प्रसिद्ध नारीवादी जर्मेनी ग्रीर ने एक बार कहा था कि भारत में गायों और महिलाओं के साथ एक सा सलूक किया जाता है। यहाँ गायों की पूजा होती है। गाय को गौ माता का दर्जा दिया गया है। इसी तरह से स्त्रियों को शक्ति और दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। वेदों में कहा गया है - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।' अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है वहाँ देवता का वास होता है। लेकिन ये ग्रंथों और किताबों की बातें हैं। यथार्थ में हमारे समाज में हमेशा से ही महिलाओं का दोयम दर्जा रहा है। समाज में महिलाओं की दारूण स्थिति के बारे में राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त ने कहा था- 'नारी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।' हमारा इतिहास महिलाओं पर तरह-तरह के अत्याचारों एवं बंधनों का गवाह रहा है। अतीत में महिलाओं को विधवा, बाल विवाह, दहेज और सती जैसी प्रथाओं के बहाने प्रताड़ित किया जाता रहा है। इतिहास के हर काल में महिलाओं को हर क्षेत्रों में- सार्वजनिक से लेकर निजी जीवन में और राजनीति से लेकर सामाजिक जीवन में सतत् रूप से दबाया जाता रहा है।
लेकिन आज महिला आँदोलनों के कारण महिलाओं में नयी चेतना पैदा हुयी है और वे अपने अधिकारों के प्रति सजग हुयी हैं। इसके अलावा महिला शिक्षा और आर्थिक विकास के कारण भी महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है और महिलाएं बड़ी संख्या में घर की दहलीज को लाँघ कर विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में अपना योगदान देने लगीं हैं। महिला कल्याण के लिए सरकार की ओर से चलाये गए विभिन्न कार्यक्रमों के कारण महिलाएं काफी संख्या में स्व-रोजगार के क्षेत्र में आगे आई हैं और वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनी हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान में निहित स्वतंत्रता और समानता के सिद्धाँतों से प्रभावित होकर महिलाओं में आत्मनिर्भरता के लिये पैदा हुई नई सोच एवं चेतना के परिणामस्वरूप देश में कामकाजी महिलाओं की एक नई फौज तैयार हुई। न केवल बड़े शहरों में, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी महिलाएं नौकरी-रोजगार करने लगी हैं। इसी का परिणाम है कि आज अन्य देशों की तुलना में भारत में पेशेगत तौर पर सकुशल एवं प्रशिक्षित महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है। महिलाओं की स्थितियों में सुधार लाने और उनके सशक्तिकरण के लिये आज भी सरकारी और गैर सरकारी पहल भी लगातार जारी है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा महिलाओं के लिये नीतियाँ सुझाने के लिए राष्ट्रीय महिला परिषद कार्यरत है। सरकार की ओर से इस तरह के और भी कई कदम उठाये जा रहे हैं। साथ ही देश में सक्रिय अनेक महिला संगठन महिलाओं को उनके हक दिलाने के लिये संघर्षरत हैं।
आर्थिक क्षेत्रों में आई महिलाओं की इन कामयाबियों के कारण समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार अवश्य हुआ है लेकिन साथ ही साथ नयी समस्याएं एवं प्रवृतियाँ भी पैदा हुई हैं। देश में आज चिकित्सा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति का दुरुपयोग महिलाओं के खिलाफ हो रहा है। अब भी महिलाएं दहेज के लिये जलायी जा रही हैं अथवा अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों से तंग आकर आत्महत्या करने के लिये मजबूर हो रही हैं। महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और यौन हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी है। ऊँची जातियों द्वारा निम्न जाति की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार अथवा उन्हें नंगा करके घुमाये जाने की घटनाएं अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं।
