बैलून कायफोप्लास्टी : स्पाइन की तपेदिक का का कारगर इलाज 

वर्तमान समय में स्पाइन टी.बी. (ट्यूबरकुलोसिस) के प्रकोप में काफी तेजी आ गयी है। कुछ साल पहले तक स्पाइन टी.बी. बहुत कम लोगों को होती थी लेकिन अब इनके रोगियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। और आज स्पाइन टीबी कमर दर्द एवं गर्दन दर्द की प्रमुख समस्या बन गयी है। आम लोगों में यह धारणा है कि फेफड़े की टी.बी. की तरह स्पाइन टी.बी. भी छुआछुत की बीमारी है। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से गलत है। दरअसल स्पाइन टी.बी. क्लोज ट्यूबरकुलोसिस होती है अर्थात इसके कीटाणु दूसरे लोगों को संक्रमित नहीं कर सकते।
स्पाइन टी.बी. होने के कारणों में शरीर में संक्रमण का होना और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होना प्रमुख है। इसलिये हमें खांसी, जुकाम, बुखार जैसी बीमारियों को हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिये क्योंकि ये बीमारियां धीरे—धीरे रोगों से बचाव करने की हमारे शरीर की शक्ति को कम करती हंै जिससे हमारा शरीर दूसरे रोगों से मुकाबला नहीं कर पाता और हम टी.बी. एवं अन्य बीमारियों से घिर सकते है। मधुमेह और कैंसर की दवाइयां शरीर की कोशिकाओं को मारती हैं जिससे भी शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति कम होती है।
क्या हैं लक्षण
कमर एवं गर्दन के सामान्य दर्द आराम करने पर ठीक हो जाते हैं लेकिन स्पाइन टी.बी. के कारण उभरने वाले कमर एवं गर्दन के दर्द आम तौर पर आराम करने के बाद भी ठीक नहीं होते। इसके अलावा स्पाइन टी.बी. होने पर रोगी को कमर दर्द के अलावा हाथ-पैर में झनझनाहट, सुन्नपन और कमजोरी आने, बैठे-बैठे अचानक उठने पर पैरों के सुन्न हो जाने, चलते-चलते अचानक गिर जाने, लगातार कब्ज, टट्टी और पेशाब में रुकावट आने या उन पर नियंत्रण नहीं रहने और लिखावट बदल जाने जैसी समस्यायें हो सकती हैं। इलाज नहीं कराने या इलाज में विलंब होने पर स्पाइन की हड्डी अंदर से गल जाती है और रोगी को लकवा (पारालाइसिस) मार देता है। स्पाइन टी.बी. में मरीज को शाम के वक्त हल्का बुखार रह सकता है और वजन दिनों-दिन गिरता जाता है।
कैसे होती है जांच 
इन लक्षणों वाले मरीजों में बीमारी का स्पष्ट तौर पर पता करने के लिये उनके रक्त का ई.एस.आर. परीक्षण, छाती का एक्स-रे, मांटुज जांच, स्पाइन की एक्स-रे जांच और कैट स्कैन जैसे परीक्षण किये जाते हंै। इनसे यह पता चल जाता है कि हड्डी गली हुई तो नहीं है या टी.बी. के कारण हड्डी के अंदर कोई संक्रमण तो नहीं रह गया है।
उपचार
इस बीमारी के दुष्प्रभावों में सबसे गंभीर है रीढ़ की हड्डी में असामान्यता उत्पन्न होना और जिसके गंभीर होने पर सर्जरी ही एकमात्र उपाय बचता है। आज के समय में कई ऐसी तकनीकें ईजाद की गई है जिसमें रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन न सिर्फ सुरक्षित हो गया है, बल्कि बिना चीर-फाड़ के आपरेशन होने से रोगी को बहुत जल्दी स्वास्थ्य लाभ होता है। इन तकनीकों में से एक तकनीक है बैलून कायफोप्लास्टी। इस तकनीक  में बिना किसी चीर-फाड़ के रीढ़ की हड्डी के फ्रैक्चर को ठीक किया जाता है। इस प्रक्रिया में दो बैलून इस्तेमाल किये जाते है, जिससे वर्टिबल कॉलम के दोनों तरफ हड्डी को सहारा दिया जाता है। इसमें बैलून को वर्टिबल कोशिकाओं के बीच में फुलाया जाता है ताकि कोशिकाएं अपनी सही स्थिति में आ सकें। बैलून हल्के तरीके से अंदरूनी हड्डी के अंदर जाकर वर्टिबल कोशिकाओं को उठा देते हैं और इससे बीच में रिक्त स्थान हो जाता है। उस रिक्त स्थान पर बोन सीमेंट जमा दिया जाता है। सीमेंट वर्टिबल को सही स्थिति में रखने में मदद करता है। इसके बाद बैलून को पिचका दिया जाता है और बाहर निकाल दिया जाता है।
बैलून कायफोप्लास्टी में एक फ्रैक्चर का इलाज करने में तकरीबन एक घंटा लगता है। इस प्रक्रिया को करने से पहले रोगी की स्थिति का जायजा लिया जाता है। पिछले दो दशकों से यह प्रक्रिया सबसे सुरक्षित मानी जाती है। बैलून कायफोप्लास्टी द्वारा रीढ़ की हड्डी की सर्जरी से टी.बी. जैसी गंभीर बीमारी का इलाज बिना किसी चीर-फाड़ के आसानी से किया जा सकता है जिससे रोगी को जल्द आराम मिलता है और संक्रमण की गुंजाइश कम रहती है!


कहीं कमर दर्द स्कोलियोसिस का संकेत तो नहीं

कमर दर्द का एक कारण स्कोलियोसिस भी है। स्कोलियोसिस नामक रोग में रीढ़ की हड्डी में असामान्य रूप से विकृति आ जाती है। इस बीमारी की चपेट में बच्चे ज्यादा आते हैं और यह रोग धीरे-धीरे बढ़ता है, जिसका पता युवावस्था तक नहीं चलता।
14 साल की होनहार और मेहनती सुरभि (बदला हुआ नाम) को कोई भी शारीरिक विकलांगता नहीं थी, लेकिन दो साल पहले सुरभि की दोस्त को उसकी पीठ के ऊपरी भाग में उभार नजर आया। शुरुआत में तो उसके माता-पिता ने इसे बढ़ती उम्र का कारण माना, लेकिन जब कोई सुधार नजर नहीं आया, तब उन्होंने डॉक्टर से सलाह ली। शुरुआती चेकअप में डॉक्टर ने पीठ दर्द को सामान्य बताया, लेकिन कंधे की जांच रिपोर्ट में उसके कंधे में विकृति का पता चला। इसके बाद एक्स-रे और एम.आर.आई. जांचों से पता चला कि सुरभि स्कोलियोसिस बीमारी से पीड़ित है। उसने नियमित रूप से डॉक्टरी परामर्श लिया और रीढ़ की हड्डी के संतुलन को बनाने के लिये सर्जरी का सहारा लिया।
कारण
हालांकि 80 से 86 प्रतिशत मामलों में स्कोलियोसिस के कारण अज्ञात होते हैं। कई बार जन्मजात कारण, ट्यूमर, चोट या किसी खास चिकित्सीय स्थिति जैसे लकवा (पैरालिसिस) या मांसपेशियों के कमजोर होने से भी स्कोलियोसिस होने का खतरा बढ़ जाता है।
ज्यादातर मामलों में स्कोलियोसिस का स्वरूप हल्का होता है, लेकिन कुछ मामलों में उम्र के साथ यह रोग बिगड़कर गंभीर रूप अख्तियार कर लेता है। रीढ़ की हड्डी शरीर का संतुलन बनाने में सहायक होती है और अगर इसमें असंतुलन हो तो यह विकलांगता का रूप ले लेती है। कई मामलों में गंभीर स्कोलियोसिस के लंबे समय तक चलने के कारण पीठ-दर्द, फेफड़ों और हृदय के क्षतिग्रस्त होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। जैसे-जैसे स्कोलियोसिस बढ़ता है, वैसे-वैसे पीड़ित व्यक्ति में शारीरिक विकृतियां नजर आने लगती हैं। इस बदलाव से रोगी खुद में असहज महसूस करता है और उसका आत्मविश्वास कमजोर होने लगता है।
इलाज
हल्के स्कोलियोसिस में इलाज की कोई आवश्यकता नहीं होती, लेकिन समय-समय पर चेकअप कराना जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि रीढ़ की हड्डी में कोई विकृति तो नहीं हुई। हालांकि रोग के गंभीर मामलों को ब्रेसिस और सर्जरी के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है।
ब्रेसिस - यह तकनीक उन मामलों में इस्तेमाल की जाती है, जिनमें स्कोलियोसिस की समस्या न हल्की और न गंभीर (मीडियम) होती है। खास तौर से बच्चों में यह तकनीक इस्तेमाल की जाती है, क्योंकि बच्चों की हड्डियां विकसित हो रही होती हैं। ब्रेसिस तकनीक इसका इलाज नहीं है, बल्कि यह स्कोलियोसिस को गंभीर होने से रोकती है। जब बच्चे की हड्डियों का विकास पूरा हो जाता है तो ब्रेसिस का इस्तेमाल रोक दिया जाता है।
सर्जरी - रीढ़ की हड्डी में अगर गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाए तो इस स्थिति में स्पाइन फ्यूजन सर्जरी ही एकमात्र उपाय है।
स्पाइन फ्यूजन सर्जरी स्कोलियोसिस के इलाज में सबसे कारगर और सुरक्षित तकनीक है। स्पाइन फ्यूजन का मकसद रीढ़ की हड्डी की विकृति को रोकना और जितना संभव हो सके रीढ़ की हड्डी की विकृति को सही करना है ताकि उसमें स्थिरता आ सके। सर्जरी के बाद के शुरुआती दो हफ्ते तक पीड़ित व्यक्ति को पूरी तरह से आराम करने की जरूरत होती है। ऑपरेशन के बाद के शुरुआती छह महीने तक कोई भी भारी काम या ज्यादा वजन उठाने की मनाही रहती है। नियमित तौर पर एक्स-रे और शारीरिक जांच की जाती है और साल के अंत तक व्यक्ति रोजमर्रा के काम कर सकता है।
सर्जरी पूरी तरह से सुरक्षित होती है और सर्जरी से मरीज को नुकसान नहीं बल्कि फायदा ही होता है। तकरीबन 95 प्रतिशत मामलों में सर्जरी सफल होती है लेकिन जरूरी यह है कि सर्जरी सेंटर अच्छा हो जहां योग्य एवं कुशल सर्जन तथा सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों।


डिप्रेशन से भागें नहीं, इसें स्वीकारें और इससे लड़ें

अक्सर हम लोगों को यह यह कहते हुए सुनते हैं कि डिप्रेशन विप्रेशन कुछ नहीं होता, बस अमीरों के चोंचले हैं, ख़ाली दिमाग़ का फ़ितूर है। जबकि डिप्रेशन वास्तविकता है। यह डिप्रेशन उम्र जेंडर या सोशल स्टेटस देखकर नहीं आता। यह ज़रूर है कि पढ़े लिखे और वेल टू डू फैमिली के लोग इसका पता लगाकर सही दिशा में कदम बढ़ाते हैं जबकि ग़रीब तबके के या अज्ञानी लोग ज़िन्दगी ख़त्म करने तक का एक्सट्रीम स्टेप ले सकते हैं चाहे वे इसे 'डिप्रेशन' नाम से न भी पुकारें। 


अगर कोई इंसान यह कहे कि उसे जीवन में कभी भी डिप्रेशन नहीं हुआ, या तो वह झूठ बोल रहा है या वह वाकई मोह माया के परे सच्चा सन्त है।हम सभी की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसी फेज़ आती है जब हमें दुनिया अपनी दुश्मन लगने लगती है। या लगता है हर कोई हमें जज करने बैठा है। लगता है ज़िन्दगी बेमकसद, बेसबब है। लगता है किसी को हमारी कद्र या ज़रूरत नहीं। कई बार सब कुछ छोड़ देने का दिल करता है। कभी कभी दुनिया भी। पर हम किस तरह से और कितनी जल्दी इस परिस्थिति से उबरते हैं, वही तय करता है कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य ठीक है या हमें मदद की ज़रूरत है। इसे मैं मदद कहना पसन्द करूँगी इलाज की बजाय। क्योंकि सही वक्त पर सही मदद मिल जाए तो कुछ गलत होने से बचाया जा सकता है।



दरअसल किसी खास परिस्थिति को झेलना, दबाव, तनाव, हार, त्वरित निर्णय लेने की क्षमता इन सबके बीज हमारे बचपन में बोए जाते हैं। अगर बच्चा भय, तनाव या असुरक्षा के माहौल में बड़ा हुआ है तो ये होता ही है। पर बज़ाहिर ऐसा कुछ न हो पर जिसके अभिभावक ऐसी सोच रखते हों कि ज़्यादा गोद में लेने से, लाड़ दुलार दिखाने से बच्चा बिगड़ जाएगा या रो रहा है तो रोने दो थक जाएगा तो खुद ही चुप हो जाएगा, ऐसे बच्चों का भावनात्मक पहलू काफी हद तक अविकसित रह जाता है। कई अपराधियों के इमोशनल कोशेंट्स किसी अबोध शिशु जितने पाए गए। मेरी आगामी किताब में मस्तिष्क विकास और व्यक्तित्व निर्माण पर पूरा एक भाग ही है। यहां डिप्रेशन के परिपेक्ष्य में बात करें तो अगर आपको या आपके किसी प्रियजन को इससे उबरने में दिक्कत हो और मित्रों की सलाह काम न आ रही हो तो प्रोफेशनल्स से मदद लेने में हिचकें नहीं। पागलों के डॉक्टर के पास जाने वाले पागल नहीं घोषित हो जाएंगे आप इससे। बल्कि समझदारी का ही सबूत देंगे।



बहरहाल एक काम जो हम कर सकते हैं, हम सभी, जिनके बच्चे हैं (बच्चे 3 साल के हैं या 33 साल के, फर्क नहीं पड़ता) और जिनके पति/पत्नी हैं, वे अपने बच्चों से, अपने जीवनसाथी से ये ज़रूर कह दे, कहे नहीं तो लिख दे, कि अभी तक जितनी भी आलोचनाएं की हैं, डाँट फटकार लगाई है, सिर्फ इसलिए क्योंकि आपको उनकी परवाह है क्योंकि आप उनसे बहुत प्यार करते हैं। ईमानदारी से मान लीजिये कि कई बार आपके व्यंग्यबाण आपके कटाक्ष बहुत तीखे हो जाते हैं दिल दुखाते हैं जिनपर आपको पछतावा भी होता है पर झिझक और कम्युनिकेशन गैप के कारण माफी नहीं मांग पाते पर फिर भी आप ये सब इसलिए नहीं करते कि आप उनकी दूसरों से तुलना करते हैं और उन्हें कमतर पाते हैं। उन्हें बताइये आप उन्हें किसी प्रतियोगिता में नहीं उतारना चाहते। उन्हें बताएं आप जो रोकटोक करते हैं इसलिए क्योंकि आपको उनकी सेहत की फिक्र है न कि इसलिए कि वे आपको किसी खास शेप साइज़ वज़न या रंग में देखकर प्यार करते हैं। उन्हें बताएं उनके ग्रेड उनका सिलेक्शन उनकी नौकरी उनका पैकेज सब सेकंडरी है। प्रायोरिटी सिर्फ और सिर्फ वे ही थे हैं और रहेंगे। आपकी बातें आपके अपनों की ज़िंदगी बदल सकती हैं। बना भी सकती हैं बिगाड़ भी सकती हैं। करके देखिए अच्छा लगेगा....


कमर दर्द से बचने के कुछ जरूरी टिप्स

आम तौर पर जब कमर दर्द होता है तो हम सोचते हैं कि शायद गलत वजन उठा लिया होगा या शायद गद्दा-बिस्तर ठीक नहीं है या हम गलत मुद्रा में बैठकर टीवी देख रहे थे। परंतु याद रहे कि कमर दर्द इतनी आसान समस्या भी नहीं है। सामान्य-सा प्रतीत होने वाला कमर दर्द किसी बड़ी मुसीबत का भी संकेत हो सकता है और अगर इसके सही कारण का पता नहीं चला और सही
समय पर इलाज नहीं हुआ तो यह आपको जीवनभर के लिए विकलांग तक बना सकता है। कमर दर्द के कारण कई हो सकते हैं। डिस्क खिसक जाना, स्पोंडिलोसिस, कमर की हड्डी (मेरूदंड या बर्टिबा) में पैदाइशी विकृति, बढ़ी उम्र के कारण इन हड्डियों का कमजोर हो जाना आदि बहुत-से कारण तो वे हैं जो सीधे मेरूदंड की बीमारी से ताल्लुक रखते हैं। शरीर के किसी अंग में पनप रहा
कैंसर भी कमर दर्द पैदा कर सकता है। कैल्शियम मेटाबॉलिज्म का नियंत्रण करने वाले सिस्टम (पैराथायरॉइड/ विटामिन डी/ किडनी आदि) की गड़बड़ी भी हड्डियों को कमजोर करके कमर दर्द पैदा कर सकती है। यह पढ़कर आपको डरने की जरूरत नहीं है बल्कि जागरूक और सावधान होने की जरूरत है।
कुछ महत्वपूर्ण बातें
70 से 80 प्रतिशत लोगों को अपने जीवन में कभी न कभी कमर दर्द होता है।
तीन दिन से अधिक समय तक बिस्तर पर लेट कर आराम करने से मांसपेशियां कमजोर होती हंै और इससे लगातार कमर दर्द हो सकता है।
कमर दर्द से ग्रस्त 10 में से एक व्यक्ति को गंभीर समस्या होती है और 100 में से एक व्यक्ति को सर्जरी की जरूरत पड़ती है।
रोजाना 20 मिनट ध्यान करने से कमर दर्द से राहत पाने में काफी मदद मिलती है। ध्यान की मदद से गंभीर कमर दर्द के मरीजों को चिकित्सक की मदद लेने की जरूरत 36 प्रतिशत तक कम हो सकती है।


कमर दर्द से निजात ऐसे पाएं
हर सप्ताह करीब एक घंटा पैदल चलने पर कमर दर्द के साथ-साथ हृदय रोग की आशंका भी घटायी जा सकती है।
तनाव, मोटापा तथा बैठने के गलत तौर-तरीके कमर दर्द को बढ़ाते हैं।
एक ही स्थिति में ज्यादा देर नहीं बैठें।
बहुत देर तक बैठना जरूरी हो तो बीच-बीच में थोड़े समय के लिये उठें।
इस तरह से बैठंे ताकि रीढ़ को सहारा मिलता रहे।
झटका दिये बगैर बैठंे या उठें।
जब भी कभी झुकना पड़े तो रीढ़ की जगह घुटने को झुकायें।
शारीरिक वजन कम रखें।
सदैव सीधा खड़ा हों।
मेज पर बैठकर ही खाना खायें।
 कैल्शियम से भरपूर आहार का सेवन करें।
रोजाना सुबह-शाम कम से कम एक घंटा व्यायाम अवश्य करें।


