असली जैसे काम करेंगे कृत्रिम घुटने

गठिया, आस्टियो आर्थराइटिस अथवा दुर्घटना के कारण चलने-फिरने में लाचार हो चुके मरीजों को कई बार घुटना बदलवाने की जरूरत पड़ जाती है लेकिन कई बार घुटना बदलवाने के बाद भी उनके घुटने प्राकृतिक घुटने की तरह काम नहीं करते। लेकिन अब ऐसे कृत्रिम घुटने का भी निर्माण होने लगा है जो आकार-प्रकार में प्राकृृतिक घुटनों के समान होने के अलावा प्राकृतिक घुटनों की तरह काम करते हैं।
अमरीका के मैक्स मेडिकल ने एनयूआरबीएस तकनीक की मदद से ''फ्रीडम नी'' नामक कृत्रिम घुटने का निर्माण शुरू किया है जिनकी संरचना, गतिशीलता एवं कार्य प्रणाली प्राकृतिक घुटने के समान होते है। ''फ्रीडम नी'' को खास तौर पर एशियाई और भारतीय लोगों के घुटने के आकार -प्रकार तथा भारतीय लोगों की कद-काठी, उनकी जरूरतों एवं उठने-बैठने को तौर-तरीकों को ध्यान में रखकर भी डिजाइन किया गया है और इस कारण इसे स्थानीय घुटने अथवा ''एशियन नी'' भी कहा जाता है। 
एनयूआरबीएस (नाॅन यूनिफार्म रैशनल सपलाइन सरफेसस) तकनीक थ्री डायमेंशनल (3 डी) जियोमेट्री पर आधारित ऐसी विधि है जिसकी मदद से किसी भी तरह के जटिल से जटिल त्रिआयामी (3 डायमेंशनल) स्वरूप बनाये जा सकते हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल अब कृत्रिम घुटनों में निर्माण में भी होने लगा है जिसके कारण इस तकनीक की मदद से बनने वाले कृत्रिम घुटने बिल्कुल प्राकृतिक घुटने के सदृश होते हैं और प्रत्यारोपण के बाद प्राकृतिक घुटने की तरह काम करते हैं तथा मरीज को किसी भी तरह की दिक्कत नहीं आती है। 
दरअसल भारतीय लोगों को उठने-बैठने की अपनी आदतों तथा रोजमर्रे के कामकाज को निबटाने के लिये घुटने को अधिक मोड़ना पड़ता है। इसके अलावा पश्चिमी देशों की तुलना में एशियाई लोगों के घुटने छोटे एवं अलग आकार के होते हैं। साथ ही साथ ओस्टियोपोरोसिस एवं इलाज में देरी के कारण घुटने की हड्डी का घनत्व एवं उसकी गुणवत्ता खराब होती है और यही कारण है कि भारतीय एवं एशियाई मरीजों में घुटने के ज्यादातर आपरेशनों के दौरान अपेक्षाकृत अधिक हड्डी काटने या छिलने की जरूरत पड़ जाती है। साथ ही घुटने बदलने के आपरेशन के बाद भी मरीज को घुटने में दर्द, सूजन एवं अन्य समस्यायें बनी रहती है। लेकिन फ्रीडम नी के विकास के बाद यह समस्या खत्म हो गयी है। 
ये घुटने अत्यधिक लचीले (फ्लेक्सिबल) होते हैं और आपरेषन के बाद भी मरीज आलथी-पालथी मार कर बैठ सकता है। इस विशेष कृत्रिम घुटने को प्रत्यारोपित करने के दौरान रक्त की बहुत कम क्षति होती है और इस कारण से मरीज को रक्त नहीं चढ़ाना पड़ता है। यह आपरेशन एक छोटे से चीरे के सहारे ही कर दिया जाता है। आपरेशन के लिये कम मांसपेशियों एवं हड्डियों को काटना पड़ता है जिसके कारण मरीज शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है और आपरेशन के बाद उसे प्राकृतिक घुटने की तरह महसूस होता है। मरीज आपरेशन के दूसरे दिन ही बिना किसी सहारे के चलने-फिरने लगता है तथा तीसरे दिन सीढ़ियां चढ़ने-उतरने लगता है। मरीज को तीन-चार दिन से अधिक समय तक अस्पताल में नहीं रहना पड़ता है।
(नयी दिल्ली के शालीमार बाग स्थित मैक्स हाॅस्पिटल के वरिष्ठ आर्थोपेडिक सर्जन तथा आर्थोपेडिक्स एंड ज्वाइंट रिप्लेसमेंट के संयुक्त निदेशक डाॅ. पलाश गुप्ता से बातचीत पर आधारित) 


कैसे बढ़ायें अपनी याददाश्त

आप अक्सर घर छोड़ने से पहले लाइट बंद करना भूल जाते हैं? क्या आप यह भूल जाते हैं कि आपने अपनी कार की चाबियाँ कहां रखी है? क्या आप जानते हैं कि आज सप्ताह का कौन सा दिन है? आप लगातार इस तरह के सांसारिक बातों से परेशान होते रहते हैं तो आशंका इस बात की है कि आप कमजोर स्मृति और एकाग्रता की कमी से पीडित हैं। यदि आप मस्तिष्क की रक्षा करना चाहते हैं और मस्तिष्क की शक्ति बढ़ाना चाहते हैं तो इसे हासिल करने के लिये यहां कुछ प्रभावषाली किन्तु आसान उपाय बताये जा रहे हैं। 
हम सभी जानते हैं कि ध्यान हमारे मस्तिष्क का भावनात्मक नियामक है, और यह मस्तिष्क के स्वास्थ्य को बढ़ाने में मदद कर सकता है। हम उन खाद्य पदार्थों को भी जानते हैं जो मस्तिष्क के कार्यकलाप को अधिक से अधिक बढ़ा सकते हैं। ये खाद्य पदार्थ हैं अखरोट, ब्रोकोली, ब्लूबेरी, नट और बीज। विटामिन ई और विटामिन के मस्तिष्क के विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। पजल्स और दिमागी खेल खेलने से दिमाग तेज होता है। नियमित रूप से कार्डियो व्यायाम करने से मस्तिष्क के स्मृति वाले क्षेत्र ''हिप्पोकैम्पस'' के आकार को बढ़ाने में मदद मिलती है। 
दरअसल हमारा मस्तिष्क एक शक्तिशाली जैविक मशीन है। हमारे मस्तिष्क में ग्लूकोज की निरंतर आपूर्ति जरूरी होती है। इंसुलिन वैसा हार्मोन है जो ग्लूकोज को स्टोर करता है। जब ग्लूकोज हमारे रक्त प्रवाह में शामिल होता है तो पैंक्रियाज रक्त शर्करा को नियंत्रण में रखने के लिए इंसुलिन की समुचित मात्रा उत्सर्जित करता है।
व्यायाम: शारीरिक गतिविधि हमारे दिमाग में नई कोशिकाओं को विकसित करने में मदद करती है, जिससे इस क्षेत्र में केशिकाओं की संख्या में वृद्धि हो सकती है। नियमित व्यायाम निम्नलिखित में मदद करता है: 
— शरीर में उचित रक्त प्रवाह।
— बेहतर विकास और न्यूरॉन्स की रक्षा
— हृदय रोगों के खतरों में कमी
— छह माह तक व्यायाम करने वाले बुजुर्गों पर किये गये एक नये अध्ययन के अनुसार उन बुजुर्गों की स्मृति में 1,800 प्रतिशत की वृद्धि हुयी। 
ब्लूबेरी: इसे अपने आहार में शामिल करें क्योंकि येे स्मृति शक्ति में सुधार करते हैं। ब्लूबेरी एंटीऑक्सीडेंट से भरे हुए होते हैं और इसलिये ये शरीर के डीएनए की रक्षा में मदद करते हैं। ब्लूबेरी में फाइटोन्यूट्रिएट्स की अधिककम मात्रा होती है जो दिमाग के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि ब्लूबेरी में फ्लावोनाॅयड्स नामक यौगिक होते हैं जो मस्तिष्क की कोशिकाओं में सुधार करते हैं। ये अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक स्मृति में भी सुधार कर सकते हैं। 
नट्स: नट्स विटामिन ई के महत्वपूर्ण स्रोत हैं और ये मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिये उपयोगी हैं। नट्स को पोषण स्नैक्स के रूप में भी जाना जाता है जो कोलेस्ट्रॉल, हृदय की समस्याओं और  कैंसर के जोखिम को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। नट्स में मोनोसेचुरेटेड एवं पॉलीअनसेचुरेटेड वसा होते हैं जो स्मृति क्षमता को मजबूत बनाते हैं। शोध से पता चला है कि नट्स मस्तिष्क में तीन दर्जन से अधिक न्यूरोट्रांसमीटर विकसित करने में मदद कर सकते हैं। मस्तिष्क की शक्ति के लिए अखरोट सबसे अच्छे नट्स होते है। इसमें अधिक मात्रा में डीएचए, ओमेगा- 3 फैटी एसिड होते हैं। डीएचए मस्तिष्क के स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं और इससे वयस्कों में संज्ञानात्मक (काग्निटिव) क्षमता में सुधार होती है। 
विटामिन डी: विटामिन डी मानसिक स्वास्थ्य और डिप्रेशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विटामिन डी मस्तिष्क के उस हिस्से में काम करता है जो अवसाद से जुड़े होते हैं। 
नींद: हर रात सात से आठ घंटे तक लगातार नींद लेने से आपकी स्मृति में वृद्धि होती है। नींद मस्तिष्क के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समुचित नींद के बिना, न्यूरॉन्स को दिन के दौरान होने वाले सभी तरह की क्षतियों को दुरूस्त करने का समय नहीं मिल पाता है। 
चॉकलेट: चॉकलेट खाने से मस्तिष्क को तीक्ष्ण बनाने में मदद मिलती है और इससे मस्तिष्क की अल्पकालिक स्मृति बढ़ती है। गहरे रंग के चॉकलेट दिमाग के लिए सबसे अच्छे चॉकलेट हैं। इस तरह के चाॅकलेट में एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो मस्तिष्क में रक्त का प्रवाह बढ़ाने में मददगार होते हैं। 
पानी: हमारे शरीर के ज्यादातर हिस्से पानी से बने हैं। पानी पीने और मस्तिष्क की कार्यक्षमता के बीच सीधा संबंध है। मस्तिष्क को पानी का अभाव होने से ब्रेन फाॅग, नींद की समस्यायें, मस्तिष्क की थकान, क्रोध एवं डिप्रेशन जैसी समस्यायें एवं बीमारियां होती है। हमारे शरीर का 70 प्रतिशत हिस्सा पानी से बना है और शरीर के हर हिस्से को पानी की जरूरत होती है। पानी विचार प्रक्रियाओं तथा स्मृति प्रक्रियाओं जैसे मस्तिष्क के सभी कार्यों के लिए विद्युत उर्जा उपलब्ध कराता है। लेकिन केवल इतना ही नहीं, अनुसंधानों से स्मृति को तीक्ष्ण करने के अधिकाधिक रोमांचकारी तरीकों के बारे में खुलासे हो रहे हैं। 
विटामिन: यह मस्तिष्क स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। पानी में घुलनशील विटामिन शरीर में जमा नहीं होते है और ऐसे में आहार अथवा सप्लीमेंट्स के जरिये विटामिन की नियमित आपूर्ति जरूरी होती है। दरअसल विटामिन बी 12 (कोबालामिन के नाम से भी जाना जाता है) इतना आवश्यक है कि इसकी कमी के कारण मस्तिश्क सिकुड़ने लगता है। जिन लोगों के शरीर में बी 12 की कमी होती है वे विवेक संबंधी कागनिटिव परीक्षाओं में कम अंक लाते हैं और उनके कुल मस्तिष्क का आकार भी कम होता है। इसका कारण यह है कि जब इस विटामिन की कमी होती है तो मस्तिष्क से जाने वाले संदेषों तथा मस्तिश्क को मिलने वाले संदेशों के संप्रेषण में गड़बडी आ जाती है। 
विशुद्ध शाकाहारियों को बी 12 ग्रहण करने के संबंध में खास सावधानी बरतनी चाहिये और उन्हें इसकी पूर्ति करने के लिये अतिरिक्त सप्लीमेंट्स लेने चाहिये क्योंकि विटामिन बी 12 मांस, मछली, अंडे, दूध और दुग्ध उत्पादों सहित पशुओं से प्राप्त खाद्य पदार्थों में ही प्राकृतिक रूप से मौजूद होते हैं। 
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रोजमर्रे के आहार में शामिल की जाने वाली सामग्रियां 
1. सैलमन और माकेरेल (एक प्रकार की समुद्री मछली): दोनों में बिल्कुल तैयार अवस्था में ओमेगा 3 होते हैं जिसे हमारा शरीर आसानी से इस्तेमाल कर सकता है। यह मस्तिष्क के स्वस्थ कार्य प्रणालियों के लिये जरूरी होता है। 
2. कद्दू के बीज: इसमें जिंक की अच्छी-खासी मात्रा मौजूद होती है। यह खनिज स्मृति को बढ़ाने और सोचने-समझने के कौशल को बढ़ाने के लिये जरूरी है। 
3. ब्रोकोली: यह विटामिन 'के' से भरपूर है जो संज्ञानात्मक (काग्निटिव) को बढ़ता है और मस्तिष्क की शक्ति में सुधार करता है। 
4. अंडे: इसमें कोलीन होता है जो महत्वपूर्ण पोषक तत्व है और यह स्मृति से संबंधित न्यूरोट्रांसमीटर - एसीटाइलकोलीन के उत्सर्जन में मदद करता है। 
5. चुकंदर: इसमें वैसे प्राकृतिक नाइट्रेट तत्व मौजूद होते हैं जो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को बढ़ाते हैं और इससे मस्तिष्क की क्षमता में सुधार होता है। 
6. अखरोट: इनमें एंटीऑक्सीडेंट और ओमेगा -3 फैटी एसिड मौजूद होते हैं और ये आपके मस्तिश्क के लिए सबसे फायदेमंद हैं। 
(नयी दिल्ली स्थित अपोलो स्पेक्ट्रा हास्पीटल्स की वरिष्ठ इंटरनल मेडिसीन विशेषज्ञ डाॅ. नवनीत कौर के साथ बातचीत पर आधारित)


अस्थमा के रोगियों के लिए परफेक्ट डाइट

अस्थमा के रोगियों को अपने आहार का चयन करते समय बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होती है। उचित आहार का सेवन न करने पर उनका अस्थमा बढ़ सकता है जबकि उचित आहार का सेवन कर वे न सिर्फ अस्थमा के गंभीर अटैक से बच सकते हैं, बल्कि स्वस्थ भी रह सकते हैं। अस्थमा के रोगियों में अपने आहार में निम्न खाद्य पदार्थों को शामिल करना चाहिए: 
ओमेगा-3 फैटी एसिड युक्त खाद्य पदार्थ - ओमेगा-3 फैटी एसिड केवल हमारे फेफड़ों के लिए ही नहीं बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक है। यह अस्थमा के रोगियों को सांस की तकलीफ और घरघराहट के लक्षणों से निजात दिलाता है और उनके स्वास्थ्य में सुधार करता है। यह मेवों और अलसी में पाया जाता है।
पत्तेदार सब्जियां - पत्तेदार सब्जियों में एंटीआक्सीडेंट पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। ये फेफड़ों में मौजूद विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करती है। अस्थमा के रोगियों को अपने आहार में पालक, गोभी, ब्रोकली और कोल्हाबी जैसी पत्तेदार सब्जियों को शामिल करना चाहिए।
अनार - फलों में अनार में एंटीआक्सीडेंट सबसे अधिक पाया जाता है। अनार फेफड़ों से विषाक्त पदार्थों को निकालने और शरीर में रक्त परिसंचरण को बढ़ाने में मदद करता है।
केला - रोजाना एक केला का सेवन कर अस्थमा के लक्षणों के विकसित होने के खतरे को 34 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। केला में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक फाइबर होते हैं जो अस्थमा से बचाव करते हैं। 
अंगूर - इसमें एंटीआक्सीडेंट और फ्लावोनायड दोनों मौजूद होते हैं। यही नहीं इसमें विटामिन और खनिज भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसलिए यह अस्थमा रोगियों के लिए काफी फायदेमंद है।
सेब - इसमें मौजूद पोषक तत्त्व, फ्लावोनायड, एंटीआक्सिडेंट और विटामिन फेफड़ों की सेहत में सुधार करते हैं जिससे अस्थमा रोगियों में अस्थमा के दौरे पड़ने की आशंका कम हो जाती हैं।
बेरी - बेरी में फ्लावोनायड और फैरोटीनायड एंटीआक्सिडेंट मौजूद होते हैं। ये फेफड़ों से हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करते हैं और फेफड़ों के संक्रमण से बचाव करते हैं। बेरी के तौर पर ब्लूबेरी, रास्पबेरी और ब्लैकबेरी का सेवन किया जा सकता है।
विटामिन सी - विटामिन सी युक्त फलों में भरपूर मात्रा में एंटीआक्सीडेंट होते हैं। संतरे, नींबू, टमाटर, कीवी, स्ट्रॉबेरी, अंगूर, अनानास और आम जैसे फलों में प्रचुर मात्रा में विटामिन सी होती है। इनके सेवन से फेफड़ों सहित शरीर के सभी हिस्सों को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन प्राप्त होता है।
लहसुन - लहसुन में एल्लिसिन नामक तत्त्व पाया जाता है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है। लहसुन में एंटीऑक्सीडेंट गुण भी होते है। जो षरीर और फेफड़ों से धूलयुक्त कणों को दूर करने में मदद करते हैं। लहसुन संक्रमण से लड़ने में मदद करता है। अस्थमा के रोगियों में यह फेफड़ों की सूजन को कम करता है।
अदरक - अदरक प्रदूषण से होने वाली सांस की बीमारियों से बचाव करता है और फेफड़ों की रक्षा करता हैं।   
हल्दी - हल्दी में कुरकुमिन नामक तत्त्व पाया जाता है जो फेफड़ों की सूजन को कम करता है और अस्थमा के रोगियों को इसके लक्षणों से निजात दिलाता है। 
पानी - पानी पूरे शरीर के साथ-साथ फेफड़ों को हाइड्रेटेड रखता है और फेफड़ों सहित शरीर के सभी अंगों में रक्त परिसंचरण को बढ़ाता है। 
होलिस्टिक चिकित्सा से अस्थमा का इलाज
अस्थमा के बारे में प्राचीन काल से ही कहा जाता है कि दमा दम के साथ ही जाता है। आधुनिक चिकित्सा जगत में हुयी प्रगति तथा तमाम चिकित्सकीय कामयाबियों को अंगूठा दिखाता हुआ दमा आज भी लाइलाज बना हुआ है। लेकिन आज होलिस्टिक चिकित्सा, एक्युपंक्चर एवं योग जैसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां दमा एवं ब्रोंकाइटिस जैसी श्वसन संबंधी बीमारियों के इलाज में कारगर साबित हो रही हैं। 
दुष्प्रभाव पैदा करने वाली शक्तिशाली दवाईयों की तुलना में होलिस्टिक चिकित्सा पूर्णतः सुरक्षित, दुष्प्रभावरहित एवं कारगर विकल्प है। होलिस्टिक चिकित्सा में एक्युपंक्चर, जैव उर्जा, रेकी, प्राणिक हीलिंग एवं योग जैसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है। 
होलिस्टिक चिकित्सा वैकल्पिक, प्राकृतिक, प्राचीन और आधुनिक चिकित्सा पद्धति का सम्मिश्रण है। इस पद्धति से इलाज के तहत मरीज के अंदर मौजूद रोगों से लड़ने वाले तत्वों को सक्रिय किया जाता है। इस पद्धति से इलाज के तहत न तो आपरेशन की जरूरत होती है और न ही मरीज को कोई दवा दी जाती है। 
एक्युपंक्चर चिकित्सा के तहत त्वचा के कुछ खास बिन्दुओं के स्पंदन (स्टीमुलेशन) से शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यकलापों को प्रभावित किया जाता है। इस चिकित्सा में पूरे शरीर में त्वचा के नीचे अवस्थित एक्युपंक्चर बिन्दुओं में अत्यंत पतली सुईयां चुभोकर रोगों को दूर किया जाता है और शरीर के विभिन्न अंगों की कार्यप्रणालियों को दुरूस्त रखा जाता है। माना जाता है कि ये एक्युपंक्चर बिन्दु ऊर्जा चैनलों पर स्थित हैं। एक्युपंक्चर सुईयों को विद्युत ऊर्जा की मदद से भी स्पंदित किया जा सकता है।
एक्युपंक्चर चिकित्सा के तहत बाल जैसी महीन और नरम तथा कीटाणु रहित स्टीरीलाइज्ड पिनों के ऊपर मौक्सा जड़ी को जलाकर 20 से 30 मिनट तक के लिये छोड़ दिया जाता है। इस दौरान मरीज को संबद्ध अंग में संवेदना होती है और वह तनाव रहित महसूस करता है। कई बार मरीज की जरूरत के अनुसार मोक्सा जड़ी-बूटियों को एक्युपंक्चर बिन्दु के ऊपर सेक दिया जाता है। इस विधि को मोक्सीबस्शन कहा जाता है। सुईयों के जरिये विद्युतीय स्पदंन भी दिया जा सकता है। एक्युपंक्चर चिकित्सा की अन्य विधियों में एक्युप्रेशर, गोलाकार प्रोब से टैपिंग और लेजर का भी इस्तेमाल किया जाता है। ये विधियां बच्चों और सुईयों से डरने वाले लोगों के लिये उपयुक्त है। कई मरीजों में दो-तीन बार के उपचार में ही फायदा नजर आने लगता है लेकिन कई बार रोग को जड़ से निकालने में कई माह लग जाते हैं। 
होलिस्टिक चिकित्सा से न सिर्फ दमा का जड़ से सफाया किया जाता है बल्कि इससे रोगी के संपूर्ण स्वास्थ्य में भी आश्चर्यजनक सुधार होता है जिससे उसका जीवन आनन्दमय हो जाता है। इस पद्धति से दमा का इलाज कराने से छात्र, शारीरिक श्रम करने वाले लोग, घरेलू महिला और बड़े-बूढ़े लोगों - हर किसी को समान रूप से फायदा होता है। लेकिन मरीजों को होलिस्टिक चिकित्सा के सुयोग्य एवं प्रशिक्षित विशेषज्ञों के पास ही जाना चाहिये अन्यथा लाभ के बजाय नुकसान हो सकता है। 


(नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में वरिष्ठ होलिस्टिक मेडिसीन विशेषज्ञ डा. रविन्द्र कुमार तुली से बातचीत पर आधारित)


भय का मनोविज्ञान : जो डर गया, समझो मर गया

मृत्यु निश्चित है लेकिन यह जानने के बावजूद हर व्यक्ति को मौत का भय सताता है। गुजरता हुआ जीवन का एक-एक पल मृत्यु की ओर बढ़ता कदम है। हालांकि कुछ लोग दीर्घायु होते हैं और कुछ अल्पायु। किसी की सुसमय मृत्यु होती है और किसी की अकाल मृत्यु, लेकिन जिसका जन्म हुआ है, उसका मरना तय है। इसके बावजदू मृत्यु कैसे होगी, क्यों होगी, कहां होगी, कब होगी आदि प्रश्नों का मन में उठना सहज है और इसलिये मृत्यु को लेकर भय भी स्वभाविक है। प्रत्येक जीव इसे लेकर जन्म-जन्मातर से कष्ट का अनुभव करता रहता है। ऐसे में मौत का स्मरण कर भयातुर होना स्वाभाविक है। यह भय केवल मनुष्यों में ही नहीं सभी जीवों को होती है। इसका कारण यह कि मृत्यु चाहे सहज हो या असहज, यह चिंता एवं पीड़ा का कारण होती है। लेकिन जब यह भय हद से बढ़ जाये तो जीवन मौत के समान हो जाता है। 
कहा जाता है कि हर व्यक्ति की मौत एक बार होनी है लेकिन जो लोग मौत के डर से ग्रस्त होते हैं वे बार-बार मरते हैं। ऐसे लोग हमेशा मौत के भय के साये में जीते हैं। जिनके मन में मौत को लेकर गहरा भय बैठा होता है उनके लिये जीना मुष्किल हो जाता है। मनोविज्ञानिकों ने इसे थोंटोफोबिया नाम दिया है। थोंटोफोबिया अथवा मौत का भय दुनिया भर में लाखों लोगों को अपनी चपेट में लेता हैं। कुछ लोगों में इस डर के कारण एंग्जाइटी अथवा जुनूनी विचार पैदा होते है। मौत के भय के अनेक कारण हो सकते हैं - उम्र, धर्म, एंग्जाइटी, किसी प्रिय व्यक्ति को खोना, धन-सम्पत्ति का नुकसान, दुर्घटना, प्राकृतिक आपदा आदि। जीवन में कुछ खास संक्रमण स्थितियां होती है जब मौत का भय अधिक होता है। आम तौर पर 4 से 6, 10 से 12, 17 से 24 और 35 से 45 की आयु में यह भय अधिक होता है।  
व्यक्ति का भावावेश ''एमिगडाला'' नामक हमारे मस्तिष्क के एक छोटे से हिस्से के द्वारा नियंत्रित होता है। यह हिस्सा केवल हमारी भावनात्मकता से संबंधित है। यह हमारी भावनाओं और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है। जब व्यक्ति भविष्य में होने वाली अनहोनी बातों, मौत या अतीत में हुयी दर्दनाक घटना या दुर्घटना के बारे में सोचता है तो यह भाग अत्यधिक सक्रिय हो जाता है जिससे उस सदमे का प्रभाव व्यक्ति पर गहरा और स्थायी रूप से लंबे समय तक रहता है और उसे दुनिया या अधिकतर स्थितियां भयावह और खतरनाक लगने लगती है। जब इस सदमे का समाधान नहीं किया जाता है तो डर और लाचारी की यह भावना आघात का रूप लेने लगती है।
थोंटोफोबिया से पीड़ित व्यक्ति को मौत को लेकर एक तीव्र किन्तु तर्कहीन डर होता है। कुछ लोगों को मौत को लेकर अधिक डर होने के कई कारण हो सकते हैं। इनमें कुछ कारण हैं - 
— हर व्यक्ति की मृत्यु तय है लेकिन मौत कब, कहां और कैसे होगी इसको लेकर अनिश्चितता के कारण कुछ लोगों के मन में अधिक सवाल उठते हैं और वे मौत को लेकर अधिक जिज्ञासु बन जाते हैं और हमेशा मौत के बारे में सोचते रहते हैं अथवा इसके बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं। मौत को लेकर यह जिज्ञासा एवं उत्सुकता उनके मन में मौत को लेकर अधिक भय पैदा करती है। 
— मौत के बाद के जीवन को लेकर कई कल्पनायें होती है जिनमें से अधिकतर धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होती है। कई धर्मों में कहा जाता है कि इस जन्म के बुरे कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है। ऐसे में कई लोग जाने-अनजाने होने वाले गलत कामों का परिणाम अगले जन्म में या मौत के बाद भुगतने के डर से घिरे रहते हैं। ऐसे लोगों में मौत का डर अधिक होता है। 
— किसी भयानक हादसे या अपने सामने किसी को मरता देखने वाले व्यक्ति को मौत का डर अधिक सताता है। खास कर तब जब ऐसे हादसे या अपने किसी प्रिय के मौत से उस व्यक्ति का जीवन अत्यधिक प्रभावित हुआ हो या उसे गहरा मानसिक आघात पहुंचता है। डाॅ. सुनील मित्तल कहते हैं कि अतीत की दर्दनाक घटनायें हमारे मस्तिष्क पर गहरा छाप छोड़ सकती हैं तथा भावनाओं को बुरी तरह प्रभावित कर सकती हैं। दरअसल हमारा मस्तिष्क ही हमारे हर कार्य और हमारी भावनाओं के लिए उत्तरदायी होता है। मस्तिश्क में कई लोब होते हैं जिसके इससे संबंधित कार्य होते हैं। हमारे मस्तिष्क का दायां हिस्सा भावनात्मक स्थिति और उत्तेजना से जुड़ा होता है। जब किसी व्यक्ति को दर्दनाक घटना या दुर्घटना की याद आती है तो उसका बायीं तरफ का फ्रंटल हिस्सा कार्टेक्स, विशेष रूप से आवाज का क्षेत्र (ब्रोका क्षेत्र) प्रभावित होता है। इसलिए जब कोई व्यक्ति किसी भी दर्दनाक घटना के बारे में सोचता है, तो उसका फ्रंटल लोब बाधित होता है और व्यक्ति की सोचने और बोलने की क्षमता प्रभावित होती है। 
मौत के भय से छुटकारा पाने के कुछ उपाय:
— कला, गीत-संगीत और मनोरंजन का सहारा लें: जब मौत का डर सताये तो आप ऐसे गीत सुन सकते हैं जिससे तनाव दूर होते हों। आप स्नान करके भी इस डर को हटा सकते हैं। आप अपना समय खेल-कूद, मनोरंजन, घूमने-फिरने और अपने काम में लगायें। आप संगीत, पेंटिंग, कविता लेखन जैसे सृजनात्मक कामों में अपना ध्यान लगाकर मौत के भय को कम कर सकते हैं। 
— समय एवं स्थितियों पर गौर करें: जब आप मौत के बारे में सोचना शुरू करते हैं, उस समय को नोट करें। मौत के भय से मुक्ति पाने के लिये यह जानना जरूरी है कि यह कितना और किस हद तक आपके जीवन को प्रभावित कर रहा है। हम अक्सर आसपास मौजूद कारकों अथवा कारणों से अनजान होते है। उन स्थितियों पर गौर करें जिसके कारण आपके मन में ऐसे भय का जन्म हेाता है। आप यह सोचें कि मेरे आसपास क्या हो रहा था जब मेरे मन मे वह भय उत्पन्न हुआ। 
— फालतू विचारों से दूरी बनायें: अव्यवहारिक एवं अनुपयोगी विचारों को कम से कम करने की कोशिश करें। जब आप भविश्य के बारे में सोचते हैं, तो आपके मन में यह सवाल उठता है कि अगर ऐसा हो गया तो क्या होगा। इस तरह के विचार अनुपयोगी हैं जिन्हें कैटास्ट्रोफिजिंग कहा जाता है। ऐसे विचार आपके मन में नकारात्मक भावनायें पैदा करते हैं। ऐसे अनुपयोगी विचारों की जगह पर सकारात्मक विचार अपनायें। मिसाल के तौर पर नकारात्मक विचार यह है - जब आप दफ्तर के लिये देर हो रहे हों तो आप सोच सकते हैं कि देर होने के कारण बाॅस मुझे डांटेगा और नौकरी से भी निकाल देगा। लेकिन इसे आप सकारात्मक तरीके से भी सोच सकते हैं कि अगर बाॅस देर होने के बारे में पूछेंगे तो मैं अधिक ट्रैफिक होने का कारण बताउंगा और कहूंगा कि मैं देर तक रूक कर काम करूंगा। 
— चिंता करने का समय तय करे: मन में यह तय कर लें कि आपके लिये चिंता करने का एक निर्धारित समय होगा। इसके लिये आप चाहें तो दिन में पांच मिनट का समय तय कर सकते हैं जिसमें आप किसी बात को लेकर चिंता करें। ऐसा हर दिन किसी खास समय में करें। हालांकि यह समय सोने के समय के आसपास का तय नहीं करें। अगर आपके मन में किसी और समय नकारात्मक विचार या भय पैदा हों तो आप यह सोचें कि इसके बारे में निर्धारित समय में ही सोचेंगे। 
— प्रिय लोगों के बीच रहें: आप ज्यादातर समय वैसे लोगों के बीच रहें जो आपका ख्याल करते हों और आपको प्यार करते हैं और आपको खुश रखते हो। जब आपका समय अच्छा गुजरेगा तो बाद में आप गुजरे हुये अच्छे समय को याद करके तनाव मुक्त महसूस करेंगे। 
— अपना ख्याल रखें: आप खुद को खराब या खतरनाक स्थितियों में डालने से बचें। धूम्रपान, शराब सेवन, खतरनाक तरीके से गाड़ी चलाने जैसी गतिविधियों से बचें। अच्छे आहार का सेवन करें, व्यायाम करें तथा तनाव मुक्त रहें। 
— भरपूर जीवन जीयें: मौत तो एक दिन आनी ही है, लेकिन मौत के बारे में सोच-सोच कर जीवन को बर्बाद करने से बेहतर यह है कि जीवन का पूरा आनंद लें। 
— अन्य लोगों के साथ अपनी भावनाओं को साझा करें: अपनी भावनाओं, चिंता एवं भय के बारे में अपने प्रिय लोगों के साथ बात करें। इससे आपका मन हल्का होगा। हो सकता है कि अन्य लोग भी इसी तरह की समस्या से गुजरे हों या गुजर रहे हों और वे आपको इस समस्या से निबटने का कोई उपाय सुझा सकते हैं। 
— मनोवैज्ञानिक सहायता: जरूरत पड़ने पर मानसिक चिकित्सक से परामर्श लें। अगर मौत का भय बहुत अधिक गंभीर हो जाये जिसके कारण रोजमर्रे के सामान्य कामकाज करने में दिक्कत हो अथवा जीवन का आनंद उठाने में परेशानी होने लगे तो आपको किसी मानसिक चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिये। जब आप इस भय के कारण असहाय, लाचार, निराश महसूस करने लगें अथवा इस तरह का भय कई महीने तक कायम रहे तो आपको मनोचिकित्सक से इलाज करानी चाहिये। 
मनोवैज्ञानिक चिकित्सा
मनोचिकित्सक मौत के भय को लेकर आपकी भ्रंाति को दूर करने में मदद करेंगे तथा इससे छुटकारा पाने में आपकी मदद करेंगे। यह याद रखें कि इस भय से छुटकारा पाने में काफी समय लगता है। हालांकि कई लोगों को 8 से 10 सेषन में उल्लेखनीय सुधार होता है। इस भय से छुटकारा दिलाने के लिये उपयोग में लायी जाने वाली मनोवैज्ञानिक चिकित्सा विधियां इस प्रकार है: 
काॅग्निटिव बिहैवियरल थिरेपी: अगर आप मरने से डरते हैं तो आपके मन में ऐसे विचार होंगे जो इस भय को तीव्र करते होंगे। काॅग्निटिव बिहैवियरल थिरेपी ऐसी विधि है जिसके जरिये चिकित्सक आपके विचारों को बदलने तथा ऐसे विचारों से जुड़ी भावनाओं की पहचान करने में मदद करते हैं। मिसाल के तौर पर आपको यह सोचकर विमान से यात्रा करने को लेकर भय हो सकता है कि विमान से यात्रा करूंगा तो विमान गिर पड़ेगा या विमान टकरा जायेंगे और आपकी मौत हो जायेगी। लेकिन मनोचिकित्क इस विधि की मदद से आपको यह विश्वास दिलाने की कोशिश करेंगे कि आपका यह विचार तर्कहीन है और वे आपको यह विश्वास दिला सकते हैं कि किसी कार से चलने की तुलना में विमान से यात्रा करना अधिक सुरक्षित है। इस थिरेपी की मदद से आपकी सोच अधिक यर्थाथवादी एवं तर्कपूर्ण होगी। आप यह सोचने लगेंगे कि हजारों लोग रोज विमान से यात्रा करते हैं लेकिन वे सभी सुरक्षित हैं। ऐसे में विमान से यात्रा करने पर मैं भी सुरक्षित रहूंगा। 
एक्सपोजर थिरेपी: अगर आपको मौत का भय सताता है तो आप उन खास स्थितियों, गतिविधियों एवं जगहों से बचें जो आपके मन में ऐसे भय को बढ़ाती हैं। एक्सपोजर थिरेपी आपको ऐसे भय का सामना करने में मददगार साबित होगी। इस थिरेपी में, थिरेपिस्ट आपसे यह कल्पना करने को कहेंगे कि आप उस स्थिति में हैं जिससे आप बचना चाहते हैं अथवा आपको अपने आप को उसी स्थिति में डालने को कहेंगे। मान लीजिये कि आप विमान में चढ़ने से डरते हैं क्योंकि आपको लगता है कि विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जायेगा और आपकी मौत हो जायेगी। आपके थिरेपिस्ट आपसे यह कल्पना करने को कहेंगे कि आप विमान में सवार हैं और आपसे यह पूछेंगे कि आप क्या महसूस कर रहे हैं।
दवाइयां: अगर आपको यह भय इतना अधिक हो जाये कि आपको तीव्र एंग्जाइटी होने लगे तो कुछ दवाइयों का सेवन करने की जरूरत पड़ सकती है। ये दवाइयां भय के कारण होने वाली एंग्जाइटी का उपचार करती है।
योग: कई अध्ययनों में यह साबित हो चुका है कि योगा किसी दर्दनाक घटना से प्रभावित लोगों में उनके लक्षणों को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। ऐसा माना जाता है कि योगा में किसी दर्दनाक घटना या दुर्घटना के कारण होने वाले तनाव से निपटने में हमें शारीरिक और भावनात्मक रूप से मदद करने की क्षमता होती है। किसी भी दर्दनाक घटना के बाद व्यक्ति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है और उसके संवेदी और हार्मोनल प्रणाली पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। ऐसे कई लोग होते हैं जो अपने शरीर में सनसनी के साथ डर का अनुभव करते हैं जो उन्हें खुद को सुरक्षित महसूस करने के लिए महत्वपूर्ण है। दर्दनाक घटना का प्रभाव दर्द, फ्लैशबैक आदि के रूप में होता है। योग के दौरान जब व्यक्ति आसन बदलता है, सांस लेने वाले और गहरे रिलैक्सेशन वाले आसन करता है तो उसके तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क पर शांत प्रभाव पड़ता है जो उसे दर्दनाक घटनाओं से निपटने में मदद करता है।
 (प्रसिद्ध मनोचिकित्सक एवं कास्मोस इंस्टीच्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस (सीआईएमबीएस) के निदेशक डाॅ. सुनील मित्तल से बातचीत पर आधारित)


 