कहा जाता है कि लैंगिक समानता दरअसल पश्चिमी अवधारणा है और हमें कहने के लिये तो कहा जाता है कि भारत में नारियों को पूज्यनीय माना जाता है। इसे साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क दिये जाते हैं। यह तर्क दिया जाता है कि भारत में नारियों को देवी माना जाता है। यही नहीं, हमारे देश के प्राचीन इतिहास में कई महिला विद्वान और महिला शासकों के उदाहरण भरे पड़े हैं। पौराणिक कथाओं और लोक कथाओं में भी इस बात को उजागर किया गया है कि यहाँ महिलाओं को हमेशा सम्मान और आदर दिया गया है। भारतीय इस बात पर अभिमान करते हैं कि भारत ही दुनिया का ऐसा पहला देश है जहाँ सबसे पहले महिलाओं को मताधिकार दिया गया। यह भी तर्क दिया जाता है कि भारतीय संविधान विश्व में सबसे अधिक प्रगतिशील संविधानों में से एक है जो पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकारों की गारंटी देता है। यह दिखाने के लिए तर्कों की कमी नहीं है कि भारत की महिलाएं स्वतंत्र हैं और इन्हें समाज में बराबरी के अधिकार हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा ही है यह अब भी विवाद का विषय है। दूसरी तरफ, कई ऐसे तर्क और तथ्य भी हैं जिनके आधार पर यह दिखाया जा सकता है कि आजादी के वर्षों बाद भी भारत में महिलाएं सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर गैरबराबरी एवं भेदभाव की शिकार हैं। सरकारी एवं गैर सरकारी आँकड़े, राष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर किये गए सर्वेक्षणों और अन्य अध्ययनों के आधार पर महिलाओं की स्थिति की तस्वीर कुछ अलग ही दिखती है।
आँकड़ों में महिलाओं की स्थिति
— भारत में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है जबकि कुछ देशों में स्थिति इसके उलट है। भारत में सन् 1991 में 1000 पुरुषों पर सिर्फ 927 महिलाएं थीं जबकि सन् 2001 में 1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं थीं। इस असंतुलन के कई कारण हैं जिनमें नारी भ्रूण हत्या और बालिकाओं के साथ बचपन से ही होने वाले भेदभाव प्रमुख हैं।
— कई महिलाएं खराब पोषण के कारण अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठती हैं- वे एनीमिया से ग्रस्त और कुपोषित हो जाती हैं। लड़कियाँ और महिलाएं परिवार में पोषण संबंधी भेदभाव का सामना करती हैं और परिवार के सभी सदस्यों के खाना खा लेने के बाद बचा-खुचा भोजन खाती हैं।
— औसतन भारतीय महिलाएं 22 साल की उम्र से पहले ही पहले बच्चे को जन्म दे चुकी होती हैं। प्रजनन इच्छा और प्रजनन स्वास्थ्य पर भी उनका नियंत्रण नहीं होता है।
— हमारे देश में 65.5 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में सिर्फ 50 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं। लड़कों की तुलना में बहुत कम लड़कियाँ स्कूल जाती हैं। यहां तक कि जिन लड़कियों का स्कूल में दाखिला होता है उनमें से ज्यादातर को बाद में स्कूल से निकाल लिया जाता है।
— पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम पारिश्रमिक दिया जाता है। महिलाओं के श्रम को कम कर आँका जाता है और उनके श्रम की कोई पहचान नहीं होती है। ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ महिलाएं कृषिगत एवं अन्य कार्यों में पुरुषों के समान वेतन पाती हैं। महिलाओं की श्रम की अवधि पुरुषों की तुलना में अधिक लंबी होती है और उनके श्रम का घरेलू और सामाजिक कार्यों में अधिक योगदान होने के बावजूद उन्हें उनके श्रम के एवज में कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है और उनके श्रम को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
— महिलाओं को सरकारी एवं गैर सरकारी विभागों में नीति निर्धारक एवं अन्य महत्वपूर्ण पदों एवं स्थानों पर प्रतिनिधित्व के बहुत कम अवसर दिये जाते हैं। वर्तमान में, विधायिका में 8 प्रतिशत से कम, कैबिनेट में 6 प्रतिशत से कम तथा उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 4 प्रतिशत से भी कम सीटों पर महिलाएं विराजमान हैं। प्रशासनिक अधिकारियों और प्रबंधकोें में 3 प्रतिशत से भी कम महिलाएं हैं।