व्‍यायाम जो दिलाये मोटापे से आराम

मोटापा एक गंभीर समस्या है। इसका एहसास होने पर लोग मोटापे को कम करने और अपने शरीर को सही आकार में लाने के नए-नए तरीके ढूढ़ने लगते हैं। हालांकि कुछ व्यायामों को अपनी दिनचर्या में शामिल कर आप आसानी से वजन कम कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए समर्पण और लगन की आवश्यकता होती है।
स्वीमिंग 
अगर आप तैराकी जानते हैं तो मोटापा कम करने के लिए आप स्वीमिंग कर सकते हैं। स्वीमिंग से शरीर के हर अंग की एक्सरसाइज होती है। शरीर की कैलारी जलती है और अतिरिक्त चर्बी कम होती है। इसके अलावा यह एक्सरसाइज जोड़ों, चयापचय प्रक्रिया और फिटनेस के स्तर में सुधार करती है।
डांसिंग 
डांसिंग चयापचय और फिटनेस को बढ़ावा देने और वजन कम करने का एक मजेदार तरीका है। इन गतिविधियों में लिप्त होने से तनाव कम होता है और पेट और जांघों के आसपास के फैट को बनने से रोकता है। चेयर डांसिंग, डांसिंग के रूपों में से एक है जो मोटे लोगों के लिए फायदेमंद होता है।
तीव्र कार्डियो
कार्डियो प्रशिक्षण गतिविधियां जैसे, घूमना, तेज चलना, एरोबिक्स और साइकिलिंग शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होती है। नियमित रूप से कम से कम 15 मिनट तीव्र कार्डियो कैलोरी और फैट को जलाने में आपकी मदद करता है। इसके अलावा लिफ्ट की बजाय सीढ़ियों का इस्तेमाल करने की आदत डालें।
स्क्वैट्स
स्क्वैट्स को एक्सरसाइज में शामिल करना थोड़ा मुश्किल लग सकता है लेकिन आपको इस एक्सरसाइज का अभ्यास करना चाहिए। स्क्वैट्स आपकी कमर, घुटनों और पैर की मांसपेशियों के लिए बहुत लाभकारी होता है। इसे करने के लिए सीधे खड़ें हो और पैरों के बीच में थोड़ा गैप रखें। दोनों हाथों को उठाये और अपने कंधों के सामने ले आएं। अब घुटनों पर हल्का से भार देते हुए ठीक उसी तरह बैठने का प्रयास करें जैसे कुर्सी पर बैठते हैं। कमर सीधी रखें।
ट्राइसेप्स पुशअप
ट्राइसेप्स पुशअप करने के लिए जमीन पर घुटने रख कर बैठें। नीचे की ओर देखते हुए, अपने घुटनों और हाथों पर वजन रखें। अधिक लाभ के लिए 10 से 15 पुश प्रतिदिन करें। इससे मोटापा कम करने के साथ ही आपको सीने व बाहों को संतुलित बनाने एवं मांसपेशियों को मजबूत करने में मदद मिलेगी।
चेयर एरोबिक्स
अधिक वजन के लोगों के लिए यह बहुत ही संशोधित एक्सरसाइज हैं। उनके लिए कुर्सी एरोबिक्स और प्रतिरोध व्यायाम अधिक आरामदेह रहते हैं। इन एक्सरसाइज से वह अपने पैर, एड़ी, टांग, बाजुओं और हाथों का उपयोग कर सकते हैं।
स्टेप अप्स
स्टेप अप्स को उभरे हुई सतह पर करना ज्यादा फायदेमंद होता है। इसमें आप एक-एक कर दोनों टांगों को ऊपर की तरफ उठाते हुए आगे की तरफ बढ़ें। दबाव बढ़ाने के लिए आप चाहे तो स्कवाट वाली पॉजिशन में दोनों हाथों में डम्बल पकड़ लें।
एब्डॉमिनल एक्सरसाइज
मोटापे के लिए फैट को जलाने का मिशन पेट से शुरू होता है। ऐसे लोगों को घूमने, जॉगिंग और स्विमिंग से कुछ ज्यादा की जरूरत होती है। एब्डॉमिनल एक्सरसाइज जैसे कंचेज उन्हें शरीर के मध्य भाग से फैट को जलाने में मदद करती है।
स्ट्रेचिंग
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे वर्कआउट के साथ करते हैं या अपने पसंदीदा टीवी शो को देखते हुए करते हैं। लेकिन नियमित रूप से इसे करना न भूलें। शारीरिक गतिविधि स्वस्थ जीवन शैली का एक अनिवार्य घटक है। अच्छी तरह से स्ट्रेचिंग चोट के जोखिम को कम करती है और आपके शरीर में लचीलापन लाता है।


स्वस्थ रक्तचाप है स्वस्थ जीवन का आधार

रक्तचाप अगर असामान्य हो, तो कई बीमारियां आपको घेर सकती हैं। इसलिए इसे नियंत्रण में रखना बेहद जरूरी है। लेकिन, सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर स्वस्थ रक्तचाप क्या होता है और कैसे इसे कायम रखा जा सकता है। 
रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) रक्तवाहिनियों में बह रहे रक्त द्वारा वाहिनियों की दीवारों पर द्वारा डाले जा रहे दबाव को कहा जाता है। धमनियां वह नलिकाएं होती हैं जो रक्त को हृदय से शरीर के विभिन्न हिस्सों (ऊतकों और इंद्रियों) तक पहुंचाता है। हृदय रक्त को धमनियों में पंप कर धमनियों में रक्त प्रवाह को व्यवस्थित करता है। इस पर लगने वाले इस दबाव को ही रक्तचाप कहते हैं।
डायस्टोलिक रक्तचाप अर्थात नीचे वाली संख्या धमनियों में उस दाब को दर्शाती है जब संकुचन के बाद हृदय की मांसपेशियाँ शिथिल हो जाती हैं। रक्तचाप उस समय अधिक होता है जब हृदय रक्त को धमनियों में पंप करता है। एक स्वस्थ व्यक्ति का सिस्टोलिक रक्तचाप 90 और 120 मिलीमीटर के बीच होता है। सामान्य डायस्टोलिक रक्तचाप 60 से 80 मिमी के बीच होता है। वर्तमान दिशा-निर्देशों के अनुसार सामान्य रक्तचाप 120/80 होना चाहिए। रक्तचाप को मापने के लिए रक्तचापमापी या स्फाइगनोमैनोमीटर नामक उपकरण का प्रयोग करते हैं।
रक्तचाप में दो तरह की समस्याएं होती हैं -
(1) निम्न रक्तचाप (लो ब्लड प्रेशर) (2) उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर)।
निम्न रक्तचाप (लो ब्लड प्रेशर) - निम्न रक्तचाप वह दाब है जिससे धमनियों और नसों में रक्त का प्रवाह कम होने के लक्षण या संकेत दिखाई देते हैं। जब रक्त का प्रवाह काफी कम होता है तो मस्तिष्क, हृदय तथा गुर्दे जैसी महत्वपूर्ण इंद्रियों में ऑक्सीजन और पौष्टिक पदार्थ नहीं पहुंच पाते। यदि किसी को निम्न रक्तचाप के कारण चक्कर या मितली आती हो या फिर खड़े होने पर वह बेहोश होकर गिर पड़ता हो तो उसे आर्थोस्टेटिक उच्च रक्तचाप कहते हैं।
उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) - जब मरीज का रक्तचाप 140/90 से अधिक होता है तो ऐसी स्थिति को उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि धमनियों में उच्च तनाव है। उच्च रक्तचाप का मतलब अत्यधिक भावनात्मक तनाव होना नहीं है। भावनात्मक तनाव व दबाव अस्थायी तौर पर रक्त के दाब को बढ़ा देते हैं। सामान्यतः रक्तचाप 120/80 तक ही होना चाहिए।
139/89 के बीच का रक्त का दबाव प्री-हाइपरटेंशन कहलाता है और 140/90 या उससे अधिक का रक्तचाप उच्च माना जाता है। उच्च रक्तचाप से हृदय रोग, गुर्दे की बीमारी, धमनियों का सख्त होना, आंखें खराब होना और मस्तिष्क खराब होने का खतरा बढ़ जाता है।
रक्तचाप नियंत्रित करने के कुछ उपाय 
अगर रोजमर्रा की जिन्दगी में कुछ बातों का खयाल रखा जाए तो, रक्तचाप की समस्याओं से बचा जा सकता है।
प्रतिदिन करें व्यायाम
अगर आप स्वस्थ रहना चाहते है तो हर दिन व्यायाम करना जरूरी है। रोज कम से कम 30 मिनट तक व्यायाम अवश्य करें। यदि कोई रोग या समस्या से ग्रस्त हैं तो डॉक्टर से सलाह लें कि आपके लिए किस तरह का व्यायाम उचित है।
शराब से करें परहेज
यदि आप शराब पीते हैं तो आज ही इसका सेवन बन्द कर दें। बहुत से लोग शराब कम करने की सलाह देते हैं लेकिन इस तथ्य में कोई जोर नहीं है। यदि रक्तचाप की समस्या है तो शराब बंद करने और एक दुखद, पीडादायक जीवन में से किसी एक का चुनाव करना पूरी तरह आपके हाथ में है।
वजन पर रखें नियंत्रण
किसी भी व्यक्ति का उसकी लम्बाई और उम्र के हिसाब से एक स्वस्थ वजन होता है। जिसकी सही जानकारी के लिए अपने डॉक्टर से सलाह ले सकते हैं। यदि वजन अधिक है तो व्यायाम, नियंत्रित भोजन आदि की मदद से आप वजन पर नियंत्रण रखे सकते हैं।
नमक पर रखें नियंत्रण
यदि किसी व्यक्ति को अपना रक्तचाप नियंत्रण में रखना है तो उसे दिन भर में एक छोटी चम्मच से ज्यादा नमक का सेवन नहीं करना चाहिए। फास्ट फूड में सोडियम की मात्रा काफी अधिक होती है इसलिए उनका सेवन भी कम से कम ही करना चाहिए।
सही हो भोजन
भोजन का चयन करते समय सदैव ध्यान रखें कि वह आपके ह्रदय के लिए खतरनाक तो नहीं है। जितना हो सके कम से कम कोलेस्ट्राल वाला भोजन खाएं और संतृप्त वसा से भी परहेज करें।
समय पर डॉक्टर को संपर्क करें 
अगर अधिक समस्या हो रही है तो अपने डॉक्टर से जल्द संपर्क करें और यदि आपके डॉक्टर ने आपको दवाइयों का सेवन करने को कहा है तो बिना भूले और सही समय पर दवा लें।


महामारी बन रहे कमर दर्द से कैसे पाएं निजात

कमर दर्द आज सर्दी-जुकाम की तरह आम बीमारी बन गयी है जिससे हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति परेशान नजर आता है। हालांकि ज्यादातर मामलों में हम अपनी गलतियों के कारण कमर दर्द की चपेट में आते हैं। हर दस में से छह से नौ व्यक्ति अपने जीवन में किसी न किसी समय कमर दर्द झेलते हैं। ठंड, सर्दी-जुकाम एवं फ्लू जैसे सामान्य श्वसन संबंधी संक्रमण के बाद कमर दर्द चिकित्सकों के पास जाने का दूसरा सबसे प्रमुख कारण हैमौजूदा समय में चलने-फिरने एवं उठने-बैठने की आधुनिक शैली के कारण कमर दर्द जैसी समस्यायें महामारी का रूप धारण कर रही हैउठने-बैठने और सोने के गलत तौर-तरीकों के अलावा व्यायाम नहीं करने की प्रवृति, महिलाओं एवं नवयुवकों में ऊंची एड़ी के जूते-चप्पलों के बढ़ते प्रयोग, आधुनिक जीवन के तनाव एवं भागदौड़ एवं गद्देदार सोफों एवं बिस्तरों के इस्तेमाल के कारण कमर दर्द की समस्या तेजी से बढ़ रही हैलगातार झुक कर बैठने, रोजाना देर तक स्कूटर-बाइक चलाने, दफ्तर में देर तक झुक कर अथवा कम्प्यूप्टर या लैपटॉप पर काम करने से कमर दर्द होने का खतरा बढ़ता है।


कमर दर्द की व्यापकता का सबसे बड़ा कारण गलत जीवन शैली है जिसमें सुधार करके हम इस तकलीफ से बच सकते हैं। धूम्रपान से परहेज, नियमित व्यायाम, समुचित खान-पान और अच्छी नींद जैसे उपाय कमर दर्द से बचने में सहायक हैं। धूम्रपान न केवल हृदय रोगों का बल्कि कमर दर्द का भी एक प्रमुख कारण है। धूम्रपान नहीं करने वालों की तुलना में धूम्रपान करने वालों को डिस्क की समस्या होने की आशंका 80 प्रतिशत से भी अधिक होती है। धूम्रपान से परहेज के अलावा नियमित व्यायाम कमर दर्द से बचाने में काफी सहायक हैव्यायाम से दोहरा लाभ मिलता है। इससे न केवल कमर दर्द से राहत मिलती है बल्कि कमर दर्द से बचाव भी होता हैव्यायाम नहीं करने से मांसपेशियों का लचीलापन घटता है जिससे मासपेशियों के मुड़ने और झुकने की क्षमता घटती हैइसके अलावा व्यायाम नहीं करने से पेट की मांसपेशियां कमजोर होती हैं और इससे पीठ पर ज्यादा दबाव पड़ता है जिससे पेल्विक (श्रोणि क्षेत्र) में असामान्य झुकाव होता है। व्यायाम नहीं करने से पीठ की मांसपेशियां कमजोर होती हैं जिससे रीढ़ पर अधिक भार पड़ता है और इससे डिस्क के कम्प्रेशन का खतरा बढ़ता है।


स्थूल जीवनशैली के साथ-साथ मोटापा कमर दर्द का प्रमुख कारण है। मोटापा के कारण रीढ़ तथा वर्टिब्रेट एवं डिस्क पर अधिक दवाब पड़ता है जिससे कमर दर्द उत्पन्न होता है। मोटापा से बचने के अलावा शरीर की चुस्ती-तंदुरूस्ती भी कमर दर्द से बचाव के लिये आवश्यक है। इसके लिये खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिये। हमारे आहार में प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में होना चाहिये क्योंकि इससे ऊतकों का निर्माण तेजी से होता है। इसके अलावा आहार में ताजे फल एवं सब्जियां भी पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिये क्योंकि इनसे शरीर को विटामिन मिलती है।


कमर दर्द से बचने के लिये बैठने, सोने और खड़े होने के लिये सही तौर-तरीके अपनाने चाहियेये तरीके इस तरह के होने चाहिये कि रीढ़ पर अनावश्यक दवाब नहीं पड़े या रीढ़ को झटका नहीं लगे। हालांकि ज्यादातर लोगों में कमर दर्द कुछ समय बाद दूर हो जाता है लेकिन जब कमर दर्द कुछ सप्ताह अथवा एक माह से भी ज्यादा समय तक रहे अथवा यह असहनीय बन जाये तो चिकित्सक की मदद लेनी चाहियेआरंभ में आराम, दर्द निवारक दवाइयों, ट्रैक्शन और फिजियोथिरेपी से मरीज को आराम मिलता है लेकिन अगर इन उपायों से भी कमर दर्द दूर नहीं हो तो सर्जरी की मदद लेनी पड़ सकती हैकई मरीजों को स्पाइनल इंजेक्शन से भी काफी राहत मिलती है। इसकी मदद से कई मरीजों में ऑपरेशन की स्थिति टाली जा सकती हैस्पाइनल इंजेक्शन लगाने के लिये मरीज को अस्पताल में भर्ती नहीं करना पड़ता है।


रोजमर्रा की दिनचर्या में कुछ सावधानियां बरत कर इस समस्या से बचा जा सकता है। लेकिन सावधानियों के बावजूद अगर कमर दर्द हो तो उसे आम समस्या मानकर नजरअंदाज करने के बजाय तत्काल किसी न्यूरो एवं स्पाइन विशेषज्ञ से परामर्श करना चाहिये। आज कमर दर्द के उपचार के कई विकल्प उपलब्ध हैं जिनमें गैर सर्जिकल तथा सर्जिकल विकल्प शामिल हैं। कमर दर्द के लिए परम्परागत उपचार विधियों में इंजेक्शन, व्यायाम और फिजियोथेरेपी आदि शामिल है। अगर परम्परागत उपचार की विधियों से लाभ नहीं होता है तो मरीज को आगे के इलाज के लिए स्पाइन विशेषज्ञ के पास लाना चाहिए। कमर दर्द के असहनीय हो जाने पर इलाज के तौर पर आज डिकम्प्रेशन, स्पाइनल फ्यूजन, मिनिमल एक्सेस स्पाइनल टेक्नोलॉजीज (एमएएसटी), लेजर डिस्केक्टॉमी, माइक्रोलम्बर डिस्केक्टॉमी और इंडोस्कोपिक लंबर डिस्केक्टॉमी, बैलून किफोप्लास्टी और आर्थोप्लास्टी जैसी कारगर तकनीकों का उपयोग करके मरीज को कमर दर्द से मुक्ति दिलाई जा सकती है। रीढ़ की सर्जरी पूरी तरह से सुरक्षित होती है। सर्जरी से नुकसान नहीं बल्कि फायदा ही होता है। 


अगर आधी रात में हो पेट में दर्द

पेट दर्द को कभी भी मामूली न समझें क्योंकि यह कई रोगों का कारण हो सकता है। दैनिक जीवन में बच्चों, बड़ों सभी को पेटदर्द की समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसे में बार-बार होने वाले पेट दर्द को सामान्य समझ कर गंभीरता से न लेने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
पेट में अल्सर
हमारे आमाशय में लगातार हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का निर्माण होता है जो आमाशय की मुलायम दीवारों को जला डालने में सक्षम होता है। आम तौर पर यहां बनने वाला गोंद जैसा लसलसा पदार्थ, जिसे 'म्यूकस' कहा जाता है, अम्ल के घातक प्रहारों से आमाशय की रक्षा करता है। इसमें अम्ल को अपने अंदर घोल कर निष्क्रिय बना डालने की अद्भुत क्षमता होती है। वहीं, यदि अम्ल के घातक हमलों से इस की परत नष्ट हो जाती है तो यह तुरंत अपना पुनर्निर्माण कर अम्ल के प्रहारों को रोकता है।
इस सामान्य प्रक्रिया के अलावा जब कोई व्यक्ति अधिक चाय, काॅफी, षराब, धूम्रपान, दर्द निवारक दवाएं, मिर्च-मसालों आदि का सेवन करता है तो उस में अम्ल की मात्रा सामान्य से कहीं अधिक बनने लगती है और म्यूकसरूपी रक्षक इन तीव्र हमलों से बच नहीं पाता है। फलस्वरूप, यहां की मुलायम दीवारें जल जाती हैं और ऐसा लंबे समय तक लगातार होता रहे तो आमाशय में 'घाव' बन जाते हैं जिसे चिकित्सीय भाषा में 'पेप्टिक अल्सर' कहते हैं।
इस प्रकार के रोगियों में सीने व पेट के मिलन स्थल पर 'जलन के साथ दर्द' होता है जो कंधों, पीठ और हाथ तक फैल जाता है। यदि घाव पेट यानी आमाशय में है तो दर्द भोजन के आधे से डेढ़ घंटे के भीतर शुरू हो जाता है और यदि घाव 'छोटी आंत' में है तो दर्द भोजन के 3 या 4 घंटे बाद होता है।
इस रोग का दर्द ज्यादातर मध्यरात्रि में होता है जिससे व्यक्ति की नींद उचट जाती है, क्योंकि उस समय पेट में भोजन न होने से वह खाली होता है जिससे अम्ल के दुश्प्रभाव को रोकने वाला कुछ नहीं होता। जब पेट में अम्ल अधिक मात्रा में बनता है तो दबाव बढ़ने से कई बार यह अम्ल छाती के बीचोंबीच भोजन नली को भी क्षति पहुंचाते हुए मुंह के रास्ते भी बाहर निकलता है। इस स्थिति को चिकित्सा विज्ञान में 'हार्ट बर्न' के नाम से जाना जाता है।
ऐसे रोगी को थोड़े समय के अंतराल पर दिन में 5-6 बार हल्का भोजन लेते रहना चाहिए। इसी प्रकार भोजन के डेढ़ घंटे बाद 1 कप ठंडा दूध पीते रहना चाहिए क्योंकि भोजन और दूध अम्ल को निष्क्रिय बनाते हैं।
आधी रात में दर्द होने पर 1 कप दूध व बिस्कुट या डबलरोटी लेने से राहत महसूस होती है। किसी भी दवा का सेवन अपने डाक्टर की सलाह पर ही करें। रोगी को मानसिक तनाव से बचना चाहिए और मिर्च-मसाले, शराब, सिगरेट, दर्द निवारक औषधियों से परहेज करना चाहिए।


