भारत में गायों और महिलाओं के साथ एक जैसा सलूक

प्रसिद्ध नारीवादी जर्मेनी ग्रीर ने एक बार कहा था कि भारत में गायों और महिलाओं के साथ एक सा सलूक किया जाता है। यहाँ गायों की पूजा होती है। गाय को गौ माता का दर्जा दिया गया है। इसी तरह से स्त्रियों को शक्ति और दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। वेदों में कहा गया है - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।' अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है वहाँ देवता का वास होता है। लेकिन ये ग्रंथों और किताबों की बातें हैं। यथार्थ में हमारे समाज में हमेशा से ही महिलाओं का दोयम दर्जा रहा है। समाज में महिलाओं की दारूण स्थिति के बारे में राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त ने कहा था- 'नारी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।' हमारा इतिहास महिलाओं पर तरह-तरह के अत्याचारों एवं बंधनों का गवाह रहा है। अतीत में महिलाओं को विधवा, बाल विवाह, दहेज और सती जैसी प्रथाओं के बहाने प्रताड़ित किया जाता रहा है। इतिहास के हर काल में महिलाओं को हर क्षेत्रों में- सार्वजनिक से लेकर निजी जीवन में और राजनीति से लेकर सामाजिक जीवन में सतत् रूप से दबाया जाता रहा है। 
लेकिन आज महिला आँदोलनों के कारण महिलाओं में नयी चेतना पैदा हुयी है और वे अपने अधिकारों के प्रति सजग हुयी हैं। इसके अलावा महिला शिक्षा और आर्थिक विकास के कारण भी महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है और महिलाएं बड़ी संख्या में घर की दहलीज को लाँघ कर विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में अपना योगदान देने लगीं हैं। महिला कल्याण के लिए सरकार की ओर से चलाये गए विभिन्न कार्यक्रमों के कारण महिलाएं काफी संख्या में स्व-रोजगार के क्षेत्र में आगे आई हैं और वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनी हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान में निहित स्वतंत्रता और समानता के सिद्धाँतों से प्रभावित होकर महिलाओं में आत्मनिर्भरता के लिये पैदा हुई नई सोच एवं चेतना के परिणामस्वरूप देश में कामकाजी महिलाओं की एक नई फौज तैयार हुई। न केवल बड़े शहरों में, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी महिलाएं नौकरी-रोजगार करने लगी हैं। इसी का परिणाम है कि आज अन्य देशों की तुलना में भारत में पेशेगत तौर पर सकुशल एवं प्रशिक्षित महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है। महिलाओं की स्थितियों में सुधार लाने और उनके सशक्तिकरण के लिये आज भी सरकारी और गैर सरकारी पहल भी लगातार जारी है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा महिलाओं के लिये नीतियाँ सुझाने के लिए राष्ट्रीय महिला परिषद कार्यरत है। सरकार की ओर से इस तरह के और भी कई कदम उठाये जा रहे हैं। साथ ही देश में सक्रिय अनेक महिला संगठन महिलाओं को उनके हक दिलाने के लिये संघर्षरत हैं।  



आर्थिक क्षेत्रों में आई महिलाओं की इन कामयाबियों के कारण समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार अवश्य हुआ है लेकिन साथ ही साथ नयी समस्याएं एवं प्रवृतियाँ भी पैदा हुई हैं। देश में आज चिकित्सा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति का दुरुपयोग महिलाओं के खिलाफ हो रहा है। अब भी महिलाएं दहेज के लिये जलायी जा रही हैं अथवा अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों से तंग आकर आत्महत्या करने के लिये मजबूर हो रही हैं। महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और यौन हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी है। ऊँची जातियों द्वारा निम्न जाति की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार अथवा उन्हें नंगा करके घुमाये जाने की घटनाएं अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। 


