स्वस्थ दिल के लिए अपने नंबर जानें

— अपने रक्तचाप की निगरानी करें। अपना रक्तचाप 120/80 एमएम एचजी से कम रखें।
— स्वस्थ वजन को बनाए रखें। अपने बॉडी मास इंडेक्स को 25 से कम रखने का लक्ष्य रखें।
— अपने कोलेस्ट्रॉल पर निगरानी रखें। कुल कोलेस्ट्रॉल 200 एमजी / डीएल से कम रखने का प्रयास करें।
— अपने रक्त शर्करा को नियंत्रित रखें। उपवास के समय रक्त ग्लूकोज 100 एमजी / डीएल से कम रखने का उद्देश्य रखें।
— सक्रिय रहें। प्रति सप्ताह तेज चलने लैसे मध्यम तीव्रता वाली गतिविधि 150 मिनट तक करें।
— तंबाकू सेवन से परहेज करें। यदि आप धूम्रपान करते हों, तो धूम्रपान करना छोड़ दें।
— अपने दैनिक आहार में सब्जियों, फल, साबुत अनाज और मछलियों को शामिल करें। नमक, संतृप्त वसा और मीठे खाद्य पदार्थों का सीमित मात्रा में सेवन करें।
— रोजाना 30 मिनट तक व्यायाम करें या 10,000 कदम चलें।
— सब्जियों और फलों के पोषक तत्व दिल की बीमारी से बचने में मदद करते हैं। 
— अपने वजन पर निगरानी रखें। यदि आपके पेट के आसपास वजन बढ़ रहा हो तो प्रोटीन के सेवन को बढ़ा दें और कार्बोहाइड्रेट के सेवन को कम कर दें।
— नमक का अधिक सेवन नुकसान पहुंचा सकता है। हम भारतीय अपने आहार में प्रचुर मात्रा में नमक का सेवन करते हैं और अधिक नमक उच्च रक्तचाप पैदा करने में योगदान कर सकता है।


 


 


 


आरंभिक अवस्था में ही प्रोस्टेट कैंसर का इलाज संभव है

नेशनल कैंसर रजिस्ट्री के अनुसार प्रोस्टेट कैंसर तेजी से बढ़ने वाले कैंसर में शुमार है। दुनिया भर में प्रोस्टेट कैंसर दूसरा सबसे सामान्य कैंसर है और विश्व भर में कैंसर से होने वाली मौतों का यह छठा प्रमुख कारण है और यह तथ्य भारत के लिये भी लागू है। 
नयी दिल्ली के मैक्स हेल्थकेयर के इंस्टीच्यूट आफ यूरोलाॅजिक साइंसेस के निदेशक डा. पी बी सिंह ने बताया कि प्रोस्टेट कैंसर का प्रकोप बढ़ रहा है और दुनिया भर में विकास तथा बुजुर्गों की संख्या बढ़ने के कारण 2030 तक इसके 17 लाख नये मामले समाने आयेंगे। दुनिया भर में सितम्बर का महीना प्रोस्टेट कैंसर जागरूकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। 
डा. पी बी सिंह ने बताया कि प्रोस्टेट कैंसर के 10 में से छह मामले 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में पाये जाते हैं। प्रोस्टेट कैंसर की जांच बढ़े हुये प्रोस्टेट स्फेफिक एंटीजन (पीएसए) के स्तर को प्रदर्षित करने वाली रक्त जांच के जरिये होता है। पीएसए ऐसा प्रोटीन है जो प्रोस्टेट ग्रंथि एवं डीआरई (डिजिटल रेक्टल परीक्षण) से बनाता है। जिन पुरूषों में पीएसए स्तर 4 से 10 के बीच होता है उन्हें प्रोस्टेट कैंसर होने की आशंका 4 में 1 होती है। अगर पीएसए का स्तर 10 से अधिक होता है तो प्रोस्टेट कैंसर होने की आशंका 50 प्रतिशत से अधिक होती है।
हालांकि आज तक प्रोस्टेट कैंसर के सही कारण का पता नहीं चला है लेकिन एसे कई उपाय हैं जिनकी मदद से प्रोस्टेट कैंसर के खतरे को कम किया जा सकता है। इन उपायों में विभिन्न सब्जियों एवं फलों का सेवन करके, शारीरिक रूप से सक्रिय रहकर तथा अपने वजन पर नियंत्रण रखकर प्रोस्टेट कैंसर के खतरे घटाये जा सकते हैं।
नयी दिल्ली के अपोलो स्पेक्टा हास्पीटल के वरिष्ठ यूरोलाॅजिस्ट डा. विनीत मल्होत्रा बताते हैं कि हालांकि प्रोस्टेट कैंसर के सही कारणों का अभी तक पता नहीं चला है, कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि मोटापे से ग्रस्त लोगों को अधिक अग्रिम अवस्था वाले प्रोस्टेट कैंसर होने तथा इससे मौत होने का खतरा अधिक होता है। वह कहते हैं, ''युवा पुरूषों में हालांकि इसके मामले बहुत दुर्लभ हैं लेकिन 50 साल की उम्र होने पर प्रोस्टेट कैंसर होने की आशंका तेजी से बढ़ती है। यह देखा गया है कि 10 से छह मामले 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में होती है।''
विशेषज्ञों का मानना है कि पुरूषों में मोटापे में तेजी से बढ़ने तथा डायग्नोस्टिक तकनीकों की उपलब्धता बढ़ने के कारण आज अधिक संख्या में प्रोस्टेट कैंसर के मरीजों का पता चल रहा है। 
प्रोस्टेट कैंसर के आरंभिक अवस्था में आम तौर पर लक्षण नहीं होते हैं लेकिन जांच से इसका पता चला जाता है। हालांकि प्रोस्टेट कैंसर कोई नुकसान पहुंचाये बगैर बर्षों तक हमारे शरीर में निष्क्रिय पड़ा रह सकता है। इस रोग के अधिक बढ़ने की अवस्था में इससे ग्रस्त मरीजों का मूत्र प्रवाह बाधित होता है या मूत्र प्रवाह कमजोर होता है, मूत्र करने में असमर्थता होती है या पेशाब शुरू करने या रोकने में दिक्कत होती है, बार-बार मूत्र त्याग के लिये जाना पड़ता है और पेशाब करने में जलन या दर्द होता है। 
पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर रोकने के लिए टिप्स 
1. रेड मीट और डेयरी उत्पादों से लेने वाले वसा की मात्रा कम कर दें। 
2. अपने दैनिक आहार में अधिक एंटीआक्सीडेंट वाले फल और सब्जियों विशेषकर टमाटर की मात्रा बढ़ा दें। 
3. 30 या उससे अधिक बाॅडी मास इंडेक्स (बीएमआई) होने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
4. 50 की उम्र होने पर डीआरई, अल्ट्रासाउंड, यूरोफ्लोमेट्री और पीएसए टेस्ट के माध्यम से अपने प्रोस्टेट की जांच कराएं।  


पॉलीसिस्टिक ओवरी रोग से पीड़ित निःसंतान दम्पतियों के लिए एक वरदान है आईवीएफ

27 वर्षीय मीनल (बदला हुआ नाम) की चार साल पहले शादी हुई थी। वह गर्भ धारण करने के लिए कोशिश कर रही थी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। जांच में उनमें पीसीओएस (पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम) का पता चला जिसके कारण उनका मासिक अनियमित हो गया था। उन्होंने प्रसिद्ध आईवीएफ क्लिनिकों से सलाह ली और कुछ मासिक चक्र में समय पर शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश की और इंट्रायेटेरिन इन्सेमिनेशन (आईयूआई) भी कराया, फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिली। बल्कि आईयूआई के एक चक्र में उनके शरीर में तरल पदार्थ जमा हो गया।
मीनल सारी उम्मीदें खो चुकी थीं। फिर उन्होंने गुड़गांव फर्टिलिटी सेंटर (जीएफसी) में मुख्य आईवीएफ कंसल्टेंट डाॅ. रिचा शर्मा से मुलाकात की। उन्हें आईवीएफ कराने की सलाह दी गयी, जिसमें उनके भ्रूण को ओवेरियन हाइपरस्टिमुलेशन सिंड्रोम (ओएचएसएस) के मद्देनजर फ्रीज करके रखा गया। डॉ. रिचा शर्मा ने कहा, ''पीसीओ रोगियों में, अंडे की संख्या अधिक होती है, लेकिन उनकी गुणवत्ता खराब होती है जिसके कारण गर्भधारण करने में समस्या आती है और गर्भपात की दर अधिक होती है। मीनल के मामले में, हमने कंट्रोल्ड ओवेरियन हाइपर स्टिमुलेशन नामक अभिनव प्रक्रिया का सहारा लिया और उनके सभी भ्रूण को फ्रीज कर लिया।'' पीसीओएस महिलाओं में बांझपन के प्रमुख कारणों में से एक है और इसकी सफलता अच्छे भ्रूणविज्ञान कौशल पर निर्भर करती है।
मीनल ने कहा, ''मैंने आईवीएफ कराया और जब यह कारगर रहा और मैं गर्भवती हो गयी तो मैं बहुत रोमांचित हो गयी। दो हफ्ते बाद, हमें बताया गया कि मेरे गर्भ में जुड़वाँ बच्चे हैं।''
पीसीओएस विशेष रूप से उत्तरी भारत में काफी आम है, और यह महिलाओं में बांझपन के प्रमुख कारणों में से एक है। 


 


एंडोमेट्रियोसिस आपको संतान सुख से बंचित नहीं कर सकती 

मां बनने की उम्र वाली 10 में से एक महिला को एंडोमेट्रियोसिस होती है। ऐसी काफी महिलाओं का या तो इलाज नहीं होता है या समुचित इलाज होता है। इस रोग के लक्षण हमेशा प्रकट नहीं होते हैं और यह अस्पष्ट इनफर्टिलिटी के करीब आधे मामलों का कारण हो सकता है।
32 वर्षीय श्रीमती शालू (बदला हुआ नाम) ने अपनी समस्या को बताते हुये कहा कि वह इस पीड़ा को तब तक झेलती रही जब तक उनके अपने जीवन में खुशी लाने के लिए उन्हें सही मार्गदर्शन और उपचार का विकल्प नहीं मिल गया। उन्होंने बताया, ''मुझे पीरियड के दौरान दर्द होता था और मुझे इससे राहत पाने के लिए दर्दनिवारक दवा लेनी पड़ती थी और बाद में जब मैं 18 वर्ष की थी तो मेरे पेट में कुछ गांठ विकसित हो गए।'' जब उनकी जांच की गयी तो एंडोमेट्रियोसिस सिस्ट का पता चला जिसके लिए उन्हें कुछ दवाइयां दी गयी लेकिन उन दवाइयों के सेवन से उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ और अंत में सर्जरी से सिस्ट को निकाला गया। उनकी स्थिति तो शादी के बाद और भी बदतर हो गयी क्योंकि उन्हें अपने पति के साथ यौन संबंध स्थापित करने में मुश्किल आ रही थी।
दम्पति की जिंदगी दिन प्रति दिन और साल दर साल और भी दयनीय होती जा रही थी क्योंकि शालू गर्भ धारण नहीं कर पा रही थी। ऐसे दम्पति के लिए विशेषकर गोद भराई जैसे किसी भी सामाजिक समारोहों में भाग लेना अत्यंत दुखदायी होता है क्योंकि ऐसे रस्म उन्हें उनके जीवन में खालीपन की याद दिलाते हैं। लेकिन जब दंपती ने गुड़गांव फर्टिलिटी सेंटर में प्रमुख आईवीएफ विशेषज्ञ डॉ. रिचा शर्मा से मुलाकात की तो उनका जीवन खुशियों से भर गया। जांच में उनमें कम अंडे होने का पता चला। आईवीएफ प्रक्रिया के पहले प्रयास में ही शालू गर्भवती हो गयी। आईवीएफ अब एंडोमेट्रियोसिस से पीड़ित वैसी महिलाओं के लिए वरदान बन गया है जो मां बनना चाहती हैं।
गुड़गांव फर्टिलिटी केंद्र के प्रमुख भ्रूण वैज्ञानिक डॉ. समित शेखर कहते हैं कि यदि समस्या का जल्द पता नहीं लगाया गया तो समय गुजरने के साथ अंडों की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में साथ कमी आती जाती है और इस मामले में कामयाबी उम्र, गर्भाशय की ताकत और इम्ब्रियोलाॅजी पर निर्भर करती है। समस्या का जल्द पता लगाकर और सही निर्णय लेकर आप अपनी जीवन में खुशी ला सकती हैं। तो फिर आप इंतजार किस बात का कर रही हैं?


 


अपने कला संग्रह को क्षतिग्रस्त होने से बचाएं

अगर आप अपने कला संग्रहों को संभाल कर रखने के प्रति थोड़ी सावधानी बरतें तथा थोड़ी कोशिश करें तो आप कला संग्रहों को लंबे समय तक सुरक्षित रख सकते हैं। जब आप कोई कला कृति देखते हैं और जब यह आपकी संवेदना को झकझोरती है तब आप इसके खरीदे बगैर नहीं रह पाते। इससे आपके घर की शोभा में चार चांद लगता है लेकिन अगर इसे सही तरीके से नहीं रखा जाए तो इसके क्षतिग्रस्त होने की आशंका बहुत अधिक होती है। कलाकारों के साथ-साथ कला संग्राहकों की भी यही चिंता होती होती है। ऐसे कई उपाय हैं जिनकी मदद से आप इन्हें सही तरीके से संभाल कर एवं सुरक्षित रख सकते हैं तथा आप अपने कला संग्रह को होने वाली क्षति को रोक सकते हैं। 
'कला दृश्टि' की सहसंस्थापक अंजलि जैन कला संग्रहों की सुरक्षा के लिए तथा उन्हें क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए आपको कुछ टिप्स दे रही हैं। 
कला कृति को सूरज की रोशनी से दूर रखें
अल्ट्रा वायलेट किरणों आपके कला संग्रह को गंभीर रूप से क्षति पहुंचा सकती है, विशेष रूप से कागज और कपड़े पर बनी तस्वीरों को। जब आपके कमरे का इस्तेमाल नहीं हो रहा हो रहा हो तो कलाकृतियों को धूप पड़ने से रोकें या उसे ढक कर रखें। इसके अलावा रौशनी को बंद करके आप कलाकृतियों को क्षतिग्रस्त होने और पिघलने से बचा सकते हैं। 
तापमान को सामान्य रूप से स्थिर रखा जाना चाहिए।
— कलाकृतियों को ऐसे स्थान पर रखें जो दरवाजे, झरोखों और खिड़कियों से दूर हो। 
— तापमान और आर्द्रता आपस में एक साथ मिलकर बदल जाते हैं। इसलिए सामान्य नियम यह है कि तापमान 20 डिग्री फारेनहाइट होना चाहिए।
— अगर आप अधिक संख्या में कलाकृतियों को रख रहे हैं तो कोई अधिक परिष्कृत प्रणाली लागू की जानी चाहिए। 
फ्रेमिंग 
— कोई अच्छा फ्रेमर को ढूंढना निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण काम है। फ्रेमिंग अत्यंत जरूरी चीज है और कला संग्राहक को यह ध्यान में रखना चाहिए। फ्रेमिंग ही कला कृति को पूर्ण करती है और इसमें निखार लाती है। 
— कला संग्राहक को कला कृति के आकार के साथ कोई समझौता किए बगैर इसे सही तरह से फ्रेम करना चाहिए।
— इसे बिल्कुल सही तरीके से करना चाहिए तथा कोनों को सही तरह से जोड़ा जाना चाहिए। 
साफ-सफाई
— ऐसे किसी उत्पाद का उपयोग करें जो कला कृति की फिनिश को नुकसान नहीं पहुंचाए। 
— कागज के टावल का उपयोग नहीं करें, इससे खरोंच आ सकती है। 
— किसी कांच पर किसी भी क्लीनर के सीधे छिड़काव से ड्रिप एवं रिसाव हो सकता है। किसी कांच या स्पष्ट प्लास्टिक फ्रेम के नीचे रखी कलाकृति को भी धूल एवं फटने से बचाना चाहिए। 
— इसके अलावा हर सप्ताह कला कृतियों पर जीम धूल हो सावधानी के साथ हल्के-हल्के हटा दें। 
— ब्रेड, खास तौर पर जो मुलायम हो - बीच के हिस्से का इस्तेमाल सफाई के लिए हो सकता है। यह असमान्य लगता है लेकिन बहुत ही कारगर उपाय है। 
कला-कृतियों को सावधानी से संभालें
अगर आप कला कृति को दूसरी जगह ले रहा रहे हैं या उसे दूसरी जगह समायोजित कर रहे हैं तो बहुत ही कोमलता के साथ उसे संभालें। पैकिंग करते समय ध्यान रखें कि फ्रेम के सभी तरफ तीन इंच की जगह रहे। आप अपनी कलाकृति को एसिड मुक्त टिशू पेपर से लपेंटे। 


भारतीयों में प्रोस्टेट कैंसर का प्रकोप अधिक

प्रोस्टेट कैंसर पश्चिमी देशों में सर्वाधिक पहचाने जाने वाले कैसर में से एक है, लेकिन भारत में, इसकी पहचान में अक्सर देरी हो जाती है क्योंकि रोगी चिकित्सक के पास तभी जाते हैं जब इसके लक्षण प्रकट हो जाते हैं। यदि इसकी जल्द पहचान कर ली जाए, तो इसका सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है। वास्तव में, 10 में से 9 मामलों में, जल्दी पता लगने पर इलाज से लंबे समय तक के लिए बीमारी से निजात मिल सकती है। लेकिन, शीघ्र पहचान के लिए, बीमारी के बारे में और उसकी स्क्रीनिंग के तौर-तरीकों के बारे में जागरूकता काफी महत्वपूर्ण है। जीवन शैली में बदलाव आने और लोगों की औसत उम्र में वृद्धि होने के साथ, भारत में प्रोस्टेट कैंसर की दर में भी तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन इस प्रवृत्ति के प्रति जागरूकता के स्तर में इस दर से वृद्धि नहीं हुई है। पुरुषों में करीब 70 प्रतिशत प्रोस्टेट कैंसर 65 वर्ष की आयु से अधिक उम्र के पुरुषों में पहचान की जा रही है।
प्रोस्टेट कैंसर भारतीय पुरुषों में दूसरा सबसे आम कैंसर है, पहला नंबर फेफड़ों के कैंसर का है। यह मौत का छठा सबसे आम कारण है। हमने हृदय रोगों और मधुमेह पर जागरूकता के बारे काफी कुछ सुना है, लेकिन प्रोस्टेट कैंसर के बारे में अधिक बात नहीं की गयी है। भारतीयों में कैसर के प्रारंभिक लक्षणों की उपेक्षा करने या गलत समझने की प्रवृत्ति होती है, जिसके कारण इसकी पहचान और इलाज में देरी हो जाती है और दवाइयां का प्रभाव कम हो जाता है। 
उम्र, सबसे प्रमुख जोखिम कारक है। यदि 65 साल से अधिक उम्र के किसी पुरुष को बार-बार, विशेष रूप से रात में बार-बार पेशाब करने की जरूरत महसूस हो, मूत्र धारा कमजोर या बाधित हो और मूत्र या वीर्य में खून हाता हो, तो इन लक्षणों को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इन लक्षणों को प्रोस्टेट कैंसर के सबसे प्रमुख संकेत के रूप में माने जाने के बावजूद, इन लक्षणों की अक्सर अनदेखी की जाती है और बुढ़ापे को दोषी ठहराया जाता है।''
मूत्र रोग विषेशज्ञों का कहना है कि चूंकि कैंसर स्क्रीनिंग की सुविधा भारत में नियमित तौर पर उपलब्ध नहीं है, इसलिए हमारा मुख्य उद्देश्य हमारे मरीजों में प्रोस्टेट कैंसर की जल्दी पहचान करने के लिए स्क्रीनिंग शुरू करना होना चाहिए। इसके तहत 50 साल से अधिक उम्र के पुरुषों में साल में एक बार सीरम पीएसए टेस्ट के नाम से जाना जाने वाला सामान्य रक्त परीक्षण शामिल है और कम उम्र में प्रोस्टेट कैंसर के इतिहास वाले रिश्तेदारों जैसे अधिक जोखिम वाले पुरुषों  यह जांच 40 साल की उम्र में शुरू कर देनी चाहिए।
एक बार जब प्रोस्टेट कैंसर की पहचान कर ली जाती है, तो दवा और सर्जरी से इसका इलाज किया जाता है। सर्जरी तब की जाती है जब रोगी को दवा से कोई फायदा नहीं होता है।


