प्यार, स्नेह और सेक्स जीवन के महत्वपूर्ण पहलू हैं लेकिन सेक्स क्रिया के साथ कई तरह की जोखिम और कई बार स्वास्थ्य समस्याएं भी जुड़ी हैं। इन समस्याओं में कुछ प्रमुख समस्याएं हैं: महिलाओं में चरमउत्कर्श तक पहुंचने में कठिनाई, यौन इच्छा की कमी, दर्दनाक यौन संबंध, यौन संचारित रोग, योनि खून का रिसाव आदि। ये यौन समस्याएं परेषानी का कारण बनती हैं। ये न केवल आपके सेक्स जीवन पर ग्रहण लगाती हैं बल्कि पति-पत्नी के बीच के संबंधों को भी बुरी तरह प्रभावित करती हैं।
1.यौन इच्छा का अभाव
युवा महिलाओं मंें यौन इच्छा का अभाव बहुत ही सामान्य समस्या है। इस समस्या से 20 से 24 साल की 10 प्रतिषत से अधिक महिलाएं जबकि 25 से 29 वर्श की करीब 20 प्रतिषत महिलाएं ग्रस्त हैं। हालांकि यह समस्या 50 से 60 साल की महिलाओं में बहुत अधिक व्याप्त है।
महिलाओं में सेक्स की कम इच्छा होने के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं जिनमें कामकाज के कारण होने वाली थकान, मनोवैज्ञानिक समस्याएं, षारीरिक बनावट को लेकर चिंताएं, रिष्ते की कड़बाहट, जन्म नियंत्रण और डिप्रेषन रोधी दवाइयां आदि प्रमुख हैं। यह जरूरी है कि आप अपने जीवन से जुड़े उन सभी कारणों पर विचार करें जो आपकी यौन इच्छा को प्रभावित कर सकते हैं ताकि आप अपने स्तर पर हीया मान्यता प्राप्त चिकित्सक से मदद से समस्या का समाधान कर सकें।
2.लुब्रिकेषन संबंधित समस्याएं
16 से लेकर 49 वर्श की उम्र के बीच लुब्रिकेषन संबंधी दिक्कतें समान रूप से आम है। रजोनिवृत्ति और हार्माेनल परिवर्तन के बाद, यह समस्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। लुब्रिकेषन से संबंधित समस्या होने के कारण यौन संबंध असुविधाजनक या कश्टपूर्ण हो जाते हैं। इसलिए यह समस्या ऐसी नहीं है कि आप इसकी अनदेखी करें। योनि में सूखापन कई कारणों से हो सकती है जैसे डिहाइड्रेषन, दवाइयां, नर्सिंग या रजोनिवृत्ति के दौरान हार्माेन के स्तर में बदलाव आदि। इस समस्या के लिए अलग से लुब्रिकेंट का इस्तेमाल करना एक अच्छा समाधान है।
3. संभोग में कठिनाइयाँ
जैसे-जैसे महिलाओं की उम्र बढ़ जाती है, वैसे-वैसे उन्हें अपने पति के साथ सामंजस्य स्थापित होता जाता है और उन्हें पति के साथ अधिक स्वछंद एवं आष्वस्त हो जाती है और उन्हें अपने यौन संबंध के बारे में पूरी जानकारी हो जाती है। इससे यौन उत्सर्ग पर पहुंचने में आसानी होती है।
4. दर्दनाक सेक्स
दर्दनाक सेक्स, या डिस्पेर्यूनिया का संबंध इसी तरह की उम्र में संभोग सुख प्राप्त करने में होने वाली दिक्कत से है। यह समस्या 16 से 19 साल की महिलाओं में अधिक होती है जबकि 30 से 40 साल की उम्र की महिलाओं में यह कम होती है। जब महिलाएं 50 साल की हो जाती है तो यह समस्या दोबारा अधिक हो जाती है और इसका कारण उम्र बढ़ने के कारण होने वाले हार्मोन में बदलाव एवं रजोनिवृति है।
डिस्पेर्यूनिया को संभोग के दौरान योनि, क्लिटोरिस या लैबिया में होने वाले दर्द के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह अधिक जटिल सेक्स संबंधी समस्याओं में से एक है। विषेशज्ञों का कहना है कि यह समस्या योनि में सूखापन से लेकर मानसिक परेषानी जैसे कारणों से हो सकती है।
आपके एवं आपके पार्टनर के लिए कम सेक्स इच्छा बहुत ही परेषानी पैदा कर सकती है। अगर आप अपनी इच्छी के अनुसार सेक्सी या रोमांटिक होने में असमर्थ हैं या आप इसके आदि हो चुके हैं तो यह आपको दुखी एवं निराष हो सकते हैं। साथ ही साथ कम सेक्स इच्छा के कारण आपके पार्टनर अस्वीकृत महसूस कर सकते हैं और यह पारिवारिक जीवन में टकराव एवं झगड़े का कारण बन सकती है। रिष्तों में आने वाली हर तरह की कड़वाहट के कारण सेक्स की इच्छा और कम हो सकती है। हालांकि यह याद रखना चाहिए कि हर रिष्ते तथा जीवन की हर स्थिति में सेक्स की इच्छा में उतार-चढ़ाव सामान्य है। इसलिए आप अपना पूरा ध्यान सेक्स पर ही केन्द्रित नहीं करें। इसके बजाय आप अपने आप को तथा अपने रिष्ते को विकसित करने के लिए भी थोड़ा समय लगाएं।
लंबी सैर के लिए जाएं। थोड़ी अधिक निद्रा लें। घर से बाहर निकलने के समय अपने पार्टनर को किस करते हुए गुडबाय कहें। पसंदीदा रेस्तरां में रात का डिनर करें। अपने आप तथा अपने पार्टनर के बारे में अच्छा महसूस करें। इन सबसे यौन क्रिया आनंददायक बन सकती है।
जो पति-पत्नी खुले रूप से, ईमानदार तरीके से संवाद करना सीखते हैं, वे आम तौर पर एक मजबूत भावनात्मक संबंध बनाए रखते हैं, जिससे सेक्स संबंध बेहतर हो सकता है। सेक्स के बारे में संवाद भी महत्वपूर्ण है। अपनी पसन्द और नापसंदियों के बारे में बात करते हुए आप अधिक यौन अंतरंगता के लिए बढ़ सकते हैं।
महिलाओं में यौन समस्याएं एवं उनका उपचार
~ ~
धूम्रपान करने वालों को हो सकता है इंफर्टिलिटी का खतरा
- डाॅ. सोनिया मलिक, (डीजीओ, एमडी, एफआईसीओजी, एफएएमएस), कार्यक्रम निदेशिका, साउथेंड फर्टिलिटी एंड आईवीएफ, नई दिल्ली
धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अपने रोजमर्रा के जीवन में आपको हर जगह धूम्रपान करने वालों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन फिर भी, आप इसके दुश्प्रभाव से अनभिज्ञ रहते है। धूम्रपान न केवल फेफड़े को नुकसान पहुंचाता है बल्कि हृदय, गुर्दे और शुक्राणुओं को भी नहीं छोड़ता है। यह पुरुषों और साथ ही साथ महिलाओं में भी इनफर्टिलिटी पैदा कर सकता है। धूम्रपान के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले सामान्य दुश्प्रभावों में, इनफर्टिलिटी सबसे आम है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बहुत अधिक धूम्रपान करने वाले लोगों में धूम्रपान नहीं करने वाले लोगों की तुलना में इनफर्टिलिटी संबंधित समस्याएं होने का अधिक खतरा रहता है। शोध के अनुसार, एक सिगरेट के धुएं मेे पूरे शरीर में फैल जाने वाले 7000 रसायन होते हैं, जो लंबे समय में अंगों को प्रभावित करते हैं। सिर्फ सक्रिय धूम्रपान ही नहीं, यहां तक कि दूसरे लोगों द्वारा किए गए धूम्रपान के धुएं या धूम्रपान करने वालों के संपर्क में रहना भी खतरनाक है। धूम्रपान चाहे सक्रिय हो या निश्क्रिय, यह प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है, शिशुओं में आनुवांशिक ऊतकों (गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान करने पर) को नुकसान पहुंचा सकता है, ओवुलेशन संबंधित समस्याएं पैदा कर सकता है और कैंसर और गर्भपात के खतरे को बढ़ा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार 2015 तक, भारत में दुनिया के 12 प्रतिशत तम्बाकू सेवन करने वाले लोग होंगे और यहां धूम्रपान करने वालों की संख्या 10 करोड़ 80 लाख हो जाएगी।
इस बात के मजबूत प्रमाण उपलब्ध हैं कि धूम्रपान संबंधित व्यवहार सामाजिक कारकों से संबंधित होते हैं, विशेष रूप से माता-पिता और सहकर्मियों का अधिक प्रभाव पड़ता है। तंबाकू का स्वाद और गंध भी लोगों को धूम्रपान करने को प्रेरित करता है क्योंकि यह होंठ, मुंह और गले के संवेदी अंगों में स्पर्श, स्वाद और जलन की उत्तेजना प्रदान करता है। इसके अलावा, यह भी सुझाव दिया गया है कि अधिक नकारात्मक मूड और मूड में अधिक उतार- चढ़ाव के कारण भी लोग धूम्रपान की लत के गिरफ्त में आ सकते हैं।
कई अध्ययनों ने गर्भावस्था के दौरान माता के द्वारा किए जाने वाले धूम्रपान के विशिष्ट प्रभावों की पहचान की है, जिसमें भ्रूण के विकास का बाधित होना, नवजात षिषु की मृत्यु, गर्भावस्था संबंधी जटिलताएं, समय से पहले प्रसव और स्तनपान पर संभावित प्रभाव और जीवित बच्चों पर दीर्घकालिक प्रभाव शामिल हैं। इसके अलावा, इस बात के भी संकेत मिले हैं कि धूम्रपान करने से महिलाओं में प्रजनन क्षमता कम हो जाती है, माहवारी संबंधित असामान्यताएं होने की संभावना बढ़ जाती है और सहज रजोनिवृत्ति की आयु कम हो जाती है। पुरुषों के मामले में, यह सुझाव दिया गया है कि धूम्रपान उनकीे प्रजनन प्रक्रिया में शामिल हर प्रणाली को प्रभावित करता है। धूम्रपान करने वालों के स्पर्माटोजोआ में निशेचन क्षमता कम हो जाती है, और भ्रूण में इंप्लांटेषन दर कम हो जाती है।
धूम्रपान किसी भी अंगों या कोशिकाओं को नहीं छोड़ता है, और इसलिए, धूम्रपान के कारण शुक्राणु के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव अपरिहार्य है। अध्ययनों मंे धूम्रपान नहीं करने वालों की तुलना में धूम्रपान करने वाले पुरुशों में वीर्य की गुणवत्ता में कमी देखी गई है और शुक्राणु की सांद्रता में 23 प्रतिषत की कमी देखी गई है। धूम्रपान का शुक्राणु की गतिशीलता पर भी प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण अंडे का निशेचित होना मुश्किल हो जाता है। और अगर अंडे निषेचित हो भी जाते हैं, तो भ्रूण और बढ़ते भ्रूण पर हानिकारक रसायनों के दुश्प्रभाव के कारण भ्रूण के जीवित करने की संभावना कम हो सकती है। पुरुषों में धूम्रपान करने से गैर-व्यवहार्य गर्भावस्था का खतरा बढ़ जाता है और इसलिए महिला में गर्भपात का खतरा अधिक हो जाता है।
धूम्रपान करने वाली महिलाओं या धूम्रपान करने वालों के संपर्क में रहने वाली महिलाओं में इनफर्टिलिटी का अधिक खतरा रहता है और वे देर से गर्भ धारण करती हैं। सिगरेट में मौजूद विषाक्त पदार्थों के कारण, धूम्रपान गर्भपात की संभावना को बढ़ा देता है। यह गर्भावस्था के दौरान समय पूर्व प्रसव पीड़ा और एक्टोपिक गर्भावस्था जैसे कई स्वास्थ्य जोखिमों को भी बढ़ाता है। कई अध्ययनों के अनुसार, प्रतिदिन 10 या अधिक सिगरेट पीने पर महिलाओं को गर्भ धारण करने की क्षमता में काफी नुकसान होता है। इसके अलावा, धूम्रपान करने वाली या धूम्रपान करने वालों के संपर्क में रहने वाली महिलाओं के 50 वर्श से पहले ही रजोनिवृत्त होने की संभावना होती है। इसलिए प्रजनन क्षमता को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीका धूम्रपान छोड़ना है। हालांकि धूम्रपान करने वाली गर्भवती महिलाओं के लिए धूम्रपान छोड़ना मुश्किल हो सकता है यदि उसका पार्टनर धूम्रपान करता हो। अनुसंधान से पता चलता है कि जब लोग अपने पार्टनर के साथ धूम्रपान छोड़ने की योजना बनाते हैं तो धूम्रपान बंद करना बहुत आसान होता है। एक साथ धूम्रपान छोड़ने का निर्णय लेना प्रजनन क्षमता बढ़ाने और स्वस्थ बच्चे पैदा होने की संभावना में सुधार करने का एक बढ़िया तरीका है।
स्वस्थ आहार का सेवन करना, नियमित व्यायाम करना, ध्यान करना, योग करना आदि स्वस्थ जीवन के लिए बहुत आवश्यक हैं। इससे न केवल आपके गर्भवती होने की संभावना में वृद्धि होगी, बल्कि इससे स्वस्थ बच्चे के जन्म की संभावना भी बढ़ जाती है। आपमें अपनी बेहतरी के लिए अपने जीवन को बदलने की क्षमता है! पहला कदम है, खुद के साथ ईमानदार होना; दूसरा कदम है मदद और सहयोग मांगना!
~ ~
प्रजनन क्षमता को बढ़ाती है काॅफी
काॅफी का एक प्याला न सिर्फ आपके दिमाग को सक्रिय बनाता है बल्कि यह आपके शुक्राणुओं को भी फ़ुर्तीला बनाता है ।
ब्राजील में साओ पाउलो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक ताजा शोध में पाया है कि काॅफी में पाए जाने वाले रासायनिक तत्व शुक्राणुओं की सक्रियता बढ़ाते हैं।
यह शुक्राणुओं के अंडाणुओं से मिलन की संभावना को भी बढ़ाता है जिसके परिणामस्वरूप गर्भधारण होता है। जबकि तंबाकू में पाए जाने वाले रसायन शुक्राणुओं की क्षमता पर कोई सकारात्मक असर नहीं डालते ।
~ ~
पेंट्स के संपर्क में रहने वालों को नपुंसकता का खतरा
पेंट्स में मौजूद ग्लाइकोल ईथर नामक रसायन के लगातार संपर्क में रहने वाले पुरुषों की प्रजनन क्षमता पर बुरा असर हो सकता है और वे प्रजनन संबंधी समस्याओं के आसानी से शिकार हो सकते हैं।
ब्रिटेन में किये गए एक शोध से पता चला है कि डेकोरेटर या पेंटर का काम करने वाले पुरुष ग्लाइकोल साॅलवेंट्स के संपर्क में रहते हैं। ऐसे लोगों में इस बात की संभावना अन्य लोगों के मुकाबले में ढ़ाई गुना तक बढ़ जाती है कि वे कुछ ही सामान्य शुक्राणु पैदा कर सकें।
ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने प्रजनन संबंधी 14 क्लिनिक्स में इलाज करा रहे दो हज़ार से ज्यादा लोगों का अध्ययन किया है। हालांकि कामकाज और चिकित्सा से संबंधित अध्ययन में बहुत सारे रसायनों का प्रजनन क्षमता पर कोई असर नहीं दिखा। लेकिन इस बात की आशंका जताई गई है कि काम की जगहों पर कई तरह के रसायनों का संपर्क किसी पुरुष के बाप बनने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शुक्राणुओं की गति की दिक्कतों को लेकर अपना इलाज करा रहे लोगों और सामान्य लोगों का अध्ययन किया। शोधकर्ताओॅ ने इन लोगों से उनके कार्य, उनकी जीवनशैली और रसायनों से संपर्क की संभावनाओं के बारे में पूछा। इस पूछताछ से पता चला कि ग्लाइकोल ईथर के संपर्क में रहने वाले लोगों में शुक्राणु की गति के साथ समस्या की संभावना ढाई गुना बढ़ जाती है। शुक्राणुओं की गति यानी प्रत्येक इकाई के हिलने-डुलने की रफ़्तार प्रजनन की पूरी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कारक होती है।
ग्लाइकोल जैसे रसायनों का उपयोग गाढ़े पेंट्स को घुलनशील और पतला बनाने के लिए किया जाता है ।
मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के डाॅक्टर एंडी पोवी कहते हैं, कुछ ख़ास ग्लाइकोल ईथर पुरुषों के प्रजनन पर असर डालते हैं लेकिन उनके उपयोग में पिछले दो दशकों में कमी लाई गई है। लेकिन अब भी काम की जगहों पर इसका ख़तरा है और इस तरह के संपर्क को कम करने के लिए और प्रयास करने की ज़रूरत है।
हालांकि प्रजनन विशेषज्ञ डाॅक्चर एलन पेसी कहते हैं कि यह जानकर पुरुषों को राहत होगी कि यह अकेला रसायन है जिसका प्रजनन क्षमता पर असर होता है।
वे बताते हैं, यहां तक कि बच्चे पैदा कर पाने में अक्षम लोग भी इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि अपने कार्यस्थल पर वे जिन रसायनों के संपर्क में हैं, उसका असर उनकी प्रजनन क्षमता पर तो नही पड़ रहा है।
~ ~
जुड़वां बच्चे में एक लड़की है तो कम हो सकती है उसकी प्रजनन क्षमता
जुड़वा बच्चे पैदा होने खासकर जुड़वा बच्चों में एक लड़का और एक लड़की होने पर खुशी भी दोगुनी हो जाती है, लेकिन विषेशज्ञों के अनुसार जुड़वा बच्चे अगर लड़का-लड़की हैं तो वयस्क होने पर लड़की की प्रजनन क्षमता घट सकती है।
नेशनल एकेडमी आफ़ साइंसेज के ताज़ा अध्ययन के अनुसार जुड़वा लड़का-लड़की होने पर लड़की की प्रजनन क्षमता 25 फ़ीसदी तक घट जाती है। ऐसी जुड़वा लड़की की शादी की इच्छा में भी कमी आ सकती है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजनन क्षमता घटने की वजह गर्भ में जुड़वा लड़के से टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन का उत्सर्जन होना है। दरअसल, गर्भाशय मेें टेस्टोस्टेरॉन और महिला हार्मोन इस्ट्रोजन दोनों का उत्सर्जन होता है। मादा भ्रूण पर टेस्टोस्टेरॉन का असर होता है, जबकि नर भ्रूण पर इस्ट्रोजन का।
अध्ययनकर्ता डाॅक्टर विर्पी लुम्मा कहते हैं कि चूंकि नर और मादा भ्रूण में इस्ट्रोजन हार्मोन का स्तर समान होता है, लिहाजा टेस्टोस्टेरॉन से मादा भ्रूण ही प्रभावित होता है। टेस्टोस्टेरॉन महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर विपरीत असर डालता है। इससे उनकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है।
