होलिस्टिक स्वास्थ्य एवं ओलंपिक खेलों के क्षेत्र में काम करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी ''समिधा'' ने दुनिया भर की महिलाओं को उनकी की रक्षा करने के लिये बनाये गये पहले कानूनी एवं व्यापक आत्मरक्षक वाले पोर्टेबल उपकरण को पेश किया है।
पहली बार दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के इंजीनियरों ने भारत के मार्षल कला विषेशज्ञ एवं खेल चिकित्सक की अगुआई में एकजुट होकर इस छोटे से एकीकृत उपकरण का विकास किया।
अगर कुछ शरारती तत्व किसी महिला के साथ छेडखानी करते है या उनपर हमला करते हैं तो यह उपकरण महिलाओं के लिये सुरक्षा आवरण का काम करेगा। इस उपकरण को ''भवानी'' नाम दिया गया है। यह उपकरण दस इंच की छड़ी की तरह है जिसे छोटा करके एक इंच में किया जा सकता है और किसी भी पर्स या हैंडबैग में आसानी से ले जाया जा सकेगा। इस उपकरण में पांच इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी क्षेत्रों - इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक, दूरसंचार, रासायनिक और यांत्रिक इंजीनियरिंग का उपयोग किया गया है। इसके बटन को जब दबाया जाता है तो इससे तेज रौषनी निकलती है तथा सायरन बजने लगता है, इसमें किसी अन्य को शारीरिक क्षति नहीं पहुंचाने वाला एक स्टेन गन है, दस फीट की दूरी तक फेंकने वाला पिपर स्प्रे तथा एक पैनिक बटन है। बटन को दबाने के साथ ही यह उपकरण स्थल की जीपीएस लोकेशन की जानकारी के साथ पहले से तय किये गये पांच लोगों को एसएमएस भेजता है, पहले फोन नम्बर पर ''एक्टिव वायस'' काल करता है। इसमें स्विस चाकू तथा दो फीट की मोड़ी जा सकने वाली छड़ी है। इसमें लगी हुयी जीपीआरएस प्रणाली पीड़िता की सही जगह को बताता है। इस उपकरण में भारत के अलावा जापान, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम के संबंध में जानकारियां है।
संकट के समय महिलाओं को सक्षम बनाने वाला यह यह उपकरण विशेषज्ञ की टीम की मेहनत का नतीजा है। ''भवानी'' के विकास में मुख्य भूमिका निभाने वाले डा. पवन कोहली के अनुसार, ''प्रधानमंत्री के ''मेक इन इंडिया'' के विजन को पूरा करने की दिषा में यह उपकरण एक और मील का पत्थर है। यह उपकरण भारत में बना है और दुनिया भर की महिलाओं के लिये भारत की तरफ से एक भेंट है जो महिलाओं को सम्मान के साथ जीने में सक्षम बनायेगा। इस उपकरण की अवधारणा को बनाने तथा इसकी डिजाइन के विकास में करीब 30 महीने का समय लगा।'' डा. पवन कोहली भारत के प्रमुख आर्थोपेडिक एवं ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन हैं जो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खिलाडियों के प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक खिलाडडियों के साथ काम करते हैं।
भवानी का वजन डेढ़ किलोग्राम है तथा लंबाई 10 इंच है। स्टन गन हमलावर को षारीरिक क्षति पहुंचाये बगैर बिजली का झटका देता है और यह झटका इतना तेज होता है कि यह हमलावर को एक से दो फीट दूर फेक देता है। अगर कई हमलावर हों तो पिपर स्प्रे की मदद से उन्हें भगाया जा सकता है। यह स्पे्र गांवों में महिलाओं द्वारा आत्मरक्षा के लिये इस्तेमाल किये जाने वाली परम्परागत लाल मिर्च से 25 गुना अधिक कारगर है। पैनिक बटन के जरिये आसपास के लोगों को मदद के लिये बुलाया जा सकता है। समुराई छड़ी तथा 4'' स्विस चाकू का इस्तेमाल हमलावर से निबटने के लिये हो सकता है। इन सभी विषेशताओं को एक छोटे से पोर्टेबल उपकरण में समाहित किया गया जिन्हें आसानी से हैंडबैग में ले जाया जा सकता है और इसका आभास किसी को भी नहीं होता है।
इन सभी विषेशताओं वाले उपकरणों को समिधा भवानी में एक साथ जोड़ा गया है और इन्हें मिलाकर एकल पोर्टबल उपकरण के रूप में विकसित किया गया है। भारत के सभी षहरों में इसे खरीदा जा सकता है। यह उपकरण किसी को षारीरिक क्षति नहीं पहुंचता है लेकिन पीडिता को सुरक्षा कवच प्रदान करता है। यह पूरी तरह से कानूनी उपकरण भी है।
भवानी हमारे प्राचीन संतों के इन विचारों से प्रेरित है:
1. गरिमा के साथ महिला सशक्तिकरण
2. किसी को क्षति पहुंचाये बगैर अधिक क्षमता के साथ अपनी सुरक्षा
3. मातृभूमि का आत्मसम्मान का सीधा संबंध नारी सम्मान से है - देष की माताओं, बहनों तथा बेटियों के सम्मान के साथ जुड़ा है।
4. दुनिया भर की महिलाओं के लिये भवानी भारत की तरफ से उपहार है। इसकी डिजाइन भारत में की गयी है, इसका निर्माण भारत में किया गया है और यह भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों से प्रेरित है।
5. भवानी महादेव की संगनी का नाम है जो वीरता और सुरक्षा की देवी है।
6. भवानी भारत में महिलाओं में आत्म विष्वास एवं साकारात्मकता को बढ़ायेगी।
महिलाओं को आत्मरक्षा के लिए सक्षम बनाएगा समिधा
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लैप्रोस्कोपी से गर्भाशय ग्रीवा कैंसर का इलाज
गर्भाशय ग्रीवा (गर्भ के मुंह) कैंसर पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय महिलाओं में होने वाला सबसे आम कैंसर है। इसके कारण भारत में हर साल करीब 72 हजार महिलाओं की मौत होती है जो कि दुनिया भर में होने वाली दो लाख 75 हजार मौत का 26 प्रतिषत से भी अधिक है।
आम तौर पर 18 से 45 वर्ष की महिलाओं को प्रभावित करने वाला गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर का संबंध यौन संचारित वायरस ह्युमन पैपिलोमा वायरस से है, जो जननांग में गांठ/मस्से भी पैदा करता है।
लक्षण
दुर्भाग्य से, गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के लक्षण षुरुआत मंे शायद ही कभी प्रकट होते हैं। इसके लक्षण तब दिखना शुरू होते हैं जब कैंसर तेजी से बढ़ने लगता है। इसके लक्षणों में असामान्य योनि स्राव, दो पीरियड के बीच में अप्रत्याषित रक्तस्राव, यहां तक कि रजोनिवृत्ति तक पहुंचने के बाद भी रक्तस्राव, यौन संबध के दौरान रक्तस्राव या असहनीय दर्द शामिल हैं।
रोग की पहचान
गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर का जल्दी पता लगाने के लिए पैप स्मीयर परीक्षण सबसे अच्छा तरीका है। इसके लिए गर्भाशय के मुंह से स्वाब को लेकर असामान्य कोषिकाओं का पता लगाया जाता है। यहां तक कि कभी - कभी कैंसर के प्रकट होने से पहले ही इससे असामान्य कोषिकाओं का पता चल सकता है। विषेशज्ञ हर महिला को 30 साल की उम्र के बाद हर तीन साल पर पैप स्मीयर जांच कराने की सलाह देते हैं।
इलाज
इसकी जल्द पहचान होने पर इसेे पूरी तरह से ठीक होने की अधिक संभावना होती है।
नयी सर्जिकल तकनीक
लेप्रोस्कोपी और गर्भाशय ग्रीवा कैंसर:
अब विशेषज्ञों के द्वारा लैप्रोस्कोपी की मदद से षुरूआती अवस्था के कैसर को पूरी तरह से दूर करना संभव है। यदि महिला का परिवार पूरा हो गया हो और वह और बच्चे नहीं चाह रही हो, तो लैप्रोस्कोपी के द्वारा आसपास के उतकों और नोड्स को हटाने के साथ रैडिकल हिस्टेरेक्टाॅमी की जाती है। लेकिन वैसी महिलाएं जो भविश्य में बच्चे पैदा करना चाहती हैं तो उनमें लैप्रोस्कोपी की मदद से रैडिकल ट्रैकेलेक्टाॅमी (केवल आसपास के ऊतक और नोड्स के साथ गर्भाशय के मुंह को हटाना) की जाती है।