प्रीहाइपरटेंशन होने पर हो जाएं सतर्क

यह उच्च रक्तचाप के पूर्व की वह अवस्था है जब रक्तचाप सामान्य से अधिक हो जाता है, लेकिन उतना अधिक नहीं होता है जितना उच्च रक्तचाप में हो जाता है। यह एक प्रकार की चेतावनी है कि आपका रक्तचाप बढ़ रहा है।
रक्तचाप आपका रक्त आपकी धमनियों की दीवारों पर कितना दबाव डाल रहा है, इसे मापने का एक उपाय है। यह दिल का दौरा, स्ट्रोक, किडनी फेल्योर, और स्वास्थ्य से संबंधित अन्य समस्याओं का जोखिम बढ़ाता है।
सामान्य रक्तचाप 120/80 से कम होता है। उच्च रक्तचाप 140/90 या इससे अधिक होता है। प्रीहाइपरटेंशन 120/80 और 140/90 के बीच होता है। आपका रक्तचाप तब भी बहुत अधिक हो सकता है, जब दोनों नंबरों में से कोई एक नंबर भी अधिक हो।
रक्तचाप ऊपर कैसे जाता है:
पर्याप्त व्यायाम नहीं करना और वजन का अधिक होना। बहुत ज्यादा सोडियम (नमक) वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करने और बहुत अधिक शराब पीने से भी रक्तचाप बढ़ सकता है।
लक्षण:
सामान्य से कुछ अधिक रक्तचाप होने पर कोई लक्षण पैदा नहीं होते हैं। अधिकतर लोग स्वस्थ महसूस करते हैं। उन्हें रूटीन परीक्षण या किसी अन्य समस्या के इलाज के लिए चिकित्सक के पास जाने पर पता चलता है कि उनका रक्तचाप सामान्य से अधिक है।
डायग्नोसिस
आप सभी को रक्तचाप कफ की मदद से साधारण परीक्षण कराकर अपना रक्तचाप पता करने की जरूरत है। रक्तचाप को दो या अधिक बार अलग-अलग समय पर मापा जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि रक्तचाप सामान्य से अधिक है। इसका कारण यह है रक्तचाप दिन भर ऊपर और नीचे होता रहता है।
उपचार:
कई लोग आहार, व्यायाम, और जीवन शैली में अन्य परिवर्तन कर अपने रक्तचाप को कम कर सकते हैं। यदि इन उपायों से आपका रक्तचाप पर्याप्त रूप से कम नहीं हो रहा है, तो आप दवा ले सकते हैं। लेकिन चूंकि आप अपने रक्तचाप का इलाज इसके बहुत अधिक होने से पहले ही कर रहे हैं, इसलिए आप सभी को जीवन शैली में परिवर्तन करने की जरूरत हो सकती है।
यहाँ कुछ उपाय दिये गये हैं जिनसे आपको अपने रक्तचाप को सामान्य करने में मदद मिल सकती है।
— धूम्रपान या अन्य तंबाकू उत्पादों का सेवन न करें।
— यदि आप मोटापे के शिकार हैं तो अपना वजन कम करें।
— स्वस्थ आहार का सेवन करें। वैसे खाद्य पदार्थों को सेवन करें जिनमें कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नीशियम अधिक हों।
— नमक के सेवन में कमी लायें। अच्छे स्वास्थ्य के लिए, कम नमक का सेवन सबसे अच्छा है। अधिकतर लोगों को एक दिन में 2,300 मिलीग्राम (एमजी) से अधिक सोडियम नहीं खाना चाहिए। सूप, फ्रोजेन भोजन, और पैकेज्ड स्नैक्स जैसे संसाधित और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों का सेवन सीमित मात्रा में करना चाहिए।
— शराब के सेवन में कमी लाएं। यदि षराब पीने के बाद आपमें रक्तचाप बढ़ने की प्रवृत्ति है तो आप शराब के सेवन से बचें।
— सप्ताह में कम से कम ढाई घंटे मध्यम गतिविधि वाले व्यायाम करने की कोशिश करें।


 


बढ़ी हुई प्रॉस्टेट ग्रंथि के खतरों और जटिलताओं से रहें सावधान

प्रोस्टेट वृद्धि, बिनाइन प्रोस्टेटिक हाइपरप्लेसिया (बीपीएच) के नाम से भी जाना जाता है और यह पुरुषों की सबसे अधिक प्रचलित स्वास्थ्य समस्याओं में से एक है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब प्रोस्टेट फैल जाता है और मूत्र मार्ग पर दबाव डालने लगता है, जिसके कारण पेशाब करने और मूत्राशय से संबंधित समस्याएं पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। पेशाब करने की तत्काल जरूरत महसूस होने (नाॅक्टुरिया) पर रात में जागने के कारण पुरुष की रात की नींद पूरी नहीं होती है और उसका जीवन बाधित होता है। 
प्रोस्टेट लगभग अखरोट के आकार की एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण ग्रंथि होती है। चूंकि इस स्थिति में मूत्रमार्ग के उपरी हिस्से के चारों ओर का हिस्सा प्रभावित होता है, इसलिए इसमें पेशाब करने की तत्काल जरूरत महसूस होने, बार-बार पेशाब करने और पेशाब करते समय दर्द होने जैसे लक्षण हो सकते हैं।
उम्र बढ़ने के साथ अधिकतर पुरुषों में प्रोस्टेट ग्रंथि का आकार बढ़ जाता है। बीपीएच से पीड़ित पुरुषों में इसके लक्षण आम तौर पर 40 साल की उम्र के बाद शुरू होते हैं। 60 साल की उम्र तक एक तिहाई पुरुषों और 80 साल की उम्र तक करीब आधे पुरुषों में सामान्य से गंभीर लक्षणों का अनुभव होता है। 
हालांकि बीपीएच घातक नहीं होता है, लेकिन इसके लक्षणों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ये अधिक गंभीर स्थिति का सूचक होते हैं। यदि इनका इलाज नहीं कराया गया, तो प्रोस्टेट की वृद्धि मूत्राशय में रुकावट और गुर्दे की विभिन्न समस्याएं पैदा कर सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, पुरुषों को अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करना चाहिए जिससे बीपीएच के लक्षणों को कम करने में मदद मिल सकती है। मूत्राशय की परेशानी से बचने के लिए कैफीन और शराब का सेवन भी कम करना चाहिए। पुरुषों को कब्ज और पेल्विक फ्लोर की मांसपेशियों पर दबाव से बचने के लिए अपने वजन के साथ-साथ आहार पर भी निगरानी रखनी चाहिए।
बीपीएच की पहचान अक्सर डिजिटल गुदा परीक्षण नाम प्रास्टेट ग्रंथि के शारीरिक परीक्षण और प्रोस्टेट- स्पेशिफिक एंटीजेन परीक्षण नामक रक्त परीक्षण से किया जाता है। रक्त में पीएसए के अधिक स्तर होने पर कभी-कभी प्रोस्टेट कैंसर की भी जांच की जाती है, लेकिन बहुत कम मामलों में ऐसा होता है। प्रोस्टेट में वृद्धि के कारण भी पीएसए का स्तर उंचा हो जाता है।
बीपीएच का इलाज जीवन शैली में परिवर्तन और दवा दोनों से किया जाता है। बढ़े हुए प्रोस्टेट का इलाज दवाओं से किया जा सकता है, लेकिन कुछ मामलों में सर्जरी भी आवश्यक हो सकती है। हालांकि, बढ़े हुए प्रोस्टेट के इलाज के लिए, पूरे प्रोस्टेट को हटाने की जरूरत नहीं होती है। वास्तव में, प्रोस्टेट के बढ़े हुए उस हिस्से को हटाने के लिए लेजर सर्जरी की जाती है जो मूत्र मार्ग पर दबाव डाल रहा होता है। इससे रोगी को राहत मिल जाती है।


रक्त एवं अ​स्थि मज्जा प्रत्यारोपण

अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण (बीएमटी) एक प्रक्रिया है जिसमें रोगग्रस्त या क्षतिग्रस्त अस्थि मज्जा कोशिकाओं के स्थान पर स्वस्थ लोगों से अस्थि मज्जा कोशिकाओं को लेकर वहां प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया वैसी स्थिति में की जाती है जब रोगी पर मानक दवाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रक्रिया रोगी को रेडियेशन उपचार के साथ या इसके बगैर हाई डोज की कीमोथेरेपी के बाद की जाती है।
अस्थि मज्जा क्या है?
अस्थि मज्जा हड्डियों के अंदर का स्पंजनुमा ऊतक है जो श्वेत रक्त कोशिकाओं, लाल रक्त कोशिकाओं और प्लेटलेट्स सहित रक्त कोशिकाओं को उत्पन्न करता है। अस्थि मज्जा में कोशिकाएं सामान्य रूप से रक्त कोशिकाओं में विकसित होती है जिन्हें स्टेम सेल कहा जाता है। जब अस्थि मज्जा क्षतिग्रस्त होती है, तब यह लंबे समय तक इन कोशिकाओं को पैदा नहीं करती है। इसके परिणामस्वरूप, कमजोरी, रक्ताल्पता, संक्रमण, अत्यधिक रक्तस्राव और यहां तक कि मौत भी हो सकती है।
रोग का इलाज 
ल्यूकेमिया, लिम्फोमा, मल्टिपल मायलोमा जैसे कैंसर, कुछ ठोस ट्यूमर, अप्लास्टिक एनीमिया और थैलेसीमिया जैसी स्थितियों का बीएमटी से सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है। 
अस्थि मज्जा ही क्यों?
अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के तहत वैसी अस्थि मज्जा को प्रतिस्थापित किया जाता है जो रोगग्रस्त होने के कारण ठीक से काम नहीं कर रही हो, या कीमोथेरेपी या रेडियेषन के कारण उसे जान-बूझकर नश्ट कर दिया गया हो (हटा दिया गया हो)। ज्ञातव्य है कि कई तरह के कैंसर में, दाता की श्वेत रक्त कोशिकाएं किसी भी शेष कैंसर की कोशिकाओं को मार सकती है। इसी प्रकार संक्रमण से लड़ने के लिए ष्वेत कोशिकाएं बैक्टीरिया या वायरस पर हमला करती हैं।
अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के प्रकार
— ऑटोलॉगस अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण: आपको उच्च खुराक की कीमोथेरेपी या विकिरण उपचार देने से पहले स्टेम कोशिकाओं को निकाल दिया जाता है। स्टेम कोशिकाओं को एक विशेष फ्रीजर में जमा किया जाता है। उच्च खुराक की कीमोथेरेपी के बाद, आपकी स्टेम कोशिकाएं सामान्य रक्त कोशिकाओं को बनाने के लिए आपकेे शरीर में वापस डाल दी जाती हैं। इसे रेस्क्यू प्रत्यारोपण भी कहा जाता है।
— एलोजेनिक अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण: जिस व्यक्ति से स्टेम कोशिकाओं को निकाला जाता है, उसे दाता कहा जाता है। ऐसे मामले में, दाता के जीन को आपके जीन से कम से कम आंशिक रूप से मेल खाना चाहिए। दाता के जीन का आपके जीन के साथ बेहतर तरीके से मैच होगा या नहीं, इसे देखने के लिए विशेष परीक्षण किये जाते हैं। भाई या बहन से सबसे अच्छा मैच होने की संभावना होती है। कभी- कभी माता-पिता, बच्चों, अन्य रिश्तेदारों और यहां तक कि असंबंधित दाताओं से भी अच्छा मैच हो सकता है।
अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण आमतौर पर वैसे अस्पताल में किया जाता है जो इस तरह के उपचार में कुशल हो तथा वहां इसकी सुविधाएं मौजूद हो। आपको केंद्र में विशेष अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण इकाई में रखा जाता है। इससे आपको संक्रमण होने की संभावना कम हो जाती है। यह चरणबद्ध चिकित्सा प्रक्रिया है और इसमें तीन सप्ताह तक अस्पताल में रहने की आवश्यकता होती है।


मूत्र मार्ग संक्रमण  

मूत्र मार्ग संक्रमण अथवा यूटीआई जीवाणुओं से होने वाले सबसे आम संक्रमणों में से एक है जिससे गुर्देए मूत्रमार्ग, मूत्राशय और मूत्रमार्ग प्रभावित हो सकते हैं। और यदि आप महिला हैं, तो आपको मूत्र मार्ग संक्रमण होने की अधिक संभावना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में मूत्रमार्ग छोटा होता हैए और यह गुदा के करीब होता हैए जिसके कारण जीवाणु के मूत्राशय में चले जाने की अधिक संभावना होती है।
कारण
मूत्र मार्ग संक्रमण का सबसे आम कारण एस्चेरीचिया कोलाई अथवा ई कोलाई नामक बैक्टीरिया है जो गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल या जीआई ट्रैक्ट में आम तौर पर पाया जाता है। इसके अन्य जोखिम कारकों में महिला शरीर की रचनाए यौन संभोग, मधुमेह, मोटापा, और पारिवारिक इतिहास शामिल हैं।
लक्षण
मूत्र मार्ग संक्रमण के संकेत हमेशा प्रकट नहीं होते हैं, लेकिन जब इसके संकेत मिलते हैं, तो रोगी में निम्नलिखित लक्षण विकसित हो सकते हैं —
— जोर से और बार—बार पेशाब करने की जरूरत महसूस होना
— पेशाब करते समय दर्द या जलन महसूस होना
— बार—बार थोड़ी मात्रा में पेशाब होना
— धुंधला, गहरे रंग का, खून युक्त या तेज दुर्गंध का पेशाब होना
— प्युबिक हड्डी के आसपास दर्द होना
— कमर में दर्द या दबाव
— उलटी अथवा मितली
— बुखार, ठंड और थकान
निदान
मूत्र मार्ग संक्रमण की पहचान सरल मूत्र परीक्षण या यूरिनलाइसिस के द्वारा की जा सकती है। संक्रमण की पुष्टि यूरिन कल्चर की रिपोर्ट से की जा सकती है जिसमें पर्याप्त संख्या में बैक्टीरिया के विकास को दर्शाया गया हो और जिससे संक्रमण होने का संकेत मिलता हो। 
उपचार और रोकथाम
यूटीआई के लिए आम उपचार एंटीबायोटिक्स है। इसके अलावाए मूत्र मार्ग संक्रमण होने के जोखिम को रोकने या कम करने के लिए आप कई चीजें कर सकते हैं। इनमें शामिल हो सकते हैं :
— अपने शरीर से बैक्टीरिया को बाहर निकालने में मदद करने के लिए बहुत सारे पानी पीना
— उन पेय पदार्थों से परहेज करना जो आपके मूत्राशय को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जैसे शराब, कॉफी, शीतल पेय
— सेक्स के तुरंत बाद पेशाब करना
— पर्याप्त स्वच्छता बनाए रखना और जननांग क्षेत्र को साफ रखना
— जननांग क्षेत्र में किसी भी सुगंधित उत्पादों का उपयोग नहीं करना
— मूत्रमार्ग के आसपास के क्षेत्र को सूखा रखने के लिए सूती अंडरवियर और ढीले कपड़े पहनना
— जब तक आपके संक्रमण का एंटीबायोटिक्स से इलाज नहीं होता हैए तब तक आप अपनी परेशानी को कम करने के लिए कदम उठा सकते हैं। लेकिन अगर किसी व्यक्ति को संदेह होता है कि उन्हें मूत्र मार्ग संक्रमण हो सकता है तो डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए।


 


खर्राटा : कोई मजाक नहीं 

खर्राटे लेने वाले किसी व्यक्ति के साथ एक ही कमरे में रात गुजारना निश्चित रूप से दुःस्वप्न है। और इससे भी अधिकए यह उस व्यक्ति के लिए खतरे की घंटी है जो खर्राटे लेता है। क्योंकिए खर्राटे लेने वाले बहुत से लोग वास्तव में रात के मध्य में ऑक्सीजन की आपूर्ति में अचानक कमी का अनुभव करते हैं। और यह जल्द ही उनके लिए अनहोनी कर सकता है। इस स्थिति को स्लीप एप्निया के नाम से जाना जाता है।
क्यूआरजी हेल्थ सिटी के ईएनटी के सीनियर कंसल्टेंट डॉ. अनिल ठुकराल बताते हैं, ''खर्राटे तब आते हैं जब नाक, मुंह, गले में कुछ बाधा होती है जो सोने के दौरान सांस को रोकती है और एक अप्रिय ध्वनि पैदा करती है। सांस लेने में अचानक रुकावट इन यांत्रिक अवरोध वाले कारणों के कारण हो सकती है या कुछ न्यूरोलॉजिकल कारणों के कारण भी हो सकता हैए जो व्यक्ति में दिल के दौरेए स्ट्रोक या उच्च रक्तचाप की जटिलताओं से पीड़ित होने की संभावना को बढ़ा सकता है। यही कारण है कि खर्राटे को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए बल्कि इसका इलाज कराना चाहिए।''
क्यूआरजी हेल्थ सिटी के विशेषज्ञ स्लीप डिसआर्डर की व्यापक रूप से पहचान और इलाज करने के लिए आपके साथ मिलकर काम करते हैं, ताकि आपको गुणवत्ता वाली नींद मिल सके। सर्जन पहले खर्राटे लेने वाले व्यक्ति के पूरे ऊपरी वायुमार्ग का मूल्यांकन करेंगे और उसके बाद आपको सर्जरी रहित और सर्जरी के कई विकल्प देंगे और उनमें से आपको उपयुक्त विकल्प का चयन करने के लिए कहेंगे। इसके कारण की पहचान करने के लिए स्लीप एंड स्लीप एंडोस्कोपी जैसे उन्नत परीक्षण किए जाते हैं।
गैर सर्जिकल उपचार — उपचार को उद्देश्य श्वास मार्ग में बाधा को दूर करना है जिसके लिए आवश्यकता के अनुसार चिकित्सा या शल्य चिकित्सा उपचार के विकल्प दिये जाते हैं। इनमें विशेष तकिएय जबड़े को अलाइन रखने या नाक खोलने के लिए उपकरणए सीपीएपी जैसी मशीनें जो नाक और गले को खुला रखने के लिए उनमें लगातार हवा फेंकती हैं और कुछ दवाइयां शामिल हैं। हालांकिए ये सभी चिकित्सा उपचार खर्राटे या स्लीप एप्निया के हल्के से मध्यम मामलों के लिए हैं।
सर्जिकल उपचार — यूपीपीपी या गले के पीछे से ऊतकों को हटाना एक प्रकार की सर्जरी है जो नाक की टेढ़ी हड्डियों को सही करने और नाक से अतिरिक्त ऊतकों को हटाने के लिए भी की जाती है। इसमें टान्सिल को हटाना और जीभ के आकार को कम करना भी शामिल हो सकता है।
खर्राटों के उपचार से आपको और आपके साथी को शांत और आरामदायक नींद का आनंद लेने और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के विकास को रोकने में मदद मिल सकती है।


