और इसलिए टीम ने अगला उपचार करने का फैसला किया।'' 
जब मरीज को इमरजेंसी में भर्ती कराया गया था, तो देखा गया कि रोगी ने मूत्राशय पर अपना नियंत्रण खो दिया था, उसे मूत्र संक्रमण और निमोनिया हो गया था जिसे सर्जरी से पहले कम किया जाना था। आईसीयू में दी गई दवाओं और इंजेक्शन से वह लगभग बेहोशी की अवस्था में रहा। उसकी हालत स्थिर हो जाने के बाद, उससे कैनुला हटाया गया और सर्जरी के लिए तैयार किया गया।
आर्टेमिस हाॅस्पिटल में एग्रीम इंस्टीच्यूट फाॅर न्यूरो साइंसेज के न्यूरोलाॅजी के निदेशक डॉ. सुमित सिंह ने कहा, ''टीम ने डीप ब्रेन स्टिमुलेशन सर्जरी करने का फैसला किया जो मस्तिष्क के लिए पेसमेकर की तरह है। उसके मस्तिष्क में तारों के सेट को डालने के लिए उसके मस्तिश्क की सर्जरी की गई। इस तार को त्वचा के नीचे कॉलरबोन में स्थापित पेसमेकर सेट से जोड़ा गया है। टाइस्टनिया की ऐसी गंभीर स्थिति में डीबीएस के साथ तेजी से प्रतिक्रिया करते देखना टीम के लिए बेहद आश्चर्यजनक और विस्मयकारी था। रोगी ने बहुत अच्छी प्रतिक्रिया दिखाई और उसकी शारीरिक गतिविधि कम होना शुरू हो गई और वह तुरंत आईसीयू से बाहर निकलने में सक्षम हो गया। फिजियोथेरेपिस्ट ने उसे बैठना, खुद खाना खाना, चलना सीखाना शुरू किया और हम श्री खन्ना की प्रगति और सुधार को देखकर बहुत खुश हैं।''
रोगी को गंभीर डाइस्टनिक स्टाॅर्म था, जो बहुत दुर्लभ और जटिल है। इस बीमारी से पीड़ित मरीजों में शरीर के अंगों का पोष्चर बहुत ही विचित्र होता है। उन्हें अत्यधिक दर्द होता है और उनका पूरा शरीर मुड़ा हुआ महसूस करता है। शुरुआती अवस्थाओं में इसका इलाज नहीं कराने पर समय के बाद ऐसी विकृतियां विकसित हो जाती हैं और रोगी की स्थिति दिनोंदिन खराब होती जाती है और शरीर में चौबीसों घंटे मुूवमेंट होता रहता है।
मरीज की पत्नी संगीता खन्ना ने कहा, ''उन्हें बहुत ही दुर्लभ बीमारी थी जिसे प्राइमरी जेनरलाइज्ड डाइस्टनिया कहा जाता है। वह पिछले 2-3 सालों से इस बीमारी से पीड़ित थे। उन्होंने कई अस्पतालों, न्यूरोलॉजिस्ट और मूवमेंट डिसआर्डर स्पेशियलिस्ट से दिखाया लेकिन डाइस्टनिक मूवमेंट को नियंत्रित नहीं किया जा सका। उनके अनियंत्रित मूवमेंट को घर पर पूरी तरह से नियंत्रित करना मुश्किल हो गया था और हम लगभग उम्मीद खो चुके थे। लेकिन सर्जरी के बाद, मेरे पति अच्छी तरह से ठीक हो गए हैं और अब हमेशा की तरह सामान्य हैं। मैं डॉक्टरों की टीम की वास्तव में आभारी हूं।''
डीबीएस ऐसी सर्जरी है जो डायस्टनिया रोगियों के लिए नियमित रूप से की जाती है। लेकिन स्टेटस डाइस्टनिकस वाले कई रोगी की सीधे डीबीएस नहीं की जाती है। यह देखना बेहद आश्चर्यजनक और विस्मयकारी था कि सर्जरी के बाद अगले ही दिन श्री खन्ना नींद के किसी भी इंजेक्शन या सीडेटिव के बिना ही सामान्य रूप से लेटे रहे। 2-3 दिनों के भीतर ऐसे रोगी में डीबीएस की इतनी अच्छी प्रतिक्रिया देखना बहुत ही सुखदायी और खुशी भरा क्षण था। डायस्टनिया रोगियों में आम तौर पर 3-6 महीने में ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद होती है।