लाभ:
लैप्रोस्कोपी की मदद से इस प्रक्रिया को करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे ओपन सर्जरी की तुलना में कैंसर को पूरी तरह से और बेहतर तरीके से हटाया जा सकता है। लैपरोस्कोपिक सर्जरी में रोगी को कम दर्द होता है और रक्त की बहुत कम हानि होती है और इसलिए सर्जरी के बाद आम तौर पर रक्त चढ़ाने की आवष्यकता नहीं होती है। सर्जरी के बाद रोगी तेजी से रिकवरी भी करती है। कुल मिलाकर रोगी कैंसर की सर्जरी के बाद बहुत जल्द (दो से तीन दिन) अपनी दैनिक दिनचर्या करने लगती है और वह जल्द ही अपनी बीमारी से मुक्त हो जाती है। यही नहीं, अच्छी तरह से इलाज की गयी युवा महिला इस सर्जरी के बाद अपने बच्चे भी पैदा कर सकती है। हालांकि इसके लिए लैपरोस्कोपी से कैंसर के इलाज के समय ही लैपरोस्कापिक इनसरक्लेग की मदद से उसके गर्भाशय के मुंह में स्थायी रूप से कसावट लाने की जरूरत होती है।
तथ्य
धूम्रपान गर्भाशय ग्रीवा कैंसर होने के खतरे का बढ़ाता है।
कई लोगों से यौन संबंध स्थापित करने पर गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर होेने का खतरा बढ़ जाता है।
कंडोम के उपयोग से गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर का खतरा कम हो जाता है।
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ब्लेफारोप्लास्टी करेगी पलकों का कायाकल्प
जब हम किसी व्यक्ति से पहली बार मिलते हैं तो हमारा पहला संवाद आंखों के जरिये होता है। समुचित तरीके से विकसित और सुव्यवस्थित पलकों से घिरी हमारी आखें किसी व्यक्ति के सौंदर्य एवं व्यक्तित्व में चार चांद लगाती हैं।
हमारी उम्र के बढ़ने का पहला संकेत आंखों से ही मिलता है। आंखों के चारों तरफ की ढीली- ढाली त्वचा और झुर्रियां, गिरी हुयी और भैंगी पलकें किसी व्यक्ति की बढ़ती उम्र की कहानी कहती हैं। यही नहीं, आंखों के बाहरी कोनों पर अत्यधिक झुर्रियों और किनारे पर पतली लकीरें (क्रोज फीट) के कारण व्यक्ति अपना आकशण खो देता है।
पलकों की सर्जरी (आई लिड सर्जरी) या ब्लेफारोप्लास्टी के जरिये उपरी, निचली अथवा उपर-नीचे दोनों तरफ की पलकों के सौंदर्य में चार चांद लगाया जा सकता है। इस सर्जरी के जरिये आंखों के आसपास के हिस्से में सुधार लाया जा सकता है तथा पलकों के नीचे झुक जाने के कारण दृश्टि में आने वाली बाधा को दूर किया जा सकता है। इस तरह से व्यक्ति के सौदर्य एवं नेत्र दृश्टि दोनों में सुधार लाया जा सकता है।
ऑपरेटिव और पोस्ट ऑपरेटिव:
यह सर्जरी लोकल एनेस्थीसिया के तहत की जाती है और पूरी तरह से दर्द रहित है। एक ही सीटिंग में उपरी, निचली और उपर-नीचे दोनों पलकों के दोषों को दूर किया जा सकता है। आंखों की पलकों पर जरूरी मार्किंग के बाद त्वचा की अतिरिक्त सिलवटों को दूर कर दिया जाता है। इसके अलावा पलकों के नीचे से अतिरिक्त वसा को भी निकाल दिया जाता है।
कई बार नीचे की पलकों को ठीक करने के लिये कसावट लाने की प्रक्रिया करने की जरूरत होती है। मांसपेशियों में कसावट लाने या उन्हें छोटा करने से उपरी पलकों के नीचे झुकने या गिरने की समस्या समाप्त हो जाती है। हंसने के दौरान आंखों के किनारे उभरने वाली लकीरें तथा झुर्रियों को कम किया जा सकता है लेकिन पूरी तरह से दूर नहीं किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के कारण बनने वाले जख्मों को भर दिया जाता है और टांकों पर मलहम लगाये जाते हैं।
पहले दो से तीन दिनों तक आंखों के आसपास सूजन और लालिमा रहती है और उसके बाद यह ठीक होने लगती है। आॅपरेषन के पांचवे या छठे दिन सभी टांके हटा दिये जाते हैं। शुरू में स्टिच लाइन दिखती है लेकिन एक महीने में ये दूर हो जाती है और प्राकृतिक त्वचा हो जाती है।
परिणाम और जटिलतायें:
टांके हटने के एक सप्ताह बाद चेहरे पर ताजगी आ जाती है एवं यौवन झलकने लगता है। ज्यादातर मामलों में इस सर्जरी के बाद चेहरा अधिक साफ दिखता है। आॅपरेषन के बाद की दिक्कत तथा पलकें खोलने की दिक्कत कम हो जाती है और आंखें थकी-थकी नहीं लगती है।
सर्जरी के कोई गंभीर दुश्प्रभाव नहीं होते हैं। खून बहने के कारण कई बार अधिक सूजन होती है लेकिन इसका समाधान हो सकता है। लैक्स मार्जिन के कारण सहारे में कमी या अधिक रिसेक्षन के कारण निचली लिड झुकने जैसी स्थिति आती है। इसे ठीक करने के लिये निचली लिड मार्जिन में कसावट लाने की प्रक्रिया की जाती है। जिन लोगों को ड्राई आई सिंड्रोम है या जिन्हें आंसू बनने में दिक्कत होती है उन्हें अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। चिकित्सा शास्त्र में बहुत ही दुर्लभ स्थिति में आईबाॅल में असामान्य रक्तस्राव होने के कारण रौशनी को क्षति पहुुचने की बात कही गयी है।
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गांवों में कैंसर को आज भी माना जाता है अभिशाप
कैंसर को अभी भी भारतीय समाज में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अभिषाप माना जाता है। स्तन कैंसर से पीड़ित महिलाएं इसके बारे में खुले तौर पर नहीं बोलती हैं और अपनी बीमारी का इलाज कराने में अक्सर शर्म महसूस करती हैं। लक्षण दिखने के बावजूद, परिवार तब तक अपनी बेटियों को डाॅक्टर के पास ले जाने से बचते रहते हैं जब तक कि उनकी हालत असहनीय न हो जाए। हमारे देश में कैंसर के अधिकतर मामलों की पहचान देर से होने का यह एक मुख्य कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 60 प्रतिषत से अधिक महिलाओं में स्तन कैंसर की पहचान तीसरे या चैथे चरण में होती है। रोगियों के जीवित रहने की दर और उपचार के विकल्पों पर इसका काफी अधिक प्रभाव पड़ता है।
मैक्स सुपर स्पेशलिटी हाॅस्पिटल, षालीमार बाग के सर्जिकल ओंकोलाॅजी विभाग के वरिश्ठ कंसल्टेंट डॉ. रुद्र आचार्य ने कहा, ''हरियाणा अपने निकट के राज्य पंजाब की तरह ही कैंसर का एक क्षेत्र बनने की राह पर है। हालांकि यहां कैंसर के रोगियों की सही संख्या उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हरियाणा से कैसंर के अधिक से अधिक मामले सामने आ रहे हैं। एक ताजा अध्ययन में कैंसर की व्यापकता पुरुषों में 55 प्रतिषत और महिलाओं में 45 प्रतिषत और कैंसर रोगियों की औसत उम्र पुरुशों में 52 वर्ष और महिलाओं में 62 वर्श पायी गयी। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि महिलाएं भी पुरुशों के समान ही कैंसर से पीड़ित हैं। क्षेत्र में कैंसर के मामलों के बढ़ने का एक मुख्य कारण लोगों में कैंसर और इसकी शीघ्र जांच की जानकारी की कमी है। हम पानीपत और आसपास के क्षेत्रों के निवासियों से आग्रह करते हैं कि वे नियमित रूप से जांच के लिए आगे आएं ताकि कैंसर की पहचान प्रारंभिक अवस्था में ही की जा सकें।''
कैंसर होने का मतलब जिंदगी खत्म हो जाना नहीं है। कैंसर की पहचान यदि पहले या दूसरे चरण जैसे शुरूआती अवस्था में ही हो जाए तो रोग का इलाज होना या रोगी के जीवित रहने की दर 80 से 100 प्रतिषत होती है जबकि तीसरे और चौथे चरण में कैंसर की पहचान होने पर इसके इलाज होने की संभावना सिर्फ 30 से 50 प्रतिषत ही होती है। लेकिन इसकी रोकथाम के लिए, लोगों को सक्रिय होने की जरूरत है और उन्हें जांच के लिए नियमित रूप से अस्पताल आना चाहिए।