महिलाओं में आम है पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम 

पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम महिलाओं की प्रजनन आयु में होने वाली सबसे सामान्य समस्या है। मौजूदा समय में इस आयु वर्ग की 9 से 22 प्रतिशत महिलाएं इस समस्या से प्रभावित होती हैं। इस समस्या का पता खास तौर पर तब लगता है जब महिलाएं निम्नलिखित में से कोई लक्षण या शिकायत लेकर हमारे पास आती हैं। ये लक्षण हैं — 
— अनियमित मासिक चक्र या देर से मासिक चक्र जो 35 दिनों से लेकर तीन महीने में एक बार होता है। 
— अत्यधिक मुँहासे या चेहरे के बाल या 
— बांझपन 
—  अत्यधिक वजन बढ़ना या वजन कम नहीं होना 
इन लक्षणों के अलावा कुछ महिलाएं गले के आसपास बहुत अधिक काली वेल्विटी त्वचा से पीड़ित हो सकती हैं।  
इन लक्षणों के साथ—साथ रोगी को बार—बार गर्भपात की समस्या भी हो सकती है और बाद की उम्र में मधुमेह और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर भी हो सकता है। हालांकि यह विकार बहुत ही आम है लेकिन इसका सही ढंग से इलाज जरूरी है। पीसीआडी की जांच कुछ खास परीक्षणों से हो सकती है जैसे हार्मोन जांच जैसे रक्त परीक्षण और अंडाशय के अल्ट्रासाउंड आदि। पीसीओडी की पुष्टि हो जाने पर आम तौर पर इसका इलाज दवाइयों से ही हो जाता है और एक प्रतिशत से भी कम मरीजों को सर्जरी की जरूरत पड़ती है। 
इस समस्या के उपचार के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण सलाह जीवन शैली में बदलाव है। चूंकि पीसीओडी को अब मेटाबोलिक विकार माना जाता है इसलिए मरीज को फास्ट फुड जैसे जंक फुड से दूर रहना चाहिए तथा पर्याप्त सब्जियों और सलाद से भरपूर आहार लेना चाहिए तथा नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। ये सलाह इस बीमारी के उपचार के लिए महत्वपूर्ण हैं। जीवन शैली में बदलाव के अलावा पीसीओडी की जो मरीज अधिक वजन की हैं उनको अपना वजन सामान्य करना चाहिए और कई बार इसके लिए मोटापा घटाने वाली बैरिएट्रिक सर्जरी की भी जरूरत हो सकती है। 
मरीजों को क्या दवाइयां दी जाएगी यह अलग—अलग रोगी के लिए अलग—अलग होती है, जो मरीजों की प्राथमिकताओं पर निर्भर होती है। बांझपन से ग्रस्त मरीजों को ऐसी दवाइयों की जरूरत हो सकती है जिससे अंडाशय से अंडे के उत्सर्जन में मदद मिले और मरीज गर्भ धारण कर सके। उन्हें मधुमेह में इस्तेमाल होने वाली मेटफार्मिन जैसी दवाइयां दी जा सकती है जिससे इंसुलिन का स्तर घटता है। गंभीर मामले में लैप्रोस्कोपिक ओवेरियन ड्रिलिंग की भी जरूरत पड़ सकती है। यह ड्रिलिंग स्त्री रोग विशेषज्ञ द्वारा की जाती है जिसमें की होल सर्जरी के माध्यम से अल्ट्रासाउंड के जरिए पोलीसिस्ट को देखते हुए ड्रिलिंग की जाती है। बहुत अधिक गंभीर मामले में अंतिम उपाय के तौर पर आईवीएफ भी किया जा सकता है। 
अगर मरीज के प्रजनन का मुददा नहीं है और मरीज को अनियमित मासिक स्राव तथा अत्यधिक मुँहासे या चेहरे के बालों जैसी परेशानी है तो मरीज के मासिक स्राव को नियमित करने तथा पीसीओएस मरीजों के शरीर में रक्त के साथ संचारित होने वाले अत्यधिक पुरुष हार्मोन को कम करने के लिए कुछ ओसी पिल्स दी जा सकती हैं। साथ में मरीज को इफ्लोनाइथिन जैसी कुछ फेसियल क्रीम लगाने की सलाह दी जा सकती है ताकि चेहरे पर के बालों का विकास कम हो जाए। जरूरत पड़ने पर लेजर के जरिए चेहरे पर के बालों को भी हटाया जा सकता है। पीसीओडी के सभी मामलों में मरीजों के आत्मविश्वास में कमी आती है तथा कई महिलाओं में डिप्रेशन की समस्या भी होती है और इसलिए इस बीमारी का इलाज सही तरीके से किया जाना आवश्यक है ताकि मरीजों में आत्मविश्वास पैदा हो वे जब संतान सुख हासिल करना चाहें उन्हें मां बनने में मदद हो सके।


बढ़ती उम्र की समस्याओं को समय से पहले ही रोकें

उम्र बढ़ने के साथ—साथ आम तौर पर उच्च रक्तचाप, मधुमेह, नजर की कमजोरी और घुटने की समस्याएं जैसे कई तरह ही स्वास्थ्य समस्याएं होने लगती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि आपका ओस्टियोआर्थराइटिस का पारिवारिक इतिहास हैए यदि आपका वजन अधिक है या आपके घुटने में किसी प्रकार की चोट लगी हैए तो आपके घुटने खराब होने की अधिक संभावना हो सकती है। ऑस्टियोआर्थराइटिसए जिसका शाब्दिक अर्थ होता है घुटने के कार्टिलेज को क्षति पहुंचना। इसमें आम तौर पर घुटने में दर्द होता है और रोगी का चलना—फिरना कम हो जाता है। इसके कारण उम्र बढ़ने के साथ घुटना प्रत्यारोपण कराने की जरूरत होती है। लेकिन कम उम्र में ही सावधानी बरतकर जितना संभव हो सके इस समस्या से बचा जा सकता है या या कम से कम टाला जा सकता है। 
विशेषज्ञों का कहना है कि चलने—फिरने में सुधार करके, मांसपेशियों की ताकत को बढ़ाकर और वजन को नियंत्रित कर दर्द को कम करने में मदद मिल सकती है और आपके घुटने कम उम्र के घुटने की तरह महसूस हो सकते हैं।
यहां कुछ उपाय बताये गये हैं जिन पर अमल करने पर आपके घुटने पर उम्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अपने घुटने के जोड़ों को किसी प्रकार की क्षति से बचाकर आप घुटने के दर्द में देरी कर सकते हैं, और यहां तक कि इसे पूरी तरह से रोक भी सकते हैं।
मांसपेशियों को सुदृढ़ करें 
मांसपेशियों की ताकत को बढ़ाने से घुटने के जोड़ स्थिर रहते है और मांसपेशियों को आपके घुटने के तनाव को अवशोषित करने में मदद मिलती है। मांसपेशियों को जांघों में क्वाड्रिसेप्स और हैमरस्ट्रिंग की मदद से सुदृढ़ करना शुरू करना चाहिएए लेकिन इसे यहीं तक समाप्त नहीं कर देना चाहिए। घुटने के कार्य को अधिकतम करने के लिए कूल्हे और मुख्य मांसपेशियों को मजबूत करना महत्वपूर्ण है।
घुटने को मोड़े नहीं क्योंकि इससे घुटने पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है। घुटने मोड़़ कर बैठने पर घुटने के नरम उपास्थि मेनस्कस को क्षति पहुंच सकती है। अपने घुटनों को लंबे समय तक पूरी तरह से मोड़कर रखने से बचें।
वजन कम करना 
यदि आपका वजन अधिक है तो आपका हर अतिरिक्त किलोग्राम वजन आपके घुटने के जोड़ों पर 4 किलोग्राम अतिरिक्त दबाव डालेगा। अपने बॉडी मास इंडेक्स को स्वस्थ रेंज में रखने से आपके घुटने बेहतर महसूस करेंगे। बीएमआई वजन को मापने का एक उपाय है जिसमें आपकी ऊंचाई और वजन दोनों का ध्यान रखा जाता है। 
गति की सीमा बढ़ाएं 
अधिकांश लोगों की जोड़ उम्र के साथ कठोर हो जाते हैं और इस बात के स्पष्ट सबूत मौजूद हैं कि बेहतर गति वाले लोगों में घुटने के दर्द के लक्षण कम होते हैं, खासकर अगर वे घुटने को सीधा रखते हैं। इसलिए घुटने को सीधा रखकर काम करना महत्वपूर्ण है। घर में, बिस्तर पर या फर्श पर बैठें, टखने के नीचे एक तकिया रखें, और अपनी पैर की मांसपेशियों का उपयोग कर धीरे—धीरे घुटने को नीचे लाएं।
फुट वियर
यदि आप ऐसी नौकरी या काम करते हैं जिसमें आपको कठोर सतहों पर खड़े रहना पड़ता है तो कुशन वाले जूते पहनें, और बागवानी करने के दौरान बैठने के लिए कम उंचाई वाली स्टूल का उपयोग करें।
निम्न चीजों से बचें  
जॉगिंग और एरोबिक्स कक्षाओं जिनमें कूदना शामिल हो, ऐसी उच्च प्रभाव वाली गतिविधियों से बचें।
आहार 
अपने दैनिक आहार में फल और सब्जियां शामिल करें क्योंकि इसमें एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती प्रदान करते हैं और इंफ्लामेशन से लड़ते हैं। परिष्कृत और संसाधित वस्तुओंए कार्बोहाइड्रेटए ट्रांस और संतृप्त वसा के सेवन से बचें क्योंकि वे तुरंत इंफ्लामेशन को बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं। दही का सेवन करें क्योंकि इसकी संतुष्टि प्रदान करने, ठंडा और एंटी—इंफ्लामेट्री गुण इंफ्लामेशन से निपटने के लिए उपयुक्त हैं। यह स्वस्थ, मजबूत हड्डियों के लिए कैल्शियम का एक उत्कृष्ट स्रोत भी है।
सर्जरी
घुटने के ऑस्टियोआर्थराइटिस के लिए सभी गैर शल्य चिकित्सा उपचारों के विफल हो जाने के बाद ही घुटना प्रत्यारोपण पर विचार किया जाना चाहिए। रोबोट की मदद से टोटल नी रिप्लेसमेंट के बाद आम तौर पर रोगी की जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। दुनिया भर में अब ज्वाइंट रिप्लेसमेंट में मैनुअल तकनीक की बजाय अत्यधिक सटीक रोबोटिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। घुटना या कुल्हा प्रत्यारोपण कराने वाले रोगियों को लंबे समय तक स्थायी संतोषजनक परिणाम देने के लिए सटीक अलाइनमेंट और लिगामेंट में सही संतुलन महत्वपूर्ण है जो कि रोबोटिक नी रिप्लेसमेंट सर्जरी के द्वारा संभव है।
घुटना प्रत्यारोपण पार्शियल या टोटल नी रिप्लेसमेंट हो सकता है। पार्शियल नी रिप्लेसमेंट में घुटने के सभी चार लिगामेंट को संरक्षित रखा जाता है और सर्जरी रोबोटिक आर्म की मदद से छोटे चीरा के माध्यम से किया जा सकता है। रोगी ऑपरेशन के अगले दिन घर चला जाता है। रोबोटिक टोटल नी रिप्लेसमेंट में घुटना पूरी तरह से अलाइन और संतुलित रहता है ताकि यह अधिकतम कार्य कर सके।


खांसी रोकने के लिए इन घरेलू उपायों को आजमाएं

खांसी को तुसिस के नाम से भी जाना जाता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए हमारा शरीर उन पदार्थों को बाहर निकालता है जो श्वसन या वायु मार्ग में परेशानी पैदा करते हैं। जब नाक या मुंह से हवा को फेफड़े के अंदर प्रविश्ट करने के लिए सांस लेते हैं तो हवा इसी वायु मार्ग से होकर फेफड़े में जाती है।  
श्वसन मार्ग या वायु मार्ग में सबसे अधिक परेशानी पैदा करने वाली चीजें हैं - धुंआ, म्युकस, पराग कण, मोल्ड या धूल जैसे एलर्गन। इसके अलावा कुछ चिकित्सा संबंधी चीजें एवं दवाइयां भी वायु मार्ग में मौजूद नर्व के लिए परेषानी पैदा करती हैं और इसके कारण खांसी होती है। 
खांसी स्वैच्छिक या अनैच्छिक प्रक्रिया हो सकती है। खांसी, तीव्र, मध्यम एवं पुरानी हो सकती है, जो इस बात पर निर्भर होती है कि खांसी कितना समय रहती है। 
तीव्र खांसी तीन हफ्तों से भी कम समय रहती है और आम तौर पर सर्दी या अन्य संक्रमण जैसे साइनुसाइटिस या निमोनिया के कारण होती है।
मामूली या कम तीव्र खांसी भी तीन से आठ सप्ताह रहती है और यह आरंभिक ठंड या ष्वसन संबंधी संक्रमण के खत्म हो जाने के बाद भी बनी रहती है। 
पुरानी खांसी आठ सप्ताह से अधिक समय तक रह सकती है और यह गैस्ट्रोइसोफेगल रिफ्लक्स डिजिज (जीईआरडी), साइनस संक्रमण या एलर्जी के कारण नाक से तरल निकलने या दमा, क्रोनिक आब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिजिज (सीओपीडी), पल्मनरी फाइब्रोसिस, और इंटरस्टिशियल लंग डिजिज जैसी स्थितियों के कारण हो सकती है। 
 खांसी के तीन चरण हैंः
1. साँस लेना
2. वोकल कार्ड्स के बंद होने के साथ गले एवं फेफडे पर अधिक दवाब पड़ना 
3. जब वोकल कार्ड्स खुलता है तो हवा की बहुत अधिक निकासी, जिसके कारण खांसने की ध्वनि निकलती है।
कफ सिरप
भारत में सबसे अधिक बिकने वाली पांच दवाइयों में कफ सिरप भी षामिल है। कफ सिरफ का इस्तेमाल खांसी के इलाज के लिए होती है। खांसी कोई रोग नहीं है बल्कि यह षरीर से धूल एवं बाहरी रोगाणुओं को बाहर निकालने की प्रक्रिया है। 
खांसी शरीर की रक्षा के लिए स्वतः तैयार किया गया तंत्र है। और अगर हम कफ सिरप ले रहे हैं, तो इसका मतलब है कि हम प्राकृतिक प्रक्रिया में बाधा डाल रहे हैं और खुद को संक्रमण के खतरे में डाल रहे हैं। 
हमारे देश में हर दिन इस भ्रांति के कारण लाखों चम्मच कफ एवं कोल्ड सिरप पी जाते हैं इससे उन्हें बीमारी से निजात मिलेगा लेकिन ठंड एवं खांसी से बचाने के नाम पर बेची जाने वाली ये दवाइयां कोई फायदा पहुंचाने के बजाय नुकसान करती है क्योकि इससे अंतर्निहित बीमारी का इलाज नहीं होता है। 
बुखार और दस्त की तरह, खांसी एक अंतर्निहित बीमारी की ध्यान आकर्षित करने का एक प्रारंभिक संकेत है। किसी भी व्यक्ति के लिए कफ सिरप हानिकारक होती है क्योंकि इसमें एक से अधिक घटक ऐसे होते हैं जो हर किसी के लिए अच्छा नहीं होता है।
विकसित देशों में, अदालतों ने कफ सिरप पर प्रतिबंध लगा दिया है। कोई भी सिरप के हमारे फेफड़े में जाना चाहिए लेकिन कफ सिरप आंत में जाती है।
सभी कफ के सिरप में सिडेटिव होते हैं और इसलिए इससे नषे की लत लगती है। वे बच्चों की हृदय गति में भी वृद्धि करते हैं और श्वास की दर भी कम कर देते हैं।
खांसी रोकने के घरेलू उपचार:
— एक कटोरा बहुत गर्म पानी में ब्लैकसीड आयल या मेंथोल क्रिस्टल डालकर उसके भाप की सांस लें। यह किसी भी तरह की खांसी को सुखाने का एक समय-सिद्ध तरीका है।
— गर्म शावर या गर्म पानी से स्नान करने से भी मदद मिलती है।
— ब्रीदिंग एक्सरसाइज (धीमी और गहरी सांस लेने) से भी पीड़ितों को बहुत लाभ पहुंचाता है।
— खाद्य और पेय: गीली खांसी के लिए, मरीज को चिकन और अंडे, लहसुन और प्याज, अदरख, काली मिर्च और हल्दी जैसे गर्म मसालों से युक्त गर्म और सूखे खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए। चावल और दूध के व्यंजनों से बचा जाना चाहिए। सूखी खांसी के लिए, गर्म और नमक वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए, जैसे मांस और पालक। इन्हें गर्म मसालों का इस्तेमाल कर स्वादिष्ट बनाया जा सकता है।
— आधे चम्मच शहद में नींबू की कुछ बूंदों और एक चुटकी दालचीनी मिलाकर सिरप बना लें। इसके सेवन से खांसी में तुरंत फायदा होगा।
— थोड़ी-थोड़ी देर पर हल्का गर्म पानी पीते रहें।
— सोने से पहले एके गिलास हल्दी वाला गर्म दूध पीएं।
— गर्म पानी में नमक डालकर गरारा करें।
— तुलसी, अदरक और काली मिर्च वाली मसालेदार चाय पीएं।
— आंवला का सेवन करें।
— नींबू का रस, फ्लेक्स बीज और शहद का मिश्रण तैयार कर इसका सेवन करें।
— अदरक और नमक का सेवन करें। 
— गुड़, काली मिर्च और जीरा से बने पेय का सेवन करें।
— गाजर का रस पीएं।
खांसी एक स्वास्थ्य समस्या की तुलना में परेशानी अधिक साबित होती है। यह ठंड, एलर्जी या धूम्रपान के कारण पैदा होने वाली एक अनचाही समस्या है। खांसी, खासतौर से बच्चे में खांसी, उनके जीवन की दैनिक गतिविधियों और नींद में व्यवधान पैदा करती है, और सर्दी और फ्लू से जुड़े सूक्ष्म जीवों को फैलाने का खतरा पैदा करती है।
अधिकतर खांसी कुछ दिनों के बाद ठीक हो जाती है, जब तक कि वे हार्टबर्न या हार्ट फेल्योर जैसी मौजूदा बीमारी का संकेत न दें। पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ पीकर हाइड्रेटेड रहने की कोषिष करें। खास तौर पर यदि सूखी खांसी है, तो स्टीम इनहेलेशन और ब्रीदिंग एक्सरसाइज जैसे सरल उपायों पर अमल करें। इसके अलावा भरपूर नींद लेने की भी सलाह दी जाती है। यदि खांसी बनी रहती है, तो शहद के साथ हर्बल पदार्थों का उपयोग करने की सलाह दी जाती है।