कैसे सेलेक्ट करें सबसे बेहतर बेबी प्रोडक्ट्स

संतान का सुख सबसे कीमती होता है। हर माता-पिता अपने बच्चे के लिये हर तरह की सुविधाओं का ख्याल करते हैं लेकिन वे अक्सर अपने बच्चे के लिये सही प्रोडक्ट (बेबी प्रोडक्ट्स) खरीदने के मामले में दुविधा में पड़ जाते हैं। बाजार अनेक किस्म के बेबी प्रोडक्ट्स से भरे पड़े हैं और उनमें से सही प्रोडक्ट्स का चयन करना अक्सर भ्रामक होता है। बेबी प्रोडक्ट्स खरीदते समय उसकी कीमत की बजाय उसकी सुरक्षा और गुणवत्ता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। आकर्षक रंगों, डिजाइनों और मैनुफैक्चरिंग कंपनियों द्वारा व्यापक मार्केटिंग के लालच में, माता-पिता बेबी प्रोडक्ट्स में कुछ महत्वपूर्ण कारकों को अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं जो बच्चे के हेल्थ के लिए अक्सर गंभीर खतरे पैदा करते हैं। माता-पिता को मैनुफैक्चरिंग कंपनियों, उनकी रेपुटेशन और बेबी प्रोडक्ट्स में इस्तेमाल किये गये मैटेरियल पर खोज-बीन करनी चाहिए, चाहे वे प्रोडक्ट स्किन केयर प्रोडक्ट हों, या कपड़े हों या खिलौने हों, माता-पिता को अपने बच्चे के लिए प्रोडक्ट्स का चयन करते समय सतर्क रहना चाहिए। 
प्लास्टिक से बने कई बेबी प्रोडक्ट्स में जहरीले रसायन होते हैं जो भविष्य में कई गंभीर हेल्थ प्राॅब्लम पैदा कर सकते हैं। प्लास्टिक की बोतलों में जहरीले रासायनिक बिसफिनाॅल ए (बीपीए) होते हैं, जो एक  हानिकारक प्रदूषक है। इसलिए बेबी प्रोडक्ट्स का चयन करते समय किसी भी हानिकारक केमिकल से रहित आर्गेनिक पदार्थों से बने बेबी प्रोडक्ट का चयन करने में ही बुद्धिमानी है। माताएं जब अपने बच्चे के लिए टाॅयलेट के सामान और खिलौने खरीदती हैं तो उन्हें ग्रीन बेबी प्रोडक्ट का चयन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सबसे सुरक्षित बेबी प्रोडक्ट ही बच्चे के लिए सर्वश्रेष्ठ साबित होते हैं चाहे उनकी कीमत  और रूप-रंग कैसा भी हो।
कैसे करें सबसे बेहतर बेबी प्रोडक्ट्स का चयन? 
बच्चे के विकास के विभिन्न स्टेज में बाथिंग किट, टाॅयलेट के सामान, फीडिंग बाॅउल और खिलौने जैसे कई प्रकार के बेबी प्रोडक्ट की जरूरत पड़ती है। 
— बेबी बाथ स्पंज का चयन करते समय, काॅटन से बने स्पंज या पूरी तरह से काॅटन टाॅवल का चयन करें। बच्चे के लिए, पहले से इस्तेमाल किये गये बाथ टाॅवल या कई फैब्रिक्स से बने स्पंज का इस्तेमाल न करें। नवजात शिशु की स्किन बेहद संवेदनशील होती है और जरा सी लापरवाही से उस पर रैशेज होने की संभावना होती है।
— बायो-डिग्रैडेबल डायपर में सोखने की अधिक क्षमता होती है और यह त्वचा को नरम और कोमल बनाए रखता है। यह शरीर के निचले हिस्से का सूखा रखता है जिससे यह डायपर के कारण होने वाले रैशेज की रोकथाम करता है।
— बच्चे के थोड़ा बढ़ने पर, वे चबाना शुरू कर देते हैं और उनकी पहुंच में जो भी चीजें आती हैं वे मुंह में डाल लेते हैं। इसलिए बच्चे के षरीर में हानिकारक रसायन के प्रवेश को रोकने के लिए बेबी बाथ सीट, बाथ टब, चूइंग टाॅय्ज और साॅफ्ट टाॅय्ज का नाॅन-टाॅक्सिक पदार्थों और रंगों से बना होना आवश्यक है।
— आर्गेनिक पदार्थों से बने बेबी प्रोडक्ट का ही चयन करें। कुछ ब्रांडेड बेबी शैंपू और बाॅडी लोशन में फार्मलडिहाइड और अन्य कैंसरस पदार्थ होते हैं। इन बेबी प्रोडक्ट में मिलाये गये फ्रैगरेंस और परफ्युम से बच्चे में एलर्जी हो सकती है। बेबी प्रोडक्ट का चयन करते समय उसमें इस्तेमाल किये गये मैटेरियल को ध्यान पूर्वक पढ़ें और उसके बारे में जानकारी हासिल करें। इसके अलावा आर्गेनिक बेबी प्रोडक्ट के बारे में कुछ आॅन लाइन रिसर्च करें।
— फीडिंग बाउल और बोतल को खरीदते समय भी इसी तरह की सतर्कता बरतें। हालांकि प्लास्टिक की बोतल टूटते नहीं हैं और लंबे समय तक चलते हैं, लेकिन इनमें हानिकारक केमिकल शामिल हो सकते हैं।
बेबी प्रोडक्ट की लिस्ट की कोई सीमा नहीं है। माता-पिता को प्रतिष्ठित मैनुफैक्चरर और स्थापित ब्रांडों के बेबी प्रोडक्ट ही खरीदने चाहिए। विज्ञापन निराधार और बड़े-बड़े दावे कर सकते हैं। इसलिए माता-पिता को विशेषकर बेबी प्रोडक्ट का चयन करते समय किसी भी प्रलोभन में आने से बचना चाहिए।


 


इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज

इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज (आईबीडी) में पाचन तंत्र के सभी हिस्सों में या कुछ हिस्सों में इंफ्लामेषन हो जाता है जिसके कारण रोगी के पेट में दर्द होता है। इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज के कारण कई प्रकार की समस्याएं पैदा हो सकती है और लंबे समय तक इसका इलाज नहीं कराने पर कोलोन कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।
प्रकार
इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोहन डिजीज। क्रोहन डिजीज का इंफ्लामेशन पाचन तंत्र के किसी भी हिस्से -मुंह से लेकर गुदा तक कहीं भी हो सकता है। इसके विपरीत अल्सरेटिव कोलाइटिस में इंफ्लामेशन सिर्फ बड़ी आंत या गुदा में होता है। हालांकि इन दोनों स्थितियों में काफी अंतर होता है लेकिन इनके लक्षणों में काफी समानता होती है।
लक्षण
अल्सरेटिव कोलाइटिस और क्रोहन रोग के लक्षण लगभग एक समान होते है। इनके मुख्य लक्षण हैं: 
— पेट में दर्द या ऐंठन।
— प्रति दिन कई बार दस्त होना।
— दस्त के साथ रक्त का आना।
— बुखार तथा जोड़ों में दर्द
— भूख न लगना
— थकान
— वजन में कमी।


कारण
इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज की दोनों स्थितियां- क्रोहन रोग और अल्सरेटिव कोलाइटिस होने के कारण अब तक अज्ञात हैं। ये दोनों स्थितियां क्रोनिक और गंभीर हो सकती है। पहले, इसका कारण आहार और तनाव को माना जाता था, लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि आहार और तनाव जैसे कारक इस बीमारी को बढ़ा सकते हैं लेकिन इस बीमारी को पैदा करने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
इसका एक संभावित कारण प्रतिरक्षा प्रणाली में खराबी आना है। जब हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली वायरस या जीवाणु को शरीर में प्रवेश करने से रोकने के लिए उनका मुकाबला करती है, तो प्रतिरक्षा प्रणाली की असामान्य प्रतिक्रिया पाचन तंत्र में कोशिकाओं पर भी प्रहार करने का प्रयास करती है। इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज में आनुवंशिकता भी मुख्य भूमिका निभाती है। इसलिए यह इस बीमारी के इतिहास वाले लोगों में अधिक सामान्य होती है। हालांकि इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज वाले अधिकतर रोगियों में इसका पारिवारिक इतिहास नहीं होता है। लेकिन विभिन्न शोधों में जीन और पर्यावरण कारक इसके लिए जिम्मेदार पाये गये हैं।
इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज के लिए जिम्मेदार कुछ मुख्य कारक हैं -
— जीवन शैली- आरामतलब जीवन शैली, धूम्रपान और खान-पान की गलत आदतों के कारण इस बीमारी के होने का खतरा अधिक रहता है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में भी पश्चिमी देशों की जीवन शैली को अपनाने के कारण इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज के मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है।
— धूम्रपान- आम धारणा के विपरीत धूम्रपान करने वाले लोगों में अल्सरेटिव कोलाइटिस होने का खतरा कम होता है जबकि इसके विपरीत क्रोहन डिजीज के लिए धूम्रपान मुख्य रूप से जिम्मेदार होता है और इनके लक्षणों को बदतर बना सकता है।
— पारिवारिक इतिहास- परिवार में इस बीमारी का इतिहास रहने पर इसका खतरा बढ़ता है। अल्सरेटिव कोलाइटिस के लिए 30 जीन को जिम्मेदार पाया गया है और क्रोहन डिजीज के लिए 71 आनुवंशिक कारण जिम्मेदार पाये गये हैं। 
— आयु- पहले 50 से 60 वर्श के लोगों में ही इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज के मामले देखने को मिलते थे लेकिन अब किशोरों और युवाओं में भी इसके मामले देखने को मिल रहे हैं। अब तो इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज के करीब 15 प्रतिषत रोगी 18 वर्श से कम उम्र के होते हैं और उनमें यह बीमारी अधिक गंभीर रूप धारण कर लेती है। 
— अपेंडेेक्टाॅमी- अपेंडिसाइटिस से पीड़ित 20 साल से कम उम्र के लोगों में अपेंडिक्स को निकाल दिये जाने पर अल्सरेटिव कोलाइटिस का खतरा कम हो जाता है और उनमें यह रोग अधिक गंभीर नहीं होता है। इसके अलावा अपेंडेक्टाॅमी क्रोहन डिजीज की शुरुआत में भी देरी करता है। इसका संबंध प्रतिरक्षा प्रणाली से हो सकता है।
— परजीवी के संपर्क में रहना- आंत्र परजीवी के संपर्क में रहने पर इसका खतरा कम हो सकता है। दरअसल मानव प्रतिरक्षा प्रणाली की रचना इस प्रकार हुई है कि वह परजीवियों से लड़ सके, लेकिन विकसित देशों के लोग बेहतर रहन-सहन के कारण मुश्किल से वर्म के संपर्क में आते हैं और जब वे वर्म के संपर्क में आते हैं तो इस रोग से पीडित हो जाते हैं।
— आहार- कुछ शोधों में पाया गया है कि अधिक मात्रा में प्रोटीन विशेषकर पशु प्रोटीन का सेवन करने वाली महिलाओं में क्रोहन डिजीज का खतरा बढ़ जाता है। अन्य अध्ययनों में भी अधिक वसा और शुगर वाले आहार का इस बीमारी से संबंध पाया गया है।
इलाज
इंफ्लामेट्री बाउल डिजीज के इलाज के तहत इसके लक्षणों को बढ़ाने वाले इंफ्लामेशन को कम किया जाता है। इसका इलाज या तो दवाइयों से किया जाता है या फिर सर्जरी की जाती है। इसके तहत चिकित्सक सबसे पहले अमीनोसैलिसाइलेट्स और कार्टिकोस्टेराॅयड्स जैसी एंटी- इंफ्लामेट्री दवाइयां देते हैं। लेकिन चूंकि इन दवाइयों के अधिक दुष्प्रभाव होते हैं  इसलिए इन्हें लंबे समय तक नहीं लिया जा सकता है। इनके अलावा इम्यून सिस्टम सप्रेसर भी दी जाती हैं। ये दवाइयां भी इंफ्लामेशन को कम करती हैं। लेकिन ये दवाइयां इंफ्लामेशन को सीधे कम करने की बजाय इम्यून सिस्टम को लक्ष्य करती है और इंटेस्टाइनल लाइनिंग में इंफ्लामेशन को इन्ड्येस करने वाले रसायन को छोड़ने वाले इम्यून सिस्टम को सप्रेस करती हैं। बुखार से पीड़ित अल्सरेटिव कोलाइटिस के रोगियों से संक्रमण को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां भी दी जाती है। इसके अलावा लक्षणों के आधार पर दस्त को रोकने, दर्द को कम करने वाली दवाइयां और आयरन, विटामिन बी 2, कैल्शियम, विटामिन डी सप्लिमेंट आदि भी दी जाती है।
इसके अलावा रोगी को अपने खान-पान और रहन-सहन में सुधार करने की भी सलाह दी जाती है। लेकिन इसके बावजूद जब रोगी को फायदा नहीं होता है तो सर्जरी की सलाह दी जाती है। 
अल्सरेटिव कोलाइटिस के लिए सर्जरी
अल्सरेटिव कोलाइटिस में अक्सर पूरे कोलोन और रेक्टम को निकाला जाता है। यह प्रक्रिया प्रोक्टोकोलेक्टाॅमी कहलाती है। अधिकतर मामलों में इलियोएनल एनास्टोमोसिस प्रक्रिया की जाती है जिसके तहत सर्जन मल को जमा करने के लिए छोटी आंत के आखिरी में एक पाउच का निर्माण करते है और इस पाउच को सीधे गुदा से जोड़ दिया जाता है ताकि रोगी सामान्य ढंग से मल त्याग कर सके। कुछ रोगियों में पाउच का निर्माण करना संभव नहीं होता। ऐसी स्थिति में सर्जन पेट में एक स्थायी ओपनिंग बना देते हैं जिससे होकर मल इससे जुड़े बैग में जमा होता है।
क्रोहन डिजीज के लिए सर्जरी
क्रेाहन डिजीज के आधे से अधिक रोगियों में सर्जरी की जरूरत होती है। सर्जरी के दौरान सर्जन रोगी के पाचन तंत्र के क्षतिग्रस्त हिस्से को निकालकर इसे फिर से स्वस्थ हिस्से से जोड़ देते हैं। क्रोहन डिजीज के लिए स्ट्रिक्चरप्लास्टी नामक प्रक्रिया भी की जाती है जिसके तहत संकरी आंत के हिस्से को चैड़ा किया जाता है। लेकिन इसका लाभ अस्थायी रूप से होता है और कुछ समय के बाद उससे जुड़े उतकों में बीमारी फिर से हो जाती है। इसलिए इसके दोबारा होने के खतरे को कम करने के लिए रोगी को सर्जरी के साथ दवा भी देते रहने की जरूरत होती है
रोकथाम 
इस बीमारी से बचने के लिये आरामतलब जीवन शैली, धूम्रपान और खान-पान की गलत आदतों से परहेज करना चाहिये। अधिक प्रोटीन युक्त विषेशकर पशु प्रोटीन, वसा और शुगर वाले आहार से परहेज करना चाहिये। 
 


 


मेनोरेजिया : लापरवाही पड़ सकती है भारी

माहवारी के दौरान अत्यधिक रक्तस्राव होना कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का लक्षण है, लेकिन महिलाओं को निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इन समस्याओं का अब कारगर इलाज मौजूद है ...
जब किसी महिला को माहवारी के दौरान रक्त के साथ रक्त के थक्के (क्लॉट्स) सामान्य से अधिक सात से ज्यादा दिनों तक निकलते हैं, तो इस स्थिति को अत्यधिक मासिक रक्तस्राव या मेनोरेजिया कहा जाता है।
समस्याएं:
अत्यधिक रक्तस्राव के कारण महिला खून की कमी (एनीमिया) की समस्या से ग्रस्त हो सकती है। इस वजह से वह कमजोरी महसूस करती है और कई मामलों में उसके जीवन के लिये खतरा भी पैदा हो सकता है।
कारण:
असामान्य रूप से अत्यधिक मासिक रक्तस्राव अनेक कारणों से हो सकता है,जिसका रोग के स्वरूप के अनुसार इलाज किया जाता है..
1. हार्मोन संबंधी गड़बड़ियां: इनके अंतर्गत थायरॉयड संबंधी समस्या या अंडाशय (ओवरी)से अंडाणु (एग) का नहीं निकलना या पॉली सिस्टिक ओवरी डिजीज (पीसीओडी) को शामिल किया जाता है। इन कारणों की जांच रक्त परीक्षणों और अल्ट्रासाउंड के जरिये आसानी से हो सकती है और दवाओं के जरिये इलाज संभव है।
2. गर्भाशय संबंधी समस्याएं: गर्भाशय में फाइब्रॉइड, पॉलिप या अन्य विकृतियां होने के कारण अत्यधिक मासिक रक्तस्राव हो सकता है। इन सभी का उपचार 'कीहोल सर्जरी' के जरिये आसानी से हो सकता है। लैप्रोस्कोपी मायोमेक्टॅमी के माध्यम से किसी भी आकार के और एक से अधिक फाइब्रॉइड को निकाला जा सकता है। जबकि हिस्टेरोस्कोपी के जरिये गर्भाशय की कैविटी में मौजूद पॉलिप व अन्य विकृतियों को हटाया जा सकता है।
3 कैंसर का खतरा: असामान्य रक्तस्राव की कभी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस तरह का रक्तस्राव सर्विक्स (गर्भाशय मुख का कैंसर) और गर्भाशय कैंसर का लक्षण हो सकता है। आज लैप्रोस्कोपी (की होल सर्जरी) के जरिये कैंसर सर्जरी सफलतापूर्वक की जा रही है।
4. अन्य कारण: अत्यधिक मासिक रक्त स्राव के अन्य कारण भी हो सकते हैं, जैसे गर्भपात। स्त्री रोग विशेषज्ञ इन कारणों की आसानी से जांच कर सकती हैं।
इलाज:
जब रक्तस्राव के किसी कारण का पता नहीं चलता है तो इसे डीयूबी (डिसफंक्शनल यूटेराइन ब्लीडिंग) कहा जाता है। डीयूबी के उपचार के लिए कई और भी तरीके हैं। जैसे आधुनिक इंट्रा यूटेराइन उपकरणों के द्वारा, इंजेक्शन या खाने वाली दवाओं के रूप में। जब उपचार की सभी विधियों से पीड़ित महिला को राहत नहीं मिलती, तब अंतिम उपाय के रूप में हिस्टेरेक्टॅमी (गर्भाशय निकालना) की जरूरत पड़ सकती है।
जिन महिलाओं का पूर्व में ऑपरेशन के जरिये बच्चा हो चुका है, उनमें भी लैप्रोस्कोपी के जरिये गर्भाशय निकाला जा सकता है। लैप्रोस्कोपी का फायदा यह है कि महिला को केवल एक दिन अस्पताल में रहने की जरूरत होती है, रक्त की बहुत कम क्षति होती है, रक्त चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती और कम से कम दर्द होता है। याद रखें, महिलाएं पूरे परिवार के लिए स्वास्थ्य की धुरी होती हैं। इसलिए उनके स्वास्थ्य के संदर्भ में किसी भी तरह की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।


जब गर्भाशय हो छोटा

छोटे गर्भाशय की समस्या जन्मजात होती है और ऐसी समस्या होने पर गर्भधारण एवं प्रसव में दिक्कत हो सकती है अथवा इस समस्या से प्रभावित महिला का गर्भपात हो सकता है। छोटे गर्भाशय की समस्या कई तरह की होती है और यह जरूरी नहीं कि जिन महिलाओं को यह समस्या है उन्हें गर्भधारण या संतान जनने में दिक्कत होगी ही। कई महिलाओं में गर्भाशय का आकार छोटा होता है लेकिन ओवरी के फंक्शन सामान्य होते हैं। ऐसे में गर्भधारण के बाद गर्भाशय का आकार अपने आप जरूरत के अनुसार बढ़ जाता है। 
गर्भाशय की संरचना
गर्भाशय सबसे महत्वपूर्ण प्रजनन अंग है जिसमें भू्रण का विकास होता है। यह 7.5 सेमी लम्बा और 5 सेमी चौड़ा होता है तथा इसकी दीवार 2.5 सेमी मोटी होती है। इसका वजन लगभग 35 ग्राम तथा इसकी आकृति नाशपाती के आकार के जैसी होती है। इसका चौड़ा भाग ऊपर फंडस तथा पतला भाग नीचे इस्थमस कहलाता है। महिलाओं में यह मूत्र की थैली और मलाशय के बीच में होता है। गर्भाशय का झुकाव आगे की ओर होने पर उसे एन्टीवर्टेड कहते है अथवा पीछे की तरफ होने पर रीट्रोवर्टेड कहते है। गर्भाशय के झुकाव से बच्चे के जन्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस्थमस नीचे योनि में जाकर खुलता है। इस क्षेत्र को औस कहते है। यह 1.5 से 2.5 सेमी बड़ा तथा ठोस मांसपेशियों से बना होता है। महिलाओं के गर्भाशय की मांसपेशियों को प्रकृति ने एक अद्भुत क्षमता प्रदान की है। वह गर्भावस्था के दौरान आवश्यकता के अनुसार फैल सकती है।
छोटे गर्भाशय की समस्या 
छोटे गर्भाशय की समस्या कई तरह की होती है। कुछ मामलों में समस्या अधिक नहीं हाने पर महिला को गर्भ धारण करने और प्रसव में दिक्कत नहीं होती है, लेकिन एजेनेसिस और यूनिकोरनुएट यूटेरस की समस्या होने पर गर्भ धारण करने और प्रसव में दिक्कत आ सकती है या गर्भपात हो सकता है।
एजेनेसिस - कुछ महिलाओं में योनि ठीक तरीके से नहीं बनती है या योनि बहुत छोटी होती हैं ऐसे में या तो बहुत छोटा गर्भाषय होता है या गर्भाशय होता ही नहीं है। इस समस्या का पता तब चलता है जब लड़की का पीरियड शुरू नहीं होता है। इसे एजेनेसिस कहते हैं। यह बहुत ही दुर्लभ स्थिति है। अनुमान है कि चार हजार से लेकर दस हजार में से एक महिला को यह समस्या होती है। इस समस्या के होने पर शादी होने के बाद महिला को यौन क्रिया में कष्ट होता है। इस स्थिति के इलाज के लिये सर्जरी करने की जरूरत होती है। ऐसी महिलाओं के लिये मां बनने का एक ही उपाय सरोगेसी है जिसमें किसी अन्य महिला की कोख की सहायता ली जाती है।
यूनिकोरनुएट यूटेरस
कई महिलाओं में सामान्य गर्भाशय के आधे आकार का गर्भाषय होता है तथा एक फैलोपियन ट्यूब होती है। इसे यूनिकोरनुएट यूटेरस कहा जाता है। यह बहुत ही दुर्लभ किस्म की गड़बडी है और आम आबादी में एक हजार महिलाओं में से केवल एक महिला को यह गड़बड़ी होती है। यह समस्या जीवन के आरंभिक अवस्था में ही षुरू हो जाती है। इसमें गर्भाशय का निर्माण करने वाले उतक समुचित तरीके से विकसित नहीं हो पाते हैं। जिन महिलाओं में यह समस्या होती हैं उनमें आम तौर पर दो ओवरी होती हैं जिनमें से केवल एक गर्भाशय से जुड़ी होती हैं हालांकि अगर गर्भाशय से जुड़ी ओवरी स्वस्थ्य हो तो गर्भधारण करना संभव होता है लेकिन इसमें गर्भपात का खतरा होता है। 
जांच 
गर्भाशय के आकार की जांच के लिये एक्सरे की जाती है, जिसे हिस्टेरोसैलपिंगोग्राम कहा जाता है। इसकी मदद से गर्भाशय की कैविटी तथा फलोपियन ट्यूब की आकृति का पता चल जाता है और इसकी मदद से ट्यूब्स एवं यूटेरस की अनियमितताओं का पता चल जाता है। इस एक्स रे की सुविधा ज्यादातर जगहों पर उपलब्ध है। यह आसान एवं सुरक्षित जांच है। इसके अलावा एमआरआई अथवा 3डी स्कैन की मदद से गर्भाषय में गड़बडियों का पता चल जाता है। 
इलाज
गर्भाशय के आकार संबंधी सभी गबड़ियों के लिये इलाज की जरूरत नहीं होती है। कई मामलों में सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन सर्जरी के जोखिम हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में आईवीएफ, सेरोगेसी अथवा गोद लेने के विकल्प पर विचार किया जा सकता है। 