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बचपन में खराब रहन-सहन से पड़ सकता है युवावस्था में दिल का दौरा
हरियाणा में हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि युवावस्था में यहां तक कि 20 साल की उम्र के बाद ही होने वाले दिल के दौरे एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बन चुके हैं और इस अध्ययन में युवावस्था में होने वाले दिल के दौरे का बचपन के रहन- सहन से भी मजबूत संबंध पाया गया।
इस अध्ययन के तहत में हरियाणा के विभिन्न भागों से आये हृदय रोगियों का अध्ययन किया गया। 20-30 साल के आयु वर्ग में कोरोनरी हृदय रोग की व्यापकता 5 प्रतिशत पायी गयी, जबकि 30-40 साल के आयु वर्ग में इसकी व्यापकता 16 प्रतिषत, 40-50 साल के आयु वर्ग में 34 प्रतिषत और 50 से अधिक आयु वर्ग में 44 प्रतिषत पायी गयी।
दिल्ली के शालीमार बाग में मैक्स सुपर स्पेशलिटी हाॅस्पिटल में वरिष्ठ इंटरवेंशनल हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. नरेश कुमार गोयल ने बताया कि इस अध्ययन में शामिल युवा रोगी समूह (20-40 वर्ष) में से अधिकतर रोगियों में उनके बचपन के समय के दौरान पैसिव स्मोकिंग या तनाव या दोनों का इतिहास पाया गया। उनमें तनाव के प्रमुख कारणों में माता - पिता का व्यवहार, पैसे संबंधी मुद्दे, पारिवार में शोषण और दुव्र्यवहार पाये गये।
डॉ. नरेश कुमार गोयल ने कहा कि बड़े अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार बच्चों के सामने धूम्रपान करने से उनमें हृदय रोग होने का खतरा 400 प्रतिषत तक बढ़ जाता है। दूसरी तरफ, बचपन में तनावपूर्व जिंदगी जीने वाले बच्चे जब वयस्क अवस्था में पहुंचते हैं तो उनकी रक्त वाहिकाएं अस्वस्थ हो चुकी होती हैं।
संवाददाता सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा कि लोगों को इस बात से अवगत होना चाहिए कि यदि उनका धूम्रपान करना जरूरी है तो वे बच्चों के सामने धूम्रपान न करें। इसके अलावा बच्चों को शारीरिक रूप से अधिक से अधिक सक्रिय जीवन षैली जीने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि इससे तनाव के दुष्प्रभावों को कम करने में मदद मिलती है और यह संवहन प्रणाली को लंबे समय तक स्वस्थ रखता है।
उन्होंने कहा कि कई रोगियों का इस खतरनाक मिथक में विष्वास है कि एंजियोप्लास्टी के दौरान स्टेंट को प्रत्यारोपित करने पर धमनियां आजीवन खुली रहती हैं। उन्होंने कहा कि लोगों का इस बात से अवगत होना चाहिए कि स्टेंट धमनियों को उस समय तक खुला रखता हैं जब धमनियों में अपने आप खुले रहने की क्षमता विकसित हो जाती है और उसके बाद इन स्टेंट का कोई काम नहीं है।
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मांसहारी पुरूषों में प्रोस्टेट कैंसर का खतरा होता है अधिक
भारत में विशेषकर बुढ़ापे में प्रोस्टेट कैंसर के बढ़ते मामलों के बारे में बताया। प्रोस्टेट पुरुषों में पायी जाने वाली एक ग्रंथि है। यह मूत्राशय के नीचे और मलाशय के सामने स्थित होता है। उम्र बढ़ने के साथ प्रोस्टेट के आकार में परिवर्तन आता है। किषोरावस्था के दौरान षरीर में पुरुश हार्मोन (एंड्रोजन) के अधिक बनने के कारण इसके आकार में तेजी से वृद्धि होती है। उसके बाद वयस्क अवस्था में प्रोस्टेट का आकार बढ़ना रुक जाता है या जब तक पुरुश हार्मोन मौजूद होते हैं, तब तक यह बहुत धीमी गति से बढ़ता है। युवा पुरुषों में, यह लगभग एक अखरोट के आकार के बराबर होता है, लेकिन यह बुजुर्ग पुरुषों में ज्यादा बड़ा हो सकता है।
प्रोस्टेट में कई प्रकार की कोशिकाएं पायी जाती हैं, लेकिन लगभग सभी प्रोस्टेट कैंसर ग्रंथि कोशिकाओं (वैसी कोषिकाएं जो प्रोस्टेट द्रव बनाती हैं जो वीर्य में मिल जाता है) से विकसित होते हैं। कुछ प्रोस्टेट कैंसर तेजी से बढ़ते और तेजी से फैलते हैं, लेकिन अधिकतर प्रोस्टेट कैंसर धीरे- धीरे बढ़ते हैं। कुछ शोध से पता चलता है कि प्रोस्टेट कैंसर की षुरूआत कैंसर- पूर्व स्थिति से होती है, हालांकि अभी तक इसे सुनिश्चित नहीं किया जा सका है।
कुछ जोखिम कारक कैंसर जैसी बीमारी के होने की संभावना को बढ़ाते हैं। धूम्रपान जैसे कुछ जोखिम कारक में बदलाव किया जा सकता है। लेकिन व्यक्ति की उम्र या पारिवारिक इतिहास जैसे अन्य जोखिम कारकों में बदलाव नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए सिर्फ जोखिम कारक ही जिम्मेदार नहीं होते हैं। एक या अधिक जोखिम कारक वाले कई लोगों को कभी कैंसर नहीं होता, जबकि कैंसर से पीड़ित कई रोगियों में कुछ ही जोखिम कारक होते हैं या कोई ज्ञात जोखिम कारक नहीं होता।
40 से कम उम्र के युवा पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर के मामले लगभग नही के बराबर देखने को मिलते हैं। लेकिन 50 वर्ष की उम्र के बाद प्रोस्टेट कैंसर होने का खतरा बहुत तेजी से बढ़ता है। पुरुषों में होने वाले प्रोस्टेट कैंसर के 10 में से 6 मामले 65 वर्श के बाद होते हैं। अफ्रीकी - अमेरिकी पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर के मामले अधिक होते हैं जबकि एशियाई पुरुषों में इसके मामले कम होते हैं। प्रोस्टेट कैंसर कुछ परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है, जिससे पता चलता है कि कुछ मामलों में यह वंषानुगत या आनुवांशिक कारकों के कारण भी हो सकता है। किसी व्यक्ति के पिता या भाई के प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित होने पर उसमें यह बीमारी होने का खतरा दोगुना हो जाता है। वैज्ञानिकों ने वंषानुगत जीन में कुछ ऐसे परिवर्तन पाये हंै जो प्रोस्टेट कैंसर के खतरे को बढ़ाते हैं। लेकिन ये शायद प्रोस्टेट कैंसर के कुल मामलों में से कुछ प्रतिशत के लिए जिम्मेदार होते हैं।
प्रोस्टेट कैंसर में आहार की सटीक भूमिका का स्पष्ट रूप से पता नहीं है, लेकिन इसे संबंध में कई कारकों का अध्ययन किया गया है। जो पुरुष लाल मांस या अधिक वसा वाले डेयरी उत्पादों का बहुत अधिक सेवन करते हैं, उनमें प्रोस्टेट कैंसर होने की संभावना थोड़ी अधिक होती है। ऐसे पुरुशों में कम फलों और सब्जियों के सेवन करने की भी प्रवृति होती है। डॉक्टर इसे लेकर ज्यादा आष्वस्त नहीं हैं कि इन कारकों में से कौन से कारक इस खतरे को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं। प्रोस्टेट कैंसर का वास्तविक कारण ज्ञात नहीं है, इसलिए इस समय इस बीमारी के अधिकतर मामलों को रोकना संभव नहीं है। प्रोस्टेट कैंसर के खतरे पर शारीरिक वजन, शारीरिक गतिविधि, और आहार के प्रभाव स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन कुछ चीजों पर अमल कर प्रोस्टेट कैंसर के खतरे को कम कर सकते हैं।
डाॅ. अनंत कुमार, मैक्स सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के प्रख्यात मूत्र रोग विशेषज्ञ
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फेसबुक और वाट्सएप की लत से उंगलियों एवं हाथों को नुकसान