कहा जाता है कि लैंगिक समानता दरअसल पश्चिमी अवधारणा है और हमें कहने के लिये तो कहा जाता है कि भारत में नारियों को पूज्यनीय माना जाता है। इसे साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क दिये जाते हैं। यह तर्क दिया जाता है कि भारत में नारियों को देवी माना जाता है। यही नहीं, हमारे देश के प्राचीन इतिहास में कई महिला विद्वान और महिला शासकों के उदाहरण भरे पड़े हैं। पौराणिक कथाओं और लोक कथाओं में भी इस बात को उजागर किया गया है कि यहाँ महिलाओं को हमेशा सम्मान और आदर दिया गया है। भारतीय इस बात पर अभिमान करते हैं कि भारत ही दुनिया का ऐसा पहला देश है जहाँ सबसे पहले महिलाओं को मताधिकार दिया गया। यह भी तर्क दिया जाता है कि भारतीय संविधान विश्व में सबसे अधिक प्रगतिशील संविधानों में से एक है जो पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकारों की गारंटी देता है। यह दिखाने के लिए तर्कों की कमी नहीं है कि भारत की महिलाएं स्वतंत्र हैं और इन्हें समाज में बराबरी के अधिकार हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा ही है यह अब भी विवाद का विषय है। दूसरी तरफ, कई ऐसे तर्क और तथ्य भी हैं जिनके आधार पर यह दिखाया जा सकता है कि आजादी के वर्षों बाद भी भारत में महिलाएं सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर गैरबराबरी एवं भेदभाव की शिकार हैं। सरकारी एवं गैर सरकारी आँकड़े, राष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर किये गए सर्वेक्षणों और अन्य अध्ययनों के आधार पर महिलाओं की स्थिति की तस्वीर कुछ अलग ही दिखती है। 
आँकड़ों में महिलाओं की स्थिति
— भारत में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है जबकि कुछ देशों में स्थिति इसके उलट है। भारत में सन् 1991 में 1000 पुरुषों पर सिर्फ 927 महिलाएं थीं जबकि सन् 2001 में 1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं थीं। इस असंतुलन के कई कारण हैं जिनमें नारी भ्रूण हत्या और बालिकाओं के साथ बचपन से ही होने वाले भेदभाव प्रमुख हैं।
— कई महिलाएं खराब पोषण के कारण अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठती हैं- वे एनीमिया से ग्रस्त और कुपोषित हो जाती हैं। लड़कियाँ और महिलाएं परिवार में पोषण संबंधी भेदभाव का सामना करती हैं और परिवार के सभी सदस्यों के खाना खा लेने के बाद बचा-खुचा भोजन खाती हैं।
— औसतन भारतीय महिलाएं 22 साल की उम्र से पहले ही पहले बच्चे को जन्म दे चुकी होती हैं। प्रजनन इच्छा और प्रजनन स्वास्थ्य पर भी उनका नियंत्रण नहीं होता है।
— हमारे देश में 65.5 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में सिर्फ 50 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं। लड़कों की तुलना में बहुत कम लड़कियाँ स्कूल जाती हैं। यहां तक कि जिन लड़कियों का स्कूल में दाखिला होता है उनमें से ज्यादातर को बाद में स्कूल से निकाल लिया जाता है।
— पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम पारिश्रमिक दिया जाता है। महिलाओं के श्रम को कम कर आँका जाता है और उनके श्रम की कोई पहचान नहीं होती है। ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ महिलाएं कृषिगत एवं अन्य कार्यों में पुरुषों के समान वेतन पाती हैं। महिलाओं की श्रम की अवधि पुरुषों की तुलना में अधिक लंबी होती है और उनके श्रम का घरेलू और सामाजिक कार्यों में अधिक योगदान होने के बावजूद उन्हें उनके श्रम के एवज में कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है और उनके श्रम को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
— महिलाओं को सरकारी एवं गैर सरकारी विभागों में नीति निर्धारक एवं अन्य महत्वपूर्ण पदों एवं स्थानों पर प्रतिनिधित्व के बहुत कम अवसर दिये जाते हैं। वर्तमान में, विधायिका में 8 प्रतिशत से कम, कैबिनेट में 6 प्रतिशत से कम तथा उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 4 प्रतिशत से भी कम सीटों पर महिलाएं विराजमान हैं। प्रशासनिक अधिकारियों और प्रबंधकोें में 3 प्रतिशत से भी कम महिलाएं हैं।
— महिलाओं को भूमि और संपत्ति के अधिकारों में भी कानूनी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अधिकतर महिलाओं के नाम उनकी अपनी कोई संपत्ति नहीं होती है और वे पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं पाती हैं।
— महिलाओं को ताउम्र परिवार के अंदर और बाहर हिंसा, अत्याचार एवं भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पुलिस आंकड़ों से पता चलता है कि देश में हर 26 मिनट में एक महिला के साथ छेड़खानी होती है,, हर 34 मिनट में एक बलात्कार होता है, हर 42 मिनट में यौन प्रताड़ना की एक घटना होती है, हर 43 मिनट में एक महिला का अपहरण होता है और हर 93 मिनट में एक महिला मारी जाती है।
महिला-पुरुष असंतुलन 
सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या एक अरब तीन करोड़ है, जिनमें 49 करोड़ 60 लाख महिलाएं हैं। अनुमान है कि 2016 तक भारत में महिला आबादी 61 करोड़ 50 लाख हो जाएगी।
देश की आबादी में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात लैंगिक समानता की स्थिति के बारे में काफी कुछ कह जाता है। जैविक रूप से, महिलाएं अधिक मजबूत होती हैं। उन समाजों में जहाँ महिलाओं और पुरुषों के साथ समान व्यवहार किया जाता है, पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक समय तक जीवित रहती हैं और वहाँ की वयस्कों की आबादी में पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं होती हैं। लैंगिक समानता पर आधारित समाजों में हर 100 पुरुष पर 103-105 महिलाएं हो सकती हैं, लेकिन भारत उन देशों में से है जहाँ यह मामला उल्टा है।
भारत में महिला-पुरूष अनुपात यह बयान करता है कि भारत में अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिकता ही हासिल है। इन सब से यह साबित होता है कि भारत में महिलाओं को जन्म से लेकर उनकी जिंदगी की हर अवस्था में उन्हें उनके अधिकारों और हकों से वंचित किया जाता है और उनके साथ कई तरह के भेदभाव किये जाते हैं। 
गुम हो चुकी महिलाएं
भारत में यदि महिलाओं और पुरुषो के साथ समान व्यवहार किया जाता रहता तो यहाँ हर 100 पुरुष पर 105 महिलाएं हो सकती थीं। इस तरह यहाँ की एक अरब तीन करोड़ की वर्तमान आबादी में 51 करोड़ 20 लाख महिलाएं हो सकती थीं। जबकि नवीनतम अनुमान के अनुसार यहाँ की आबादी में अभी 49 करोड़ 60 लाख महिलाएं हैं। इससे यह पता चलता है कि भारत में तीन करोड़ 20 लाख महिलाएं गुम हो चुकी हैं। इनमें से कुछ को तो जन्म से पहले ही मार दिया गया और बाकी को जन्म के बाद के वर्षों में मारा गया और उनसे जीने का अवसर छीन लिया गया।
नारी भ्रूण हत्या
इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़ा हमारा समाज एक तरफ जहाँ लड़कियों को बराबरी का दर्जा देने का दावा और वादा कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ बेटियों के प्रति इतना निष्ठुर भी होता जा रहा है कि उन्हें जन्म लेने के अधिकार से ही वंचित कर देने पर आमादा है। 
हालाँकि 'मादा' शिशु की हत्या की वीभत्स प्रथा अब काफी कम हो गई है, लेकिन उसका स्थान अब नारी भ्रूण हत्या ने ले लिया है। ऐमनियोसेंटियोसिस और अल्ट्रासाउंड तकनीक ने जहाँ गर्भ में ही भ्रूण के लिंग परीक्षण को संभव बनाया है, वहीं ये तकनीकें कन्या भ्रूणों के लिए अभिशाप बन गई हैं। नारी भ्रूण हत्या और बचपन से लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव और तिरस्कार के मुख्य कारण समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति, दहेज प्रथा और पुरुष प्रधान मानसिकता हैं। 
संवैधानिक संकल्पों की हकीकत 
हमारे समाज में महिला और पुरुष को संवैधानिक रूप से बराबरी का दर्जा दिया गया है। भारतीय संविधान में स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के वायदे किये गये हैं। भारत का संविधान सभी लोगों को सुरक्षा प्रदान करने का वादा करता है। हमारा संविधान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्याय, स्टेटस, अवसर, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा, कर्तव्य, संबंध और रोजगार करने की स्वतंत्रता, नियम के अधीन काम करने और सरकारी नैतिकता का वादा करता है। 
संविधान की संरचना उदारता, भाईचारा, समानता और न्याय के सिद्धांतों को आधार बनाकर की गई है। यह सभी लोगों की स्वतंत्रता के महत्व पर बल डालता है और महिलाओं को अधिकार देने के लिए कई उपायों को संजोए हुए है। महिलाओं के समानता के अधिकार और अपक्षपात की व्याख्या न्याय योग्य बुनियादी अधिकारों के रूप में की गई है। संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि महिलाओं के लिए सकारात्मक सक्रिय कार्यक्रम लैंगिक आधार पर समानता के सिद्धांत के साथ असंगत नहीं हैं। महिलाओं के समानता के लिए कुछ विशेष स्वतंत्रता आवश्यक है- सभा और आँदोलन की स्वतंत्रता तथा अवसर और श्रम अधिकार की समानता महिलाओं को अलग से दिये गए हैं।  
अंतर्राष्ट्रीय वचनबद्धता
भारत ने महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभावों को मिटाने के लिए आयोजित सम्मेलन (सी ई डी ए डब्ल्यु) जैसे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्रों और बीजिंग सम्मेलन में विश्व का समर्थन किया है। राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियों से महिलाओं के आगे बढ़ने की एक झलक तो मिलती है। इन योजनाओं और नीतियों में सभी को मानवाधिकारों, स्वतंत्रता और स्वास्थ्य को मुख्य जगह दी गई है। 
सरकार के सकारात्मक नीतियों और योजनाओं के नतीजों, गैर सरकारी संगठनों और अन्य सामाजिक समूहों की पहल सेे पिछले कुछ सालों में भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में आश्चर्यजनक रूप से सुधार आया है। ये सभी सफलताएं महिलाओं ने अपने योगदानों, अपने समर्पण, आंदोलनों एवं श्रम की बदौलत हासिल किया है। लेकिन पुरुषों और महिलाओं के बीच अब भी काफी अंतर है। कुछ महिलाओं ने मजबूत और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान बना ली है, उनका अपनी जिंदगी पर नियंत्रण है और अपने अधिकारों की माँग के लिए आवाज उठाने में समर्थ हैं, तो कुछ महिलाओं को एक अलग किस्म की वास्तविकताओं एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।  
संविधान के बनने के 50 साल बाद भी आज भारतीय महिलाएं कितनी स्वतंत्र हुई हैं? उनके लिए समानता एवं बराबरी के कितने अवसर हैं? महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और समानता के  संवैधानिक वादों पर कितना अमल हुआ? इन सवालों का जवाब सिर्फ महिलाओं की स्थिति को निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि संविधान में स्वतंत्रता और समानता के आश्वासन को पूरा कर भारत की प्रगति को निर्धारित करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। 
प्रतिष्ठा के साथ जीवन यहाँ कुछ और सवाल भी उठ सकते हैं। भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता का अर्थ क्या है? क्या वे इन अधिकारों को व्यवहार में लाकर प्रतिष्ठा के साथ रह सकती हैं? क्या वे अपनी संभावनाओं एवं क्षमताओं को विकसित करने, जो वे करना चाहती हैं उसे चुनने या जो वे बनना चाहती हैं वह बनने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या वे ज्ञान अर्जित करने, सृजनशाील बनने, कमाऊ बनने और लंबी तथा स्वस्थ जिंदगी जीने के लिये स्वतंत्र हैं? क्या वे हिंसा, भेदभाव, दवाबों, डर और अन्याय से सुरक्षित हैं? क्या पुरुषों की तरह उन्हें समान शर्तों पर समान मौके चुनने एवं पाने के अधिकार दिये जाते हैं? इसका सार यह है कि आज भारतीय महिलाएं कितना स्वतंत्र हैं? वे पुरुषों के कितना समान हैं? दुर्भाग्य से, इन सवालों का सरल और सीधा जवाब नहीं है। स्वतंत्रता और समानता के विभिन्न आयामों एवं पहलुओं को आसानी से मापा नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर मानवीय प्रतिष्ठा, आत्म सम्मान, मानसिक और भावात्मक सुरक्षा और दूसरों की नजर में सम्मान महिलाओं की जिंदगी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इन्हें मापने के लिए हमारे पास कोई आसान रास्ता नहीं है। 