बच्चे के जन्म के बाद खुद की भी करें देखभाल

अब तक, मां अपने नए बच्चे की देखभाल पर ही ध्यान दे रही थीं। लेकिन आज की नयी मां को अब बच्चे को जन्म देने और स्तनपान कराने के दौरान अपने शरीर का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। ऐसा करने से आपको अपनी ऊर्जा और ताकत को हासिल करने में मदद मिलेगी। जब आप अपना ख्याल रखेंगी, तभी आप अपने बच्चे की अच्छी तरह से देखभाल कर पाएंगी और बच्चे का आनंद ले पाएंगी।
बच्चे के जन्म के बाद के कुछ सप्ताह को प्रसवोत्तर अवधि कहा जाता है। इस समय के दौरान आपके शरीर में कई प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इसलिए अपने बच्चे के जन्म के बाद नियमित प्रसवोत्तर जांच के लिए दो से छह सप्ताह तक अपने डॉक्टर के पास अवष्य जाएं।
योनि में टांके की देखभाल करें
यदि आपकी योनि में टांके लगे हैं, तो उस क्षेत्र को बहुत साफ रखना जरूरी है। टांके को पूरी तरह से भरने में करीब चार सप्ताह लग जाते हैं। टांके को निकालना नहीं चाहिए।
हर बार जब आप शौचालय का इस्तेमाल करती हैं तो निम्न बातों पर ध्यान दें:
— अपने शरीर के निचले हिस्से की सफाई करें और सफाई के लिए अस्पताल में मिले फुहार वाली बोतल का इस्तेमाल करें। इससे आपके टांके को जल्द भरने में मदद मिलेगी। जब तक आपके टांके पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाते हैं इस पर अमल करें।
— मल त्याग करने के बाद, आगे से पीछे की ओर सफाई करें और इसके लिए भी फुहार वाली बोतल का इस्तेमाल करें।
अपने स्तन की देखभाल करें 
आप अपने बच्चे को चाहे स्तनपान करा रही हों या बोतलपान करा रही हों, अपने बच्चे के जन्म के बाद आपको अपने स्तन की विशेष देखभाल करना जरूरी है।
बोतलपान करा रही माताओं को भी अपने बच्चे के जन्म के बाद अपने स्तनों की विशेष देखभाल की जरूरत होती है। कुछ माताओं के स्तन दूध आने के बाद और अपने बच्चे को स्तनपान नहीं कराने के कारण बहुत गर्म और कड़ा हो जाते हैं और उनमें सूजन आ जाती है। लेकिन एक या दो दिन में सूजन आम तौर पर ठीक हो जाती है।
आप सुविधा के लिए कुछ चीजें कर सकती हैं:
— अपने स्तन पर 15 या 20 मिनट तक आइस पैक रख सकती हैं।
— यदि बर्फ से कोई मदद नहीं मिलती है तो धुले हुए गर्म कपड़े रख सकती हैं।
— कुछ मिनट के लिए बच्चे को अपने स्तन के पास रख सकती हैं।
योनि स्राव
बच्चे के जन्म के बाद कुछ दिनों तक योनि से कुछ रक्तस्राव होना सामान्य है।
— प्रसव के बाद आम तौर पर तीन से चार दिनों तक चमकीला लाल रंग का रक्त आता है, लेकिन यह दो सप्ताह तक भी आ सकता है।
— चमकदार लाल रक्तस्राव धीरे-धीरे गहरे लाल रंग में और फिर पीला और उसके बाद सफेद रंग में बदल जाता है।
— आपको सफेद स्राव दो से छह सप्ताह तक आ सकता है।
— इस दौरान आप टेम्पून नहीं, बल्कि सैनिटरी पैड पहनें।
— डूश न करें।
यदि आपको किसी प्रकार का बदबूदार स्राव हो रहा हो या स्राव के कारण खुजली हो रही हो या जलन हो रहो हो तो आप अपने डॉक्टर से संपर्क करें।
मूड में बदलाव
अपने बच्चे के जन्म के बाद कई महिलाएं अपने मूड में अचानक बदलाव महसूस करने लगती हैं। आप एक मिनट बहुत खुषी महसूस कर सकती हैं तो अगले ही मिनट आपको रोना आ सकता है। गहरे प्यार की भावनाएं तुरंत क्रोध में बदल सकती हैं।
इनमें से कई भावनात्मक उतार-चढ़ाव आपके शरीर में हार्मोन में परिवर्तन की वजह से हो सकते हैं। मूड में कुछ बदलाव शुरुआती सप्ताह में एक नए बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी के परिणाम स्वरूप हो सकते हैं। इन दिनों मूड में बदलाव आना सामान्य बात है।
जब आपके हार्मोन का स्तर वापस सामान्य हो जाएगा और आप इस बच्चे की मां होने की अभ्यस्त हो जाएंगी, तो आपके मूड में कम बदलाव रहने की संभावना होती है। यदि आप अपने अलग महसूस करने या अपने क्रियाकलापों को लेकर चिंतित हैं, तो अपने चिकित्सक, काउंसलर, शुभचिंतक या करीबी दोस्त से मदद ले सकती हैं।
यदि आप उदास, डिप्रेशन ग्रस्त महसूस कर रही हैं या आपको लगता है कि आप खुद को या अपने बच्चे को नुकसान पहुंचा सकती हैं, तो तुरंत अपने डॉक्टर या नर्स को बुलाएं। कई महिलाओं को प्रसवोत्तर अवसाद (या प्रसवोत्तर 'ब्लूज') होता है और किसी से मदद लेने से इसमें लाभ होता है।
मल त्याग से संबंधित परेशानियां
आपको अपने बच्चे के जन्म के बाद पहले कुछ हफ्तों तक कब्ज रह सकता है।
— हर दिन 8 से 12 गिलास तरल पदार्थ का सेवन करें। पानी, जूस और गर्म तरल के सेवन से आपको कब्ज से राहत मिल सकती है।
— हर रोज फाइबर युक्त भोजन करें। साबुत अनाज के ब्रेड और अनाज, सब्जियां, सलाद और कच्चे फल फाइबर युक्त भोजन के अच्छे विकल्प हैं।
— जब आपको मल त्याग करने की इच्छा महसूस होती है तो आप रोके नहीं। अपने षरीर के संकेतों और प्रतिक्रिया पर ध्यान दें। आपको अपने टांके के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। जब आप समय पर मल त्याग करेंगी तब वे नहीं टूटेंगी।
बच्चे के जन्म के बाद दर्द
कुछ महिलाओं को पेट के निचले हिस्से में ऐंठन होती है जिसे 'बच्चे के जन्म के बाद का दर्द' कहते हैं। यह आपके दूसरे या बाद के बच्चे के जन्म के बाद या जब आप बच्चे को स्तनपान करा रही होती हैं, तो यह सामान्य होता है। यह 'दर्द' इस बात का संकेत है कि आपका गर्भाशय सामान्य स्थिति में लौट रहा है। बच्चे के जन्म के बाद कुछ दिनों तक आम तौर पर दर्द होता रहता है।
यदि आपको 'बच्चे के जन्म के बाद के दर्द' से बहुत अधिक परेशानी हो रही हो, तो अपने डॉक्टर या नर्स से बात करें।
आराम और गतिविधि
नयी माता के रूप में, आपके लिए अपनी जरूरत के अनुसार आराम करना काफी मुश्किल हो सकता है, विशेषकर जब आपके घर में पहले से ही बच्चा हो। बच्चा रात में भी कई बार दूध पिलाने के लिए आपको जगाएगा।
बहुत अधिक करने या और अधिक किये जाने की उम्मीद न करें। आपकी प्राथमिकता बच्चे की देखभाल और अपना ख्याल रखना होना चाहिए।
— दिन में थोड़ी देर झपकी लेने की कोशिश करें, विशेषकर जब बच्चा सो रहा हो, तो आप भी थोड़ी देर सो लें।
— यदि आप सिर में हल्कापन, कमजोरी या थकावट महसूस कर रही हैं, तो ड्राइविंग के लिए कम से कम एक सप्ताह तक या और अधिक समय तक इंतजार करें। 
— ताजी हवा और व्यायाम के लिए बाहर (यहां तक कि ठंड के दिनों में भी) जाने की आदत डालें।
— चलना एक अद्भुत व्यायाम है जिससे आप बेहतर महसूस कर सकती हैं। शुरू में धीमी गति से चलना शुरू करें और धीरे- धीरे अपनी गति बढ़ाएं और रोजाना कम से कम 20 से 30 मिनट तक चलने की कोशिश करें।
— भारी काम करने से बचें। इससे आप थकावट महसूस करेंगी। 
यौन संबंध
अपने आप को समय दीजिए। आपके सेक्स करने से पहले आपके शरीर को पूर्ववत सामान्य अवस्था में आने के लिए कुछ समय की जरूरत है। अलग-अलग लोगों के लिए इसके समय में अंतर हो सकता है। आपको यौन संबंध स्थापित करने से पहले अपने प्रसवोत्तर जांच के लिए अपने चिकित्सक के पास जाना चाहिए।
प्रसव के बाद शुरू में आपकी योनि शुष्क महसूस हो सकती है, विशेषकर जब आप स्तनपान करा रही होती हैं। यौन संबंध को अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए लुब्रिकेंट का इस्तेमाल करें, यौन संबंध के दौरान अत्यधिक प्यार प्रकट करें और विशेष स्थिति (जैसे महिला का उपर होना) अपनाने का प्रयास करें।
याद रखें: आप अपने बच्चे के जन्म के बाद जल्द ही गर्भवती हो सकती हैं। आपके मासिक धर्म फिर से शुरू होने के कोई लक्षण प्रकट हुए बगैर ही आप अंडोत्सर्ग (अंडे का निकलना) कर सकती हैं और आप बच्चे पैदा करने में सक्षम हो सकती हैं।
बालों का झड़ना
गर्भावस्था के बाद बालों का झड़ना (कभी- कभी गुच्छे में झड़ना) एक आम समस्या है। बच्चे को जन्म देने के बाद कई नयी माताएं तीन से छह महीने तक ऐसा अनुभव करती हैं।
गर्भावस्था के दौरान हार्मोन उन बालों को गिरने से रोके रखता है और जब वे हार्माेन वापस अपनी सामान्य स्थिति में आ जाते हैं तो अतिरिक्त बाल भी झड़ने लगते हैं।
परेशान न हों: बाल झड़ने के कारण आप गंजा नहीं हो जाएंगी। आप सिर्फ अपनी सामान्य स्थिति में वापस आ रही हैं। यदि आप स्तनपान करा रही हैं तो जब तक आप फार्मूला या ठोस के साथ सप्लिमेंट लेना शुरू नहीं कर देती है तब तक आपके बाल झड़ सकते हैं। 
— पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक आहार का सेवन कर और बच्चे के जन्म के पूर्व विटामिन सप्लिमेंट लेकर अपने बालों को स्वस्थ रखें।
— गर्भावस्था के बाद अधिक बाल को झड़ने से रोकने के लिए अपने बालों के झड़ने के मौसम के दौरान अधिक सतर्कता बरतें। शैम्पू का इस्तेमाल तभी करें जब आवष्यक हो और शैम्पू करने के बाद अच्छे कंडीशनर का इस्तेमाल करें। बालों को सुलझाने के लिए दूर-दूर दांत वाली कंघी का इस्तेमाल करें।
— बालों के झड़ने के रूकने तक आप ब्लो- ड्रायर्स और कर्लिंग और फ्लैट आयरन का इस्तेमाल रोक दें और किसी भी रसायन युक्त उपचार से दूर रहें।
— यदि आपके बाल ज्यादा झड़ रहे हों, तो अपने चिकित्सक से बात करें। यदि इसके साथ अन्य लक्षण भी प्रकट हो रहे हों, तो गर्भावस्था के बाद बालों का झड़ना प्रसवोत्तर थायराॅयडिटिस का संकेत हो सकता है। 


लेजर किरणें करेगी तिल का सफाया

तिल हालांकि स्वास्थ्य की  दृष्टि से अहानिकर धब्बे (लीशन) हैं लेकिन ये चेहरे और शरीर के खुले रहने वाले अंगों की खूबसूरती बिगाड़ देते हैं। चिकित्सकीय भाषा में इन्हें मेलानोसाइटिक अथवा पिगमेंटेड नैवी कहा जाता है। 
तिल त्वचा पर समतल या उभरे हुये हो सकते हैं। इनके आकार एवं रंग अलग-अलग हो सकते हैं। ये गुलाबी, गहरे भूरे से लेकर काले रंग के हो सकते हैं। किस व्यक्ति को कितने और किस तरह के तिल होंगे यह आनुवांशिक कारणों और धूप के संपर्क पर निर्भर करता है। तिल का उगना जन्म के बाद से ही शुरू हो जाता है लेकिन नये तिल किसी भी उम्र में उग सकते हैं। धूप में अधिक समय तक रहने तथा गर्भावस्था के दौरान तिल का रंग काला होता जाता है। वयस्क होने पर तिल रंग छोड़ सकते हैं और अधिक उम्र में ये गायब भी हो सकते हैं। 
जन्म के समय से मौजूद तिल को कंजेनिटल पिगमेंटेड नेवस कहा जाता है। अनुमानों के अनुसार करीब एक सौ शिशुओं में से एक शिशु को जन्म से ही तिल होता है। जन्मजात तिल का आकार अलग-अलग हो सकता है। कुछ तिल का व्यास कुछ मिलीमीटर हो सकता है जबकि कुछ शिशु की पूरी त्वचा के आधे हिस्से में फैला हो सकता है। बहुत बड़े तिल के बाद में कैंसर में तब्दील होने की आशंका होती है। इसलिये जन्मजात तिल में कोई बदलाव नजर आने पर चिकित्सक से जांच करानी चाहिये। 
कई बार तिल के चारों तरफ की त्वचा रंग खोकर सफेद हो जाती है। इस स्थिति को हालो नैवस कहा जाता है। ऐसा बच्चों और किशोरों में अधिक होता है। यह हानिरहित होता है और कुछ समय बाद तिल और उसके चारों तरफ के सफेद घेरे गायब हो जाते हैं। गोरे लोगों खास तौर पर लाल बालों एवं भूरी आंखों वाले लोगों में छोटे-छोटे भूरे समतल तिल अधिक सामान्य होते हैं। इन्हें फ्रैकल्स कहा जाता है। ये तिल शरीर के उन हिस्सों में होते हैं जो धूप के सीधे संपर्क में आते रहते हैं। गर्मी के दिनों में इनका रंग काला होता जाता है। कुछ तरह के तिलों को एटाइपिकल नैवी कहा जाता है और ये कैंसरजन्य तिलों (मेलोनोमा) से मिलते-जुलते हैं। ये तिल कैंसर में बदल सकते हैं। 
हालांकि ज्यादातर तिल अहानिकर होते हैं लेकिन ये कई बार सौंदर्य को बिगाड़ देते हैं इसलिये इन्हें कई बार हटाना लाजिमी हो जाता है। लेकिन कई तिल कैंसर एवं अन्य बीमारियों के संकेत हो सकते हैं और इसलिये इनकी जांच कराकर इनका इलाज कराया जाना चाहिये। खास कर उन तिलों का इलाज जरूरी है जिनसे रक्त निकलता हो, जिनका आकार असामान्य हो, जो तेजी से बढ़ रहे हों, जिनके रंग बदल रहे हों और कपड़े, कंघी या रेजर के संपर्क में आने पर जिनमें खुजलाहट होती हो। 
बदसूरती पैदा करने वाले तिलों को केमिकल पीलिंग जैसी अनेक विधियों से हटाया जा सकता है लेकिन आजकल इन्हें कारगर एवं कष्टरहित तरीकों से दूर करने के लिये लेजर का इस्तेमाल हो रहा है। लेजर अर्थात लाइट एम्प्लीफिकेशन बाई स्टिमुलेटेड इमिशन आफ रेडियेशन एक विशेष तरह की रोशनी होती है जिसका विशेष तरंग दैध्र्य होता है। 
लेजर अनेक तरह के होते हैं और अलग-अलग लेजर का अलग-अलग इस्तेमाल होता है। लेजर के जरिये तिल को मिटाने के लिये सबसे पहले तिल वाले क्षेत्र को सुन्न कर दिया जाता है। इसके बाद मरीज को आपरेशन थियेटर ले जाकर तिल वाले क्षेत्र की सफाई की जाती है। तिल छोटा या उसका रंग हल्का पर सुन्न करना ही पर्याप्त होता है लेकिन बहुत तिल का रंग अधिक गहरा होने पर मरीज को बेहोश करने की जरूरत पड़ सकती है। 
तिलों को मिटाने के लिये लेजर थिरेपी का इस्तेमाल होने लगा है। ज्यादातर कास्मेटिक सर्जन कार्बन डाई आक्साइड लेजर का प्रयोग करते हैं। लेजर थिरेपी से उन निशानों को सफलतापूर्वक हटाया जाता है जो त्वचा की सतह से ज्यादा नीचे नहीं होते हैं। इन निशानों को हटाने में लेजर थिरेपी काफी कारगर साबित होती है। जब इस लेजर की किरणें त्वचा पर डाली जाती है तो यह केवल त्वचा के ऊपरी सतह पर असर डालता है।  इन लेजर किरणों के प्रयोग से त्वचा से रक्त नहीं निकलता। चिकित्सक तिल के आधार पर यह तय करता है कि कितनी देर तक लेजर किरणें डाली जाये ताकि त्वचा को किसी तरह की हानि नहीं हो। इन किरणों से तिल की परत को जला दिया जाता है लेकिन भीतरी त्वचा सुरक्षित रखी जाती है। लेजर के बाद त्वचा को धूप से बचाना जरूरी होता है। 