इस अध्ययन में शामिल 754 जुड़वा बच्चों में जुड़वा भाई वाली महिलाओं की प्रजनन क्षमता उन महिलाओं से 25 प्रतिशत कम पाई गई, जिनकी जुड़वा बहनें थीं। यही नहीं जुड़वा भाई वाली महिलाओं में शादी के प्रति रुचि में भी 15 प्रतिशत की कमी पाई गई ।
~ ~
होमियोपैथी दवा से संभव है इनफर्टिलिटी का इलाज
इनफर्टिलिटी के इलाज में होमियोपैथी दवाइयां काफी कारगर साबित होती हैं। परम्परागत दवाइयों या इलाज के कुछ दुष्प्रभाव भी सामने आते हैं जबकि होमियोपैथी दवाइयों से इनफर्टिलिटी का इलाज न सिर्फ दुष्प्रभाव रहित बल्कि प्रभावकारी भी होता है। होमियोपैथी विधि से पुरुष और महिलाओं दोनों की इनफर्टिलिटी का इलाज किया जा सकता है।
पुरुषों में होमियोपैथी दवाइयों से इनफर्टिलिटी का इलाज
पुरुषों में इनफर्टिलिटी का मुख्य कारण शुक्राणु का ठीक से कार्य नहीं करना या शुक्राणु का कम होना है। शुक्राणु के ठीक से कार्य नहीं करने का कारण मम्प्स, वैरिकोसिली, स्टेराॅयड, नशीली दवाइयां, अल्कोहल, पारा या कार्बन मोनोक्साइड के संपर्क में रहना और एक्स-रे हो सकता है। अधिक धूम्रपान का संबंध भी इनफर्टिलिटी से पाया गया गया है। इनके अलावा कैफीन का अधिक मात्रा में सेवन भी पुरुषो में इनफर्टिलिटी पैदा करता है।
होमियोपैथी विधि से इनफर्टिलिटी के इलाज के तहत होमियोपैथ के प्राकृतिक पदार्थोें से बनायी गयी दवाइयों को दिया जाता है। ये दवाइयां न सिर्फ इनफर्टिलिटी का इलाज करती हैं बल्कि भावनात्मक संतुलन को भी बनाये रखती है। पुरुषों में इनफर्टिलिटी के इलाज के लिए निम्न होमियोपैथी दवाइयां लेने की सलाह दी जाती है-
सीपिया- सीपिया वैसे पुरुषो के लिए लाभदायक है जिन्हें सेक्स की इच्छा नहीं होती हो।
कैनेबिस सैटिवा- यह वैसे लोगों के लिए लाभदायक है जिन्हें मैरिजुआना के सेवन के कारण सेक्स की इच्छा कम हो गयी हो। ऐसे लोगों को पेशाब करते समय जलन होती है। होमियोपैथी विशेषज्ञ ऐसे रोगियों के लिए आम तौर पर कैनेबिस सैटिवा 30 एक्स की रोजाना तीन खुराक तीन दिन तक लेने की सलाह देते हैं। यह प्रक्रिया हर तीन महीने में एक बार दोहरायी जाती है।
मेडोरिनम- यह दवा वैसे रोगियों के लिए प्रभावकारी है जो पहले कभी नपुंसकता के होने तो कभी न होने के कारण नर्वसनेस के शिकार हो गये हों। ऐसे लोगों को कभी-कभी पेशाब करते समय दर्द भी हो सकता है। ऐसे रोगियों को मेडोरिनम 200 एक्स या 200 सी की रोजाना तीन खुराक एक सप्ताह तक दी जाती है। हर तीसरे महीने में यह प्रक्रिया दोहरायी जाती है।
महिलाओं में होमियोपैथी दवाइयों से इनफर्टिलिटी का इलाज
महिलाओं में इनफर्टिलिटी का कारण इंडोमेट्रियोसिस, अधिक वजन, अधिक धूम्रपान, हारमोन असंतुलन, फैलोपियन ट्यूब का क्षतिग्रस्त होना या माहवारी से संबंधित समस्याएं हैं। महिलाओं में इनफर्टिलिटी के इलाज के लिए आम तौर पर निम्न होमियोपैथी दवाइयां दी जाती हैं-
सैबिना 6 सी- जिन महिलाओं का हाल में गर्भपात हुआ हो उन्हें सैबिना 6 सी लेने की सलाह दी जाती है। खासकर वैसी महिलाएं जिनका गर्भपात 12 सप्ताह से पहले ही हो गया हो, उन्हें इस दवा से काफी फायदा होता है।
सीपिया 6 सी- वैसी महिलाएं जिन्हें अनियमित माहवारी के साथ-साथ चिड़चिड़ापन, उदासी, ठंड लगना और सेक्स की इच्छा में कमी हो, उन्हें इनफर्टिलिटी के इलाज के लिए सीपिया 6 सी लेने की सलाह दी जाती है। यह दवा आम तौर पर रोजाना तीन बार 14 दिनों तक लेनी होती है।
लाइकोपोडियम- इस दवा से वैसी महिलाओं को फायदा होता है जो सूखी योनि या पेट के निचले हिस्से में दर्द से पीड़ित हों। इसे रोजाना तीन बार दो सप्ताह तक लेने की सलाह दी जाती है।
कोनियम- यह आम तौर पर वैसी महिलाओं को दी जाती है जिनका स्तन अधिक नरम या कड़ा महसूस होता हो। इसके साथ ही उनकी सेक्स की इच्छा भी कम हो रही हो।
हालांकि ये दवाइयां इनफर्टिलिटी के इलाज में काफी प्रभावी साबित होती हैं, लेकिन इनके सेवन से पूर्व होमियोपैथ विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है।
~ ~
सेरोगेसी के मामलों में हो रही है वृद्धि
निःसंतान दम्पतियों के लिए सेरोगेसी एक वरदान के समान है। यही कारण है कि भारत सहित दुनिया भर सेरोगेसी के मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। कहा जाता है कि सेरोगेसी की परम्परा महाभारत जितनी पुरानी है। प्रकाशित तथ्यों के अनुसार सेरोगेसी का पहला मामला अमरीका में 1985 में सामने आया था। यूं तो 1970 के दशक से ही आइवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) तकनीक का प्रयोग कृत्रिम गर्भधारण के लिए किया जा रहा है। परंतु हाल के वर्षो में भारत में कृत्रिम गर्भधारण के बढ़ते मामलों और 'सेरोगेटेड मदर' की अवधारणा के प्रचार बढ़ने से इस विषय पर कानूनविदों और समाजशास्त्रियों में बहस छिड़ गई है।
प्रजनन विषेषज्ञ डा.सोनिया मलिक बताती हैं कि सेरोगेटेड मदर की अवधारणा के तहत एक औरत किसी दूसरे दंपति के बच्चे को अपनी कोख में पालती और फिर जन्म देती है। अमरीकन सोसायटी फाॅर रिप्रोडक्टिव मेडिसीन से संबद्ध साउंथेंड रोटंडा सेंटर फाॅर ह्यूमन रिप्रोडक्षन की प्रमुख डा. मलिक के अनुसार सेरोगेसी दो तरह से सम्पन्न हो सकती है। पहली प्रक्रिया के तहत निःसंतान दंपति में पति के शुक्राणु और पत्नी के अंडे ले कर प्रयोगशाला में इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक की मदद से भ्रूण विकसित किया जाता है। इसके बाद इस भ्रूण को किराये की कोख देने वाली या सेरोगेट मां की भूमिका निभाने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया से उत्पन्न शिशु पर सेरोगेट महिला का कोई आनुवांशिक (जेनेटिक) प्रभाव नहीं होता।
नयी दिल्ली के वसंत विहार के होली एंजिल्स हाॅस्पीटल स्थित प्रजनन केन्द्र की निदेशक डा. मलिक बताती है कि दूसरी स्थिति में जब निःसंतान दम्पति में पत्नी अंडे उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होती है तो पति के शुक्राणु को ही सेरोगेट महिला के गर्भ में इंजेक्ट किया जाता है। इस स्थिति में भ्रूण सेरोगेट महिला के गर्भ में ही विकसित होता है और इसलिए इस भ्रूण से विकसित होने वाला शिशु जेनेटिक रूप से सेरोगेट महिला से जुड़ा होता है।
भारत में गुजरात के आनंद स्थित आकांक्षा क्लिनिक में सेरोगेट की पहली प्रक्रिया का इस्तेमाल किया गया, क्योंकि सेरोगेट मदर की भूमिका निभाने वाली महिला की निःसंतान पुत्री के अंडाशय तो बिल्कुल सामान्य थे लेकिन गर्भाशय में गड़बड़ी थी।
सेरोगेसी को कोख किराये पर देना कहा जाता है, क्योंकि इसमें एक दंपति किसी दूसरी महिला की कोख का प्रयोग अपना बच्चा पालने और जन्म देने के लिए करते हैं। सेरोगसी और कृत्रिम गर्भधारण की तकनीकों का प्रयोग सारी दुनिया में किया जा रहा है और साथ-साथ इसके संवैधानिक और नैतिक पहलुओं पर बहस भी छिड़ी हुई है। पश्चिमी देशों में पिछले कुछ वर्षों में बनाए गए विशेष कानूनों के तहत् इस प्रकार के मामलों के संवैधानिक पक्षों का संचालन किया जा रहा है। भारत में ये मामले साक्ष्य अधिनियम के अनुच्छेद 112 के तहत आते हैं। इसके अनुसार कृत्रिम गर्भधारण द्वारा उत्पन्न शिशु वैधानिक रूप से उसके माता-पिता का ही होगा। माता-पिता द्वारा शिशु पाने के लिए प्रयोग किये गए कृत्रिम तरीकों से इसकी वैधानिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
कृत्रिम गर्भधारण के मामले में जब केवल पति शामिल होता है और उसका आनुवांशिक अंश शुक्राणु के रूप में किसी दूसरी महिला के गर्भ में कृत्रिम रूप से पहुंचाया जाता है तो इस प्रक्रिया को लेकर नैतिक प्रश्न नहीं उठाए जाते, क्योंकि इसे शादी के सामान्य प्रतिमानों का उल्लंघन नहीं समझा जाता। परंतु यदि कोई महिला मातृत्व सुख के लिए अपने पति के बजाय किसी और पुरुष के शुक्राणु प्रत्यारोपित करती है तो यहां नैतिक और संवैधानिक दोनों प्रकार के प्रश्न खड़े हो जाते हैं और खासतौर से तब जब इसमें पति की रजामंदी शामिल न हो।
पति की सहमति से यदि कोई महिला किसी दूसरे पुरुष के शुक्राणु द्वारा कृत्रिम गर्भधारण तकनीक से गर्भधारण करती है तो यह व्यभिचार का मामला नहीं समझा जाता। परंतु बगैर पति की सहमति के पत्नी का दूसरे पुरुष के शुक्राणु द्वारा गर्भधारण करना तलाक कानून के तहत व्यभिचार का मामला बन सकता है।
क्या महिला का इस प्रकार कृत्रिम गर्भधारण में किसी दूसरे पुरुष के शुक्राणु द्वारा गर्भधारण करना अनुचित या व्यभिचार माना जाना चाहिए? स्काटलैंड में 1958 में मैकलेनन बनाम मैकलेनन मामले में इसी मुद्दे पर हुई लम्बी सुनवाई के बाद अदालत ने फैसला सुनाया कि संवैधानिक रूप से यह व्यभिचार का मामला नहीं है, क्योंकि पत्नी के कृत्रिम गर्भधारण में कहीं भी पुुरुष से 'यौन संपर्क' नहीं हुआ है। भारत में भी ऐसे मामलों में यही विचार अपनाया जा सकता है, क्योंकि भारतीय दंड संहिता में भी 'शारीरिक पहलू' पर ज्यादा जोर दिया गया है। इसके अतिरिक्त दंड संहिता में विशेष तौर से उल्लेख किया गया है कि व्यभिचार के मामले में महिला को दंड नहीं दिया जा सकता।
ब्रिटेन में 1990 में बना 'ह्यूमन फर्टिलाइजेशन एंड इम्ब्रियोलाॅजी एक्ट' कृत्रिम गर्भधारण मामलों के लिए बने कानूनों में से सबसे नया है। अमरीका के कई राज्यों में अपनाये जा चुके 'यूनिफार्म पेरेंटेज एक्ट' 1973 के अलावा पश्चिमी आस्ट्रेलिया के 'आर्टीफिशियल कंसेप्शन एक्ट' 1985 और दक्षिण वेल्स में 1984 में बने इसी तरह के कानून इन मामलों को ध्यान में रख कर बनाये गए हैं। ये सभी कानून मुख्यतः दो बातें कहते हैं। पहला, यदि कोई महिला पति की मर्जी से दूसरे पुरुष के शुक्राणु से कृत्रिम गर्भधारण करती है तो इससे उत्पन्न शिशु वैधानिक रूप से उस महिला और उसके पति का होगा। दूसरे, यदि महिला पति की रजामंदी के बगैर गर्भधारण करती है तो भी शिशु पर शुक्राणु दान करने वाले पुरुष का कोई अधिकार नहीं होगा। परंतु यह बच्चा उस महिला और उसके पति की शादी से हुआ बच्चा भी नहीं माना जाएगा।
क्या होगा यदि कोई अविवाहित महिला कृत्रिम रूप से गर्भधारण करना चाहे? क्या चिकित्सकों को उस महिला की मदद करनी चाहिए? इंग्लैंड की 'राॅयल काॅलेज आफ आब्स्टीट्रीशियन्स एंड गायनेकोलाॅजिस्ट्स' ने अपने सदस्यों को दिशानिर्देश जारी किये हैं कि कृत्रिम गर्भधारण की प्रक्रिया का प्रयोग केवल विवाहित महिलाओं पर उनके पति की सहमति होने पर ही किए जाएं। हालांकि एक अविवाहित महिला यदि प्राकृतिक या कृत्रिम तरीके से गर्भधारण कर लेती है तो कानूनी तौर से इसे अपराध नहीं माना जा सकता। परंतु समाज इस प्रकार के आचरण की अनुमति नहीं देता। खासतौर से भारत का समाज तो बिल्कुल नहीं। इसके अलावा इस प्रकार उत्पन्न शिशु अवैध या नाजायज समझा जायगा और यह बच्चे के प्रति गलत होगा।
भारत में कृत्रिम गर्भधारण धीरे-धीरे प्रचलित होता जा रहा है। आने वाले समय में यहां भी इससे जुड़े नैतिक और संवैधानिक प्रश्नों का खड़ा होना स्वाभाविक है। इसलिए यह जरूरी है कि हम इस संबंध में नैतिक और वैधानिक पहलुओं की पड़ताल करके किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहे।
~ ~
पुरुषों की प्रजनन क्षमता पर भी होता है बढ़ती उम्र का असर
बढ़ती उम्र का असर केवल महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर नहीं पड़ता है बल्कि पुरुषों की प्रजनन क्षमता भी इससे प्रभावित होती है।
एक ताजा शोध के अनुसार महिलाओं की तरह पुरुषों की बायोलाॅजिकल क्लाॅक या जैव घड़ी भी 35 साल के आसपास मंद पड़ने लगती है। जब पुरुष की उम्र 35 साल को पार करती है तो उनके शुक्राणु की गुणवत्ता प्रभावित होने के कारण प्रजनन क्षमता प्रभावित होने लगती है। साथ ही महिलाओं में भी उम्र बढ़ने के साथ-साथ सफल गर्भधारण की संभावना कम होने लगती है क्योंकि उम्र की इस दहलीज पर शुक्राणु की गुणवत्ता पहले जैसी नहीं रह जाती। जब पुरुष की उम्र 45 साल की होती है तो उस स्थिति में गर्भधारण के तीन मामलों में से एक में गर्भपात की स्थिति देखने को मिलती है चाहे मां की उम्र कितनी भी हो। इसका मतलब यह हुआ कि 45 साल की उम्र में पुरुषों में शुक्राणु की गुणवत्ता में बहुत अधिक गिरावट देखी जाती है।
यह शोध फ्राॅस के अनुसंधानकर्ताओं द्वारा 12,200 दम्पतियों पर किया गया। इन दम्पतियों में मेल पार्टनर की उम्र 35 साल से ज्यादा थी। इससे इस बात को भी बल मिला कि अगर पुरुष की उम्र 40 पार कर जाती है, तो बच्चे होने की संभावना और भी कम हो जाती है। शोधकर्ताओं ने इन पुरुषों के शुक्राणु की गुणवत्ता की जांच की। इस दौरान गर्भधारण और गर्भपात को भी रेकाॅर्ड किया गया। उपलब्ध किये गए आंकड़ों के विश्लेषण में उम्मीद के मुताबिक ही बात सामने आई कि 35 साल की उम्र के बाद जहां महिलाओं में गर्भधारण की क्षमता कम होने लगती है, गर्भपात की संभावना बढ़ने लगती है, वहीं पुरुषों की भी प्रजनन क्षमता प्रभावित होने लगती है।
~ ~
पुरुष भी होते हैं रजोनिवृत
क्या औरतों की तरह पुरुष भी रजोनिवृत होते हैं? आपको शायद विश्वास नहीं हो लेकिन यह सत्य है कि पुरुषों की यौन एवं प्रजनन क्षमता के ताउम्र कायम रहने के बारे में सदियों से कायम धारणा अब नवीनतम वैज्ञानिक शोधों और अध्ययनों से टूटने लगी है। वैज्ञानिकों का मानना है जिस तरह महिलायें जीवन के खास पड़ाव पर आकर रजोनिवृत होकर अपनी प्रजनन क्षमता खो देती हैं उसी तरह पुरुष एक खास अवस्था में रजोनिवृत होकर अपनी यौन इच्छा एवं प्रजनन क्षमता में गिरावट और अनेक शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों से साक्षात्कार करते हैं। पुरुषों में रजोनिवृति को वैज्ञानिकों ने एंड्रोपाॅज नाम दिया है। हालांकि सभी पुरुषों को इस अवस्था से नहीं गुजरना पड़ता हैं लेकिन जिन्हें इस अवस्था से गुजरना पड़ता है उनकी समस्याओं के समाधान में हार्मोन रिप्लेसमेंट थिरेपी काफी कारगर साबित होती है।
लाॅज एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अपने नवीनतम अध्ययनों में पाया कि सामान्य पुरुषों में मादा हार्मोन टेस्टोस्टेराॅन का स्तर 20 वर्ष की अवस्था में सबसे अधिक होता है और तीन वर्ष के बाद इसमें उतार आना आरंभ हो जाता है। इसके बाद शेष जीवन के दौरान हर वर्ष डेढ़ प्रतिशत के दर से गिरता है। यह गिरावट लगभग सभी पुरुषों में होती है। 50 वर्ष की अवस्था में रक्त में टेस्टोस्टेराॅन का स्तर सामान्य से आधा हो जाता है।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के यूरोलाॅजी एवं एंड्रोलाॅजी विशेषज्ञ डा. अजीत सक्सेना बताते हैं कि पुरुषों में रजोनिवृति के लक्षणों में सेक्स की इच्छा में कमी, लिंग में कड़ापन नहीं आने (इरेक्टाइल डिशफंक्शन), थकावट और आलस्य, अस्थि क्षय (ओस्टियोपोरोसिस) और मांसपेशियों के वजन तथा उसकी ताकत में कमी जैसी समस्यायें प्रमुख हैं। रजोनिवृत पुरुषों में प्रकट होने वाले कई लक्षण रजोनिवृत (मीनोपाॅज) महिलाओं में भी उभरते हैं। मिसाल के तौर पर किसी काम में ध्यान नहीं लगा पाना, रुचियों में कमी, अनिद्रा, चिडचिड़पन और उदासी जैसे लक्षण रजोनिवृति के बाद महिलाओं और पुरुषों दोनों में प्रकट हो सकते हैं।
अनेक अध्ययनों से पता चला है कि टेस्टोस्टेराॅन में गिरावट के कारण हृदय रोग और अस्थि क्षय जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के खतरे भी अधिक हो जाते हैं।