युवाओं में फेसबुक और वाट्सएप जैसे सोशल नेटवर्किंग माध्यमों की लत तेजी से बढ़ रही है लेकिन इनके बहुत अधिक उपयोग से कलाई और उंगलियों की जोड़ों में दर्द, आर्थराइटिस, रिपिटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई) तथा कार्पल टनल सिंड्रोम (सीटीसी) की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
रिपिटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई)
पिछले कुछ वर्षों में टच स्क्रीन वाले फोन, स्मार्ट फोन तथा टैबलेट के लगातार इस्तेमाल के कारण वैसे लोगों की संख्या बढ़ी है जिन्हें उंगलियों, अंगूठे और हाथों में दर्द की समस्या उत्पन्न हो रही है। इस तरह का दर्द एवं जकड़न रिपेटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई) पैदा कर सकती है। आरएसआई एक ही गतिविधि के लंबे समय तक बार-बार दोहराये जाने के कारण जोड़ों के लिगामेंट और टेंडन में सूजन (इंफ्लामेंशन) होने के कारण होती है।
जो लोग टच स्क्रीन स्मार्ट फोन और टैबलेट पर बहुत ज्यादा गेम खेलते हैं और टाइप करते हैं उनकी कलाई और अंगुलियों के जोड़ों में दर्द हो सकता है और कभी-कभी अंगुलियों में गंभीर आर्थराइटिस हो सकती है। गेम खेलने वाले डिवाइस के लंबे समय तक इस्तेमाल के कारण युवा बच्चों में इस समस्या के होने की अधिक संभावना होती है। किसी भी गतिविधि के बार-बार दोहराये जाने के कारण जोड़, मांसपेषियां, टेंडन और नव्र्स प्रभावित होते हैं जिसके कारण रिपिटिटिव स्ट्रेस इंजुरीज होती है। उदाहरण के लिए, जो लोग सेल फोन पर अक्सर संदेश टाइप करने के लिए अपने अंगूठे का उपयोग करते हैं, उनमें कभी-कभी रेडियल स्टिलाॅयड टेनोसिनोवाइटिस (डी क्वेरवेन सिंड्रोम, ब्लैकबेरी थम्ब या टेक्सटिंग थम्ब के नाम से भी जाना जाने वाला) विकसित हो जाता है। इसमें टेंडन प्रभावित होती है और अंगूठे को हिलाने-डुलाने में दर्द होता है। हालांकि डेस्कटाॅप कीबोर्ड के लंबे समय तक इस्तेमाल के कारण दर्द से पीड़ित रोगियों में इसके संबंध की पुश्टि नहीं हुई है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि डेस्कटाॅप कीबोर्ड पर बार-बार टाइप करने पर यह दर्द और बढ़ सकता है।
कार्पल टनल सिंड्रोम (सीटीसी)
ज्यादातर लोग टच स्क्रीन का इस्तेमाल गलत तरीके से और गलत पोस्चर में करते हैं। स्ट्रेस से संबंधित इंजुरीज लोगों को तब भी हो सकती है जब वे टाइप करते समय अपनी कलाई पर अधिक दबाव डालते हैं या अपने हाथों को बहुत ज्यादा आगे या पीछे की ओर झुकाते हैं जिससे उनके हाथों पर स्ट्रेस पड़ता है। इसके कारण होने वाली बीमारियों में कार्पेल टनेल सिंड्रोम सबसे सामान्य है। यह कलाई में मीडियन नर्व पर दबाव पड़ने के कारण होता है।
इस बीमारी का खतरा मोबाइल एवं कम्प्यूटर का बहुत अधिक इस्तेमाल करने वालों के अलावा उन सभी लोगों को अधिक होता है जिन्हें अपनी ऊंगलियों एवं हाथों का बहुत अधिक इस्तेमाल करना पड़ता है। मिसाल के तौर पर टाइपिस्टों, मोटर मैकेनिकों और मांस काटने वालों को यह बीमारी होने की आशंका अधिक होती है। मधुमेह, गाउट एवं गठिया के मरीजों तथा शराब का बहुत अधिक सेवन करने वालों को भी कार्पल टनल सिंड्रोम का खतरा अधिक होता है। इसके अलावा गर्भधारण, रजोनिवृति और गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से होने वाले हार्मोन संबंधी परिवर्तन के दौरान भी यह बीमारी हो सकती है।
यह बीमारी आनुवांशिक कारणों से भी हो सकती है। कुछ लोगों में आनुवांशिक तौर पर कलाई एवं ऊंगलियों की नसों (फ्लेक्सर टेंडन) की प्राकृतिक चिकनाई कम होती है। प्राकृतिक चिकनाई कम होने पर सीटीएस होने की आशंका अधिक होती है। इसके अलावा कुछ लोगों की कलाई और ऊंगलियों में हड्डियों एवं नसों की बनावट इस प्रकार की होती है कि उन्हें यह बीमारी अन्य लोगों की तुलना में अधिक होती है। कलाई या हाथ के अगले हिस्से में चोट लगने से भी सीटीएस हो सकती है।
हाथों में सुन्नपन्न, सनसनाहट अथवा झुनझुनी, छोटी-मोटी चीजों को पकड़ने में कमजोरी, हाथ को कंधे तक उठाने में दर्द और अंगूठे, तर्जनी एवं मध्यमा में संवदेना की कमी जैसे लक्षण कार्पल टनल सिंड्रोम (सीटीसी) के लक्षण हैं।
कार्पल टनल कलाई में हड्डियों और सख्त लिगामेंट से घिरी अत्यंत पतली सुरंग जैसी संरचना है जो कलाई एवं ऊंगलियों की विभिन्न हड्डियों को आपस में जोड़ती है। कार्पल टनल कलाई के जरिये प्रवेश करते हुये ऊंगलियांे में जाता है। इस सुरंग (टनल) से ऊंगलियों और अंगूठे की नसें (फ्लेक्सर टेंडन) और मध्यस्थ स्नायु (मेडियन नर्व) गुजरते हैं। ये नसें मांसपेशियों और हाथ की हड्डियों को जोड़ती हैं और ऊंगलियों की क्रियाशीलता का संचालन करती हैं। हमारा मस्तिष्क मध्यस्थ स्नायु (मेडियन नर्व) के जरिये ही हाथों एवं ऊंगलियों तक संदेश पहुंचा कर उनकी क्रियाशीलता पर नियंत्रण रखता है। हाथ एवं ऊंगलियों के हिलाने पर नसें (फ्लेक्सर टेंडन) टनल के किनारों से रगड़ खाती हैं। इन ऊंगलियों की नसों के टनल से बार-बार रगड़ खाने के कारण नसों में सूजन उत्पन्न होती है। सूजन के कारण मध्यस्थ स्नायु (मेडियन नर्व) पर दबाव पड़ता है और इससे ऊंगलियों एवं हाथों में सुन्नपन, कमजोरी एवं झुनझुनी पैदा होती है और गंभीर अवस्था में इनमें भयानक दर्द होता है।
उंगलियों का कैसे करें बचाव
अगर ऊंगलियों को काम के दौरान बीच-बीच में विश्राम मिलता रहे तो सूजन एवं दबाव को कम होने में मदद मिलती है। अपने काम-काज के तौर-तरीकों में बदलाव लाकर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है। अगर इस बीमारी का समय से पता चल जाये तो इसका इलाज आसान हो जाता है। रिपेटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई) और कार्पल टनल सिंड्रोम की जांच नर्व कंडक्शन परीक्षण से होती है।
रोग की आरंभिक अवस्था में इसका इलाज रात में कलाई में पट्टी अथवा स्पिन्ट पहनने से हो सकता है। इससे कलाई को मुड़ने से रोका जाता है। कलाई को विश्राम देने और दवाइयों से भी आराम मिलता है। गंभीर अवस्था में चिकित्सक कार्पल टनल में कोर्टिसोन के इंजेक्शन दे सकते हैं। जिन मरीजों को उक्त तरीकों से लाभ नहीं मिलता उन्हें सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है। आधुनिक समय में सर्जरी की ऐसी तकनीकों का विकास हुआ है जिसमें चीर-फाड़ की जरूरत नहीं के बराबर होती है।
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आधुनिक घर और दफ्तर बना रहे हैं बीमार
खुले-खुले घर अब पुराने दिनों की बातें हो गई है। अब गगनचुंबी अपार्टमेंटों में ऐसे घर बनने लगे हैं जो देखने में खूबसुरत और आलीषान लगते है। लेकिन जिनमें ताजी हवा और धूप का आना मुष्किल होता है। चारों तरफ शीशे से बंद पूर्णतः एयरकंडीशनिंग वाले ऐसे घर आपको भले ही आरामदायक महसूस होते हों लेकिन ये आपकी हड्डियों को खोखला बना रहे हैं। आधुनिक जीवन शैली की प्रतीक माने जाने वाले ऐसे घर और दफ्तर न केवल ताजी हवा बल्कि धूप से वंचित करते हैं जिसके कारण शरीर में विटामिन-डी की कमी होती है और हड्डियां कमजोर होती हैं।