जिम का ज्यादा शौक कमर के लिए खतरनाक हो सकता है

युवा पीढ़ी में जिस तेजी से जिम का शौक बढ़ रहा है उसके कारण उनमें कमर दर्द एवं रीढ़ में चोट (स्पाइन इंज्युरिज) की समस्या बढ़ रही है। दरअसल हमारे देश में ज्यादातर जिम में अप्रशिक्षित ट्रेनरों की देखरेख में लोग गलत तरीके से क्षमता से अत्यधिक वजन उठाते हैं जिसके कारण रीढ़ के चोटिल होने का खतरा बढ़ता है। अधिक जिम जाने तथा जिम में गलत तरीके से व्यायाम करने के कारण आज 16 से 30 साल के युवा भी रीढ़ की समस्याओं के ​शिकार बन रहे हैं। विभिन्न अस्पतालों में आने वाले मरीजों के क्लिनिकल अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि दस साल में 16 से 30 साल के आयु वर्ग में रीढ़ की समस्यायें दोगुनी बढ़ी हैं।
युवा पीढ़ी में खुद को फिट एवं चुस्त-दुरुस्त दिखने-दिखाने की प्रवृति बढ़ी है और वे कम उम्र से ही अपने पसंदीदा फिल्म स्टार की तरह का लुक पाने के लिये जिम में जाने लगते हैं और ट्रेनरों के बगैर या अप्रषिक्षित टेªनरों की निगरानी में व्यायाम शुरू कर देते हैं। अक्सर जिम में गलत तरीके से एवं गलत पाॅस्चर में खड़े होकर बहुत ज्यादा वजन उठाते हैं जिसके कारण रीढ़ के ऊत्तक टूटते हैं और आसपास की मांसपेषियां कमजोर हो जाती हैं। लंबे समय तक ऐसा करने से रीढ़ चोटिल हो जाती है। यह समस्या 16 से 18 वर्ष के युवकों को अधिक होती है, क्योंकि उनकी रीढ़ विकास की अवस्था में होती है।
जिम में वजन उठाने के दौरान अपनी पीठ को सीध में रखना चाहिये। इसके अलावा अपनी क्षमता से अधिक वजन नहीं उठाना चाहिये तथा यह व्यायाम प्रशिक्षित ट्रेनर की देखरेख में करना चािहये।


नियमित योग की मदद से कमर दर्द से निजात पा सकते हैं 

योग हमें न केवल स्वस्थ और फिट रखता है, बल्कि कई बीमारियों से बचाता भी है और कई बीमारियों के इलाज में भी लाभदायक है। योग से विभिन्न मांसपेशियों और मांसपेशी समूहों में सुदृढ़ता आती है। योगासनों का मकसद सिर्फ असुविधाजनक मुद्राएं बनाना नहीं है, बल्कि इसके लिए एकाग्रता और पूरे शरीर की विशेष मांसपेशियों के प्रयोग की जरूरत होती है। योगासन की इन मुद्राओं का अभ्यास मांसपेशियों को मजबूत बनाता है तथा इसमें विभिन्न गतिविधियां भी शामिल होती हैं।
आइए जानते हैं कि योग का कमर दर्द से बचाव एवं उसके इलाज में किस तरह से फायदेमंद है। 
कमर दर्द और योग
योग की कई मुद्राएं कमर की मांसपेशियों कोे धीरे-धीरे सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ उदरीय मांसपेशियों को भी मजबूत करती हैं। कमर और उदर की मांसपेशियां रीढ़ के मांसपेशीय जाल का बेहद अहम् अंग होते हैं। इनसे शरीर के ऊपरी हिस्से की गतिविधियां और मुद्राएं सही बनाए रखने में मदद मिलती है। जब ये मांसपेशियां सही अनुकूलन की अवस्था में होंगी तब कमर दर्द से बचाव अथवा उसे कम किया जा सकता है।
खिंचाव- योग में मांसपेशियों का खिंचाव और ढीला छोड़ने की क्रियाएं शामिल होती हैं। इससे तनावयुक्त मांसपेशियों से तनाव कम हो जाता है। योग में एक व्यक्ति को कुछ सामान्य और सरल मुद्राओं में 10 से 60 सेकंड रहना होता है। इन शारीरिक मुद्राओं मेें बने रहने के दौरान मुद्राएं लचीली होती हैं तो कुछ खिंचाव आता है। इस प्रकार मांसपेशियों और जोड़ों में लचीलापन बढ़ता है और दबाव कम होता होता है। जिन लोगों की कमर के निचले हिस्से में दर्द की शिकायत है उनके लिए खिंचाव (स्टेªसिंग) बहुत जरूरी है। उदाहरण के लिए हेमस्ट्रिंग मांसपेशियांे, जो जांघों के पीछे की तरफ होती हैं, पर खिंचाव मुद्राओं से श्रोणिय गतिविधि और फैलाव में मदद मिलती है, जिससे कमर के निचले हिस्से में तनाव काफी कम हो जाता है। इसके अतिरिक्त, योग के खिंचाव वाले आसनों से रक्त प्रवाह में तेजी आती है, पोषक तत्वों का भी प्रवाह बढ़ता है, अपशिष्ट और विषैले पदार्थ बाहर आते हैं और कमर के निचले हिस्से की मांसपेशियों और कोमल कोशिकाओं/ऊतकों का सम्पूर्ण पोषण होता है।
योगासनों के दौरान श्वास प्रक्रिया का बहुत महत्व होता है। जब हम एक मुद्रा मेें स्वयं को रोकते हैं तो उस समय सांसें भी नियंत्रित करनी होती हैं। इसके अलावा, इसका उद्देश्य दोनों नासिकाओं से गहरी, खुली और लयगत सांस लेना और छोड़ना है। सांस प्रक्रिया की उत्तमता पर ही बहुत मायनों में योगासनों की सफलता निर्भर होती है। इसमें दबाव मुक्त शरीर और उचित रक्त प्रवाह बनाने पर जोर दिया जाता है।
मुद्राएं, संतुलन और शारीरिक संरक्षण - योगासनों का उद्देश्य शरीर को स्वस्थ और लचीला बनाना है। आसनों का लगातार अभ्यास करने से मुद्राओं में सुधार होगा और सिर, कंधे और श्रोणीय संरेखण के साथ पूरे शारीरिक संतुलन में बढ़ोत्तरी होगी। इसके अतिरिक्त योग में शरीर को लचीला और सुदृढ़ दोनों बनाया जाता है जो अन्य व्यायाम पद्धतियों में नहीं होता।


टेलीविजन एक्ट्रेस गहना वशिष्ट को दिल का दौरा। क्या है कारण


काम का भारी दवाब तथा तनाव तथा अत्यंत व्यस्त जीवन शैली के कारण किस तरह से कम उम्र दिल का दौरा जानलेवा साबित होने लगा है वह टेलीवुड की एक्ट्रेस गहना वशिष्ट के उदाहरण से पता चलता है जिन्हें 31 साल की उम्र में कार्डियक अरेस्ट हुआ और उनकी हालत नाजुक बनी हुई है। गहना को लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा गया है।



गहना का इलाज मुंबई के मलाड इलाके में रक्षा हॉस्पिटल में चल रहा है। अस्पताल के सूत्रों ने बताया कि लो ब्लड प्रेशर के चलते उन्हें कार्डियक अरेस्ट का सामना करना पड़ा। डॉक्टरों की इसकी भी आशंका है कि किसी एनर्जी ड्रिंक या फिर दवा के रिएक्शन की वजह से भी उनकी यह स्थिति हो सकती है।
सूत्रों का कहना है कि गहना गुरुवार की दोपहर मड आइलैंड में एक वेब सीरीज की शूटिंग कर रही थीं, वहीं वह अचानक बेहोश हो गईं। 


कौन हैं गहना वशिष्ट 
गहना वशिष्ट को हॉट एक्ट्रेस माना जाता है। उनका असली नाम वन्दना तिवारी है। गहना की मां अब इस दुनिया में नहीं है। उनके पिता बिज़नेसमैन है जो गहना से अलग रहते है। वह कई  गैर सरकारी संगठन के लिए काम करती रहती है । गहना बिग बॉस को लेकर लगातार सुर्खियों में रही है। गहना वशिष्ठ कई बड़े बैनर की फिल्म में काम कर रही है। 
बॉलिवुड और टॉलीवुड में अपने हॉटनेस के कारण सुर्खियों में रहने वालीं एक्ट्रेस गहना वशिष्ठ कई फिल्मों में अपने रोल के मुताबिक बिकिनी में दिखाई दी हैं।
एक्ट्रेस गहना छत्तीसगढ़ के कट्टर ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती हैं। बचपन की ख्वाहिश थी कि वह इंडियन आर्मी का हिस्सा बनें। लेकिन अभिभावकों को यह मंजूर नहीं था। पिता की चाहत थी कि बिटिया इंजीनियर बने। मां चाहती थीं कि वह उनकी तरह डॉक्टर बनें। इन सबसे दो कदम आगे निकलकर गहना ने मॉडलिंग में अपना करियर बनाया। 

कम उम्र में दिल का दौरा
चिकित्सकों का कहना है कि पहले 60 वर्ष की उम्र में लोगों को दिल का दौरा पड़ता था, लेकिन अब 20 से 40 वर्ष के युवा भी हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। आज 75 फीसद मरीज हृदयाघात, फिर हार्ट फेल्योर के 10 फीसद व दिल की गति कम होने के 12 से 15 फीसद मरीज आते हैं। वाल्व खराब होने के भी तीन से सात फीसद मरीज आते हैं। अब प्रदूषण भी हृदयाघात का कारण बन रहा है।
कम उम्र में दिल के दौरे के मुख्य कारण 
गलत खान-पान, अनियमित जीवनशैली, व्यायाम न करना, फास्ट फूड-जंक फूड व शराब, तंबाकू उत्पादों का सेवन, ज्यादा तला-भुना खाना, तनाव होना, नमक अधिक खाना, शुगर, बीपी या मोटापा होना, हाई कैलोरी लेना, उक्त वजहों से कोलेस्ट्रॉल बढ़ना, हीमोग्लोबिन की कमी या एनीमिया होना।


 


 


काॅपर टी: पांच वर्षों की गर्भनिरोध सुरक्षा 

सीमित आमदनी में अपने बच्चे के लिए बेहतर लालन-पालन, बेहतर परवरिश और अच्छी शिक्षा देने तथा साथ ही साथ आज के समय में दम्पतियों की व्यस्तता के चलते परिवार को सीमित रखने की जरूरत बढ़ी है और इस कारण अधिक से अधिक दम्पति गर्भनिरोधक उपायों का सहारा लेने लगे हैं। आज कई तरह के गर्भनिरोधक उपाय मौजूद हैं जिनमें कंडोम, फीमेल कंडोम और गर्भनिरोधक गोलियां और काॅपर-टी अधिक लोकप्रिय हैं। कंडोम और फीमेल कंडोम जैसे गर्भनिरोधक का इस्तेमाल हर सम्भोग के पहले बच्चा ठहरने से रोकने के लिए किया जाता है। वहीं गर्भनिरोधक गोली का सेवन रोज करना होता है लेकिन कॉपर टी लगवाने के बाद आपको हर सेक्स से पहले गर्भनिरोध के बारे में नहीं सोचना पड़ता। लेकिन इससे कई दिक्कतें भी भी हो सकती हैं और इसलिए इसे लगवाने से पहले स्त्री रोग विषेशज्ञ से सलाह लेनी चाहिए। 
काॅपर-टी क्या है
काॅपर-टी गर्भाशय के भीतर स्थापित किया जाने वाला एक छोटा सा उपकरण है जिसे अन्तरागर्भाशयी गर्भनिरोधक या आईयूडी कहा जाता है। इसे सुरक्षित, सस्ता तथा प्रभावी माना गया है। यह पांच वर्षों के लिये गर्भनिरोध संबंधी सुरक्षा भी प्रदान करती है। ये उपकरण आकार में बहुत छोटे होते हैं और प्लास्टिक के बने, कॉपर (ताँबा) में लिपटे अंग्रेजी के टी अक्षर के आकार में आते हैं। भारत में आईयूडी कॉपर-टी के लोकप्रिय नाम से बाजार में बिकती है। यह विकल्प अकसर उन महिलाओं के लिए होता है जिन्होंने हाल ही में नवजात शिशु को जन्म दिया हो। उन महिलाओं को काॅपर-टी नहीं लगवाना चाहिए जो गर्भवती हैं, जिन्हें गर्भाशय में कोई रोग हो, जिन्हें योनि से आसामान्य खून जाता हो, जिन्हें यौन संचारित रोग (एसटीडी) हो, जिन्हें पेल्विस में सूजन हो, जिन्हें माहवारी के समय दर्द होता हो, जिन्हें खून की कमी हो और जिन्हें एक्टोपिक प्रेगनेंसी हुई हो आदि।
कॉपर-टी को लगाने की प्रक्रिया संवेदनशील होती है इसलिए इसे किसी विशेषज्ञ से ही लगवाना चाहिये। इस उपकरण को महिला के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है जिसमें आईयूडी से बंधा एक प्लास्टिक का धागा गर्भाशय ग्रीवा से योनि तक लटकता रहता हैं।
काॅपर-टी के प्रकार 
इस समय बाजार में कई प्रकार की कॉपर-टी उपलब्ध हैं। उनमें दो मुख्य प्रकार के आईयूडी हैं - गैर-हार्मोनियल- कॉपर-टी आईयूडी और हार्मोनल इंट्रॉब्ररिन डिवाइस (आईयूडी)। गैर-हार्मोनिक कॉपर-टी शरीर में कोई हार्मोन नहीं छोड़ती और इसे तांबे और प्लास्टिक के साथ बनाया जाता है। कॉपर से निकलने वाले आयन शुक्राणु को मारते है, अंडे तक पहुंचने और निषेचन से रोक कर काम करते है। जैसे ही शरीर में इसे लगाया जाता है, तब से यह गर्भावस्था को रोकना शुरू कर देती है। यह बाजार में 5 साल और 10 साल की काॅपर-टी के रूप में उपलब्ध है। एक बार लगने पर, यह 5 या 10 साल तक के लिए प्रभावी होती है।
हार्मोनल इंट्रॉब्ररिन डिवाइस (आईयूडी) में प्रोजेस्टीन लेवोनोर्जेस्ट्रेल होता है। प्रोजेस्टिन गर्भाशय ग्रीवा के स्राव को मोटा करता है और गर्भाशय की परत को पतला बनाता है। हार्मोनल आईयूडी को काम शुरू करने के लिए एक सप्ताह का समय लग सकता है, इसलिए आपको अपने स्वास्थ्यसेवा प्रदाता से पूछना चाहिए कि अगर आपको यौन संबंध रखने के लिए इंतजार करना चाहिए या इस बीच में बैक-अप गर्भनिरोधक पद्धति (जैसे कंडोम) का उपयोग करना चाहिए। हार्मोनल आईयूडी 3 से 5 वर्षों के लिए प्रभावी है।
कॉपर-टी को कैसे स्थापित किया जाता है
काॅपर-टी के सिरों को मोड़कर महिला के गर्भाशय में प्रवेश कराया जाता है जिसमें कि एक पतली नली बाहर की ओर होती है। एक बार स्थापित हो जाने पर कॉपर-टी शुक्राणुनाशक के रूप में प्रभावी रूप से कार्य करने लगती है तथा कॉपर और प्लास्टिक से बना यह छोटा सा यन्त्र गर्भनिरोधक उपकरण के रूप में कार्य करने लगता है। इसका आकार ऐसा इसलिये चुना गया है क्योंकि यह गर्भाशय के आसपास के क्षेत्र में लग जाता है और वर्षो तक बिना इधर-उधर हिले वहीं लगा रहता है। यह प्लास्टिक का बना होता है जिस पर तांबे / कॉपर का पतला तार लिपटा होता है। इसे महिला के गर्भाशय में फिट कर दिया जाता है जिससे गर्भ न ठहरे। कॉपर-टी बिना हॉर्मोन या हॉर्मोन युक्त होती है। इन डिवाइस को डालने की तारीख से अधिकतम तीन से पांच वर्ष या 10 साल तक शरीर में रहने दिया जा सकता है।
कॉपर-टी कैसे काम करता है 
जब एक बार कॉपर-टी स्थापित हो जाती है तो प्लास्टिक में लिपटे कॉपर (ताँबा) के तार द्वारा कॉपर के आयन निकलना प्रारम्भ हो जाते हैं जोकि गर्भाशयी वातावरण को प्रभावित करके गर्भाधान को रोकते हैं। कॉपर के आयन गर्भाशय के तरल तथा गर्भाशयी ग्रीवा के श्लेष्म से मिल जाते हैं। इस प्रकार कॉपर युक्त गर्भाशय के तरल एक शुक्राणुनाशक के रूप में कार्य करते हैं और अपने सम्पर्क में आने वाले शुक्राणु को नष्ट कर देते हैं। कॉपर के आयन शुक्राणुओं की गति को रोकते हैं क्योंकि कॉपर आयन युक्त तरल शुक्राणुओं के लिये विषाक्त होते हैं। अगर कोई संघर्षशील शुक्राणु अण्डाणु को निषेचित भी कर देता है तो कॉपर आयन युक्त वातावारण इस निषेचित अण्डे को गर्भाशय में स्थापित नहीं होने देते हैं और इस प्रकार गर्भधारण को रोकते हैं। 
कॉपर-टी कितना प्रभावी है 
एक बार कॉपर-टी गर्भाशय में स्थापित हो जाने पर यह पांच से दस साल तक सुरक्षा प्रदान करती है। हालांकि यह कॉपर-टी के निर्माण की प्रक्रिया पर निर्भर करता है क्योंकि कुछ उपकरण केवल पांच वर्षों के लिये सुरक्षा प्रदान करते हैं। हालांकि जब भी महिला को यह लगे कि उसे गर्भाधान की आवश्यकता है तो किसी विशेषज्ञ के द्वारा इस उपकरण को साधारण प्रक्रिया द्वारा निकलवाया जा सकता है। 
काॅपर-टी के लाभ क्या हैं
कॉपर-टी की सफलता दर 98 प्रतिषत है। यह डिवाइस शरीर के भीतर गहरी स्थिति में होती है, इसलिए यह सेक्स में हस्तक्षेप नहीं करती। ओरल गोलियों के विपरीत, इस प्रकार की गर्भनिरोधक के साथ, उम्र से जुड़ा कोई जोखिम नहीं है। डिवाइस निकाली जाने के बाद महिला की फर्टिलिटी तुरंत वापस आ जाती है। मासिक धर्म के बाद 5 से 7 दिन के बीच कॉपर-टी लगायी जाती है।
कॉपर-टी के दुष्प्रभाव क्या हैं?
कॉपर-टी लगवाने के बाद कई महिलायें असमय रक्तस्राव की शिकायत करती हैं। यह अकसर शुरुआत के महीनों में होता है। कुछ महिलाओं में माहवारी के समय होने वाले दर्द के समान ही दर्द होता है। हालांकि यह दर्द माहवारी के दर्द से अलग होता है। असमय रक्तस्राव कुछ दिनों में रूक जाता है और दर्द के लिये दर्दनाशक दवाएं ली जा सकती हैं। इसके अलावा जिन महिलाओं को कॉपर के प्रति एलर्जी वाली होती हैं उनके जननाँगों में दाने पड़ सकते हैं और खुजली हो सकती है। इस स्थिति में उपकरण को हटाना ही बेहतर होता है। ऐसी स्थिति में महिला को अन्य विभिन्न प्रकार के उपलब्ध गर्भनिरोधकों के बारे में सलाह लेनी चाहिये। 
कभी-कभी महिलाओं में उपकरण के लगाते समय या बाद में यह स्वतः निकल जाता है। ऐसा उपकरण के लगाने के शुरूआती महीनों में, शिशु जन्म के तुरन्त बाद लगाने पर या फिर बिना गर्भधारण के लगाये जाने पर होता है। उपकरण लगाते समय गर्भाशय मे कटाव या छेद होने के मामले भी अकसर देखे गये हैं। यह भी देखा गया है कि उपकरण गर्भाशय की दीवार में छेद कर देता है जिससे आन्तरिक घाव या रक्तस्राव होने लगता है। अगर उपकरण को तुरन्त न निकाला जाये तो इससे संक्रमण का खतरा रहता है।