डा. अजीत सक्सेना बताते हैं कि पुरुष 40 से 55 वर्ष की उम्र के बीच महिलाओं के समान रजोनिवृति का अनुभव कर सकते हैं। महिलाओं में रजोनिवृति 40 और 50 साल की उम्र के बीच होती है। लेकिन पुरुषों में रजोनिवृति की शुरुआत और रजोनिवृति के बाद शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया कई साल और यहां तक कि दशक में पूरी हो सकती है जबकि महिलाओं में ये परिवर्तन तेजी से और एकबारगी होते हैं। महिलाओं के विपरीत पुरुषों में रजोनिवृति शुरू होने पर रज स्राव के बंद होने जैसे किसी स्पष्ट लक्षण नहीं उभरते हैं। लेकिन दोनों में हार्मोन के स्तर में गिरावट होती है। रजोनिवृति होने पर महिलाओं में इस्ट्रोजेन जबकि पुरुषों में टेस्टोस्टेराॅन नामक हार्मोन में गिरावट आती है। स्वभाव, मानसिक तनाव, शराब सेवन, चोट, सर्जरी, दवाइयों के दुष्प्रभाव, मोटापा, और संक्रमण एंड्रोपाॅज के कारण बन सकते हैं।
एंड्रोलाॅजी के कारण ये सब शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन व्यक्ति के जीवन के उस मोड़ पर होते हैं जब समाज में उनकी कार्य क्षमता पर प्रश्न उठने लगते हैं, उन्हें कार्यमुक्त होना पड़ता है और मानसिक रूप से सठियाया हुआ माना जाने लगता है। ऐसे में यह स्पष्ट तौर पर पता चल पाना मुश्किल होता है कि पुरुषों में दिमागी और शारीरिक तौर पर होने वाले परिवर्तन क्या रजोनिवृति (एंड्रपाॅज) के कारण ही हुये हैं।
हालांकि उम्र बढ़ने के साथ लगभग सभी पुरुषों में टेस्टोस्टेराॅन के स्तर में गिरावट आती है लेकिन इस बात का पूर्वानुमान नही लगाया जा सकता है कि किसे और किस उम्र में रजोनिवृति जैसी अवस्थाओं या समस्याओं से गुजरना पड़ेगा। यही नहीं अलग-अलग लोगों में रजोनिवृति के लक्षण अलग-अलग हो सकते हैं।
अध्ययनों से पता चला है कि 30 साल की उम्र के बाद हर 10 साल में टेस्टोस्टेराॅन के स्तर में 10 प्रतिशत की गिरावट होती है। उसी समय सेक्स बाइंडिग हार्मोन ग्लोबुलिन (एस एच बी जी ) नामक शरीर में पाया जाने वाला एक और फैक्टर बढ़ने लगता है। यह बहुत अधिक टेस्टोस्टेराॅन को अपने साथ समाहित कर लेता है जिसके कारण शरीर में मौजूद टेस्टोस्टेराॅन के प्रभाव ऊतकों तक नहीं पहुंच पाते हैं। बचे हुये टेस्टोस्टेराॅन को जैव उपलब्ध टेस्टोस्टेराॅन कहा जाता है।
डा. अजीत सक्सेना बताते हैं कि एंड्रोपाॅज का संबध जैव उपलब्ध टेस्टोस्टेराॅन के निम्न स्तर से है। हालांकि हर पुरुषों के जैव उपलब्घ टस्टोस्टेराॅन में गिरावट होती है लेकिन कुछ पुरुषों में यह गिरावट अन्य लोगों की तुलना में अधिक होती है।
डा. सक्सेना बताते हैं कि एंड्रोपाॅज के कारण व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। कई लोगों में खतरनाक स्तर तक टेस्टोस्टेराॅन में गिरावट होती है। एक अनुमान के अनुसार 50 साल की उम्र के 30 प्रतिशत पुरुषों को टेस्टोस्टेराॅन में इस कदर की गिरावट का सामना करना पड़ता हैं कि उन्हें स्वास्थ्य संबंधी खतरे उत्पन्न हो जाते हैं।
टेस्टोस्टेराॅन नामक हार्मोन का पूरे शरीर पर असर पड़ता है। टेस्टेस्टेराॅन का निर्माण टेस्टिस और एड्रिनल ग्रंथि में होता है। यह हार्मोन प्रोटीन के निर्माण में सहायक होता है और सामान्य यौन व्यवहार एवं यौन क्षमता के लिये आवश्यक होता है। यह हार्मोन अस्थि मज्जा की रक्त कोशिकाओं, अस्थि निर्माण, लिपिड उपापचय, कार्बोहाइड्रेड मेटाबाॅलिज्म, लीवर फंक्शन और प्रोस्टेट ग्रंथि के विकास जैसी अनेक उपापचय गतिविधियों को प्रभावित करता है। शरीर में टेस्टोस्टेराॅन का स्तर कम हो जाने पर टेस्टोस्टेराॅन के प्रभाव में काम करने वाले अंगों की क्रियाशीलता कम हो जाती है जिससे शरीर में अनेक परिवर्तन आते हैं।
एंड्रोपाॅज के कारण जीवन की गुणवत्ता एवं सेक्स और प्रजनन क्षमता प्रभावित होने के अलावा स्वास्थ्य संबंधी अनेक खामोश खतरे भी होते हैं जिनके बारे में पहले से पता लगाना मुश्किल होता है। इन खतरों में हृदय रोग और ओस्टियोपोरोसिस भी शामिल है।
~ ~
महिलाओं में वियाग्रा का बढ़ता इस्तेमाल
वियाग्रा पुरुषों में यौन शक्ति बढ़ाने वाली दवा के रूप में दुनिया भर में काफी लोकप्रिय हो चुकी है। लेकिन अब भारत सहित अनेक देशों में महिलायें भी यौन क्षमता बढ़ाने के लिये वियाग्रा का सेवन करने लगी हैं। अब किसी भी तरह की यौन समस्याओं से ग्रस्त महिलाएं मनोचिकित्सक से मेडिकल पर्ची पर वियाग्रा की गोली लिखने को सिफारिश करने लगी हैं, लेकिन चिकित्सकों के अनुसार वियाग्रा महिलाओं में यौन शक्ति बढ़ाने में कारगर नहीं होती है। अगर महिलाएं बिना किसी चिकित्सक की सलाह के इसकी अधिक मात्रा का सेवन कर लें तो यह उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ वियाग्रा बनाने वाली अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी फाइजर की जाॅन डाॅरमैन का कहना है कि महिलाएं वियाग्रा लेने के बाद अपने पति के साथ के शारीरिक संबंध को अधिक आनंददायक बना सकती हैं। यह पुरुषों और महिलाओं पर समान रूप से कार्य करती है।
फाइजर कंपनी ने 27 मार्च 1998 को अमरीकी बाजार में वियाग्रा जारी किया था। अमरीका में इसके बाजार में आने के बाद केवल दो माह में 10 लाख लोगों ने डाक्टरी पर्चे पर इस दवाई का इस्तेमाल किया। बाद में सभी देशों में इसका अंधाधुंध इस्तेमाल आरंभ हो गया। इसका सेवन ऐसे लोग भी करने लगे जिन्हें किसी तरह की यौन समस्या नहीं थी। चिकित्सकों से परामर्श के बगैर ही बहुत अधिक मात्रा में इसके सेवन के कारण अनेक लोगों की मौत होने के कई मामले भी सामने आ चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है।
चिकित्सकों के अनुसार वियाग्रा इरेक्टाइल डिस्फंक्शन नामक यौन बीमारी की दवाई है। यह फास्फोडिस्टेरेस- 5 किस्म के अवरोधक 'इनव्हिटर्स'- अर्थात पी.डी.ई.- 5 नामक औषधियों की नयी श्रेणी की पहली औषधि है। यह पुरुष जननांग में रक्त प्रवाह सुचारू बनाता है। इससे 'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' की समस्या उत्पन्न नहीं होती। इस कंपनी के अनुसार 'वियाग्रा' मुख्य तौर पर पुरुष जननांग में पाये जाने वाले पी.डी.ई. - 5 नामक एंजाइम को रोकती है जिससे यौन उत्तेजना के दौरान जननांग में साइक्लिक जी एम पी नामक रसायन अधिक मात्रा में बरकरार रहता है और जननांग में रक्त आपूर्ति बढ़ जाती है जिससे उसमें उत्तेजना और कड़ापन आ जाता है।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ प्लास्टिक, काॅस्मेटिक एवं रिकंस्ट्रक्टिव सर्जन डा. अनूप धीर के अनुसार इरेक्टाइल डिस्फंक्शन की बीमारी रक्त वाहिनियों या तंत्रिकाओं अथवा दोनों की कार्यप्रणालियों में गड़बड़ी आ जाने से उत्पन्न होती है। पुरुष जननांग की रक्त वाहिनियों में वसा जम जाने पर जननांग में रक्त प्रवाह समुचित रूप से नहीं हो पाता है जिसके कारण यौन संबंध के दौरान पुरुष लिंग में पर्याप्त कड़ापन नहीं आ पाता है। मधुमेह और उच्च रक्त दाब तथा इन रोगों की दवाईयों के सेवन, मानसिक तनाव, पर्यावरण प्रदूषण, मेरू रज्जू (स्पाइनल कार्ड) में चोट अथवा उससे संबंधित बीमारियों, हार्मोन संबंधी एवं आनुवांशिक विकारों के अलावा अधिक शराब एवं वसायुक्त भोजन के सेवन तथा धूम्रपान से कई पुरुषों में 'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' की समस्या उत्पन्न हो जाती है। 'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' का एक अन्य कारण स्नायु तंत्र में गड़बड़ी आ जाना है। इस कारण पुरुष जननांग की रक्त वाहिकाओं को समय पर फैलने का संकेत नहीं मिल पाता है जिससे उनमें रक्त का तेज बहाव नहीं हो पाता है। उनका कहना है कि वियाग्रा केवल उन्हीं पुरुषों के लिये कारगर है जिनमें यह बीमारी गंभीर नहीं होती है और इनके इलाज के लिए शल्य क्रिया की जरूरत नहीं पड़ती।
महिलाओं के लिये वियाग्रा को हालांकि अभी अमरीका के खाद्य और औषधि मंत्रालय से मंजूरी नहीं मिली है लेकिन अनेक देशों में पुरुषों के साथ-साथ महिलायें भी इसका सेवन करने लगी हंै। हृदय रोग चिकित्सक डा. के. के. अग्रवाल बताते हैं कि जो पुरुष या महिला पहले से ही दिल के मरीज हैं और वे नाइट्रेट युक्त दवाईयों का सेवन कर रहे हैं उनके लिये वियाग्रा का सेवन घातक साबित हो सकता है क्योंकि वियाग्रा की तरह ही नाइट्रेट युक्त ये दवाईयां भी यौन क्रिया से पहले खायी जाती हैं और ये जननांग में रक्त संचालन तेज कर देती हैं। इस तरह एक ही बार में एक ही तरह की दो दवाईयों के सेवन से रक्त संचालन बहुत तेज हो जाता है और मरीज का रक्त चाप एकाएक कम हो जाने से उसकी मृत्यु हो सकती है। वियाग्रा के सेवन से होने वाली ज्यादातर मौतों का कारण मुख्यतः यही रहा है। इसके अलावा इसके सेवन से सिर दर्द, आंखों में अस्थायी धुंधलापन जैसे दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
यूरोप और कनाडा की 18 से 55 वर्ष की 577 महिलाओं पर वियाग्रा के प्रभाव पर किए गए अध्ययनों में पता चला कि इससे महिलाओं की यौन क्षमता में कोई वृद्धि नहीं होती है और न ही इससे उनकी यौनेच्छा में कमी, उत्तेजना में कमी और शारीरिक संबंध के समय दर्द जैसी किसी भी तरह की यौन समस्या का समाधान होता है। शिकागो यूनिवर्सिटी द्वारा महिलाओं पर हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि तकरीबन 43 फीसदी महिलाओं में किसी न किसी तरह की यौन समस्या होती है। महिलाओं में यौनेच्छा का संबंध शारीरिक या मानसिक हो सकता है। तनाव और डिप्रेशन की दवाईयों के सेवन से भी यौनेच्छा में कमी हो सकती है। इसके अलावा इसका एक मुख्य कारण हार्मोन असंतुलन भी हो सकता है। महिलाओं में उत्तेजना में कमी होना आम बात है। इसका उम्र से कोई संबंध नहीं है। कई महिलाएं शारीरिक संबंध के समय उत्तेजित नहीं हो पाती हैं। इसके अलावा महिलाओं में शारीरिक संबंध के समय दर्द होना भी एक आम यौन समस्या है। लेकिन रजोेनिवृति के बाद योनि में प्राकृतिक चिकनापन खत्म हो जाने से इन महिलाओं में यह समस्या अधिक होती है। हार्मोन असंतुलन के कारण भी योनि में सूखापन आ सकता है। लेकिन महिलाओं में इस तरह की यौन समस्याओं को दूर करने में वियाग्रा की कोई भूमिका नहीं है और यह सिर्फ प्लैसिबो की तरह काम करता है। अनेक देशों में महिलाओं के लिये भी वियाग्रा जैसी दवाईयां बनाने की कोशिश तेज हो गयी है। मांट्रियल स्थित कोंकोर्डिया युनिवर्सिटी ने पैलैटिन टेक्नोलाॅजिज के साथ मिलकर पीटी 141 नामक दवा का विकास किया है। इस दवाई के सेवन से महिलाओं में यौन क्षमता बढ़ती है। फिलहाल इस दवाई का परीक्षण चल रहा है। भारत में भी कई कंपनियों ने जड़ी-बूटियों से महिलाओं के लिये यौन शक्ति बढ़ाने वाली दवा बनाने का दावा किया है।
~ ~
शुक्राणुओं को कम कर रहा है मोबाइल
मोबाइल फ़ोन का अधिक इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या घट रही है जिससे उनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
मुंबई के अस्पतालों में संतानोत्पति में नाकाम होने के बाद अपना इलाज़ करा रहे 364 पुरुषों पर हुए अध्ययन से यह पाया गया कि जो लोग दिन में चार घंटे से अधिक मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते थे उनमें शुक्राणुओॅ की संख्या प्रति मिलीलीटर पांच करोड़ थी जो सामान्य आंकड़े से काफी कम है। दो से चार घंटे तक मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करने वाले लोगों में प्रति मिलीलीटर शुक्राणुओं की संख्या लगभग सात करोड़ आंकी गई जबकि मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल नहीं करने वाले लोगों में यह संख्या लगभग साढ़े आठ करोड़ थी और उनके शुक्राणु काफी स्वस्थ हालत में सक्रिय पाए गए।
इस शोध के नेतृत्वकर्ता डाॅ अशोक अग्रवाल कहते हैं कि लोग मोबाइल के दुष्प्रभाव की परवाह किये बगैर मोबाइल का इस्तेमाल बेधड़क करते जा रहे हैं। उनका कहना है कि मोबाइल से होने वाला विकिरण डीएनए पर बुरा असर डालता है जिससे शुक्राणु भी प्रभावित होेते हैं।
~ ~
कम हो रहे हैं शुक्राणु
बढ़ते प्रदूषण, धूम्रपान, शराब एवं नशीली दवाईयों के सेवन, तनाव और तंग किस्म के आधुनिक जांघिये के इस्तेमाल जैसे कारणों से शुक्राणुओं के कम बनने की समस्या बढ़ रही है। शुक्राणुओं के कम बनने की समस्या के कारण करीब 15 प्रतिशत दम्पति निःसंतान होने की त्रासदी झेल रहे हैं। अमरीका के नेशनल इंस्टीट्युट आफ हेल्थ के अनुसार संतानहीनता के सभी मामलों में से 40 प्रतिशत मामलों में पुरुष बंध्यत्व जिम्मेदार हैं।
प्रजनन विशेषज्ञ डा. याचना ग्रोवर बताती हैं कि बहुत अधिक धूम्रपान का भी प्रजनन क्षमता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि धूम्रपान से शुक्राणुओं की संख्या एवं शुक्राणुओं की गतिशीलता में कमी आती है।
प्रजनन विशेषज्ञों के अनुसार गर्मी का शुक्राणुओं के उत्पादन पर काफी दुष्प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि तंग किस्म के आधुनिक जांघिये भी शुक्राणु निर्माण पर बुरा असर डालते हैं क्योंकि इन्हें पहने रहने से अंडकोष का तापमान बढ़ जाता है। कई लोग बहुत गर्म पानी से भरे टब में बैठ या लेट कर स्नान करते हैं लेकिन इससे उनकी प्रजनन क्षमता पूरी तरह समाप्त हो सकती है। जिन लोगों को होटलों और फैक्टरियों में भट्ठियों के पास रहना पड़ता है उन्हें भी बंध्यत्व का शिकार होना पड़ सकता है।
डा. ग्रोवर ने बताया कि शुक्राणुओं में कमी के 10 से 20 फीसदी मामलों में हार्मोनल असंतुलन जिम्मेदार हो सकता है। कुछ में यह समस्या वेरिकोसली नामक विकार से संबंधित है। वेरिकोसली में अंडकोष की शिराओं में असामान्य फैलाव आ जाता है, जिससे अंडकोष का तापमान बढ़ जाता है, उस पर खिंचाव पड़ने लगता है और उसमें शुक्राणु बनने की गति घट जाती है। इसके अलावा रतिजरोग, दुर्घटनावश जननांग प्रणाली के किसी हिस्से में चोट, प्रोस्टेट ग्रंथि और अंड ग्रंथि में सूजन, कनफेड (मम्पस) के कारण अंडग्रंथि को हुयी क्षति और जन्मजात विकार के कारण अंडग्रंथियों के अपनी जगह न होकर पेट में रह जाने से पुरुषों में शुक्राणु की कमी हो सकती है। अंडग्रंथियों के काम नहीं करने और शुक्राणुवाही नलियों में रूकावट होने पर शुक्राणु संख्या बिल्कुल शून्य हो सकती है।
चेन्नई के अपोलो अस्पताल में प्रजनन पर शोध करने वाली डा.याचना ग्रोवर बताती हैं कि पुरुष बंध्यत्व के उपचार की दिशा में हाल के वर्षों में काफी अनुसंधान हुये हैं जिनकी बदौलत कई कारगर औषधियों, हार्मोनों तथा तकनीकों का विकास हुआ है। दवाईयों और हार्मोनों के कारगर नहीं होने पर कृत्रिम गर्भाधान के तरीके अपनाये जाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान के एक तरीके के तहत पति का वीर्य लेकर उसे कृत्रिम तरीके से परिष्कृत कर, स्त्री का गर्भ ठहराने की कोशिश की जाती है। यह तरीका उन मामलों में काम आता है जिनमें या तो पुरुष के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या कम होती है या वीर्य में शुक्राणुनाशक तत्व (स्पर्म एंटीबाॅडी) होते हैं अथवा स्त्री के सरविक्स की परिस्थितियां शुक्राणुओं के लिये प्रतिकूल होती हैं या फिर किन्हीं कारणों से पति-पत्नी के बीच प्राकृतिक यौन संबंध संभव नहीं हो पाता है। जिन मामलों में वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या बहुत कम होती है उनमें यह तरीका कम कामयाब हो पाता है। ऐसे मामलों में बेहतर कामयाबी हासिल करने के लिये वीर्य का पहला हिस्सा छंटनी करके इस्तेमाल किया जाता है। इस विधि में डिंब उत्सर्ग (ओव्यूलेशन) के संभावित दिनों में 24 घंटों के अंतर पर, दो बार गर्भाधान की कोशिश की जाती है।
~ ~