— महिलाओं को भूमि और संपत्ति के अधिकारों में भी कानूनी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अधिकतर महिलाओं के नाम उनकी अपनी कोई संपत्ति नहीं होती है और वे पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं पाती हैं।
— महिलाओं को ताउम्र परिवार के अंदर और बाहर हिंसा, अत्याचार एवं भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पुलिस आंकड़ों से पता चलता है कि देश में हर 26 मिनट में एक महिला के साथ छेड़खानी होती है,, हर 34 मिनट में एक बलात्कार होता है, हर 42 मिनट में यौन प्रताड़ना की एक घटना होती है, हर 43 मिनट में एक महिला का अपहरण होता है और हर 93 मिनट में एक महिला मारी जाती है।
महिला-पुरुष असंतुलन
सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या एक अरब तीन करोड़ है, जिनमें 49 करोड़ 60 लाख महिलाएं हैं। अनुमान है कि 2016 तक भारत में महिला आबादी 61 करोड़ 50 लाख हो जाएगी।
देश की आबादी में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात लैंगिक समानता की स्थिति के बारे में काफी कुछ कह जाता है। जैविक रूप से, महिलाएं अधिक मजबूत होती हैं। उन समाजों में जहाँ महिलाओं और पुरुषों के साथ समान व्यवहार किया जाता है, पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक समय तक जीवित रहती हैं और वहाँ की वयस्कों की आबादी में पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं होती हैं। लैंगिक समानता पर आधारित समाजों में हर 100 पुरुष पर 103-105 महिलाएं हो सकती हैं, लेकिन भारत उन देशों में से है जहाँ यह मामला उल्टा है।
भारत में महिला-पुरूष अनुपात यह बयान करता है कि भारत में अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिकता ही हासिल है। इन सब से यह साबित होता है कि भारत में महिलाओं को जन्म से लेकर उनकी जिंदगी की हर अवस्था में उन्हें उनके अधिकारों और हकों से वंचित किया जाता है और उनके साथ कई तरह के भेदभाव किये जाते हैं।
गुम हो चुकी महिलाएं
भारत में यदि महिलाओं और पुरुषो के साथ समान व्यवहार किया जाता रहता तो यहाँ हर 100 पुरुष पर 105 महिलाएं हो सकती थीं। इस तरह यहाँ की एक अरब तीन करोड़ की वर्तमान आबादी में 51 करोड़ 20 लाख महिलाएं हो सकती थीं। जबकि नवीनतम अनुमान के अनुसार यहाँ की आबादी में अभी 49 करोड़ 60 लाख महिलाएं हैं। इससे यह पता चलता है कि भारत में तीन करोड़ 20 लाख महिलाएं गुम हो चुकी हैं। इनमें से कुछ को तो जन्म से पहले ही मार दिया गया और बाकी को जन्म के बाद के वर्षों में मारा गया और उनसे जीने का अवसर छीन लिया गया।
नारी भ्रूण हत्या
इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़ा हमारा समाज एक तरफ जहाँ लड़कियों को बराबरी का दर्जा देने का दावा और वादा कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ बेटियों के प्रति इतना निष्ठुर भी होता जा रहा है कि उन्हें जन्म लेने के अधिकार से ही वंचित कर देने पर आमादा है।
हालाँकि 'मादा' शिशु की हत्या की वीभत्स प्रथा अब काफी कम हो गई है, लेकिन उसका स्थान अब नारी भ्रूण हत्या ने ले लिया है। ऐमनियोसेंटियोसिस और अल्ट्रासाउंड तकनीक ने जहाँ गर्भ में ही भ्रूण के लिंग परीक्षण को संभव बनाया है, वहीं ये तकनीकें कन्या भ्रूणों के लिए अभिशाप बन गई हैं। नारी भ्रूण हत्या और बचपन से लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव और तिरस्कार के मुख्य कारण समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति, दहेज प्रथा और पुरुष प्रधान मानसिकता हैं।
संवैधानिक संकल्पों की हकीकत
हमारे समाज में महिला और पुरुष को संवैधानिक रूप से बराबरी का दर्जा दिया गया है। भारतीय संविधान में स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के वायदे किये गये हैं। भारत का संविधान सभी लोगों को सुरक्षा प्रदान करने का वादा करता है। हमारा संविधान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्याय, स्टेटस, अवसर, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा, कर्तव्य, संबंध और रोजगार करने की स्वतंत्रता, नियम के अधीन काम करने और सरकारी नैतिकता का वादा करता है।