दुखती कमर का क्या करें

कमर दर्द किसी भी उम्र के लोगों को प्रभावित कर सकता है। यह समस्या 35 और 55 वर्ष के बीच आयु वर्ग के लोगों के बीच काफी आम है। एक अनुमान के अनुसार करीब 75 से 85 प्रतिशत लोगों को उनके जीवन काल में किसी न किसी रूप में कमर दर्द होता है।
कमर के किसी भी हिस्से में होने वाले दर्द को कमर दर्द कहा जाता है। यह आम तौर पर रीढ़ की मांसपेशियों, जोड़ों, नसों, हड्डियों या रीढ़ के अन्य हिस्सों से शुरू होता है। कमर दर्द हमारे पैरों एवं पीठ में भी जा सकता है और यह डिप्रेशन और तनाव/चिंता जैसे अन्य कारकों से भी जुड़ा हो सकता है।
कमर दर्द का कारण 
कमर दर्द की समस्या दिन भर काम करने वाली गृहणियों एवं आफिस में डेस्क पर बैठकर काम करने वाले कर्मचारियों को अधिक होती हे। लेकिन कमर के दर्द की समस्या से आजकल हर उम्र का व्यक्ति परेशान रहता है। आजकल बच्चों से लेकर बड़े-बूढों को भी कमर दर्द की शिकायत होती है। कमर दर्द का एक कारण अधिक देर तक एक ही अवस्था में बैठकर काम करना भी है। भारी वजन उठाने के कारण मांसपेशियों में अधिक खिंचाव आ जाता है जिससे कमर में दर्द हो जाता है। हमेशा हाई हील सेंडिल या जूतों को पहनने के कारण भी कमर में दर्द हो जाता है। कभी-कभी अधिक नर्म गद्दों पर सोने से भी कमर में दर्द की समस्या उत्पन्न हो जाती है। अधिक देर तक ड्राइव करने के कारण भी लोगों को कमर में दर्द की शिकायत हो जाती है। बुजुर्गों के कमर में दर्द बढ़ती उम्र के कारण हो सकता है। जैसे-जैसे वृद्ध लोगों की उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उनके जोड़ों, कमर तथा पीठ में दर्द की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
कमर दर्द कई तरह से हो सकता है जैसे-  अचानक तीव्र शुरुआत, लगातार लंबे समय तक दर्द, सुस्ती के साथ दर्द, गहरी सनसनाहट, भेदने वाला तीव्र दर्द, गर्म या ठंडा महसूस होने के साथ कमर दर्द, कभी नहीं रुकने वाला लगातार दर्द, थोड़े समय के लिए आराम, उसके बाद फिर से दर्द का शुरू हो जाना, किसी खास हिस्से में दर्द और चारों तरफ फैलता हुआ दर्द।  
रीढ़ से जुड़े कमर दर्द के हर्नियेटेड डिस्क, ऑस्टियोपोरोसिस, स्पोंडिलोलिस्थीसिस, स्टेनोसिस, रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर, रीढ़ की हड्डी में ट्रामा, स्पाइनल ट्यूमर, डिजेनरेटिव डिस्क रोग (डीडीडी) और रेडियोकुलोपैथी स्कोलियोसिस जैसे प्रमुख कारण हैं। 
कमर दर्द की जांच
आम तौर पर कमर दर्द की जांच एक्स-रे, सीटी स्कैन, एमआरआई, माइलोग्राम और बोन स्कैन जैसी विधियों के जरिए की जाती है। एक्स-रे शक्तिशाली अदृश्य किरणें होती हैं जिनके जरिए मानव षरीर के भीतर के अंगों खास तौर पर हड्डियों को देखना संभव हो जाता है। सीटी स्कैन कम्प्यूटर से प्रोसेस की हुई एक्स-रे होती हैं जिनके जरिए षरीर के किसी हिस्से की क्राॅस सेक्शनल तस्बीेरें उत्पन्न की जाती हैं जिनकी मदद से हड्डियों और कोमल ऊतकों को देखा जाता है। एमआरआई एक इमेजिंग तकनीक है जिसमें ऊतकों और नसों सहित शरीर की आंतरिक संरचना को देखने के लिए चुंबकीय क्षेत्र और रेडियो तरंगों का उपयोग किया जाता है। माइलोग्राम में स्पाइनल कार्ड में रेडियोग्राफिक डाई इंजेक्ट की जाती है जिससे यह देखने में मदद मिलती है कि वर्टेब्रा कहीं स्पाइनल कार्ड में चुभ तो नहीं रहा है। बोन स्कैन के तहत मरीज में रेडियोधर्मी ट्रेसर इंजेक्ट किया जाता है। इसके बाद मरीज की स्कैनिंग की जाती है जिससे हड्डी में कुछ असामान्यताओं को देखा जा सकता है।
कमर दर्द का उपचार
कमर दर्द की गंभीर समस्या के उपचार के लिए गैर सर्जिकल एवं सर्जिकल जैसे विकल्प अपनाए जाते हैं। आरंभिक स्थितियों में कमर दर्द से पीड़ित ज्यादातर लोग फैमिली डाॅक्टर या इंटरनल मेडिसीन के विशेषज्ञ से परामर्श कर सकते हैं जो मरीज को परम्परागत तरीके से उपचार करने के बारे में सलाह दे सकते हैं। परम्परागत तरीके से उपचार की मदद से मेडिकल या आपरेटिव उपचारों को टाला जा सकता है। कमर दर्द के लिए परम्परागत उपचार विधियों में व्यायाम, फिजियोथिरेपी और इंजेक्षन आदि शामिल है। व्यायाम कमर दर्द तथा इससे जुड़ी चिंता/डिप्रेशन एवं लाचारी की भावना को दूर करने में मददगार साबित हो सकता है। फिजियोथिरेपी के तहत फिजियोथिरेपिस्ट मरीज को बुनियादी शरीर रचना और शरीर विज्ञान के बारे में शिक्षित करते हैं और मरीज को वैसे व्यायाम करने के बारे में निर्देश देते हैं जिससे प्रभावित अंग में ताकत आती है तथा शरीर को अनुकूल बनाया जा सकता है। एपीड्यूरल स्पाइनल इंजेक्शन के तहत कष्ट देने वाली स्पाइनल नसों के आसपास के क्षेत्र में सूजन रोधी दवाई दी जाती है। अगर परम्परागत उपचार की विधियों से लाभ नहीं होता है तो मरीज को आगे के इलाज के लिए स्पाइन विशेषज्ञ के पास भेजा जाना चाहिए। 
जब कमर दर्द का इलाज परम्परागत तरीकों से नहीं होता तो सर्जरी का सहारा लेना पड़ता है। इसके लिए डिकम्प्रेशन, स्पाइनल फ्यूजन, मिनिमल एक्सेस स्पाइनल टेक्नोलॉजीज (एमएएसटी), बैलून काइफोप्लास्टी और डिस्क रिप्लेसमेंट (आथ्रोप्लास्टी) जैसी विधियां अपनाई जाती है।  
डिक्रम्प्रेशन में सर्जन कष्ट देने वाले हड्डी के टुकड़े या तकलीफदेह डिस्क सामग्रियों को निकाल देते हैं। स्पाइनल फ्यूजन के जरिए सर्जन आपकी रीढ़ पर से दबाव हटाते हैं और हड्डियों के दो खंडों को जोड़ते हैं। सर्जन फ्यूजन पूरा होने तक स्पाइन को स्थिर रखने के लिए मेटल राॅड तथा स्क्रू का उपयोग करते हैं। 
डिस्क रिप्लेसमेंट (आथ्रोप्लास्टी) में सर्जन रुग्न या क्षतिग्रस्त डिस्क के स्थान पर कृत्रिम डिस्क पुन:स्थापित करते हैं ताकि रीढ़ की हड्डी में सामान्य गतिशीलता को बनाया रखा जा सके तथा दर्द कम हो सके। 
बैलून काइफोप्लास्टी मिनिमली इनवैसिव स्पाइनल प्रक्रिया है जिसमें वर्टेब्रल हाइट को दोबारा कायम किया जाता है जिससे ओस्टियोपेरेटिक स्पाइनल फ्रैक्चर के कारण होने वाले दर्द से राहत मिलती है। फ्रैक्चर्ड वर्टेब्रेट हिस्से में एक छोटे से गुब्बारे को फुलाया जाता है ताकि वहां रिक्त स्थान बन सके। जब रिक्त स्थान बन जाता है तो उस रिक्त स्थान में बोन सीमेंट इंजेक्ट कर दिया जाता है। 
मिनिमल एक्सेस स्पाइनल टेक्नोलॉजीज (एमएएसटी) विधि में मानक स्पाइन प्रक्रियाओं की तुलना में बहुत ही छोटे चीरे के जरिए एमएएसटी सर्जरी की जाती है और इस तरह से मांसपेशियों की क्षति कम होती है, कम रक्त की हानि होती है और कम समय के लिए अस्पताल में रहना पड़ता है।


गर्भ निरोधक गोलियों के दुष्प्रभाव से कैसे रहें मुक्त 

अनचाहा और असामयिक गर्भ न केवल किसी महिला के स्वास्थ्य पर असर डालता है बल्कि वैवाहिक जीवन को भी प्रभावित करता है। कुछ महिलाएं अनचाहा गर्भ ठहरने पर गर्भपात (एबार्शन) का सहारा लेती हैं। लेकिन ऐसा करना सही नहीं है, क्योंकि गर्भपात के काफी दुश्प्रभाव हो सकते हैं। इसलिए बेहतर है कि गर्भपात कराने की नौबत ही न आने दी जाए। अनचाहा गर्भ को रोकने के लिए गर्भ निरोधक उपायों का इस्तेमाल करना बेहतर है लेकिन कई महिलाओं को गर्भ निरोधक उपायों के बारे में सही-सही जानकारी नहीं होती है। जैसे यदि हम गर्भनिरोधक गोली की ही बात करें तो कई महिलाएं इनका सेवन नहीं करना चाहती हैं क्योंकि वे इनके दुष्प्रभाव से डरती हैं। लेकिन उन्हें यह पता नहीं होता है कि अनचाहे गर्भ से बचने का सबसे आम उपाय गर्भनिरोधक गोलियों का इस्तेमाल है। आजकल महिलाओं के लिये कई सस्ती, सुरक्षित, प्रभावी और आसानी से उपलब्ध होने वाली गर्भ निरोधक गोलियां मौजूद हैं। लेकिन आपको इनका चयन अपनी जरूरत, स्वास्थ्य और पहले से मौजूद चिकित्सकीय इतिहास को ध्यान में रखते हुए डाॅक्टर की परामर्श से करना चाहिए।
गर्भ निरोधक गोलियों के प्रकार
गर्भ निरोधक गोलियां मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं- मिश्रित गर्भनिरोधक गोलियां (कंबाइंड बर्थ कंट्रोल पिल्स) और मिनी पिल। कंबाइंड पिल का पूरा नाम, कम्बाइंड ओरल कंट्रासेप्टिव पिल या सीओसीपी है जबकि मिनी पिल का पूरा नाम प्रोजेस्टिन ओनली पिल या पीओपी है। कम्बाइंड बर्थ कंट्रोल पिल्स में एस्ट्रोजेन और प्रोजेस्टिन हार्मोन होते हैं जबकि मिनी-पिल में सिर्फ प्रोजेस्टिन हार्मोन होता है। लेकिन इन दोनों प्रकार की गर्भ निरोधक गोलियों को अधिकतर लोग 'गर्भनिरोधक गोली' या 'कंट्रासेप्टिव पिल' के नाम से ही जानते हैं।
कैसे करें गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन
कम्बाइंड बर्थ कंट्रोल पिल्स 
कम्बाइंड बर्थ कंट्रोल पिल्स 21 दिन और 28 दिन के पैक में होती है और इन्हें इसके पैक पर लिखे निर्देश के अनुसार लेना जरूरी होता है। 21 दिन वाली गोलियों को 21 दिन तक एक ही वक्त पर लेना होता है। उसके बाद अगले 7 दिनों तक कोई गोली नहीं लेनी होती है। आमतौर पर इस दौरान आपका पीरियड आएगा। 7 दिन बाद आप फिर से गोलियां लेना शुरू करेंगी। 28 दिन वाली गोलियों को महीने के 28 दिन एक ही वक्त पर लेना होता है। इनमें से कई गोलियों में हार्मोन नहीं होते और कुछ में केवल एस्ट्रोजेन होता है। इनको लेते हुए आपको 4 से 7 दिनों तक रक्तस्राव हो सकता है। इसके लिए घबराने की कोई जरूरत नहीं है। तीन महीने वाली कम्बाइंड बर्थ कंट्रोल पिल्स को 84 दिनों तक हर दिन एक ही वक्त लेना होता है। उसके बाद अगले 7 दिनों तक गोलियों में हार्मोन नहीं होंगे या कुछ में केवल एस्ट्रोजेन होंगे। इनको लेते हुए आपको हर 3 महीने में एक बार 7 दिनों तक रक्तस्राव हो सकता है। कम्बाइंड बर्थ कंट्रोल पिल्स एक साल के पैक में भी आती हैं जिन्हें एक साल तक हर दिन एक ही वक्त लेना होता है।
आप गोलियों को नियमित समय पर लेने की कोशिश करें। वैसे तो आप गोलियां दिन के किसी भी समय ले सकती हैं परन्तु ज्यादातर महिलाएं इसे रात में लेना पसंद करती हैं क्योंकि उनके रात को सोने से पहले की प्रक्रिया रोजाना एक समान ही होती हैं और उन्हें इन गोलियों को लेना याद रहता है। फिर भी, यदि आप किसी दिन गोली लेना भूल जाती हैं तो अगले दिन जब भी याद आए तब वह गोली ले लें। फिर रात में नियमानुसार दूसरी गोली लें। लेकिन यदि आप एक से अधिक दिन तक गोलियां नहीं लेती हैं तो फिर आपको हल्का रक्तस्राव हो सकता है। लेकिन इसमें घबराने वाले कोई बात नहीं है। बस, आप पीरियड आने तक साथ में कंडोम जैसे अन्य गर्भनिरोधक उपाय का भी इस्तेमाल करें ताकि आप गर्भ ठहरने से सुरक्षित रह सकें।
मिनी पिल
यदि आप सिर्फ प्रोजेस्टिन वाली गोलियां 'मिनी पिल' लेती हैं तो इसे समयानुसार लेना आवश्यक है। कुछ घंटों की लापरवाही की वजह से भी आप गर्भवती हो सकती हैं। मिनी पिल गर्भ ग्रीवा से स्रावित द्रव को गाढ़ा करती है, जिससे शुक्राणु गर्भ के अंदर नहीं पहुंच पाते और इस प्रकार गर्भाधारण नहीं होता है। मिनी पिल के इस्तेमाल के मामले में अधिक सावधानी बरतने की जरूरत होती है। आप रोजाना एक ही समय के 3 घंटों के अंदर-अंदर गोली ले लें। यदि आप ऐसा करना भूल जाती हैं तो अगले 48 घंटों के लिए कोई दूसरा निरोध का उपाय भी करें। उदाहरण के तौर पर, यदि आप गोली रोजाना रात को 8 बजे लेती हैं, और किसी दिन 12 बजे तक भूल गयी तो गोली ले लें पर अगले 48 घंटों के लिए कंडोम जैसा कोई दूसरा निरोधक का भी प्रयोग करें। अब तो मॉयपिल और लेडी पिल रिमाईंडर जैसे कुछ मोबाइल ऐप भी उपलब्ध हैं जो आपको गोली लेने के बारे मे याद दिलाते हैं।
बाजार में उपलब्ध गर्भनिरोधक गोलियां 
बाजार में अभी कई प्रकार की गर्भनिरोधक गोलियां उपलब्ध हैं जिनमें से कुछ गर्भनिरोधक गोलियां गर्भनिरोध के मामले में काफी प्रभावी तो हैं ही, साथ ही साथ सुरक्षित भी हैं। भारत में वर्तमान में अनवांटेड 21 डेज, यास्मिन, बंधन, सहेली, सेंट्रन, माला डी, ट्राईक्यूलार, ओवेराल-एल, लोएट, नोवेलोन, फेमिलोन, यासमीन इत्यादि जैसी गर्भनिरोधक गोलियां प्रचलन में हैं।
गर्भनिरोधक गोलियों के लाभ
इन गोलियों का उचित समय पर इस्तेमाल करने पर गर्भनिराध के मामले में यह 99 प्रतिषत तक प्रभावी होती हैं। गर्भनिरोध के अलावा इन गोलियों के और भी कई फायदे हैं। जैसे- ये गोलियां पीरियड के समय होने वाली ऐंठन को कम करती हैं, पीरियड के दौरान अधिक रक्तस्राव को भी रोकती हैं और पेल्विक इंफ्लामेट्री डिजीज से बचाव करती हैं। इस प्रकार ये एनीमिया से बचाती हैं। यही नहीं, ये गोलियां अंडाशय, गर्भाशय, बड़ी आंत और इंडोमेट्रियल कैंसर की संभावना को भी कम करती हैं, एक्टोपिक प्रेगनेंसी से बचाती हैं और पोलिसिस्टिक ओवरी सिन्ड्रोम (पीसीओ) की वजह से एन्ड्रोजन के अधिक उत्पादन को कम करती हैं।
गर्भनिरोधक गोलियों के दुष्प्रभाव
अधिकतर महिलाओं पर गर्भनिरोधक गोलियों का कोई दुष्प्रभाव नहीं होता है। कुछ महिलाओं को थोड़ी-बहुत परेशानी होती है, जो 3-4 माह तक गोली का सेवन करने पर स्वतः दूर हो जाती है। कुछ महिलाओं को छाती में दर्द और भारीपन, उल्टी और मिचली होती है। कभी-कभी गोली से चेहरे पर झाइंयां पड़ जाती हैं। कभी-कभी महिला को दो पीरियड के बीच में भी हल्का रक्तस्राव हो जाता है। इसके कुछ सामान्य दुष्प्रभाव हैं - कंडोम की तरह ये यौन रोग या एच.आई.वी से नही बचाती हैं, दिल के दौरे और स्ट्रोक की संभावना को बढ़ाती हैं, खून का थक्का बनने की संभावना को बढ़ाती हैं, उच्च रक्तचाप की संभावना को बढ़ाती हैं, लीवर ट्यूमर, गॉलस्टोन और पीलिया की संभावना को बढ़ाती हैं। कुछ महिलाओं में इनके सेवन से घबराहट और उल्टी, सिर दर्द, डिप्रेशन, वजन में वृद्धि, अनियमित रक्तस्राव जैसी समस्याएं हो सकती हैं। लेकिन इसके दुष्प्रभाव इसके फायदों की तुलना में काफी कम हैं। 
गर्भनिरोधक गोली के सेवन के पूर्व क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
यह गोली शरीर में रक्त के जमने की प्रक्रिया पर प्रभाव डालती है और पैरों में खून के जमने की संभावना को बढ़ाती है। इसलिए जिन महिलाओं में हृदय रोग, मोटापा, हार्ट अटैक या अधिक रक्तचाप जैसी बीमारी हो या इनकी संभावना हो तो उन्हें गर्भनिरोधक गोली का सेवन नहीं करना चाहिए। 