गर्भाशय प्रोलैप्स का संभव है लेप्रोस्कोपिक मेश से उपचार 

गर्भाशय का प्रोलैप्स वैसी स्थिति है जिसमें मूत्राशय और मलाशय के साथ गर्भाशय योनि में नीचे उतर आता है। यह 40 साल की उम्र के बाद महिलाओं में एक बहुत सामान्य स्थिति है, विशेषकर सामान्य प्रसव होने वाली और पुरानी खांसी या कब्ज से पीड़ित महिलाओं में तो यह बेहद सामान्य है। इसका संबंध बार-बार मूत्र के लीक करने से भी है। जब महिला खांसती है, छींकती है या हंसती है तो अक्सर मूत्र लीक करने लगता है। गर्भाशय का प्रोलैप्स काफी आम है और इसके विकसित होने का खतरा उम्र बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।
लक्षण
— पेल्विस में भारीपन या दबाव महसूस होना
— पेल्विस, पेट या कमर में दर्द
— यौन क्रिया के दौरान दर्द
— योनि के मुंह से ऊतक का उभार
— बार- बार मूत्राशय में संक्रमण
— योनि से असामान्य या अत्यधिक स्राव होना
— कब्ज
— मूत्र पर नियंत्रण करने की क्षमता में कमी या बार-बार मूत्र त्याग करने की इच्छा या तत्काल मूत्र त्याग करने की इच्छा सहित मूत्र त्याग करने में परेशानी
जांच
चिकित्सक गर्भाशय के अपनी सामान्य स्थिति से नीचे चले जाने की स्थिति का पता लगाने के लिए पैल्विक परीक्षण कराएंगे। चिकित्सक योनि के रास्ते में फैले हुए गर्भाशय की वजह से उत्पन्न किसी भी उभार को महसूस करने की कोशिश करेंगे।
इलाज
इसकी चिकित्सा स्थिति की गंभीरता पर निर्भर करेगी, साथ ही साथ महिला का सामान्य स्वास्थ्य, उम्र और बच्चे पैदा करने की इच्छा पर भी निर्भर करेगी। इलाज से आम तौर पर महिलाओं को फायदा होता है।
परम्परागत सर्जरी
इस स्थिति का इलाज परंपरागत रूप से वेजाइनल रिपेयर सर्जरी के द्वारा किया जाता है लेकिन 40 से 50 प्रतिशत मामलों में इस स्थिति का इलाज पूरी तरह नहीं हो पाता और इसलिए सर्जरी के बाद 5 साल में प्रोलैप्स फिर से हो जाता है।
नयी सर्जरी
इन दिनों प्रोलैप्स के इलाज के लिए 'लेप्रोस्कोपिक मेश उपचार' अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पसंदीदा इलाज बन गया है। इस नई तकनीक के तहत योनि में प्रोलैप्स करने वाले पूरे हिस्से को उपर खींच लिया जाता है और स्थायी मेश की मदद से रीढ़ की हड्डी के सामने वाले हिस्से को सहारा प्रदान किया जाता है। यह मेश स्थायी रूप से प्रत्यारोपित किया जाता है जिससे सर्जरी के विफल होने की कोई आशंका नहीं होती है। इस तकनीक का इस्तेमाल अब सभी तरह के प्रोलैप्स के लिए किया जाता है, जैसे वैसी युवा महिलाओं में जो आगे बच्चे को जन्म देने के लिए अपने गर्भाशय को रखना चाहती है, उनमें मेश की मदद से पूरे गर्भाशय को उपर खींच लिया जाता है और वैसी महिलाओं में जिन्होंने पहले हिस्टेरेक्टोमी कराया हो उनमें भी मेश की मदद से वेजाइनल वाल्ट क्षेत्र को उपर खींच लिया जाता है। मूत्र पर नियंत्रण नहीं रखने वाली महिलाओं में भी मूत्र के रिसाव का इलाज करने के लिए मूत्राशय को सहारा देने के लिए एक ट्रांसवेजाइनल टेप मेश प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। ये सभी उपचार लैपरोस्कोपी की मदद से किये जाते हैं और इसके लिए रोगी को सिर्फ एक दिन अस्पताल में रहने की आवश्यकता होती है और इसमें रक्त का बहुत कम नुकसान होता है और बहुत कम दर्द होता है और रोगी 3-4 दिनों पर वापिस अपना काम करने लगती है।
  


मानसून में वायरल फीवर और गले में संक्रमण से रहें बचकर

हमें गर्मी से बदहाल करने के बाद अब मानसून ने दस्तक दे दिया है। बारिश हमें गर्मी से तो राहत देती है लेकिन यह अपने साथ कई बीमारियों का सौगात लेकर भी आती है। बारिश के मौसम में खान-पान एवं रहन-सहन में काफी सावधानियां बरतनी जरूरी हो जाती है अन्यथा सर्दी-जुकाम, वायरल फीवर, गले में संक्रमण, गैस्ट्रोइंटेराइटिस जैसी बीमारियां लग सकती हैं। बरसात के दिनों में खास तौर पर मौसम में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव और आर्द्रता होने के कारण वायरल फीवर और गले में संक्रमण होने की आशंका अधिक रहती है। ये समस्यायें वायरस के संक्रमण से होती हैं। इसलिए हमें इस मौसम में अधिक एहतियात बरतने की जरूरत होती है। 
वायरल फीवर 
बरसात के दिनों में कहर बरपाने वाला वायरल फीवर अत्यंत संक्रामक रोग है जिससे कोई भी व्यक्ति किसी भी समय और कहीं भी ग्रस्त हो सकता है। हालांकि बच्चे और बुजुर्ग इसके चपेट में अधिक आते हैं। इस बुखार का प्रकोप वैसे तो हर मौसम में होता है लेकिन बरसात में इसका प्रकोप बढ़ जाता है। इसलिये इस मौसम में इसके प्रति विशेष सावधान रहने की जरूरत है।
कारण
आम बोलचाल की भाषा में फ्लू, इंफ्लुएंजा, काॅमन कोल्ड या सर्दी-बुखार के नाम से पुकारे जाने वाले इस वायरल फीवर के वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक बहुत जल्दी फैलते हैं। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक इसका प्रसार सांस के जरिये होता है। इस बुखार का मरीज जब खांसता है तो इसके वायरस पास के व्यक्ति  के शरीर में सांस के जरिये और मुंह के रास्ते प्रवेश कर जाते हैं और एक-दो दिन में वह व्यक्ति इस बुखार से पीड़ित हो जाता है। बच्चों और अधिक उम्र के लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण यह बुखार न केवल उन्हें शिकार बना लेता है, बल्कि कभी-कभी गंभीर रूप भी धारण कर लेता है। 
लक्षण
वायरल फीवर के लक्षण अन्य बुखार की तरह ही हैं। अचानक तेज बुखार, सिर दर्द, बदन दर्द, सूखी तेज खांसी, जुकाम, गले में खराश, नाक से पानी, छींक आदि इस बुखार के सामान्य लक्षण हैं। इस बुखार में कई बार कमर में भी दर्द होता है, जी मिचलाता है, भूख नहीं लगती है और उल्टी होती है। इसमें शरीर का तापमान 101 से 103 डिग्री या और ज्यादा हो जाता है। बुखार धीरे-धीरे चढ़ता है और बीच में उतरता नहीं है। बुखार निवारक दवाइयां लेने पर ही बुखार कुछ समय के लिए उतरता है। कुछ वायरल फीवर तीन दिन में, कुछ पांच दिन में और कुछ सात दिन में उतरते हैं। सात दिन से अधिक तक बहुत कम वायरल बुखार रहते हैं। 
इलाज  
वायरल फीवर का कोई विशेष इलाज नहीं है। वायरल फीवर के लिए एक कहावत है कि यह इलाज के बिना सात दिनों तक रहता है और इलाज करने पर एक सप्ताह तक। इसके इलाज के तौर पर सबसे जरूरी बुखार को कम रखना है। इसके लिए रोगी के कपड़े उतारकर पंखे या एयरकंडीशन वाले कमरे में या ठंडी जगह पर लिटाकर उस पर ठंडे पानी की पट्टी डालनी चाहिये। इसके बाद भी अगर बुखार कम नहीं हो तो पैरासिटामोल अथवा एस्प्रिन जैसी बुखार निवारक दवाइयां देनी चाहिये। लेकिन पेप्टिक अल्सर के मरीज को एस्प्रिन नहीं लेनी चाहिये क्योकि यह दवा लेने पर उन्हें खून की उल्टी हो सकती है। इसलिए बुखार की सबसे सुरक्षित दवा पैरासिटामोल है जो सभी जगह आसानी से उपलब्ध है और सस्ती भी है। दिन में चार-चार या पांच-पांच घंटे के अंतराल इस दवा की 500 मिलीग्राम की गोली ली जा सकती है। जिन लोगों को पैरासिटामोल से एलर्जी हो, वे एंटीहिस्टामिन की कोई भी गोली ले सकते हैं।
इस बुखार में रोगी के शरीर में पानी की कमी हो जाती है इसलिए रोगी को पानी, गर्म सूप, गर्म दूध, जूस आदि का अधिक सेवन करना चाहिए और आराम करना चाहिए। आराम नहीं करने और लापरवाही बरतने पर शरीर में और जटिलताएं हो सकती है जैसे-वायरल निमोनिया या इंकेफ्लाइटिस या फेफड़ों में संक्रमण हो सकता है या रोगी का शरीर शिथिल पड़ सकता है। और ये जटिलतायें एवं समस्यायें लंबे समय तक रह सकती हैं।
रोकथाम
वायरल फीवर उतर जाने के बाद भी रोगी का शरीर कमजोर रहता है और थकावट रहती है इसलिए रोगी को विटामिन 'बी' और 'सी' का अधिक सेवन करना चाहिए और पौष्टिक आहार लेना चाहिए। यह देखा गया है कि करीब एक ग्राम विटामिन 'सी' का रोजाना सेवन करने से वायरल बुखार से काफी हद तक बचाव होता है और यदि बीमारी हो भी जाती है तो बीमारी का असर कम होता है। इससे बचाव के लिए एक एक टीके का भी विकास हुआ है। यह टीका अभी अपने देश में नहीं बन रहा है इसलिये यह काफी महंगा है। इसके अलावा इससे केवल पांच साल तक ही वायरल फीवर से बचाव हो पाता है। वायरल फीवर के वायरस से बचाव के लिए इंटरफेराॅन दवा का टीका दिया जाता है। यह टीका सप्ताह में दो बार त्वचा के नीचे कई हफ्तों तक लगाया जाता है। बहुत महंगा होने के कारण यह टीका केवल उन्हीं लोगों को लगाया जाता है जिनमें दिमागी बुखार हो गया हो या किडनी में खराबी हो गयी हो।
बचाव
वायरल फीवर से बचाव के लिए यह जरूरी है कि जब वायरल फीवर की महामारी फैली हो तो भीड़-भाड़ वाले जगहों जैसे स्कूल-काॅलेज, बस, ट्रेन आदि में मुंह और नाक पर साफ कपड़ा या रुमाल रख लें। नाक पर रखने वाले सर्जरिकल पैड कीटाणु रहित होते हैं इसलिए इन्हें लगाना अधिक लाभप्रद रहता है। मौसम के अनुसार कपड़े पहनने चाहिये। इसके अलावा प्रोटीन एवं विटामिन युक्त आहार ग्रहण करना चाहिये।
गले में संक्रमण
गले में संक्रमण सामान्य बीमारी है लेकिन इसकी अनदेखी ठीक नहीं है। इसकी अनदेखी करने से अगर बीमारी बढ़ गयी तो गंभीर ब्रोंकाइटिस एवं निमोनिया हो सकती है। गले में संक्रमण एक संक्रामक रोग है  इसलिये सावधानी बरतनी जरूरी है ताकि परिवार के किसी अन्य सदस्य को यह संक्रमण न होने पाये।     
हालांकि गले में संक्रमण किसी भी मौसम में हो सकता है लेकिन कुछ बारिश के मौसम में गले में संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
कारण
बारिश के मौसम में गले में संक्रमण आम तौर पर वायरस संक्रमण, बैक्टीरिया संक्रमण, एलर्जी, वायरल फीवर, सर्दी-खांसी, श्वसन संक्रमण आदि के कारण होता है।
लक्षण
गले में संक्रमण होने पर गले में दर्द, निगलने में दिक्कत, टांसिल में सूजन, आवाज का बैठ जाना, बुखार, सिर दर्द आदि लक्षण प्रकट हो सकते हैं।
रोकथाम
गले में संक्रमण होने पर पानी, सूप एवं अन्य तरल पेय पर्याप्त मात्रा में पीना चाहिये। नमक मिले पानी का गार्गल करने तथा इकलिप्टस आयल से युक्त पानी का भाप लेने से काफी राहत मिलती है। बुखार, टांसिल एवं गर्दन में लिम्फ नोड होने, श्वसन में दिक्कत, दमा और साइनुसाइटिस होने की स्थिति में चिकित्सक से परामर्श करना चाहिये। 
इलाज
गले में संक्रमण होने पर आम तौर पर इलाज कराने की जरूरत नहीं होती। कुछ सावधानियां बरतने पर यह स्वतः ठीक हो जाता है। लेकिन कुछ मामलों रोगी को अधिक समस्या होने पर इलाज कराने की जरूरत पड़ सकती है। इसके इलाज के तौर पर आम तौर पर एंटीबायोटिक दवाइयां दी जाती है जिसे 5 से 10 दिनों तक लेना होता है।  
बचाव
गले में संक्रमण और खराश से बचाव के लिए कोई वैक्सीन नहीं है, इसलिए जरूरी है कि कुछ ऐसे उपाय अपनाएं जाये, ताकि इस बीमारी से बचा जा सके। पोषक भोजन द्वारा अपने शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढाएं, पूरी नींद लें और शारीरिक रूप से सक्रिय रहें। ठंडी चीजें खासकर फ्रिज में रखी चीजें जैसे आइस्क्रीम, कोल्ड ड्रिंक, कुल्फी आदि का सेवन न करें। शरीर में टॉक्सिन की मौजूदगी गले की खराश को और बढा देती है, इसलिए ढेर सारे तरल पदार्थ का सेवन करें, ताकि टॉक्सिन शरीर से बाहर निकाल सकें। संक्रमण से बचें। साफ-सफाई का विशेष ख्याल रखें। सार्वजनिक स्थानों पर अपने मुंह को रूमाल से ढक लें और वहां से आने के बाद साबुन से हाथ जरूर धोएं। जिन्हें सर्दी-खांसी और गले में खराष हो रही हो, उनके ज्यादा नजदीक न जाएं। संक्रमित सदस्य के तौलिये, जूठे कप, प्लेट और ग्लास का इस्तेमाल न करें।
 