आधुनिकता ने छीनी आंखों की नींद

आधुनिक जीवन शैली ने हमें जिन कीमती चीजों से महरूम किया है उसमें आंखों की नींद भी शामिल है। विशेषज्ञों के अनुसार कैरियर एवं नौकरी के दवाब, पैसे की होड़, प्रतिस्पर्धा, घर-दफ्तर के तनाव, रात्रि क्लब और पार्टियां, टेलीविजन और फिल्मों के अलावा तेजी से पसरती माॅल संस्कृति के घालमेल से उपजी आधुनिक जीवन शैली के कारण आज तेजी से अनिद्रा (इनसोमनिया) का प्रकोप बढ़ रहा है। यहां तक कि बच्चे एवं युवा भी इस समस्या के ग्रास बन कर बीमारियों के शिकार बन रहे हैं।
एक अनुमान के अनुसार देश के महानगरों एवं बड़े शहरों में रहने वाले करीब 30 प्रतिशत लोग अनिद्रा के शिकार हैं। ऐसे लोगों को उच्च रक्त चाप, दिल के दौरे और मस्तिष्क आघात जैसी जानलेवा एवं गंभीर बीमारियां होने का खतरा अधिक रहता है। विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं के लिये अनिद्रा आज की बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन गयी है। 
हमारे देश की एक तिहाई आबादी जीवन के किसी न किसी मोड़ पर नींद से संबंधित किसी न किसी तरह की बीमारी का शिकार होती है। तनावपूर्ण जीवनशैली, भागमभाग और मनोवैज्ञानिक कारणों से शहरों में यह समस्या बहुत अधिक व्याप्त हो गयी है। 
श्वसन एवं नींद से जुड़ी समस्याओं के विशेषज्ञ डा. दीपक तलवार बताते हैं कि आज यह साबित हो चुका है कि जागने के दौरान उभरने वाली ज्यादातर बीमारियां एवं समस्याओं की जड़ नींद से जुड़ी होती हैं। 
वरिष्ठ न्यूरोलाॅजी विशेषज्ञ डा. महावीर भाटिया कहती हैं कि अगर आप तीन से चार सप्ताह से अधिक समय से ठीक से नींद नहीं ले पाये हों और इस कारण आपका कामकाज प्रभावित हो रहा हो तो आपको चिकित्सक से परामर्श करना चाहिये। इनसोमनिया के कई लक्षण हैं जिनमें सिर दर्द, एकाग्रता में कमी, दिन में थकावट, मूड उखड़ा रहना, स्मृति लोप, कार्यक्षमता में कमी आदि शामिल है। इनसोमनिया का इलाज नहीं होने पर मरीज सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से कट जाता है, बहुत अधिक गलतियां करता है, उसकी कार्यक्षमता कम जाती है, उसके साथ दुर्घटना होने की आशंका अधिक होती है और स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है। 
मनोचिकित्सक डा. राजेश नागपाल का कहना है कि मौजूदा समय में अनिद्रा की समस्या पुरूषों की तुलना में महिलाओं में काफी अधिक है। उनके अनुसार नींद से महरूम महिलाओं को डिप्रेशन, मोटापा एवं दिल की बीमारियां होने के खतरे बहुत ज्यादा रहते हैं।
नये शोधों से पता चला है कि नींद में खलल पड़ने से महिलाओं के शरीर में हार्मोन के उत्पादन में व्यावधान आता है जिसके कारण वे अपने को हमेशा भूखी महसूस करती हैं। इसके अलावा नींद नहीं आने के कारण वे नींद की गोलियों का सेवन करती हैं जिससे हार्मोन असंतुलन और बढ़ जाता है और वे कई समस्याओं की शिकार बन जाती हैं। 
कई अध्ययनों से इंसोमनिया और डिप्रेशन में गहरा संबंध होने की पुष्टि हुई है। इंसोमनिया अक्सर शारीरिक एवं मानसिक रूग्नता को जन्म देती है या बढ़ाती है। इंसोमनिया के शिकार लोग आम तौर पर दुर्घटनाओं से 3.5 से 4.5 प्रतिशत अधिक शिकार होते हैं। उनके साथ काम-काज दुर्घटनायें 1.5 प्रतिशत और सड़क दुर्घटनायें 2.5 प्रतिशत अधिक होती है। 
चंडीगढ़ के पी जी आई एम ई आर के मनोचिकित्सा विभाग के प्रोफेसर डा. अजीत अवस्थी का कहना है कि व्यायाम एवं पोषण की तरह ही अच्छी नींद को स्वस्थ्य जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा माना जाना चाहिये। शारीरिक एवं मानसिक रूग्नता को जन्म देती है या बढ़ाती है। इंसोमनिया के शिकार लोग आम तौर पर दुर्घटनाओं से 3.5 से 4.5 प्रतिशत अधिक शिकार होते हैं। उनके साथ काम-काज दुर्घटनायें 1.5 प्रतिशत और सड़क दुर्घटनायें 2.5 प्रतिशत अधिक होती है। 
शयन चिकित्सा के विशेषज्ञ डा. संजय मनचंदा के अनुसार इनसोमनिया के कई रोगियों को कई-कई दिनों तक नींद नहीं आने की शिकायत होती है। दरअसल ऐसे लोगों की नींद इतनी खराब होती है कि उन्हें सारी रात नींद नहीं आने का अहसास होता है। ऐसे लोगों का दिन बहुत खराब गुजरता है, वे हर समय थकावट और आलस्य महसूस करते हैं। ऐसे लोग दिन में अपने काम ठीक तरीके से नहीं कर पाते। अगर यह स्थिति काफी समय तक कायम रहे तब उनके कार्य करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है और उनका कैरियर प्रभावित हो सकता है। उनका सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन समस्याग्रस्त हो सकता है। 
डा. दीपक तलवार बताते हैं कि इनसोमनिया कई रूपों में सामने आती है। आम तौर पर यह किसी छिपी बीमारी का लक्षण है। कई लोगों को बिस्तर पर जाने के बाद काफी देर से नींद आती है परन्तु नींद आने के बाद ऐसे लोग देर तक सोते रहते हैं। ऐसे लोगों की जैविक घड़ी परिवर्तित हो जाती है। ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो या तो शिफ्ट ड्यूटी करते हैं या जिनकी जीवनशैली अनियमित होती है। 
डा. तलवार कहते हैं कि कई लोगों को नींद तो आती है लेकिन बीच-बीच में टूटती रहती है जबकि कई लोगों को कम देर तक नींद आती है। उनके अनुसार अनिद्रा के कारणों का पता शयन अध्ययन (स्लीप स्टडिज) से ही लग पाता है। इस अध्ययन के दौरान मरीज की हृदय गति, आंखों की गति, शारीरिक स्थिति, श्वसन मार्ग की स्थिति, रक्त प्रवाह आदि का मानीटर किया जाता है। इससे यह पता लग जाता है कि रोगी को सोने के समय क्या दिक्कत आती है। 
अधिक अवधि तक नींद आने से कहीं अधिक जरूरी अच्छी नींद का आना है। आम तौर पर माना जाता है कि रोजाना सात-आठ घंटे की नींद जरूरी है लेकिन अगर अगर अच्छी एवं गहरी नींद आये तब चार-पांच घंटे की नींद ही पर्याप्त होती है।
डा. तलवार के अनुसार नींद की स्थिति बुनियादी तौर पर दो तरह की हो सकती है - रैम स्लीप (रैपेडाई मूवमेंट) और नाॅन रेम स्लीप (नाॅन रैपेडाई मूवमेंट)। सामान्य तौर पर रैम स्लीप 20 से 25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होती है। लेकिन अगर यह किसी व्यक्ति में 50 प्रतिशत से अधिक हो तो मरीज को सारी रात सपने आते रहते हैं जिसकी वजह से वह ऐसा महसूस करता है कि सारी रात उसे नींद नहीं आई है। इसलिए सुबह जागने पर वह ताजगी महसूस नहीं, बल्कि आलस्य और थकावट-सा अनुभव करता हैं।
इनसोमनिया किसी भी उम्र के व्यक्ति को हो सकता है। पुरुषों की तुलना में महिलाएं इस बीमारी से काफी अधिक प्रभावित होती हैं। इनसोमनिया के तकरीबन 60 फीसदी मामले दूसरी बीमारियों के कारण होते हैं।
इनसोमनिया कई कारणों से हो सकती है जिनमें से एक कारण रेस्टलेस लेग सिन्ड्राॅम है। ऐसे रोगियों की टांगें नींद में छटपटाती रहती है, जिससे दिमाग के अंदर नींद में बार-बार व्यवधान पड़ता है और बार-बार नींद खुलती रहती है। हालांकि इनसोमनिया की पहचान इसके लक्षणों से ही हो जाती है, लेकिन इसकी पुष्टि के लिए रोगी की नींद का अध्ययन करना जरूरी है क्योंकि जब तक रोगी की नींद का अध्ययन नहीं किया जाएगा बीमारी की गंभीरता का भी पता नहीं चल पाएगा। अधिक समय तक इस बीमारी से ग्रस्त रहने पर व्यक्ति डिप्रेशन के भी शिकार हो जाता है क्योंकि इनसोमनिया के लक्षण उसे  मानसिक रोगी बना देते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें मानसिक इलाज की भी जरूरत पड़ जाती है।
डा.तलवार के अनुसार विदेशों के बीच विमानों से यात्रा करने वाले लोगों को यह बीमारी होने की आंशका बहुत अधिक होती है। ऐसे लोगों के लिये अलग तरह की  चिकित्सा दी जाती है। उनके अनुसार नींद से जुड़ी हुयी एक और बीमारी नार्कोलेप्सी है । इसके कारणों का अभी तक पता नहीं चला है लेकिन माना जाता है कि यह बीमारी आनुवांशिक कारणों से होती है। यह आम तौर पर बीस वर्ष की अवस्था के बाद ही शुरू होती है। 
अत्यधिक निद्रा इसका प्रमुख लक्षण है । इसमें नींद का इतना भयानक दौरा पड़ता है कि व्यक्ति अपने आप को रोक नहीं पाता और वह अचानक काम करते समय नींद में चला जाता है। इस रोग का दूसरा लक्षण नींद से बाहर आने के वक्त मरीज को ऐसा महसूस होता है कि उसके पैरों और शरीर में कोई ताकत हीं नहीं बची है। उसे ऐसा आभास होता है कि वह उठ कर बैठ नहीं पायेगा। हालांकि यह अवस्था तुरंत समाप्त हो जाती है। इसके अलावा ऐसे लोगों को अचानक गिर जाने का खौफ हमेशा होता है। ऐसे मरीज जब सोते हैं तब उनके साथ स्वप्न क्रम लगातार चलता रहता है जिसके कारण उन्हें ऐसा महसूस होता है कि वे सारी रात सोये ही नहीं।


विदेशी वैज्ञानिकों ने भी मानी पीतल के घड़ों की उपयोगिता

वैज्ञानिकों ने अपने शोध से सिद्ध किया है कि भारत की सदियों पुरानी पीतल के बर्तनों की परंपरा स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत लाभकारी है। हालांकि आजकल के प्लास्टिक के बर्तनों के आगे पीतल की चमक कुछ फीकी पड़ चली है लेकिन तथ्य कुछ और ही कहते हैं।
सूक्ष्म जीवविज्ञानियों का दावा है कि भारत में इस्तेमाल होने वाले पीतल के परंपरागत घड़े जल-जनित बीमारियों का मुकाबला करने में समर्थ हैं। वैज्ञानिकों का सुझाव है कि विकासशील देशों में जहां लोग प्लास्टिक के सस्ते बर्तनों को पानी के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं, पीतल के परंपरागत घड़ों को उपयोग में लाना चाहिए। 
ब्रिटेन के नाॅर्थअब्रिया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीवविज्ञानी राॅब रीड ने भारतीय ग्रामीण समाज में पाई जाने वाली इस धारणा की वैज्ञानिक तौर पर पुष्टि की है कि पीतल के घड़ों में जीवाणु नहीं पनपते।
प्रोफेसर रीड ने अपने दो सहयोगियों- पूजा टंडन और संजय छिंबर के साथ प्रयोगों की दो श्रृंखलाएं पूरी की। इन्होंन पीतल और मिट्टी के घड़ों में पानी भर कर इनमें ई. कोलाई बैक्टीरिया के बीज डाले। यह जीवाणु पेचिश पैदा करने वाला सूक्ष्मजीवी है। शोधकर्ताओं ने 6, 24 और 48 घंटे बाद इन घड़ों के पानी में जीवित बचे जीवाणुओं की गिनती की। नतीजे चैंकाने वाले थे- पीतल के घड़े में जीवाणुओं की संख्या समय के साथ घटती चली गई और 48 घंटे बाद इनकी संख्या इतनी घट गई कि इन्हें गिना जाना भी संभव नहीं रहा। प्रो. रीड ने एडिबरा में हुई सोसायटी फाॅर जनरल माइक्रोबायलाॅजी की बैठक में अपने ये परिणाम पेश किए। रीड के अनुसार जीवाणुओं के नष्ट होने का कारण पीतल में पाया जाने वाला तांबा है जो पानी में घुल कर जैविक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देता है। तांबे के कण जीवाणुओं की कोशिकाओं की दीवारों और उसके एंजाइमों के काम में बाधा डालते हैं-सूक्ष्मजीवी के लिए जिसका अर्थ है मौत। दिलचस्प बात यह है कि इन घड़ों से निकलने वाली तांबे की मात्रा मानव शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाती। 
शोधकर्ताओं का दावा है कि यदि पीतल के घड़े में रखा 10 लीटर पानी कोई व्यक्ति रोजाना पीता है तो इससे उसके शरीर में पहुंचने वाली तांबे की मात्रा स्वीकृत अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कम होती है। इसके विपरीत प्लास्टिक जीवाणुओं को नष्ट नहीं करता लेकिन विकासशील देशों में लोग सस्ता विकल्प समझ कर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। रीड कहते हैं पीतल के बर्तन महंगे जरूर हैं लेकिन जिस तरह जल-जनित बीमारियों से हर साल लाखों मौत के शिकार होते हैं, पीतल का प्रयोग एक बुद्धिमानीपूर्ण कदम साबित होगा।
जीवाणुओं के नष्ट होने का कारण पीतल में पाया जाने वाला तांबा है जो पानी में घुलकर जैविक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देता है। तांबे के कण जीवाणुओं की कोशिकाओं की दीवारों और उसके एंजाइमों के काम में बाधा डालते हैं, सूक्ष्मजीवी के लिए जिसका अर्थ है मौत।