अब डिंपल बनाना हुआ सिंपल

मनमोहक मुस्कान से ज्यादा आकर्षक कुछ भी नहीं हो सकती है और डिंपल को लंबे समय से मनमोहक मुस्कान का प्रतीक माना जाता रहा है। मिरांडा केर्र, जेनिफर गार्नर और चेरिल जैसी मशहूर हस्तियां अपनी डिंपल वाली मुस्कराहट से दर्शकों को अपना दीवाना बनाती रही हैं। और अगर हम अपने देश की बात करें तो दीपिका पादुकोण, बिपाशा बसु, प्रीति जिंटा, जाॅन अब्राहम और शााहरुख खान के डिंपल उनकी मुस्कुराहट और सुंदरता में चार चांद लगाते रहे हैं। 
आकर्षण का पर्याय है डिंपल
गाल पर डिंपल आम तौर पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं। हालांकि इसके कुछ अपवाद भी होते हैं। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में, डिंपल को आकर्षण का पर्याय माना जाता है। इसका कारण यह है कि डिंपल से चेहरा किसी मासूम बच्चे की तरह दिखता है। कुछ लोगों को तो डिंपल इतने आकर्षक लगते हैं कि वे डिंपल बनवाने के लिए सर्जरी कराने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। भारत में यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है और अधिक से अधिक युवा चाहे वह महिला हों या पुरुष अपने चेहरे का आकर्शण और सुंदरता बढ़ाने के लिए सर्जरी से कृत्रिम डिंपल बनवा रहे हैं। यह प्रक्रिया 22 से 30 साल के युवाओं में अधिक लोकप्रिय है।
डिंपल क्या है?
प्राकृतिक डिंपल गाल में मांसपेशियों में एक छोटा सा गड्ढा होता है। हालांकि यह आनुवंशिक होता है, लेकिन इसे न्यूनतम इनवैसिव शल्य चिकित्सा प्रक्रिया (डिंपलेप्लास्टी) से बनाया जा सकता है। हालांकि डिंपल  मांसपेशी में विकृति के कारण होता है, लेकिन कई संस्कृतियों में इसे बेहद आकर्षक माना जाता है। डिम्पल को युवा और सुंदरता का पर्याय माना जाता है, जो व्यक्ति की मुस्कुराहट को और आकर्षक बनाता है। प्राकृतिक रूप से चेहरे पर डिंपल के साथ पैदा हुए लोगों में इसकी गहराई उम्र के साथ और त्वचा, मांसपेशी और शारीरिक वजन में परिवर्तन के कारण कम हो सकती है।
चेहरे पर अलग-अलग हिस्सों में हो सकते हैं डिंपल
गाल पर डिंपल (चिक डिंपल) - डिंपल सबसे ज्यादा गाल पर ही पाये जाते हैं। लेकिन गाल पर भी यह अलग-अलग हिस्सों में हो सकते हैं। कुछ लोगों के गाल के दोनों तरफ डिंपल होते हैं तो कुछ लोगों में गाल के सिर्फ एक तरफ ही डिंपल होते हैं। 
ठुड्डी पर डिंपल (चिन डिंपल) - ठुड्डी पर डिंपल बहुत कम लोगों में देखे जाते हैं। यह जबड़े की बनावट में गड़बड़ी के कारण होता है। माता-पिता में से किसी एक को ठुड्डी पर डिंपल होने पर बच्चे में भी इसके होने की अधिक संभावना होती है।
कमर पर डिंपल (बैक डिंपल) - इस प्रकार के डिंपल को सौंदर्य की रोमन देवी 'वीनस का डिंपल' कहा जाता है। यह पीठ के निचले हिस्से में होता है और पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक आम है।
सर्जरी से बना सकते हैं डिंपल
जिन लोगों को जन्म से डिंपल नहीं है लेकिन वे डिंपल चाहते हैं तो सर्जरी से डिंपल बनवा सकते हैं। यह एक कॉस्मेटिक प्रक्रिया है जिसे लोकल एनीस्थिसिया देकर किया जा सकता है और मरीज उसी दिन घर जा सकता है। इसलिए इसे मामूली सर्जरी माना जा सकता है। हालांकि, चूंकि यह सर्जरी है इसलिए इसका चेहरे पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इस सर्जरी में कुछ भी गलती होने पर इसका प्रभाव आपके चेहरे पर साफ दिखाई देगा। इसलिए यह सर्जरी किसी कुशल कॉस्मेटिक सर्जन से ही करवाना चाहिए।
सर्जरी से डिंपल एक गाल या दोनों गाल पर बनाया जा सकता हैं लेकिन आम तौर पर एक ही गाल पर डिंपल बनवाने की सलाह दी जाती है क्योंकि सटीक समरूपता को बनाए रखना मुश्किल हो सकता है और दोनों गालों पर डिंपल के स्थान में थोड़ा अंतर हो सकता है। और फिर आप उतना आकर्षक नहीं लगेंगे जितना आपने उम्मीद की हो।
कैसे की जाती है डिंपल सर्जरी
डिंपल सर्जरी (डिंपलेप्लास्टी) की प्रक्रिया लोकल एनीस्थिसिया में की जाती है। आप चेहरे के जिस भाग में डिंपल बनवाना चाहते हैं सर्जन उस स्थान को चिह्नित कर देता है ताकि आपको सटीक रूप से पता चल जाए कि आप जिस स्थान पर डिंपल बनवाना चाहते हैं वह वही स्थान है या नहीं। इस प्रक्रिया के दौरान, सर्जन प्राकृतिक दिखने वाले डिंपल को बनाने के लिए मुंह के अंदर गाल पर एक छोटा सा चीरा लगाता है और बुक्सिनेटर मांसपेशियों पर काम करता है। काम खत्म करने के बाद गाल के अंदर घुलने वाले टांके लगा दिये जाते हैं और इस छोटी प्रक्रिया के बाद आप अपनी सामान्य गतिविधियों को फिर से शुरू करने में सक्षम होते हैं। एक डिम्पल बनाने की प्रक्रिया को पूरा करने में लगभग 30 मिनट लगते हैं।
चूंकि यह प्रक्रिया मुंह के अंदर की जाती है, इसलिए बाहर से सर्जरी का कोई निशान नहीं दिखेगा। लेकिन आपको एक चीज याद रखनी होगी कि सर्जरी के बाद जो डिंपल बनेगा वह तब भी दिखाई देगा जब आप हंस नहीं रहे हों। सर्जरी के 8 से 10 सप्ताह बाद आपका डिंपल प्राकृतिक डिंपल की तरह हो जाएगा जो सिर्फ हंसते समय ही दिखाई देगा। 
डिंपल क्रिएशन सर्जरी के बाद
सर्जरी के बाद आपको सर्जन की सलाह का पूरी तरह से पालन करना जरूरी है ताकि आपकी रिकवरी ठीक से हो सके। चूंकि यह सर्जरी मुंह के अंदर की जाती है और मुंह के अंदर बैक्टीरिया आसानी से पनप सकते हैं, इसलिए मुंह की उचित देखभाल जरूरी है। मुंह को बैक्टीरिया से मुक्त रखने के लिए दिन में दो बार एंटीसेप्टिक माउथवाॅश से कुल्ला करें। साथ ही उपयुक्त एंटीबायोटिक दवा का भी सेवन करना होता है। दर्द होने पर डाॅक्टर दर्दनिवारक दवा दे सकता है। सर्जरी के बाद कुछ दिनों तक चेहरे पर हल्का से मध्यम सूजन रह सकता है। बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए कुछ दिनों तक चेहरे के हाव-भाव में अधिक प्रयोग करने से बचने की सलाह दी जाती है।
दुष्प्रभाव
हालांकि डिंपलेप्लास्टी मिनीमली इनवैसिव प्रक्रिया है इसलिए इसके लंबे समय तक रहने वाले कोई दुश्प्रभाव नहीं होते हैं। इसके रक्तस्राव, जलन और मांसपेशियों की कमजोरी जैसे सामान्य दुष्प्रभाव हो सकते हैं। सर्जरी सही नहीं होने पर मुंह के अंदर फोड़ा हो सकता है। लेकिन कुशल काॅस्मेटिक सर्जन से सर्जरी कराने पर इन दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है।
टांके को घुलने में लगभग दो हफ्तों का समय लगता है। कुछ दिनों तक गाल के अंदर की त्वचा अधिक मुलायम होती है लेकिन जैसे-जैसे यह ठीक होता जाता है गाल की मांसपेशियों में मजबूती आ जाती है और यह प्राकृतिक रूप में आ जाती है। सर्जरी से बनाये गये डिंपल को प्राकृतिक डिंपल की तरह दिखने में कुछ दिनों से लेकर कुछ हफ्ते लग सकते हैं यह उपचार और हटाये गए ऊतक पर निर्भर करता है। लेकिन आमतौर पर आपके नए डिंपल को प्राकृतिक दिखने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं। 


मोटापे से बीमार हो रहा है बचपन

हर माता-पिता की इच्छा होती है कि उनका बच्चा गोल-मटोल और हृष्ट-पुष्ट हो। बच्चे के दुबले होने पर माता-पिता को लगता है कि उनका बच्चा कमजोर है और इसे लेकर वे चिंतित रहते हैं। वे इस सच्चाई से अनजान होते हैं कि गोल-मटोल बच्चा बचपन में तो प्यारा और स्वस्थ लगता है लेकिन उनका मोटापा और उनके शरीर में जमा हो रही चर्बी उन्हें कम उम्र में ही उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोग सहित अन्य भयंकर रोगों से ग्रस्त होने का कारण बन सकती है। 
बच्चों में मोटापा के कारण
बच्चों मे मोटापा आम तौर पर उनके खान-पान की गलत आदतों के कारण बढ़ता है। बच्चे स्नैक्स, जंक फूड, फास्ट फूड आदि अधिक खाना पसंद करते हैं जिनमें कैलोरी बहुत अधिक होती है। इनके अलावा केक, पेस्ट्री और मिठाइयों जैसे अधिक कैलोरी युक्त खाद्य पदार्थों के सेवन से भी मोटापा बढ़ता है। बच्चों में मोटापा का एक और कारण उनकी आरामतलब जीवन शैली है। अधिकतर बच्चे किसी भी प्रकार की शारीरिक गतिविधि नहीं करते हैं और निष्क्रिय रहते हैं। इनकी बजाय वे वीडियो गेम खेलना, टीवी देखना, मोबाइल में व्यस्त रहना जैसी एक ही जगह बैठे रहने वाली गतिविधियां करते हैं जिससे उनका शारीरिक व्यायाम नहीं हो पाता। इसके कारण बच्चो में मोटापा बढ़ने लगता है। हालांकि कुछ बच्चों में मोटापा आनुवांशिक भी होता है। यदि बच्चे के माता-पिता मोटे हों तो बच्चे में भी मोटापा होने की संभावना बढ़ जाती है। 
माता-पिता भी हो सकते हैं जिम्मेदार
मोटापा अपने साथ कई बीमारियां लेकर आता है, जो युवावस्था में उनका जीवन काफी मुश्किल बना सकता है। इसलिए मोटापे को बचपन में ही दूर करना बहुत जरूरी होता है। बच्चों में मोटापा बढ़ाने के लिए माता-पिता भी काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं। आनुवांशिक कारण, शारीरिक क्रियाशीलता की कमी, अस्वास्थ्यकर भोजन आदि बच्चों में मोटापे के प्रमुख कारण होते हैं। हालांकि आप आनुवांशिक कारणों के मामले में कुछ नहीं कर सकते, लेकिन अन्य जोखिम कारकों को तो जरूर कम कर सकते हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार माता-पिता को खाद्य पदार्थों के बारे में सही जानकारी नहीं होती या वे इन बातों पर ध्यान नहीं देते हैं। वे बच्चों को उनकी पसंद का अधिक कैलोरी युक्त भोजन, जंक फूड और फास्ट फूड का सेवन कराते हैं। कुछ माता-पिता के पास समय की कमी होती है इसलिए मजबूरी में बच्चों को फास्ट फूड और जंक फूड खिलाते हैं तो कुछ बच्चे अधिक जिद्दी होते हैं और उनकी जिद के सामने माता-पिता को झुकना पड़ता है और उन्हें फास्ट फूड और जंक फूड जैसे खाद्य पदार्थ देने पड़ते हैं। कारण चाहे जो भी हो, वास्तविकता यह है कि बच्चों में मोटापा बढ़ाने के लिए माता-पिता काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं और वे चाहें तो बच्चों में मोटापा को काफी हद तक रोक सकते हैं।
बच्चों पर मोटापे के दुष्प्रभाव
यदि आपका बच्चा गोल-मटोल हो लेकिन मोटा न हो, तो वह स्वस्थ जीवन जी सकता है। लेकिन मोटे बच्चों को व्यस्क होने पर मोटापा और उसके दुष्प्रभावों को झेलना पड़ सकता है। मोटापे से ग्रस्त बच्चे आमतौर पर भावुक होते है और उनके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है। अन्य बच्चों के द्वारा चिढ़ाये जाने के कारण वे अक्सर अलग-थलग रहने लगते हैं और अकेलापन महसूस करते हैं।
मोटे बच्चों को कम उम्र में ही मधुमेह, उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्राॅल, हृदय रोग, निद्रा रोग, कैंसर, यकृत रोग, लड़कियों में मासिक धर्म का जल्दी शुरू होना, त्वचा में संक्रमण, जोड़ों और हड्डियों की समस्याएं, अस्थमा और श्वसन से सम्बंधित अन्य समस्याएं हो सकती हैं। 
बच्चों में मोटापा रोकने के उपाय 
— बच्चों में मोटापे से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका शारीरिक गतिविधियों में हिस्सा लेना है। इसमें मैदानी खेल या शारीरिक गतिविधियां भी आपके बच्चे के लिए बहुत उपयोगी हो सकती हैं। इसके लिए जरूरी है कि अपने बच्चे के दिनचर्या में इस तरह की सरल शारीरिक गतिविधियों को शामिल करें।
— अपने बच्चे में किसी आउटडोर गेम का शौक पैदा करें। उन पर दबाव न डालें, बस उनकी पसंद को पहचानते हुए उसे उस खेल की ओर प्रेरित करें। इसके साथ ही खेल के अलावा उसे डांस अथवा नृत्य के जरिये भी मोटापे से दूर रखा जा सकता है।
— टीवी के सामने सारा दिन बैठे रहने वाला बच्चा कम सक्रिय हो जाता है। यह मोटापे की एक बड़ी वजह है। इसके लिए जरूरी है कि उसका टीवी देखने का समय निश्चित कर दें। 
— बच्चों को मोबाइल न दें और अपने मोबाइल का भी कम से कम इस्तेमाल करने दें। अन्य गैजेट्स से भी उन्हें दूर रखे।
— कोल्ड ड्रिंक ना तो खुद पिएं ना उन्हें पीने दें। और अगर पी भी रहें हैं तो एक दिन में 80 एमएल से ज्यादा न पिएं।
— बच्चों को जंक फूड और फास्ट फूड से दूर रखें।
— मीठे खाद्य पदार्थों का भी कम सेवन कराएं, क्योंकि इससे मोटापा तेजी से बढ़ता है।
— सफेद चावल, घी, मैदा और चीनी से परहेज करें, क्योंकि इनमें ज्यादा मात्रा में वसा पाया जाता है।
— शुगर ड्रिंक और फ्रूट ड्रिंक पीने से बच्चों को चीनी और कैलोरी के अलावा कुछ नहीं मिलता। इसलिए इस इन पेय का उपयोग सीमित मात्रा में ही करें।
— आपके बच्चे के मोटापे को कम करने और बेहतर स्वास्थ्य के लिए भरपूर नींद बहुत अच्छा तरीका है। इसलिये यह सुनिश्चित करें कि आपका बच्चा भरपूर नींद ले। लंबे समय तक या बहुत कम समय तक सोना आपके बच्चे को मोटा बना सकता है।
— अपने बच्चे को स्कूल के लिए लंच घर से पैक करके दें। इससे वे बाहर का अस्वास्थ्यकर भोजन खाने से बचेंगे। अपने बच्चे को लंच देते समय पौष्टिकता का पूरा ध्यान रखें। आपका दायित्व है कि आप पौष्टिकता और स्वाद के बीच सही तालमेल बनायें।
— बच्चों को नाश्ता अवश्य कराएं क्योंकि नाश्ता दिन का सबसे महत्वपूर्ण आहार होता है। नाश्ता करने से बच्चों में एकाग्रता बढ़ती है और वे स्कूल में बेहतर ध्यान लगा पाते हैं।
— अपने बच्चे को फाइबर युक्त आहार दें। फाइबर पाचन क्रिया को दुरुस्त रखता है। इसके साथ ही अधिक कैलोरी सेवन के बिना लंबे समय तक पेट भरा रखता है। राजमा, ब्रोकली, मटर, नाशपाती, साबुत अनाज का पास्ता, ओटमील आदि फाइबर के अच्छे स्रोत हैं।
बैरिएट्रिक सर्जरी है एक विकल्प
अगर इन उपायों पर अमल करने के बावजूद बच्चे का वजन कम नहीं हो रहा है और उसे मोटापे के कारण कई तरह की समस्याएं हो रही हों तो इसका अंतिम विकल्प बेरिएट्रिक सर्जरी है। इस सर्जरी के बाद तेजी से वजन कम होता है। यह सर्जरी तीन तरह की होती है- लैप बैंड, स्लीव गैस्ट्रोकटोमी और गैस्ट्रिक बाइपास सर्जरी। ये सर्जरी लेप्रोस्कोपिक तरीके से की जाती हैं। लैप बैंड सर्जरी के बाद खाने की क्षमता बहुत कम हो जाती है। स्लीव गैस्ट्रोक्टोमी के बाद डेढ़ से दो किलो वजन हर हफ्ते कम होना शुरू हो जाता है। 12-18 महीने में 80-85 फीसदी वजन कम हो जाता है। वहीं गैस्ट्रिक बाइपास में अमाशय को बांटकर एक शेल्फ, गेंद के आकार का बनाकर छोड़ दिया जाता है। इस सर्जरी के बाद खाना देर से पचता है। भूख बढ़ाने वाला 'ग्रेहलीन' हार्मोन भी बनना बंद हो जाता है। इससे शरीर में जमा फैट एनर्जी के रूप में खर्च होने लगता है और तेजी से वजन कम होता है। लेकिन छोटे बच्चों की बैरिएट्रिक सर्जरी करवाना ठीक नहीं है। इसके बाद कई चीजों का खयाल रखना पड़ता है, जिसे बच्चे आसानी से फॉलो नहीं कर पाते। इसमें डाइट सबसे अहम है। इसलिए बच्चों का वजन कम करने के लिए पहले सर्जरी रहित उपायों पर ही जोर देना चाहिए।