अब रोबोट करेगा ज्वाइंट रिप्लेसमेंट 

पिछले कुछ वर्षों मेंए आर्थोपेडिक समस्याओं की जांच एवं क्षतिग्रस्त या खराब हो चुके जोड़ों की मरम्मत के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण कामयाबी है ज्वांइट रिप्लेसमेंट के लिए रोबोटिक्स—एनेबल्ड सिस्टम। 
घुटने बदलने की सर्जरी दुनिया भर में की जाने वाली सबसे आम सर्जरी है। यह वह शल्य प्रक्रिया है जिसमें घुटने के खराब हिस्से को कृत्रिम अंग से बदल दिया जाता है। इस सर्जरी का मुख्य उद्देश्य आर्थराइटिस अथवा जोड़ों की अन्य समस्याओं के कारण उत्पन्न दर्द या विकलांगता से मरीज को छुटकारा दिलाना होता है और साथ ही साथ मरीज को चलने—फिरने में सक्षम बनाया जाता है और उसकी गतिशीलता बहाल की जाती है। 
इस सर्जरी के पूर्व निदान और अवलोकन के जरिए नुकसान की प्रकृति का आकलन किया जाता है और उसके आधार पर, डॉक्टर या घुटने को पूरी तरह या आंशिक तौर पर बदल सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में सफल शल्य प्रक्रिया के लिए सर्जन की विशेषज्ञता और सटीक तरीके से एलाइनमेंट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रोबोटिक्स आधारित प्रणाली मानव त्रुटि की आशंकाओं को समाप्त करती है और अधिक से अधिक सही तरीके से इम्प्लांट को स्थापित किए जाने की प्रक्रिया को बिल्कुल सही और सटीक बनाती है जिससे मरीज को अधिक से अधिक लाभ होता है और वह जल्दी स्वास्थ्य लाभ करता है। 
रोबोटिक सर्जरी में कुशल सर्जन के अनुभव के साथ उन्नत कंप्यूटर प्रौद्योगिकी का समन्वय होता है। सर्जन अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर पूरी तरह से सटीक सर्जरी को अंजाम देने के लिए रोबोटिक आधारित नियंत्रण एवं विवेक का उपयोग करता है जिससे सर्जरी के बाद रोगी को अत्यधिक वांछनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।
यह प्रणाली कैसे काम करती है
रोबोट सर्जन को सर्जरी की योजना बनाने में मदद करने के लिए रोगी के घुटने का 3 डी मॉडल बनाने के लिए मरीज से संबंधित विशिष्ट डेटा को एकत्र में मदद करता है। रोबोट द्वारा उपलब्ध कराया गया डेटा सर्जन को सर्जरी से पूर्व ही सर्जरी की योजना बनाने में मदद करता है जिसके कारण लिंगामेंट को सही तरीके से संतुलित बनानेए सही तरह से एलाइन करने और व्यवस्थित करने के लिए सर्जन के पास अधिक से अधिक अवसर एवं गुंजाइश होती है जिसके कारण मरीज सर्जरी के बाद पूर्ण गतिशीलता हासिल करता हैए जोड़ों में कम कड़ापन होता है और इम्प्लांट भी खराब नहीं होते हैं। 
रोबोटिक नी सर्जरी क्यों
— रोबोट असिस्टेड घुटने सर्जरी का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि सर्जन को उच्च सटीकता के साथ सर्जरी करने में मदद मिलती है जबकि घुटनों की सामान्य सर्जरी सर्जन द्वारा देख कर किए जाने वाले अवलोकनों पर पूरी तरह से निर्भर होती है। 
— रोबोटिक असिस्टेड नी सर्जरी उच्च परिशुद्धता के कारण घुटनों की सामान्य सर्जरी की तुलना में मरीज को अधिकाधिक गतिशीलता प्राप्त होती है और सर्जरी के बाद उसके पैर अधिक से अधिक प्राकृतिक होते हैं। 
— रोबोटिक असिस्टेड नी सर्जरी में सर्जन केवल क्षतिग्रस्त हिस्से पर ही काम करते हैं जिसके कारण अन्य ऊतकों ओर हड्डियों को कम से कम नुकसान पहुंचता है और रक्त की कम हानि होती है। 
— अन्य ऊतकों को कम नुकसान पहुंचने तथा रक्त की कम हानि होने के कारण रोगी को घुटने की परम्परागत सर्जरी की तुलना में अस्पताल से जल्दी छुट्टी मिल जाती है। 
— रोबोट असिस्टेड घुटने सर्जरी में उच्च शुद्धता होने के कारण रोगी परम्परागत सर्जरी की तुलना में अधिक तेजी से स्वास्थ्य लाभ करता है। 
— सटीक रोबोटिक अस्टिट सर्जरी के अधिक से अधिक सही होने के कारण परम्परागत सर्जरी की तुलना में मरीज को सर्जरी के बाद दवाइयों का सेवन कम करना पड़ता है। 
— पूर्णत सही एलाइनमेंट के कारण पारंपरिक घुटने की सर्जरी की तुलना में ज्वाइंट इंप्लांट की उम्र बढ़ जाती है। 
— रोबोट असिस्टेड नी सर्जरी की मदद से घुटने की जटिल सर्जरी को भी आसानी से किया जा सकता है।


दिल में छेद होने पर कराएं इलाज

पेडिएट्रिक कार्डियोलॉजिस्ट के द्वारा नियमित रूप से सामना की जाने वाली सबसे आम समस्याओं में से एक है बच्चे के दिल में छेद का होना। इस समस्या से पीड़ित बच्चे में आमतौर पर दिल के चैम्बर को अलग करने वाली किसी एक दीवार में छेद होता हैए जो दिल के अंदर के स्थान पर निर्भर करता है।
ऐसे छेद शुद्ध और अशुद्ध रक्त को मिश्रित कर देते हैं और फेफड़ों में दबाव में वृद्धि करने के साथ—साथ दिल के आकार में भी वृद्धि करते हैं। छेद से होकर बहने वाला खून भी आवाज पैदा करता हैए जिसे मुरमुर कहा जाता है। इसे तब सुना जा सकता है जब डॉक्टर स्टेथोस्कोप से छाती को सुनता है।
लक्षण
दिल में छोटे छेद किसी भी तरह की समस्या पैदा नहीं कर सकते हैं और यहां तक कि अपने आप ही बंद हो सकते हैं। लेकिन बड़े छेद ऐसे लक्षण पैदा करते हैं जिनकी तरफ ध्यान चला जाता है। बच्चे अधिक तेजी से सांस ले सकते हैं और फीड करते समय थक जाते हैं। फीड करते समय उन्हें पसीना आ सकता है या वे रोना शुरू कर सकते हैं और उनका वनज धीमी गति से बढ़ सकता है। उन्हें अक्सर ठंड लग जाती है और उनके फेफड़ों में बार—बार संक्रमण हो सकता है। ये संकेत आम तौर पर यह इंगित करते हैं कि छेद को अन्य जटिलताओं को रोकने के लिए आमतौर पर जीवन के पहले 6 महीनों के भीतर ही दिल की सर्जरी कराने की आवश्यकता है। अगर किसी बच्चे को ऐसे लक्षण हैं तो इंतजार नहीं करना चाहिए और समय बर्बाद नहीं करना चाहिएए बल्कि तुरंत बाल रोग विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए।
इलाज
दिल की सर्जरी
सर्जरी आमतौर पर बच्चे के जीवन के पहले कुछ हफ्तों से लेकर कुछ महीनों के भीतर की जाती है। सर्जरी के तहत सर्जन छाती की दीवार में एक चीरा लगाता है और छेद को बंद करते समय हार्ट—लंग मशीन रक्त परिसंचरण को बनाये रखता है। सर्जन सीधे छेद को बंद कर सकता है या अधिक सामान्य रूप सेए उस पर मानव निर्मित शल्य चिकित्सा सामग्री का एक पैच सील देगा। अंत मेंए दिल के ऊतक पैच या सिलाई को ठीक कर देते हैंए और सर्जरी के 6 महीने बादए छेद पूरी तरह से ऊतक से ढक जाएगा।
परिणाम
ऐसे छेद ठीक से और समय पर इलाज करने के बादए बच्चे सामान्य रूप से विकसित होते हैं और सामान्य जीवन जीते हैं। सफलता की कुंजी समय पर और उचित रेफरल और त्वरित उपचार में निहित है।


हर्निया को दोबारा होने से रोकें

हर्निया ऐसी स्थिति है जब कोई विशिष्ट अंग मांसपेशी की दीवार या मानव शरीर के अंदर किसी भी झिल्ली के माध्यम से धक्का देता है। इसका इलाज सर्जिकल प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है। यह ग्रोइन में या पहले किये गये ऑपरेशन के निशान में होने वाला सूजन है, जब आंतों या पेट के अंदर की कोई चीज पेट की दीवार में एक छोटे छेद या विकार के कारण एक उभार के रूप में पेट के बाहर आ जाता है। खांसने, छींकने, खड़े होने, व्यायाम करने आदि के कारण पेट में दबाव बढ़ने पर ये सूजन या उभार आकार में बढ़ते हैं। यह सभी उम्र समूहों में, शिशुओं से लेकर वयस्कों तक में देखा जा सकता है।
कभी—कभी भारी वस्तु को उठानेए शौचालय का उपयोग करते समय जोर लगाने, या पेट के अंदर दबाव बढ़ाने वाली किसी भी गतिविधि के कारण भी हर्निया होता है। हर्निया जन्म के समय भी मौजूद हो सकते हैंए लेकिन उस समय उभार दिखाई नहीं दे सकता है और जीवन में बाद में यह दिखाई दे सकता है। पेट की दीवार के ऊतक और मांसपेशियों पर दबाव बढ़ने वाली कोई भी गतिविधि या चिकित्सकीय समस्या हर्निया का कारण बन सकती है
डॉक्टर क्लिनिकल और शारीरिक परीक्षण के दौरान हर्निया की पुष्टि कर सकता है। जब आप खांसते हैं, झुकते हैं, सामान उठाते हैं या स्ट्रेन होने पर हर्निया के आकार में वृद्धि हो सकती है। इसका एकमात्र उपचार सर्जरी है जिससे हर्निया स्थायी रूप से ठीक हो सकता है।
आजकल, हर्निया का इलाज लैप्रोस्कोपिक सर्जरी के द्वारा किया जा सकता है। लैप्रोस्कोपिक सर्जरी के कई फायदे हैं जिनमें सर्जरी के दौरान छोटा चीरा, बड़े क्षेत्र को मेश से कवर करना, प्रक्रिया के बाद अधिक तेजी से शारीरिक रिकवरी और कम दर्द शामिल है। अधिकतर मामलों में यह डे केयर प्रक्रिया होती है या जयादा से ज्यादा अस्पताल में रात में रुकने की आवश्यकता हो सकती है। मेश के साथ लैप्रोस्कोपिक सर्जरी उन्नत केंद्रों में की जा रही है और इसके परिणाम भी उत्कृष्ट आ रहे हैं।
जटिलताएं
हर्निया सर्जरी की सबसे बड़ी जटिलताओं में से एक यह है कि हर्निया की मरम्मत के बाद यह वापस आ सकता है। अब चिकित्सा अध्ययनों के आधार पर यह साबित किया जा चुका है कि कुछ कारक रोगियों में फिर से हर्निया विकसित करने में मदद कर सकते हैं।
हर्निया की सर्जरी कराने के बाद सावधानी बरतें
- तरल पदार्थ का सेवन करें
- हर्निया का इलाज कराने के लिए सर्जरी कराने वाले मरीजों को सर्जरी के बाद तरल पदार्थ का सेवन करने की सलाह दी जाती है। तरल पदार्थ का सेवन कम करने पर कब्ज हो सकता है। हर्निया की सर्जरी के बाद तरल पदार्थ का सेवन कम करने पर आंतों का मूवमेंट प्रभावित हो सकता है जिससे मल सूखी और कड़ी हो जाती है। अधिक मात्रा में तरल पदार्थ का सेवन करने पर मल नरम होगा और आंतों का मूवमेंट भी आसान हो जाएगा।
धूम्रपान से परहेज करें
हर्निया की सर्जरी के बाद यदि कोई व्यक्ति धूम्रपान करता है तो जटिलताओं का जोखिम काफी हद तक बढ़ जाता है। सर्जरी के चीरा में संक्रमण होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। यह एसिड रिफलक्स के लक्षण भी पैदा कर सकता है। 
स्वस्थ वजन बनाए रखने के लिए व्यायाम करें
हालांकि हर्निया की सर्जरी के बाद सख्त वर्कआउट्स नहीं करने की सलाह दी जाती हैए लेकिन विषेशज्ञ के मार्गदर्शन में शारीरिक गतिविधि करने पर आंतों का मूवमेंट स्टिमुलेट हो सकता है और कब्ज से छुटकारा पाया जा सकता है। वजन कम करने के लिए वॉकिंग जैसे हल्के व्यायाम को प्रोत्साहित किया जाता है। व्यायाम को कैलोरी जलाने और चयापचय को बढ़ाने पर केंद्रित होना चाहिए। रक्त प्रवाह में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए गहरी सांस लेने की प्रैक्टिस भी की जानी चाहिए जिससे उपचार प्रक्रिया में तेजी आती है।
 लक्सेटिव्स का अधिक इस्तेमाल करें
अपने पेट पर दबाव को रोकने के लिए लक्सेटिव्स और स्टूल सॉफ़्टनर का उपयोग करें। हर्निया की मरम्मत के लिए ओवर—द—काउंटर लक्सेटिव के लिए अपने डॉक्टर से परामर्श लें। वे मल को आसानी से निकलने में मदद करेंगे।
फाइबर और सब्जियां
हर्निया की सर्जरी के बाद किसी व्यक्ति के आहार में फाइबर को धीरे—धीरे शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि इससे पेट में गैस और पेट फूलने से लेकर पेट में ऐंठन जैसी कई जटिलताएं हो सकती है। चूंकि हर्निया के ऑपरेशन में आंतों को पेट की दीवार के अंदर वापस धकेला जाता हैए फाइबर और फलों और सब्जियों से भरपूर आहार का सेवन करने पर मल मुलायम होगा और मल त्याग करने में आसानी होगी। फाइबर से भरपूर भोजन आंतों के लुब्रिकेशन के साथ—साथ पेट की दीवार के कोलेजन और इलास्टिन की इंटेग्रिटी को बनाए रखने में भी मदद करता है।
अपने आसपास एक तकिया रखें
जब आपको छींकने या खांसने की जरूरत महसूस हो तो आराम के लिए हाथ में एक तकिया पकड़ लें। इसके लिए आपको अपने आसपास एक तकिया रखना चाहिए ताकि आप अपनी चीरा को कवर कर सकें।
फैलने वाले या कमर में इलास्टिक वाले कपड़े पहनें
हर्निया की सर्जरी की रिकवरी के दौरान सूजन आम है, इसलिए सुनिश्चित करें कि आप फैलने वाले कमर वाले कपड़े पहनें ताकि आप अधिक आरामदायक महसूस कर सकें। इसके अलावा, आप अपने चीरा वाले हिस्से पर कुछ कसकर नहीं पहनें या बांधें।
भारी वस्तुओं को मत उठाएं
हर्निया की सर्जरी के बाद किसी वस्तु को उठाने से बचें। आपको फटने का जोखिम नहीं लेना चाहिए। केवल हल्के सामान उठाएंए और सामान उठाते समय हमेशा अपनी पीठ की मांसपेशियों और घुटनों पर वजन दें ताकि आप अपने पेट का उपयोग न कर सकें।


गर्भवती महिलाओं में आयरन की कमी

गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की समस्या चिंता का विषय  है, क्योंकि यह मातृ मृत्यु दर, संक्रमण के खतरे, समय से पूर्व प्रसव और भ्रूण एवं नवजात शिशु की खराब सेहत की आशंका को बढ़ाती है। हमें एनीमिया को खत्म करने के लिए पहल करनी चाहिए और अगर हम अगर एनीमिया के असली कारणों का पता लगा पाएं तो इस समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है। हमने पाया है कि ज्यादातर मामलों में एनीमिया का कारण पौष्टिक पहलू होता है। परंपरागत रूप से भारतीय महिलाएं कम मात्रा में खाना खाती हैं और जिसके कारण उन्हें कम पोशण प्राप्त होता है और इसके कारण वे कुपोषित हो जाती हैं। अधिकतर महिलाएं शाकाहारी होती हैं और मांसाहारी स्रोतों की तुलना में शाकाहारी स्रोतों से मिलने वाले आयरन को हमारा शरीर कम अवशोषित कर पाता है। इसलिए इसके कारण महिलाएं जो आहार खाती हैं उससे आयरन की दैनिक आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है। आयरन की कमी का एक कारण कृमि संक्रमण है। ये कृमि छोटी आंत में रहते हैंए जहां वे आंतों की दीवार से चिपक जाते हैं और रक्त चूसते हैं। इस समस्या से ग्रस्त महिलाओं को आमतौर पर थकान होती है, वे थकी—थकी महसूस करती हैं, उन्हें बेचैनी होती है तथा कम काम करने पर ही उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगती हैं। इस तरह से उनके जीवन की समग्र गुणवत्ता में गिरावट आती है। 
अगर कोई महिला गर्भावस्था की शुरुआत से पहले से ही एनीमिया से ग्रस्त हैं तो गर्भावस्था के दौरान उनका स्वास्थ्य और खराब हो जाएगा और ऐसे में उनकी अतिरिक्त देखभाल की जरूरत होती है और गर्भावस्था के दौरान उन्हें आहार के अलावा पूरक आहार देने चाहिए। माताओं के एनीमिया से ग्रस्त रहने का होने वाले बच्चे पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। एनीमिक माता के शिशु का विकास मां को एनीमिया होने के कारण प्रतिबंधित होता है क्योंकि मां के जरिए भू्रण को प्राप्त होने वाले रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा पर्याप्त नहीं होती है और इसलिए बच्चे का विकास कम होता है। 
स्तनपान के दौरान एनीमिक महिलाएं बच्चे को पर्याप्त स्तनपान नहीं करा पाती। स्तन पान नहीं होना या कम स्तन पान होना एनीमिक माताओं की एक दूसरी समस्या है। 
एनीमिक महिलाओं में समय से पूर्व प्रसव होने का खतरा अधिक सामान्य है। अगर महिलाएं एनीमिक हैं तो गर्भावस्था के दौरान हाइपरटेंषन की समस्या भी अधिक सामान्य है। 
लड़कियों में किशोरावस्था में आयरन की कमी होने की आशंका अधिक होती है क्योंकि इस दौरान शरीर का विकास तेजी से होती है, मासिक धर्म की शुरुआत होती है और खान—पान की आदतें खराब होती है। किशोर लड़कियां निकट भविष्य में बच्चे का पालन पोषण करने वाली होती हैं और अगर उनमें एनीमिया की समस्या है यह समस्या होने वाले बच्चे में भी स्थानांतरित होती है। इसलिए अगर किशोरावस्था में ही लड़कियों में आयरन की कमी को दूर किया जाए तो वे बेहतर आयरन स्तर के साथ गर्भवती होती हैं और भावी पीढ़ी पर उसका साकारात्मक असर पड़ता है। 