कामकाजी महिलाओं की इनफर्टिलिटी को खतरा
कामकाजी महिलाओं पर घर और दफ्तर दोनों की जिम्मेदारी होती है। घर और दफ्तर का काम खत्म करने के बाद उनके पास रोमांस और पार्टनर के साथ प्यार के लिए भरपूर वक्त नहीं बचता। काम की आपाधापी और तनाव का असर इनके बेडरूम में भी होने लगता है और धीरे-धीरे इन महिलाओं की प्रजनन क्षमता कम होने लगती है।
लंदन में एक फर्टिलिटी क्लिनिक चलाने वाली जीटा वेस्ट के अनुसार माॅडर्न कपल के पास प्यार करने के लिए उतना वक्त नहीं है जितना उनके पहले की पीढ़ी के पास था। इसी तरह से कामकाजी औरतें नौकरी के प्रति इतना ज्यादा समर्पित होती जा रही हैं कि मां बनने की संभावनाओं पर इसका असर पड़ने लगा है।
हेल्थ सर्विस के साथ काम कर चुकीं जीटा के अनुसार हर सात में एक महिला गर्भ धारण करने में तमाम मुश्किलों का सामना कर रही है। कई महिलाओॅ को मां बनने के लिए आईवीएफ ट्रीटमेंट का सहारा लेना पड़ता है। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है कि प्यार के लिए भी चार पल निकाला जाए। औरतें काम के साथ आराम और प्यार को भी तरजीह दें।
~ ~
हेल्थ टिप्स
1. दैनिक आहार में सुबह का नाश्ता सबसे महत्वपूर्ण होता है। रोजाना पौष्टिक नाश्ता लेने से आप दिन भर सक्रिय रह सकते हैं।
2. यदि आप वजन कम करना चाहते हैं तो शाम में सात बजे भोजन कर लें और रात में एक गिलास दूध और फल लें।
3. एक गिलास पानी में एक चम्मच मेथी के बीज को रात भर पानी में डुबो कर रखें और उसे छानकर सुबह खाली पेट पीएं। इससे आपका ट्राइग्लिसराइड और कालेस्ट्राल का स्तर कम होगा।
4. यदि आपकी हथेली खुरदरी हो रही हो तो रात में सोते समय नियमित रूप से ग्लिसरीन और नींबू के रस के मिश्रण को लगाएं और रात भर लगा रहने दें।
5. यदि आपके हाथ और पैर में दाग-धब्बे हों तो उन पर नींबे के छिलके को नियमित रूप से रगड़ें, दाग हल्के हो जाएंगे।
6. कुहनी और घुटनों की त्वचा आम तौर पर थोड़ी खुष्क होती है। उन्हें मुलायम रखने के लिए वहां पर नियमित रूप से नारियल का तेल लगाएं।
7. धूप के संपर्क में आने वाले शरीर के खुले हिस्सों में परफ्यूम न लगाएं। परफ्यूम लगे षरीर के हिस्से के अधिक देर तक धूप के संपर्क में रहने पर वहां सनबर्न हो जाता है।
8. एड़ियां फटी हो तो एड़ियों पर नारियल का तेल लगाकर थोड़ी देर तक हल्का गर्म पानी मे रखें। उसके बाद पैर को पोंछकर उस पर सूर्यमुखी के फूल का रस, मेंहदी और आधे नींबू का रस मिलाकर लगाएं। थोड़ी देर के बाद उसे धो लें।
9. यदि आप कम कैलोरी वाला खाना खाते-खाते बोर हो गए हैं तो खाने में कैलोरी बढ़ाने के बजाय उसमें थोड़ा साॅस और मसालें मिला लें, भोजन चटपटा हो जाएगा।
10. हंसना सबसे अच्छी दवा है क्योंकि हंसने के दौरान मांसपेशियां रिलैक्स हो जाती हैं, तनाव पैदा करने वाले हारमोन कम हो जाते हैं, लोग दर्द को भूल जाते हैं, शरीर का प्रतिरोधक तंत्र मजबूत हो जाता है, उच्च रक्तचाप कम हो जाता है, हृदय और फेफड़े मजबूत हो जाते हैं और हम बेहतर महसूस करते हैं।
~ ~
आधुनिक पेशों ने बढ़ायी संतानहीनता
रोहित एक बैंक में अधिकारी हैं और उनकी पत्नी रश्मि भी एक प्राइवेट फाइनांसियल कंपनी में अधिकारी के पद पर हैं। उनकी शादी को सात साल हो गए हैं और उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है। फिर भी वे खुश नहीं हैं। शादी के तीन साल बाद जब उन्होंने अपने घर-परिवार का मुआयना किया तो पाया कि उनके पास सारी सुख-सुविधायें हैं, लेकिन वे संतान सुख से वंचित हैैं। इसके बाद उन्हें एक बच्चे की जरूरत बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी। उन्होंने स्त्री रोग विशेषज्ञ से संपर्क किया। उसके बाद 30 वर्षीया रश्मि की सोनोग्राफी की गई और 34 वर्षीय रोहित के शुक्राणुओं की जांच की गई, लेकिन रश्मि में कोई खराबी नहीं पाई गई और रोहित में भी बच्चे पैदा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में शुक्राणु मौजूद थे। फिर भी वे बच्चे पैदा करने में असमर्थ थे। अब वे लोग इनफर्टिलिटी का इलाज करा रहे हैं। रोहित और रश्मि की तरह ही ऐसे कई दम्पति हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं और अच्छा वेतन पाते हैं। कहने को तो उनके पास सब कुछ है, लेकिन वे बच्चे पैदा करने में असमर्थ हैं और इसी चिंता में घुलते रहते हैं। ऐसे दम्पति घर के बाहर सफल साबित होते हैं, लेकिन घर में खासकर बिस्तर पर असफल साबित होते हैं। ऐसे दम्पति बेडरूम में भी प्यार-मोहब्बत की बातें करने की बजाय आफिस और नौकरी की ही बातें करते हैं। बिस्तर पर भी वे तनाव मुक्त नहीं हो पाते। हर महीने ये सुखद समाचार की उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं, लेकिन इन्हें निराशा ही हाथ लगती है।
एक काॅल सेंटर में काम कर रहे नितिन का कहना है कि उसकी जिंदगी मशीन बन कर रह गयी है। हालांकि यहां काम करने के एवज में उसे मोटी तनख्वाह मिलती है, लेकिन उसके लिए दिन-रात एक समान हो गए हैं। वह नौकरी के अलावा किसी अन्य चीज के बारे में सोच ही नहीं पाता।
मुंबई में अलग-अलग टी वी चैनलों में रिपोर्टर के तौर पर कार्य करने वाले 33 वर्षीय निखिल और उसकी 31 वर्षीय पत्नी दीपा का भी कहना है कि उनकी जिंदगी समाचार और शूटिंग के बीच ही उलझकर रह गयी है। कभी-कभी वे लोग सोचते हैं कि ऐसी भाग-दौड़ की जिंदगी में उनकेे लिए डबल बेड का क्या काम।
आखिर क्या कारण है कि अपनी मेहनत से कैरियर की बुलंदी तक पहुंचने वाले और सारी सुख-सुविधाओं का उपभोग करने वाले दम्पति संतान सुख से वंचित हैं। इसका एक बड़ा कारण तनाव है। महानगरों और बड़े शहरों के लोगों में जिस रफ्तार से काम-काज के तनाव बढ़ते जा रहे हैं, उसी रफ्तार से उनमें इनफर्टिलिटी की समस्या भी बढ़ती जा रही है। तनावपूर्ण नौकरी, काम का अधिक दबाव, अधिक समय तक काम करने तथा तनाव पूर्ण जिंदगी होने से उनमें काम वासना में कमी हो रही है, साथ ही उनकी सेक्स तथा प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
तनाव के कारण हाल के वर्षों में पुरुषों में शुक्राणुओं में आश्चर्यजनक कमी आयी है। महिलाओं में भी तनाव के कारण अंडा बनने तथा अंडोत्सर्ग की क्षमता कम हो रही है। काम वासना में कमी तो अब एक आम समस्या बन गयी है।
शादी के बाद पति-पत्नी के डेढ़ साल तक असुरक्षित सेक्स करने के बाद भी गर्भ नहीं ठहरने को इनफर्टिलिटी कहा जाता है। हमारे देश में छह में से एक दम्पति इनफर्टाइल है और शहरों में नौकरी करने वाले 20 फीसदी युवा दम्पति तनाव जनित इनफर्टिलिटी का सामना कर रहे हैं। इसके लिए पति और पत्नी में से कोई एक या दोनों जिम्मेदार हो सकते हैं। संतानहीनता के 40 फीसदी मामलों में पुरुष, 40 फीसदी मामलों में महिला और 20 फीसदी मामलों में दोनों जिम्मेदार होते हैं। हालांकि इसके लिए वातावरण में पाये जाने वाले विषैले पदार्थ भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं।
सोने-जागने की अनियमिता, अधिक भाग-दौड़ और कार्य के अधिक दबाव से हमारी जैविक घड़ी प्रभावित होती है जिसका प्रभाव प्रजनन तंत्र पर भी पड़ता है। पुरुषों पर कार्य का अधिक बोझ होने के कारण उनमें शुक्राणु की संख्या कम हो रही है और उनमें महिलाओं की तुलना में इनफर्टिलिटी की समस्या तेजी से बढ़ रही है। एक अनुमान के अनुसार अपने देश में 12-15 प्रतिशत लोग इनफर्टिलिटी के शिकार होते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग विभिन्न कारणों से प्रजनन विशेषज्ञों से इलाज नहीं करा पाते और गैर चिकित्सकीय उपायों का सहारा लेते हैं जिससे उनकी समस्या और बढ़ जाती है।
सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर साॅफ्टवेयर के क्षेत्र में काम करने वाले दम्पतियों पर हाल में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि उनमें उच्च रक्त चाप, मधुमेह, मोटापा और काम वासना में कमी जैसी समस्याएं बहुत अधिक होती हैं। ऐसे व्यवसायों से जुड़े 26 से 32 वर्ष के लोगों तथा पति-पत्नी में से एक के भी ऐसे व्यवसायों से जुड़े होने पर उनमें इन बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इनके अलावा पुरुषों में शुक्राणुओं में कमी तथा महिलाओं में प्रोलेक्टिन हार्मोन के स्तर में वृद्धि तथा मासिक स्राव संबंधित बीमारियां हो जाती हैं जिसका प्रभाव उनकी प्रजनन क्षमता पर भी पड़ता है। इन सारी समस्याओं का कारण तनाव होता है।
आजकल क्लिनिक में वैसे दम्पति भी आने लगे हैं जिन्हें पहला बच्चा तो हो जाता है लेकिन दूसरे बच्चे में समस्या आती है। इसका मुख्य कारण बार-बार गर्भपात कराना है, क्योंकि इससे महिला का प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर हो जाता है या यूटेरस में खराबी आ जाती है। इसके अलावा 5-6 साल तक लगातार गर्भनिरोधक गोलियां लेने से भी प्रजनन तंत्र में खराबी आ जाती है और ओवुलेशन नहीं होता। हालांकि आजकल कम पोटेंसी की गर्भनिरोधक गोलियां आ गयी हैं। इन्हें कुछ समय तक लेने पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता है।
इनफर्टिलिटी के उपचार के लिए इसके कारण का पता लगाना जरूरी है। इसके लिए पति-पत्नी दोनों की पूरी जांच की जाती है। मौजूदा समय में कृत्रिम वीर्य संचलन (आर्टिफिशियल इनसेमीनेशन), इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आई वी एफ) तथा भ्रूण प्रत्यारोपण, अंतः कोशिका द्रव्य शुक्राणु इंजेक्शन (आई सी एस आई) जैसी तकनीकों की बदौलत निःसंतान दम्पति संतान का सुख प्राप्त कर सकते हैं। इन तकनीकों की सहायता से न सिर्फ प्रजनन दोष वाली महिलाएं, बल्कि अधिक उम्र की महिलाएं भी मां बनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं।
किसी पुरुष के वीर्य में शुक्राणु की अत्यधिक कमी होनेे, कोई आनुवांशिक रोग होने, शीघ्रपतन, कोई जननांग विकार होने या महिला में गर्भाशय ग्रीवा म्यूकस में कोई खराबी होने पर कृत्रिम वीर्य संचलन (आर्टिफिशियल इनसेमीनेशन) नामक तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें किसी अन्य पुरुष के वीर्य का भी उपयोग किया जा सकता है।
इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आई वी एफ) तथा भ्रूण प्रत्यारोपण की तकनीक का इस्तेमाल महिला की डिम्बवाहिनी (फैलोपियन ट्यूब) के क्षतिग्रस्त होने, बंद होने या न होने पर किया जाता है। इसे परखनली शिशु विधि (टेस्ट ट्यूब बेबी) भी कहते हैं। अंतः कोशिका द्रव्य शुक्राणु इंजेक्शन (आई सी एस आई) नामक तकनीक के तहत शुक्राणु को सीधा अंतः कोशिका द्रव्य में प्रवेश करा दिया जाता है। जब किसी पुरुष में शुक्राणु की मात्रा बहुत कम होती है तब इस विधि का इस्तेमाल किया जाता है।
आजकल कैरियर बनाने के चक्कर में लोग अधिक उम्र में शादी करते हैं और देर से बच्चे पैदा करना चाहते हैं। कई दम्पति देर से संतान जनने के लिये अपनी प्रजनन क्षमता की जांच कराए बगैर ही परिवार नियोजन के तरीकों का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं, लेकिन बाद में यही प्रवृति प्रजननहीनता का कारण बनती है।
~ ~
गर्भाशय की रसौलियों से संतानहीनता
भ्रूण का पालन-पोषण करने वाली बच्चेदानी की रसौलियां महिलाओं की अत्यंत व्यापक समस्या है। एक अनुमान के अनुसार 35 वर्ष से अधिक उम्र की हर पांचवीं महिला को यह समस्या होती है। ज्यादातर मामलों में ये रसौलियां कैंसरजन्य या जानलेवा नहीं होती हैं लेकिन ये संतानहीनता का कारण बन सकती हैं। इन रसौलियों के कारण माहवारी के दौरान अधिक रक्त स्राव होने के कारण एनीमिया हो सकती है।
बच्चेदानी में होने वाली इन छोटी-छोटी रसौलियों के कारण माहवारी के दौरान ज्यादा रक्त आने लगता है। यह रक्तस्राव अधिक दिनों तक चल सकता है। आम तौर पर तीन से पांच दिन में बंद हो जाने वाला रक्तस्राव दस दिन तक भी जारी रह सकता है। इससे शरीर में रक्त की कमी (एनीमिया) हो जाती है। इससे महिला को कमजोरी एवं थकान होती है। ज्यादातर मामलों में मासिक चक्र पूर्ववत रहता है। कई बार मासिक खत्म हो जाने के बाद भी बीच-बीच में योनि से खून आने की शिकायत होती है। कुछ अन्य मामलों में रसौलियों में संक्रमण हो जाने से योनि से रक्त से सना हुआ दुर्गंधयुक्त स्राव आने लगता है। ऐसा होना रसौलियों के साथ-साथ कोई अन्य बीमारी होने का संकेत हो सकता है। कुछ मामलों में मासिक स्राव के समय पेट के निचले हिस्से में दर्द की शिकायत होती है।
रसौलियां बढ़ने पर पेडू (पेल्विस) में भारीपन महसूस होने लगता है। कुछ मामलों में रसौलियां भीतर ही भीतर अपनी धुरी पर घूम जाती है जिससे पेट में अचानक तेज दर्द उठने लगता है। कई महिलाओं में रसौलियों के बहुत अधिक बढ़ जाने पर आसपास के अंगों पर दबाव पड़ने लगता है। बड़ी आंत एवं मलाशय पर दबाव पड़ने के कारण कब्ज तथा मूत्राशय पर दबाव पड़ने के कारण पेशाब रुक जाता है और थोड़ी-थोड़ी देर पर थोड़ा-थोड़ा पेशाब भी निकलता है।
ये रसौलियां संतानहीनता का बहुत बड़ा कारण हैं। अक्सर इन रसौलियों का पता संतान नहीं होने पर महिला की डाॅक्टरी जांच के दौरान ही लगता है। रसौलियों के कारण गर्भाशय में गर्भ को ठीक से जगह नहीं मिल पाती है जिससे गर्भ खुद ही गिर जाता है। कई बार संसेचित डिंब गर्भाशय की भीतरी सतह से चिपक नहीं पाता है। लेकिन कई महिलाओं में इन रसौलियों के बावजूद गर्भ ठीक से ठहर जाता है और भू्रण सामान्य रूप से बढ़ता रहता है। ऐसे मामलों में आपरेशन से प्रसव कराने की जरूरत पड़ सकती हैै। 40 साल की उम्र की तकरीबन 25 फीसदी महिलाओं की बच्चेदानी में ये रसौलियां होती हैं। हालांकि ये रसौलियां कैंसरजन्य नहीं होती हैं। समझा जाता है कि इस्ट्रोजन हार्मोन से ये रसौलियां अंकुरित होती हैं और उनका आकार बढ़ता है।
इन रसौलियों के इलाज के तौर पर पहले दवाईयां दी जाती हैं। लेकिन अगर दवाईयों से रक्तस्राव कम नहीं हो या रसौलियों के आकार का बढ़ना जारी रहे और रसौलियां बढ़ कर बहुत बड़ी हो जाये तो आपरेशन करके बच्चेदानी निकाल दी जाती है।
डिसफंक्शनल यूटैरन ब्लीडिंग (डी.यू.बी.) और एंडोमेट्रियोसिस जैसी बीमारियों की वजह से भी रक्तस्राव अधिक हो सकता है। डी.यू.बी. का पता डायल्टेशन एंड क्यूरोटार्ज (डी.एंड.सी.) नामक एक छोटे से आपरेशन के जरिये लगाया जाता है। लेकिन इन सब बीमारियों की पहचान स्त्री रोग विशेषज्ञ ही कर सकता है। कई बार महिलाएं सोचती हैं कि अल्ट्रासाउंड से ही बीमारी का पता लग जाएगा। लेकिन अल्ट्रासाउंड से हर तरह की बीमारियों की पहचान नहीं की जा सकती है। इसलिए ऐसी तकलीफ होने पर पहले किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए और अगर डाॅक्टर अल्ट्रासाउंड कराने की सलाह दें तभी अल्ट्रासाउंड कराना चाहिए। मरीज को इन समस्याओं से निजात पाने के लिए हार्मोन की गोली तभी लेनी चाहिए जब उनकी डी.एंड.सी. और अन्य सभी रिपोर्टें सामान्य हो। कुछ महिलाएं इन समस्याओं के इलाज के लिए डाॅक्टर के पास इस भय से जाने से कतराती हैं कि डाॅक्टर कहीं आपरेशन की सलाह न दे दे। लेकिन अगर रसौली बहुत बड़ी है या दवाईयों से ठीक नहीं हो रही हो और डाॅक्टर आपरेशन कराने की सलाह दे रहे हों तो आपरेशन में देर नहीं करनी चाहिए। मौजूदा समय में इन रसौलियों का इलाज लैपरोस्कोपी तकनीक से भी होने लगा है। इसके लिये चीर-फाड की जरूरत नहीं पड़ती है और न ही मरीज को कोई कष्ट होता है। अगर किसी महिला को रजोनिवृति के बाद रक्तस्राव हो या बीच-बीच में रक्तस्राव हो तो उसेे गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि इस तरह की तकलीफ में कैंसर होने की आशंका बहुत अधिक होती है। इसकी जांच के लिए डाॅक्टर आम तौर पर सबसे पहले डी. एंड. सी. करते हैं। डी. एंड. सी. की रिपोर्ट सही आने पर ही रोगी को दवा दी जाती है।