रीमिक्स का फैलता काला कारोबार 

क्या आप विशुद्ध रविंद्र संगीत को विशुद्ध मैडोना अंदाज में सुनना और देखना पसंद करते हैं? यदि हां, तो आप नई पीढ़ी के ठंडे अर्थात् कूल बंदे हैं। अगर आप ऐसा करना पसंद नहीं करते तो आपको तुरंत गेहुंआ वस्त्र और कमंडल धारण कर हिमालय की ओर प्रस्थान करना चाहिए क्योंकि अब चहुं ओर 'कांटा लगा....'की ही धूम है। रीमिक्स नई पीढ़ी का संगीत है जो वास्तव में ब्रिटेन मंे शुरू हुआ और वहीं से भारत पहुंचा। अस्सी के दशक के मध्य में गुलशन कुमार ने ही इस रीमिक्स के जादू को सबसे पहले पहचाना था। उनकी कंपनी टी-सीरिजने मोहम्मद रफी और किशोर कुमार के गाए गानों को नए -नए कलाकारों की आवाज में रिकार्ड कराया। ऐसा प्रचारित किया गया कि इन नए एलबमों में गानों के साथ झनकार बीट्स जोड़ी गयी है अर्थात् पुराने गानों को नई और तेज धुनों में पिरोया गया है। इन गानों को 'वर्जन रिकार्डिंग' के नाम से जाना गया और इसी ने अब रीमिक्स का दानवी रूप धारण कर लिया है। आज किसी भी संगीत चैनल पर आपको 10 में से 7 गाने रीमिक्स ही देखने को मिलेंगे। भारतीय टाॅप चार्ट में भी रीमिक्स संगीत का ही दबदबा है जिनमें हैरी आनंद, डी जे अकील, अकबर सामी, डी जे नशा आदि सबसे बड़े नाम हैं।
इन रीमिक्सों ने जहां एक ओर पुराने संगीतकारों के दिल में छूरा घोंपने का काम किया, वहीं दूसरी ओर भारतीय संगीत उद्योग को भी भारी आर्थिक क्षति पहुंचा रहा है। नौशाद जैसे संगीतकार जब अपने मेलोडियस गीतों को झाम-झाम, धाम-धाम के साथ सुनते हैं तो उनकी आत्मा कलप जाती है। इसके ऊपर से रीमिक्स वीडियो में अश्लील नाच और लटकों-झटकों का समावेश उनके जैसे लोगों को खून के आंसू रूला रहा है।
भारतीय संगीत उद्योग पर नजर डालें तो पता चलता है कि पायरेसी और ऊंचे अप्रत्यक्ष करों जैसी भयानक मुसीबतों से जूझ रहे इस उद्योग के लिए वर्जन रिकार्डिंग और रीमिक्स ने कोढ़ में खुजली का काम किया है। यदि पिछले दो-तीन वर्षों के प्रदर्शन पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह उद्योग अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। पारम्परिक संगीत और कर्णप्रिय पुराने गीतों की आत्मा को बुरी तरह रौंदने वाले रीमिक्सों ने पिछले डेढ़ वर्षों में ही बालीवुड पर चार बिलियन रुपयों का चूना लगाया है। आज रीमिक्स संगीत पूरे बाजार का 80 प्रतिशत हिस्से पर काबिज हो चुका है और बाकी बचे 20 फीसदी हिस्से में ही सृजनात्मक कार्य करने वाले छटपटा रहे हैं।
इंडियन म्यूजिक इंडस्ट्री (आईएमआई) एक अपेक्स बाॅडी है जिसमें 50 कंपनियां शामिल हैं। इसके सदस्यों के अनुसार यदि अभी जल्द ही कोई कदम नहीं उठाया गया तो सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।  आई एम आई के अध्यक्ष बी.जे. लाजरूस के अनुसार उद्योग को पिछले तीन वर्षों में 1800 करोड़ रुपयों का घाटा हुआ है और यह घाटा अवैध संगीत के कारण हुआ है। हर साल लगभग 600 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें से 450 करोड़ पायरेसी और 150 करोड़ वर्जन रिकार्डिंग के कारण हुआ है। लाजरूस के मुताबिक कुछ कंपनियों को इस अवधि में 200 करोड़ तक का घाटा झेलना पड़ा है। कोई भी इतना बड़ा घाटा बर्दाश्त नहीं कर सकता और अगर अभी कुछ नहीं किया गया तो कुछ कंपनियां बंद हो जाएगी।
इन अवैध रूप से कुकुरमुत्तो की तरह बन रहे रीमिक्स पर लगाम कसने के लिए आई एम आई भरपूर प्रयास कर रही है। उन्होंने भारत सरकार से काॅपी राइट कानून 1994 से अनुच्छेद 52(1)(जे) को हटाने की पुरजोर वकालत की है। इस अनुच्छेद के अनुसार दो वर्षों से अधिक पुराना कोई भी गीत वर्जन रिकार्डिंग के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है बशर्ते इस बात की जानकारी काॅपीराइट धारकों, संगीत रचनाकारों और गीतकार को अग्रिम पांच प्रतिशत रायल्टी की रकम के साथ पहले ही दे दी जाए। कुछ संगीत कंपनियों ने इस अनुच्छेद का बड़ी चालाकी से फायदा उठाया है। लाजरूस के अनुसार ये कंपनियां पहले तो छोटी रकम अग्रिम के रूप में अदा कर देती है लेकिन एलबम की बिक्री पर आगे कोई राशि अदा नहीं करती जबकि एलबम की दसियों हजार काॅपियां बेच कर मुनाफा कमाती है। अनाधिकारिक सूचनाओं के अनुसार टी सिरीज ने 'कांटा लगा......' की पहली पांच हजार काॅपियों पर तो अग्रिम राशि चुका दी लेकिन कुछ बेची गई लगभग 50 लाख काॅपियों का कोई हिसाब नहीं किया गया। हालांकि कानून में बदलाव की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं लेकिन फिर भी कुछ लोगों का मानना है कि बदला हुआ कानून भी तब तक बेकार ही साबित होगा जब तक कि उसे सख्ती से लागू करने की दिशा में कदम न उठाए जाएं। एक कानूनी सलाहकार अश्नी पारिक का मानना है कि हमारे कानून तो विश्व स्तर के हैं लेकिन उनके लागू करने के बारे में काफी कुछ किया जाना बाकी है।
आई एम आई ने पायरेसी से लोहा लेने के लिए 'साउंड आफ साइलेंस' के नाम से अभियान शुरू किया है। इस अभियान के तहत आई एम आई के सदस्य सरकार, कानूनी संस्थाओं और ग्राहकों से पायरेसी और उसके दुष्परिणामोें के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए साथ-साथ कदम उठाने की गुहार कर रहे हैं। इसके अलावा इन्होंने सरकार से अनुरोध किया है कि कैसेट पर उत्पादन शुल्क न लगाने की प्रथा रहने दें और सीडी पर लगाया गया 16 प्रतिशत का उत्पादन शुल्क भी हटा लें। राज्य सरकारों से भी कर ढांचों को तर्कसंगत बनाने की अपील की गई है। लाजरूस का सुझाव है कि सरकार को पायरेसी मामलों में सख्त रूख अपनाते हुए कड़ी सजा का प्रावधान करना चाहिए। आई एम आई के आंकड़ें बताते हैं कि पिछले चार वर्षों में पायरेसी मामलों में तीन हजार 652 आपराधिक मामले दर्ज हुए और चार हजार 96 गिरफ्तारियां की गई। इनमें से केवल 191 मामले ही अदालती निर्णय तक पहुंचे और मात्र 30 लोगों का ही भारी जुर्माना अथवा लंबी कारावास हुई।
जिस प्रकार जुआ घर में जाने वाला जुआरी चाहे हारे या जीते, जुआघर हमेशा फायदे में ही रहता है। उसी प्रकार रीमिक्स बनने से संगीतकारों का दिल टूटे या संगीत और फिल्म उद्योग को करोड़ों का चूना लगे, रीमिक्स बनाने वाला हमेशा फायदे में ही रहता है। नकल के इस कारोबार में जहां नामी गिरामी कंपनियां धड़ल्ले से रीमिक्स निकाल रही हैं वहीं ये कंपनियां एक दूसरे पर चोर होने की कालिख भी पोत रही हैं। 
रीमिक्स की पुरानी खिलाड़ी टी-सीरिज ने सोनी म्यूजिक पर मुकदमा दायर कर दिया है। टी-सीरिज के अनुसार सोनी म्यूजिक ने कुछ समय पहले जो 'डी जे हार्ट रीमिक्स' कैसेट बाजार में उतारा था वह टी-सीरिज के पहले से चल रहे कैसेट डी जे हाॅट रीमिक्स की नकल है।