लेजी आई सिंड्रोम के इलाज में तकनीकी कामयाबियां 

लेजी आई जिसे एम्बलीओपिया भी कहा जाता है, आंख की वैसी बीमारी है या दृश्टि के विकास से संबंधित वैसा विकार है जिसमें आंख सामान्य दृश्य तीक्ष्णता प्राप्त करने में विफल रहती है। इसे यहां तक कि चश्मा या कांटैक्ट लेंस से भी ठीक नहीं किया जा सकता है।
लेजी आई की शुरुआत बचपन के दौरान ही हो जाती है और बाल्यावस्था के दौरान यह विकसित होती है। यह बचपन की ऐसी प्रारंभिक स्थिति है जिसमें बच्चे की दृष्टि विकसित नहीं होती है। अधिकतर मामलों में यह पहले एक आंख में विकसित होती है, लेकिन कुछ मामलों में, यह दोनों आंखों को प्रभावित कर सकती है।
इसकी समय पर पहचान और इलाज से दृष्टि को कम होने से रोकने में मदद मिल सकती है। लेकिन अगर इसका इलाज नहीं कराया जाये, तो इससे प्रभावित आंखों में गंभीर दृश्य विकलांगता हो सकती है।
लेजी आई सिंड्रोम के संकेत क्या हैं?
लेजी आई शिशु दृष्टि के विकास से जुड़ी समस्या है और इसके लक्षणों को समझना मुश्किल हो सकता है। अगर बच्चे या शिशु को भैंगापन है या आंखों की कुछ अन्य स्पष्ट गड़बड़ी है, तो तुरंत उनके आंखों की जांच की जानी चाहिए। दूसरा संकेत यह है कि बच्चे की एक आंख को ढक देने पर वह रोता है या गुस्सा करता है। इसके मुख्य लक्षण हैं - आंख में झुकाव (अंदरूनी, बाहरी, नीचे या ऊपर की ओर), आंखों के बीच समन्वय का अभाव, गहराई को नहीं भांप पाना, भैंगापन या एक आंख बंद करना, सिर में झुकाव, विजन स्क्रीनिंग टेस्ट के असामान्य परिणाम या बच्चे की दोहरी या धुंधली दृष्टि। 
आंखों की जांच से पहले, लक्षण हमेशा नहीं नजर आते हैं या लक्षण स्पष्ट नहीं होते हैं और इसलिए बचपन के शुरुआती चरणों से ही दृष्टि की जांच महत्वपूर्ण है। भैंगापन, बचपन के मोतियाबिंद या आंख से संबंधित किसी अन्य बीमारी का पारिवारिक इतिहास होने पर माता-पिता को अधिक सतर्क होना चाहिए।
संभावित कारण क्या हैं?
लेजी आई बचपन में या जीवन के शुरुआती चरणों में असामान्य दृश्य अनुभव के कारण विकसित होती हैं जो आंखों के पीछे और मस्तिष्क की उतकों की पतली परत के बीच तंत्रिका मार्गों को बदल देती है। पीड़ित आंख को कम दृश्य संकेत प्राप्त होते हैं। इसके कारण अंत में आंखों की एक साथ काम करने की क्षमता घट जाती है और मस्तिष्क कमजोर आंखों से इनपुट को अनदेखा करता है। दृष्टि को धुंधला करने वाली या आंखों में भैंगापन पैदा करने वाली किसी भी चीज की परिणति लेजी आई के रूप में हो सकती है। इसके आम कारण हैंः
क) मांसपेशी असंतुलन या भैंगापन (स्ट्रैबिज्मस) - लेजी आई का सबसे आम कारण आंखों की मांसपेशियों में असंतुलन है। इस असंतुलन के कारण दोनों आंखें समन्वित तरीके से एक समान सीध में नहीं देख पाती और दोनों आंखों की दिशा अलग-अलग होती है। 
ख) आंखों के बीच दृष्टि की तीक्ष्णता में अंतर - यह एनीसोमेट्रोपिक एम्ब्लोपिया के नाम से भी जाना जाता है। इसमें दोनों आंख के इलाज में काफी अंतर होता है। और ऐसा अक्सर दूरदृष्टि (फारसाइटिडनेस), निकट दृश्टि (नियरसाइटिडनेस) या आंख की सतह पर अपूर्णता (इम्पर्फेक्षन) के कारण होता है जिसे एस्टिगमेटिज्म कहा जाता है। इन रिफ्रैक्टिव समस्याओं को ठीक करने के लिए अक्सर चश्मा या कांटैक्ट लेंस का इस्तेमाल किया जाता है।
ग) डिप्राइवेशन - यह एम्ब्लोपिया का अत्यंत कम होने वाला रूप है। इसमें एक आंख के लेंस में धुंधलापन आ जाता है जिससे देखने में दिक्कत आती हैै और इससे आंख कमजोर हो जाती है। कभी-कभी इससे दोनों आंखें प्रभावित हो जाती है। ऐसा निम्न कारणों से हो सकता है -
1. कॉर्नियल अल्सर, स्कार या दृष्टि से संबंधित अन्य रोग,
2. जन्मजात मोतियाबिंद, जिसमें बच्चा धुंधले लेंस के साथ पैदा होता है
3. पलकों का लटका होना
4. ग्लूकोमा
5. आंख में चोट
समयपूर्व प्रसव, जन्म के समय बच्चे का कम वज़न, इस बीमारी का पारिवारिक इतिहास और विकास से संबंधित अन्य कमियां जैसी स्थितियां आम कारक हैं जो लेजी आई होने के खतरे को बढ़ाती हैं। इस स्थिति का वास्तविक मूल कारण दृष्टि की समस्या से संबंधित नहीं है बल्कि तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क से संबंधित है।
कैसे किया जाता है इसका इलाज?
ऐसी कई स्थितियां और बीमारियां हैं जो बच्चे की दृश्टि को प्रभावित कर सकती हैं। इनमें सबसे सामान्य लेजी आई सिंड्रोम है। बच्चे की आंख के स्वास्थ्य को कायम रखने के लिए प्रारंभिक निदान और उपचार महत्वपूर्ण हैं और किसी भी तरह का संदेह होने पर, नेत्र रोग विशेषज्ञ के द्वारा तत्काल जांच कराने की सलाह दी जाती है। दृष्टि की प्रभावशीलता के लिए समय पर जांच और प्रारंभिक उपचार आवश्यक है। ऐसे बच्चों में दृष्टि में सुधार और विकास की संभावना 7 साल की उम्र के बाद काफी कम हो जाती है, इसलिए प्रारंभिक जांच और इलाज की आवश्यकता होती है।
लेजी आई के उपचार:
1. आंख की अंतर्निहित समस्या का इलाज - मजबूत आंख और मस्तिष्क एक दूसरी की कमी की क्षतिपूर्ति करते है, लेकिन कई बच्चे असमान दृष्टि से अनजान रहते हैं। और कमजोर आंख के और खराब हो जाने के कारण, लेजी आई होने का खतरा बढ़ जाता है। कई बार लेंस की सुधारात्मक सर्जरी करने की जरूरत पड़ती है।
2. लेजी आई से देखना  - इसके लिए जिम्मेदार कारण का एक बार इलाज हो जाने पर, आई पैच, आई ड्राॅप्स या माइनर लेजर सर्जरी जैसी कई अन्य द्वितीयक उपायों की मदद से भी दृष्टि को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।
3. व्यायाम - नेत्र रोग विशेषज्ञ दृष्टि को सही करने में मदद के लिए विभिन्न नेत्र व्यायामों को करने की सलाह देते हैं। इसके तहत मजबूत आंख को ढक दिया जाता है और कमजोर आंख से बच्चे सेे उसकी उम्र के अनुसार कलर करने, डॉट-टू-डॉट ड्राइंग, वर्ड गेम या लेगो बिल्डिंग जैसी दृष्टि से संबंधित गतिविधियां कराई जाती है। कमजोर आंख में ताकत लौटने के बाद घर में ही पेंसिल पुश-अप कराया जाता है। इस व्यायाम में नाक की नोक के चारों ओर धीरे-धीरे पेंसिल चलायी जाती है और इस गतिविधि के दौरान पेंसिल के आखिरी सिरे पर ध्यान केंद्रित करना होता है जब तक कि यह धुंधला नहीं हो जाता है।
4. विजन थेरेपी सॉफ्टवेयर: विजन थेरेपी को विजुअल मोटर और / या अवधारणात्मक-संज्ञानात्मक कमियों को सही करने के लिए डिज़ाइन किया गया है जो एक व्यक्तिगत, पर्यवेक्षित, उपचार कार्यक्रम है। विजन थेरेपी सत्रों में वैसी प्रक्रियाएं शामिल हैं जो मस्तिष्क की नियंत्रण की क्षमता को बढ़ाती हैं। इन प्रक्रियाओं में शामिल हैं:
— आई अलाइनमेंट,
— आई ट्रैकिंग और आई टीमिंग,
— आंखों की ध्यान केंद्रित करने की क्षमताएं,
— आई मूवमेंट, और / या
— विजुअल प्रोसेसिंग।
विज़ुअल-मोटर कौशल और सहनशक्ति को चिकित्सीय लेंस, प्रिज्म और फ़िल्टर सहित विशेष कंप्यूटर और ऑप्टिकल उपकरणों के उपयोग के माध्यम से विकसित किया जाता है। थेरेपी के अंतिम चरण के दौरान, रोगी के द्वारा प्राप्त किये गये दृश्टि कौशल को मजबूत किया जाता है और पुनरावृत्ति के माध्यम से और मोटर और संज्ञानात्मक कौशल के साथ एकीकृत कर स्वचालित किया जाता है।


40 प्रतिशत पुरुष अपनी इनफर्टिलिटी से अनजान हैं

कई दम्पत्तियों को स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण करने में मुश्किल आती है। यहां तक कई परीक्षण के रिपोर्ट सामान्य होने के बाद वे स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण में असमर्थ रहते हैं। पुरुषों में इनफर्टिलिटी उन प्रमुख कारकों में से एक है जो गर्भ धारण करने की कोशिश करने वाले दम्पत्तियों में अक्सर पायी जाती है। शुक्राणु की गुणवत्ता और उसकी मात्रा गर्भ धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह पुरुष प्रजनन क्षमता का एक निर्णायक कारक भी है। यदि स्खलित शुक्राणु कम हों या खराब गुणवत्ता के हों तो गर्भ धारण करने की संभावनाएं 10 गुना कम और कभी-कभी इससे भी कम हो जाती है।
मेल फैक्टर इनफर्टिलिटी का क्या कारण है?
मेल फैक्टर इनफर्टिलिटी असामान्य या खराब शुक्राणु के उत्पादन के कारण हो सकती है। पुरुषों में यह संभावना हो सकती है कि उनके शुक्राणु उत्पादन और विकास के साथ कोई समस्या नहीं हो, लेकिन फिर भी शुक्राणु की संरचना और स्खलन की समस्याएं स्वस्थ शुक्राणु को स्खलनशील तरल पदार्थ तक पहुंचने से रोकती हैं और आखिरकार शुक्राणु फैलोपियन ट्यूब तक नहीं पहुंच पाता जहां निषेचन हो सकता है। षुक्राणु की कम संख्या शुक्राणु वितरण की समस्या का सूचक हो सकते हैं।
आम तौर पर पुरुषों में बांझपन के लक्षण प्रमुख नहीं होते हैं और इसके कोई लक्षण नहीं होते हैं और रोगी को शिश्न के खड़ा होने, स्खलन या संभोग में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है। यहां तक कि स्खलित वीर्य की गुणवत्ता और इसकी उपस्थिति नग्न आंखों से देखने पर सामान्य लगती है। शुक्राणुओं की गुणवत्ता की जांच केवल इनफर्टिलिटी के संभावित कारण को जानने के लिए किये जाने वाले चिकित्सा परीक्षण के माध्यम से की जा सकती है। 
मेल इनफर्टिलिटी के लिए तीन प्राथमिक कारक (अधिक हो सकते हैं) हैं - ओलिगोज़ोस्पर्मिया (शुक्राणुओं की कम संख्या), टेराटोज़ोस्पर्मिया (शुक्राणुओं की असामान्य रूपरेखा) और स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर। मेल फैक्टर इनफर्टिलिटी के करीब 20 प्रतिषत मामलों में स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर ही जिम्मेदार होते हैं।
स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर के कारण ज्यादातर पुरुषों में शुक्राणु के एकाग्रता में कमी आ जाती है और शुक्राणु महिला के पेट तक सुरक्षित रूप से पहुंचने में अक्षम होता है। 2015-2017 के बीच किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, यह देखा गया कि आईवीएफ प्रक्रिया कराने को इच्छुक दम्पत्तियों में, 40 प्रतिशत अंतर्निहित कारण पुरुष साथी में ही थे। प्रत्येक पांच पुरुषों में से एक पुरुष में स्पर्म ट्रांसपोर्ट की समस्या थी। सर्वेक्षण में उन पुरुषों को भी शामिल किया था जिन्होंनेे वेसेक्टॉमी करा ली थी लेकिन अब बच्चे पैदा करना चाहते थे। 
शुक्राणु का उत्पादन वृषण में होता है और इसे परिपक्व होने में 72 दिन का समय लगता है। उसके बाद परिपक्व शुक्राणु गतिशीलता प्राप्त करने के लिए वृषण से अधिवृषण (एपिडिडमिस) में चला जाता है और 10 दिनों के बाद यह अगले संभोग में बाहर निकलने के लिए तैयार होता है। लेकिन ट्यूब में कुछ अवरोध होने पर स्खलित वीर्य में शुक्राणुओं की पूरी तरह से कमी हो सकती है।
शुक्राणु की गतिशीलता को क्या प्रभावित करता है?
खराब शुक्राणु निकलने के मूल कारण हैं:
— उल्टा स्खलन (रेट्रोग्रेड इजाकुलेशन) - संभोग के दौरान पुरुष्ज्ञ का मूत्राशय बंद नहीं हो पाता है और जिसके कारण वीर्य लिंग से निकलने के बजाय मूत्राशय में वापस चला जाता है। ऐसा तंत्रिका तंत्र की बीमारी, दवा या पहले की गयी सर्जरी के कारण हो सकता है।
— असफल वैसेक्टाॅमी रिवर्सल - अभी तक करीब 50 प्रतिशत वैसेक्टाॅमी रिसर्वल प्रक्रियाएं असफल रही हैं। वैसेक्टाॅमी रिसर्वल के बाद एंटी-स्पर्म एंटीबॉडी विकसित होती है, जो गर्भ धारण में बाधा पहुंचाती है।
— अवरोध - इस प्रणाली में शुक्राणु उत्पादन, शुक्राणु का निकलना और स्टोरेज डक्ट्स शामिल हैं जो पुरुष वृषण में स्थित होती हैं और शुक्राणु को जमा रखती हैं और मूत्रमार्ग में ले जाती हैं। सर्जरी, संक्रमण और अनुवांशिक बीमारी शुक्राणु की डिलीवरी कोे रोक सकती है। कुछ पुरुषों में जन्म से ही डक्ट्स अवरुद्ध होती है या ट्युब नहीं होती है। इसलिए लिंग के नीचे की ओर मूत्रमार्ग के मुंह से भी खराब शुक्राणु निकल सकते हैं।
— इरेक्टाइल डिसफंक्शन: समयपूर्व स्खलन और इरेक्टाइल डिसफंक्शन जैसी यौन समस्याएं गर्भ धारण करने में बाधा पहुंचा सकती हैं। दम्पत्ति साइकोलाॅजिकल काउंसलिंग के लिए जा सकते हैं और वे उन अंतर्निहित कारणों को हल करने में मदद कर सकते हैं जो इरेक्शन और संभोग को मुश्किल बनाते हैं और रोकते हैं।
स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर का वर्गीकरण
शुक्राणु को वृषण से मूत्र मार्ग में ले जाने वाली विभिन्न नलिकाओं में अवरोध स्पर्म की गतिशीलता के लिए समस्या पैदा कर सकता है। शुक्राणु गतिशीलता में उत्पन्न होने वाली समस्याओं की श्रेणियों को जन्मजात विकारों (कंजेनाइटल डिसआर्डर), अधिग्रहीत विकारों (एक्वायर्ड डिसआर्डर) और कार्यात्मक बाधाओं (फंक्शनल आब्सट्रक्शन) की श्रेणियों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है।
— जन्मजात विकार (कंजेनाइटल डिसआर्डर) - यह जन्म से ही होने वाला विकार है जिसमें शुक्राणु नलिकाओं की असामान्य वृद्धि और संकुचन शामिल है और इसमें सेमिनल वेसिकल्स (जो शुक्राणु को स्टोर करता है) अनुपस्थित होता है जो वास डिफरेंस से वीर्य और उसके घटक को मूत्रमार्ग के माध्यम से बाहर निकालता है।
— अर्जित विकार (एक्वायर्ड कंडीषन) - यह प्रजनन प्रणाली की अंतर्निहित बीमारी या संक्रमण के कारण होता है। इसमें शुक्राणु की गतिशीलता नलिकाओं में सूजन के कारण पैदा हुए स्कार के द्वारा प्रभावित हो सकती है जिससे शुक्राणु को निकलने के लिए जगह कम हो जाती है। यदि कोई मरीज हर्निया की मरम्मत जैसी पेट की सर्जरी कराता है, तो यह संभव है कि रोगी की शुक्राणु की गतिशीलता प्रभावित होगी। 
— कार्यात्मक बाधा (फंक्शनल आब्सट्रक्शन) - तंत्रिका तंत्र से संबंधित कुछ विकार भी शुक्राणुओं की गतिशीलता को बाधित कर सकते हैं। दुर्घटनाओं या सर्जरी के कारण रीढ़ की हड्डी (मांसपेशियों की गति को प्रभावित करने) को चोट पहुंचने जैसी तंत्रिका की क्षति जैसी स्थितियां भी शुक्राणुओं को परिवहन करने की नलिकाओं की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं। ऐसा पाया गया है कि अवसाद रोधी दवाइयां भी तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करती हैं।
सहायक प्रजनन तकनीक किस प्रकार सहायक हो सकती हैं?
इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) और इंट्रासाइटोप्लाजमिक स्पर्म इंजेक्शन (आईसीएसआई) के द्वारा शुक्राणु की पुनः प्राप्ति (स्पर्म रिट्रिवल) के लिए कई तकनीकें मौजूद हैं जिनमें परक्युटेनियस एपिडिडमल स्पर्म एस्पिरेशन, माइक्रोसर्जिकल एपिडिडमल स्पर्म एस्पिरेशन, टेस्टिकुलर स्पर्म एस्पिरेशन, और ओपन टेस्टिकुलर स्पर्म एक्सट्रैक्शन शामिल हैं। उचित रोगी का चयन करने पर सभी तकनीकों के अच्छे नतीजे आते हैं। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ ही, आईवीएफ तकनीकें और अधिक परिष्कृत हो गई हैं। सर्जिकल स्पर्म रिट्रिवल का इस्तेमाल अब आईवीएफ और आईवीएफ-आईसीएसआई के दौरान आवश्यक शुक्राणु प्रदान करने के लिए एक तकनीक के रूप में किया जा रहा है।
टेस्टिकुलर स्पर्म रिट्रिवल एस्पिरेशन तकनीकों में सबसे नयी और सबसे विकसित तकनीक है। ये तकनीकें न सिर्फ आईसीएसआई और आईवीएफ के क्षेत्र में क्रांति ला रही हैं, बल्कि इन तकनीक ने यह भी दिखाया है कि अंडे के निषेचन के लिए, शुक्राणु का परिपक्व होना और अधिवृषण के माध्यम से पारित होना अनिवार्य नहीं है। यह तकनीक एपिडिडमिस में अवरोध वाले मरीजों के लिए बेहद फायदेमंद है, अवरोध चाहे वेसेक्टॉमी जैसी पूर्व में की गयी सर्जरी, संक्रमण या किसी भी जन्मजात कारणों से हो।


पल्मोनरी रोगों का बढ़ रहा है प्रकोप

पिछले कुछ वर्षों में पल्मोनरी रोगों से गंभीर रूप से पीड़ित रोगियों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिसके लिए धूम्रपान के साथ-साथ खराब हवा जिम्मेदार है जो साफ तौर पर फेफड़ों को बाधित करता है और यह बाद में गंभीर पल्मोनरी रोग पैदा करता है।
मैक्स सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल, साकेत के एडल्ट सीटीवीएस, हार्ट एंड लंग ट्रांसप्लांट के एसोसिएट डायरेक्टर और स्पेशलिस्ट डॉ. राहुल चंदोला ने कहा, “जो लोग नियमित रूप से जहरीले धुएं और पार्टिकुलेट मैटर के संपर्क में रहते हैं उनमें पल्मोनरी फाइब्रोसिस (आईएलडी) के मामले अधिक होते हैं। जैसे कि संगमरमर की खदानों और पेंट उद्योग में काम करने वाले लोगों के पास सुरक्षात्मक उपकरण नहीं होते हैं तथा उनके लिए नियमित स्क्रीनिंग की व्यवस्था नहीं होती है। लगातार इनके प्रत्यक्ष संपर्क में रहने के कारण ऐसे लोगों में पल्मोनरी फाइब्रोसिस (आईएलडी) के मामले अधिक होते हैं। ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ रही है। इस तरह के बढ़ते मामलों और इन जानलेवा बीमारियों की रोकथाम के लिए लोगों को जागरूक करना महत्वपूर्ण है। अंतिम चरण में पहुंच चुके फेफड़ों के रोगों से ग्रस्त लोगों में जीवन प्रत्याशा निराशाजनक होती है और इन रोगियों को लंबे समय तक जीवित रखने के लिए फेफड़े का प्रत्यारोपण 'स्वर्ण मानक' है। अंतिम चरण के फेफड़ों के रोगों से ग्रस्त लोगों के लिए फेफड़ों के प्रत्यारोपण की सुविधा अब कई अस्पतालों में उपलब्ध है।''


 