~ ~
हेल्थ टिप्स
1. एड़ियां फटी हों तो एड़ियों पर पैराफिन वैक्स और सरसों का तेल लगाकर रात भर छोड़ दें।
2. रोजाना नियमित रूप से योग करें। योग मांसपेशियों और लिगामेंट को मजबूत करता है, शरीर की टोनिंग करता है और दिमाग को साफ करता है।
3. कच्चे दूध का इस्तेमाल त्वचा की सफाई के लिए क्लींजर के तौर पर किया जा सकता है। इससे त्वचा मुलायम और साफ हो जाएगी।
4. प्रचुर मात्रा में साबुत अनाज, रेशायुक्त फल और सब्जियां खाएं। इससे आपको रेशे का लाभ तो मिलेगा ही, जरूरी फैटी अम्ल, विटामिन और खनिज भी मिल जाएंगे।
5. अपने आहार में ताजे फल और सब्जियों को भी शामिल करें। जहां तक संभव हो उसे छिलके सहित खाएं क्योंकि छिलके में कई लाभदायक पौष्टिक तत्व होते हैं।
6. बालों को सुखाने के लिए ब्लोअर का कम से कम इस्तेमाल करें। ब्लोअर आपके बालों के 20 प्रतिशत मास्चराइजर को सोख लेता है। इसलिए तौलिये से ही बालों को सुखाएं।
7. चेहरे पर दाग-धब्बे होने पर प्रभावित क्षेत्र में सप्ताह में दो बार 15 मिनट तक कच्चे टमाटर रगड़ें। चेहरे को धोकर मास्चराइजर लगा लें।
8. चंदन की लकड़ी और जायफल का मिश्रण बना लें। सोने से पहले इसे आंखों के चारों ओर लगा लें और सुबह धो लें। इससे आंखों के पास की महीन रेखाएं कम होंगी।
9. रूसी को कम करने के लिए एक बोतल शैम्पू में 30 एस्पिरीन मिला लें और बाल धोने के लिए उसका इस्तेमाल करें।
10. खीरे को छिलकर कद्दूकस कर लें। उसे दबाकर उसका रस निकाल लें। इस रस को आधा चम्मच ग्लिसरीन और आधा चम्मच गुलाब जल में मिला लें। इस मिश्रण को सनबर्न वाले हिस्से पर लगाकर कुछ समय के लिए छोड़ दें।
~ ~
नपुंसकता का कारण बन सकता है इरेक्टाइल डिस्फंक्शन
इरेक्टाइल डिस्फंक्शन ऐसी बीमारी है जिससे न सिर्फ यौन क्षमता में कमी आ जाती है बल्कि यह नपुंसकता का भी कारण बन सकता है। यह बीमारी रक्त वाहिनियों या तंत्रिकाओं अथवा दोनों की कार्यप्रणालियों में गड़बड़ी आ जाने से उत्पन्न होती है। पुरुष जननांग की रक्त वाहिनियों में वसा जम जाने पर जननांग में रक्त प्रवाह समुचित रूप से नहीं हो पाता है जिसके कारण यौन संबंध के दौरान पुरुष लिंग में पर्याप्त कड़ापन नहीं आ पाता है। मधुमेह और उच्च रक्त दाब तथा इन रोगों की दवाईयों के सेवन, मानसिक तनाव, पर्यावरण प्रदूषण, मेरू रज्जू (स्पाइनल कार्ड) में चोट अथवा उससे संबंधित बीमारियों, हार्मोन संबंधी एवं आनुवांशिक विकारों के अलावा अधिक शराब एवं वसा युक्त भोजन के सेवन तथा धूम्रपान से कई पुरुषों में 'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
मधुमेह तथा उच्च रक्त चाप के मरीजों को यह समस्या अधिक होती है। मधुमेह के अधिक बढ़ जाने से रक्त नलिकायें सिकुड़ जाती हैं। अधिक रक्त चाप के मरीजों के अलावा धूम्रपान करने वालों एवं शराब तथा अधिक वसा युक्त भोजन करने वालों की रक्त नलिकायें कोलेस्ट्राॅल जम जाने के कारण संकरी हो जाती हैं और इन दोनों बीमारियों में पुरुष यौनांग की रक्त वाहिनियां प्रभावित हो सकती हैं और यह समस्या उत्पन्न हो सकती है।
'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' का एक अन्य कारण स्नायु तंत्र में गड़बड़ी आ जाना है। इस कारण पुरुष जननांग की रक्त वाहिकाओं को समय पर फैलने का संकेत नहीं मिल पाता है जिससे उनमें रक्त का तेज बहाव नहीं हो पाता है। इस समस्या के अनेक मामलों में मनोवैज्ञानिक कारण भी होते हैं जिसका पता मरीजों से बातचीत करके लगाया जाता है जबकि इस समस्या के शारीरिक कारणों का पता लगाने के लिये डाॅप्लर विधि में हार्मोनों की संख्या का पता लगाने संबंधी रक्त परीक्षण एवं रिजिस्कैन विधि का इस्तेमाल किया जाता है। इसके इलाज के तौर पर वियाग्रा जैसी यौन उत्तेजना को बढ़ाने वाली दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन वियाग्रा केवल उन्हीं मरीजों के लिए कारगर है जिनमें यह बीमारी गंभीर नहीं होती है और इनके इलाज के लिये शल्य क्रिया करने की जरूरत नहीं पड़ती। वियाग्रा मुख्य तौर पर पुरुष जननांग में पाये जाने वाले पी.डी.ई.- 5 नामक एंजाइम को रोकती है जिससे यौन उत्तेजना के दौरान जननांग में साइक्लिक जी एम पी नामक रसायन अधिक मात्रा में बरकरार रहता है और जननांग में रक्त पूर्ति बढ़ जाती है।
जिन लोगों की समस्या का समाधान इस दवा से नहीं हो पाता है उनके लिये शल्य चिकित्सा ही एकमात्र विकल्प है। इस समस्या के कुछ मामलों में 'वैक्यूम' इरेक्शन डिवाइस के जरिये इलाज किया जा सकता है। यह समस्या के निदान का एक यांत्रिक तरीका है। यह तरीका पंप की कार्यप्रणाली पर आधारित है। इसके तहत पुरुष यौनांग के ऊपर सिलिंडरनुमा यंत्र रखा जाता है। सबसे पहले प्लास्टिक ट्यूब की मदद से हवा का दबाव बनाया जाता है और फिर हावा खींच ली जाती है। इससे निर्वात (शून्य) पैदा हो जाता है और खाली जगह को भरने के लिए रक्त वाहिनियों से रक्त आकर यौनांग में भर जाता है जिससे उसमें कड़ापन आ जाता है और पुरुष सक्षमता के साथ यौन क्रिया कर पाता है। सबसे कठिन मामलों में पुरुष जननांग में 'प्रोस्थेटिक' यंत्र का प्रत्यारोपण करके नपुंसकता का स्थायी हल किया जा सकता है। यह सिलिकन का बना लचीला कमानीनुमा अथवा हवा से फूलने वाला हो सकता है। ये शल्य चिकित्सा प्रणालियां विश्व भर में लोकप्रिय हैं और केवल अमरीका में हर साल करीब 25 हजार मरीज इसका लाभ उठाते हैं।
इसके अलावा सेल्फ इंजेक्शन थेरपी के जरिये भी मरीज इस समस्या से अस्थायी तौर पर निजात पा सकता है। इसके तहत मरीज को जननांग में स्वयं इंजेक्शन लगाना होता है। इससे जननांग में 30 से 45 मिनट तक कड़ापन बना रहता है।
लेकिन अक्सर 'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' के ज्यादातर मरीजों को ठीक करने के लिये शल्य चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस बीमारी के इलाज के लिये यौन समस्या पैदा करने वाले कारणों का पता लगाकर उन्हें दूर करना ही पर्याप्त होता है।
'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' के इलाज के लिये 'हारमोन रिप्लेसमेंट थेरेपी' का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन यह चिकित्सा तभी कारगर होती है जब मरीज के शरीर में टेस्टोस्टेराॅन नामक पुरुष हारमोन का स्तर कम होता है। ऐसे मरीजों को जरूरत के अनुसार बाहर से टेस्टोस्टेराॅन दिये जाते हैं।
जाहिर है कि पुरुष नपुंसकता के मुख्य कारण मानी जाने वाली बीमारी 'इरेक्टाइल डिस्फंक्शन' के मरीजों के लिये कई विकल्प मौजूद हैं, लेकिन किसी विकल्प को जल्दबाजी में अपनाने की बजाय मरीज को किसी सक्षम मनोवैज्ञानिक तथा योग्य यूरोलाॅजिस्ट से मिलकर तथा आवश्यक जांच कराकर अपनी बीमारी के सही कारणों का पता लगा लेना चाहिये ताकि सही विकल्प को ही अपनाया जा सके, अन्यथा लाभ के स्थान पर नुकसान हो सकता है।
~ ~
हार्मोन में गड़बड़ी की पैदाइश है नपुंसकता
आधुनिक समय में महामारी का रूप धारण कर चुकी नपुंसकता ऐसी बीमारी है जिससे अनेकानेक गलत धारणायें और अंधविश्वास जुड़े हैं। सबसे बड़ा अंधविश्वास तो यही है कि यह नामर्दगी का लक्षण है अथवा इससे ग्रस्त व्यक्ति संतान जनने में असमर्थ होता है। जबकि मर्दानगी अथवा संतान जनने की क्षमता के साथ इसका कोई संबंध नहीं है।
चिकित्सकीय भाषा में नपुंसकता (इंपोटेंसी) उस स्थिति को कहते हैं जिसमें व्यक्ति मानसिक अथवा शारीरिक तौर पर यौन क्रिया सफलता पूर्वक करने में असमर्थ होता है। यह बीमारी प्रजनन हीनता (इंफर्टिलिटी) से अलग है जिसमें व्यक्ति के वीर्य में या तो शुक्राणु नहीं होते या कम संख्या में होते हैं जिसके कारण हालांकि व्यक्ति यौन क्रिया तो सफलतापूर्वक कर पाता है लेकिन संतान जनने में असमर्थ होता है।
नपुंसकता दो तरह की होती है। पहले तरह की नपुंसकता में मरीज को सेक्स या काम इच्छा ही नहीं होती हालांकि वह यौन क्रिया करने में सक्षम होता है। इस तरह की नपुंसकता के ज्यादातर कारण मानसिक होते हैं। दूसरे तरह की नपुंसकता में रोगी को हालांकि काम इच्छा होती है लेकिन वह यौन क्रिया कर पाने में अक्षम होता है क्योंकि उसके लिंग में पर्याप्त कड़ापन नहीं आ पाता है। इसके लिए इरेक्टाइल डिसफंक्शन शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इसके मरीज हालांकि लिंग में पर्याप्त कड़ापन के अभाव में सफलतापूर्वक यौन क्रिया करने में असमर्थ होते हैं लेकिन संतान जनने में शारीरिक तौर पर सक्षम होते हैं। लेकिन बीमारी के कारण उत्पन्न हीन भावना तथा कुंठा उसकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करती है। इरेक्टाइल डिसफंक्शन में काम वासना या यौन उत्तेजना होने पर भी पुरुष लिंग कड़ा नहीं होता। दरअसल पुरुष लिंग तब कड़ा होता है जब उसकी नलिकाओं में रक्त भर जाता है। जब रक्त् नलिकायें संकरी होती है या उनमें रक्त के थक्के अथवा काॅलेस्ट्राॅल जमा होने के कारण उनमें रक्त का बहाव नहीं हो पाता तब पुरुष लिंग में कड़ापन नहीं आ पाता। इरेक्टाइल डिसफंक्शन का एक अन्य कारण स्नायु तंत्र में गड़बड़ी आ जाना है जिसके कारण रक्त नलिकाओं को समय पर फैलने का संकेत नहीं मिलता और उनमें रक्त का बहाव तेज नहीं हो पाता है। यह समस्या मधुमेह और उच्च रक्त चाप के रोगियों के साथ अधिक होती है। मधुमेह में रक्त नलिकाएं संकरी हो जाती हैं जबकि हृदय की बीमारियों एवं अधिक रक्त चाप में रक्त नलिकाएं काॅलेस्ट्राॅल या रक्त के थक्के जम जाने के कारण या तो संकरी या अवरुद्ध हो जाती हैं। इसके अलावा धूम्रपान करने वालों, शराब पीने वालों एवं अधिक वसायुक्त भोजन करने वालों को यह समस्या अधिक होती है।
आधुनिक अध्ययनों और अनुसंधानों से साबित हुआ है कि नपुंसकता के अधिकतर मामले मानसिक होते हैं और कुछ प्रतिशत मामले शारीरिक कारणों से उत्पन्न होते हैं जिनका इलाज करना संभव है। पुरुषों और महिलाओं में नपुंसकता के अलग-अलग कारण होते हैं। पुरुषों में अधिक व्यस्त रहने, धूम्रपान करने, शराब पीने तथा तनाव ग्रस्त रहने एवं तनाव पैदा करने वाले काम करने से नपुंसकता आ सकती है जबकि महिलाओं में प्रोलेक्टिन हार्मोन के अधिक बनने या रजोनिवृति के बाद एस्ट्रोजन हार्मोन के कम बनने के कारण सैक्स के प्रति अनिच्छा या अक्षमता आ सकती है।
मधुमेह जैसी कुछ बीमारियां भी नपुंसकता पैदा कर सकती हैं। चूंकि मधुमेह में तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है इसलिए अगर मधुमेह को नियंत्रित नहीं रखा गया तो व्यक्ति में पांच-दस साल के बाद नपुंसकता आ सकती है। उच्च रक्त चाप तथा एसिडिटी जैसी बीमारियों की कुछ दवाइयां भी नपुंसकता पैदा करती है। लिंग में रक्त जम जाने या लिंग में चोट लगने से फाइब्रोसिस हो जाने के कारण भी नपुंसकता आ जाती है।
शरीर में कुछ खास हार्मोनों की कमी अथवा अधिकता होने से भी नपुंसकता उत्पन्न होती है। इनमें प्रोलेक्टिन, थायराॅयड हार्मोन, इंसुलिन और टेस्टोस्टेराॅन प्रमुख हैं।
प्रोलेक्टिन हार्मोन व्यक्ति की यौन क्षमता को बरकरार रखने में मुख्य भूमिका निभाता है। यह मस्तिष्क में स्थित पिट्यूटरी ग्रंथि में बनता है। इस ग्रंथि में ट्यूमर होने, दिमागी चोट लगने, अनेक मनोरोगों एवं इन रोगों की दवाईयों के सेवन से यह हार्मोन अधिक बनने लगता है जिससे नपुंसकता की बीमारी उत्पन्न होती है। इसके अलावा थायराॅयड नामक ग्रंथि से निकलने वाले थाईरोक्सिन हार्मोन की कमी के कारण भी नपुंसकता होती है। पैंक्रियाज ग्रंथि से इंसुलिन नामक हार्मोन के कम अथवा नहीं बनने पर मधुमेह की बीमारी होती है जो नपुंसकता का सबसे सामान्य कारण है।
अंडकोष में बनने वाल टेस्टोस्टेराॅन हार्मोन की कमी भी नपुंसकता का एक मुख्य करण है। यह हार्मोन यौन क्षमता को बनाये रखता है। आनुवांशिक बीमारियों के कारण अंडकोष के ठीक से कारम नहीं करने पर अथवा उसके क्षतिग्रस्त होने पर यह हार्मोन ठीक से नहीं बन पाता।
यौन संचारित रोगों (एस.टी.डी.) का ठीक से इलाज नहीं कराने पर नपुंसकता हो सकती है। मोटापा का भी नपुंसकता से अप्रत्यक्ष संबंध है। मोटापे के कारण कई व्यक्तियों के हार्मोन में परिवर्तन हो जाते हैं जिसके कारण नपुंसकता हो जाती है।
एथलीटों में इस बीमारी का पाया जाना सामान्य बात है। कई एथलीट अपनी मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए एनाबोलिक स्टीराॅयड दवा का लंबे समय तक सेवन करते हैं जिसके कारण उनमें नपुंसकता आ सकती है। आम लोगों में धारणा है कि हस्त मैथुन करने से नपुंसकता हो जाती है, लेकिन ऐसा सोचना गलत है।
नपुंसकता के मानसिक कारणों का पता मरीज से बातचीत करने पर लगता है लेकिन हार्मोन संबंधी गड़बड़ियां जैसे शारीरिक कारणों का पता लगाने के लिए थायराॅयड परीक्षण से थायराॅयड हार्मोन के स्तर का तथा रक्त परीक्षणों से प्रोलेक्टिन हार्मोन, इंसुलिन तथा टेस्टोस्टेराॅन हार्मोन के स्तर का पता लगाया जाता है।
इंडोक्राइनोलाॅजिस्ट सबसे पहले यह पता लगाते हैं कि शरीर में किस हार्मोन की कमी है। इसके बाद उस कमी को दूर करने के लिए जरूरी हार्मोन दिये जाते हैं। अगर पिट्यूटरी ग्रंथि में ट्यूमर हो तो उसका आपरेशन करना पड़ता है।
मधुमेह के कुछ रोगियों या मानसिक रोगियों पर जब दवाईयां प्रभावी नहीं होती है तो ऐसे रोगियों में सर्जरी की मदद से उनके लिंग में एक राॅड डाला जाता है, जिसे इंप्लांट कहा जाता है। इसकी मदद से रोगी ठीक से संभोग कर पाता है। इसके लिए प्लास्टिक सर्जन की मदद ली जाती है। लेकिन इस आपरेशन को करने से पहले पूरी तरह से यह पता लगा लिया जाता है कि रोगी को इसकी जरूरत है या नहीं। रोगी पर दवा बेअसर होने की स्थिति में ही यह आपरेशन किया जाता है।
बाजार में यौन क्षमता बढ़ाने वाली कई दवाईयां उपलब्ध हैं जिनका इस्तेमाल करने की नीम-हकीम अक्सर सलाह देते हैं। लेकिन यौन क्षमता बढ़ाने में इन दवाईयों का कोई योगदान नहीं होता। ये सिर्फ प्लैसिबो की तरह काम करती हैं और रोगी को मानसिक संतुष्टि देती है। कई बार इनसे फायदे की बजाय नुकसान होता है, इसलिए नपुंसकता का आभास होते ही नीम-हकीम डाॅक्टरों की बजाय इंडोक्राइनोलाॅजिस्ट या एंड्रोलाॅजिस्ट से सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि नपुंसकता का इलाज संभव है।
~ ~
हेल्थ टिप्स
1. आपने लोगों को यह कहते सुना होगा कि रोजाना एक गिलास शराब पीने से हृदय रोग होने की संभावना कम हो जाती है, लेकिन साथ में यह भी याद रखें कि अधिक शराब पीने से लीवर और किडनी की बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।
2. आप खुद को और अपने बच्चों को पैक किये हुए आहारों से दूर रखें क्योंकि इनमें न सिर्फ हानिकारक प्रीजरवेटिव होते हैं, बल्कि इनमें अत्यधिक वसा, चीनी या नमक भी होते हैं।
3. अगर आप अपने बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों के सामने धूम्रपान करते हैं तो आप यह याद रखें कि पैसिव स्मोकिंग भी धूम्रपान के समान ही हानिकारक है। इसलिए आइंदा आप अपने परिवार के सदस्यों के सामने धूम्रपान करने से पहले अवष्य सोच लें।
4. अपने भोजन को अधिक देर तक या दोबारा न पकाएं, इससे न सिर्फ भोजन का स्वाद खराब हो जाएगा, बल्कि इसमें मौजूद विटामिन और पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाएंगे।