देश के अलग-अलग शहरों में जोड़ों में दर्द एवं गठिया (ऑर्थराइटिस) के एक हजार मरीजों पर अध्ययन करने पर पाया कि ऐसे मरीजों में से 95 प्रतिशत मरीजों में विटामिन-डी की कमी है ओर इसका एक मुख्य कारण पर्याप्त मात्रा में धूप नहीं मिलना है जो विटामिन-डी का मुख्य स्रोत है।
दरअसल विटामिन-डी का मुख्य स्रोत सूर्य की रोशनी है जो हड्डियों के अलावा पाचन क्रिया में भी बहुत उपयोगी है। व्यस्त दिनचर्या और आधुनिक संसाधनों के कारण लोग तेज धूप सहन नहीं कर पाते। सुबह से शाम तक आधुनिक ऑफिसों में रहते हैं। खुले मैदान में घूमना-फिरना और खेलना भी बंद हो गया। इस कारण धूप के जरिये मिलने वाला विटामिन-डी उन तक नहीं पहुंच पाता। जब भी किसी को घुटने या जोड़ में दर्द होता है तो उसे लगता है कैल्शियम की कमी हो गई। विटामिन-डी की ओर ध्यान नहीं जाता।
डॉ. वैश्य का कहना है अगर कैल्शियम के साथ-साथ विटामिन-डी की भी समय पर जांच करवा ली जाए तो ऑर्थराइटिस को बढ़ने से रोका जा सकता है। आम तौर पर माना जाता है कि ऑर्थराइटिस (गठिया रोग) की मुख्य वजह कैल्शियम की कमी है लेकिन ऐसा नहीं है। विटामिन-डी की कमी भी इसकी बड़ी वजह है। उन्होंने कहा कि भारतीय लोगों में विटामिन-डी की कमी का एक कारण यह भी है कि सांवली रंग की त्वचा धूप को कम अवशोषित करती है जबकि गोरी रंग की त्वचा धूप को अधिक अवशोषित करती है। इस कारण से गोरी रंग की त्वचा वाले लोग कम समय भी धूप में रहें तो विटामिन-डी की कमी पूरी हो जाती है। इसके अलावा, एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों में लोग आहार के साथ विटामिन-डी एवं कैल्शियम के सप्लीमेंट भी लेते हैं इस कारण वहां लोगों को विटामिन-डी एवं कैल्शियम की कमी पूरी हो जाती है, जबकि हमारे देश में ऐसा नहीं है।
बचपन में खान-पान की गलत आदतों के कारण कैल्शियम की कमी के कारण आर्थराइटिस के अलावा ओस्टियोपोरोसिस हाने की संभावना बहुत अधिक होती है। ओस्टियोपोरोसिस में कैल्शियम की कमी के कारण हड्डियों का घनत्व एवं अस्थि मज्जा बहुत कम हो जाता है। साथ ही हड्डियों की बनावट भी खराब हो जाती है जिससे हड्डियां अत्यंत भुरभुरी और अति संवेदनशील हो जाती हैं। इस कारण हड्डियों पर हल्का दबाव पड़ने या हल्की चोट लगने पर भी वे टूट जाती हैं।
ओस्टियोपोरोसिस को साइलेंट डिजीज भी कहा जाता है। यह इतना खतरनाक रोग है कि इस रोग के गंभीर रूप लेने और हड्डियों के अचानक फ्रैक्चर होने से पहले इसका तनिक भी आभास नहीं होता। इस घातक रोग से बचने के उपाय कम उम्र में ही किए जाने की जरूरत है।
अधिकांश लोगों में 18 से 20 वर्ष की उम्र तक उनकी हड्डियों का घनत्व अधिकतम स्तर तक पहुंच जाता है। यदि तब तक हड्डियों को एक मजबूत आधारशिला नहीं दी गई तो आने वाले वर्षों में परेशानी आ सकती है। महिलाओं में 50 वर्ष की उम्र के पश्चात् हर साल एक से दो प्रतिशत तक हड्डियों का घनत्व घटता है जबकि पुरुषों में 60 से 65 वर्ष की उम्र के बाद 0.5 से एक प्रतिशत की दर से हड्डियों का घनत्व घटता है। कम व्यायाम, दूध का कम सेवन और सोडा का अधिक सेवन करने वाली हमारी वर्तमान पीढ़ी कम घनत्व वाली कमजोर हड्डियों के साथ बड़ी हो रही है।
सबसे ज्यादा चिंता की बात है कि वर्तमान पीढ़ी कम कैल्शियम वाला आहार और विटामिन-डी की अपर्याप्त मात्रा ले रही है जो उनमें हड्डियों का घनत्व कम और हड्डियों को कमजोर कर रही है।
कैल्शियम का सबसे बड़ा स्रोत डेयरी उत्पाद है। आज के बच्चे न तो ढंग का खाना खा रहे हैं और न दूध पी रहे हैं। इसके अलावा बच्चों में शीतल पेयों का चलन बढ़ रहा है लेकिन शीतल पेय शरीर से कैल्शियम की मात्रा को सोख लेते हैं। सोडा में उपस्थित फाॅस्फोरिक एसिड शरीर में कैल्शियम से मिल जाता है और हड्डियों को कैल्शियम नहीं मिल पाता। इसके अलावा कोला में उपस्थित कैफीन मूत्रवर्द्धक की भूमिका निभाता है जिससे शरीर से और ज्यादा मात्रा में कैल्शियम बाहर निकल जाता है।
अमेरिकन सोसायटी फाॅर बोन एंड मेडिकल रिसर्च में पेश किए गए एक शोध पत्र में बताया गया है कि प्रतिदिन केवल एक कोला पीने वाली महिलाओं की तुलना में प्रतिदिन 12 औंस की तीन कोला पीने वाली महिलाओं के कूल्हे की हड्डियों का घनत्व 2.3 से 5.1 प्रतिशत तक कम पाया गया।
बड़ी उम्र में होने वाले इस रोग से बचपन में ही बचाव किया जा सकता है। यदि बच्चों को खासकर किशोरावस्था में प्रतिदिन 1200-1300 मिलीग्राम कैल्शियम दिया जाए तो वे इस बीमारी से बच सकते हैं। लेकिन आंकड़ों के अनुसार आम तौर पर बच्चे 700 से 1000 मिलीग्राम कैल्शियम का ही सेवन करते हैं।
हर व्यक्ति को अपने आहार में कैल्शियम, प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों सहित उचित खुराक लेनी चाहिए। इस आदत को स्कूल उम्र से ही शुरू कर देना चाहिए ताकि शिक्षक यह सुनिश्चित कर सकें कि हर बच्चा दिन भर में उचित पोषक तत्व ले रहा है। महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों में अधिकतर समय नुकसान पहले से ही हो चुका होता है, इसलिए उन्हें कैल्शियम, बाईफास्फोनेट और पैराथाइरॉयड होर्माेन के रूप में मिनिस्कल सहारे की ज़रूरत होती है। हालांकि समग्र स्वस्थ जीवनशैली को अपनाना और धूप के संपर्क में रहना हर किसी के लिए अनिवार्य है।
ओस्टियोपोरोसिस के कारण फ्रैक्चर की आशंका भी बढ़ती है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में, ऑस्टियोपोरोसिस के कारण हर साल 89 लाख से अधिक फ्रैक्चर होते हैं। इस तरह हर तीन सेकेंड में एक ऑस्टियोपोरोटिक फ्रैक्चर होता है। अनुमान के अनुसार ऑस्टियोपोरोसिस दुनिया भर में 20 करोड़ महिलाओं को प्रभावित करता है, जिनमें लगभग 10 में से एक महिला की उम्र 60 साल, पांच में से एक महिला की उम्र 70 साल, पांच में से दो महिला की उम्र 80 साल और दो तिहाई महिलाएं 90 साल की होती हैं। अनुमानत: पांच लाख ऑस्टियोपोरोटिक मरीजों पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि इनमें से दो लाख लोग कूल्हे की हड्डी फ्रैक्चर होने से पीड़ित हैं और तीन लाख मरीज कलाई की हड्डी फ्रैक्चर होने से पीड़ित हैं। इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि भारतीय लोगों की हड्डियों पर ऑस्टियोरोपोरोसिस का कितना असर है।
भारत के लोगों में अस्थियों में कम द्रव्यमान, न्यूनतम कैल्शियम व विटामिन डी की कमी होने के कारण, इस रोग का खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है। यह भ्रम है कि यह सिर्फ बुढ़ापे की बीमारी है। यदि हम डेयरी उत्पाद व विटामिन-डी की खुराक के साथ पर्याप्त कैल्शियम का सेवन नहीं करते हैं, तो ऑस्टियोपोरोसिस कम उम्र में ही उत्पन्न हो सकता है। इस रोग की चपेट में ज्यादातर महिलाएं आती है और यह रोग 50 से 58 साल की महिलाओं को प्रभावित करता है। पुरुषों में यह रोग, 65 से 70 साल की उम्र में आता है। इस विकार को रोकने के लिए, नियमित अस्थि घनत्व चेकअप कराना आवश्यक है। इसकी जांच में डेंसिटोमीटर मशीन सहायक है। अल्प घनत्व का मतलब है कि जटिल फ्रैक्चर की अत्यधिक संभावना।
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पढ़ाई के दौरान बच्चे कैसे बचाएं अपनी आंखे
परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के दबाव के कारण बच्चे किताबों में आंखे गड़ाए हुए रहते हैं। कई बच्चे कम रौशनी में भी बहुत पास रखकर किताबें पढ़ते हैं या बहुत पास बैठकर टेलीविजन देखते हैं या स्मार्ट फोन पर चैटिंग करते रहते हैं। लेकिन अगर थोड़ी सी सावधानी बरती जाए तो बच्चे आंखों को नुकसान से बचा सकते हैं।
नई दिल्ली के ईस्ट पटेल नगर स्थित दिल्ली आई केयर के निदेशक एवं वरिष्ठ नेत्र रोग विशेषज्ञ डा. शशांक राय गुप्ता पढ़ाई के सही तरीकों के बारे में बताते हैं कि बच्चों को पढ़ाई के दौरान हर 20 मिनट की पढ़ाई के बाद 3-4 मिनट का विश्राम लेना चाहिए। लगातार पढ़ाई करते रहने पर आंखों की समायोजन की क्षमता (एकोमोडेशन फैसिलिटी) प्रभावित होती है। इसके कारण पढ़ने के दौरान स्पष्ट दिखने में दिक्कत होती है। इसके कारण आंखों पर दबाव पैदा होता है।
डा. गुप्ता के अनुसार पढ़ाई के दौरान बिल्कुल एक टक होकर नहीं पढ़ना चाहिए बल्कि बार-बार पलकें झपकानी चाहिये। एक मिनट में कम से कम 15 बार पलकें झपकाएं। आपकी आंख की सतह पर आंसू की एक परत होती है। यह परत आंख पर 10 सेकंड के लिये ठहरती है और उसके बाद आंख की पूरी सतह पर फैल जाती है। यदि आप पलक नहीं झपकायेंगे तो यह परत टूट जाएगी जिससे आंखों में जलन, लाली और भारीपन जैसी समस्यायें पैदा होंगी।
पढ़ाई के दौरान समुचित रौशनी होनी चाहिय। न तो बहुत चमकीली और न तो बहुत मंद रौशनी होनी चाहिये। रात्रि के समय वैसे लैम्प का इस्तेमाल करें जो आपकी पुस्तक पर पर्याप्त रौषनी डाले। आपको पढ़ने के लिये पुस्तकों का अधिक इस्तेमाल करना चाहिये, कम्प्यूटर का नहीं। कम्प्यूटर पर पढ़ने से आंखों पर अधिक दबाव पड़ता है।
डा. गुप्ता के अनुसार कुछ लोगों को कुछ लोगों को अपनी आंखें दिन में दो-तीन बार धोने की आदत होती है। आंखें धोते समय आंसू की परत भी धुल जाती है। इसलिये आंखों को बार-बार नहीं धोएं, यदि आप चेहरे को धो रहे हों, तो आंखें बंद रखें।
उन्होंने बताया कि टेलीविजन देखने या कम्प्यूटर का इस्तेमाल करने जैसी उन गतिविधियों से परहेज करना चाहिये जिनके कारण आंखों पर दबाव पड़ता हो। इसके अलावा पढ़ाई के दौरान छात्रों को कांटैक्ट लेंस पहनने के बजाय चश्मा पहनना चाहिए। कांटैक्ट लेंस पहनने से आंखों में जलन और सूखापन पैदा होती है।
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पॉल्युशन से कमजोर हो रही है हड्डियां
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स्तन कैंसर से बचाती है काॅफी
रोजाना दो-तीन कप काॅफी पीने से महिलाओं में स्तन कैंसर होने का खतरा या तो कम हो सकता है या कैंसर की शुरुआत में देरी हो सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि महिला के कुछ जीनों में कितना रूपांतरण हुआ है।
स्वीडन में लुंड यूनिवर्सिटी और माल्मो यूनिवर्सिटी द्वारा हाल में किये गये अनुसंधान में काॅफी के प्रभाव का संबंध मादा सेक्स हार्मोन इस्ट्रोजन से पाया गया है। इन हार्मोनों के कुछ मेटाबोलिक उत्पाद कैंसरजन्य समझे जाते हैं और काॅफी के विभिन्न अवयव मेटाबोलिज्म में परिवर्तन कर सकते हैं जिससे कोई महिला विभिन्न इस्ट्रोजन्स के बेहतर विन्यास को पा सकती है। काॅफी में कैफीन होता है। कैफीन भी कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि को रोक देता है।
कैंसर अनुसंधानकर्ता हेलेना जर्नस्ट्रोम और उनकी सहयोगियों ने लुंड में इलाज करा रही स्तन कैंसर के करीब 460 रोगियों की काॅफी पीने की आदतों का अध्ययन किया। इससे पता चला कि काॅफी का प्रभाव महिला में पाये जाने वाले सी वाई पी 1 ए 2 नामक जीन के रूपांतरण पर निर्भर करती है जो इस्ट्रोजन और काॅफी दोनों को मेटाबोलाइज करने वाले एक एंजाइम के लिए कोड करता है। इनमें से आधी महिलाओं में ए/ए नामक रूपांतरण था जबकि अन्य महिलाओं में या तो ए/सी या सी/सी था।
कैंसर इपिडेमियोलाॅजी जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन रिपोर्ट में हेलेना जर्नस्ट्रोम ने कहा है कि जिन महिलाओं में सी रूपांतरण में से एक था और उन्होंने रोजाना कम से कम तीन कप काॅफी पी उनमें उन महिलाओं की तुलना में जिनमें ए/ए रूपांतरण था और उन्होंने भी इतनी ही काॅफी पी थी, की तुलना में स्तन कैंसर बहुत कम विकसित हुआ। उनमें कैसर का खतरा अन्य महिलाओं की तुलना में सिर्फ दो-तिहाई ही था।
जिन ए/ए महिलाओं ने रोजाना दो या अधिक कप काॅफी पी थी उन्हें काॅफी पीने से अधिक संदेहास्पद फायदा हुआ। जबकि दूसरी तरफ 48 साल की बजाय 58 साल की उम्र तक कभी-कभार या कभी भी काॅफी नहीं पीने वाली और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के लिए हार्मोन रिप्लेसमेंट थिरेपी भी नहीं लेने वाली महिलाओं, की तुलना में उनका कैंसर देर से प्रकट हुआ। दूसरी तरफ 15 प्रतिशत इन महिलाओं में एस्ट्रोजन इनसेंसिटिव (ई आर निगेटिव) ट्यूमर था जिसका इलाज करना अधिक मुश्किल था।
अधिकतर महिलाओं में फिर भी इस्ट्रोजन सेंसिटिव और तेजी से इलाज किये जाने वाले ट्यमर थे। जिन महिलाओं में अधिक उम्र में स्तन कैंसर विकसित हुआ था उनमें कम उम्र में स्तन कैंसर विकसित होने वाली महिलाओं की तुलना में अच्छी प्रगति हुई। हालांकि उन्हें जल्द ही काॅफी पीने के साथ-साथ आहार संबंधित सलाह भी दी गयी।
हेलेना जर्नस्ट्रोम के अनुसार किसी अंतिम निकर्ष पर पहुंचने से पहले इस पर अभी और अध्ययन करने की जरूरत है। यदि वास्तव में काॅफी स्तन कैंसर से कुछ सुरक्षा प्रदान करती है तो स्वीडन जैसे काॅफी का अधिक सेवन करने वाले देश में अन्य देशों की तुलना में कैंसर के बहुत मामले होने चाहिए। इसकी तुलना कम से कम अमरीका से की जानी चाहिए जहां स्तन कैसंर के काफी अधिक मामले सामने आते हैं और जहां लोग कैफीन रहित और कम कैफीन वाले काॅफी पीते हैं।
भारत में स्तन कैंसर का बढ़ता प्रकोप
महिलायें अपने रूप पर मुग्ध होते हुये दर्पण के समक्ष अपना काफी समय व्यतीत करती हैं लेकिन यह जानने के लिये अपने स्तन की निगरानी करने के लिये कुछ मिनट का भी समय लगाना भी गवारा नहीं करती कि उनके स्तन पर, उसके आसपास या कांख के क्षेत्र में कोई गांठ या सूजन अथवा स्तन कैंसर का कोई अन्य चिन्ह तो नहीं है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आई सी एम आर) के एक ताजा आंकड़े से पता चलता है कि भारत में महानगरों में महिलाओं में स्तन कैंसर का प्रकोप सबसे अधिक है और हर 22 भारतीय महिलाओं में से एक को उनके जीवन काल में स्तन कैंसर होने की आशंका होती है।
हमारे आधुनिक विश्व से होने वाले सभी आयातों में स्तन कैंसर की सबसे अधिक संदिग्ध स्थिति है। कभी अमीरों का रोग समझे जाने वाले स्तन कैंसर के प्रकोप ने आज विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया है। मेडिकल कैंसर विषेशज्ञों का माानना है कि वे भारत में हर औसतन साल स्तन कैंसर के 80 हजार नये मरीजों को देखते हैं। एक अनुमान के अनुसार गत वर्ष विश्व भर में स्तन कैंसर के 13 लाख नये मामलों का पता चला।