संविधान की संरचना उदारता, भाईचारा, समानता और न्याय के सिद्धांतों को आधार बनाकर की गई है। यह सभी लोगों की स्वतंत्रता के महत्व पर बल डालता है और महिलाओं को अधिकार देने के लिए कई उपायों को संजोए हुए है। महिलाओं के समानता के अधिकार और अपक्षपात की व्याख्या न्याय योग्य बुनियादी अधिकारों के रूप में की गई है। संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि महिलाओं के लिए सकारात्मक सक्रिय कार्यक्रम लैंगिक आधार पर समानता के सिद्धांत के साथ असंगत नहीं हैं। महिलाओं के समानता के लिए कुछ विशेष स्वतंत्रता आवश्यक है- सभा और आँदोलन की स्वतंत्रता तथा अवसर और श्रम अधिकार की समानता महिलाओं को अलग से दिये गए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय वचनबद्धता
भारत ने महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभावों को मिटाने के लिए आयोजित सम्मेलन (सी ई डी ए डब्ल्यु) जैसे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्रों और बीजिंग सम्मेलन में विश्व का समर्थन किया है। राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियों से महिलाओं के आगे बढ़ने की एक झलक तो मिलती है। इन योजनाओं और नीतियों में सभी को मानवाधिकारों, स्वतंत्रता और स्वास्थ्य को मुख्य जगह दी गई है।
सरकार के सकारात्मक नीतियों और योजनाओं के नतीजों, गैर सरकारी संगठनों और अन्य सामाजिक समूहों की पहल सेे पिछले कुछ सालों में भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में आश्चर्यजनक रूप से सुधार आया है। ये सभी सफलताएं महिलाओं ने अपने योगदानों, अपने समर्पण, आंदोलनों एवं श्रम की बदौलत हासिल किया है। लेकिन पुरुषों और महिलाओं के बीच अब भी काफी अंतर है। कुछ महिलाओं ने मजबूत और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान बना ली है, उनका अपनी जिंदगी पर नियंत्रण है और अपने अधिकारों की माँग के लिए आवाज उठाने में समर्थ हैं, तो कुछ महिलाओं को एक अलग किस्म की वास्तविकताओं एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
संविधान के बनने के 50 साल बाद भी आज भारतीय महिलाएं कितनी स्वतंत्र हुई हैं? उनके लिए समानता एवं बराबरी के कितने अवसर हैं? महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और समानता के संवैधानिक वादों पर कितना अमल हुआ? इन सवालों का जवाब सिर्फ महिलाओं की स्थिति को निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि संविधान में स्वतंत्रता और समानता के आश्वासन को पूरा कर भारत की प्रगति को निर्धारित करने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
प्रतिष्ठा के साथ जीवन यहाँ कुछ और सवाल भी उठ सकते हैं। भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता का अर्थ क्या है? क्या वे इन अधिकारों को व्यवहार में लाकर प्रतिष्ठा के साथ रह सकती हैं? क्या वे अपनी संभावनाओं एवं क्षमताओं को विकसित करने, जो वे करना चाहती हैं उसे चुनने या जो वे बनना चाहती हैं वह बनने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या वे ज्ञान अर्जित करने, सृजनशाील बनने, कमाऊ बनने और लंबी तथा स्वस्थ जिंदगी जीने के लिये स्वतंत्र हैं? क्या वे हिंसा, भेदभाव, दवाबों, डर और अन्याय से सुरक्षित हैं? क्या पुरुषों की तरह उन्हें समान शर्तों पर समान मौके चुनने एवं पाने के अधिकार दिये जाते हैं? इसका सार यह है कि आज भारतीय महिलाएं कितना स्वतंत्र हैं? वे पुरुषों के कितना समान हैं? दुर्भाग्य से, इन सवालों का सरल और सीधा जवाब नहीं है। स्वतंत्रता और समानता के विभिन्न आयामों एवं पहलुओं को आसानी से मापा नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर मानवीय प्रतिष्ठा, आत्म सम्मान, मानसिक और भावात्मक सुरक्षा और दूसरों की नजर में सम्मान महिलाओं की जिंदगी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इन्हें मापने के लिए हमारे पास कोई आसान रास्ता नहीं है।