5. रोजाना कम से कम 10-12 गिलास पानी पीएं। इससे आप न सिर्फ डिहाइड्रेषन से बचें रहेंगे बल्कि आपके शरीर से विषैले पदार्थ भी निकल जाएंगे और आप स्वस्थ रहेंगे।
6. फलों के रस पीने के बजाय आप पूरा फल खाएं। साबुत फल में न सिर्फ फाइबर होते हैं बल्कि इनमें सभी विटामिन और खनिज तत्व भी मौजूद होते हैं।
7. सप्ताह में कम से कम चार बार 30-30 मिनट टहलें। इससे आप न सिर्फ फिट रहेंगे, बल्कि आपका हृदय मजबूत होगा और आपका तनाव भी कम होगा।
8. भोजन पकाते समय अन्य तेलों के बजाय सरसों के तेल या जैतून के तेल का इस्तेमाल करें।
9. जब सड़क के किनारे अखबारी कागज पर आपको भेल या अन्य खाद्य पदार्थ खाने को दिया जाता है तो आप उस खाद्य पदार्थ के साथ-साथ उस कागज में मौजूद हानिकारक पदार्थों का भी सेवन कर रहे होते हैं।
10. अध्ययनों से पता चला है कि डिब्बाबंद आहार का सेवन करने वाले लोग घर में पकाए हुए ताजा भोजन करने वाले लोगों की तुलना में कैंसर के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
~ ~
बढ़ता सेक्स प्रदर्शन, घटती यौन क्षमता
मौजूदा समय में आधुनिक जीवन शैली, मानसिक बीमारियों में बढ़ोत्तरी और अंधविश्वासों के कारण नपुंसकता के मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। आम तौर पर नपुंसकता को नामर्दगी का परिचायक माना जाता है जबकि दोनों अलग-अलग स्थितियां हैं। नपुंसकता के शिकार व्यक्ति यौन संबंध के समय अपने लिंग में कड़ापन नहीं ला पाते या लिंग में कड़ापन को पर्याप्त समय तक कायम नहीं रख पाते जिसके कारण हालांकि वे सफलतापूर्वक यौन क्रिया करने में असमर्थ होते हैं लेकिन संतान जनने में समर्थ होते हैं। दूसरी तरफ नामर्दगी के शिकार व्यक्ति यौन क्रिया के दौरान लिंग में पर्याप्त कड़ापन रखने और सफलतापूर्वक यौन क्रिया संपन्न करने में सक्षम रहते हैं लेकिन उनके वीर्य में शुक्राणु या तो नहीं होते हैं या कम होते हैं जिसके कारण वे संतान जनने में असमर्थ होते हैं। इसलिए नपुंसकता का नामर्दगी या संतान जनने की क्षमता के साथ कोई संबंध नहीं है।
नपुंसकता तीन तरह की होती है। प्राथमिक (प्राइमरी) नपुंसकता में व्यक्ति का लिंग शुरू से ही कड़ा नहीं हो पाता है और वह संभोग नहीं कर पाता है। द्वितीयक (सेकेंडरी) नपुंसकता में विवाह के बाद व्यक्ति का लिंग संभोग के पहले तो कड़ा होता है लेकिन कुछ साल के बाद कड़ा नहीं हो पाता है और वह संभोग के समय पत्नी को संतुष्ट नहीं कर पाता है। फैकल्टी नपुंसकता में व्यक्ति वेश्या के साथ तो ठीक से संभोग कर लेता है, लेकिन पत्नी के साथ नहीं कर पाता।
नपुंसकता मुख्यतः शारीरिक (जैविक) या मानसिक (मनोवैज्ञानिक) कारणों से होती है। लगभग 80 फीसदी मामलों में इसके मानसिक कारण जबकि 20 फीसदी मामलों में शारीरिक कारण होते हैं। मानसिक कारणों में तनाव, अवसाद, दुश्चिंता तथा स्ट्रेस के कारण नपुंसकता आ सकती है। इन बीमारियों के कारण स्नायु तंत्र में गड़बड़ी आ जाने के कारण लिंग की रक्त नलिकाओं को समय पर फैलने का संकेत नहीं मिल पाता और इन नलिकाओं में रक्त का बहाव पर्याप्त नहीं हो पाता जिसके कारण लिंग में कड़ापन नहीं आ पाता। धीरे-धीरे व्यक्ति की सेक्स के प्रति अनिच्छा होने लगती है और नपुंसकता हो जाती है।
नपुंसकता के शारीरिक कारणों में मधुमेह या शुगर की बीमारी, हार्मोन संबंधित बीमारियां या गड़बड़ियां और रक्त संचालन संबंधी (वैस्कुलर) बीमारियां मुख्य हैं। शरीर में कुछ हार्मोनों की कमी अथवा अधिकता से नपुंसकता सामान्य बात है। प्रोलेक्टिन, थाइरायड हार्मोन, इंसुलिन और टेस्टोस्टेराॅन हार्मोनों में गड़बड़ी से भी नपुंसकता उत्पन्न हो सकती है। मस्तिष्क की पिट्यूटरी ग्रंथि में बनने वाला प्रोलेक्टिन होर्मोन यौन क्षमता को बरकरार रखने में मुख्य भूमिका निभाता है। पिट्यूटरी ग्रंथि में ट्यूमर होने, दिमागी चोट लगने, कुछ मानसिक रोगों या इन इन रोगों की दवाईयों के सेवन से यह हार्मोन अधिक बनने लगता है जिससे नपुंसकता उत्पन्न होती है। थाइरायड ग्रंथि से निकलने वाले थाइरोक्सिन हार्मोन की कमी भी नपुंसकता पैदा करती है। पैंक्रियाज ग्रंथि में इंसुलिन हार्मोन के कम अथवा नहीं बनने पर मधुमेह बीमारी हो जाती है। यह नपुंसकता का सबसे सामान्य कारण है। मधुमेह में तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है और रक्त नलिकाएं संकरी हो जाती हैं जिसके कारण लिंग में पर्याप्त रक्त प्रवाह नहीं हो पाता है। इनके अलावा अंडकोष में बनने वाला और यौन क्षमता को बरकरार रखने वाला टेस्टोस्टेराॅन हार्मोन की कमी नपुंसकता पैदा करती है। लिंग में रक्त् जम जाने या लिंग में चोट लगने से फाइब्रोसिस हो जाने के कारण भी नपुंसकता आती है।
यौन संचालित रोगों (एस.टी.डी.) और मोटापे का भी नपुंसकता से अप्रत्यक्ष संबंध है। कुछ दवाईयों के दुष्प्रभाव या शराब और नशे की दवाईयों के सेवन से भी नपुंसकता आ सकती है। एथलीटों में स्टेराॅयड दवा के प्रचलन के कारण उनमें नपुंसकता आम बात है। उच्च रक्तचाप और एस.टी.डी. जैसी बीमारियों की कुछ दवाईयां भी नपुंसकता पैदा करती हैं। धूम्रपान और मदिरापान का भी नपुंसकता से गहरा संबंध है।
पुरुषों की भांति महिलाओं में भी धूम्रपान और मदिरापान के बढ़ते प्रचलन के कारण नपुंसकता की घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं। महिलाओं में नपुंसकता के शारीरिक कारणों में दुर्बलता, कुपोषण, एनीमिया, मोटापा, मधुमेह और दिल की बीमारियां जबकि मानसिक कारणों में तनाव, दुश्चिंता, अवसाद आदि नपुंसकता को जन्म देते हैं। इनके अलावा महिलाओं में नपुंसकता के पारिवारिक और सामाजिक कारण भी हो सकते हैं। पारिवारिक कलह, पति का उपेक्षित व्यवहार, आर्थिक तंगी, काम का अत्यधिक बोझ, शांत माहौल का अभाव और बेमेल विवाह से भी महिलाओं में सेक्स के प्रति अनिच्छा होने लगती है और वे नपुंसकता से ग्रस्त हो सकती हैं।
जिन परिवारों में सेक्स को गलत नजरिये से देखा जाता है या सेक्स को पाप समझा जाता है, वहां बचपन से ही लड़कियों के मन में इसके प्रति भय हो जाता है और शादी के बाद वे सेक्स में रूचि नहीं ले पाती हैं। महिलाओं के लज्जालु और संकोची स्वभाव होने के कारण यौनेच्छा होने पर वे इसके लिए पहल नही करती हैं और बार-बार यौनेच्छा को दबाने पर उनमें सेक्स के प्रति अनिच्छा होने लगती है और वे नपुंसकता का शिकार हो जाती हैं।
नपुंसकता के शिकार कुछ पुरुषों की शिकायत होती है कि उनका लिंग बायीं तरफ मुड़ा है और इसके कारण वे चिंतित रहते हैं। कुद रोगियों का कहना है कि उनके पेशाब के साथ घात (सफेद द्रव्य) आता है जिसके कारण वे कमजोरी हो गये हैं जबकि कुछ लोगों का कहना है कि संभोग से पहले ही उनका शीघ्रपतन हो जाता है। स्वप्नदोष को लेकर भी लोग चिंतित रहते हैं। हालांकि यह सब सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन जो लोग इसके कारण अधिक सोचते हैं या अधिक परेशान रहते हैं उनमें नपुंसकता अधिक सोचने और तनाव में रहने के कारण होती है न कि शीघ्रपतन, हस्तमैथुन या स्वप्नदोष के कारण।
नपुंसकता के रोगी के इलाज में पहले नपुंसकता के कारण का इलाज किया जाता है। जैसे- शुगर की बीमारी से पीड़ित नपुंसकता के रोगी का शुगर का इलाज करने पर, डिप्रेशन के रोगी में डिप्रेशन का इलाज करने पर या इसी तरह किसी बीमारी से पीड़ित नपुंसकता के रोगी में उस बीमारी का इलाज करने पर या इसी तरह किसी बीमारी से पीड़ित नपुंसकता के रोगी में उस बीमारी के साथ-साथ नपुंसकता भी खत्म हो जाती है। मनोचिकित्सक ऐसे रोगियों का इलाज साइकोथेरेपी और बिहेवियर थेरेपी से करते हैं।
~ ~
ताकि संतान सुख से वंचित न रहे कोई
संतान प्राप्ति की इच्छा हर दम्पति की होती है। लेकिन कई दम्पतियों की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाती। आम तौर पर अधिकतर महिलाएं शादी के बाद डेढ़ साल में गर्भ धारण कर लेती हैं। लेकिन इस अवधि के भीतर गर्भधारण संभव नहीं होने की स्थिति इनफर्टिलिटी (संतान हीनता) कहलाती है। इसके लिए पति और पत्नी में से कोई एक या दोनों जिम्मेदार हो सकते हैं। संतानहीनता के 40 फीसदी मामलों में पुरुष, 40 फीसदी मामलों में महिला और 20 फीसदी मामलों में दोनों जिम्मेदार होते हैं। संतानहीनता, इंफर्टिलिटी और बांझपन से जुड़ी समस्याओं के बारे में सुप्रसिद्ध प्रजनन विषेशज्ञ डा. सोनिया मलिक के साथ बात की। डा. सोनिया मलिक नयी दिल्ली के होली एंजिल्स हास्पीटल स्थित प्रजनन केन्द्र साउथेंड रोटंडा की निदेशक हैं। डा. मलिक अमेरिकन सोसायटी फाॅर रिप्रोडक्शन मेडिसीन से संबद्ध हैं। यहां पेश है बातचीत के मुख्य अंश।
पुरुषों में संतानहीनता के आम तौर पर क्या-क्या कारण होते हैं?
पुरुषों तथा महिलाओं में इनफर्टिलिटी के कई कारण हो सकते हैं। पुरुषों में चेचक, मम्प्स, सिफलिस, गनोरिया या अन्य संक्रमण, मधुमेह, धूम्रपान, मद्यपान, शीघ्रपतन और अतिसहवास बांझपन का कारण हो सकता है। इनके अलावा वीर्य में शुक्राणुओं का कम होना, नहीं होना या कमजोर शुक्राणुओं का होना, अंडग्रंथि (टेस्टिस) तथा शिश्न का अविकसित होना, शुक्रवाहिनी (वास डिफेरेन्स) में अवरोध या इसका अनुपस्थित होना भी इनफर्टिलिटी का कारण बन सकता है।
महिलाओं में इनफर्टिलिटी क्यों होती है?
महिलाओं में इनफर्टिलिटी का कारण अंडोत्सर्ग (ओवुलेशन) का नहीं होना या ठीक से नहीं होना, फैलोपियन ट्यूब का बंद होना, जननांगों में किसी तरह का जीवाणु संक्रमण या फायब्राॅयड का होना, जननांगों का अविकसित होना, स्थूलता, पिट्युटरी ग्रंथि, थाईराॅयड ग्रंथि तथा ओवरी का कम क्रियाशील होना, गर्भाशय का छोटा होना अथवा गर्भाशय में ट्यूबरकुलर इंडोमेट्रिटिस होना हो सकता है। इनके अलावा मधुमेह, एनीमिया, अधिक सहवास और धूम्रपान जैसे कारण भी गर्भधारण में मुश्किल पैदा कर सकते हैं। महिला की उम्र 40 वर्ष से अधिक होने पर भी गर्भधारण में दिक्कत होती है। महिलाओं में कई तरह के जेनेटिक डिसआर्डर के कारण भी बच्चे पैदा नहीं होते हैं। कुछ लड़कियों में जन्म से ही ओवरी नहीं होती है तो कुछ में यूटेरस ही नहीं होता। कुछ लड़कियों में गर्भाशय या अंडाशय की समस्या होती है जिसके कारण उनमें अंडा ही नहीं बनता है। आजकल इनफर्टिलिटी का शिकार 75 फीसदी महिलाओं में हार्मोन की समस्या होती है। इसका मुख्य कारण मोटापा और व्यायाम नहीं करना है।
क्या बार-बार गर्भपात कराना भी इनफर्टिलिटी का कारण बन सकता है?
आजकल कई महिलाओं को एक बच्चा तो हो जाता है लेकिन दूसरे बच्चे में समस्या आती है। इसका मुख्य कारण बार-बार गर्भपात कराना है। इससे उनका प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर हो जाता है या यूटेरस में खराबी आ जाती है जिससे इनफर्टिलिटी हो जाती है। इसके अलावा 5-6 साल तक लगातार अधिक पोटेंसी की गर्भनिरोधक गोलियां लेने से भी प्रजनन तंत्र में खराबी आ जाती है और ओवुलेशन नहीं होता।
पुरुषों में इनफर्टिलिटी का पता कैसे लगाया जाता है?
इनफर्टिलिटी के उपचार के लिए इसके कारण का पता लगाना जरूरी है। इसके लिए पति-पत्नी दोनों की पूरी जांच की जाती है। पुरुषों में इनफर्टिलिटी की जांच के लिए शुक्राणु और हार्मोन की जांच के अलावा रक्त शर्करा, वी.डी.आर.एल., ब्लड ग्रूप, मूत्र जांच आदि किये जाते हैं। कुछ रोगियों में टेस्टीकुलर बायोप्सी भी की जाती है। इसके तहत वृषण (टेस्टिस) के ऊतक की बायोप्सी लेकर शुक्राणु में खराबी और शुक्राणु संवहन का पता लगाया जाता है। कुछ रोगियों में एंटीबाॅडी स्वयं शुक्राणुओं को मारने लगती है। इसका पता लगाने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यून सिस्टम) की जांच भी की जाती है।
महिलाओं में इनफर्टिलिटी का पता कैसे लगाया जाता है?
लगभग 90 फीसदी महिलाएं बिना किसी गर्भनिरोधक के प्रयोग के 18 महीने तक शारीरिक संबंध बनाने पर गर्भधारण कर लेती हैं। अगर 18 से 25 साल की महिलाएं दो वर्ष के अंदर, 25 से 35 वर्ष की महिलाएं एक वर्ष के अंदर तथा 35 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाएं 6 माह के अंदर गर्भ धारण नहीं करे तो उसे इनफर्टिलिटी के परीक्षण कराने चाहिए। महिलाओं में इनफर्टिलिटी का पता लगाने के लिए आम तौर पर वी.डी.आर.एल., ब्लड ग्रूप, रक्त शर्करा जैसे रक्त की जांच, मूत्र की जांच, छाती का एक्स-रे तथा अल्ट्रासाउंड किया जाता है। इसके अलावा योनि में संक्रमण का पता लगाने के लिए योनि स्राव के परीक्षण भी किये जाते हैं। गर्भाशय की अंतः कला की स्थिति का पता लगाने के लिए एंडोमिटीयल बायोप्सी भी की जाती है। आधारी तापक्रम से डिम्बोत्सर्ग का पता लगाते हैं। इसके अलावा प्रतिरक्षा तंत्र की जांच तथा हार्मोन की जांच भी की जा सकती है। हार्मोन की जांच से डिम्बोत्सर्ग (ओवुलेशन) तथा जननांगों की विकृति आदि का पता लगाया जाता है। कुछ रोगियों में ट्यूब पेटेन्सी टेस्ट तथा हिस्टोसेलफिनजोग्राफी के द्वारा ट्यूब में अवरोध तथा गर्भाशय गुहा की जांच करते हैं। इसके अलावा लैप्रोस्कोपी और हिस्टोस्कोपी जांच भी की जा सकती है। इसके तहत दूरबीन द्वारा गर्भाशय, फैलोपियन ट्यूब तथा ओवरी की जांच की जाती है और इससे डिम्बवाहिनी (फैलोपियन ट्यब) के अवरोध को भी दूर किया जा सकता है।
इंफर्टिलिटी को दूर करने के क्या-क्या आधुनिक उपाय हैं?
मौजूदा समय में कृत्रिम वीर्य संचलन (आर्टिफिशियल इनसेमीनेशन), इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आई वी एफ) तथा भ्रूण प्रत्यारोपण, अंतः कोशिका द्रव्य शुक्राणु इंजेक्शन (आई सी एस आई) जैसी तकनीकों की बदौलत निःसंतान दम्पति संतान का सुख प्राप्त कर सकते हैं। इन तकनीकों की सहायता से न सिर्फ प्रजनन दोष वाली महिलाएं बल्कि अधिक उम्र की महिलाएं भी मां बनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं।
कृत्रिम वीर्य संचलन (आर्टिफिशियल इनसेमीनेशन) के तहत पति के वीर्य को साफ करके सिरिंज केनुला द्वारा पत्नी के जननमार्ग तक पहुंचा दिया जाता है। जब किसी पुरुष के वीर्य में शुक्राणु की अत्यधिक कमी हो, कोई आनुवांशिक रोग हो, शीघ्रपतन हो, कोई जननांग विकार हो या महिला में गर्भाशय ग्रीवा म्यूकस में कोई खराबी हो तो इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें किसी अन्य पुरुष के वीर्य का भी उपयोग किया जा सकता है।
इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आई वी एफ) तथा भ्रूण प्रत्यारोपण की तकनीक का इस्तेमाल महिला की डिम्बवाहिनी (फैलोपियन ट्यूब) के क्षतिग्रस्त होने, बंद होने या न होने पर किया जाता है। इसे परखनली शिशु विधि (टेस्ट ट्यूब बेबी) भी कहते हैं। इसके तहत महिला के अंडाणु को शरीर से बाहर निकालकर एक परखनली में उसके पति के शुक्राणु से निषेचित कराकर निषेचित अंड को पुनः गर्भाशय में पहुंचा दिया जाता है। जब किसी महिला के अंडाणु में कोई दोष होता है तब किसी अन्य महिला के स्वस्थ अंडों को पति के शुक्राणु से निषेचित कराकर उसे बंध्या महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। यह गर्भ गर्भाशय में सामान्य रूप से विकसित होता है।
अंतः कोशिका द्रव्य शुक्राणु इंजेक्शन (आई सी एस आई) नामक तकनीक के तहत शुक्राणु को सीधा अंतः कोशिका द्रव्य में प्रवेश करा दिया जाता है। जब किसी पुरुष में शुक्राणु की मात्रा बहुत कम होती है तब इस विधि का इस्तेमाल किया जाता है।
क्या इन तकनीकों के इस्तेमाल में किसी प्रकार की गलती होने की भी संभावना होती है?