बार—बार चक्कर आने पर कराएं वर्टिगो की जांच

वर्टिगो ऐसी स्वास्थ्य समस्या है जिसमें रोगी को चक्कर आता रहता है और यह मस्तिष्क, कान के अंदरूनी हिस्से या संवेदी तंत्रिका मार्ग से संबंधित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं का संकेत दे सकती है। 
यह स्थिति मोशन सिकनेस या बैलेंस डिसआर्डर के नाम से भी जानी जाती है। इस समस्या के बढ़ने पर पीड़ित व्यक्ति जब अपनी आँखें बंद करता है तो उसे गिरने का आभास होता है। इसमें स्थिर व्यक्ति को भी ऐसा महसूस होता है मानों वह गतिशील है और इसके कारण उसे सनसनाहट महसूस होती है। संतुलन की प्रक्रिया को शरीर की तीन प्रणालियां नियंत्रित करती हैं - अपने लैबिरिंथीन कैनाल के साथ भीतरी कान, आंख और आंख की मांसपेशियां और गर्दन की मांसपेशियां। इन प्रणालियों से इनपुट को मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों में संसाधित किया जाता है और इनपुट सिंक्रनाइज किए जाने पर संतुलन की धारणा कायम रहती है। जब भी मस्तिष्क (सीपीयू) सूचना को ठीक से संसाधित करने में असमर्थ होता है, तो इससे वर्टिगो पैदा होता है।
मैक्स सुपर स्पेशिएलिटी हाॅस्पिटल, पटपड़गंज के न्यूरोसर्जरी के वरिष्ठ निदेशक डॉ. संजीव दुआ कहते हैं, “सबसे बड़ी गलत धारणाओं में से एक है और जिसे दूर करना भी जरूरी है, वह है सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस के कारण वर्टिगो होता है। वर्टिगो से पीड़ित कई रोगियों में सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस का भी निदान किया जाता है और उनमें उस बीमारी का इलाज किया जाता है जो बीमारी उनमें या तो होती ही नहीं है या वर्टिगो के लक्षणों के लिए जिम्मेदार नहीं होती है। वर्टिगो का सबसे आम कारण आंतरिक कान, या मध्य कान में दर्द है जो साधारण कान की गंदगी से लेकर लैबिरिंथ के वायरल संक्रमण तक हो सकता है।''
इसका इलाज अलग-अलग व्यक्ति में अलग-अलग होता है। हालांकि कुछ मामलों में, लक्षणों को कम करने के लिए कुछ समय तक दवा लेना ही पर्याप्त होता है। लेकिन क्रोनिक वर्टिगो से पीड़ित रोगियों के मामले में,  डॉक्टर इपलिस मनूवर जैसी कुछ शारीरिक गतिविधियां करने की सलाह देते हैं क्योंकि यह किसी भी दवा के इस्तेमाल के बिना ही बीमरी के लक्षण में राहत प्रदान करने में मदद करता है। वर्टिगो के अन्य बहुत ही दुर्लभ और जटिल कारण हैं जिनमें मस्तिष्क के महत्वपूर्ण क्षेत्रों की व्यापक जांच की आवश्यकता हो सकती है। ये बीमारियां दुर्लभ हैं और कई अन्य लक्षणों से जुड़ी होती हैं जैसे कि बोलने या निगलने में कठिनाई, दृश्टि संबंधित समस्याएं, अंगों की कमजोरी आदि।


37 वर्षीय महिला ने स्तन कैंसर से बचने के लिए निवारक (प्रीवेंटिव) सर्जरी करायी

परिवार से मिले भरपूर सकारात्मक सहयोग और सर्वोत्तम चिकित्सा सलाह से पश्चिम दिल्ली के जनकपुरी की 37 वर्षीय रीति ने एक बहुत ही साहसिक कदम उठाया जिसने उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया है। स्तन और ओवरी कैंसर से बचने के लिए एक निवारक कदम के रूप में, उन्होंने मैक्स हॉस्पिटल में स्वेच्छा से बाइलैटरल मास्टेक्टॉमी कराई और अपने अंडाशय को निकलवा लिया। 
उनके परिवार में बीआरसीए 1 (स्तन कैंसर से जुड़े जीन) के आनुवंशिक परिवर्तन के मामले चल रहे हैं। उनकी बड़ी बहन को हाल ही में कनाडा में स्तन कैंसर का पता चला था और उनकी मां को दो बार स्तन कैंसर का सामना करना पड़ा। पहली बार उन्हें 1997 में एक स्तन में और उसके बाद 2007 में दूसरे स्तन में कैंसर का पता चला था। 
इस तरह की पृष्ठभूमि होने के कारण, रीति को यह पता करने के लिए जीन परीक्षण कराना पड़ा कि क्या  वह भी स्तन कैंसर से जुड़े जीन में उत्परिवर्तन का वहन कर रही हैं। स्तन सर्जन डॉ. गीता कड्याप्रथ और जेनेटिक्स कंसल्टेंट डॉ. अमित वर्मा, के परामर्श के बाद, उन्होंने आनुवांशिक परीक्षण कराया और जैसी उम्मीद की गई थी वैसा ही पाया गया। इस परीक्षण में उनमें बीआरसीए 1 उत्परिवर्तन सकारात्मक पाया गया। इसके परिणाम से इस बात की पुष्टि हो गयी कि उनमें अपने जीवन काल में स्तन कैंसर होने की लगभग 80 प्रतिषत और ओवरी कैंसर होने की 50-60 प्रतिशत संभावना थी।
सर्जिकल ऑन्कोलॉजी टीम का नेतृत्व करने वाली डॉ. गीता इस बारे में जानकारी साझा करते हुए कहा कि “स्तन कैंसर के केवल 10 प्रतिशत मामले आनुवांशिक उत्परिवर्तन के कारण होते हैं। हालांकि यह दुर्लभ है, हम उच्च जोखिम वाले पारिवारिक कैंसर वाले काफी रोगियों को देख रहे हैं। जीन के उत्परिवर्तन के डर से कई लोग जांच कराने से कतराते हैं। अभी भी कैंसर को लेकर समाज में डर और मिथ्या कायम है और इस कारण कई लोग अपनी उत्परिवर्तन स्थिति के बारे में जानना नहीं चाहते हैं। उत्परिवर्तन वाले लोगों में कैंसर को होने से रोकने के लिए समय पर उचित कार्रवाई बहुत जरूरी है। इस बारे में सभी लोगों को पता है कि कैंसर होने के बाद की जिंदगी काफी कठिन हो सकती है और इसके अनिश्चित परिणाम हो सकते हैं। सौभाग्य से, इस मामले में, बड़ी बहन ने अपनी छोटी बहन को बीआरएसी 1 जीन में उत्परिवर्तन के लिए समय पर जाँच करने के लिए प्रेरित किया। इस बीमारी को रोकने के लिए लोगों को जागरूक होना और बीमारी को रोकने के लिए सभी संभव कदम उठाना महत्वपूर्ण है। जानकारी हमें सशक्त बनाती है। पूरी तरह से स्वस्थ जीवन जीने के अलावा कुछ भी अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।”
रीति ने अपनी बहन, मां और पति के दृढ़ सहयोग की बदौलत एक नई यात्री की शुरूआत की। वह अभूतपूर्व अदम्य हिम्मत दिखाते हुए स्तन कैंसर के जोखिम को कम करने के लिए निवारक सर्जरी कराने को तैयार हो गई और इसके कारण स्तन कैंसर का खतरा 95 प्रतिशत तक कम हो गया। संभावित जीन उत्परिवर्तन के कारण महिला को कैंसर होने का खतरा बहुत अधिक होता है और पारिवारिक कैंसर के अधिक जोखिम होने के कारण ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है।
स्तन कैंसर की रोकथाम के लिए निवारक सर्जरी करने वाली मरीज सुश्री रीति ने कहा, “तीन हफ्ता पहले, मुझे अचानक पेट के निचले हिस्से में दर्द हुआ और जांच से पता चला कि अंडाशय में सिस्ट है। मेरी बहन को भी स्तन कैंसर हुआ था और उसकी मास्टेक्टोमी सर्जरी हुई थी। मेरी बहन के जोर डालने पर मैं जीन परीक्षण के लिए तैयार हो गई। डा. गीता ने मेरे सामने दो विकल्प रखे। या तो मैं नियमित रूप से इमेजिंग स्टडी तथा क्लिनिकल जांच कराती रहूं और स्तन कैंसर के बढ़ने पर नजर रखूं। दूसरा यह कि स्तन कैंसर के होने की संभावना को खत्म करने के लिए स्वैच्छिक तौर पर निवारक सर्जरी करा लूं। डाक्टरों के आश्वासन पर मैंने अपने स्तन, फैलोपियन ट्यूब और अंडाशय को निकलवाने तथा स्तन रिक्रंस्ट्रक्शन सर्जरी कराने का फैसला किया।'' 


एडवांस्ड रोटबलेशन तकनीक के कारण अब एंजियोप्लास्टी लंबे समय के लिए बनी रहेगी कारगर 

गलत जीवनशैली के कारण आज अधिक से अधिक युवा विभिन्न प्रकार के हृदय रोगों की चपेट में आ रहे हैं। हालांकि गंभीर हार्ट फेल्योर को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता है, लेकिन उन्नत उपचार तकनीकों की मदद से हृदय रोग के लक्षणों को कम किया जा सकता है ताकि हृदय प्रभावी ढंग से कार्य करे। कार्डियोलॉजी के क्षेत्र में जो आधुनिक तकनीकें विकसित हुई हैं वे हृदय की रक्त धमनियों में रुकावट से ग्रस्त और यहां तक कि अंतिम चरण में पहुंच चुके हृदय रोगियों के इलाज के संबंध में निर्णय लेने और इलाज के बेहतर परिणाम देने में काफी मददगार होती हैं। 
मैक्स सुपर स्पेशिऐलिटी हाॅस्पिटल, शालीमार बाग के कार्डियोलॉजी के एसोसिएट डायरेक्टर डॉ. नित्यानंद त्रिपाठी ने कहा, “अवरुद्ध धमनियों को खोलने के लिए एंजियोप्लास्टी की जाती है और स्टेंट लगाया जाता है, लेकिन वैसे ज्यादातर मामलों में केवल पीटीसीए प्रभावी उपचार साबित नहीं हो पाता है जिनमें धमनियों में गंभीर रूप से कैल्सियम जमा हो जाता है। इन कैल्सीफाइड हिस्सों का रोटाबलेशन की मदद से सफलतापूर्वक इलाज किया जा रहा है। रोटाबलेशन में, कोरोनरी धमनियों से कैल्शियम निकालने के लिए डायमंड बर का उपयोग किया जाता है और इसके बाद स्टेंट लगाया जाता है। इन नई तकनीकों की मदद से कठिन मामलों में भी बीमारी का पता बीमारी के लक्षण के प्रकट होने से पहले ही चल सकता है जबकि परम्परागत तरीकों से इसका पता तब चलता है जब बीमारी बढ़ चुकी होती है। 
फ्रैक्शनल फंक्शनल रिजर्व (एफएफआर), इंट्रावस्कुलर अल्ट्रासाउंड (आईवीवीएस) और ऑप्टिकल कोहरेंस टोमोग्राफी (ओसीटी) तकनीक का उपयोग करने से न केवल मरीजों का प्रभावी ढंग से इलाज करने में मदद मिलती है, बल्कि उनके जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। ऐसी जटिल प्रक्रियाओं के लिए हमारे पास उपलब्ध तकनीकी विशेषज्ञता के कारण, उपचार की सफलता दर 90 प्रतिशत से भी अधिक होती है।” 
बड़े और मंझोले शहरों में जन्मजात हृदय दोष, वाल्व की समस्या और हृदय की धमनियों की रुकावट जैसी हृदय संबंधी विभिन्न बीमारियों, जीवनशैली संबंधी बीमारियों और वायरल संक्रमण से पीड़ित रोगियों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह भ्रांति है कि दिल की बीमारियां और हार्ट फेल्योर सिर्फ वृद्ध लोगों को ही प्रभावित करते हैं और ये समस्याएं मेट्रो शहरों तक ही सीमित हैं। 
“कार्डियोवैस्कुलर फेल्योर के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एंजियोप्लास्टी तकनीक न केवल तेजी से कोरोनरी फेल्योर को रोककर और हृदय में रक्त प्रवाह को फिर से स्थापित करके जीवन को बचाती है, बल्कि कोरोनरी आर्टरी बाईपास ग्राफ्टिंग (सीएबीजी) की आवश्यकता को भी समाप्त करती है। बाईपास चिकित्सा प्रक्रिया के मामले में रोगी को एक महीने से अधिक समय तक घर में ही रहना पड़ता है जबकि एंजियोप्लास्टी कराने वाले मरीजों की बहुत कम समय में ही रिकवरी हो जाती है और प्रक्रिया के 7 दिनों के भीतर ही वे सामान्य जीवन में वापस आ सकते हैं। एंजियोप्लास्टी कार्डियोवैस्कुलर फेल्योर के लिए तो सबसे अच्छा उपचार विकल्प है ही, इसके अलावा, इससे गंभीर कोरोनरी बीमारी के रोगियों का भी इलाज किया जाता है, और यह सीने में दर्द, थकावट और सांस की तकलीफ सहित गंभीर दुष्प्रभाव में कारगर तरीके से और तुरंत सुधार करती है।”
मैक्स हाॅस्पिटल, शालीमार बाग के कार्डियोलॉजी के कंसल्टेंट डाॅ. राशि खरे ने कहा, ''यह प्रक्रिया कोरोनरी फेल्योर को तेजी से रोकती है और हृदय में रक्त प्रवाह को फिर से बहाल करती है। उन रोगियों के लिए जिन्हें चिकित्सकीय प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है, एंजियोप्लास्टी से बहुत कम समय में ही रिकवरी हो जाती है। बाईपास चिकित्सा प्रक्रिया के रोगियों को अस्पताल में कई दिनों तक रहना पड़ सकता है और घर पर भी कम से कम एक महीने तक रहना पड़ सकता है, जबकि एंजियोप्लास्टी के अधिकतर रोगियों को 24 घंटे के भीतर ही क्लिनिक से छुट्टी दे दी जाती है और वे सात दिनों के भीतर अपने काम पर वापस आ सकते हैं। एंजियोप्लास्टी से केवल हार्ट फेल्योर का ही इलाज नहीं किया जाता है। गंभीर कोरोनरी बीमारी वाले रोगियों के लिए, एंजियोप्लास्टी सीने में दर्द, सांस की तकलीफ और घबराहट जैसे कमजोर कर देने वाले दुष्प्रभाव में कारगर तरीके से और त्वरित सुधार कर सकती है।” 


स्क्रीन से अधिक लगाव मोटापे को देता है दावत

टीवी देखना, कंप्यूटर पर काम करना, या वीडियो गेम खेलना आदि के लिए 'स्क्रीन टाइम' शब्द का उपयोग किया जाता है। ''स्क्रीन टाइम'' निष्क्रिय गतिविधि है, जिसे करते समय आप शारीरिक रूप से निष्क्रिय रहते हैं। स्क्रीन टाइम के दौरान बहुत कम ऊर्जा की खपत होती है। 
मेदांता हाॅस्पिटल के इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजी के उपाध्यक्ष डॉ. रजनीश कपूर की ओर से किए गए एक ताजा अध्ययन में उन्होंने पाया कि मोटे बच्चों में से 84 प्रतिशत बच्चों ने स्क्रीन के सामने रोजाना 5 घंटे या उससे अधिक समय बिताए।
इस अध्ययन का उद्देश्य 25- 40 के बीच बीएमआई वाले बच्चों की जीवन शैली के बारे में पता लगाना था। 25-30 के बीएमआई को चिकित्सकीय रूप से अधिक वजन माना जाता है, और 30 से अधिक का बीएमआई को मोटापा माना जाता है।
यह अध्ययन 490 बच्चों पर किया गया जिन्होंने बहुविकल्पीय प्रश्नावली के माध्यम से जवाब दिया। कुल स्क्रीन टाइम की गणना अलग-अलग स्क्रीन टाइम को जोड़कर करके की गई। यह अध्ययन गुरुग्राम और दिल्ली के बच्चों पर किया गया। बीएमआई सूचकांक के आधार पर 46 प्रतिशत बच्चे मोटे और 44 प्रतिशत बच्चे अधिक वजन के पाए गए। लगभग 50 बच्चों को इस अध्ययन से बाहर रखा गया क्योंकि उनके वजन बढ़ने का संबंध अन्य चिकित्सा कारणों से पाया गया।
उन्होंने कहा कि ''मोटे श्रेणी के समूह में, 84 प्रतिशत बच्चों में रोजाना 5-6 घंटे स्क्रीन टाइम, 11 प्रतिशत बच्चों में 3 घंटे से कम स्क्रीन टाइम और 5 प्रतिशत बच्चों में 3-4 घंटे स्क्रीन टाइम दर्ज किया गया।''
उन्होंने कहा, ''अधिक वजन वाले समूह में, दैनिक स्क्रीन टाइम 1-4 घंटे प्रति दिन के बीच पाया गया, लेकिन अधिक बीएमआई और अधिक स्क्रीन टाइम के बीच सकारात्मक संबंध पाये गये।''
डॉ. कपूर ने कहा, ''अध्ययन से पता चला कि जो बच्चे टेलीविजन और फोन स्क्रीन के सामने अधिक समय बिताते हैं, उनके मोटे होने का खतरा बढ़ जाता है।''
डाॅ. कपूर के अनुसार स्क्रीन टाइम आपके बच्चे के मोटापे के जोखिम को बढ़ाता है क्योंकि:
— स्क्रीन के सामने बैठने और उसे देखने के समय व्यक्ति शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं होता है।
— टीवी विज्ञापन और स्क्रीन पर आने वाले अन्य विज्ञापन अस्वास्थ्यकर भोजन के सेवन को बढ़ावा दे सकते हैं। अधिकांश समय, विज्ञापनों में दिखाये जाने वाले खाद्य पदार्थ बच्चों को लक्षित करके तैयार किये जाते हैं और उनमें चीनी, नमक या वसा अधिक होते हैं।
— बच्चे टीवी देखते समय अधिक खाते हैं, खासकर अगर वे खाद्य पदार्थों के विज्ञापन देखते हैं।''
डॉ. रजनीश कपूर ने कहा, “कंप्यूटर बच्चों को उनके स्कूल के काम में मदद कर सकता है। लेकिन इंटरनेट पर सर्फिंग, फेसबुक पर बहुत अधिक समय बिताना या यूट्युब पर वीडियो देखना अस्वास्थ्यकर स्क्रीन टाइम माना जाता है।”
उन्होंने कहा, ''बचपन का मोटापा टाइप 2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल और हृदय रोग जैसे स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव पैदा कर सकता है जो आम तौर पर केवल वयस्कों में देखा जाता है। बाल मोटापे का असर न केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर होता है बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी होता है। 
डॉ. कपूर ने कहा, ''बच्चों को डिप्रेशन, कम आत्मसम्मान और शरीर की छवि को लेकर नकारात्मक सोच जैसे सामाजिक अलगाव और मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करने की संभावना होती है।''
डॉ. रजनीश कपूर ने कहा कि “दिशानिर्देश के अनुसार 2 साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम 1 से 2 घंटे है।
स्क्रीन टाइम कम करने के लिए डॉ. कपूर ने सलाह दी:
— अपने बच्चे के बेडरूम से टीवी या कंप्यूटर को हटा दें।
— भोजन या होमवर्क के दौरान टीवी देखने की अनुमति न दें।
— अपने बच्चे को टीवी देखने या कंप्यूटर का उपयोग करते समय खाने न दें।
— टेलीविजन को चलता हुआ नहीं छोड़ें। अगर आप चाहते हैं कि वातावरण में कोई संगीत बजता रहे तो रेडियो बजाएं। 
— तय करें कि किस समय कौन से प्रोग्राम देखना है। जब वे प्रोग्राम खत्म हो जाएं तो टीवी बंद कर दें।
— फैमिली बोर्ड गेम, पजल्स या टहलने के लिए जाने जैसी अन्य गतिविधियों का सुझाव दें।
— स्क्रीन के सामने कितना समय बिताया जाता है, इसका रिकॉर्ड रखें। उतना ही समय सक्रिय रहने के लिए व्यतीत करने की कोशिश करें।
— माता-पिता के रूप में एक अच्छे रोल मॉडल बनें। अपना स्क्रीन टाइम कम कर 2 घंटे प्रतिदिन करें।
— अगर टीवी आफ रखना मुश्किल है, तो उसके स्लीप फंक्शन के उपयोग करने का प्रयास करें ताकि यह स्वचालित रूप से बंद हो जाए।
— वैसी चीजों की तलाश करें जिसमें आपको शारीरिक रूप से सक्रिय रहना पड़े और कैलोरी की खपत हो।