योगा से रहें हेल्दी और एनर्जेटिक

प्रधानमंत्री की पहल पर संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योगा दिवस मनाया जाने लगा है। इसके मद्देजर योगा को लेकर देश में नये सिरे से बहस चल पड़ी है तथा योगा को लेकर लोगों में दिलचस्पी पैदा हुयी है। योगाचार्यों और चिकित्सकों की मानें तो योगा न केवल मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को कायम रखता है बल्कि कई तरह की बीमारियों के इलाज में भी सहायक होता है। मानसिक शांति तथा मानसिक समस्याओं के समाधान में यह राम बाण है। योगा हर उम्र की महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण है। नियमित रूप से योगा कर महिलाएं न सिर्फ स्वस्थ और चुस्त-दुरुस्त रह सकती हैं बल्कि कई बीमारियों की रोकथाम कर सकती हैं और उनसे छुटकारा पा सकती हैं। इसलिए हर उम्र की महिलाओं को अपनी लाइफ स्टाइल में योगा को अवश्य शामिल करना चाहिए। 
योगा पुरूषों के साथ-साथ महिलाओं को शारीरिक चुस्ती प्रदान करने के अलावा मानसिक समस्याओं से निजात दिलाता है। यह खास तौर पर तनाव, डिप्रेशन एवं अन्य मानसिक समस्याओं के समाधान के लिये अत्यंत कारगर साबित है। 
महिलाओं के लिए योगा के बहुत फायदे हैं। महिलाओं को घर और बाहर के साथ-साथ और भी कई तरह की जिम्मेदारियां निभानी होती हैं जिसके कारण वे अपने आपको बिल्कुल समय नहीं दे सकती लेकिन जो महिलाएं योगा करती हैं वे योगा के जरिए स्वस्थ और फिट रहती हैं। वैसे भी, महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले बढ़ती उम्र में अधिक बीमारियां हो जाती हैं यदि महिलाएं रोजाना योगा करेंगी तो बढ़ती उम्र में होने वाली बीमारियों से आसानी से बच सकती हैं। इसके अलावा, महिलाओं को अक्सर छरहरी काया और फिटनेस की फ्रिक रहती हैं लेकिन उनके पास सरल और आसान उपाय नहीं होता लेकिन योगा के जरिए वे अपनी इस समस्या को सुलझा सकती हैं।
गर्भावस्था के दौरान स्वस्थ रहने के लिए भी महिलाओं को योगा की बहुत जरूरत होती हैं क्योंकि इससे बच्चे का विकास भी ठीक तरह से होता है और प्रसव के दौरान और बाद में भी आने वाली समस्याओं से बचा जा सकता हैं।
आमतौर पर देखा गया है कि महिलाएं अपनी सुंदरता के प्रति बहुत जागरूक होती हैं लेकिन हर समय अपने आप पर ध्यान देना संभव नहीं होता। इसलिए वे काॅस्मेटिक उत्पादों का सहारा लेती हैं जिनके अपने दुष्प्रभाव होते हैं। ऐसे में महिलाओं के लिए जरूरी हो जाता है कि वे योगा करें। यदि वे शारीरिक रूप से फिट रहेंगी तो उनकी सुंदरता भी खुद-ब-खुद निखर जाएगी।
योगा का पूरा लाभ लेने के लिये योगा करते समय उम्र और शारीरिक तथा मानसिक स्थिति को ध्यान में रखना जरूरी है। जैसे कुछ कठिन योगा जो किशोरावस्था की महिलाएं कर सकती हैं, वृद्धावस्था की महिलाएं नहीं कर सकती हैं। यही नहीं गर्भवती महिलाओं को भी योगासन के दौरान बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होती है। यहीं नहीं कुछ गंभीर बीमारियों से पीड़ित महिलाओं को भी कुछ योगासन नहीं करने की सलाह दी जाती है। इसलिए योगा की शुरुआत करने से पहले किसी योगाचार्य या योग विशेषज्ञ से सलाह लेना और कुछ समय तक उनकी निगरानी में योगा करना आवश्यक है।
महिलाओं के द्वारा किये जाने वाले योगा 
महिलाओं को अपनी आवाज को सुरीला बनाने और श्वास संबंधी समस्याओं से बचने के लिए श्वास क्रियाएं करनी चाहिए।
जो महिलाएं खाने के बाद टहल नहीं पाती और मोटापे व पेट संबंधी समस्याओं से भी बचना चाहती हैं तो इन्हें वज्रासन करना चाहिए।
शरीर को रिलैक्स करने और तनाव मुक्त होने और थकान उतारने के लिए श्वसन करना चाहिए।
महिलाएं यदि अपने लिए समय नहीं निकाल पाती और योगासन को भी कम से कम समय देना चाहती हैं तो उन्हें सूर्य नमस्कार की 12 विधियों को करना चाहिए। इससे न सिर्फ पूरे शरीर की एक्सरसाइज हो जाती हैं बल्कि आप तरोताजा भी महसूस करेंगी।
किशोरावस्था से लेकर मध्य वय की महिलाएं आम तौर पर प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, भुजंगासन, गरुणासन, मंडुकासन, शलभासन, पूर्मासन, कुकुटासन, वज्रासन, शवासन, श्वास क्रिया और सूक्ष्मासन कर सकती हैं। 
महिलाओं के लिए उपयोगी प्रमुख योगासन: 
प्राणायाम
प्राणायाम के तहत हम श्वास को धीमी गति से देर तक खींचकर रोकते हैं और फिर बाहर निकालते हैं। प्राणायाम करते समय कुछ बातों का विशेष ध्यान रखें, जैसे - प्राणायाम करने से पहले हमारा शरीर अन्दर से और बाहर से शुद्ध होना चाहिए। प्राणायाम के तहत हम श्वास को धीमी गति से देर तक खींचकर रोकते हैं और फिर बाहर निकालते हैं। इस योग को करने के लिए जमीन पर आसन बिछाकर बैठना चाहिए। बैठते समय हमारी रीढ़ की हड्डियां एक पंक्ति में अर्थात सीधी होनी चाहिए। प्राणायाम करते समय हमारे हाथ ज्ञान या किसी अन्य मुद्रा में होनी चाहिए। प्राणायाम करते समय हमारे शरीर में कहीं भी किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए, यदि तनाव में प्राणायाम करेंगे तो उसका लाभ नहीं मिलेगा। सांस का आना जाना बिलकुल आराम से होना चाहिए। 
प्राणायाम कई प्रकार के होते हैं, जैसे - भस्त्रिका प्राणायाम, कपालभाति प्राणायाम, अनुलोम-विलोम प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम,  एकांड स्तम्भ प्राणायाम, सीत्कारी प्राणायाम, सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, सम्त व्याहृति प्राणायाम, चतुर्मुखी प्राणायाम, प्रच्छर्दन प्राणायाम, चन्द्रभेदन प्राणायाम, यन्त्रगमन प्राणायाम, वामरेचन प्राणायाम, दक्षिण रेचन प्राणायाम, शक्ति प्रयोग प्राणायाम, त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, हृदय स्तम्भ प्राणायाम,  मध्य रेचन प्राणायाम, त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम,  वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, शन्मुखी रेचन प्राणायाम, कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम,  नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम।
भुजंगासन
इस आसन में शरीर की आकृति फन उठाए हुए भुजंग अर्थात सर्प जैसी बनती है इसीलिए इसो भुजंगासन या सर्पासन कहा जाता है। यह आसन पेट के बल लेटकर किया जाता है। इस आसन को करने के लिए जमीन पर दरी या कंबल बिछाकर उल्टे होकर पेट के बल लेट जाए। एड़ी-पंजे को मिलाकर रखें। ठोड़ी फर्श पर रखें। कोहनियां कमर से सटी हुई और हथेलियां उपर की ओर हों। अब धीरे-धीरे हाथ को कोहनियों से मोड़ते हुए लाएं और हथेलियों को बाजूओं के नीचे रख दें। फिर ठोड़ी को गरदन में दबाते हुए ललाट को भूमि पर रखे। पुनः नाक को हल्का-सा भूमि पर स्पर्श करते हुए सिर को उपर की ओर उठाएं। सिर और छाती को जितना पीछे ले जा सकते है ले जाएं लेकिन ध्यान रखें कि नाभि भूमि से लगी रहे। 20 सेकंड तक इस स्थिति में रहें। बाद में श्वास छोड़ते हुए धीरे-धीरे सिर को नीचे लाकर ललाट को भूमि पर रखें। छाती भी भूमि पर रखें। पुनः ठोड़ी को भूमि पर रखें। इस आसन को करते समय अचानक पीछे की तरफ बहुत अधिक न झुकें। इससे आपकी छाती या पीठ की मांसपेशियों में खिंचाव आ सकता है तथा बांहों और कंधों की पेशियों में भी बल पड़ सकता है जिससे दर्द पैदा होने की संभावना बढ़ती है। पेट में कोई रोग या पीठ में अत्यधिक दर्द हो तो यह आसन न करें। इस आसन से रीढ़ की हड्डी सशक्त होती है और पीठ में लचीलापन आता है। शरीर छरहरा रहता है। 
सूर्य नमस्कार
सूर्य नमस्कार योगासनों में सर्वश्रेष्ठ है। इस योगा में लगभग सभी आसनों का समावेश है। इसलिए यह सम्पूर्ण लाभ पहुंचाता है। इसके अभ्यास से व्यक्ति का शरीर निरोग और स्वस्थ होकर तेजस्वी हो जाता है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास बारह स्थितियों में किया जाता है। इसकी भी दो स्थितियां होती हैं- पहला दाएं पैर से और दूसरा बाएं पैर से।
विधि:
(1) पहले सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाएं। फिर दोनों हाथों को कंधे के समानांतर उठाते हुए दोनों हथेलियों को ऊपर की ओर ले जाएं। हथेलियों के पीछे के भाग एक-दूसरे से मिले रहें। फिर उन्हें उसी स्थिति में सामने की ओर लाएं। उसके बाद नीचे की ओर गोल घुमाते हुए नमस्कार की मुद्रा में खड़े हो जाएं। 
(2) श्वास भरते हुए दोनों हाथों को कानों से सटाते हुए ऊपर की ओर तानें तथा कमर से पीछे की ओर झुकते हुए भुजाओं और गर्दन को भी पीछे की ओर झुकाएं। यह अर्धचक्रासन की स्थिति मानी गई है।
(3) तीसरी स्थिति में श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालते हुए आगे की ओर झुकें। हाथ गर्दन के साथ, कानों से सटे हुए नीचे जाकर पैरों के दाएं-बाएं पृथ्वी का स्पर्श करें। घुटने सीधे रखें। कुछ क्षण इसी स्थिति में रुकें। इस स्थिति को पाद पश्चिमोत्तनासन या पादहस्तासन की स्थिति कहते हैं।
(4) इसी स्थिति में हथेलियां भूमि पर टिकाकर श्वास को भरते हुए दाएं पैर को पीछे की ओर ले जाएं। छाती को खींचकर आगे की ओर तानें। गर्दन को ऊपर उठाएं। इस मुद्रा में टांग तनी हुई सीधी पीछे की ओर रखें और पैर का पंजा खड़ा रखें। इस स्थिति में कुछ समय रुकें।
(5) श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालते हुए हुए बाएं पैर को भी पीछे ले जाएं। दोनों पैरों की एड़ियां परस्पर मिली हुई हों। पीछे की ओर शरीर को खिंचाव दें और एड़ियों को जमीन पर मिलाने का प्रयास करें। नितम्बों को अधिक से अधिक ऊपर उठाएं। गर्दन को नीचे झुकाकर ठोड़ी को कंठ में लगाएं।
(6) श्वास भरते हुए शरीर को पृथ्वी के समानांतर, सीधा साष्टांग दंडवत करें और पहले घुटने, छाती और ठोड़ी पृथ्वी पर लगा दें। नितम्बों को थोड़ा ऊपर उठाएं। श्वास छोड़ दें। श्वास की गति सामान्य रखें।
(7) इस स्थिति में धीरे-धीरे श्वास को भरते हुए छाती को आगे की ओर खींचते हुए हाथों को सीधे कर दें। गर्दन को पीछे की ओर ले जाएं। घुटने को पृथ्वी का स्पर्श कराते हुए तथा पैरों के पंजे खड़े रहें। इस स्थिति को भुजंगासन की स्थिति कहते हैं। 
(8) यह स्थिति पांचवीं स्थिति के समान है। जबकि हम ठोड़ी को कंठ से टिकाते हुए पैरों के पंजों को देखते हैं।
(9) यह स्थिति चौथी स्थिति के समान है। इसमें पीछे ले जाए गए दाएं पैर को पुनः आगे ले आएं।
(10) यह स्थिति तीसरी स्थिति के समान हैं। फिर बाएं पैर को भी आगे लाते हुए पुनः पाद पश्चिमोत्तनासन की स्थिति में आ जाएं। 
(11) यह स्थिति दूसरी स्थिति के समान हैं। जिसमें पाद पश्चिमोत्तनासन खोलते हुए और श्वास भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर ले जाएं। उसी स्थिति में हाथों को पीछे की ओर ले जाएं साथ ही गर्दन तथा कमर को भी पीछे की ओर झुकाएं अर्थात अर्धचक्रासन की मुद्रा में आ जाएं।
(12) यह स्थिति पहली स्थिति की तरह ही नमस्कार की मुद्रा में रहेगी।
बारह मुद्राओं के बाद पुनः विश्राम की स्थिति में खड़े हो जाएं। अब इसी आसन को पुनः करें। पहली, दूसरी और तीसरी स्थिति उसी क्रम में ही रहेगी लेकिन चैथी स्थिति में पहले जहां दाएं पैर को पीछे ले गए थे वहीं अब पहले बाएं पैर को पीछे ले जाते हुए यह सूर्य नमस्कार करें।
सूर्य नमस्कार अत्यधिक लाभकारी है। इसके अभ्यास से हाथों और पैरों का दर्द दूर होकर उनमें सबलता आती है। गर्दन, फेफड़े तथा पसलियों की मांसपेशियां सशक्त हो जाती हैं, शरीर की फालतू चर्बी कम होकर शरीर हल्का-फुल्का हो जाता है। इससे त्वचा संबंधित रोग समाप्त हो जाते हैं और त्वचा में निखार आता है। इस अभ्यास से कब्ज जैसे पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं और पाचनतंत्र की क्रियाशीलता में सुधार होता है। इन आसनों से हमारे शरीर की छोटी-बड़ी सभी नस-नाड़ियां क्रियाशील हो जाती हैं, इसलिए आलस्य, अतिनिद्रा आदि विकार दूर हो जाते हैं।
शलभासन
यह शरीर के मध्य भाग, कमर और रीढ़ की हड्डी के लिए फायदेमंद आसन है। इससे शरीर के ये हिस्से मजबूत होते हैं और शरीर का संतुलन बना रहता है।
विधि
पेट के बल लेट जाएं।  भीतर की ओर सांस खींचते हुए सिर, छाती व जांघों को उठाएं। हाथ जमीन पर पैरों की ओर रखें। ध्यान रहे कि आपके घुटने न मुड़ें। शरीर का सारा भार पेट पर पड़े। अब सांस छोड़ते हुए सामान्य अवस्था में आ जाएं। स्लिप डिस्क और बैक पेन से परेशान लोग इस आसन को न करें।
गरुणासन
गरुणासन शरीर के संतुलन, तालमेल और एकाग्रता के लिए बहुत फायदेमंद है। यह बाजू और जांघ पर फैट कम करता है। 
विधि 
सीधी खड़ी हो जाएं। अब दाएं घुटने को मोड़ लें और दाहिनी जांघ पर बाईं जांघ रखें। अब बाएं पैर को दाएं पैर पर पूरी तरह आधारित कर लें जिससे बाएं पैर का अंगूठा दाए पैर के पिछले हिस्से को छुए।  अब दाई कोहनी को बाईं कोहनी पर रखकर नमस्कार की मुद्रा में हथेलियां रखें। बाजुओं और कंधों को सीधा रखें। साथ ही घुटनों को भी बहुत मुड़ने न दें। पूरी प्रक्रिया के दौरान सामान्य रूप से सांस लें। अब सिर, कंधा और कमर को एक सीध में रखते हुए सांस खींचें। सांस छोड़ते हुए सामान्य अवस्था में धीरे-धीरे आ जाएं। इसी प्रक्रिया को बाएं घुटने मोड़कर दोबारा करें।
वृद्धावस्था की महिलाओं के लिए योगा
वृद्धावस्था की महिलाओं को ऐसे योगा करने चाहिए जिनसे उनके शरीर विशेष रूप से जोड़ों पर अधिक जोड़ न पड़े। इस उम्र में महिलाएं हालांकि प्राणायाम के कुछ आसान कर सकती हैं लेकिन अगर उन्हें प्राणायाम के कुछ आसनों को करने में परेशानी आ रही हो तो वे सूक्ष्मासन कर सकती हैं।
सूक्ष्मासन: सूक्ष्मासन के व्यायाम में गर्दन घुमाना, आंखें घुमाना, कंधे घुमाना, हाथ घुमाना, कलाई घुमाना, मुट्ठियां बन्द करना व खोलना, कमर घुमाना, घुटने घुमाना, पंजे घुमाना और इन्हें ऊपर-नीचे करना षामिल है।
कोई भी महिला यह व्यायाम कर सकती है। विशेषकर वृद्ध महिला एवं रोगियों के लिए इस आसन का बड़ा महत्व है। सूक्ष्मासन में प्राणायाम के भी कुछ आसन समाहित होते हैं इसलिए इस आसन को करने से प्राणायाम भी स्वतः ही हो जाते है। इसमें कई तरह के आसन शामिल होते हैं इसीलिए इसे योग व प्राणायाम का राजा कहा जाता है। इसके कुछ आसनों को योगासन व प्राणायाम के लिए पूर्व तैयारी के रूप में किया जाता है। अगर कोई व्यक्ति अन्य आसनों को करने में सक्षम नहीं है तो सिर्फ सूक्ष्मासन कर लेने से ही इनकी पूर्ति हो जाती है। इसलिए इस व्यायाम को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
सूक्ष्म व्यायाम कहीं भी किए जा सकते हैं। इस व्यायाम को करने के लिए किसी तैयारी, जगह या प्रशिक्षक की जरुरत नहीं होती है। ये अत्यंत सरल होेते है। सभी योगाचार्य इन आसनों को कठोर आसन कराने से पहले कराते है और वे अन्य कठिन योग न कर पाने की स्थिति में प्रतिदिन इन्हें करने पर बल देते है। 
इस व्यायाम को प्रतिदिन करने से शरीर को स्वस्थ रखने में मदद मिलती है। इन व्यायामों को करने से शरीर के जोड़ों की जकड़न कम होती है, जोड़ों का लचीलापन बढ़ता है और जोड़ मजबूत होते हैं। जोड़ों को घुमाने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती या दर्द नहीं होता। जोड़ बेहतर तरीकेे से काम करने लगते है। ये व्यायाम मांसपेशियों के खिंचाव को कम कर मांसपेशियों के लचीलापन को भी बढ़ाते हैं। वृद्धावस्था की महिलाओं में जोड़ों और मांसपेशियों की जकड़न एक आम समस्या है लेकिन इन व्यायामों को करने से न सिर्फ उनके शरीर के जोड़ों और मांसपेशियों बल्कि पूरे शरीर की अकड़न-जकड़न कम होती है और शरीर में स्फूर्ति आती है।
गर्भवती महिलाओं के लिए योगा
गर्भवती महिलाओं के लिए योगा अत्यंत फायेदमंद साबित होता है। योगा करने से न सिर्फ वे गर्भावस्था के दौरान स्वस्थ रहती है, बल्कि उन्हें बच्चे के जन्म के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार होने में मदद मिलती है। उनमें सामान्य प्रसव होने की संभावना बढ़ जाती है और प्रसव के दौरान प्रसव पीड़ा भी कम होती है। गर्भावस्था के दौरान योगा करते समय अत्यंत सावधानी बरतने की जरूरत होती है इसलिए गर्भवती महिलाओं को कुछ विषेश आसन करने की सलाह दी जाती है जिनमें तितली आसन और पद्मासन प्रमुख हैं।
तितली आसन
तितली आसन करते समय व्यक्ति की मुद्रा तितली के समान हो जाती है, इसलिए इस मुद्रा को तितली आसन कहा जाता है। 
आसन विधि: इस आसन को करने के लिए किसी समतल स्थान पर दरी या कंबल बिछाकर उस पर बैठ जाएं। दोनों पैरों को सामने की ओर फैला लें। दोनों पैरों को घुटनों से मोड़ें और दोनों तलवों को आपस में मिला लें। अपने दोनों हाथों से पैरों की अंगुलियों को पकड़ें और एड़ी को शरीर के पास लाने का प्रयास करें। इस दौरान आप अपने हाथों को बिल्कुल सीधा रखें और शरीर को भी पूरी तरह सीधा रखें ताकि आपकी रीढ़ की हड्डी भी सीधी रहे। सामान्य गति से सांस लें और दोनों पैरों के घुटनों को एक साथ ऊपर की ओर लाएं फिर नीचे की ओर लाएं। लेकिन ऐसा करते समय पैरों को ज्यादा जोर से नहीं हिलाएं और यह ध्यान रखें कि आपके पैर जमीन को न छूने पाए, और किसी प्रकार का झटका न लगे। इस प्रक्रिया को 20-25 बार करें। इसके बाद पैरों को धीरे-धीरे सीधा कर लें और कुछ समय तक शरीर को ढीला छोड़ दें।
गर्भावस्था के दौरान पैरों में थकान और दर्द होना एक आम समस्या है। लेकिन रोजाना सुबह-सुबह इस आसन को करने से पैरों की मांसपेशियां की अच्छी कसरत हो जाती है और मांसपेशियां मजबूत होती हैं जिससे पैरों में थकान और दर्द से राहत मिलती है। गर्भावस्था में तितली आसन करने से डिलीवरी के समय कम दर्द होता है। गर्भवती महिलाओं को यह आसन पहली तिमाही में ही शुरू कर देना चाहिए। 
पद्मासन
संस्कृत शब्द पद्म का अर्थ होता है कमल। इसीलिए पद्मासन को कमलासन भी कहते हैं। गर्भवती महिलाओं के लिए यह आसन महत्वपूर्ण है।
आसन विधि: जमीन पर दरी या कंबल बिछाकर दोनों पैरों को सीधा कर दंडासन की स्थिति में उस पर बैठ जाएं। दाहिने पैर के अंगूठे को बाएं हाथ से पकड़कर घुटने मोड़ते हुए दाहिने पैर के पंजे को बाईं जांघ के मूल पर रखें। उसके बाद बाएं पैर के अंगूठे को दाहिने हाथ से पकड़कर घुटने मोड़ते हुए बाएं पैर के पंजे को दाहिनी जांघ के मूल पर रखें। ध्यान रखें कि दोनों घुटने दरी पर टिकें हो और पैर के तलवे उपर की ओर हों। रीढ़, गला व सिर को एक सीध में रखें। हथेलियों को घुटनों पर रखें या एक हथेली को दूसरी पर रखकर गोद में रखें। आंखें बंद कर सांसों को गहरा खींचते हुए सामान्य गति से सांस लें। आसन से वापस लौटने के लिए पहले बाएं पैर के पंजे को दाहिने हाथ से पकड़कर लंबा कर दें। फिर दाहिने पैर के पंजे को बाएं हाथ से पकड़कर लंबा कर दें और फिर से दंडासन की स्थिति में आ जाएं। प्रारंभ में यह आसन 30 सेकंड के लिए करें फिर सुविधानुसार समय को बढ़ायें। इस आसन को कम से कम दो से तीन बार करना चाहिए। इस आसन को करते समय यह ध्यान रखें कि आपके पैरों में किसी भी प्रकार का अत्यधिक कष्ट न हो। रीढ़ के निचले हिस्से में किसी प्रकार का दर्द होने पर इस आसन को न करें।
पद्मासन से पैरों का रक्त-संचार कम हो जाता है और अन्य अंगों की ओर रक्त का संचार अधिक होने लगता है जिससे उनमें क्रियाशीलता बढ़ती है। यह तनाव को कम कर चित्त को एकाग्र करता है और सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है। इससे छाती और पैरों में मजबूती आती है। इससे गर्भ में बच्चे के स्वस्थ विकास में मदद मिलती है।


 


 