किसी बड़े फ़र्टिलिटी क्लिनिक में कर्मचारियों को प्रतिदिन अनेक दंपतियों के लिए सही शुक्राणु और अंडाणु का मिलान कराना पड़ता है। ऐसा करने के बाद उन्हें यह भी सुनिश्चित करना पड़ता है कि इस तरह विकसित भ्रूण सही महिला में प्रतिरोपित हो। कई बार भ्रूण को भविष्य में प्रयोग के लिए जमा कर रख लिया जाता है। वक्त आने पर क्लिनिक के कर्मचारी की जिम्मेदारी महिला के गर्भाशय में उचित भ्रूण डालने की होती है। लेकिन ऐसा करते हुए कोई जेनेटिक परीक्षण नहीं किया जाता, इसलिए इसमें गलती होने की भी थोड़ी संभावना हो सकती है, लेकिन यह संभावना नगण्य होती है।
~ ~
हेल्थ टिप्स
1. एक गिलास पानी में एक नींबू का रस और आधा चम्मच शहद मिलाकर सुबह खाली पेट पीने से न सिर्फ त्वचा में चमक आती है बल्कि खांसी-जुकाम से भी बचाव होता है।
2. बच्चों को सूर्य की तेज धूप के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए घर से बाहर निकलने के 30 मिनट पहले बच्चे के खुले अंगों पर अच्छी गुणवत्ता का सनस्क्रीम लोशन या क्रीम लगा दें जिसका एसपीएफ कम से कम 30 हो।
3. यदि आपका बच्चा प्रीकली हीट से पीड़ित है तो उसे थोड़ा ठंडा पानी से स्नान कराएं या कुछ देर तक शावर के पानी के नीचे रखें। उसके बाद प्रभावित हिस्से पर प्रीकली हीट पाउडर लगा दें।
4. व्यायाम करने से आधे घंटे पहले कम से कम दो गिलास पानी पीएं, व्यायाम के दौरान हर 15 मिनट पर 100 मिली पानी पीएं और व्यायाम के बाद कम से कम दो गिलास पानी पीएं। इससे आप डिहाइड्रेशन से बचे रहेंगे और आपकी व्यायाम करने की क्षमता बढ़ जाएगी।
5. यदि आप और आपके बच्चे अपने आहार में सोया काॅफी, सोया दूध, सोयायुक्त कुकीज और सोया का आटा जैसे सोया उत्पादों का सेवन करेंगे तो इससे न सिर्फ आपको कुछ प्रकार के कैंसर से सुरक्षा प्राप्त होगी बल्कि आप स्वस्थ भी रहेंगे।
6. जितना संभव हो आप सक्रिय रहने की कोशिश करें। अगर आपके पास अलग से व्यायाम करने के लिए समय नहीं है तो आप लिफ्ट की बजाय सीढ़ियों का इस्तेमाल करें, आसपास के दूकानों से सामान लाने के लिए गाड़ी की बजाय आप पैदल चलकर जाएं। ऐसा करने से आप न सिर्फ फिट रहेंगे बल्कि आपका तनाव भी कम होगा।
7. ट्रैफिक जाम में फंसने पर यदि आप तनाव में आ जाते हैं तो आप रिलैक्स होने की कोषिष करें। इस समय का आप सदुपयोग कर सकते हैं। जाम में फंसने पर आप अपनी आंखों को बंद कर मेडिटेशन करें। इससे आपका तनाव कम होगा और आपका मेडिटेशन भी हो जाएगा जिसके लिए आप अलग से समय नहीं निकाल पाते हैं।
8. घर से बाहर खाना खाते समय यदि आप अधिक वसा के सेवन से बचना चाहते हैं तो आप तले हुए व्यंजनों की बजाय रोस्ट किया हुआ, ग्रिल किया हुआ और बेक किया हुआ व्यंजन खाएं।
9. यदि आप धूम्रपान को छोड़ना चाहते हैं तो इसे धीरे-धीरे कम करें। धूम्रपान को अचानक रोकने से आपको इसकी और ज्यादा तलब महसूस होगी और आपके शरीर को इससे हानि भी पहुंचेगी।
10. कार में बैठने पर आप सीट बेल्ट को अवश्य पहनें। यह कोई सजावट की वस्तु नहीं है। इससे पहनने से कार दुर्घटना होने पर आपको चोट पहुंचने की आशंका कम हो जाती है।
~ ~
आर्थराइटिस से बढ़ता है हृदय रोगों का खतरा
गठिया के मरीज हृदय रोग होने की आशंका से बेखबर रहते हैं लेकिन नवीनतम अध्ययनों में गठिया का हृदय रोगों से संबंध पाया गया है। इन नये अध्ययनों से पता चला है कि गठिया (रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस) के मरीजों को सामान्य लोगों की तुलना में हृदय रोग होने की आशंका बहुत अधिक होती है।
आम तौर पर गठिया के मरीजों में हृदय रोग के कोई प्रकट लक्षण नहीं होते हैं जिसके कारण चिकित्सक एवं गठिया के मरीज हृदय रोगों की संभावना की अनदेखी करते हैं। हालांकि यह पता लगाना मुश्किल है कि गठिया के किस रोगी को हृदय रोग का अधिक खतरा अधिक हो है, लेकिन वैज्ञानिकों ने ने इन रोगियों में गठिया (रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस) की पहचान के 10 साल के अंदर हृदय रोग विकसित होने का पता लगाने का सामान्य तरीका ढूंढ निकाला है ताकि इसकी पहचान कर इसके खतरे को कम किया जा सकता है।
सुप्रसिद्ध हृदय रोग चिकित्सक पद्मभूषण डा. पुरूषोत्तम लाल बताते हैं कि हालांकि चिकित्सकों को यह पहले से पता था कि मधुमेह और ब्लड प्रेशर की तरह गठिया उन बीमारियों में शामिल है जिनका अनेक अंगों के साथ-साथ हृदय पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है, लेकिन नये अनुसंधानों से जो निष्कर्ष सामने आये हैं उनके मद्देनजर गठिया के मरीजों को चाहिये कि वे समय-समय पर हृदय रोग संबंधी जांच भी कराते रहे ताकि अगर उनमें हृदय रोग होने के अगर कोई संकेत मिले तो समय पर उपचार शुरू हो जाये।
मेट्रो ग्रूप आफ हास्पिट्ल्स तथा मेट्रो हास्पिट्ल्स एंड हार्ट इन्स्टीच्यूट के निदेशक डा. पुरूषोत्तम लाल के अनुसार हृदय रोग की जांच के लिए उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्राॅल, अधिक उम्र और हृदय संबंधी बीमारियों का पारिवारिक इतिहास का पता लगाया जाता है। गठिया (रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस) के मरीजों में हृदय रोग विकसित होने की आशंका अधिक होने के कारण गठिया के मरीजों को जितनी जल्दी संभव हो हृदय रोग संबंधी ये सारी जांच करवा लेनी चाहिए।
डा. लाल कहते हैं, ''हमें यह पता लगाने की आवश्यकता है कि रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के किन रोगियों को अन्य रोगियों की तुलना में हृदय रोग होने की आशंका अधिक है ताकि इन रोगियों में हृदय रोग की रोकथाम के पर्याप्त प्रयास किया जा सके। इसलिए रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के रोगियों में हृदय रोग की पहचान करने के लिए हम हृदय रोग के सामान्य रोगियों की तरह ही परम्परागत जांच पद्धतियों का इस्तेमाल करते हैं।''
नयी दिल्ली स्थित आर्थराइटिस केयर फाउंडेशन के अनुसार रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस एक गंभीर, आटोइम्यून बीमारी है जो शरीर के विभिन्न जोड़ों में दर्द, सूजन और जकड़न जैसी समस्यायें पैदा कर देती है। इस बीमारी में जोड़ ठीक से कार्य नहीं करते। कई बार यह बीमारी विकलांगता पैदा कर देती है। यह बीमारी फेफड़े, हृदय और किडनी सहित शरीर के अन्य अंगों को भी प्रभावित करती है। इसके इलाज के तौर पर स्टेराॅयड रहित एंटी-इंफ्लामेटरी, एनालजेसिक और फिजियोथेरेपी के जरिये पहले दर्द और सूजन को कम करने और फिर जोड़ों की विकलांगता को रोकने की कोशिश की जाती है।
डा. पुरूषोत्तम लाल कहते हैं कि गठिया (रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस) के मरीजों में हृदय रोग होने का एक कारण गठिया की वजह से उत्पन्न होने वाली सूजन हो सकती है जिससे धमनियों के प्लाॅक रक्त के थक्के में तब्दील हो जाते हैं। नये अनुसंधानों से पता चला है कि रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के मरीजों में इस बीमारी से मुक्त लोगों की तुलना में 15 साल के समय के बाद हृदय रोग होने की आशंका दोगुनी से भी अधिक होती है।
एक नये अनुसंधान में अनुसंधानकर्मियों ने दस साल तक 11 सौ लोगों पर अध्ययन करके पाया कि 60 से 69 साल उम्र समूह वाले लोगों में रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस से मुक्त लोगों के 40 प्रतिशत की तुलना में रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के 85 प्रतिशत रोगियों में हृदय रोग का बहुत अधिक खतरा पाया गया। अनुसंधानकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि 50 से 59 साल के रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के आधे से अधिक मरीजों तथा 60 साल अधिक उम्र के रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के सभी मरीजों में रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस की पहचान के 10 साल के अंदर हृदय रोग विकसित होने की आशंका बहुत अधिक होती है।
हमारे देश में हर साल तकरीबन 25 लाख लोग से अधिक लोग दिल की बीमारियों के कारण असामयिक मौत के ग्रास बन रहे हैं। इनमें से तकरीबन पांच लाख लोगों की मौत अस्पताल पहुंचने से पहले ही हो जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अपने देश में युवा लोग भी बड़े पैमाने पर इससे प्रभावित हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डव्ल्यू एच ओ) का अनुमान है कि सन् 2010 तक दुनिया भर में जितने हृदय रोगी होंगे उनमें से 60 प्रतिशत रोगी भारत में होंगे तथा सन 2012 तक हर दसवें भारतीय की मौत दिल के दौरे से होगी।
नये अनुसंधानों के निष्कर्षों के आधार पर अनुसंधानकर्मियों ने रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस के सभी रोगियों में हृदय रोग की जांच कराने की सलाह दी है। यह जांच रह्यूमेटाॅयड आर्थराइटिस की पहचान के बाद जितनी जल्दी संभव हो करा लेनी चाहिए और हृदय रोग के रोकथाम के लिए पहल शुरू कर देनी चाहिए।
~ ~
आंखों की देखभाल के लिए कुछ हेल्थ टिप्स
1. अपनी आंखों को बरौनियों को मजबूत और लंबा करने के लिए रोज रात में इन पर अरंडी का तेल लगाएं।
2. आलू और खीरा के रस को मिलाकर उसमें रूई भिगोकर अपनी आंखों के उपर और नीचे रखें। रोजाना ऐसा करने से आपकी आंखों के चारों ओर मौजूद काले घेरे कम हो जाएंगे, आपकी आंखों को ठंडक पहुंचेगी और आपकी आंखों का तनाव कम होगा।
3. अपनी नाखूनों पर नियमित रूप से क्रीम या तेल से मालिश करें। इससे आपके नाखून मजबूत होंगे और टूटेंगे नहीं।
4. ओठ को गुलाबी और मुलायम रखने के लिए सप्ताह में दो बार 10 मिनट तक धनिया की पत्ती का रस लगाएं।
5. ओठ का कालापन दूर करने के लिए सप्ताह में एक बार ओठ को नींबू के रस से मसाज करें।
6. अच्छी त्वचा के लिए सफाई, टोनिंग और मास्चराइजिंग जरूरी है। इसलिए रोजाना रात में और सुबह अच्छी कंपनी के उत्पाद से त्वचा की सफाई और टोनिंग कर मास्चराइजर लगाएं।
7. सिर की त्वचा से रूसी को हटाने के लिए सप्ताह में एक बार नींबू के रस और दही के मिश्रण को सिर में लगाकर 30 मिनट के लिए छोड़ दें और फिर सिर को धो लें। रूसी खत्म हो जाएगी।
8. झुर्रियों को कम करने के लिए अंडे के सफेद भाग और मकई के आटे का पेस्ट बनाकर चेहरे और गले पर लगाएं और सूखने के बाद इसे धो लें।
9. यदि आप सर्दी-खांसी से पीड़ित हैं तो चाय बनाते समय उसमें तुलसी की पत्ती, काली मिर्च और अदरक डाल दें और उस चाय को पीएं।
10. अपने बालों में पार्लर में ट्रीटमेंट देने जैसी चमक पैदा करने के लिए बालों में शैम्पू करने के बाद उसमें कंडीशनर की बजाय बीयर लगाएं और तौलिये से बाल को सूखा लें।
~ ~
फोलिक एसिड के सेवन से हृदय रोगों से सुरक्षा
रोजाना फोलिक एसिड की गोली और प्रचूर मात्रा में विटामिनयुक्त आहार के सेवन से हृदय रोग, स्ट्रोक और रक्त के थक्के के खतरे से बचा जा सकता है। विशेषकर इन रोगों के प्रति संवेदनशील रोगियों को फोलिक एसिड के सेवन से काफी सुरक्षा हो सकती हैै। फोलिक एसिड फोलेट का एक कृत्रिम यौगिक है। यह विटामिन हरी पत्तीदार सब्जियों में पाया जाता है। गर्भावस्था में इसके सेवन से बच्चे में जन्मजात विकृति से ग्रस्त बच्चे के पैदा होने का खतरा कम हो जाता है।
ब्रिटिश शोधकर्ताओं का कहना है कि फोलिक एसिड दौरा और हृदय रोग के खतरे को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विकसित देशों में हृदय रोग सबसे बड़ा हत्यारा माना जाता है और इसका कारण रक्त में होमोसिस्टिन नामक पदार्थ के खतरनाक स्तर तक बढ़ जाना है। होमोसिस्टिन हृदय की मांसपेशियों को क्षतिग्रस्त कर हृदय की धमनियों, मस्तिष्क, पैरों और फेफड़ों में रक्त के थक्का बनने की प्रक्रिया को बढ़ाता है।
दक्षिणी इंग्लैंड में साउथ ऐंप्टन जेनरल हाॅस्पीटल के हृदय रोग विशेषज्ञ डा. डेविड वार्ड का कहना है कि होमोसिस्टिन दिल का दौरा औैर स्ट्रोक का एक कारण है लेकिन फोलिक एसिड के अधिक मात्रा में सेवन से इन बीमारियों के खतरों को कम किया जा सकता है। फोलिक एसिड शरीर में होमोसिस्टिन को तोड़कर हृदय रोग, स्ट्रोक और रक्त के थक्का बनने से सुरक्षा प्रदान करता है। वार्ड और उनके सहयोगियों का कहना है कि रोजाना 0.8 मिलीग्राम अतिरिक्त फोलिक एसिड के सेवन से हृदय रोग का खतरा 16 फीसदी, रक्त के थक्का बनने का खतरा 25 फीसदी और स्ट्रोक का खतरा 24 फीसदी कम हो जाता है। हृदय रोग या स्ट्रोक की आशंका 55 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को अधिक होती है और इसलिए उनके लिए भी फोलिक एसिड का सेवन फायदेमंद साबित हो सकता है।
अमरीका में जन्मजात विकृति को कम करने के उद्देश्य से कुछ साल पहले फोलिक एसिड युक्त आटा बनाने की शुरुआत की गयी जबकि ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया जैसे देश फोलिक एसिड युक्त आहार बनाने पर विचार कर रहे हैं।
~ ~
वायु प्रदूषण बन सकता है हृदय रोग का कारण
वायु प्रदूषण से न सिर्फ हमारे फेफड़े प्रभावित होते हैं, बल्कि यह हृदय के रक्त प्रवाह को बाधित कर हृदय रोगों को भी बढ़ावा देता है।
फिनलैंड के शोधकर्ताओं के एक नवीनतम अध्ययन से पता चला कि प्रदूषण से न सिर्फ दमा, बल्कि हृदय रोगों की भी आशंका बढ़ जाती है। अमरीकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी का अनुमान है कि अमरीका में वायु प्रदूषण के कारण हर साल 60 हजार लोगों की मृत्यु होती है।
फिनलैंड में कुओपिया स्थित नेशनल पब्लिक हेल्थ इंस्टीट्यूट के डा. जुहा पेकानीन और उनके सहयोगियों ने कारखानों और डीजल बसों तथा ट्रकों से निकलने वाले प्रदूषण का अध्ययन करने पर पाया कि प्रदूषित वातावरण में मौजूद अत्यंत छोटे कण सांस के जरिये हमारे शरीर में पहुंचकर फेफड़े और हृदय रोगों को बुलावा देते हैं। हृदय रोगी प्रदूषकों से अधिक प्रभावित होते हैं। प्रदूषण रहित वातावरण की तुलना में प्रदूषित वातावरण में व्यायाम करने पर हृदय को होने वाली रक्त आपूर्ति में कमी हो जाती है और इस्कीमिया होने की संभावना तीन गुना बढ़ जाती है।
अमरीकन हार्ट एसोसिएशन द्वारा प्रकाशित इस रिपोर्ट में अनुसंधानकर्ताओं ने कहा है कि उन्होंने इन रोगियों की ई.सी.जी. (इलेक्ट्रोकार्डियाग्राम) में हृदय में होने वाली आक्सीजन आपूर्ति में कमी पायी।
यह अध्ययन 45 हृदय रोगियों पर किया गया। इनमें से आधी महिलाएं थीं। ये सभी रोगी हेलसिंकी क्षेत्र के रहने वाले थे जहां वायु प्रदूषण को आसानी से मापा जा सकता है। डा. पेकानीन और उनके सहयोगियों द्वारा छह सप्ताह तक किये गये इस अध्ययन में इन मरीजों को दो सप्ताह तक व्यायाम करने को कहा गया और हवा में मौजूद बारीक कणों का भी अध्ययन किया गया। प्रदूषित वातावरण में दो सप्ताह रहने के दो दिन बाद इनकी इस्कीमिया के स्तर की जांच की गयी।
इस्कीमिया एक गंभीर हृदय रोग है जिसमें रोगी के हृदय में दर्द नहीं होता है। प्रदूषण धमनियों में रुकावट पैदा करता है जिससे दिल के दौरे तथा हृदयाघात या हृदय के आवर्तन (रिदम) में गंभीर परिवर्तन होने या इन दोनों की आशंका बढ़ जाती है। यही नहीं प्रदूषण में रहने से हृदय की धड़कन भी बढ़कर प्रति मिनट औसतन 61 से 90 हो जाती है।
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार वायु प्रदूषण पैदा करने वाले बारीक कण सांस के जरिये हमारे शरीर में पहुंचकर घंटों तक रह सकते हैं और रक्त के साथ शरीर के विभिन्न हिस्सों में पहुंच सकते हैं। ये कण हृदय की सक्रियता को बाधित कर सकते हैं, हृदय की तारतम्यता में अवरोध पैदा कर सकते हैं और धमनियों को संकरा कर सकते हैं। मिटलमैन का कहना है कि वायु प्रदूषण की समस्या दिनोंदिन व्यापक होती जा रही है और बढ़ती जा रही है। जब प्रदूषण का स्तर बहुत ऊंचा हो जाएगा तो अधिकतर लोग घर के बाहर व्यायाम करने की बजाय घर के अंदर ही व्यायाम करना पसंद करेंगे।
~ ~
ईसीजी: हृदय रोगियों की मृत्यु का पूर्वसूचक
इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफी (ईसीजी) में खास किस्म की असामान्यता या गड़बड़ी मरीज की हृदय रोग से मृत्यु की आशंका का पूर्व संकेत हो सकती है। हृदय की मांसपेशियों में विद्युतीय प्रवाह की स्थिति का पता लगाने वाला इलेक्ट्रोकाडियोग्राम हृदय की मांसपेशियों, धड़कनों, हृदय की लयबद्धता तथा उसके चैम्बरों की स्थिति के बारे में महत्वूपर्ण जानकारियां देता है। लेकिन अमरीका के शिकागो स्थित लोयोला विश्वविद्यालय में किये गये नवीनतम अनुसंधान से पता चला है कि इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम की रिपोर्ट के आधार पर मरीज की हृदय रोग से मृत्यु की आशंका का भी पता लगाया जा सकता है। जनरल आॅफ द अमरीकन मेडिकल एसोसिएशन के ताजा अंक में प्रकाशित शोध रिपोर्ट के अनुसार किसी मरीज के हर ई.सी.जी. रिपोर्ट के ''एस टी-टी वेव'' नामक हिस्से में अगर गड़बड़ी या असामान्यता पायी जाये तो यह मरीज की हृदय की तकलीफों से मौत होने की आशंका का सूचक हो सकता है। लोयोला विश्वविद्यालय के औषध के प्रोफ्रेसर डा. युलियान लियाओ का कहना है कि चिकित्सक आम तौर पर ई. सी. जी. रिपोर्ट में इस असामान्यता या गड़बड़ी की ओर ध्यान नहीं देते। उनका कहना है कि चिकित्सकों को इस असामान्यता या गड़बड़ी की अनदेखी नहीं करनी चाहिये। यह दीर्धकालिक अनुसंधान 1957 में एक हजार 673 पुरुषों पर शुरू हुआ था। इनकी उम्र 40 से 55 साल के बीच थी। इस अनुसंधान से पता चला कि तीन या अधिक बार की ई.सी.जी. की रिपोर्टों में असामान्यता पाये जाने पर मरीज की हृदय रोग से मौत की आशंका ढाई गुनी बढ़ जाती है।
~ ~
पुरुषों में आनुवांशिक है दिल का दौरा
अगर आप पुरुष हैं और आपके माता-पिता में से किसी की या दोनों की दिल के दौरे से असामयिक मौत हो गयी हो तो आप सावधान हो जाइये। अनुसंधानों से पता चला है कि जिस पुरुष के माता-पिता की हृदय के दौरे के कारण अचानक मृत्यु हो जाती है उनके भी इसी तरह से मरने की आशंका अन्य पुरुषों की तुलना में दोगुनी होती है। यही नहीं जिस पुरुष के माता और पिता दोनों की हृदय के दौरे के कारण अचानक मृत्यु होती है उनके भी इसी तरह से मरने की आशंका अन्य पुरुषों की तुलना में नौ गुनी अधिक होती है।
हार्ट एसोसिएशन की सर्कुलेशन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट में डा. जेवियर जौवेन ने कहा है कि अगर किसी परिवार में हृदय के दौरे के कारण किसी की मृत्यु हो जाये तब एहतियात एवं पूर्व चिकित्सा की मदद से परिवार के अन्य सदस्यों को खतरे से बचाया जा सकता है।