टी-सीरिज ने आरोप लगाया कि सोनी म्यूजिक ने अपने एलबम का टाइटल हमारे टाइटल की कपट पूर्ण नकल है और उसके गाने भी चुराए गए हैं। दूसरी ओर सोनी म्यूजिक ने इन आरोपों को बेतुका बताया है। उनके अनुसार,'टी-सीरिज वालों को हथियाने में महारथ हासिल है और हाल ही में टी-सीरिज, टाइम्स म्यूजिक के दो उत्पाद हथियाने का मुकदमा हार गई है। पिछले वर्ष हमने टी-सीरिज पर हमारे सफल एलबम 'डांस मस्ती.....' से मिलता-जुलता एलबम बाजार में उतारने के लिए मुकदमा दर्ज किया था।' उन्होंने टी-सीरिज पर वार करते हुए कहा कि डी जे हाॅट रीमिक्स भ्रामक है। उन्होंने हमारे रीमिक्स 'मेरे नसीब में......', यूनिवर्सल के रीमिक्स 'सैंया दिल में आना रे.......' और अन्य हिट गीतों की नकल की है।
आरोपों की यह बहस अंतहीन है और आगे भी इसके बढ़ते जाने के ही संकेत हैं। चोरी चाहे जिसने भी की हो लेकिन सच तो यह है कि कोयले की इस दलाली में कालिख हमारे महान संगीतकारों और गीतकारों के मुंह पर ही लगी है। 
'कांटा लगा....' ने भले ही विवाद पैदा किया हो और उसका वीडियो तो बहुतों को खड़े-खड़े पानी-पानी हो जाने पर मजबूर करता हों लेकिन कांटा लगाने वाली डी जे डाॅल वाकई बहुत खुश हैं और उन्हें लोगों की आलोचनाओं से कोई शिकायत नहीं है। जिन समझदार लोगों ने सफलता का फार्मूला पा लिया वे नए फिल्मी गानों के साथ म्यूजिक चार्ट पर राज कर रहे हैं। फार्मूला बहुत सीधा और सरल है। सत्तर के दशका का कोई गीत लीजिए और उसको इलेक्ट्राॅनिक गिटार, सिंथसाइजर और इलेक्ट्राॅनिक ड्रम जैसे धूम धड़ाके वाले वाद्य यंत्रों के साथ दोबारा रिकार्ड कीजिए। रिकार्डिंग में गायक/गायिका की आवाज का कोई खास महत्व नहीं है। हां, गाने में वीडियो में थोड़ा ज्यादा मेहनत करनी होगी। इस बात का हर हाल में ध्यान रखना होगा कि वीडियो की माॅडल किसी भी हालत में कपड़े कम से कम पहन पाए। यदि सीधे बाथरूम से बाथरूम से माॅडल के नहाने का लाइव टेलिस्काट हो जाए तो उसे सफल होने में कोई संदेह नहीं।
हालांकि कुछ पुराने संगीतकार इस नए रीमिक्स चलन से खुश नहीं हैं। उन्हें हर रोज थोक के भाव पैदा हो रहे नवोदित संगीतकारों की उन्नति फूटी आंखों नहीं भा रही है। दो-चार सठिया चुके संगीतकार कुछ कंपनियों के साथ मिलकर इस चलन को बंद कराने की साजिश कर रहे हैं। वे जलन के मारे अपने गीतों का खून और बलात्कार किए जाने जैसे आरोप मढ़ रहे हैं तो कुछ इस 'अपराध' से कमाए रुपयों में अपना हिस्सा मांग रहे हैं। नौशाद साहब तो कहते हैं कि रीमिक्स का संगीत से कुछ लेना-देना ही नहीं है। यह केवल अश्लील नृत्य है जो इस तरह का संगीत धड़ाधड़ बिक रहा है। 
रीमिक्स संगीत पर छपी एक रिपोर्ट में नौशाद ने कांटा लगा वाले अपने गाने के बारे में कहा कि वह एक अत्यंत मधुर गीत था और इन लोगों ने इसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया। यह गाना एक ऐसी प्रेमिका के बारे में था जो अपने प्रेमी का इंतजार कर रही है। अब इन्होंने उसे रीमिक्स करके और वाहियात वीडियो बना कर गाने के अर्थ को ही बर्बाद कर दिया।
संगीतकार बप्पी लहरी जिन्होंने कभी भी पाॅप संगीत से उधार लेने में कोई गुरेज नहीं की वह भी रीमिक्स से आहत हुए हैं। पिछले वर्ष उन्होंने यूनिवर्सल म्यूजिक समूह और डा. ड्रे के खिलाफ एक मुकदमा जीता है। यह मुकदमा ट्रुथ हटर््स के गाने 'एडिक्टेड' के खिलाफ था।
न्यूयार्क स्थित डी जे अफलातून के रीमिक्स वर्जन 'कलियों का चमन......' सबसे पहले यू एस क्लब सर्किट में चर्चित हुआ। इसके बाद इसे डी जे क्विक ने चलाया। तत्पश्चात् ट्रुथ हार्ट्स ने इसे एडिक्टेड के रूप में डाला और उसके बाद मुम्बई स्थित हैरी आनंद ने इसे रीमिक्स (या री-रीमिक्स) करके देव कोहली के शब्द और शाश्वती की आवाज में पेश कर दिया।
यूनिवर्सल म्यूजिक के चेयरमैन और आई एम आई के अध्यक्ष विजय लाजरूस कहते हैं कि हमें अक्सर बेची गई वस्तुओं की सही जानकारी नहीं मिलती और न ही पांच प्रतिशत राॅयल्टी, जो हमें अदा की जानी चाहिए। अगर हमारे काॅपीराइट कानून थोड़े और सख्त होते तो हमें रचनाशीलता की असली कद्र करने वालोें के साथ अनुबंध करने में सहायता होती जा हमें राॅयल्टी भी देते।
ए एफ पी रिपोर्ट के मुताबिक अपेक्षाकृत अनजान संगीतकार हर हफ्ते नए-नए सीडी और कैसेट निकाल रहे हैं। ये लोग कानूनी दिक्कतों से बचने के लिए गाने के बालों और धुनों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। इस तरह 12 बिलियन सालाना व्यापार वाले संगीत उद्योग में अपनी पैठ बना रहे हैं। रिपोर्ट में विशेषज्ञों के हवाले से कहा गया है कि एक रीमिक्स एलबम मात्र दो लाख रुपए में बनाया जा सकता है। लेकिन एलबम की मदमस्त वीडियो बनाने में पांच लाख तक का अतिरिक्त खर्च होता है। इसके अलावा एलबम के प्रचार में खर्च हाने वाली राशि भी खासी बड़ी होती है। इन सब खर्चों के बावजूद ये खर्च किसी नई फिल्म के संगीत को प्रचारित करने में लगने वाले खर्च से कम ही होता है।
ऐसा नहीं है कि रीमिक्स के कोई समर्थक नहीं हैं। टाइम्स म्यूजिक के उपाध्यक्ष रबी भटनागर कहते हैं,'इसमें गलत क्या है? यह पूरे विश्व में हो रहा है। आज के किसी बच्चे से पूछ कर देखिए क्या उसे 1980 के दशक से पहले का कोई गीत याद है? पुराने गानों को अब कोई नहीं खरीदता। और अगर कोई इन गानों की रीमिक्स करता है तो वह इन भूला दिए गए गानों को फिर से जीवंत कर रहा है। असल में वह उनका प्रचार ही कर रहा है। भटनागर के अनुसार रीमिक्स उद्योग भारतीय संगीत क्षेत्र का केवल 10 फीसदी हिस्सा है इसलिए रीमिक्स के खिलाफ आवाजें उठाना अनुचित है।
यह वास्तविकता है कि शास्त्रीय संगीत आधारित कुछ पुराने गीतों को रीमिक्स करके दोबारा नयी पीढ़ी से अवगत कराया जा रहा है। एक भारतीय एफ एम रेडियो पर किसी किशोर ने 'बिन्दु रे......' वाला रीमिक्स गाना सुनवाने की फरमाइश की। जब उसे बताया गया कि इस रीमिक्स का ओरिजिनल वर्जन वास्तव में किशोर कुमार का गाया पड़ोसन फिल्म का है जो 40 साल पहले था, तो उसे विश्वास नहीं हुआ।
बाॅलीवुड में भी रीमिक्स बेचने का नया चलन उभर कर सामने आ रहा है। अगर किसी फिल्म का संगीत खासा चर्चित हो जाता है तो कुछ समय बाद रीमिक्स तैयार करके दोबारा बाजार को भुनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए फिल्म परदेश, रंगीला, कुछ-कुछ होता है, दिल से, बीबी नं. 1, कहो न प्यार है आदि फिल्मों के गाने को रीमिक्स करके अच्छा मुनाफा कमाया गया।
पायरेसी के आघात और इंटरनेट पर एमपी3 की आसान उपलब्धता के बावजूद रीमिक्स संगीत ने अपना वजूद न केवल कायम रखा है बल्कि रीमिक्स एलबमों की बिक्री लगातार बढ़ भी रही है। संगीत तानाशाहों के लंबे-चैड़े भाषणों और शुद्धता की ढपली बजाने वालों के विरोध के बावजूद रीमिक्स खरीदने वालों की कोई कमी नहीं है।   