कंधे जब हो जाये जाम

अगर आपको अपने कंधे हिलाने-डुलाने में दर्द महसूस हो तो यह कंधे जाम होने की स्थिति का परिचायक है जिसे चिकित्सकीय भाषा में फ्रोजन शोल्डर या एडहेसिव कैपसुलाइटिस भी कहा जाता है। यह अत्यंत ही कष्टदायक स्थिति है जो कंधे में चोट लगने या चोट लगे बगैर भी उत्पन्न हो सकती है।  
किसे होती है यह समस्या
पुरुषों की तुलना में यह समस्या महिलाओं को अधिक होती है। आम तौर पर यह 40 से 65 वर्ष की उम्र में होती है। मधुमेह के मरीजों में से 10 से 20 प्रतिशत मरीजों को यह समस्या हो सकती है। 
कंधे की संरचना
फ्रोजन शोल्डर को समझने के लिये कंधे की संरचना को समझना आवश्यक है। हमारे कंधे तीन हड्डियों से बने होते हैं। ये हैं स्कापुला (शोल्डर ब्लेड), ह्यूमेरस (ऊपरी हाथ की हड्डी) और क्लैविकल (काॅलर बोन)। कंधे की जोड़ के चारोें तरफ ऊतक होते हैं। कंधे की मांसपेशियां लिगामेंट से बनी होती हैं। लिगामेंट मुलायम ऊतक होते हैं। लिगामेंट सभी हड्डियों को जोड़ती है। कंधे के भीतर ज्वाइंट फ्ल्युड भी होता है जो जोड़ों की सतह को चिकनापन एवं तरलता प्रदान करता है। 
क्यों होता है फ्रोजन शोल्डर 
फ्रोजन शोल्डर आखिर क्यों होता है इसके बारे में रहस्य बना हुआ है। एक परिकल्पना यह है कि यह आटोइम्यून प्रतिक्रिया के कारण पैदा होता है। दरअसल आटोइम्यून प्रतिक्रिया के दौरान शरीर को संक्रमणों से बचाने वाली रक्षा प्रणाली गलती से शरीर के हिस्सों पर ही हमले शुरू कर देती है। हमारा शरीर यह गलत सोच लेता है कि जिन ऊतकों पर वह हमला कर रहा है वह बाहरी वस्तु है। इसके कारण जिस ऊतक पर हमला होता है वहां तीव्र सूजन होती है। फ्रोजन शोल्डर की स्थिति में कंधे में काफी सूजन और दर्द होता है। इससे कंधे को हिलाना-डुलाना मुश्किल हो जाता है। यह सब इतना अचानक क्यों होता है यह भी अभी रहस्य बना हुआ है। 
फ्रोजन शोल्डर की स्थिति चोट लगने के बाद कंधे के मूवमेंट में कमी के कारण भी उत्पन्न हो सकती है। चोट के कारण कंधे को हिलाना-डुलाना मुश्किल हो जाता है जिससे यह समस्या हो सकती है। इसका एक उदाहरण यह है कि कलाई में फ्रैक्चर होने पर जब पूरे बांह पर प्लास्टर चढ़ा दिया जाता है तब कुछ कारणों से कुछ लोगों में प्लास्टर उतरने के बाद कुछ समय तक कंधे को हिलाना-डुलाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे भी मामले सामने आये हैं जब कंधे को छोड़कर अन्य भागों की सर्जरी के बाद और यहां तक कि दिल के दौरे के बाद मरीज के स्वास्थ्य लाभ करने पर फ्रोजन शोल्डर की समस्या उत्पन्न हो जाती है। यह स्थिति कंधे की अन्य समस्याओं के कारण भी उत्पन्न हो सकती है। कई बार बर्साइटिस, इम्पिगेमेंट सिंड्रोम और रोटेटेर कफ के आंशिक रूप से फटने पर भी फ्रोजन शोल्डर उत्पन्न हो सकती है। 
फ्रोजन शोल्जर की आरंभिक स्थिति में दर्द के कारण मरीज कंधे को कम हिलाता-डुलाता है। कंधे को कम हिलाने-डुलाने के कारण धीरे-धीरे स्थिति गंभीर होती जाती है। इसके उपचार के पहले चरण में कंधे की सक्रियता वापस लायी जाती है और इसके बाद फ्रोजन शोल्डर के कारणों को दूर किया जाता है। 
उपचार
फ्रोजन शोल्डर के उपचार में समय लग सकता है। ज्यादातर मरीजों को उपचार से लाभ होता है लेकिन इसमें कई महीने लग जाते हैं। उपचार का पहला चरण कंधे की सूजन कम करने और कंधे की सक्रियता बढ़ाने पर केन्द्रित होता है। दवाईयों के अलावा मरीज को फिजियोथिरेपी भी दी जाती है। कई बार कुछ इंजेक्शन दिये जा सकते हैं। 
दवाईयों, फिजियोथिरेपी और इंजेक्शन से अधिक फायदा नहीं होने पर लोकल एनीस्थिसिया में कंधे की सर्जरी की जाती है। ज्यादातर मामलों में सर्जरी के बाद मरीज के कंधे की सक्रियता बहुत तेजी से बढ़ती है। आज के समय में आर्थाेस्कोपी की मदद से अधिक चीर -फाड़ के बगैर कंधे की सर्जरी की जा सकती है।


सर्दियों में कैसे रखें डायबिटिज पर नियंत्रण 

जाड़े के दिनों में मधुमेह के मरीजों का रक्त चाप बढ़ जाता है। इससे दिल का दौरा पड़ने की भी आशंका बढ़ती है। कई बार सुबह घुमने के समय एंजाइना हो जाता है इसलिये मरीजों को इस मौसम में ठंड से बचने के प्रति विशेष सावधानी बरतनी चाहिये। 
जाड़े के दिनों में मधुमेह के मरीज मीठा खाना चाहते हैं। कई बार दोस्तों एवं परिवार के दबाव के चलते मीठी चीजें खा लेते हैं, जिससे रक्त शुगर बढ़ जाता है। कई लोग जाड़े के दिनों में मूंगफलियां, बादाम और गुड़ की चीजें खाते हैं। लेकिन उन्हें इससे परहेज करना चाहिये। इसके बदले वे भुने हुये चने खा सकते हैं। 
सर्दी के मौसम में शादियों और पार्टियों का जोर अधिक होता है जिससे अक्सर बाहर की चीजें खानी पड़ती है। एसे में मरीजों को वही खाद्य एवं पेय लेना चाहिये जो उनके लिये उपयुक्त हो। पार्टियों में शराब पीने से परहेज करना चाहिये, क्योंकि शराब पीकर बाहर निकलने पर ठंड के कारण रक्त धमनियां सिकुड़ जाती है जिससे एंजाइना बढ़ने का खतरा रहता है। कई लोग शराब पीने के समय खाना नहीं खाते हैं, लेकिन ऐसा करने से हाइपोग्लाइसीमिया जैसी खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो सकती है। 
मधुमेह में दिल का दौरा पड़ने पर छाती में दर्द जैसे लक्षण नहीं होते हैं। उन्हें सांस लेने में दिक्कत जैसे लक्षण होते हैं जिससे वे समझ लेते हैं कि पेट में गैस बन रही है। ऐसे मरीज को पेट में गैस बनने जैसी तकलीफ होने पर उसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिये, बल्कि तत्काल चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिये। 
मधुमेह के मरीजों को सर्दियों में हाथों में गर्म दस्ताने और पैरों मंे मौजे पहनना चाहिये। कई मरीज पैरों एवं हाथों को गर्म करने के लिये हीटर या गर्म पानी की बोतलों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन मधुमेह के मरीजों को पैरों एवं हाथों में संवेदना समाप्त हो जाने के कारण जब उन्हें गर्मी महसूस नहीं होती है तो वे पैरों या हाथों को हीटर के और पास ले जाते हैं जिससे पैर या हाथ जल जाने का खतरा होता है। मधुमेह के मरीजों को संवेदना नहीं होने के कारण हाथ या पैर के जलने का पता भी नहीं चलता है और इस कारण समय पर उसका इलाज भी नहीं होता है जिससे पैर एवं हाथ के बेकार होने का खतरा रहता है। 
सर्दियों में अंगुलियां ठंड के कारण सूज जाती हैं, इसे चिल बर्न कहते हैं। कई बार सर्दियों में गर्म पानी में हाथ डूबोकर रखने से खारिज हो जाती है। इसलिये अंगुलियों को गुनगुने पानी में डालें। इसके अलावा एलोबेरा जैसी क्रीम अंगुलियांे पर लगायी जा सकती है। 
खाने के तुरंत बाद बाहर घुमने निकलने पर एंजाइना होने की आशंका बढ़ सकती है। जाड़ों में घुमना-फिरना कम होने तथा व्यायाम आदि कम होने के कारण शुगर बढ़ जाता है। इसलिये ठंड के कारण घुमना-फिरना संभव नहीं होने पर घर में ही व्यायाम करना चाहिये। महिलायें चार बजे शाम को घूमने जा सकती हैं। 


कड़ाके की ठंड में अपनी जान और सेहत की कैसे करें रक्षा 

सर्दियां आते ही ठंड से होने वाली मौतें अखबारों की सुर्खियां बनने लगती हैं। कड़ाके की ठंड बेघर तथा सुविधाओं से वंचित लोगों के लिए कहर साबित होती है। साथ ही मधुमेह, दमा और दिल के मरीजों के लिए भी ठंड खतरे की घंटी होती है। दिल्ली डायबेटिक रिसर्च सेंटर (डी डी आर सी) के अध्यक्ष का कहना है कि ठंड के कारण उच्च रक्त दाब बढ़ने से मधुमेह और हृदय रोगियों की मौत की आशंका बढ़ जाती है और इस कारण उन्हें विशेष तौर पर सावधान रहने की जरूरत होती है।

सर्दियों में हाइपोथर्मिया, उच्च रक्त चाप, मधुमेह, दमा तथा दिल के दौरे के कारण हर साल लाखों लोगों की मौत हो जाती है। 
विशेषज्ञों के अनुसार सर्दियों में न केवल तेज ठंड से उत्पन्न हाइपोथर्मिया के कारण, बल्कि उच्च रक्त चाप, दिल के दौरे, दमा और मधुमेह के कारण असामयिक मौत की घटनायें कई गुना बढ़ जाती हंै। हमारे देश में हर साल ऐसी मौतों की संख्या लाखों में होती हैं। 
हाइपोथर्मिया का खतरा एक साल से कम उम्र के बच्चों तथा बुजुर्गों को बहुत अधिक होता है। अनुमान है कि जब कभी भी तापमान सामान्य से एक डिग्री सेल्शियस घटता है तब आठ हजार और बुजुर्ग मौत के हवाले हो जाते हैं।


एडाहाइपोथर्मिया के कारण मौत का शिकार होने वालों में ज्यादातर लोग मानसिक रोगी, दुर्घटना में घायल लोग, मधुमेह, हाइपोथाइराइड, ब्रांेकोनिमोनिया और दिल के मरीज तथा शराब का अधिक सेवन करने वाले होते हैं। 
बेघर लोगों तथा ठंड से बचाव की सुविधाआंे से वंचित लोगों को हाइपोथर्मिया से मौत का खतरा अधिक होता है। पर्वतारोहियों को अत्यधिक ठंड से प्रभावित होने का खतरा अधिक होता है, लेकिन आम तौर पर पर्वतारोही ऐसी आपात स्थिति की तैयारी करके पर्वतारोहण करते हैं।
विभिन्न अध्ययनों एवं आंकड़ों के अनुसार हाइपोथर्मिया से होने वाली करीब 50 प्रतिशत मौतें 64 वर्ष या उससे अधिक उम्र के लोगों में होती है। बुजुर्गों को कम उम्र के लोगों की तुलना में हाइपोथर्मिया से पीड़ित होने की आशंका बहुत  अधिक होती है, क्योंकि ठंड से बचाव की शरीर की अपनी प्रणाली उम्र के साथ कमजोर पड़ती जाती है। इसके अलावा उम्र बढ़ने के साथ सबक्युटेनियस वसा में कमी आ जाती है और ठंड को महूसस करने की क्षमता भी घट जाती है। इसके अलावा शरीर की ताप नियंत्राण प्रणाली भी कमजोर पड़ जाती है। 
जाड़े के दिनों में मधुमेह और हृदय रोगियों के लिये खतरा अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि ठंड के कारण एंजाइना, रक्त चाप और शुगर बढ़ने की आशंका अधिक होती है। 
ठंड के असर के कारण शरीर का तापमान अत्यधिक गिर जाने पर हाइपोथर्मिया की स्थिति उत्पन्न होती है। ठंड के संपर्क में लंबे समय तक रहने पर कम ठंड रहने पर भी हाइपोथर्मिया उत्पन्न हो सकती है। 
हमारे शरीर में ठंड से बचाव की प्राकृतिक प्रणाली काम करती है, जिसके तहत ठंड के संपर्क में आते ही त्वचा तक रक्त का प्रवाह बंद हो जाता है ताकि और अधिक ताप क्षय रूक जाये। बचाव की इस प्रणाली के तहत शरीर में गर्माहट लाने के लिये स्वतः कंपकपी शुरू हो जाती है और खास हार्मोनों का उत्सर्जन होने लगता है। लेकिन अधिक ठंड में यह सुरक्षा प्रणाली आम तौर पर विफल हो जाती है। अगर ऐसे में शरीर से ताप क्षय को तत्काल रोका नहीं जाये और शरीर में गर्माहट लाने के उपाय नहीं किये जायें तो मौत हो सकती है। 
कंपकपी, लड़खड़ाहट और घबराहट हल्की हाइपोथर्मिया के लक्षण हैं जबकि अत्यंत तेज कंपकपी और कंपकपी का अचानक बंद हो जाना, श्वसन में कमी आ जाना, दिल की धड़कन और नब्ज का धीमा चलना और कुछ भी नहीं सोच पाना आदि मध्यम हाइपोथर्मिया के लक्षण हैं। अति हाइपोथर्मिया की स्थिति में कंपकपी बंद हो जाती है, मरीज बेहोश हो जाता है, श्वसन या तो अत्यंत धीमा हो जाता है या बंद हो जाता है तथा नब्ज या तो अनियमित हो जाती है या चलनी बंद हो जाती है। 
हाइपोथर्मिया होने पर तत्काल चिकित्सकीय सुविधाओं की जरूरत होती है। हाइपोथर्मिया होने पर मरीज को तत्काल सूखे एवं गर्म कपड़ों से लपेट देना चाहिये ताकि शरीर से और अधिक ताप क्षय नहीं हो। अगर दिल की धड़कन एवं नब्ज नहीं चल रही हो तो तत्काल कोर्डियोपल्मनरि रिससिटेशन (सीपीआर) दिया जाना चाहिये। बार-बार गर्म पानी और मालिश के जरिये गर्मी पहुंचाने की कोशिश से परहेज करना चाहिये, क्योंकि अगर यह गलत तरीके से किया गया तो उतकों को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। मरीज को अल्कोहल या निकोटिन नहीं देना चाहिये। 
हाइपोथर्मिया से बचने के लिए कई गर्म कपड़े पहनना चाहिए, खूब गर्म तरल पेय का सेवन करना चाहिए, पौष्टिक भोजन करना चाहिये, लेकिन अल्कोहल से परहेज करना चाहिये। सर्दियों में कमरे को रूम हीटर या अन्य उपायों से गर्म रखना चाहिये।