इस समय हर साल चार लाख 81 हजार से अधिक लोगों को हृदय के दौरे पड़ते हैं जिनमें से करीब ढाई लाख लोगों की मृत्यु अचानक हृदय के दौरे के लक्षण उभरने के एक घंटे के अंदर ही हो जाती है। ऐसे लोगों में हृदय अचानक काम करना बंद कर देता है चाहे उनमें हृदय की बीमारियों की पूर्व पहचान हुई हो या नहीं। सामान्य तौर पर हृदय के दौरे तब पड़ते हैं जब हृदय की मांसपेशियों को रक्त पहुंचाने वाली धमनियों में रुकावट आ जाती है।
डा. जेवियर जौवेन का कहना है कि फिजिशियन आम तौर पर रोगी से यह पता करते हैं कि उनके परिवार में किसी को हृदय का दौरा पड़ा था या नहीं, लेकिन अब उन्हें रोगी से यह पता करना चाहिए कि उनके माता-पिता को दिल के दौरे के कारण अचानक मृत्यु तो नहीं हुई थी।
अनुसंधानकर्ताओं ने यह अध्ययन पेरिस में अधेड़ अवस्था के सात हजार 79 पुरुषों पर औसतन 23 साल तक किया। इनमें से 118 पुरुषों की मृत्यु हृदय के दौरे के कारण अचानक हुई और मरने वालों में 22 पुरुष (18.6 प्रतिशत) वैसे थे जिनके माता या पिता की मृत्यु भी इसी तरीके से हुई थी।
~ ~
गंजे लोगों को हृदय रोगों का खतरा
एक नवीनतम अध्ययन में पाया गया है कि गंजे लोगों में हृदय रोग होने की आशंका बहुत अधिक होती है। ऐसा टेस्टोस्टेराॅन हारमोन की अधिकता के कारण होता है। बर्किंघम स्थित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल तथा बोस्टन स्थित वीमेन्स हाॅस्पीटल में किये गए इस अध्ययन में अनुसंधानकर्ताओं ने पुरुष गंजापन और कोरोनरी हृदय रोग (सी एच डी) में गहरा संबंध पाया। यह अध्ययन 40 से 84 वर्ष उम्र के 22 हजार से अधिक पुरुष चिकित्सकों पर किया गया। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार भरपूर बाल वाले़ लोगों की तुलना में सिर के ऊपरी भाग से पूरी तरह से गंजे लोगों में दिल का दौरा और एंजाइना जैसी दिल की वैसी बीमारियां होने का खतरा 36 प्रतिशत अधिक हो जाता है जिनके इलाज के लिये बाईपास सर्जरी या एंजियोप्लास्टी कराने की नौबत आती है। सिर के ऊपरी भाग से मामूली रूप से गंजे लोगों में यह खतरा 23 प्रतिशत अधिक होता है तथा मध्यम रूप से गंजे लोगों में यह खतरा 32 प्रतिशत अधिक होता है। जबकि सिर के अगले भाग से गंजे लोगों में हृदय रोगों का खतरा 9 प्रतिशत अधिक होता है। इस अध्ययन के अनुसार पुुरुष हारमोन- टेस्टोस्टेराॅन और एन्ड्रोजेन की अधिकता के कारण पुरुषों में गंजापन होता है और इस कारण उनमें हृदय रोगों का खतरा बढ़ता है। गंजे लोगों के सिर की खाल में काफी मात्रा में एन्ड्रोजेन रिसेप्टर होते हैं। एन्ड्रोजेन धमनियों में वसा के जमाव (एथेरोस्क्लेरोसिस) में मदद करता है और रक्त के थक्का बनने (थ्रोम्बोसिस) की संभावनाओं को बढ़ाता है। इस अध्ययन में कहा गया है कि कुछ लोगों में हृदय रोगों और गंजेपन का कारण आनुवांशिक हो सकता है, लेकिन इस अध्ययन में गंजेपन के आनुवांशिक कारणों पर अधिक अध्ययन नहीं किया जा सका। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि सभी गंजे लोगों को हृदय की समस्याओं के प्रति सचेत रहना चाहिए। आर्काइव्स आफ इंटरनल मेडिसीन नामक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन रिपोर्ट में लेखक डा.पाॅलो लोटुफो लिखते हैं कि कम उम्र में ही सिर के ऊपरी भाग से गंजापन तत्काल हृदय रोग का कारण नहीं बनता लेकिन यह भविष्य में हृदय रोग होने की सूचना जरूर दे देता है। इसलिए ऐसा होने पर हृदय रोगों के प्रति लोगों को सतर्क हो जाना चाहिए और समय-समय पर इसकी जांच कराते रहना चाहिए तथा पर्याप्त सावधानियां बरतनी चाहिए।
~ ~
हृदय रोग में खेल-कूद है फायदेमंद
आम तौर पर हृदय समस्याओं से ग्रस्त बच्चों को खेल-कूद एवं व्यायाम से दूर रखा जाता है। यह माना जाता है कि खेल-कूद से उनकी बीमारी बढ़ जायेगी, लेकिन जर्मनी के खेल चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों ने एक नवीनतम परियोजना से निष्कर्ष निकाला है कि ऐसे बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में खेल-कूद की महत्वपूर्ण भूमिका है। जर्मनी के कोलन में आठ माह तक चली इस परियोजना के तहत हृदय रोगों से ग्रस्त 74 बच्चों को शामिल किया गया। इन बच्चों को हर दिन 90 मिनट तक बाल तथा मोटर गेम खेलने को दिये गये। अध्ययन के दौरान पाया गया कि इनकी हृदय समस्या में कोई वृद्धि हुये बगैर उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में सुधार हुआ। इस परियोजना से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि हृदय रोगों से ग्रस्त बच्चों को खेल-कूद में भाग लेने की स्वाभाविक इच्छा होती है। इन शोधकर्ताओं का कहना है कि खेल-कूद एवं व्यायाम से दूर रखे जाने वाले बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास नहीं हो पाता है और वे अन्य बच्चों के साथ घुल-मिल नहीं पाते। इस परियोजना के निष्कर्षों से प्रेरित होकर जर्मनी के कुछ बाल चिकित्सकों, खेल चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों ने मिलकर ऐसे बच्चों के लिये कुछ विशेष खेल बनाये हैं।
~ ~
अब धड़केंगे इलेक्ट्राॅनिक हृदय
आने वाले समय में हाड़-मांस के बने हृदय के बजाय बिजली से चलने वाले इलेक्ट्राॅनिक हृदय धड़केंगे। फ्रांस में चिकित्सकों ने एक मरीज को इलेक्ट्राॅनिक हृदय लगाया है और यह सफलतापूर्वक काम कर रहा है। यह दुनिया में अपने किस्म का केवल दूसरा हृदय है। इस हृदय की बैटरी मरीज के पेट के निचले हिस्से में प्रत्यारोपित की गयी है। चिकित्सकों का कहना है कि मरीज को किसी तरह के संक्रमण का खतरा पहुंचाये बगैर यह बैटरी रिचार्ज की जा सकती है। पहले कृत्रिम हृदय की बैटरी शरीर के बाहर लगी होती थी जिसे कैथेटर के जरिये हृदय से जोड़ा जाता था। इससे मरीज को संक्रमण होने का खतरा रहता था। लेकिन अब शरीर में प्रत्या रोपित बैटरी को उससे लगी एक तार के माध्यम से रिचार्ज किया जा सकता है। फ्रांस की राजधानी पेरिस स्थित ला पिटी-सैलपेट्री हास्पीटल में यह इलेक्ट्राॅनिक हृदय मधुमेह एवं हृदय रोगों से ग्रस्त 70 वर्षीय मरीज को लगाया गया है।
~ ~
सम्पन्न हुआ हृदय का दुर्लभ आपरेेशन
अमरीका में चिकित्सकों ने एक महिला के हृदय को निकाल कर उसमें मरम्मत किया और वापस महिला के शरीर में लगा दिया। यह विश्व का इस किस्म का मात्र चौथा आपरेशन था।
अब इस महिला का कहना है कि वह पूरी तरह से ठीक है। यह महिला हृदय के कैंसर से ग्रस्त थी। चिकित्सकों ने कैंसर से मुक्ति दिलाने के लिये महिला के हृदय को उसके शरीर से बाहर निकाला और उसमें से तीन कैंसरस ट्यूमर को काट का अलग किया और दोबारा उस हृदय को वापस छाती में प्रत्यारोपित कर दिया।
सात घंटे तक चले इस आपरेशन के दौरान महिला को एक विशेष मशीन के सहारे जीवित रखा गया।
यह आपरेशन न्यूयार्क स्टेट के मेथेाडिस्ट अस्पताल के डा. माइकल रेडार्न ने किया। इससे पूर्व हुये तीन आपरेशन उन्होंने ही किये थे। पहले के तीन मरीजों में दो की मौत हो चुकी है। लेकिन तीसरा मरीज अब भी जिंदा है और बिल्कुल स्वस्थ है। डा. रेडार्न का कहना है कि इस तरह के आपरेशन अत्यंत दुर्लभ होते हैं क्योंकि हृदय का कैंसर बहुत कम लोगों को होता है।
~ ~
रजोनिवृत स्त्रियों को अधिक हृदय रोग
महिलाओं को हृदय की सर्जरी के बाद दिल के दौरे पड़ने की तथा इन दौरों से मौत की आशंका पुरुषों की तुलना में अधिक होती है। उच्च रक्तचाप, धमनियों के संकरापन और मधुमेह सर्जरी के बाद दिल के दौरे की आशंका बढ़ाने वाले ज्ञात कारक हैं लेकिन अमरीका के सेंट लुइस स्थित वाशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल आफ मेडिसीन तथा डरहम स्थित ड्यूक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किये गये अध्ययन से पता चला कि लैंगिक विभिन्नता सर्जरी के बाद दिल के दौरे का एक प्रमुख कारक है। इन शोधकर्ताओं ने अमरीका में 1996 और 1997 के बीच हृदय की सर्जरी कराने वाले चार लाख महिलाओं तथा पुरुषों के चिकित्सकीय दस्तावेजों के अध्ययन के आधार पर उक्त निष्कर्ष निकाला। हालांकि सर्जरी के बाद महिलाओं को अधिक खतरा होने के कारणों का अभी पता नहीं चला है।
महिलाओं को रजोनिवृति से पूर्व इस्ट्रोजेन नामक हार्मोन दिल की बीमारियों एवं दिल के दौरे से बचाता है लेकिन रजोनिवृति के बाद इस हार्मोन के अनुपस्थित हो जाने के कारण महिलाओं को हृदय रोगों एवं दिल के दौरे का खतरा पुरुषों के समान हो जाता है।
अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन की शोध पत्रिका सर्कुलेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उक्त अध्ययन से यह भी पता चला है कि हृदय की सर्जरी के बाद महिलाओं में दिल के दौरे के कारण मौत की आशंका भी पुरुषों की तुलना में अधिक होती है। इस अध्ययन के दौरान सर्जरी के बाद के पहले माह में महिलाओं में मृत्यु दर 5.7 प्रतिशत जबकि पुरुषों में मृत्यु दर 3.5 प्रतिशत पायी गयी।
~ ~
संभव है क्षतिग्रस्त हृदय मांसपेशियों का पुनर्निर्माण
वैज्ञानिकों की एक टीम ने काफी समय से कायम धारणा को चुनौती देते हुये निष्कर्ष निकाला है कि दिल के दौरे के बाद हृदय की मांसपेशियों का पुनर्निर्माण होता है। इस निष्कर्ष से दिल के दौरे को रोकने तथा दिल के दौरे के बाद क्षतिग्रस्त हृदय को पुनर्जीवन देने के तरीके के विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
न्यू इंगलैंड जर्नल आफ मेडिसीन में हाल में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण अनुसंधान रिपोर्ट के अनुसार न्यूयार्क स्थित न्यूयार्क मेडिकल काॅलेज के वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान से पाया कि हृदय के दो भागों में हृदय मांसपेशियां बड़े पैमाने पर अपनी प्रतिलिपियां बनाती हैं।
इस काॅलेज के कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक तथा मेडिसीन विभाग के प्रोफेसर डा. पियरो एंवर्सा के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम ने 13 हृदय रोगियों में मायोसाइट नामक हृदय कोशिकाओं पर शोध करके यह निष्कर्ष निकाला। इन 13 मरीजों को चार से बारह दिन पूर्व ही दिल का दौरा पड़ा था। इन वैज्ञानिकों ने उन 10 मरीजों की मायोसाइट कोशिकाओं पर भी शोध किया जो हृदय रोग से ग्रस्त नहीं थे। इस अनुसंधान के लिये दिल के दौरे के स्थल के पास से तथा क्षतिग्रस्त ऊतक से काफी दूर के भाग से कोशिकाओं के नमूने लिये गये।
हृदय के इन भागों का अत्यंत उच्च क्षमता के माइक्रोस्कोप से अवलोकन करके इन वैज्ञानिकों को के आई 67 नामक प्रोटीन की उपस्थिति का पता चला। यह प्रोटीन विभाजित होने वाली हृदय की कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद होती है और कोशिका के जीवन चक्र के सभी चरणों में उत्सर्जित होती है। इस प्रोटीन की उपस्थिति कोशिका विभाजन का सबसे प्रबल संकेत मानी जाती है।
इन वैज्ञानिकों ने मायोटोटिक विभाजन के भी चित्र प्राप्त किये। इन चित्रों के आधार पर वैज्ञानिकों ने मायोसाइट कोशिकाओं के पुनर्निर्माण का एक और सबूत हासिल किया। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर दिल के दौरे के बाद हृदय की मांसपेशियों के पुनर्निर्माण तथा उसकी प्रक्रिया के बारे में पूरी जानकारी मिल जाये तो दिल के दौरे को रोकने के अलावा क्षतिग्रस्त मांसपेशियों के पुनर्निर्माण को तेज किया जा सकता है। अभी तक यह माना जाता है कि दिल के दौरे अथवा अन्य कारणों से जब हृदय को नुकसान पहुंचता है तो यह नुकसान स्थायी होता है और किसी भी तरीके से हृदय की मृत अथवा क्षतिग्रस्त कोशिकाओं का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता है।
~ ~
फास्टफूड के बढ़ते चलन ने बढ़ाई दिल की बीमारियां
दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों तथा छोटे-बड़े शहरों में मैकडोनाल्ड, विम्पी, डामिनाॅज पिज्जा और पिज्जा हट जैसी फास्ट फूड कंपनियों के अंधाधुंध तरीके से फैलते आउटलेट्स के कारण पनप रही फास्ट फूड संस्कृति मोटापा, मधुमेह, रक्त चाप और हृदय की बीमारियों का प्रकोप तेजी से बढ़ा रही है। युवा पीढ़ी में चीजबर्गर, पिज्जा, चाकलेट, आईसक्रीम तथा चाउमीन जैसे फास्ट फूड का बढ़ रहा क्रेज उनकी सेहत पर कहर ढा रहा है। यह बिडम्बना है कि एक तरफ देश के गांवों और शहरों के गरीब लोग कुपोषण के कारण बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ शहरों के रइसजादे दिखावे के लिये वैसे आहार ले रहे हैं जो मंहगे होने के साथ-साथ पूरी तरह से अपौष्टिक एवं अस्वास्थ्यकर तो हैं ही, मोटापे के लिए भी जिम्मेदार हैं।
मोटापा हृदय की बीमारियों को बढ़ाने वाला एक प्रमुख कारण है। एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि मोटे व्यक्ति को पतले व्यक्ति की तुलना में सात साल पहले हृदय रोग हो सकते हैं। इस अध्ययन में पाया गया कि सामान्य वजन वाले मध्यम वय के हृदय रोगी 64 साल की उम्र में ही अस्पताल आते है जबकि अधिक वजन वाले रोगी 61 साल की उम्र में ही और बहुत अधिक उम्र के मरीज 57 साल की उम्र में ही डाक्टरों के पास आते हैं। सामान्य वजन वाले हृदय रोगी की आयु औसतन 78 साल होती है जबकि अधिक वजन वाले हृदय रोगी औसतन 77 साल तक जीते हैं।
सुप्रसिद्ध कार्डियोलाॅजिस्ट एवं मैट्रो ग्रूप आफ हास्पीटल्स के चैयरमैन पद्मभूषण डा. पुरूषोत्तम लाल के अनुसार जो व्यक्ति जितना अधिक वजन का होगा उसे उच्च रक्त चाप मधुमेह और काॅलेस्ट्राल की समस्यायें उतनी ही अधिक होंगी। मौजूदा समय में आनन-फानन में तैयार होने वाले फास्ट फूड, वसा युक्त खाद्य पदार्थों, अत्यधिक मीठी वस्तुओं और डिब्बाबंद खाद्य सामग्रियों के प्रयोग के कारण लोगों के शरीर में कोलेस्ट्रॅाल की मात्रा बढ़ रही है। कोलेस्ट्रॅाल बढ़ने से हृदय को स्वच्छ रक्त एवं आक्सीजन पहुंचाने वाली धमनियों में अवरोध पैदा हो जाता है जिससे हृदय की मांसपेशियों को पर्याप्त मात्रा में रक्त नहीं मिल पाता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये डा. बी सी राय पुरस्कार से सम्मानित डा. पुरूषोत्तम लाल बताते हैं कि आज के समय में फास्ट फूड के बढ़ते प्रचलन के अलावा महानगरीय विलासितापूर्ण रहन-सहन, गलत खान-पान, धूम्रपान, शराब सेवन, व्यायाम से बचने की प्रवृति तथा मानसिक तनाव और अन्य मानसिक परेषानियों के कारण भी हृदय रोगों के प्रकोप में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है।
डा. पुरूषोत्तम लाल बताते हैं कि फास्ट फूड को बनाने के लिये अधिक मात्रा में वसा तथा कार्बोहाइेट का इस्तेमाल होता है। ये दोनों हमारे हृदय को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अलावा फास्ट फूड में नमक/सोडियम का अंश भी बहुत अधिक होता है। यह रक्त चाप तथा हृदय रोग की आशंका को बढ़ता है।
सबसे अधिक संख्या में एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंटिंग करने वाले डा. पुरूषोत्तम लाल का सुझाव है कि जो लोग फास्ट फूड को छोड़ नहीं सकते उन्हें अधिक शारीरिक श्रम एवं व्यायाम करना चाहिये ताकि फास्ट फूड के जरिये जो अतिरिक्त कैलोरी ग्रहण की गयी है वह पच सके। उन्होंने बताया कि एक बर्गर में करीब 650 से 700 कैलोरी जबकि शीतल पेय के एक बड़े पैक में 1000 कैलोरी होती है। इस तरह हम एक बार जो फास्ट फूड लेते हैं उससे हमें 1500 से 2000 कैलोरी प्राप्त हो जाती है और इतनी कैलोरी एक औसत व्यक्ति को पूरे दिन भर के लिये पर्याप्त होती है। इसलिये फास्ट फूड लेने वाले व्यक्ति को चाहिये कि वे बाकी समय के आहार में कटौती करें।
आज के समय में हृदय रोग और दिल के दौरे असामयिक मौत के सबसे बड़े कारण हैं। कम उम्र के लोगों में दिल के दौरे का प्रमुख कारण आनुवांशिक कारणों के अलावा उच्च कालेस्ट्राल एवं अधिक रक्तचाप शामिल हैं। लेकिन लोग धुम्रपान से परहेज, फलों और सब्जियों के भरपूर सेवन और अपने भोजन में आहार की मात्रा कम रखकर हृदय रोगों से बच सकते हैं।
हृदय रोगों से बचने के सबसे बेहतर उपाय परहेज तथा हृदय की नियमित जांच है। हृदय रोगों तथा दिल के दौरे से बचने के लिये हृदय की रक्त धमनियों में होने वाले जमाव का समय से पता लगाना अनिवार्य हो जाता है। लेकिन इसके पता लगाने की परम्परागत तकनीक- एंजियोग्राफी इतनी मंहगी एवं जटिल है कि ज्यादातर लोग एंजियोग्राफी कराने से बचना चाहते हैं अथवा और कोई विकल्प नहीं रहने पर ही अंतिम समय में एंजियोग्राफी कराते हैं तब तक स्थिति गंभीर हो चुकी होती है। डा. पुरूषोत्तम लाल के नेतृत्व में नौएडा स्थित मेट्रो हाॅस्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीट्यूट्स ने हृदय की रक्त धमनियों में जमाव को समय पूर्व पता लगाने के लिये अत्यंत सरल एवं सस्ती विधि विकसित की है। इसे मेट्रो कोरोनरी स्क्रिनिंग नाम दिया गया है और इसकी मदद से रक्त धमनियों में 50 प्रतिशत से भी कम की रुकावट का पता लगाया जा सकता है। रक्त धमनियों में रुकावट का समयपूर्व पता लग जाने से मरीज खान-पान पर नियंत्रण रखकर तथा नियमित व्यायाम करके हृदय रोगों पर काबू रख सकता है।
~ ~
SEARCH
LATEST
POPULAR-desc:Trending now:
-
- Vinod Kumar मस्तिष्क में खून की नसों का गुच्छा बन जाने की स्थिति अत्यंत खतरनाक साबित होती है। यह अक्सर मस्तिष्क रक्त स्राव का कारण बनती ह...
-
विनोद कुमार, हेल्थ रिपोर्टर वैक्सीन की दोनों डोज लगी थी लेकिन कोरोना से बच नहीं पाए। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक...
-
कॉस्मेटिक उपचार के बारे में मन में अक्सर कई विरोधाभाश और सवाल उठते रहते हैं लेकिन अब इनके जवाब अनुत्तरित रह नहीं रह गये हैं। यहां यह उल्लेख ...
-
– विनाेद कुमार संगोष्ठी के दौरान डा़ रामदास तोंडे की पुस्तक ʺसाहित्य और सिनेमाʺ का लोकार्पण तेजी से बदलते युग में ‘साहित्य और सिनेमा’ विषय प...
-
चालीस-पचास साल की उम्र जीवन के ढलान की शुरूआत अवश्य है लेकिन इस उम्र में अपने जीवन के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंचा व्यक्ति पार्किंसन जैसे स्नायु...
Featured Post
24th ICSI National Awards for Excellence in Corporate Governance
24th ICSI National Awards for Excellence in Corporate Governance Shri Basavaraj Bommai, Member of Parliament, Lok Sabha and Former Chief Min...