सुर और ताल से चिकित्सा 

अगर आप पेट दर्द अथवा सिर दर्द से तड़पते हुये कोई अस्पताल पहुंचे और वहां पहुंचने पर डाॅक्टर दवा देने के बजाय आपके संगीत सुनाने लगे तो आप शायद डाॅक्टर को भला - बुरा कहते हुये वहां से भाग खड़े हों। लेकिन आपको विश्वास हो या नहीं, आने वाले समय में संगीत को बीमारियों के इलाज का एक कारगर नुस्खे के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाने वाला है। 
कहा जाता है कि संगीत एक जादू है, एक नशा है, परम आनंद की प्राप्ति का एक साधन है। लेकिन आज इसे दर्दे दिल और दर्दे जिगर की दवा माना जाने लगा है। वैसे तो दिलो-दिमाग पर संगीत के असर का अहसास मनुष्यों को प्राचीन काल से ही रहा है, लेकिन आज संगीत के विभिन्न पहलुओं पर हुये वैज्ञानिक अध्ययनों ने साबित कर दिया है कि संगीत बहुत सारे मर्ज की दवा भी है। हो सकता है कि कई लोगों को संगीत के चिकित्सकीय एवं औषधीय प्रभावों को लेकर शक हो सकता है लेकिन इस विषय में शोध करने वाले वैज्ञानिकों को इस बात को लेकर अब कोई शक नहीं रहा कि संगीत भविष्य में चिकित्सा का एक कारगर हथियार बनने जा रहा है। 
वैज्ञानिकों ने संगीत का असर केवल मनुष्यों और विभिन्न जीव - जन्तुओं पर ही नहीं पौधों पर भी देखा है। 
आधुनिक शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पौधों के पास नियमित तौर पर शास्त्राीय संगीत बजाया जाये तो पौधों का विकास तेजी से होता है। जापान में एक प्रयोग के तहत देखा गया कि अगर साग-सब्जियों, जड़ी-बूटियों और फलों के पेड़ों के पास नियमित रूप से संगीत बजाया जाये तो इनता तेजी से विकास होता है। मोजार्ट, बीथोवन और शोपां जैसे पश्चिमी शास्त्राीय संगीत को लेकर इस तरह के प्रयोग किये गये। अगर संगीत का पौधों पर इतना साकारात्क प्रभाव पड सकता है तो जाहिर सी बात है कि मनुष्यों के स्वास्थ्य पर इसका असर पड़ना लाजिमी है। 
संगीत का स्वास्थ्य पर प्रभाव 
स्वास्थ्य पर संगीत के प्रभाव को लेकर भारत के अलावा अनेक देशों में कई वैज्ञानिक अध्ययन हुये हैं।  इन अध्ययनों से पता चलता है कि मनपसंद और अनुकूल संगीत सुनने से रक्त चाप में कमी आती है, दिल की धड़कन नियमित होती है, डिप्रेशन दूर होता है, एंग्जाइटी में कमी आती है, ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता तथा सृजनशीलता बढ़ती है, आपरेशन के दौरान अथवा उसके पश्चात दर्द निवारक दवाइयों की जरूरत कम होती है, कीमोथिरेपी के बाद उल्टी की शिकायत कम होती है, दर्द से राहत मिलती है और पार्किसन्स बीमारी में शारीरिक अंगों में स्थिरता आती है। संगीत चिकित्सा का इस्तेमाल प्रसव पीड़ा का कम करने के अलावा सिर दर्द और सर्दी-जुकाम जैसी रोजमर्रे की समस्याओं को दूर करने में भी हो सकता हैं। पश्चिमी देशों में संगीत का इस्तेमाल आटिज्म, पार्किंसन, अल्जाइमर और हंटिंगडन बीमारी के अलावा संवेदना में गड़बड़ी के इलाज में हो रहा है। 
सर्जरी के दौरान संगीत का असर 
स्वीडन में किये गये एक अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि सर्जरी के दौराण कर्णप्रिय एवं मधुर संगीत सुनने से सर्जरी के बाद मरीज के जल्द ठीक होने में मदद मिलती है। ए सी टी ए (एनेस्थिसियोलाॅजिका स्कैंडिनाविका) नामक पत्रिका के हाल के अंक में प्रकाशित इस अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार कुछ महिलाओं को बेहोश करके हीस्टेरेक्टोमी का आपरेशन हुआ। बेहोशी के दौरान उसे राहत प्रदान करने वाला संगीत और समुद्री लहरों की आवाजें सुनायी गयी। उसे जब अस्पताल से छोड़ा गया तब उसे कम दर्द और थकावट का अहसास हो रहा था। जिन मरीजों को आपरेशन के दौरान संगीत नहीं सुनाया गया था उनकी तुलना में ये महिलायें आपरेशन के बाद तुलनात्मक रूप से पहले उठने बैठने लगी।  
वैज्ञानिकों के अनुसार एनेस्थिसिया के प्रभाव में बेहोशी की हालत में हमारा मस्तिष्क आसपास की घटनाओं के प्रति जागरूक होता है। आपरेशन के लिये बेहोश किये गये मरीज का अवचेतन मस्तिष्क चिकित्सकों और नर्सों की बातें सुनता है जिससे उसे एंग्जाइटी पैदा हो सकती है और सर्जरी के बाद के परिणामों को लेकर वह चिंतित हो सकता है। मरीज का ध्यान इस तरह की बातों से हटाने के लिये उसे संगीत सुनाया जा सकता है और साथ ही साथ चिकित्सकीय सलाह दी जा सकती है। यह बेहद साघन सस्ता है और इससे सर्जरी के बाद मरीज के जल्द ठीक होने में मदद मिल सकती है और उसे दर्द एवं थकावट से जल्द छुटकारा मिल सकता है। इससे मरीज को कम दर्दनिवारक दवाइयों की जरूरत होती है और यह मरीज के हित में साबित हो सकता है। 
क्लीवलैंड स्थित वेस्टर्न रिजर्व युनिवर्सिटी में शोधकर्ताओं ने 29 माह तक उन 500 मरीजों पर अध्ययन किया जिनकी पेट की सर्जरी की गयी थी। इन मरीजों की उम्र 18 से 70 वर्ष थी1 इनमें से कुछ मरीजों को आपरेशन के बाद दी जाने वाली चिकित्सकीय देखभाल के अलावा संगीत सुनाया गया और उनपर मन को हल्का करने के उपाय आजमाये गये जबकि जबकि शेष को परम्परागत तरीके से दवाइयां दी गयी और चिकित्सकीय देखभाल की गयी। सर्जरी के बाद संगीत सुनने वाले मरीजों ने सर्जरी के बाद के पहले और दूसरे दिन चलने-फिरने एवं सोने-जागने के दौरान कम दर्द महसूस किया और उन्होंने तुलनात्मक रूप से शीघ्र स्वास्थ्य लाभ किया। 
स्वर विकार दूर करने में संगीत
फ्रांस के चिकित्सक डा. अल्फे्रड टोमाटिस ने 50 वर्ष तक एक लाख मरीजों पर अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला कि स्वर विकारों से ग्रस्त लोग अगर छह माह तक रोजाना एक घंटे तक मोजार्ट संगीत सुने तो उनका स्वर दोष दूर होता है और उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता में सुधार आता है। डा. टोमाटिस फ्रंास के सुपरस्टार गेरार्ड डिपाडियू का उदाहरण देते हैं। डिपाडियू जब अपने कैरियर के शुरूआती दिनों में संघर्ष कर रहे थे तब वह स्वर विकार से ग्रस्त हो गये। वह संवादों को ठीक से बोल नहीं पाते थे। डा. टोमाटिस ने उन्हें संगीत चिकित्सा दी जिसके कारण उन्होंने अपने स्वर दोष पर विजय पा ली और फ्रेंच सिनेमा में उन्हें उसी प्रकार की ख्याति हालिस हुयी जिस तरह की ख्याति हिन्दी फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने हासिल की है। 
नवजात बच्चों के इलाज के लिये संगीत 
संगीत का इस्तेमाल समय पूर्व प्रसव से जन्म लेने वाले बच्चों के इलाज के लिये भी होता है। आज अनेक चिकित्सक समय पूर्व जन्म लेने वाले बच्चों के इलाज के लिये कुछ खास तरह के संगीत के असर का इस्तेमाल कर रहे हैं। 
अटलांटा के पाइडमोंड हाॅस्पीटल में गहन चिकित्सा के चिकित्सक डा. शेवात्र्ज ने गर्भस्थ शिशु और नवजात शिशु की चिकित्सा में विशेषज्ञता हासिल की है। गर्भ में ध्वनि स्तर करीब 80 से 90 डेसिबल होता है। ध्वनि का यह स्तर किसी डिस्को में पैदा होने वाली ध्वनि के बराबर है। गर्भ में प्लेसेंटा में रक्त प्रवाह, माता के श्वसन एवं दिल की धडकन के मिले-जुले असर से इतनी उंची ध्वनि पैदा होती है। जन्म से पूर्व इतने ऊंचे स्तर की ध्वनि सुनने वाले शिशु के लिये जन्म के समय अचानक ध्वनि का नहीं सुनना तनाव का कारण हो सकता है। यही कारण है कि शेवात्र्ज ने गर्भ में पैदा होने वाली ध्वनि की तरह का ही एक खास तरह का संगीत विकसित किया है। 
उन्हें अपनी पत्नी के गर्भवती होने पर अपनी पत्नी के गर्भ में पैदा होने वाली ध्वनि रेकार्ड की और उस ध्वनि को स्टुडियो में मधुर संगीत एवं महिला की आवाज के साथ मिश्रित किया। पत्नी के प्रसव के समय से ही इस मिश्रित ध्वनि को शिशु को सुनाया और इसका असर यह हुआ कि शिशु लंबे समय तक गहरी नींद में सोता रहा। इस प्रयोग से उत्साहित होकर उन्होंने समय से पूर्व पैदा होने वाले अनेक शिशुओं पर इस मिश्रित घ्वनि का इस्तेमाल किया। उन्होंने पाया कि जो बच्चे इस तरह की मिश्रित संगीत के प्रभाव में रहते हैं वे अन्य बच्चों की तुलना में गहन चिकित्सा कक्ष में तीन दिन कम रहते हैं। 
संगीत का कैंसर चिकित्सा में उपयोग
कीमोथिरेपी के समय संगीत सुनने से मरीजों में भय, नर्वसनेस और तनाव में कमी आती है। एक अध्ययन के दौरान 70 मरीजों को 350 सी डी में दर्ज तरह-तरह के गीतों के संकलन में से अपने पसंदीदा गीत चुनने को कहा गया। उन्हें उनका पसंदीद संगीत सुनाते हुये कीमोथिरेपी दी गयी। कीमोथिरेपी के पहले तथा बाद में कुछ सवाल पूछे गये। 
ज्यादातर मरीजों ने क्लासिकल संगीत को चुना। मोजार्ट के संगीत को सबसे ज्यादा मरीजों ने चुना। अमरीकी चिकित्सक सुसान वेबर का कहना है कि संगीत में शरीर तथा मन पर असर डालने की ताकत होती है। संगीत दिल की धड़कन और श्वसन की दर के अलावा मस्तिष्क तथा पूरे शरीर को प्रभावित करता है। 
उच्च रक्त चाप में संगीत 
उच्च रक्त चाप के मरीजों के इलाज के लिये खास तरह का संगीत पैदा करने वाला एक उपकरण बनाया गया है। क्लिनिकल परीक्षणों में इस उपकरण को उच्च रक्त चाप को घटाने में कारगर पाया गया है। इस उपकरण को एक इजराइली फर्म ने विकसित किया है। यह उपकरण सबसे पहले मरीज के श्वसन के तौर-तरीके का विश्लेषण करता है। इसके आधार पर खास तरह के संगीत विकसित करता है जो मरीज के सामान्य श्वसन 14-18 श्वसन प्रतिमिनट से घटाकर श्वसन दर को दस श्वसन प्रति मिनट तक ले आता है।
भारत में संगीत चिकित्सा 
भारत में दक्षिणी मुंबई स्थित एक अस्पताल और नागपुर के चिकित्सकों की एक टीम ने संगीत चिकित्सा के बारे में अलग-अलग प्रशंसनीय कार्य किये हैं। ड्यूटी के दौरान दिल के दौरे पड़ने के बढ़ रहे मामलों के मद्देनजर मुंबई पुलिस ने भी तनाव घटाने के लिये संगीत का इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया है। बड़ोदरा में किये गये अध्ययनों में पाया गया कि हिन्दुस्तानी शास्त्राीय संगीत अनेक तरह की समस्याओं को दूर करने में सहायक है। कुछ चुने हुये मरीजों पर किये गये प्रयोगों से पाया गया कि चार भारतीय शास्त्राीय राग शरीर, मन और आत्मा पर साकारात्मक प्रभाव डालते हैं। 
मुंबई के एक अस्पताल में दमा, डिपे्रशन, उच्च रक्त चाप और अनिद्रा के 80 मरीजों पर संगीत के प्रभाव का 
अध्ययन किया गया। इन मरीजों को आधे घंटे के लिये अहीर भैरव(प्रातःकाल), भीमपलासी(अपराह्न काल), पुरिया (संध्याकाल) और दरबारी कान्हड़ा (रात) में सुनाया गया। इस शोध का नेतृत्व करने वाली निवेदिता मेहता ने इंडियन साइकेट्रिक सोसायटी की बैठक में इस अध्ययन के निष्कर्ष की जानकारी दी। यह अध्ययन उस समय किया गया जब गोधरा के पास स्थित बडोदरा और अहमदाबाद साम्प्रदायिक हिंसा की आग में सुलग रहा था। चिकित्सकों का मानना है कि संगीत का उन्मादी लोगों पर भी साकारात्मक असर पड़ सकता है और उनके उन्माद को कम सकता हैं। गुजरात में हिन्दुस्तानी संगीत की एक समृद्ध परंपरा रही है जिसके विकास में दोनों समुदाय के लोगों का शानदार योगदान रहा है। 
बनारस विश्वविद्यालय से संगीत चिकित्सा में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डा.एल पी एस करूणातिलक श्रीलंका में सितार से निकलने वाली ध्वनि की मदद से डिप्रेशन और तनाव के मरीजों का इलाज करते हैं। उन्होंने तनाव और डिप्रेशन से ग्रस्त 450 मरीजों पर अध्ययन किया। उन्होंने सितार से निकलने वाले 200 रागों और सुरों में से उन्होंने 20 को इन मरीजों के इलाज में उपयोगी पाया है। 
चेन्नई स्थित अपोलो अस्पताल ने संगीत चिकित्सा पर एक साल का एक पाठ्यक्रम आरंभ किया है। नयी दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के बाॅडी-मांइड क्लिनिक में आने वाले मरीजों के इलाज के लिये संगीत चिकित्सका का भी इस्तेमाल किया जाता है। इस क्लिनिक के प्रमुख तथा वरिष्ठ होलिस्टिक चिकित्सा विशेषज्ञ डा. रविन्द्र कुमार तुली  का कहना है कि मनोदैहिक रोगों से ग्रस्त लोगों पर संगीत का चमत्कारिक असर होता है। संगीत चयापचय (मेटाबाल्जिम) को तेज करता है, मांसपेशियों की ऊर्जा बढ़ता है, श्वसन को नियमित करता है तथा रक्त चाप एवं नाड़ियों के स्पंदन पर साकारात्मक प्रभाव डालता है। 
संगीत चिकित्सा और हिन्दुस्तानी राग 
भारतीय रागों से मरीजों का इलाज करने वाले मुंबई के आबकारी आयुक्त टी वी साईराम का कहना है कि  डिमेंसिया, डिप्रेशन, अनिंद्रा, मैनिया, दर्द, बेचैनी, तनाव और न्यूरोसिस जैसी मन-मस्तिष्क से जुडी बीमारियों का संगीत के जरिये उपचार किया जा सकता है। नये अध्ययनों ने भी श्री साईराम की इस धारणा की पुष्टि की है। कर्नाटक और हिन्दुस्तानी संगीत के मर्मज्ञ मस्तिष्क को राहत प्रदान करने में रागों के असर से वाकिफ हैं। प्राचीन वैद्य का मानना था कि तनाव खास तौर पर हीस्टिरिया के दौरान होने वाले तनाव को दूर करने में दरबारी, कान्हड़ा, खमाज और पूरिया जैसे राग मददगार साबित होते हैं। 