नयी तकनीकों से मस्तिष्क सर्जरी हुई आसान

मौजूदा समय में न्यूरो सर्जरी का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है। आज माइक्रोस्कोप, त्रिआयामी इमेजिंग, इंटरवैंशनल एम आर आई, रोबोटिक सर्जरी, स्टीरियोटैक्सी, इंडोस्कोपी और रेडियो सर्जरी जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से मस्तिष्क की सर्जरी न केवल आसान, कष्ट रहित एवं कारगर बन गयी है, बल्कि इनकी बदौलत मरीजों के बेहतर इलाज की भी संभावना बढ़ गयी है। न्यूरो सर्जरी के क्षेत्रा में हाल में हासिल महत्वपूर्ण कामयाबियों की बदौलत मस्तिष्क के आॅपरेशन के लिए दिमाग पर नश्तर चलानेे की जरूरत समाप्त हो गयी है।
न्यूरो सर्जरी का नाम सुनते ही खोपड़ी को खोल कर की जाने वाली खौफनाक शल्य क्रिया का ख्याल आता है, लेकिन आज न्यूरोसर्जरी का परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। आज न केवल न्यूरोसर्जरी का दायरा इस कदर व्यापक हो गया है कि अब न्यूरोसर्जरी में न केवल मस्तिष्क, बल्कि सम्पूर्ण नर्वस प्रणाली, स्पाइनल कार्ड और स्पाइनल काॅलम, शरीर के विभिन्न भागों जैसे हाथ, पैर, बांह से गुजरने वाली स्नायुओं तथा हृदय से मस्तिष्क तक जाने वाली रक्त धमनियों की जांच एवं उनकी चिकित्सा शामिल हो गयी है। अब न्यूरोसर्जरी की मदद से ब्रेन ट्यूमर, पिट्यूटरी ग्रंथि के ट्यूमर, मस्तिष्क में रक्तस्राव के अलावा रीढ़ (स्पाइन) की जन्मजात बीमारियों, उम्र बढ़ने तथा चोट लगने के कारण रीढ़ की होने वाली क्षति, गर्दन की स्नायुओं पर दबाव पड़ने से होने वाले दर्द, कमर दर्द, सियाटिका, कार्पल टनल सिंड्रोम, मिर्गी, स्ट्रोक, पार्किन्सन्स डिजिज तथा मस्तिष्क को रक्त की आपूर्ति करने वाली रक्त धमनियों में गड़बड़ियों का इलाज किया जाता है। 
आम तौर पर न्यूरोसर्जरी को आधुनिक विधा माना जाता है, लेकिन पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है कि न्यूरोसर्जरी का आविर्भाव हजारों वर्ष पूर्व हुआ। इस बात के प्रमाण मिले हैं कि 10 हजार साल पहले खोपड़ी की सर्जरी की गयी थी। हालांकि अक्तूबर 1919 में न्यूरोसर्जरी को एक अलग चिकित्सकीय विभाग के रूप में मान्यता मिली, जब डा. हेर्वेरी कुशिंग ने अमेरिकन कालेज आॅफ सर्जन्स के सम्मेलन में अपने कार्य के बारे में व्याख्यान दिया। न्यूरोसर्जरी के क्षेत्रा में अग्रणी डा.कुशिंग अपने समय के जाने-माने सर्जन थे, जिन्होंने नयी विधियों एवं तकनीकों का विकास किया और इनकी बदौलत मस्तिष्क के ट्यूमर का इलाज सुरक्षित एवं कारगर बन गया। 
एक दशक बाद 10 अक्तूबर 1931 को कुशिंग के विचारों ने यथार्थ का रूप ग्रहण किया और हार्वे कुशिंग सोसायटी की स्थापना हुयी, जो बाद में अमरीकन एसोसिएशन्स आॅफ न्यूरोलाॅजिकल सर्जन्स के रूप में अस्तित्व में आया। बाद में बकायदा न्यूरोसर्जरी के शिक्षण एवं प्रशिक्षण तथा इस क्षेत्रा में अनुसंधान के लिये अलग से विभागों एवं संस्थाओं की स्थापना हुयी।
आज न्यूरोसर्जरी के क्षेत्रा में हुये परिवर्तनों से आॅपरेशन थियेटर का भी दृश्य बदल गया है। आज न्यूरोसर्जरी के क्षेत्रा में विशिष्ट योग्यता एवं प्रशिक्षण की मांग बढ़ गयी है। इसमें जैक आॅफ आॅल ट्रेड्स और बट मास्टर्स आॅफ वन की धारणा तेजी से लोकप्रिय हो रही है। पहले मस्तिष्क के सभी तरह के आॅपरेशन एक ही न्यूरोसर्जन करते थे, लेकिन अब न्यूरोसर्जरी के विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता का महत्व बढ़ गया है। अब अलग-अलग तरह के आॅपरेशन के लिये अलग-अलग विशेषज्ञता एवं प्रशिक्षण प्राप्त न्यूरोसर्जन को महत्व दिया जाने लगा है। मिसाल के तौर पर मस्तिष्क के ट्यूमर का आॅपरेशन अलग सर्जन करते हैं तो स्पाइन की समस्याओं के लिये अन्य सर्जन होते हैं। 
इसके अलावा अब आॅपरेशन के दौरान न्यूरोसर्जन, अस्थि शल्य चिकित्सक, न्यूरोलाॅजिस्ट, फिजिशियन एवं प्लास्टिक सर्जन की मौजूदगी जरूरत हो गयी है, ताकि आॅपरेशन के दौरान उत्पन्न किसी भी जटिलता को तत्काल दूर किया जा सके। इससे जटिल बीमारियों का इलाज एवं आॅपरेशन कारगर बन गया है। 
हालांकि न्यूरोसर्जरी मुख्य तौर पर शल्य क्रियाओं का क्षेत्रा है, लेकिन अनेक न्यूरो समस्याओं से पीड़ित मरीजों का इलाज अब आॅपरेशन के बगैर ही अथवा चीरा लगाकर (मिनिमली इंवैसिव) विकल्पों की मदद से भी होने लगा है। आज माइक्रोस्कोप, मस्तिष्क की त्रिआयामी इमेजिंग (3-डी बे्रन इमेजिंग), इंटरवैंशनल एम आर आई, रोबोटिक सर्जरी, स्टीरियोटैक्सी, इंडोस्कोपी और रेडियोसर्जरी जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से न्यूरोसर्जरी न केवल आसान एवं कारगर हो गयी है, बल्कि इनकी बदौलत मरीजों का बेहतर तरीके से इलाज करने वाले न्यूरोसर्जनों की क्षमता भी बढ़ गयी है। हाल के दिनों में न्यूरोसर्जरी के क्षेत्रा में हासिल महत्वपूर्ण कामयाबियों की बदौलत मस्तिष्क के आॅपरेशन के लिये दिमाग पर नश्तर चलाने की जरूरत काफी हद तक समाप्त हो गयी है। 
इंटरवेंशनल एम आर आई 
इंटरवेंशनल एम आर आई की मदद से अब आॅपरेशन के दौरान ही एम आर आई करना संभव हो गया है। इस तकनीक को इंटरवैंशनल मैगनेटिक रिजोनेंस इमेजिंग कहा जाता है। इंटरवैंशनल एम आर आई की बदौलत सर्जन अब आॅपरेशन थियेटर में ही यह देख सकता है कि वे आॅपरेशन के दौरान क्या कर रहे हैं और आॅपरेशन किस हद तक सम्पन्न हो रहा है। 
परम्परागत एम आर आई में पीछे से बंद सुरंग की तरह का चैम्बर होता है, जिसमें दो विशाल चुम्बक के बीच मरीज को लिटाया जाता है और एक इमेज लेने के लिये चार मिनट या अधिक देर तक मरीज को बिना हिले-डुले एक ही अवस्था में रहना पड़ता है। लेकिन इंटरवंैशनल एम आर आई में दो चुम्बकों के बीच जगह होती है जिसमें मरीज हिल-डुल सकता है, बैठ सकता है या खड़ा हो सकता है। इससे यह फायदा है कि मरीज को खड़ा कर या बिठा कर इमेज लिया जा सकता है। 
डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि अक्सर देखा गया है कि मरीज बैठने या खड़ा होने पर कमर में दर्द महसूस करने लगता है, लेकिन उसके लेटते ही दर्द गायब हो जाता है। इंटरवैंशनल एम.आर.आई से मरीज के लेटने, बैठने अथवा खड़ा होने पर रीढ़ में आने वाले फर्क का पता लगाना संभव हो गया है। 
आने वाले समय में आॅपरेशन थियेटर में खुले स्कैनर का इस्तेमाल आरंभ हो जायेगा। इसमें मरीज को आॅपरेशन के दौरान ही स्लाडर करके स्कैनर में ले जाया जायेगा और यह देखा जा सकेगा कि ट्यूमर निकालने जैसी शल्य क्रियायें पूरी तरह से सम्पन्न हो गयी या नहीं। इस स्कैनर के इस्तेमाल में लाने के लिये यह आवश्यक है कि आॅपरेशन के काम में आने वाले सभी औजार एवं उपकरण धातु के नहीं, बल्कि टाइटेनियम जैसे अधातु के बने हों। 
स्टीरियोटैक्सी सर्जरी 
फ्रैमलेस स्टीरियोटैक्सी के इस्तेमाल से शल्य क्रिया के दौरान किसी तरह की गलती होने की आशंका दूर हो गयी है। इसकी मदद से मस्तिष्क एवं उसके किसी भी हिस्से को  कोई नुकसान पहुंचाये बगैर मस्तिष्क के भीतर की किसी भी संरचना तक पहुंचा जा सकता है और उसकी खराबियों को दूर किया जा सकता है। कम्प्यूटरीकृत एक्सियल टोमोग्राफी (सी टी स्कैन) और न्यूक्लियर मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग जैसी तकनीकों के विकास से सर्जन को स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी की प्लानिंग में काफी मदद मिलने लगी है। इससे सर्जरी लगभग शत-प्रतिशत सही एवं कामयाब होने लगी है। 
रोबोटिक सर्जरी 
डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि मस्तिष्क की सर्जरी में अब रोबोट की मदद भी ली जाने लगी है। सर्जरी से सबंधित आंकड़े एवं जानकारियों  को आॅपरेशन थियेटर के कम्प्यूटर पर भेज दिया जाता है। यह कम्प्यूटर रोबोट को बताता है कि ट्यूमर कहां पर और कितनी गहराई में है। इसके बाद रोबोट के हाथ की मदद से सर्जरी की जाती है।


मस्तिष्क की इंडोस्कोपी 
इंडोस्कोपी की बदौलत मस्तिष्क के भीतर झांकना, मस्तिष्क की नाजुक एवं सूक्ष्मतम कोशिकाओं तक पहुंचना एवं उनका आॅपरेशन करना कष्टरहित, आसान और सुरक्षित हो गया है। इंडोस्कोपी के विकास के कारण अब खोपड़ी में बहुत छोटा सूराख करके ही अथवा मस्तिष्क को खोले बगैर बड़े से बड़े आॅपरेशन किये जा सकते हैं।  
माइक्रोडिस्क एक्टमी 
आधुनिक न्यूरो सर्जरी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माइक्रो डिस्क एक्टमी के रूप में सामने आयी है। इसमें माइक्रोस्कोप की मदद से डिस्क एक्टमी की जाती है। इसमें भी डेढ़ से दो इंच का चीरा लगाया जाता है। इसमें कैमरा युक्त स्कोप डालकर पिट्यूटरी या अन्य ट्यूमर को निकाला जा सकता है। इस आॅपरेशन के लिये मरीज को कई बार बेहोश भी नहीं करना पड़ता, बल्कि स्थानीय एनीस्थिसिया से भी आॅपरेशन हो सकता है और मरीज दूसरे ही दिन घर जा सकता है। 
गामा/एक्स नाइफ  
आज गामा नाइफ एवं एक्स नाइफ जैसी तकनीकों की मदद से मस्तिष्क मंे चीर-फाड़ किये बगैर ट्यूमर का सफाया किया जा सकता है। आधुनिक समय में लगभग हर तरह के ट्यूमर खास तौर पर कैंसर रहित अर्थात् बिनाइन ट्यूमर के कष्टरहित तथा कारगर इलाज के लिये गामा नाइफ का सफलता पूर्वक उपयोग हो रहा है। 


 


फेसबुक और वाट्सएप की लत से उंगलियों एवं हाथों को नुकसान 

युवाओं में फेसबुक और वाट्सएप जैसे सोशल नेटवर्किंग माध्यमों की लत तेजी से बढ़ रही है लेकिन इनके बहुत अधिक उपयोग से कलाई और उंगलियों की जोड़ों में दर्द, आर्थराइटिस, रिपिटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई) तथा कार्पल टनल सिंड्रोम (सीटीसी) की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
रिपिटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई)
पिछले कुछ वर्शो में टच स्क्रीन वाले फोन, स्मार्ट फोन तथा टैबलेट के लगातार इस्तेमाल के कारण वैसे लोगों की संख्या बढ़ी है जिन्हें उंगलियों, अंगूठे और हाथों में दर्द की समस्या उत्पन्न हो रही है। इस तरह का दर्द एवं जकड़न रिपेटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई) पैदा कर सकती है। आरएसआई एक ही गतिविधि के लंबे समय तक बार-बार दोहराये जाने के कारण जोड़ों के लिगामेंट और टेंडन में सूजन (इंफ्लामेंशन) होने के कारण होती है। 
जो लोग टच स्क्रीन स्मार्ट फोन और टैबलेट पर बहुत ज्यादा गेम खेलते हैं और टाइप करते हैं उनकी कलाई और अंगुलियों के जोड़ों में दर्द हो सकता है और कभी-कभी अंगुलियों में गंभीर आर्थराइटिस हो सकती है। गेम खेलने वाले डिवाइस के लंबे समय तक इस्तेमाल के कारण युवा बच्चों में इस समस्या के होने की अधिक संभावना होती है। किसी भी गतिविधि के बार-बार दोहराये जाने के कारण जोड़, मांसपेशियां, टेंडन और नव्र्स प्रभावित होते हैं जिसके कारण रिपिटिटिव स्ट्रेस इंजुरीज होती है। उदाहरण के लिए, जो लोग सेल फोन पर अक्सर संदेश टाइप करने के लिए अपने अंगूठे का उपयोग करते हैं, उनमें कभी-कभी रेडियल स्टिलाॅयड टेनोसिनोवाइटिस (डी क्वेरवेन सिंड्रोम, ब्लैकबेरी थम्ब या टेक्सटिंग थम्ब के नाम से भी जाना जाने वाला) विकसित हो जाता है। इसमें टेंडन प्रभावित होती है और अंगूठे को हिलाने-डुलाने में दर्द होता है। हालांकि डेस्कटाॅप कीबोर्ड के लंबे समय तक इस्तेमाल के कारण दर्द से पीड़ित रोगियों में इसके संबंध की पुष्टि नहीं हुई है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि डेस्कटाॅप कीबोर्ड पर बार-बार टाइप करने पर यह दर्द और बढ़ सकता है।
कार्पल टनल सिंड्रोम (सीटीसी) 
ज्यादातर लोग टच स्क्रीन का इस्तेमाल गलत तरीके से और गलत पोस्चर में करते हैं। स्ट्रेस से संबंधित इंजुरीज लोगों को तब भी हो सकती है जब वे टाइप करते समय अपनी कलाई पर अधिक दबाव डालते हैं या अपने हाथों को बहुत ज्यादा आगे या पीछे की ओर झुकाते हैं जिससे उनके हाथों पर स्ट्रेस पड़ता है। इसके कारण होने वाली बीमारियों में कार्पेल टनेल सिंड्रोम सबसे सामान्य है। यह कलाई में मीडियन नर्व पर दबाव पड़ने के कारण होता है।
इस बीमारी का खतरा मोबाइल एवं कम्प्यूटर का बहुत अधिक इस्तेमाल करने वालों के अलावा उन सभी लोगों को अधिक होता है जिन्हें अपनी ऊंगलियों एवं हाथों का बहुत अधिक इस्तेमाल करना पड़ता है। मिसाल के तौर पर टाइपिस्टों, मोटर मैकेनिकों और मांस काटने वालों को यह बीमारी होने की आशंका अधिक होती है। मधुमेह, गाउट एवं गठिया के मरीजों तथा शराब का बहुत अधिक सेवन करने वालों को भी कार्पल टनल सिंड्रोम का खतरा अधिक होता है। इसके अलावा गर्भधारण, रजोनिवृति और गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से होने वाले हार्मोन संबंधी परिवर्तन के दौरान भी यह बीमारी हो सकती है। 
यह बीमारी आनुवांशिक कारणों से भी हो सकती है। कुछ लोगों में आनुवांशिक तौर पर कलाई एवं ऊंगलियों की नसों (फ्लेक्सर टेंडन) की प्राकृतिक चिकनाई कम होती है। प्राकृतिक चिकनाई कम होने पर सीटीएस होने की आशंका अधिक होती है। इसके अलावा कुछ लोगों की कलाई और ऊंगलियों में हड्डियों एवं नसों की बनावट इस प्रकार की होती है कि उन्हें यह बीमारी अन्य लोगों की तुलना में अधिक होती है। कलाई या हाथ के अगले हिस्से में चोट लगने से भी सीटीएस हो सकती है। 
हाथों में सुन्नपन्न, सनसनाहट अथवा झुनझुनी, छोटी-मोटी चीजों को पकड़ने में कमजोरी, हाथ को कंधे तक उठाने में दर्द और अंगूठे, तर्जनी एवं मध्यमा में संवदेना की कमी जैसे लक्षण कार्पल टनल सिंड्रोम (सीटीसी) के लक्षण हैं। 
कार्पल टनल कलाई में हड्डियों और सख्त लिगामेंट से घिरी अत्यंत पतली सुरंग जैसी संरचना है जो कलाई एवं ऊंगलियों की विभिन्न हड्डियों को आपस में जोड़ती है। कार्पल टनल कलाई के जरिये प्रवेश करते हुये ऊंगलियों में जाता है। इस सुरंग (टनल) से ऊंगलियों और अंगूठे की नसें (फ्लेक्सर टेंडन) और मध्यस्थ स्नायु (मेडियन नर्व) गुजरते हैं। ये नसें मांसपेशियों और हाथ की हड्डियों को जोड़ती हैं और ऊंगलियों की क्रियाशीलता का संचालन करती हैं। हमारा मस्तिष्क मध्यस्थ स्नायु (मेडियन नर्व) के जरिये ही हाथों एवं ऊंगलियों तक संदेश पहुंचा कर उनकी क्रियाशीलता पर नियंत्रण रखता है। हाथ एवं ऊंगलियों के हिलाने पर नसें (फ्लेक्सर टेंडन) टनल के किनारों से रगड़ खाती हैं। इन ऊंगलियों की नसों के टनल से बार-बार रगड़ खाने के कारण नसों में सूजन उत्पन्न होती है। सूजन के कारण मध्यस्थ स्नायु (मेडियन नर्व) पर दबाव पड़ता है और इससे ऊंगलियों एवं हाथों में सुन्नपन, कमजोरी एवं झुनझुनी पैदा होती है और गंभीर अवस्था में इनमें भयानक दर्द होता है।
उंगलियों का कैसे करें बचाव
अगर ऊंगलियों को काम के दौरान बीच-बीच में विश्राम मिलता रहे तो सूजन एवं दबाव को कम होने में मदद मिलती है। अपने काम-काज के तौर-तरीकों में बदलाव लाकर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है। अगर इस बीमारी का समय से पता चल जाये तो इसका इलाज आसान हो जाता है। रिपेटिटिव स्ट्रेस इंज्युरिज (आरएसआई) और कार्पल टनल सिंड्रोम की जांच नर्व कंडक्शन परीक्षण से होती है। 
रोग की आरंभिक अवस्था में इसका इलाज रात में कलाई में पट्टी अथवा स्पिन्ट पहनने से हो सकता है। इससे कलाई को मुड़ने से रोका जाता है। कलाई को विश्राम देने और दवाइयों से भी आराम मिलता है। गंभीर अवस्था में चिकित्सक कार्पल टनल में कोर्टिसोन के इंजेक्शन दे सकते हैं। जिन मरीजों को उक्त तरीकों से लाभ नहीं मिलता उन्हें सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है। आधुनिक समय में सर्जरी की ऐसी तकनीकों का विकास हुआ है जिसमें चीर-फाड़ की जरूरत नहीं के बराबर होती है। 


 


कैसे होंगे भविष्य के आपरेशन थियेटरों 

चीर-फाड़ रहित आपरेशनों के आविर्भाव के कारण अब कैंची-छुरियों एवं चीर-फाड़ के औजारों का स्थान इंडोस्कोपी, कैमरे और कम्प्यूटर संचालित आधुनिक उपकरण लेने वाले हैं। अब परम्परागत आॅपरेशन थियेटरों के स्थान पर इंडोस्यूट युक्त डिजिटल आॅपरेशन थियेटरों का निर्माण होने लगा है। स्ट्राइकर कंपनी की ओर से विकसित इंडोस्यूट आॅपरेटिंग सिस्टम की मदद से न केवल आॅपरेशन में कम समय लगता है, बल्कि आॅपरेशन भी शत-प्रतिशत कारगर एवं सफल होता है।