कैंसर विशेषज्ञ डा. सिद्धार्थ साहनी का कहना है, ''स्तन कैंसर हमारी आधुनिक जीवन शैली की ही देन है। शारीरिक व्यायाम नहीं करने, मोटापा, रक्त शर्करा, मधुमेह, देर से बच्चा पैदा होने, स्तनपान नहीं कराने के साथ-साथ कैंसर, यौन शिक्षा और प्रजनन स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का अभाव आपको स्तन कैंसर की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं।''
देशों का जितना अधिक आधुनिकीरण होगा, उतना ही अधिक महिलाओं में स्थूल तरीके से कार्य करने, देर से बच्चे पैदा करने, अपने प्रजनन जीवन को नियंत्रित करने तथा पश्चिमी खाद्य पदार्थों का सेवन करने की प्रवृति बढ़ेगी। इन कारणों के अलावा भविष्य में महिलाओं के जीवन प्रत्याशा में वृद्धि होने के कारण भी स्तर कैंसर के प्रकोप की दर में निःसंदेह वृद्धि होगी। यह जरूरी है कि महिलाओं में स्तन कैंसर के खतरे के प्रति जागरुकता बढ़ने के साथ-साथ स्तन कैंसर की पहचान एवं उसके उपचार के संबंध में सरकार और चिकित्सक समुदाय के अपेक्षाओं में भी वृद्धि हो।
डा. साहनी का कहना है, ''स्तन कैंसर शुरुआती अवस्था में दर्द पैदा नहीं करता है, लेकिन जैसे-जैसे यह बढ़ता है वैसे-वैसे परिवर्तन पैदा करता है जिन्हें जल्द पहचाना जा सकता है। हर महिला के लिये जरूरी है कि वे स्तन कैंसर को जल्द से जल्द पहचानने के तरीकों पर अमल करें।'' ''समय पर इलाज कराने के फायदे हैं और यह नियम स्तन कैंसर में भी लागू होता है।''
डा. साहनी बताते हैं, ''स्तन कैंसर का इलाज किया जा सकता है और इसे ठीक किया जा सकता है खास कर तब जब स्तन की स्वयं जांच (बी एस ई) और चिकित्सक द्वारा स्तन की क्लिनिकल जांच (सी बी ई) जैसे स्तन कैंसर की शीघ्र पहचान के तरीकों के जरिये इसे समय रहते ही पता लगा लिया जाये। स्तन कैंसर की पहचान जितनी जल्दी होगी, इसे खत्म करने की संभावना भी उतना ही अधिक होगी। मैमोग्राफी लाभदायक है और 40 साल की उम्र के बाद साल में एक बार या दो साल में एक बार मैमोग्राफी कराने की सलाह जाती है। 50 साल से अधिक उम्र की महिलाओं के लिए यह और भी लाभदायक है क्योंकि तब स्तन का घनत्व कम हो जाता है और धब्बों की पहचान अधिक आसानी से होती है।
स्तन कैंसर को अक्सर पारिवार का रोग माना गया है लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि जिस परिवार में स्तन कैंसर का इतिहास नहीं है उस परिवार की महिलाएं इससे सुरक्षित हैं। पारिवारिक कारणों से 20 से 30 प्रतिशत महिलाओं में ही स्तन कैंसर होता है जबकि 70 प्रतिशत से अधिक रोगियों में वैसी महिलाएं होती हैं जिनके परिवार में कैंसर का कोई इतिहास नहीं होता है।
हाल के वर्षों में, स्तन कैंसर के इलाज के लिये जीवन रक्षक उपचार तकनीकों में क्रांतिकारी विकास हुया है जिससे नयी उम्मीद एवं उत्साह का सृजन हुआ है। एक या दो विकल्पों के बजाय आज इलाज के ऐसे अनेक विकल्प उपलब्ध हैं जिनकी मदद से हर महिला में स्तन कैंसर की विषिश्ट तरह की कोशिकाओं से लड़ा जा सकता है। डा. साहनी कहते हैं, ''स्तन कैंसर का इलाज कैंसर की स्थिति पर निर्भर करता है। हर महिला की स्थिति एवं उनके कैंसर का स्तर अलग होता है। उपचार की जो विधि किसी एक महिला के अनुकूल है वह दूसरी महिला के लिये अनुकूल नहीं होता है।''
विशेषज्ञों के अनुसार सर्जरी और उसके बाद संभवतः रेडिएशन, हारमोनल (एंटी-इस्ट्रोजेन) थिरेपी और/अथवा कीमोथिरेपी जैसे निर्णयों का स्तन कैंसर के उपचार में गहरा असर होता है।
यह अक्सर देखा जाता है कि स्तर कैंसर के बाद जीवित बचने वाली मरीज वह जीवन नहीं जी पाती है जो उसने कैंसर का पता चलने से पहले जीया था। ये महिलायें इस आशंका को लेकर जीती हैं कि कहीं फिर से कैंसर नहीं हो जाये। यही नहीं उन्हें हृदय रोग होने के खतरे तथा पेरीफेरल न्यूरोपैथी एवं जोड़ों में दर्द जैसे कैंसर के उपचार के दीर्घकालिक दुष्प्रभाव हो सकते हैं। विशेष हारमोन थिरेपियों के कारण उन्हें इंडोमेट्रायल कैंसर होने का अधिक खतरा होता है।
चिकित्सकों का अनुमान है कि कैंसर पीड़ित 20 महिलाओं में से से एक (पांच प्रतिशत) महिला में जब तक स्तन कैंसर का पता चलता है तब तक कैंसर शरीर के दूसरे हिस्सों में भी फैल चुका होता है। यह अक्सर देखा जाता है कि इनमें से हर पांच महिलाओं में से एक महिला (पांच प्रतिशत) कैंसर का पता चलने के बाद कम से कम पांच साल तक तथा 25 महिलाओं में से एक महिला (चार प्रतिशत) दस साल से अधिक समय तक जीती हैं।
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दर्द में डूबे दिले मासूम
निर्दाेष, नादान एवं मासूम बच्चों के नाजुक दिल कई बार कुदरती और कई बार माता-पिता की लापरवाहियों के कारण जन्मजात रूप से रूग्न होते हैं। ये जन्मजात हृदय रोग हर साल हजारों बच्चों की असामयिक मौत के कारण बनते हैं जबकि इन मौतों को जागरूकता एवं समुचित चिकित्सा सुविधाओं की बदौलत टाला जा सकता है। अध्ययनों के अनुसार भारत में हर साल करीब एक लाख अस्सी हजार बच्चे हृदय रोगों के साथ जन्म लेते हैं जिनमें से 60 से 90 हजार बच्चे गंभीर रूप से जन्मजात हृदय रोगों से ग्रस्त होते हैं और इन्हें जन्म के तत्काल बाद शल्य चिकितसा की जरूरत होती है।
भारत में जन्मजात हृदय रोगों के प्रकोप के बारे में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के कार्डियोथोरेसिस विभाग की एक शोध रिपोर्ट के अनुसार भारत में बच्चों की होने वाली असामयिक मौतों में से करीब दस प्रतिशत मौतें जन्मजात हृदय रोगों के कारण से होती है। भारत में जन्मजात हृदय रोगों से होने वाली मौतों का स्तर अधिक होने का कारण इन बीमारियों के बारे में लोगों में जागरूकता की तथा बाल हृदय रोगों की समुचित चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है।
सुप्रसिद्ध हृदय रोग चिकित्सक पद्मभूशण डा. पुरूषोत्तम लाल का कहना है कि हृदय रोगों से ग्रस्त बच्चों की जान बचायी जा सकती है और उन्हें ताउम्र स्वस्थ्य एवं सामान्य जीवन दिया जा सकता है लेकिन इसके लिये जरूरी है कि जन्मजात हृदय रोगों की सही समय पर पहचान और उनकी समुचित चिकित्सा हो जाये।
हाल में हृदय विकार से ग्रस्त पांच माह के भ्रूण को गिराने की निकिता मेहता की याचिका को मुंबई उच्च न्यायालय ने खारिज कर दी थी। निकिता के अजन्मे बच्चे को जन्मजात हृदय अवरोध (कंजेनिटल हार्ट ब्लाॅकेज) से ग्रस्त पाया गया था।
विश्व के विभिन्न भागों में हर एक हजार में से तकरीबन आठ से दस बच्चे दिल में छेद, हृदय वाल्व में संकरापन या रूकावट, हृदय की किसी रक्त धमनी में अवरोध तथा हृदय कपाटों के बीच पर्दे नहीं होने जैसे किसी न किसी हृदय विकार के साथ पैदा होते हैं।
न्यू इंगलैंड इंफैंट केयर प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के विभिन्न भागों में जन्म लेने वाले हर 1000 बच्चों में से आठ से दस प्रतिशत बच्चे जन्मजात हृदय विकारों से ग्रस्त होते हैं जिनमें से 33 से 50 प्रतिशत बच्चों की बीमारी गंभीर होती है और इन्हें जन्म के बाद के पहले साल में ही इलाज अथवा शल्य चिकित्सा की जरूरत पड़ती है। इनमें से करीब 75 प्रतिशत बच्चे जन्म के एक साल बाद भी जीवित रहते हैं और कई ताउम्र सामान्य जीवन बीताते हैं!