संगीत चिकित्सा से उच्च रक्त चाप के इलाज में काफी लाभ मिलता है। उच्च रक्त चाप के मरीजों के लिये अहीर भैरव और तोडी जैसे रागों को सुनने की सलाह दी जाती है जबकि निम्न रक्त चाप के मरीजों को मालकौन जैसे नारी राग से फायदा होता है क्योंकि माना जाता है कि इसमें सुपरनेचुरल ऊर्जा निहित होती है। 
श्री साइराम के अनुसार गुस्से और हिंसक भावना पर सहाना जैसे कर्नाटक रागों की मदद काबू पाया जा सकता है। हिन्दुस्तानी रागों की मदद से पेट की समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। अम्लता की स्थिति में राग दीपक, कब्ज की स्थिति में गुनाकली और जौनपुरी, गंभीर दमा होने पर मिंया की मल्हार और दरबारी कनाडा, साइनस में भैरवी, सिरदर्द और एंग्जाइटी होने पर तोड़ी और पूरबी तथा नींद संबंधी समस्याओं के लिये काफी थाट और खमाज राग का इस्तेमाल किया जाता है। 
मलेरिया जैसे उच्च ज्वर को हिंडोल और मारवा रागों की मदद से और सिर दर्द को दरबारी कान्हड़ा, जयजयवंती अथवा सोहन रागों से दूर किया जा सकता है। अनिंदा के शिकार मरीजों को बागेश्री और दरबारी रागों की मदद से गहरी नींद में सुलाया जा सकता है। 
किराना घराना के प्रमुख गायक पंडित ए खान का कहना है कि संगीत चिकित्सा का वांछित असर तभी होता है जब उच्चकोटि के संगीत का इस्तेमाल किया जाये। चेन्नई के राग अनुसंधान केन्द्र और मैसूर के स्वामी गणपति सच्चिदानंद आश्रम में किये गये अनेक अध्ययनों के आधार पर  पंडित खान ने दावा किया है कि संगीत अंतःस्राव प्रणाली (इंडोक्राइन सिस्टम) की प्रमुख ग्रंथि- पिट्यूटरी ग्रंथि को स्पंदित करता है। आज जब रेकी, योगा और ध्यान जैसी गैर परम्परागत चिकित्सा पद्धतियां लोकप्रिय हो रही है वैसे में आने में समय में चिकित्सा के क्षेत्रा में संगीत के एक खास स्थान ग्रहन करने की संभावना बन गयी है। 


संगीत सुनने के दस सूत्र 
0 दिमाग से नहीं दिल से संगीत सुनें। 
0 संगीत का आनंद लें, उसका विश्लेषण करने नहीं बैठ जायें। 
0 दिल में चार बार उच्च स्तरीय संगीत सुनें।
0 संगीत सुनते हुये भोजन करने, ड्राइविंग, भोजन बनाने और स्नान करने जैसे कामों को आनंददायक बनायें। 
0 खाली पेट संगीत नहीं सुने
0 संगीत सुनने के समय गुनगुनायें, इससे संगीत सुनने के आनंद को दोगुना हो जायेगा। 
0 बच्चों में संगीत सुनने की आदत डालें।
0 मरीज के पास मधुर एवं सुरीला संगीत बजाये। तेज संगीत बजाने से बचें। 
0 घर में समृद्ध संगीत लाइब्रेरी बनायें। 