गलत खान-पान ने बढ़ाया मायोपिया का प्रकोप


मायोपिया का संबंध आनुवांशिक कारणों से ही नहीं बल्कि खान-पान एवं रहन-सहन के तौर-तरीकों से भी है। हाल के अनुसंधानों से पता चला है कि जंक फूड एवं बे्रड जैसे शोधित स्टार्च युक्त खाद्य पदार्थों के सेवन बढ़ने के कारण मायोपिया का प्रकोप बढ़ रहा है। मायोपिया की परिणति कई बार रेटिनल डिटैचमेंट, ग्लूकोमा और नेत्राअंधता जैसी खतरनाक स्थितियों के रूप में हो सकती है इसलिए इसके इलाज में किसी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिये।
हमारे देश में खान-पान एवं रहन-सहन की पश्चिमी शैलियांे के अंधाधुंध नकल के कारण न केवल मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्त चाप और हृदय रोग जैसी बीमारियों का बल्कि मायोपिया जैसे दृष्टि दोषों का प्रकोप भी तेजी से बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों ने अपने ताजा अध्ययनों से निष्कर्ष निकाला है कि बे्रड जैसे शोधित स्टार्च युक्त खाद्य पदार्थों और जंक फूड का सेवन बढ़ने के कारण मायोपिया का प्रकोप बढ़ रहा है। इस बारे में शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि मायोपिया अथवा निकट दृष्टि दोष का खतरा किताबों को अधिक पास रखकर पढ़ने की तुलना में ब्रेड के अधिक सेवन से ज्यादा बढ़ता है। 
वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रेड जैसे शोधित स्टार्च से भरपूर आहार के सेवन से बच्चों में इंसुलिन का स्तर बढ़ता है। उनका कहना है कि इससे नेत्रा गोलक का विकास प्रभावित होता है। यह निष्कर्ष अमरीका के फोर्ट कोलिंस स्थित कोलोराडो स्टेट युनिवर्सिटी और आस्ट्रेलिया के युनिवर्सिटी आॅफ सिडनी के वैज्ञानिकों की टीम ने अपने नये अनुसंधान से निकाला है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार अधिक हार्मोन के कारण नेत्रा गोलक असामान्य रूप से लंबा होता जाता है और इससे मायोपिया होता है। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अपने शोध के निष्कर्ष के  आधार पर वे पिछले 200 वर्षों में विकसित देशों में मायोपिया के बहुत अधिक बढ़ने के कारणों की व्याख्या कर सकते हैं। 
मायोपिया में दूर की वस्तुयें स्पष्ट नहीं दिखती हैं। उनके अनुसार मायोपिया में नेत्रा गोलक का आकार सामान्य से कुछ बड़ा हो जाने अथवा सिलियरी मांसपेषियों के रुग्न हो जाने के कारण नेत्रा लेंस का नाभ्यांतर (फोकल लेंथ) कुछ छोटा हो जाता है। इस कारण वस्तु का प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल(रेटिना) पर नहीं बनकर थोड़ा आगे बनता है जिससे दूर की वस्तुयें देखने में कठिनाई होती है। नयी दिल्ली के दरियागंज स्थित चैधरी आई सेंटर एंड लेजर विजन के निदेशक डा. संजय चैधरी का कहना है कि मायोपिया की परिणति कई बार रेटिनल डिटैचमेंट, ग्लूकोमा और नेत्राअंधता जैसी खतरनाक स्थितियों के रूप में हो सकती है। 
मायोपिया और खान-पान के संबंधों के बारे में हुये अनुसंधान में शामिल युनिवर्सिटी आॅफ सिडनी के पोषण वैज्ञानिक जेनी ब्रांड मिलर का कहना है कि आधुनिक तरीके से शोधित बे्रड और कुछ अनाज के सेवन से स्टार्च का पाचन बहुत तेजी से होता है। इस तेज पाचन की प्रतिक्रिया में हमारा शरीर पैंक्रियाज से अधिक मात्रा में इंसुलिन उत्सर्जित करता है। उनका कहना है कि यूरोपीय आबादी में मायोपिया का प्रकोप बहुत अधिक होने का कारण वहां ब्रेड का सेवन बहुत अधिक होना है। यूरोपीय देशों में करीब 30 प्रतिशत लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं।
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अधिक इंसुलिन के कारण इंसुलिन जैसे बंधक प्रोटीन - 3 के स्तर में गिरावट होती है जिससे नेत्रा, नेत्रा गोलक की लंबाई तथा नेत्रा लेंस के विकास के बीच का समन्वय प्रभावित होता है। नेत्रा गोलक के बहुत अधिक लंबा हो जाने पर लेंस का फोकल लंेथ छोटा हो जाता है जिससे लंेस वस्तुओं के प्रतिबिम्ब को दृष्टिपटल (रेटिना) पर फोकस नहीं कर पाते हैं और दूर की वस्तुयें देखने में कठिनाई होती है। 
इन वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि अधिक शारीरिक वजन वाले लोगों तथा मधुमेह के मरीजों को मायोपिया होने का खतरा अधिक होता है। निकट दृष्टि दोष उन बच्चों में भी धीरे-धीरे बढ़ता है जिनमें प्रोटीन की खपत अधिक होती है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार उन समुदायों में निकट दृष्टि दोष कम है जिन्होंने खान-पान की पश्चिमी शैली को नहीं अपनाया है। 
लोगों को मायोपिया तथा उसके इलाज की आधुनिक चिकित्सा विधियों की जानकारी देने के लिये स्पेक्टकल्स रिमूवल डाॅट काॅम नामक वेब साइट आरंभ करने वाले डा. संजय चैधरी का कहना है कि गलत खान-पान के अलावा रहन-सहन की गलत शैलियां भी मायोपिया जैसे दृष्टिदोषों को बढ़ावा दे रही है। आज कम व्यायाम करने तथा बैठ कर देर तक टेलीविजन देखने और कम्प्यूटर पर काम करने की प्रवृतियां बढ़ रही है। आज टेलीविजन एवं कम्प्यूटर जैसे इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण शहरी लोगों खासकर बच्चों में मायोपिया, आंखों में खिंचाव (स्ट्रेन) एवं आंख दर्द की समस्यायें तेजी से बढ़ रही हैं। आज खास तौर पर शहरों में बच्चों पर एक तरफ तो पढ़ाई का बोझ बढ़ा है, दूसरी तरफ खेल-कूद जैसे मनबहलाव के परम्परागत तौर-तरीकों का स्थान टेलीविजन, वीडियो गेमों एवं कम्प्यूटरों ने ले लिया है। आंखों पर बहुत अधिक जोर डालने वाले मनोरंजन के आधुनिक तौर-तरीकों, पढ़ाई तथा निकट से किये जाने वाले अन्य कार्यों की वजह से आंखों से जुड़ी सिलियरी कोशिकाओं में खिंचाव पैदा होता है। टेलीविजन, वीडियो एवं कम्प्यूटर जैसी पास रखी वस्तुओं को देखने के लिये सिलियरी कोशिकाओं को सिकुड़ना पड़ता है ताकि नेत्रा लेंस का पावर बढ़ जाये और निकट की वस्तुयें दिखाई पड़े। इन कोशिकाओं में बार-बार बहुत अधिक खिंचाव होने पर आंखों के रंजित पटल (कोराॅइड) में फैलाव होता है और नेत्रा गोलक बड़ा हो जाता है जिससे मायोपिया उत्पन्न होती है।
मायोपिया और उसकी उल्टी स्थिति अर्थात हाइपरमेट्रोपिया और एस्टिगमेटिज्म के इलाज के लिये आम तौर पर चश्में तथा कांटैक्ट लेंस का ही प्रयोग किया जाता रहा है, लेकिन अब इसका इलाज एक्जाइमर लेजर, लैसिक लेजर और सी लैसिक की नयी तकनीक की मदद से भी होने लगा है। दृष्टिदोषों के इलाज की लेजर तकनीक के विशेषज्ञ डा. संजय चैधरी बताते हैं कि मायोपिया के इलाज के लिये प्रयुक्त लेजर किरणें ऊतकों को जलाती या काटती नहीं हंै, बल्कि यह कोशिकाओं के बीच में आणविक बन्धनों को तोड़कर और आस-पास के हिस्से को नुकसान पहुंचाये बगैर ऊतकों को तराश देती हंै और काॅर्निया का घुमाव बदल देती हैं ताकि रोशनी पर्दे पर ठीक से केन्द्रित हो सके। आॅपरेशन के दौरान मरीज को कोई दर्द नहीं होता है, सिर्फ उसे 10-90 सेकण्ड तक एक लाइट को लगातार देखना होता है। 


रिफाइंड आहार से बढ़ते हैं मुंहासे

ब्रेड और शोधित अनाजों का बहुत अधिक सेवन मंुहासे को आमंत्राण दे सकते हैं। अमरीका के फोर्ट कोलिंस स्थित कोलोराडो स्टेट युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने नवीनतम अध्ययन में पाया है कि बे्रड और शोधित अनाज में मौजूद शोधित कार्बोहाइड्रेट शरीर में ऐसी अनेक तरह की प्रतिक्रियायें करता है जिसके कारण मुंहासे पैदा करने वाले जीवाणु की पैदाइश को बढ़ावा मिलता है। 
न्यू साइंटिस्ट नामक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट में आस्ट्रेलिया के मेलबोर्न स्थित आर एम आई टी युनिवर्सिटी के पोषण वैज्ञानिक नील मान ने उक्त निष्कर्ष की पुष्टि के लिये 60 किशोरों पर एक और अध्ययन करने की योजना बना रहे है। इस अध्ययन के तहत इन किशोरों को तीन माह के लिये कम कार्बोहाइड्रेट  वाले आहार खाने को दिया जायेगा।
मुंहासे की समस्या ने विकसित देशों में अत्यंत गंभीर रूप ले लिया है। हालांकि पापुआ न्यू गिनिया के कितावा प्रायद्वीप पर रहने वाले समूहों की तरह कुछ अन्य समूहों में मुंहासे की समस्या बिल्कुल नहीं है। कितावा प्रायद्वीप में शोधित आहार का उपयोग नहीं के बराबर होता है। अत्यधिक शोधित आहार से केवल मुंहासे की समस्या ही नहीं बढ़ती बल्कि इससे मधुमेह और मायोपिया का भी खतरा बढ़ता है।
कोलोराडो स्टेट युनिवर्सिटी की ओर से हुये उक्त अध्ययन का नेतृत्व करने वाले डा. लोरेन कोर्डेन के अनुसार अलास्का में रहने वाले लोगों को तब तक मुंहासे नहीं होते जब तक कि वे पश्चिमी भोजन का इस्तेमाल नहीं करने लगते हैं।  
अत्यधिक शोधित आहार से केवल मुंहासे की समस्या ही नहीं बढ़ती बल्कि इससे मधुमेह और मायोपिया का भी खतरा बढ़ता है। मुंहासे आम तौर पर 12 से 22 साल की उम्र में अधिक निकलते हैं। कम उम्र की 90 प्रतिशत लड़कियां किसी न किसी हद तक मुंहासे की समस्या से ग्रस्त रहती हैं। हार्मोन संबंधी परिवर्तन एवं आनुवांशिक कारणों के अलावा स्टेराॅयड, कुछ तरह की गर्भनिरोधक गोलियों तथा तपेदिक एवं मिर्गी की दवाईयों के सेवन से भी मुंहासे हो सकते हैं या उनमें वृद्धि हो सकती है।


गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से स्तन कैंसर का खतरा

गर्भ निरोधक गोलियों के सेवन से स्तन कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। एक नवीनतम अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि जिन महिलाओं में स्तन कैंसर पैदा करने वाले जीन होते हैं उन्हें गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से यह कैंसर होने की आशंका और प्रबल हो जाती है।
शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने अपनी एक शोध रिपोर्ट में कहा है कि जिन महिलाओं में बीआरसीए-1 नामक जीन होते हैं उन्हें जीवन काल में स्तन कैंसर होेने का खतरा 80 प्रतिशत तक होता है जबकि सामान्य महिलाओं को यह खतरा करीब 11 प्रतिशत होता है। बीआरसीए-1 जीन को वहन करने वाली महिलाओं पर किये गये अध्ययन से पता चला कि जिन महिलाओं ने गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन किया उनमें स्तन कैंसर का खतरा एक तिहाई बढ़ गया। यही नहीं इन्हें 40 वर्ष से कम उम्र में ही स्तन कैंसर होने की आशंका बढ़ गयी। इस अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं की टीम का नेतृत्व करने वाले वैज्ञानिक कनाडा के टोरंटो युनिवर्सिटी के डा. स्टीवन नैरोड का कहना है कि बीआरसीए-1 जीन वहन करने वाली महिलाओं को 25 वर्ष की उम्र के पूर्व गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन नहीं करना चाहिए।
फेफड़े के कैंसर के बाद स्तन कैंसर महिलाओं का दूसरा सबसे बड़ा हत्यारा है। डा. नैरोड एवं उनकी टीम ने बीआरसीए-1 तथा बीआरसीए-2 जीन को वहन करने वाली 26 हजार महिलाओं पर यह अध्ययन किया। इन महिलाओं का चुनाव 11 देशों से किया गया। इनमें से एक हजार 311 महिलाओं को स्तन कैंसर था तथा एक हजार 311 महिलाओं में स्तन कैंसर के लक्षण प्रकट नहीं हुए थे।
द जर्नल आफ नेशनल कैंसर इंस्टीच्यूट के ताजे अंक मंे प्रकाशित शोध रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने कहा है कि उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि गर्भ निरोधक गोलियों के सेवन के कारण बीआरसीए-2 जीन वहन करने वाली महिलाओं में स्तन कैंसर के खतरे में बहुत ही मामूली वृद्वि हुई जबकि बीआरसीए-1 जीन वहन करने वाली महिलाओं में यह खतरा एक तिहाई बढ़ गया।
इस अध्ययन में शामिल कैलिफोर्निया के ड्यूरेट स्थित होप हाॅस्पीटल के डा. जेफरी व्हीटजेल ने बताया कि इस अध्ययन से यह भी पाया गया कि अलग-अलग देशों में गर्भ निरोधक गोलियों के प्रभाव से स्तन कैंसर बढ़ने का खतरा अलग-अलग है और इसका संबंध विभिन्न देशों में जीवन शैलियों में अंतर से है। डा.व्हीटजेल का कहना है कि युवा अवस्था में गर्भ निरोधक का दुष्प्रभाव अधिक होता है क्योंकि उसी अवस्था में कैंसर पूर्व परिवर्तन अधिक होते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि अधिक उम्र की महिलायें गर्भ निरोधक गोलियों का सेवन कर सकती हैं। 30 वर्ष की उम्र के बाद गर्भ निरोधक गोलियों के सेवन के कारण स्तन कैंसर का खतरा नहीं बढ़ता है बल्कि अधिक उम्र में गर्भ निरोधक गोलियों के सेवन से गर्भाशय कैंसर के खतरों को कम किया जा सकता है।


यजुर्वेद में जड़ी—बूटियों और पौधों का वर्णन 

पौराणिक ग्रंथों में जड़ी- बूटियों, झाड़ियों और पेड़ों सहित विभिन्न पौधों की प्रजातियांे का वर्णन किया गया है। वेदों में पौधों / पेड़ों के जीवन के लिए सौ गुना सम्मान और श्रद्धा व्यक्त किया गया है। यजुर्वेद (वाईवी) संहिता, ब्राह्मण, अर्याका और उपनिषद में कई वनस्पति विज्ञान और कृषि संबंधी शब्दावलियों का वर्णन किया गया है। 
संस्कृत एवं वैदिक अध्ययन संस्थान, बेंगलुरू के राघव एस. बोद्दुपल्ली के अनुसार यजुर्वेद की सभी शाखाओं में पौधों के विवरण में कई समानताएं हैं। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं में तैत्तिरिया सबसे महत्वपूर्ण शाखा है। तैत्तिरिया संहिता (टीएस) और वजसनेई संहिता (वीएस) में पौधों के विभिन्न भागों का भी वर्णन किया गया है और इनकी व्याख्या की गई है। टीएस पौधों के साम्राज्य को इनके रूप और विकास के आधार पर कई वर्गों में वर्गीकृत करता है। वाईवी संहिता और ब्राह्मण में अनुष्ठानिक महत्व का वर्णन किया गया है। यज्ञ और यग वाईवी की मौलिक विशेषताएं हैं। वाईवी में वर्णन की गई जड़ी- बूटियां और पेड़ अनुष्ठान गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण हैं।
इस कार्य में, पौधों, पेड़ों और उनके उत्पादों के नामों पर व्यापक रूप से चर्चा की जाती है जिन्हें विशेष रूप से वाईवी में वर्णित यज्ञ, यग, होम और इस्तिस में उपयोग किया जाता है। यज्ञ में उपयोग की जाने वाली चीजों का वाईवी में अच्छी तरह से वर्णन किया गया है। यज्ञ में इस्तेमाल की जाने वाली अधिकांश चीजों या पात्रों को लकड़ी से निर्मित किया जाता है और जिन पेड़ों की लकड़ियों से इन्हें बनाया जाता है उन्हें निर्दिष्ट किया जाता है और वाईवी में इनका उल्लेख किया जाता है। वाईवी में जादूई और दवा के तत्व होते हैं। कुछ जड़ी- बूटी सीधे उपयोगी होती हैं, जबकि कुछ अन्य अप्रत्यक्ष रूप से उपयोगी होते हैं। अरगवधा के धुआं को अंदर लेने पर यह विषैला होता है। जबकि कई जड़ी-बूटियां शारीरिक बीमारियों का इलाज करती हैं, जबकि कुछ अन्य जड़ी- बूटियांे का प्रभाव दिमाग पर पड़ता है। अपमारगा होमा इनका इस्तेमाल करने वाले को शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। अश्वत्था, उडुम्बरा, न्याग्रोधा और प्लाक्सा के इधमा का इस्तेमाल मानसिक गड़बड़ी का इलाज करने के लिए किया जाता है। इसी तरह वाईवी में उल्लेख किए गए जादुई और औषधीय महत्व के कई पौधों के गुणों पर चर्चा की गई है।


भट्टसहिता में जीवविज्ञान 

भट्टसहिता 5 वीं शताब्दी सीई से संबंधित आचार्य वराहमिहिर का एक विश्वकोषीय संग्रह है। यह एक ही रचना में ज्ञान की सभी शाखाओं को कवर करने वाली दुर्लभ किताबों में से शायद एक है। वर्तमान अध्ययन में वनस्पति विज्ञान, प्राणीशास्त्र, वानिकी, बागवानी / वृक्षसंवर्धन, कृषि, जल वितरण, जल विज्ञान, पारिस्थितिकी आदि जैसे मानव प्रयासों के सभी जैविक पहलुओं को शामिल किया गया है। वर्ष 2017-18 के दौरान, गंधयुक्ति (सुगंध), जीव और उदकार्गला ( भूमिगत पता लगाने की वैज्ञानिक विधियां) का अध्ययन किया गया।
गंधयुक्ति सुगंध और षौचालय में इस्तेमाल किये जाने वाले सामानों के सभी पहलुओं से संबंधित है। इसे शाब्दिक रूप से 'सुगंध की तकनीक' के रूप में अनुवादित किया जा सकता है। वरहमिहिर इत्र बनाने की प्रक्रिया के दौरान डेकोक्शन (पक्वा), हीटिंग (ताप्ता), मिश्रण इत्यादि जैसे विभिन्न प्रकार की तकनीकों से संबंधित है। फूल, फल, टहनियां, पत्तियां आदि जैसे विभिन्न प्रकार के पौधे आधारित कच्चे मालों का इस्तेमाल  सुगंध निकालने के लिए किया जाता है। इन उत्पादों में बालों के तेल, इत्र, स्नान के लिए सुगंधित पानी, माउथ फ्रेषनर, बाथ पाउडर, धूप इत्यादि शामिल हैं।
इस पौराणिक पुस्तक के लगभग सात अध्यायों में जीव (जानवर) को शामिल किया गया है और जो हमें 5 वीं शताब्दी सीई के प्राचीन भारत की पशु विविधता को समझने में मदद करता है। अध्यायों में न केवल विभिन्न जानवरों और उनके उपयोगों को सूचीबद्ध किया गया है, बल्कि उन्हें पहचानने में सहायता के लिए जानवरों का वर्गीकरण भी किया गया है। 
जानवरों को ग्रामीण (ग्राम्य), जंगली (वान्या), जलीय (जलाकार) आदि में वर्गीकृत किया जाता है। जंगली जानवरों का उल्लेख है कि शेर, हाथी, सूअर, बाघ, भालू, हिना, बंदर, हिरण आदि हैं। पालतू जानवर गायों हैं, बैल, कुत्तों, घोड़े, बकरी इत्यादि। उदकर्गला (जिसे डकारगला भी कहा जाता है) भूमिगत पानी का पता लगाने के वैज्ञानिक तरीकों से संबंधित है। यह आचार्य वरहमहिहिरा के गहन ज्ञान के बारे में एक आश्चर्यजनक बात है कि बॉटनी, भूविज्ञान, पेडोमोर्फोलॉजी, जल विज्ञान, पारिस्थितिकी आदि जैसे अन्य विविध विषयों के बारे में अन्य गैर-जैविक विज्ञानों के बारे में बात न करें।