हृदय विकारों में से सबसे सामान्य विकार दिल में छेद होना है। उल्लेखनीय है कि ''पूर्व की सौंदर्य की देवी'' (वीनस आफ द ईस्ट) के नाम से प्रसिद्ध अभिनेत्री मधुबाला के हृदय में छेद था, लेकिन उस समय इस बीमारी का कोई इलाज नहीं था और इस कारण मधुबाला को महज 36 साल की उम्र में इलाज के बगैर मौत को गले लगाना पड़ा।
मेट्रो ग्रूप आफ हास्पीट्ल्स के चैयरमैन तथा नौएडा स्थित मेट्रो हास्पीट्ल्स एंड हार्ट इन्स्टीच्यूट के निदेषक पद्मभूषण डा. पुरूषोत्तम लाल बताते हैं कि कुछ साल पूर्व तक इन जन्मजात हृदय विकारों को दूर करने के लिये आपरेशन का सहारा लेना पड़ता था लेकिन आज बैलून वाल्वयुलोप्लास्टी जैसी इंटरवेंशनल तकनीकों की मदद से ज्यादातर विकारों को आपरेशन एवं चीर-फाड़ के बगैर दूर किया जा सकता है।
डा. लाल के अनुसार कई बार इन बच्चों के हृदय की बीमारी पैदाइशी होती है जिस पर किसी का वश नहीं होता लेकिन कई बार गर्भवती महिलायें अपनी नासमझी अथवा लापरवाही के कारण अपने होने वाले लाडले के लिये जीवन भर की मुसीबतें पैदा कर देती हैं। कि जो महिलायें शराब एवं नशीली दवाइयों का सेवन करती हैं, गर्भावस्था के दौरान और खास तौर पर गर्भावस्था के आरंभिक तीन महीने के दौरान चिकित्सक की सलाह के बगैर दवाइयां ले लेती हैं अथवा एक्स-रे जैसे विकिरण के प्रभाव में आ जाती हैं उनके गर्भ में पल रहे भ्रूण का सामान्य विकास अवरूद्ध हो जाता है। इससे हृदय सहित शरीर के कई अंगों में विकृतियां आने की आशंका रहती है।
चिकित्सकों के अनुसार गर्भवती महिला की कोख में पल रहा भू्रण जब सिर्फ दूसरे हफ्ते में होता है तब उसमें दिल बनने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। लेकिन भू्रण के विकास की प्रक्रिया में बाधा रह जाने पर दिल की बनावट में खामियां रह जाती हैं। गर्भावस्था की पहली तिमाही में मां को जर्मन खसरा होने पर 71 प्रतिशत मामलों में दिल ठीक से नहीं बन पाता है। गर्भवती महिला के मधुमेह से पीड़ित होने पर बच्चे को असामान्य या विकृत हृदय बनने का खतरा सामान्य माताओं की तुलना में पांच गुना अधिक होता है। मां पहले से अगर जन्मजात हृदय विकार से ग्रस्त हो या उसकी पहली संतान को कोई हृदय विकार हो तो बच्चे में हृदय विकार की आशंका बढ़ जाती है। रक्त संबंधियों जैसे मामा-भांजी, चचेरे तथा ममेरे भाई-बहनों के बीच विवाहों से हुयी संतानों में जन्मजात हृदय विकार होने की आंशका अधिक होती है।
डा. लाल के अनुसार पैदाइशी कारणों में सबसे प्रमुख गुणसूत्रीय या क्रोमोसोम संबंधी गड़बड़ियां हैं जिनके कारण भ्रूण का हृदय ठीक से नहीं बन पाता है। करीब दो प्रतिशत बच्चों को हृदय के जन्मजात विकार होते हैं।
बच्चों को होने वाले हृदय के विकारों में दिल में छेद, हृदय वाल्व के बंद अथवा संकरा होने, वाल्व के साथ-साथ हृदय की किसी रक्त धमनी के बंद होने, चार चैम्बर के स्थान पर तीन या दो चैम्बर होने अथवा चैम्बरों के बीच पर्दे नहीं होने जैसे विकार प्रमुख हैं। कुछ बच्चों में फेफड़े की नस सिकुड़ी होती हैं जिससे बच्चे में नीलापन होता है।
डा. लाल बताते हैं कि वाल्व में खराबी या दिल में छेद जैसे विकार एंजियोप्लास्टी आधारित बैलून वाल्वयुलोप्लास्टी जैसी इंटरवेंशनल या इंवैसिव तकनीकों की मदद से ठीक किये जा सकते हैं जबकि चैम्बरों के बीच के पर्दे के नहीं होने जैसे विकारों को ठीक करने के लिये आपरेशन का सहारा लेना पड़ता है।
बच्चों को होने वाले जन्म जात हृदय रोगों और हृदय वाल्व की खराबियों के कारण होने वाले हृदय रोगों समेत सभी तरह की हृदय की बीमारियां न केवल भारत में बल्कि ज्यादातर एशियाई देशों में बढ़ रही है। भारत में हृदय रोगों का मुख्य प्रकोप शहरों में है लेकिन ग्रामीण इलाकों में भी इन बीमारियों में तेजी से वृद्धि हो रही है।
डा. लाल के अनुसार वाल्व में खराबी का प्रमुख कारण रह्यूमेटिक बुखार है जो बचपन में ही होता है और इस बुखार का प्रकोप भारत और एशियाई देशों में खास तौर पर हैं जबकि अमरीका एवं यूरोप के ज्यादातर देशों में रह्यूमेटिक बुखार का प्रकोप समाप्त हो चुका है। रह्यूमेटिक बुखार का कारण घनी आबादी एवं गंदगी एवं खराब खान-पान है।
डा. पुरूषोत्तम लाल बताते हैं कि रूमेटिक बुखार या अन्य कारणों से गर्भवती महिला के हृदय वाल्व में खराबी आ जाती है या वाल्व बंद हो जाते हैं ऐसे में वाल्व को समय पर खोलना जरूरी होता है अन्यथा महिला के साथ-साथ बच्चे की मौत होने की आशंका रहती है। लेकिन वाल्व को आपरेशन के जरिये खोलने से महिला और बच्चे की जान जाने का खतरा होता है। बैलून एंजियोप्लास्टी पर आधारित बैलून वाल्वयुलोप्लास्टी की मदद से आपरेशन या चीर-फाड़ किये बगैर ही वाल्व को खोला जा सकता है।
कई मरीजों की हालत ऐसी हो जाती है कि वे बिस्तर पर सीधा नहीं लेट सकते हैं और ऐसे मरीजों को बिठा कर उनके वाल्व को खोला जा सकता है। इस तकनीक की मदद से बच्चों के हृदय के बंद वाल्व को भी खोला जा सकता है।
डा. लाल के अनुसार बैलून वाल्वयुलोप्लास्टी का सिद्धांत बैलून एंजियोप्लास्टी के समान ही है। इस तकनीक में भी जांघ की धमनी में छोटा सा छेद करके उसमें से एक लचीली तार प्रवेश करायी जाती है। इस तार के सहारे गुब्बारे वाले विशेष बैलून कैथेटर को खराब वाल्व तक ले जाया जाता है और वाल्व की खराबी दूर कर दी जाती है।
एंजियोप्लास्टी आधारित अन्य तकनीकों की मदद से दिल के छेद को भी बंद किया जा सकता है। दिल में छेद होने के कारण शुद्ध रक्त में छेद के जरिये अशुद्ध रक्त आकर मिल जाता है। इस विकार के कारण पूरा शरीर नीला पड़ जाता है, हृदय फैल जाता है एवं अपना काम बंद कर सकता है। अभी हाल तक दिल के छेद को बंद करने के लिये छाती को चीर कर आपरेशन करना पड़ता था लेकिन अब आपरेशन बगैर एंजियोप्लास्टी आधारित तकनीक से दिल के छेद को बंद किया जा सकता है।
दिल में छेद को बंद करने के लिये आजकल एक नयी तकनीक इस्तेमाल में लायी जाती है जिसके तहत निटिनोल नामक निकेल टाइटेनियम के अयस्क से बने एक उपकरण की मदद से दिल के छेद को बंद कर दिया जाता है। इस उपकरण की कीमत करीब एक लाख रूपये है।
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