ने वाले समय में आपरेशन थियेटरों की तस्वीर पूरी तरह बदलने वाली है। इन आपरेशन थियेटरों से परम्परागत कैंची-छुरियों एवं चीर-फाड़ के काम में आने वाले अन्य औजारों की विदाई होने वाली है। कम से कम चीर-फाड़ (मिस अर्थात् मिनिमली इंवैसिव सर्जरी) या बिना चीर-फाड़ (निस अर्थात् नाॅन इंवैसिव सर्जरी) के किये जाने वाले आॅपरेशनों की गुंजाइश बढ़ने के साथ अब चाकू-छुरियों का स्थान कम्प्यूटर, माॅनिटर, कैमरे, स्कोप्स, इंसफलेटर्स, पम्प, शेवर्स, प्रिंटर और वी सी आर जैसे उपकरण लेने वाले हैं। भविष्य में बनने वाले ऐसे चलायमान एवं डिजिटल आपरेशन  थियेटरों से शल्य चिकित्सकों की क्षमता एवं गति बढ़ेगी, आपरेशन में कम समय लगेगा, आपरेशन  की कारगरता बढ़ेगी, आॅपरेशन के दौरान किसी तरह की गलती होने तथा मरीज को कोई जोखिम होने की आशंका घटेगी। आपरेशन की नयी तकनीकों के आगमन के साथ आज आॅपरेशन के परम्परागत तौर-तरीके तथा परम्परागत आपरेशन  थियेटर न केवल अपर्याप्त एवं अनुपयोगी साबित होते जा रहे हैं, बल्कि इनका संचालन कठिन एवं खर्चीला भी होता जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही साथ आधुनिक समय में बनने वाले डिजिटल आॅपरेशन थियेटरों और उनमें मौजूद नवीनतम तकनीकों एवं आधुनिक उपकरणों के संचालन एवं प्रबंधन के लिये विशेष प्रशिक्षण तथा कौशल की आवश्यकता पड़ने लगी है। कई बार यह काम प्रशिक्षित कर्मियों के भी बूते का नहीं हो पाता। इन समस्याओं के निदान के लिये स्ट्राइकर कंपनी ने स्ट्राइकर इंडोस्यूट का विकास किया है जिससे आॅपरेशन थियेटर के संचालन से जुड़ी तमाम समस्याओं का समाधान मिल गया है। स्ट्राइकर इंडोस्यूट आॅपरेटिंग रूम (इंडोस्यूट ओ आर) में तमाम उपकरणों और तकनीकों का शल्य चिकित्सक के साथ पूर्ण समायोजन होता है और शल्य चिकित्सक के निर्देश के अनुसार सभी तकनीकों एवं उपकरणों का संचालन होता है जिससे चिकित्सक को आॅपरेशन में किसी तरह की असुविधा नहीं होती है, समय की बचत होती है और आॅपरेशन भी कारगर होता है। 
इंडोस्यूट में सभी उपकरण एवं तकनीकें कम्प्यूटर से संचालित होते हैं और एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े होते हैं। ये सभी उपकरण शल्य चिकित्सक की आवाज के आधार पर काम करते हैं। इससे आपरेशन  करने की सर्जन की क्षमता एवं गति बढ़ जाती है। सर्जन की अपने सहायकों पर निर्भरता कम हो जाती है। इसके अलावा इस आॅपरेशन को छात्रा अपने क्लास रूम में देख सकते हैं अथवा इनका किसी सेमीनार आदि में प्रसारण हो सकता है। आधुनिक आपरेशन थियेटर सेटेलाइट एवं इंटरनेट के जरिये अन्य आॅपरेशन थियेटरों से भी जुड़े रहते हैं। 
विश्व भर में इंडोस्यूट की धारणा तेजी से लोकप्रिय हो रही है। उनका कहना है कि इंडोस्यूट आपरेशन  थियेटर हमारे देश के लिये भी पूरी तरह उपयुक्त है। उन्होंने बताया कि आज सरकार, सरकारी एवं गैर सरकारी संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियां एवं प्रवासी भारतीय चिकित्सा के क्षेत्रा में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहे है। ऐसे में इंडोस्यूट आधारित आपरेशन  थियेटरों की स्थापना की गुंजाइश तेजी से बढ़ रही है। 
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ अस्थि शल्य चिकित्सक डा. राजू वैश्य बताते हैं कि इंडोस्यूट, कम्प्यूटर नैविगेशन सिस्टम और रोबोटिक सर्जरी जैसी नयी प्रौद्योगिकियों की बदौलत न केवल परम्परागत आपरेशन  की खामियों को दूर किया जा सकता है, बल्कि इनकी मदद से शल्य चिकित्सक आपरेशन  से पहले आॅपरेशन के बारे में समुचित योजनायें बना सकता है। यही नहीं, इन तकनीकों की बदौलत शल्य चिकित्सक को आॅपरेशन के दौरान भी कम्प्यूटर से यह सलाह मिलती रहेगी कि उसे किस दिशा में जाना है और किस गलती में सुधार करने की आवश्यकता है। खासकर जोड़ों को बदलने के आपरेशन  (ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी) आदि में ये तकनीकें काफी कारगर साबित हांेगी। ऐसे कठिन आॅपरेशनों में जरा सी भी गलती होने पर आॅपरेशन असफल होने की आशंका बनी रहती है, लेकिन इन आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से आॅपरेशन में गलती होने की संभावना नगण्य हो जाती है। 
डा.राजू वैश्य का कहना है कि विकसित देशों की तरह भारत में भी इंडोस्यूट जैसी आधुनिक तकनीकों के व्यापक इस्तेमाल की गुंजाइश बन रही है। हालांकि आरंभ में इन तकनीकों की मदद से आॅपरेशन करना थोड़ा खर्चीला हो सकता है, लेकिन जैसे-जैसे इन तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ेगा वैसे- वैसे इनका इस्तेमाल सस्ता होता जायेगा। 
श्री विक्रम सिंह बताते हैं कि इंडोस्यूट आधारित आॅपरेशन थियेटरों के निर्माण पर परम्परागत आॅपरेशन थियेटरों की तुलना में अधिक खर्च आयेगा, लेकिन इसमें परम्परागत आॅपरेशन थियेटरों की तुलना में कई गुना अधिक आॅपरेशन करना संभव हो सकेगा, जिससे प्रति आॅपरेशन पर आने वाला खर्च परम्परागत आॅपरेशन से काफी कम पड़ेगा। 
यही नहीं, आॅपरेशन के बाद मरीज को कम समय तक अस्पताल में रहना पड़ेगा तथा आॅपरेशन के अधिक कामयाब एवं कारगर होने के कारण आॅपरेशन के बाद उत्पन्न होने वाली जटिलतायें एवं समस्यायें भी उत्पन्न नहीं हांेगी। 
डा.वैश्य बताते हैं कि अपने देश मंे इंडोस्यूट जैसी तकनीकें उपलब्ध हो जाने से यहां के मरीजों को जटिलतम आॅपरेशनों के लिये अमरीका और ब्रिटेन जैसे विकसित देश जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जहां इन आॅपरेशनों का खर्च भारत की तुलना में लगभग 10 गुना अधिक है। 
डा. वैश्य बताते हैं कि अभी तक किसी भी आॅपरेशन की सफलता सिर्फ शल्य चिकित्सकों की कुशलता पर ही निर्भर करती थी और इसलिये अलग-अलग शल्य चिकित्सक द्वारा किये जाने वाले एक ही आॅपरेशन की सफलता दर अलग-अलग होती थी। लेकिन इंडोस्यूट एवं अन्य नयी तकनीकों के आने से चाहे कोई भी शल्य चिकित्सक आॅपरेशन करे, आॅपरेशन में सफलता की दर परम्परागत आॅपरेशनों की तुलना मंें काफी अधिक होगी। 


तनाव बढ़ने से पड़ सकता है दमे का दौरा

घर-दफ्तर के तनाव दिल के दौरे के ही नहीं, दमा के जानलेवा दौरे के भी कारण बन सकते हैं।  अध्ययनों से पता चला है कि तनाव, एंग्जाइटी और घबराहट दमा के दौरे उत्पन्न कर सकते हैं। इनका श्वसन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। दमा का दौरा पड़ने पर व्यक्ति और अधिक तनावग्रस्त हो जाता है जिससे उसकी हालत और अधिक खराब हो जाती है। उसे सांस लेने में दिक्कत, घुटन, बेचैनी, सुस्ती, छाती में जकड़न और दर्द होने लगता है।




विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ लोग अति संवेदनशील होते हैं। उनमें तनाव की स्थिति में नर्व श्वास नली को आवेश भेजता है जिससे श्वास नली में अवरोध पैदा हो जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति छाती में जकड़न और सांस लेने में दिक्कत महसूस करता है। इससे तनाव और अधिक बढ़ जाता है, श्वास नली का अवरोध भी बढ़ जाता है और मरीज की हालत खराब हो जाती है। 
दमा के कुछ रोगियों में कई बार कुछ सप्ताह या महीनों तक दमा के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। उन्हें लगने लगता है कि उनकी बीमारी अब ठीक हो गयी है और वे लापरवाही बरतने लगते हैं। लेकिन उसके बाद उन्हंे अचानक दमा प्रकट हो जाता है और वे बहुत अधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं, जिससे दमे के दौरे की आशंका बढ़ती है। मौजूदा समय में तनाव, प्रदूषण, धूम्रपान, भाग-दौड़ तथा गलत खान-पान और रहन-सहन के कारण पिछले दो दशकों में दमा के प्रकोप में भयानक वृद्धि हुयी है। आज करीब दो प्रतिशत लोग दमा एवं श्वसन संबंधी अन्य समस्याओं से ग्रस्त हैं। 


बुढ़ापे में जो महिलाएं सक्रिय रहती हैं वे खुशहाल जीवन जीती हैं

नियमित रूप से व्यायाम करने और सक्रिय जीवन जीने वाली उम्रदराज महिलाएं वृद्धावस्था में सामान्य महिलाओं की तुलना में अधिक स्वावलंबी होती हैं। आर्काइव्स आॅफ इंटरनल मेडिसीन में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार यह निष्कर्ष औसतन 74 वर्ष की 171 महिलाओं के शारीरिक क्षमता पर किए गए अध्ययन से निकला है। इन महिलाओं की शारीरिक क्षमता की जांच अध्ययन के शुरू से 14 साल तक किया गया।



यूनिवर्सिटी आॅफ पिट्सबर्ग स्कूल आॅफ हेल्थ एंड रिहैबिलिटेशन साइंसेज की जेनिफर ब्राच के अनुसार इस अध्ययन में लोगों की क्रियाशीलता का आत्मनिर्भरता से सीधा संबंध पाया गया।
टहलने जैसी नियमित रूप से की जाने वाली शारीरिक गतिविधियां न सिर्फ अधिक लंबी और स्वस्थ जिंदगी जीने में सहायक होती हैं, बल्कि यह अच्छी क्वालिटी की जिंदगी जीने में भी सहायता करती हैं। अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि अधिक सक्रिय रहने वाली और नियमित रूप से व्यायाम करने वाली महिलाएं 14 साल बाद भी अर्थात् 88 साल की उम्र में भी उसी तरह सक्रिय थीं और स्वावलंबी जीवन जी रही थीं। जबकि निष्क्रिय जीवन जीने वाली महिलाएं कम स्वावलंबी थीं।
सुश्री ब्राच का कहना है कि स्वावलंबी जीवन जीने के लिए युवाओं के साथ-साथ बूढ़े लोगों को भी शारीरिक रूप से सक्रिय रहना चाहिए।


महिलाओं में बढ़ती ओस्टियोपोरोसिस की समस्या

कैल्शियम की कमी से होने वाली ओस्टियोपोरोसिस इस खामोशी के साथ हड्डियों को खोखला करती रहती है कि हड्डियों के अचानक फ्र्रैक्चर होने से पहले इसका जरा भी आभास नहीं होता। नयी दिल्ली के साकेत स्थित जी एम मोदी अस्पताल के वरिष्ठ अस्थि शल्य चिकित्सक डा.मनोज मलिक के अनुसार देश में 50 वर्ष से अधिक उम्र की हर चार में एक महिला ओस्टियोपोरोसिस से ग्रस्त है। ओस्टियोपोरोसिस होने पर हड्डियों को मजबूत करने के लिये समुचित खुराक के अलावा दवाइयों की जरूरत पड़ती है।
कैल्शियम की कमी महिलाओं, खास कर गर्भवती, बच्चे को स्तनपान कराने वाली एवं रजोनिवृत महिलाओं की खास समस्या है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में 50 वर्ष से अधिक उम्र की हर चार में एक महिला ओस्टियोपोरोसिस से ग्रस्त है। भारत में 45 साल की उम्र के बाद लगभग 50 फीसदी महिलाएं और 75 साल की उम्र के बाद लगभग 90 फीसदी महिलाएं   ओस्टियोपोरोसिस से ग्रस्त हो जाती हैं। हालांकि ओस्टियोपोरोसिस पुरुषों को भी प्रभावित करती है, लेकिन पुरुषों में यह बीमारी महिलाओं की तुलना में काफी कम है। तकरीबन आठ पुरुषों में से केवल एक पुरुष को यह बीमारी होती है। हमारे देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ओस्टियोपोरोसिस का प्रकोप अधिक होने का मुख्य कारण लैंगिक भेदभाव की वजह से लड़कियों को बचपन से ही कम पोषण मिलना है। यह देखा गया है कि औसत भारतीय परिवारों में लड़कों की तुलना में लड़कियों को दूध एवं दुग्ध उत्पाद बहुत कम दिये जाते हैं। चिकित्सकों के अनुसार जिस महिला को बचपन में कैल्शियम युक्त आहार कम मिला हो उन्हें बाद में गंभीर ओस्टियोपोरोसिस होने की आशंका बहुत अधिक होती है। इसके अलावा उम्र बढ़ने के साथ शरीर में मादा सेक्स हारमोन में कमी आने के कारण कैल्शियम की मात्रा घटने लगती है जिससे महिलाओं को अधिक उम्र में यह बीमारी होने का खतरा अधिक होता है। 
ओस्टियोपोरोसिस में शरीर में कैल्शियम की कमी केेे कारण हड्डियों का घनत्व एवं अस्थि मज्जा बहुत कम हो जाता है। साथ ही हड्डियों की बनावट भी खराब हो जाती है जिससे हड्डियां अत्यंत भुरभुरी और अति संवेदनशील हो जाती हैं। इस कारण हड्डियों पर हल्का दबाव पड़ने या हल्की चोट लगने पर भी वे टूट जाती हैं। ओस्टियोपोरोसिस के कारण आमतौर पर तीन हड्डियों में फ्रैक्चर होता है - कुल्हे की हड्डी (नेक आॅफ फीमर), रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) और कलाई की हड्डी (लोअर आर्म बोन)। एक अनुमान के अनुसार भारत में इस बीमारी के कारण हर साल पांच लाख महिलाओं में सिर्फ कुल्हे का फ्रैक्चर होता है।
ओस्टियोपोरोसिस के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि रोग के गंभीर रूप धारण कर लेने या फ्रैक्चर होने से पूर्व कोई संकेत नहीं मिलता है। ओस्टियोपोरोसिस इतनी खामोशी के साथ लोगों को शिकार बनाकर उनकी हड्डियों को खोखला करती रहती है कि हड्डियों के अचानक फ्र्रैक्चर होने से पहले इसका जरा भी आभास नहीं होता। इसी कारण इसे 'साइलेंट डिजीज' का नाम दिया गया है। वैसे कलाई या कूल्हे में फ्रैक्चर, कमर में दर्द या पीठ झुक जाने जैसे लक्षण ओस्टियोपोरोसिस के संकेत हो सकते हैं। इसके अलावा उम्र के साथ लंबाई में कमी आना भी इसका लक्षण है। इसका कारण यह है कि ओस्टियोपोरोसिस के कारण रीढ़ (वर्टेब्रेट में मौजूद हडिड्डयों) का क्षय होने लगता है। 
महिलाओं को ओस्टियोपोरोसिस से बचने के लिये खास तौर पर 45 साल की उम्र के बाद अस्थिरोग विशेषज्ञ से आवश्यक परामर्श करना चाहिये। उन्हें कैल्शियम संबंधी परीक्षण कराने चाहिये और शरीर में कैल्शियम की कमी होने पर समुचित मात्रा में कैल्शियम ग्रहण करना चाहिये। ओस्टियोपोरोसिस से बचने के लिए आहार पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। भोजन में कैल्शियम की उचित मात्रा लेनी चाहिए। इसके लिए उन्हें दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थों का भरपूर सेवन करना चाहिए। जो लोग भोजन में कैल्शियम नहीं ले रहे हों, उन्हें 45 साल की उम्र के बाद नियमित रूप से कैल्शियम की गोली लेनी चाहिए। जिन लड़कियों की मां या दादी को ओस्टियोपोरोसिस हो चुकी हो, उन्हें बचपन से ही अपने आहार में कैल्शियम की अधिक मात्रा लेनी चाहिए। इसके अलावा वैसे खाद्य पदार्थ अधिक मात्रा में ग्रहण करना चाहिये जिसमें पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम और विटामिन हो ताकि शरीर में कैल्शियम की वृद्धि हो सके। केवल कैल्शियम की गोलियां खाने से फायदा नहीं होता है। मरीज को कैल्शियम की गोलियां खाने के अलावा विटामिन भी खाने चाहिये जो हड्डियों में कैल्शियम के जमाव को बढ़ा सके। सभी तरह के दुग्ध उत्पादों में कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है।
45 साल की उम्र के बाद अक्सर हड्डियों को मजबूत करने के लिये खुराक के अलावा दवाइयों का सहारा लेना चािहये। अक्सर गर्भवती महिलाओं अथवा दूध पिलाने वाली महिलाओं को कैल्शियम की कमी हो जाती है। ऐसे में उन्हें कैल्शियम की जरूरत अधिक होती है। गर्भवती महिला को कैल्शियम अधिक लेने की आवश्यकता इस कारण से भी अधिक होती है ताकि उनके गर्भ में पल-बढ़ रहे बच्चे को पर्याप्त कैल्शियम मिल सके और बच्चे की हड्डियां कमजोर नहीं रहे। लेकिन कैल्शियम का बहुत अधिक मात्रा में सेवन से नुकसान भी हो सकता है इसलिये चिकित्सक की सलाह के मुताबिक ही कैल्शियम का सेवन करना चाहिये।    
कुछ साल पहले तक ओस्टियोपोरोसिस के कारण हड्डियों में फ्रैक्चर होने पर रोगी की मृत्यु हो जाती थी, खासकर कुल्हे का फ्रैक्चर होने पर चल नहीं पाने तथा बिस्तर पर लेटे रहने के कारण 10 में से 9 लोगों की मृत्यु फ्रैक्चर होने के छह महीने के भीतर ही हो जाती थी। उनकी मृत्यु बेड सोर (शैय्या व्रण) होने, छाती में संक्रमण होने, पेशाब में संक्रमण होने, पैर की नसों में खून जम जाने आदि के कारण होती थी। लेकिन अब कुल्हे के फ्रैक्चर का आॅपरेशन से इलाज करके मरीज को चलने-फिरने लायक बनाया जाता है जिससे बेड सोर या दूसरे संक्रमण के होने की आशंका बहुत कम होती है और इस कारण मृत्यु की आशंका 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है।
रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) में फ्रैक्चर होने पर अधिकतर रोगी को दर्द नहीं होता है, जिससे फ्रैक्चर का पता तुरन्त नहीं चल पाता। रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर होने पर पीठ झुकती चली जाती है और पीठ में कुबड़ निकल जाता है जिससे रोगी की लम्बाई कम हो जाती है। कुछ रोगियों में नसों पर दबाव पड़ने के कारण लकवा होने की भी आशंका होती है। हारमोन रिप्लसमेंट थिरेपी ओस्टियोपोरोसिस की रोकथाम अथवा इस बीमारी के गंभीर रूप लेने से रोकने का सबसे उत्तम तरीका है। इस थिरेपी के तहत इस्ट्रोजेन एवं प्रोजेस्टिन हार्मोन लिये जाते हैं। इससे शरीर में रजोनिवृति, सर्जरी से गर्भाशय हटाये जाने अथवा अन्य कारणों से इन हार्मोनों की होने वाली कमी की पूर्ति हो जाती है। रजोनिवृति के पूर्व महिला को रोजाना एक हजार मिलीग्राम कैल्शियम की जरूरत होती है। रजोनिवृति के बाद इस्ट्रोजेन हार्मोन लेने की स्थिति में रोजाना कैल्शियम की इतनी ही मात्रा की जरूरत होती है। अगर रजोनिवृति के बाद इस्ट्रोजेन नहीं लिया जाये तो रोजाना डेढ़ हजार मिलीग्राम कैल्शियम की जरूरत होती है। 
किन महिलाओं को ओस्टियोपोरोसिस का खतरा अधिक होता है।
0 रजोनिवृत महिलायें।
0 जिनके परिवार में ओस्टियोपोरोसिस का इतिहास रहा हो।
0 जिनमें गर्भाशय निकालने जैसी शल्य क्रियाओं अथवा अन्य कारणों से 45 वर्ष की उम्र से पहले 
  ही रजोनिवृति शुरू हो गयी हो।
0 जो आहार में कम कैल्शियम (रोजाना आठ सौ मिली ग्राम से भी कम कैल्शियम) लेती हों अथवा 
  जिन्होंने बचपन में कम कैल्शियम ग्रहण किया हो ।
0 जो दमा अथवा गठिया के इलाज के तौर पर स्टेराॅयड का सेवन करती हों अथवा अधिक  
  थायरायड हारमोन लेती हों।
0 जो बहुत अधिक सिगरेट, शराब, एवं काॅफी (रोजाना तीन-चार कप से अधिक) पीती हों। 
0 जो पर्याप्त व्यायाम नहीं करती हों। 
0 जो बहुत दुबली एवं नाटी कद की हैं। (अमरीकियों एवं यूरोपियन महिलाओं की तुलना में 
  एशियाई महिलाओं को इस बीमारी का खतरा ज्यादा होने का यही कारण है।)
ओस्टियोपोरोसिस से बचाव के उपाय 
0 पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम एवं विटामिन 'डी'  ग्रहण करें। 
0 दूध, दही, पनीर और चीज आदि भरपूर मात्रा में लें। 
0 गर्भवती महिलाएं और स्तनपान कराने वाली मातायें अधिक कैल्शियम (रोजाना 1200 मिलीग्राम 
  कैल्शियम) लें। उन्हें कैल्शियम की गोलियों का भी सेवन करना चाहिये। 
0 धूम्रपान, काॅफी, चाय, शीतल पेय और शराब के सेवन से बचें।
0 बिना कारण के स्टेराॅयड का सेवन नहीं करे। 
0 नियमित तौर पर व्यायाम करें।
0 रजोनिवृत महिलायें हार्मोन रिप्लेसमेंट थिरेपी लें ताकि मादा सेक्स हार्मोनों की कमी दूर हो ज
  जाये।
डा.मनोज मलिक नयी दिल्ली के साकेत स्थित जी एम मोदी अस्पताल में वरिष्ठ अस्थि शल्य चिकित्सक हैं।