प्राचीन भारत में रोगों और आहार के बारे में क्या थी धारणा 

जीवन को बरकरार रखने के लिए सबसे जरूरी चीजों में भोजन और पोशण संबंधी देखभाल षामिल है ओर यह स्वस्थ शरीर और मस्तिश्क के विकास के लिए भी जरूरी है। स्वस्थ्य षरीर एवं मस्तिश्क के विकास के लिए भोजन और पोषण महत्वपूर्ण है और यह अनेक बीमारियों को रोकने के लिए भी जरूरी है। साथ ही साथ भोशण और पोशण बिमारियों की रोकथाम और उनके उपचार में भी असरदार है। 
कोलकाता के कैंसर फाउंडेशन ऑफ इंडिया की सुक्ता दास के अनुसार भारत में भोजन को तंदुरूस्ती के साथ जोड़कर देखे जाने की लंबी परंपरा रही है जो कि वैदिक मंत्रों, उपनिशदों के आध्यात्मिक चिन्तनों, और भारत के प्राचीन चिकित्सा- शास्त्रों में प्रलक्षित होता है। इस अध्ययन को, तंदुरूस्ती और रोग की स्थितयों में भोजन और पोषण की उस धारणा पर केन्दित करने की कोशिश की गई जो शुरूआती चिकित्सा-शास्त्रों  मसलन. चरक संहिता, सुुश्रत संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय और भव्यप्रकास में उल्लेखित हैं।
इन चिकित्सा-शास्त्रों की आलोचनात्मक समीक्षा इस बात की ओर इशारा करती है कि उस वक्त भोजन-विज्ञान काफी विकसित था और इंसानी तंदुरुस्ती से खान-पान के संबंध का तार्किक आधार था। ऐसा लगता है कि उस वक्त, खाद्य संबंधी चयापचय की काफी जानकारी थी, यह समझ थी कि भोजन, सारी शारीरिक क्रियाओं के लिए उर्जा देने वाला और कोशिकाओं एवं उत्तकों को बनाने वाला एक स्त्रोत है। ऐसा माना जाता था कि अलग-अलग दैहिक और रोग संबंधी हालत और जीवन के विभिन्न चरणों के अनुसार विभिन्न भोजन अपेक्षित हैं। इसलिए समुचित आहार के चयन की जरूरत पर जोर दिया जाता था ताकि षरीर के सारे महत्वपूर्ण हिस्से को जरूरी पोषक-तत्व मिलता रहे। चिकित्सक, जो आहार और पोषण का अच्छा जानकार होता था, की सलाह पर व्यक्ति विशेष के अनुसार संतुलित आहार बनाने की राय दी जाती थी। स्वस्थ जीवन के एक आधार के तौर पर आहार नियम को बढ़ावा देने के समुचित सुझाव दिए जाते थे ताकि पौष्टिक और हानिकारक आहार तत्व और उनके सम्मिश्रण को पहचाना जा सके। य़हां, भोजन पकाने के उचित और साफ-सुथरे तरीके, उसके रख-ऱखाव और परोसने पर जोर दिया जाता था। साथ ही, हानिकारक खान-पान की आदत से परहेज पर भी जोर था। प्रतिदिन खान-पान के तौर-तरीके को स्पष्ट रूप से बताया गया है जिसे लागू करके सेहत और तंदुरूस्थी पायी जा सकती है। व्यक्ति विशेष की बनावट, पाचन-शक्ति, उम्र और परिवेश के हिसाब से आहार के चयन में फेरबदल पर भी ध्यान दिया गया था। आहार और रोग के कारण-उपचार संबंध को बताया गया था और स्वास्थ्य़ के विकास और रोग के रोक-थाम के लिए खान-पान के वैज्ञानिक सूझाव दिए गए थे। पाचन-तंत्र और इसके सुचारू काम-काज को अहम माना गय़ा क्योंकि अच्छी सेहत और लंबी उम्र  पौष्टिक-आहार की आपूर्ति और उपलब्धता पर निर्भर है। इन चिकित्सकीय ग्रंथों का गहन अध्ययन य़ह बताता हैतंदुरूस्त शरीर और दिमाग के साथ निरोग जीवन के ऱख-रखाव में पुरातन समझ और समग्र दृष्टि की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।


क्या औपनिवेशिक बंगाल में टॉनिक मर्दानगी हासिल की जाती थी

पुरानी कमजोरी के इलाज के तौर पर चिकित्सक कई तरह की टाॅनिकों एवं गोलियों का सेवन करने का सुझाव देते रहे हैं। आयुर्वेद में एफ़्रोडाइजियस के रूप में कार्य करने वाली ढेर सारी दवाइयां उपलब्ध है।  ये सभी दवाइयां खोई हुई जवानी और यौन क्षमता बढ़ाने के नाम पर बाजार में बिक रही है। इन टाॅनिकों का विज्ञापन करने वालेों के लिए काफी संभावनाएं मिल जाती है क्योंकि इस क्षेत्र में काफी रिक्तता है जिसे भरा जाना बाकी है। विज्ञापन दाता आदमी के यौन स्वास्थ्य के बारे में परम्परागत विचारों को आगे बढातें है और इस तरह से उन्हें उम्मीद होती है कि विज्ञापन पढ़ने वाले उन टाॅनिकों, औशघियों और लोषनों को खरीदेंगे। विज्ञापनदाता पुरूषों की यौन क्षमता की दुनिया में प्रचलित चिंताओं को प्रचारित करते हैं और बताते हैं कि राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जो कमियों हैं उनका संबंध यौन कमियों से है। 


बंगाल मे मर्दानगी अलग-अलग स्तरों पर विकसित हुई। शोधकर्ता मृणालिनी सिन्हा का तर्क है कि बंगालियों को लेकर औपनिवेशिक ठेठ धारणा उनकी पश्चात्य षिक्षा से उत्पनन मूल्य संबंधी विकास और मार्शल रेसियोलाॅजी के बीच झूलतीरही। बंगाली, आला दर्जे के बुद्धिजीवी लेकिन साथ ही साथ दास मानसिकता के माने जाते रहे जिनका जीवन सोचने-समझने वाला रहा लेकिन साथ ही साथ बहुत ही अषक्त रहे। वे ऐसे नस्ल के सदस्य रहे जो शायद कभी बहादुर था।


भौतिक सांस्कृतिक आन्दोलन में मर्दानगी पर जोर गोरे शासक वर्ग के नस्लवाद का जवाब था। बंगाल में राष्ट्रवाद मर्दानगी की धारणा में घुलमिल गई थी। पश्चिम बंगाल के आसनसोल के काजी नजरूल यूनिवर्सिटी के अमिताभ चटर्जी के अनुसार प्रारंभिक राष्ट्रवाद के पाठ्यक्रम के एक आवश्यक हिस्से के रूप में भौतिक संस्कृति के विचार को औपनिवेशिक बंगाल में तुरंत स्वीकृति मिली। मीडिया ने ताकत, तेज और पुरूशत्व बढ़ाने के उपाय के रूप में एंड्रोजेनिक एनाबॉलिक स्टेरॉयड की महिमा की। 


भारत में दवाइयों की खोज की चुनौतियां 

औषधि का विकास आज कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रहा है। बढ़ती लागत, अधिक विफलताओं और पेटेंट की समस्या के कारण घटते राजस्व प्रमुख योगदानकर्ताओं में से कुछ हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि बाजार में लाई गई प्रति दवा की लागत 4 बिलियन अमरीकी डालर या उससे अधिक है, जो वास्तविक लागतों के साथ-साथ विकसित करने में विफल रही दवाओं के लिए लागत के समावेश जैसी चीजों से प्रेरित है। वास्तव में नयी दवाओं के साथ स्वाभाविक रूप से अधिक जोखिम भी  जुड़ी होती हैं। यह वार्ता दवा विकास के विभिन्न चरणों में जोखिमों पर ध्यान केंद्रित करेगी और कुछ दृष्टिकोण सुझाएगी जो मदद कर सकते हैं।
एक प्रमुख चुनौती यह है कि कई बीमारियों के मामले में प्रक्रियाएं अभी भी खराब समझी जाती हैं। इसकी वजह से, सटीक रूप से प्रभावकारिता की भविष्यवाणी करने के लिए पशु मॉडल अक्षम होना दवा विकास के लिए एक चुनौती है, विशेष रूप से कुछ चिकित्सीय श्रेणियों में जिसमें मौजूदा पशु मॉडल की नकल के कारण ट्रांसलेषनल विफलता हुई है। नैदानिक विकास करने के बारे में निर्णय लेते समय प्रीक्लिनिकल डेटा के खोज अनुसंधान, वैज्ञानिक वैधता और पुर्नउत्पादन के सफल रूपांतरण के लिए एक लैब से दूसरे लैब में प्रकाशित डेटा की पुनरुत्पादकता महत्वपूर्ण है।।
मानव फीनोटाइप दवा की खोज में बेहतर योगदान कर सकते हैं; इसलिए, इसे पहले मनुष्यों में शुरू करना चाहिए, फिर पशु मॉडल में मान्य करना चाहिए और यह दवा विकास के लिए फायदेमंद हो सकता है। रोगियों की जटिलता और विषमता के कारण, बहुस्तरीय दृष्टिकोणों पर अधिक जोर देने से सफल दवाओं की संख्या बढ़ सकती है।
इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, पारंपरिक दृष्टिकोण से प्रतिमान में बदलाव की आवश्यकता है। सार्वजनिक-निजी पार्टनरशिप और शिक्षा, उद्योग और सरकार के बीच प्री-कॉम्पटिटिव स्पेस के विस्तार से डी-रिस्क रिसर्च में मदद मिल सकती है। उद्योग उन प्रक्रियाओं में सफल होता है जिनके लिए पैमाने और बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होती है, जबकि दवा की खोज के लिए आवश्यक बायोमेडिकल अनुसंधान में शिक्षा नए ज्ञान का एक स्रोत बनी हुई है। विनियामक चुनौतियों पर काबू पाने के लिए, विभिन्न विनियामक एजेंसियों के बीच आवश्यकताओं का सामंजस्य और पूर्वानुमानित परीक्षा और अनुमोदन समयसीमा के साथ स्वीकृत समयसीमा से दवा अनुमोदन के दर में वृद्धि होगी और समय भी कम लगेगा। भविष्य के बायोमार्कर की पहचान करने के उद्देश्य के साथ रोगियों को संतुश्ट करने में सक्षम करने के लिए रोगी फेनोटाइप और जीनोटाइप को समझना विकास को गति देने में मदद कर सकता है। मानव नमूनों तक विस्तारित पहुंच एक और महत्वपूर्ण पैरामीटर है जो लक्षित आबादी को चिह्नित करने में महत्वपूर्ण मदद कर सकता है। और अंत में, रोगी को दर्ज करने से तेजी से और लागत-कुशल विकास हो सकेगा। समग्र दवा खोज और विकास प्रक्रिया पर एक परिप्रेक्ष्य वह संदर्भ प्रदान करेगा जिसके खिलाफ मुद्दों को उद्योग के दृष्टिकोण से उजागर किया जाएगा।


दीपा जोशी, उपाध्यक्ष, खोज अनुसंधान और नैदानिक ​​विकास, टोरेंट फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड, अहमदाबाद


जाड़ों में त्वचा को कैसे रखें महफूज

अक्सर मौसम में आने वाले बदलाव से हमारी त्वचा अछूती नहीं रह पाती है। जिस तरह गर्मियों में गर्म हवा के थपेड़ों, पसीने और धूल से त्वचा की रक्षा करनी पड़ती है उसी तरह से सर्दियों में त्वचा को ठंड की मार से बचाना जरूरी हो जाता है। सर्दियों में विशेष तौर पर शुष्क एवं सामान्य त्वचा की खास देखभाल की जरूरत होती है। क्योंकि इस मौसम में विशेषकर शुष्क और सामान्य त्वचा और अधिक शुष्क हो जाती है जबकि तैलीय त्वचा वालों के लिए यह मौसम लाभदायक साबित होता है क्योंकि यह त्वचा इस मौसम में भी अधिक शुष्क नहीं होती है और कील-मुंहासों से भी राहत मिलती है। लेकिन त्वचा चाहे तैलीय हो या शुष्क इस मौसम में हर किस्म की त्वचा की विशेष देखभाल जरूरी है वरना त्वचा के अधिक शुष्क होने और उसकी चमक खोने की संभावना होती है। सर्दियों में त्वचा की तैलीय ग्रंथियों की सक्रियता कम हो जाती है और वे त्वचा को आवश्यक चिकनाई देने वाली सीबम का उत्पादन कम करने लगती हैं जिससे त्वचा शुष्क होकर फटने लगती है। इसलिए इस मौसम में त्वचा को शुष्कता से बचाने के लिए त्वचा पर अधिक से अधिक माॅइश्चराइजर का इस्तेमाल करना चाहिए और त्वचा को कभी शुष्क नहीं होने देना चाहिए। तैलीय त्वचा कम शुष्क होती है इसलिए इसके लिए थोड़े माॅइश्चराइजर का इस्तेमाल ही पर्याप्त है। आजकल कई किस्म के माॅइश्चराइजर बाजार में आ गए हैं, लेकिन लक्मे का माॅइश्चराइजर, जैतून का तेल, कमल से बनाए गए माॅइश्चराइजर अधिक लाभदायक और सुरक्षित होते हैं। इस मौसम में साबुन का इस्तेमाल कम करना चाहिए क्योंकि साबुन त्वचा की नमी को सोखकर और अधिक शुष्क कर देता है। चेहरे को साबुन की बजाय फेस वाश से साफ करना बेहतर है। इसके लिए पांड्स या पियर्स का फेसवाश इस्तेमाल किया जा सकता है। 
सर्दियों में दिन के समय हल्का माॅइश्चराइजर जबकि रात के समय एवाॅन, ओरिफ्लेम या पांड्स का ओवरनाइट क्रीम का इस्तेमाल करना चाहिए। चेहरे पर कील-मंुहासे होने पर कमल से बने एंटीएक्ने क्रीम का प्रयोग बहुत फायदेमंद साबित होता है। चेहरे पर झुर्रियां होने पर एवाॅन का एंटी रिंकल क्रीम का इस्तेमाल किया जा सकता है। क्रीम या माॅइश्चराइजर लगाते समय इसे त्वचा में अच्छी तरह से मिला लेना चाहिए। चेहरे पर एवाॅन का पीटी व्हाइट क्रीम लगाने से भी त्वचा चिकनी रहती है और यह सनटैन को भी हटाता है।
- स्क्रब का इस्तेमाल कर भी त्वचा से गंदगी साफ की जा सकती है और इसे साफ-सुथरा बनाया जा सकता है। इसके लिए एवाॅन का एप्रीकाॅट स्क्रब का इस्तेमाल किया जा सकता है। 
सप्ताह के आखिरी दिन चेहरे पर मलाई (दूध का क्रीम) लगाकर 5-10 मिनट के बाद इसे धो लेना चाहिए। इससे चेहरा चिकना हो जाता है और चेहरे से सनटैन और गंदगी साफ हो जाती है। इसके बाद बर्फ के दो टुकड़े को चिकना कर चेहरे पर रगड़ना चाहिए। इससे त्वचा में निखार आ जाता है। सप्ताह में एक बार गर्म पानी का भाप लेना भी फायदेमंद होता है। एक बड़े मग या कटोरे में गर्म पानी रखकर चेहरे को तौलिये से ढककर कटोरे से इतना ऊपर रखना चाहिए ताकि भाप आसानी से चेहरे तक पहुंच जाए। इसके अलावा फेस पैक का इस्तेमाल किया जा सकता है। फेस पैक के लिए मुल्तानी मिट्टी सबसे अच्छा होता है। बाजार में उपलब्ध फेस पैक का भी त्वचा की बनावट के अनुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। किसी ब्यूटीशियन से कम से कम दो महीने में एक बार फ्लावर फेशियल या फ्रूट फेशियल कराना न भूलें। 30 साल से अधिक उम्र होने पर महीने में एक बार फेशियल कराना जरूरी है। इससे त्वचा में निखार आ जाता है। 
जाड़े के मौसम में शुष्क हवा त्वचा की नमी को सोख लेती है जिससे त्वचा का खुरदरा होना, त्वचा में दरारें पड़ना और खुजली तथा जलन जैसी समस्याएं हो जाती है जिससे त्वचा सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है और इससे त्वचा को अधिक क्षति पहुंचती है। इसलिए जाड़े के मौसम में सूर्य की किरणों से त्वचा की रक्षा करना बेहद जरूरी है। इस मौसम में सनस्क्रीन का इस्तेमाल तो जरूरी नहीं है लेकिन घर से निकलते समय चेहरे पर माॅइश्चराइजर जरूर लगा लेना चाहिए वरना सनबर्न होने का खतरा रहता है। इस मौसम में होंठों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। होंठों पर लिप बाम या वैसलिन जरूर लगाए रहना चाहिए। रेटिन-ए या रिनोवा जैसे ट्रिटिनोइन क्रीम का इस्तेमाल करने वाले लोगों को सनस्क्रीन के इस्तेमाल के प्रति विशेष एहतियात बरतनी चाहिए क्योंकि इसके इस्तेमाल से उन्हें सनबर्न होने का खतरा हो सकता है।
इस मौसम में गर्म पानी का इस्तेमाल तो सही है लेकिन बहुत अधिक गर्म पानी या लंबे समय तक गर्म पानी के शावर से नहाने से त्वचा को नुकसान पहुंच सकता है। यह त्वचा से प्राकृतिक नमी और वसा को निचोड़ सकती है। इसलिए हल्के गर्म पानी के शावर का कम समय तक इस्तेमाल बेहतर है। नहाने के बाद त्वचा शुष्क हो जाती है इसलिए नहाने के तुरंत बाद त्वचा पर माॅइश्चराइजर लगा लेना चाहिए। हाथों, एड़ियों या अन्य अधिक शुष्क या दरार वाली जगहों पर माॅइश्चराइजर लोशन का इस्तेमाल किया जा सकता है।
हालांकि जाड़े के मौसम में घरों के अंदर  नमी रहती है लेकिन जिन घरों में नमी नहीं रहती है वहां ह्यूमिडिटीफायर का इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे त्वचा और विशेषकर नाक के अंदर नमी बनी रहती है। जिन लोगों की नाक सूखी रहती है या नाक से रक्तस्राव होता हो वे नाक के अंदर वैसलिन का इस्तेमाल कर सकते हैं इससे नाक के अंदर नमी बनी रहती है।
अधिक शुष्क त्वचा वाले लोगों को इस मौसम में एक्जिमा, सोराइसिस, डर्मेटाइटिस या त्वचा संबंधी अन्य बीमारियां होने की आशंका होती है। ऐसी त्वचा में दरारें पड़ने, जख्म होने, त्वचा के खुरदुरे होने, पपड़ीदार होने या खुजली होने की भी आशंका होती है। इसलिए ऐसे लोगों को इस मौसम में त्वचा रोग विशेषज्ञ से सलाह लेकर उनका पालन करते रहना चाहिए।
छोटे बच्चों की त्वचा अधिक संवेदनशील होती है इसलिए यह आसानी से अधिक शुष्क हो जाती है। बच्चों को गर्म हवा के निकट अधिक देर तक रखने, वातावरण में आद्र्रता की कमी, त्वचा को अधिक रगड़ने और अधिक कड़े साबुन से नहाने के कारण उनकी त्वचा शुष्क होकर जल्द खुरदुरा हो जाती है या इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसलिए इस मौसम में बच्चों की त्वचा की शुष्क हवा से देखभाल बहुत जरूरी है। उनकी त्वचा में नमी बनाए रखने के लिए घर के अंदर तापमान को नियंत्रित रखना चाहिए और पर्याप्त नमी बनाए रखना चाहिए। बच्चों के शरीर पर माॅइश्चराइजर का इस्तेमाल भी आवश्यक है। बच्चों को नहाने के लिए हल्के गर्म पानी का प्रयोग करना चाहिए और नहाने के बाद शरीर को टाॅवल से अधिक रगड़ना नहीं चाहिए और  उनकी त्वचा पर स्कीन लोशन लगा देना चाहिए। स्कीन लोशन के अलावा नारियल, चमेली, गुलाब या चंदन के तेल का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।