 


फास्ट ट्रैक नी रिप्लेसमेंट सर्जरी से घुटना प्रत्यारोपण के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन : डा. अभिषेक वैश्य

 



आर्थराइटिस का सबसे व्यापक रूप ऑस्टियोआर्थराइटिस है जो भारत में विकलांगता का प्रमुख कारण है और जिससे भारत में हर साल डेढ़ करोड़ से अधिक भारतीय प्रभावित होते हैं। इस समस्या के कारण अगले 10 वर्षों में, भारत में दुनिया में सबसे अधिक ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी होगी। लगभग 20 साल पहले, ऑस्टियोआर्थराइटिस बुजुर्गों की बीमारी के रूप में जानी जाती थी और इससे 65 साल से अधिक उम्र के लोग ही प्रभावित होते थे। हालांकि, हड्डी रोग विषेशज्ञ अब 45 से 55 वर्ष के युवा लोगों में भी ऑस्टियोआर्थराइटिस का निदान कर रहे हैं।
नई दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो हास्पीटल के वरिष्ठ आर्थोपेडिक सर्जन डा. अभिषेक वैश्य बताया, ''दुनिया भर में और भारत में आर्थराइटिस के मामले बढ़ने के कई कारण है जिनमें मोटापा का बढ़ना, आरामतलब जीवनशैली, अस्वास्थ्यकर और जंक फूड का सेवन और विटामिन डी की कमी शामिल हैं। आर्थराइटिस के बारे में जागरूकता कायम करना महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे समय पर कार्य करने में मदद मिल सकती है, क्योंकि शुरुआती अवस्था में पहचान हो जाने पर बेहतर उपचार संभव होता है।'' 
उन्होंने  कहा, ''इसके उपचार विकल्प गठिया के प्रकार के आधार पर भिन्न होते हैं और आर्थराइटिस के गंभीर मामलों में फिलिकल थिरेपी, जीवनशैली में परिवर्तन (व्यायाम और वजन नियंत्रित करना), ऑर्थोपेडिक ब्रेसिंग, और दवाओं को भी शामिल किया जाता है। आर्थराइटिस के बहुत अधिक बढ़ जाने पर सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है। पिछले कुछ समय के दौरान भारत में नी रिप्लेसमेंट सर्जरी के परिदृश्य में क्रांतिकारी बदलाव आया है। यहां काफी संख्या में युवा और सक्रिय लोग घुटने की समस्याओं से पीड़ित हो रहे हैं और उनमें नी रिप्लेसमेंट कराने की जरूरत पड़ती है।


डा. अभिषेक वैश्य ने बताया कि फास्ट ट्रैक सर्जरी टोटल नी रिप्लेसमेंट में बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाया जाता है, जिसके तहत नी रिप्लेसमेंट से संबंधित जटिलताओं की संभावनाओं को कम करने और रोगी की तेजी से और बेहतर रिकवरी के लिए जितनी जल्दी संभव हो सके रोगी को अपने पैरों पर चलाया जाता है। यह तकनीक रोगी के अनुकूल सर्जिकल तकनीक के क्षेत्र में बहुत आवश्यक अंतर को कम करती है और इस तकनीक से सर्जरी होने पर सर्जरी के बाद रोगी लगभग दर्द रहित जीवन जीने में सक्षम होता है। 
डॉ. वैश्य ने कहा कि इस तकनीक से नी रिप्लेसमेंट सर्जरी कराने वाले अधिकतर रोगी सर्जरी के 4 से 5 घंटे के भीतर ही अपना पहला कदम उठा सकते हैं।
उन्होंने बताया कि 45-60 साल के लोगों में नी रिप्लेसमेंट कराने की मांग पिछले दो से तीन वर्षों में तीन गुना हो गई है। उन्होंने बताया कि परंपरागत नी रिप्लेसमेंट के बाद रोगी 48 घंटे के बाद खड़ा होने और चलने में सक्षम होता है और सर्जरी के बाद उसे अस्पताल में 8 -10 दिनों तक रहना पड़ता है जबकि इस नई तकनीक से सर्जरी कराने पर रोगी सर्जरी के 2-3 घंटे बाद ही खड़ा हो सकता है और चल सकता है और सर्जरी के बाद उसे अस्पताल में लगभग 5- 6 दिन ही रहना पड़ता है। 
'फास्ट ट्रैक सर्जरी' के तहत मुख्य फोकस ऑपरेशन से पहले काउंसलिंग, आपरेशन से पहले और आपरेशन के समय दर्द का प्रबंधन, मुलायम-ऊतक के अनुकूल सर्जिकल तकनीक, रक्त के नुकसान को कम करने की रणनीतियां, हाय-फ्लेक्सियन नी इम्प्लांट, आपरेषन के बाद दर्द के प्रबंधन के लिए शून्य सहनशीलता और प्रभावी फिजियोथेरेपी पर दिया जाता है।
डा. वैश्य के अनुसार फास्ट ट्रैक नी रिप्लेसमेंट की प्रक्रिया आउटपेषेंट प्रक्रिया के रूप में सभी जांच और प्री एनेस्थेटिक चेक-अप करके शुरू की जाती है। रोगी सर्जरी से सिर्फ एक रात पहले अस्पताल में भर्ती होता है। सर्जरी सिंगल षाॅट स्पाइनल एनीस्थिसिया से शुरू की जाती है जो स्पाइनल एनीस्थिसिया की अवधि को कम करती है और रोगी अपने पैर की शक्ति को दो से तीन घंटे के भीतर वापस पा लेता है। सर्जरी के दौरान कोई टूरनिकेट का उपयोग नहीं किया जाता है और इसलिए इसमें एनोक्सिक और दर्द पैदा करने वाले मेटाबोलाइट्स (जो टूरिनिकेट रिलीज के बाद होता है) नहीं होते हैं। इसके कारण सर्जरी के बाद दर्द कम होता है।



इस क्रांतिकारी तकनीक की मुख्य विशेषताएं हैं
1. रोगी सर्जरी के दिन ही सर्जरी के कुछ घंटों के भीतर ही चलना शुरू कर देता है।
2. इसमें छोट चीरा लगाया जाता है, मसल स्पेयरिंग आपरेटिव विधि का इस्तेमाल किया जाता है, पेरीआर्टिक्युलर इंजेक्शन लगाये जाते हैं, एपिडुरल एनाल्जेसिया का उपयोग किया जाता है, ये सभी प्रक्रिया आपरेशन के बाद प्रारंभिक अवधि में दर्द से राहत प्रदान करती है।
3. सर्जरी के बाद केवल 5-6 दिनों में ही घर के लिए डिस्चार्ज कर दिया जाता है। 
4. एक विशेषज्ञ चिकित्सक के द्वारा दो- तीन सप्ताह तक घर पर ही मिनिमल, अत्यंत प्रभावी और पूरी तरह से दर्द और परेशानी मुक्त फिलिकल थेरेपी की सुविधा प्रदान की जाती है।
5. सर्जरी के बाद 2 से 3 सप्ताह के भीतर ही रोगी अपनी दैनिक गतिविधियां और रोजमर्रा के कार्यों को करने लगता है।


30-40 वर्ष के लोगों में बढ़ रहा है दिल का दौरा

पिछले कुछ वर्षों में, हृदय रोग विषेशज्ञ एक चिंताजनक प्रवृत्ति देख रहे हैं। अब 30-40 साल के लोगों में दिल के दौरे के मामलों की संख्या बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज स्थित सरस्वती हार्ट एंड मल्टी स्पेशियलिटी हाॅस्पिटल ने पिछले दो वर्षों में ऐसे 500 मामलों का अध्ययन किया है। हाॅस्पिटल के मुख्य सलाहकार और निदेशक डॉ. डी. के. अग्रवाल ने कहा, ''उनमें से 40 प्रतिशत लोगों में कोई पारंपरिक जोखिम कारक नहीं था। यही बात हमें परेशान करती है।''
डॉ. अग्रवाल ने कहा, ''शहरी क्षेत्रों में लोगों में तनाव बहुत अधिक होता है और साथ ही काफी संख्या में युवा शराब का सेवन करते हैं जिनकी वजह से यह समस्या बढ़ रही है। मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, शारीरिक निष्क्रियता या अति-सक्रियता जैसे कारक आम तौर पर हृदय रोगों का कारण बनते हैं। मोटे तौर पर दिल के दौरे से पीड़ित 30 प्रतिशत लोग अधिक तनाव पैदा करने वाली नौकरी करने वाले होते हैं।''
उन्होंने कहा, ''दिल से संबंधित कई समस्याएं तेजी से शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण पैदा हो रही हैं। तीन दशकों में, 40 साल से कम उम्र के लोगों में हृदय रोगों के प्रकोप में आश्चर्यजनक रूप से, संभवतः तीन गुना दर से बढ़ोतरी हुई हैै।''
डाॅ. अग्रवाल ने कहा, ''युवा भारतीयों में कोरोनरी हृदय रोग की आवृत्ति विश्व स्तर पर किसी भी अन्य जनसंख्या समूह की तुलना में 15-18 प्रतिशत अधिक है। युवा भारतीयों में दिल का दौरा पश्चिम की तुलना में 3-4 गुना अधिक है।''
उन्होंने , ''अर्थव्यवस्था के नए उभरने वाले क्षेत्रों में कई युवा काम के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आक्रामक रूप से काम करते हैं और तनाव पैदा कर लेते हैं जिससे वे जोखिमों को आमंत्रित करते हैं। तनाव के कारण वे अपनी उम्र से अधिक दिख रहे हैं। विषम समय में काम करने और अस्वास्थ्यकर खाने की आदतों के कारण भी ऐसा हो रहा है।''
उन्होंने कहा, ''4-5 घंटे लगातार बैठने का असर कुछ सिगरेट पीने की तरह ही होता है, और यह प्रवृत्ति टेक्नोलाॅजी पसंद कामकाजी लोगों के बीच अधिक प्रचलित है।''
उन्होंने कहा, ''मुझे लगता है कि बढ़ते काम के बोझ, भविष्य की अनिश्चितता और व्यक्तिगत शौक को पूरा करने की कमी जीवन को सीमित कर रही है।'' 
उन्होंने कहा, ''दिल का दौरा से पीड़ित 40 साल से कम उम्र के अधिकांश लोग धूम्रपान करने वाले होते हैं। इसका एक कारण हमारे यहां मधुमेह के अधिक मामले का होना है। यही कारण है कि भारत में पश्चिम देशों की तुलना में कम से कम 10 साल पहले दिल के दौरे पड़ते हैं।''
डॉ. अग्रवाल बताते हैं, ''हृदय रोग का एक अन्य कारण वायु प्रदूषण है, जो रक्त वाहिकाओं और अग्न्याशय में बीटा कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है। रक्त वाहिकाओं का इंफ्लामेशन रक्त के थक्के को बढ़ावा दे सकता है, जिसके परिणामस्वरूप दिल का दौरा पड़ता है। इसके अलावा, अग्न्याशय में बीटा कोशिकाओं को नुकसान इंसुलिन स्रावित होने को प्रभावित कर सकता है, जिसके कारण मधुमेह हो सकता है।''
उन्होंने कहा, ''हम इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि वायु प्रदूषण दिल की समस्याओं में किस प्रकार योगदान देता है। दिल से संबंधित समस्याओं से पीड़ित अस्पताल में आईसीयू में भर्ती काफी मरीज ऐसे क्षेत्र में काम करने वाले होते हैं जिनमें अन्य क्षेत्रों की तुलना में वायु प्रदूषण के संपर्क में अधिक रहना पड़ता है।
पहले, हमारे पास वायु प्रदूशण के संपर्क में रह कर काम करने के कारण वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों को लेकर केवल 10 प्रतिशत मरीज आते थे, लेकिन अब 25 प्रतिशत मामले वायु प्रदूषण से संबंधित होते हैं। यह एक दिन में 5-10 सिगरेट पीने जैसा है।''


पोटेशियम हमारे लिए अमृत है

हम यह आलेख एक प्रश्नोत्तरी के साथ शुरू करते हैं। सवाल यह है - उच्च पोटेशियम वाले खाद्य पदार्थ से आपको क्या फायदा पहुंच सकता हैं? आपके लिए निम्नलिखित विकल्प है: 
1. ये मांसपेशियों और नसों को ठीक से काम करने में मदद करते हैं। 
2. शरीर में उचित इलेक्ट्रोलाइट और एसिड-बेस के संतुलन को बनाए रखते हैं। 
3. उच्च रक्तचाप के जोखिम को कम करने में मदद करते हैं। 
सही उत्तर है: उक्त में से तीनों
जी हाँ, आपने जो पढ़ा वो सच है! पोटेशियम एक बहुत ही महत्वपूर्ण खनिज है जिसे आपको पर्याप्त मात्रा में ग्रहण करना चाहिए।
पोटेशियम क्या है?
पोटेशियम, सोडियम और क्लोराइड खनिजों के इलेक्ट्रोलाइट परिवार में शामिल हैं। इन्हें इलेक्ट्रोलाइट्स कहा जाता है क्योंकि उन्हें जब पानी में घुलाया जाता है तो बिजली का संचालन करते हैं। पोटेशियम मांसपेशियों और नसों की गतिविधि को संचालित करने में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। जिस आवृत्ति और डिग्री से हमारी मांसपेशियां सिकुड़ती हैं, और जिस डिग्री से हमारी नसें उत्तेजित होती हैं, दोनों ही हमारे शरीर में सही मात्रा में पोटेशियम की उपस्थिति पर निर्भर करती हैं।
इसके लिए क्या आवश्यक है?
यह सही है कि हम पोटेशियम के बिना बहुत कुछ नहीं कर सकते। हमारी नसें मांसपेशियों को बताती हैं कि कब क्या करना है और मांसपेशियों नसों से प्राप्त निर्देश के अनुसार काम करती हैं। इस कार्य में पोटेशियम की भूमिका महत्वपूर्ण है। साथ ही यह हमारे शरीर के तरल पदार्थों को संतुलन में रखने में मदद करता है और हमारे रक्तचाप को नियंत्रित करता है। इसके अलावा पोटेशियम मांसपेशियों द्वारा ईंधन के रूप में उपयोग करने के लिए कार्बोहाइड्रेट के भंडारण में भी शामिल होता है। यह शरीर के उचित इलेक्ट्रोलाइट और एसिड-बेस (पीएच) संतुलन को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण है और मस्तिष्क को ऑक्सीजन देने में मदद करके कुशल संज्ञानात्मक (काग्निटिव) कार्य को बढ़ावा देता है।
महत्वपूर्ण सुझाव: जिन लोगों को उच्च रक्तचाप का खतरा होता हैं वे सोडियम के सेवन पर तो समुचित ध्यान देते हैं लेकिन बहुत कम लोग पोटेशियम की मात्रा को बढ़ाने के बारे में सोचते हैं। जबकि पोटेशियम रक्तचाप को कम रखने में मदद कर सकता है।
क्या आपको पोटेशियम की कमी है?
आम तौर पर शरीर में पोटेशियम की कमी होने पर मांसपेशियों में ऐंठन और मरोड़, थकान, मांसपेशियों में कमजोरी, सजगता में कमी, दिल की अनियमित धड़कन और हड्डियों के क्षणभंगुर होने जैसी समस्याएं हो सकती है। मानसिक लक्षणों में अनिद्रा, एनोरेक्सिया और डिप्रेशन शामिल हो सकते हैं।
पोटेशियम की पूर्ति कैसे करें?
पोटेशियम की पूर्ति करना आसान है अगर आप पांच दिन इससे भरपूर फल और सब्जियां लेते हैं। इसका मतलब यह है कि आप हर दिन पांच कटोरी फल और सब्जियां खाएं। बहुत से लोग जब पोटेशियम के बारे में सोचते हैं तो उनके दिमाग में केला आता है। यह बिल्कुल सही है क्योंकि मध्यम आकार के एक केले में 450 मिलीग्राम पोटेशियम होता है। लेकिन लोगों को इस बात की जानकारी कम है कि पोटेशियम का एक अच्छा स्रोत आलू है। मध्यम आकार का पकाया हुआ आलू 750 मिलीग्राम पोटेषियम से भरपूर होता है। अन्य उत्कृष्ट स्रोतों में मशरूम, पालक, ब्रोकोली, बैंगन, टमाटर, अजमोद, ककड़ी, स्ट्रॉबेरी, एवोकैडो, खुबानी, अनार, संतरे का रस, फूलगोभी, पत्तागोभी और टूना शामिल हैं।
महत्वपूर्ण जानकारी
पोटेशियम पानी में घुलनशील है, इसलिए यह खाना पकाने के दौरान पानी में मिल जाता है।  उदाहरण के लिए, एक आलू को उबालने के लिए उपयोग किए जाने वाले पानी में यह कम से कम आधा पोटेशियम खो देता है। इस नुकसान को कम करने के लिए, आलू या सब्जियों को उबालने के बजाय स्टीम करना, माइक्रोवेव करना, हल्का तलना या यहां तक कि फ्राइ करने की कोशिश करें। इसके अलावा खाना पकाने के लिए उपयोग किए जाने वाले पानी को फेंके नहीं बल्कि इससे सूप, स्ट्यू और पुलाव के लिए उपयोग करें ताकि आपके खाने में पोटेशियम की मात्रा बढ़ जाए। 


आपकी चौड़ी कमर कितनी खतरनाक है?

आपकी चौड़ी और मोटी कमर आपके स्वास्थ्य के लिए गंभीर रूप से हानिकारक हो सकती है। अगर आप वैसे तो छरहरे हैं लेकिन आपकी कमर मोटी है तो आपको भी यह खतरा हो सकता है। 
यही बात मैं अपने 26 वर्षीय चचेरे भाई को समझाने की कोशिश कर रही थी, जो अपने थुलथुले पेट की यह कहकर अनदेखा कर रहे थे कि यह तो कुछ भी नहीं है। यह केवल मेरे खराब पोश्चर की वजह से है। मेरा वजन ठीक है। मैं हर दिन इसकी जाँच करता हूँ! 
हालांकि उनकी उम्र अभी ज्यादा नहीं हुई है लेकिन उनका रक्तचाप अधिक है। आखिर ऐसा क्यों? इस बात को समझें।
दरअसल हमें यह समझने की आवश्यकता है कि जब हमें बेसल मेटाबोलिक इंडेक्स (बीएमआई) से यह पता चले कि हमारे शरीर का वजन लंबाई के हिसाब से सही नहीं है, तो यह चिंता की बात है और वास्तव में हमें मधुमेह, हृदय रोग और अन्य बीमारियों के खतरे को समझना चाहिए। हमें एक और कदम आगे बढ़कर अपनी कमर की परिधि (पेट के घेरे) की भी माप लेनी चाहिए। ऐसा करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि न केवल आपका अतिरिक्त वजन खतरनाक है, बल्कि अतिरिक्त पाउंड कहां पर है, खतरा इस पर भी निर्भर करता है।
इसलिए टेप निकालें और अपनी कमर की परिधि (पेट का घेरा) का माप लें। महिलाओं के लिए 32 इंच से अधिक और पुरुषों के लिए 37 इंच से अधिक कमर की परिधि जीवनशैली से संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ा सकती है, चाहे उनकी लंबाई और वजन कुछ भी क्यों न हो।
आपके लिए कितना खतरा है इसका सबसे बेहतर पता आपकी कमर की परिधि (आपके पेट के सबसे निचले हिस्से) से आपके कूल्हे की परिधि (सबसे चैडे हिस्से) के अनुपात से लगाया जा सकता है। पुरुश के लिए 1.0 से अधिक (दूसरे शब्दों में आपकी कमर आपके कूल्हों से बड़ी है) या महिला के लिए 0.8 से अधिक के अनुपात का मतलब है कि आपको तत्काल अपनी जीवन शैली के विकल्पों पर फिर से ध्यान देनेे और उनमें सुधार करने की आवश्यकता है। हो सकता है कि सभी बर्गर लंच न केवल सीधे आपके पेट में जा रहे हों, बल्कि वहां रहकर आपके रक्तचाप को भी बढ़ा रहे हों।
अनुसंधान से साफ तौर पर पता चलता है कि अपने पेट के हिस्से के आसपास वसा के जमाव वाले लोगों को उसी समान बाॅडी मास इंडेक्स (बीएमआई) वाले लोगों जिनके षरीर पर वसा का जमाव कहीं और (जांघों या बाहों आदि में) हो, की तुलना में उच्च रक्तचाप होने का अधिक खतरा होता है।
इससे भी एक बुरी खबर है। अनुसंधान के अनुसार यहां तक कि धूम्रपान नहीं करने वाले लोगों के पेट में जमा वसा के कारण सीओपीडी (क्रोनिक आब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) का खतरा बढ़ जाता है। सीओपीडी ऐसी बीमारी है जिसमें फेफड़े बहुत बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। साथ ही पेट का वसा अस्थमा, ऑस्टियोपोरोसिस और डायबिटीज के खतरे को भी बढ़ाता है।
ऐसा लगता है कि जब वसा किडनी, लीवर और पैंक्रियाज जैसे अंगों पर दवाब डालता है तो यह अलग तरीके से व्यवहार करता है। आपका वजन बढ़ने पर आपके पेट में कितना वसा जमा होगा, इसमें आनुवांशिकी प्रमुख भूमिका निभाता है। लेकिन अच्छी खबर यह है कि आंत (पेट) का वसा इस पर केंद्रित वजन घटाने के प्रयासों से कम होता है।
लेकिन सिर्फ वजन कम करने से ज्यादा फायदा नहीं होगा, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी सचेत प्रयास करना चाहिए कि पेट अंदर की ओर धंसा रहे। इसलिए न सिर्फ इस पर ध्यान देना जरूरी है कि आप कितना वसा का सेवन कर रहे हैं बल्कि आप जिस तरह का वसा का सेवन कर रहे है, उस पर भी बहुत बारीकी से ध्यान दें। हमें वसा का बिल्कुल सेवन नहीं करने की बजाय असंतृप्त वसा (मुफा और फुफा) का सेवन करना चाहिए और समझना चाहिए कि अधिक वसा और अधिक चीनी दोनों खाद्य पदार्थ पेट की चर्बी और फैटी लीवर के मित्र हैं। इसलिए, शाम चार बजे चिप्स खाने पर अंकुश लगाने का यह सही समय है!
सोडा का डर भी सही है। मीठा सोडा में कैलोरी नहीं होती है, लेकिन यह आपके आहार को स्पष्ट रूप से खराब करता है और इससे बनाये गये खाद्य पदार्थ आपकी कमर का भी विस्तार कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसमें कृत्रिम मिठास होते हैं, जो नियमित चीनी की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक मीठे होते हैं। ये हमारे शरीर के मेटाबोलिज्म के लिए यह भ्रम पैदा करते हैं कि शरीर में शुगर आ रहा है और शुरीर इंसुलिन, फैट जमा करने वाले हार्मोन उत्सर्जित करता है जिससे पेट में अधिक चर्बी बढ़ती है। 
इस सबका सार यह है कि अपनेे पेट को कम करने के लिए प्रयास करना महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह न केवल अप्रिय लगता है, बल्कि यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर रूप से खतरनाक है।


एंजियोप्लास्टी दूर करेगी हृदय वाल्व की खराबी

हमारे देश में हृदय के वाल्व में खराबी आना या उनका विकारग्रस्त होना  एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में जागरूकता एवं बेहतर चिकित्सा सुविधाओं के कारण यह समस्या काफी हद तक काबू में आ चुकी है लेकिन हमारे देश में गरीबीए अत्यधिक भीड़.भाडए जागरूकता का अभाव तथा बेहतर चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण हृदय वाल्व में खराबी की समस्या काफी व्यापक है। 
भारत में हृदय वाल्व में खराबी की समस्या की व्यापकता का एक बड़ा कारण रहृयूमेटिक हार्ट डिजीज है। यह बीमारी निम्न आय वर्ग के बच्चों और किशोरों में ज्यादा होती है। इसके अतिरिक्त घनी आबादी और भीड़भाड़ वाली जगहों पर रहने वाले लोग भी इस बीमारी की गिरफ्त में ज्यादा आते हैं। हमारे देश में गरीबों को खास तौर पर शिकार बनाने वाले रह्यूमेटिक रोग के कारण करीब दो करोड़ से अधिक लोग हृदय वाल्वों में खराबी से ग्रस्त हैं। अपने देश में इस रोग की व्यापकता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विभिन्न अस्पतालों में भर्ती होने वाले 30 से 50 प्रतिशत हृदय रोगी इसी रोग से पीड़ित होते हैं। 
हार्ट वाल्व की खराबी तब होती है जब हृदय के एक या अधिक वाल्व ठीक से काम नहीं करते। दिल में चार वाल्व होते हैं। हार्ट वाल्व डिजीज में हृदय से होकर जाने वाले रक्त का प्रवाह बाधित हो जाता है। इस तरह की समस्या होने पर प्रभावित व्यक्ति के पूरे स्वास्थ पर असर पड़ सकता है। मानव हृदय में झिल्लीनुमा संरचना वाले चार हार्ट वाल्व होते हैं। चार कक्षों वाले हृदय में वाल्व का काम लगातार एक दिशा में रक्त संचरण को बनाए रखना होता है। वाल्व ऊपरी और निचले कक्षों के प्रवेश और निकास द्वार पर मौजूद रहते हैं। इनका काम रक्त को आगे प्रवाहित करना और पीछे लौटने से रोकना होता है। ये फोल्ड होने के साथ बंद भी हो जाते हैं।
हार्ट चैंबर में लगे वाल्व हर एक हार्ट बीट के साथ खुलते और बंद होते हैं। हार्ट वाल्व यदि ठीक प्रकार से काम कर रहे हैं तो रक्त संचार बिना किसी बाधा के आगे की तरफ हो रहा होता है। हार्ट वाल्व में सिकुड़न या अन्य कोई परेशानी होने पर रक्त पूरी तरह आगे न जाकर पीछे की तरफ लौटना शुरू कर देता है। 
हृदय के वाल्व के सिकुड़ जाने या कठोर हो जाने पर दिल की मांसपेशियों को रक्त खींचने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। हार्ट वाल्व के रोग  जन्मजात भी हो सकते है। इसके अलावा यह समस्या किसी तरह के संक्रमण के कारण भी हो सकती है। ज्यादातर मामलों में हार्ट वाल्व के रोग की समस्या बाद में पैदा होती है। कई बार इस तरह की समस्या होने के कारण का पता नहीं चलता। यह समस्या बीमारियों से ग्रस्त रहने के कारण भी हो सकती है।
रह्युमेटिक हृदय रोग अथवा अन्य कारणों से वाल्व में खराबी होने पर रोगी की स्थिति के अनुसार बैलून वाल्वोप्लास्टी और ओपन हार्ट सर्जरी का सहारा लिया जाता है।
वाल्व के सिकुड़ जाने पर बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी की मदद ली जाती है और वाल्व के बंद होनेए रिसाव होने तथा वाल्व में बहुत ज्यादा सिकुड़न होने पर ऑपरेशन के जरिये ही वाल्व रिप्लेसमेंट किया जाता है। इसे माइट्रल अथवा एयोर्टिक वाल्व रिप्लेसमेंट कहा जाता है। 
जब वाल्व में बहुत ज्यादा रिसाव नहीं होता और उसमें कैल्शियम जमा नहीं होता है तब उसे बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी की मदद से ही खोला जा सकता है। आज बैलून तकनीक काफी कारगर साबित हो चुकी है। पिछले 10—15 सालों से इसका व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि सीना खोल कर की जाने वाली ओपन हार्ट सर्जरी की जरूरत भी काफी ज्यादा हो गयी है क्योंकि ज्यादातर मरीज इलाज के लिए काफी देर में आते हैं उस समय तक सारे वाल्व खराब हो जाते हैं इसलिए सर्जरी के अलावा कोई चारा नहीं होता है। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को ओपन हार्ट सर्जरी से बहुत अधिक खतरा रहता है। कई बार सर्जरी के दौरान पेट में पल रहे बच्चे की जान चली जाती है। बैलून तकनीक में मरीज को बिना बेहोश किए ही बहुत कम समय में वाल्व को खोला जा सकता है।
आपात स्थिति में वाल्व बदलने पर मरीज की जान जाने का खतरा 50 प्रतिशत तक होता है लेकिन सामान्य स्थिति में वाल्व बदलने पर खतरा मात्र चार—पांच प्रतिशत ही होता है। ऐसे में मरीज तीसरे—चौथे दिन से ही चल—फिर सकता है।  
वाल्व खोलने की प्रक्रिया में एक—दो प्रतिशत मरीजों के वाल्व फट भी सकते हैं। ऐसी स्थिति में मरीज की जान पर खतरा मंडराने लगता है। ऐसी स्थिति में मरीज का वाल्व ऑपरेशन के जरिये तत्काल बदलना जरूरी होता है। इसलिये बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी के दौरान शल्य चिकित्सकों की टीम का होना आवश्यक होता है। बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी से वाल्व खोलने में मरीज को बेहोश नहीं करना पड़ता है तथा मरीज को रक्त नहीं चढा़ना पड़ता है। मरीज को मात्र एक—दो दिन ही अस्पताल में रूकना पड़ता है। फेफड़े में जाने वाली पल्मोनरी नामक नस वाला वाल्व अगर बचपन से ही खराब हो तो उसे बिना ऑपरेशन बैलून की मदद से खोला जा सकता हैं। इसके अलावा एयोर्टिक वाल्व अगर संकरा हो जाये तो उसे बैलून की मदद से खोला जा सकता है। इस वाल्व से हृदय का रक्त निकल कर बाहर जाता है।


 


मस्तिष्क में चोट हेड इंज्युरी एवं ट्राॅमेटिक ब्रेन इंज्युरी

मस्तिष्क में चोट लगने पर (हेड इंज्युरी) मस्तिष्कऔर खोपड़ी (स्कल) को क्षति या आघात पहुंच सकता है। हेड इंज्युुरी को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है।
हेड इंजुरी होने पर मस्तिश्क से रक्तस्राव, बेहोशी और यहां तक कि मौत भी हो सकती है।
अनुमान लगाया गया है कि भारत में हर साल 20 लाख लोगों को हेड इंज्युुरी होती और 10 लाख लोगों की हेड इंजुरी के कारण मौत हो जाती है।
खोपड़ी (स्कल) और मस्तिष्क(ब्रन)
खोपड़ी और चेहरा सहित सिर मस्तिष्क को सुरक्षा प्रदान करता है। हड्डियों से सुरक्षा प्रदान करने केे अलावा, मस्तिष्क मेनिन्ग्स नामक कड़े रेषेदार परतों से ढका रहता है और इसके चारों ओर तरल पदार्थ होता है।
जब कोई इंज्युुरी होती है, तो सिर को दिखाई देने वाली कोई क्षति नहीं होने के बावजूद मस्तिष्क के कार्यांे को क्षति पहुंच सकती है। सिर पर कोई चोट लगने पर मस्तिष्कप्रत्यक्ष रूप से चोटिल हो सकता है या खोपड़ी की भीतरी दीवार के चोटिल होने के कारण इसका मानसिक प्रभाव पड़ सकता है। मस्तिश्क में आघात के कारण मस्तिष्कके आसपास के हिस्सों में रक्तस्राव होने की संभावना होती है, मस्तिष्क के ऊतकों में खरोंच आ सकती है, या मस्तिष्क के भीतर तंत्रिका जुड़ाव को नुकसान पहुंच सकता है।
कारण:
1. सड़क वाहन दुर्घटनाएं हेड इंज्युुरी का सबसे बड़ा कारण है। हेड इंज्युुरी के लगभग 60 प्रतिशत मामलों के लिए सड़क वाहन दुर्घटनाएं ही जिम्मेदार होती है।
2. गिरना विशेष रूप से बुजुर्गों में गिरना हेड इंज्युुरी का एक आम कारण है। इसलिए बुजुर्ग लोगों को चलने में परेशानी आने पर इसकी पहचान करना महत्वपूर्ण है ताकि उन्हें छड़ी का इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके और इस तरह उन्हें गिरने से बचाया जा सके।
3. हिंसा हेड इंज्युुरी का एक और कारण है। हेड इंजुरी के षिकार लगभग 10 प्रतिशत लोगों में इसका कारण हिंसा होता है।
4. शराब को हेड ट्राॅमा के लगभग 20 प्रतिषत मामलों के लिए जिम्मेदार पाया गया है। यह सड़क दुर्घटनाओं, झगड़ों और गिरने की आषंका को बढ़ाता है।
लक्षण:
हेड इंज्युुरी घाव के अलावा भी कई लक्षण पैदा कर सकता है:
1. बेहोशी: हेड इंज्युुरी होने पर व्यक्ति कम या अधिक समय तक अपनी चेतना खो सकता है या एक बार बेहोष होने पर दोबारा होष में आ सकता है लेकिन वह भ्रमित हो सकता है या नींद सा अनुभव कर सकता है। उसे कम समय के लिए दौरे भी पड़ सकते हैं।
2. भ्रम: हेड इंज्युुरी होने पर कुछ रोगी बेहोश नहीं हो सकते हंै, लेकिन उनमें भ्रम के लक्षण दिख सकते हैं और नींद सा अनुभव कर सकते हैं।
3. खोपड़ी में फ्रैक्चर: हेड इंज्युुरी होने पर खोपड़ी में दबाव के लक्षण दिख सकते हैं।
4. कान और नाक से साफ तरल पदार्थ निकल सकता है। यह आम तौर पर तब दिखाई देता है जब खोपड़ी के आधार में फ्रैक्चर हो, तो इससे मस्तिश्क के चारों ओर घूम रहा तरल लीक कर सकता है।
5. आँखों का काला होना या कान के पीछे ब्रूजिंग: सिर में तेज चोट के कारण आँख और कान के आसपास रक्त वाहिकाएं टूट सकती है।
6. नजर में परिवर्तन: गंभीर हेड इंज्युुरी होने पर आंख का प्यूपिल बड़ा हो सकता है। इससे मरीज धुंधली दृष्टि और डबल विजन की शिकायत कर सकते हैं।
7.  घुमटा और चक्कर आना: हेड इंज्युुरी के बाद यह अक्सर देखा जा सकता है।
8. उल्टी: यदि हेड इंज्युुरी के बाद बार- बार उल्टी आती है, तो रोगी को तुरंत अस्पताल ले जाना जरूरी है।
हेड इंजुरी के प्रकार
लक्षणों की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि चोट हल्की, मध्यम या गंभीर है।
— माइल्ड ट्राॅमेटिक ब्रेन इंज्युुरी: इसे मस्तिश्काघात (कन्कषन) भी कहा जाता है। यह तब होता है जब चेतना का कोई नुकसान नहीं हुआ हो या यह 30 मिनट से कम रहा हो। इसके लक्षण इंजुरी के समय या उसके तुरंत बाद दिख सकते हैं। लेकिन कभी- कभी इसके लक्षण कई दिनों या सप्ताहों तक नहीं दिख सकते हैं। माइल्ड ट्रामेटिक बे्रन इंज्युुरी के लक्षण आम तौर पर अस्थायी होते हैं और कुछ घंटों, दिनों या सप्ताहों में स्पश्ट हो जाते हैं, लेकिन ये कई महीनों या इससे भी अधिक समय तक रह सकते हैं।
— मॉडरेट ट्राॅमेटिक ब्रेन इंज्युुरी: यह बेहोषी पैदा करता है जो 30 मिनट से अधिक समय तक रह सकती है। मॉडरेट ट्राॅमेटिक ब्रेन इंजुरी के लक्षण माइल्ड ट्राॅमेटिक ब्रेन इंज्युुरी के समान ही होते हैं लेकिन अधिक गंभीर और लंबे समय तक रहता है।
गंभीर ट्राॅमेटिक ब्रेन इंज्युुरी: यह बेहोषी पैदा करता है जो 24 घंटे से अधिक समय तक रहती है। गंभीर ट्राॅमेटिक ब्रेन इंजुरी के लक्षण बहुत गंभीर होते हैं और इसका उचित इलाज कराने की जरूरत है।
ट्राॅमा के कारण मस्तिष्क में होने वाला रक्तस्राव कई प्रकार का हो सकता है:
1. इंट्राक्रैनियल हेमरिज: रक्त मस्तिष्क पैरेन्काइमा के अंदर पाया जाता है। यदि रक्त अधिक बह रहा हो और उसी स्थान से बह रहा हो तो रक्त को निकालने के लिए रोगी की तत्काल सर्जरी करने की जरूरत होगी। इस तरह के रक्तस्राव में रोगी अचानक कमजोरी महसूस कर सकता है।
2. सबड्यूरल हेमैटोमा: यह तब होता है जब रक्त मस्तिष्क और खोपड़ी की परतों के बीच होता है। यह हेड ट्राॅम में अक्सर देखा जाता है और यह नसों के फटने से उत्पन्न होता है। बुजुर्ग लोगों में उनके गिरने पर यह अक्सर होता है। यदि वहां रक्त अधिक जमा हुआ हो, तो रक्त को बाहर निकालने के लिए एक बड़ा छेद किया जाता है।
3. एपीड्यूरल हेमरिज: यह भी तब होता है जब रक्त मस्तिष्क और खोपड़ी की परतों के बीच होता है और यह गंभीर ट्रामा में अक्सर देखा जाता है। इसके मुख्य लक्षण यह हैं कि इंजुरी के बाद भी रोगी ठीक रहता है (जिसे ल्युसिड इंटरवल कहा जाता है) लेकिन दो घंटों के भीतर बेहोश हो जाता है। इसलिए रोगी को अस्पताल ले जाना जरूरी है। ऐसे मामले में रोगी को अस्पताल ले जाना नहीं भूलें।
मस्तिष्क में रक्तस्राव की पहचान सीटी स्कैन से की जाती है जिसमें कुछ ही मिनट लगते हैं। रोगी की तत्काल देखभाल के बाद मस्तिश्क की एमआरआई की जा सकती है।
हेड इंज्युुरी का इलाज
हेड इंज्युुरी का इलाज चोट की सीमा पर निर्भर करता है। इसके उपचार में विविधता हो सकती है।
यदि चोट मामूली है, तो रोगी के लक्षणों के आधार पर उसे कुछ दिनों के लिए अवलोकन के लिए भर्ती किया जा सकता है। गंभीर ब्रेन इंजुरी होने पर, रोगियों को अस्पताल में विषेश देखभाल की जरूरत होती है और मस्तिष्क से रक्त को हटाने के लिए तत्काल सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है। उसके बाद रोगियों को आम तौर पर कई महीने के पुनर्वास की आवश्यकता होती है।
हेड इंज्युुरी होने पर तुरंत चिकित्सीय सलाह लेना महत्वपूर्ण है। इसे समस्या की सही पहचान हो सकती है और इससे विकलांगता और मौत की आषंका भी कम हो सकती है।