गर्मियों में भी दें त्वचा को नमी    

सर्दी में त्वचा की देखभाल के प्रति महिलायें जितना सतर्क रहती हैं गर्मी में उतना ही लापरवाह हो जाती हैं। सर्दी में त्वचा शुष्क और खुरदुरा हो जाती है इसलिए आम तौर पर लोग सर्दियों में ही त्वचा की खुश्की को दूर करने के लिए माॅइश्चराइजर का इस्तेमाल करते हैं लेकिन गर्मियों में भी त्वचा की सुरक्षा के लिए माॅइश्चराइजर का प्रयोग किया जाना बेहद जरूरी है क्योंकि सर्दी के मौसम में जहां तेज ठंडी हवाएं त्वचा से नमी को सोख लेती हैं वहीं गर्मी के मौसम में तेज गर्म हवाएं त्वचा में स्थित नमी को सोख लेती है। इसके अलावा उम्र बढ़ने का प्रभाव भी त्वचा की नमी पर पड़ता है। उम्र बढ़ने पर नमी में कमी होने से त्वचा में चिकनाहट और लचीलेपन में कमी आने लगती है जिससे त्वचा पर महीन झुर्रियां और सलवटें आने लगती हैं।
त्वचा को स्वस्थ बनाये रखने के लिए बचपन से ही क्लिंजर, टोनर और माॅइश्चराइजर का इस्तेमाल शुरू कर देना चाहिए। क्लिंजर के इस्तेमाल से त्वचा शुष्क नहीं होती है और त्वचा की अच्छी तरह से सफाई हो जाती है। त्वचा शुष्क होने पर खुरदरा हो जाती है और त्वचा की मृत कोशिकाएं रोम छिद्रों को बंद कर देती हैं और तेल त्वचा के अंदर ही जमा रह जाता है। 
त्वचा से तेल को कम करने के लिए लोग अक्सर साबुन का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन जिस तरह साबुन हमारे बालों को खराब करता है उसी तरह हमारे शरीर और चेहरे की त्वचा को भी खराब करता है क्योंकि हमारे बाल और त्वचा एक ही समान प्रोटीन से बने होते हैं और साबुन बालों पर जिस तरह की प्रतिक्रिया करता है उसी तरह की प्रतिक्रिया त्वचा पर भी करता है। साबुन या त्वचा को साफ करने वाले अन्य पदार्थ त्वचा से प्राकृतिक तेल को सोख लेते हैं जिससे त्वचा असुरक्षित हो जाती है। 
क्लिंजर और टोनर के इस्तेमाल से त्वचा साफ और चिकनी हो जाती है। लेकिन टोनर के इस्तेमाल से पहले यह देख लेना चाहिए कि उसमें अल्कोहल न हो क्योंकि अधिकतर एस्ट्रिंजेंट में अल्कोहल होते हैं। अल्कोहल का इस्तेमाल घावों की सफाई के लिए किया जाना चाहिए न कि चेहरे की सफाई के लिए। चेहरे की त्वचा बहुत संवेदनशील होती है इसलिए क्लिंजर या माॅइश्चराइजर का अल्कोहल रहित रहना जरूरी है। यह हर तरह की त्वचा के लिए सुरक्षित होता है।
त्वचा चाहे तैलीय हो या शुष्क, त्वचा की सुरक्षा के लिये माॅश्चराइजर का प्रयोग किया जाना बेहद जरूरी है। गर्मी के दिनों में तेज गर्म हवायें त्वचा से नमी सोखने लगती है लेकिन माॅश्चराइजर के प्रयोग से त्वचा में नमी की कमी नहीं होती है। यह त्वचा को मुलायम रखता है, त्वचा को मृत होकर पपड़ीदार होने से रोकता है, त्वचा के प्राकृतिक तेल के साथ मिलकर त्वचा की सुरक्षा करता है और त्वचा में नमी बनाए रखता है। यह त्वचा में प्राकृतिक लचीलापन बनाए रखता है और झुर्रियों को आने से भी रोकता है। माॅइश्चराइजर क्रीम और तरल रूप में मिलते हैं। इनका इस्तेमाल त्वचा की प्रकृति के अनुसार करना चाहिए। तैलीय त्वचा केे लिए हमेशा चिकनाई रहित माॅइश्चराइजर का इस्तेमाल करना चाहिए जबकि शुष्क त्वचा के लिए माॅइश्चराइजर में उचित मात्रा में चिकनाई होना आवश्यक है। माॅइश्चराइजर के इस्तेमाल से पहले फेशियल स्क्रब की सहायता से मृत त्वचा को हटा देना चाहिए। इसके लिए मुलायम स्क्रब का इस्तेमाल करना चाहिए।
अधिकतर लोग मुंहासे नजर आते ही उसे दबाना शुरू करते हैं। इससे मुंहासे का निचला हिस्सा त्वचा के अंदर चला जाता है और इस तरह यह कभी खत्म नहीं होता। इससे संक्रमण होने का भी खतरा होता है। मुंहासे की देखभाल करना बहुत कठिन है लेकिन सही देखभाल से मुंहासों को कम किया जा सकता है। मुंहासों के लिए एक्ने क्रीम का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि ये त्वचा को शुष्क कर देते हैं।
त्वचा में नमी के संतुलन को बनाए रखने के लिए शहद और ग्लिसरीन का भी प्रयोग किया जा सकता है। प्रतिदिन कम-से-कम दो बार क्लींजिंग मिल्क या क्रीम से चेहरे की सफाई करनी चाहिए और गर्मी के दिनों में फाउंडेशन लगाना अनिवार्य होता है। इससे चेहरे के दाग-धब्बे छिप जाते हैं। गर्मी की तेज धूप से त्वचा का रंग काला हो जाता है। फाउंडेशन लगाने पर चेहरे पर निखार आता है और त्वचा में एकरूपता आ जाती है। फाउंडेशन के बाद हल्का पाउडर लगाना चाहिये ताकि फाउंडेशन चेहरे पर बना रहे। पाउडर लगाने से चेहरे की रेखायें अथवा छोटी-मोटी झाइयां दब जाती हैं। रात को सोने से पहले नरिशिंग क्रीम से चेहरे की मालिश करनी चाहिए। अधिक रूखी त्वचा पर बादाम रोगन या बादाम से बनी क्रीम से मालिश की जा सकती है। धूप से त्वचा को झुलसने से बचाने के लिए चंदन और कमल की बनी क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है। 
शुष्क त्वचा की तुलना में तैलीय त्वचा गर्मी से अधिक प्रभावित होती है। ऐसी त्वचा की दिन में कम-से-कम दो-तीन बार एंटीसेप्टिक लोशन से सफाई करनी चाहिए ताकि चेहरे पर धूल-मिट्टी आदि चिपकने के कारण बाहरी संक्रमण न हो। चेहरे को कई बार फेस वाश से धोना चाहिए और चेहरे पर चिकनाई रहित माॅइश्चराइजर लगाना चाहिए। 


गर्मियों में फूड प्वाइजनिंग से कैसे बचें  

हमलोग वर्षों से पढ़ते और सुनते रहे हैं कि गर्मी के मौसम में खान-पान का विशेष ध्यान रखना चाहिए वरना खाद्य विषाक्तता (फूड प्वाइजनिंग) होने का खतरा रहता है। ऐसे में हमारे मन में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि फूड प्वाइजनिंग आखिर गर्मी के मौसम में ही क्यों होता हैै।
गर्मी के मौसम में फूड प्वाइजनिंग अधिक होने के लिये मौसम आदि में बदलाव जैसे प्राकृतिक कारणों के अलावा  हमारे खान-पान के गलत तौर-तरीके भी जिम्मेदार हैं। प्राकृतिक कारणों में सबसे सामान्य कारण जीवाणु हैं। वातावरण में मिट्टी, हवा, जल और यहां तक कि मनुष्यों एवं जानवरों के शरीर में भी जीवाणु मौजूद होते हैं। ये सूक्ष्म जीवाणु गर्मी के महीनों में बहुत तेजी से वृद्धि करते हैं। अधिकतर खाद्य जनित जीवाणु 90 से 110 डिग्री फारेनहाइट तापक्रम में सबसे तेजी से वृद्धि करते हैं। जीवाणु के फलने-फूलने के लिए नमी की भी जरूरत होती है और गर्मी का मौसम अक्सर गर्म और नमी भरा होता है। ऐसे वातावरण में हानिकारक जीवाणु खाद्य सामग्रियों पर आसानी से कई गुणा वृद्धि कर सकते हैं। ऐसा होने पर खाद्य पदार्थ विषाक्त हो जाता है।
खाद्य विषाक्तता मनुष्यों की गतिविधियों के कारण भी होती है। इस मौसम में लोगों का बाहर घूमना-फिरना बढ़ जाता है। कई लोग बाहर पिकनिक मनाने या कैम्पिंग ट्रीप में जाते हैं और वहां बाहर ही खाना बनाते हैं, कुछ लोग तो आग में सीक पर भी खाना बनाते हैं जिससे वहां रसोई घर जैसी सफाई नहीं मिल पाती है। ऐसे दूषित खाना खाने से लोग अक्सर बीमार हो जाते हैं। हालांकि जिन लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है वे न सिर्फ भोजन के हानिकारक जीवाणुओं बल्कि वातावरण के अन्य हानिकारक जीवाणुओं का भी सामना कर लेते हैं। हालांकि सरकारी एजेंसियां और खाद्य पदार्थों के उत्पादक खाद्य सामग्रियों के लंबे समय तक सुरक्षित होने का दावा करते हैं लेकिन इसके लिए खाद्य पदार्थों का उचित रख-रखाव जरूरी है।
गर्मी के मौसम में कुछ बातों का ध्यान रखकर हम खाद्य विषाक्तता से बच सकते हैं।
0 हाथ की ठीक से सफाई नहीं रखने पर खाद्यजनित बीमारियों का खतरा रहता है।
इसलिए जहां तक संभव हो खाद्य पदार्थों को हाथ में लेने से पहले, बाथरूम से आने के बाद, डायपर बदलने के बाद और पालतू जानवरों को छूने के बाद अपने हाथों को साबुन और गर्म पानी से साफ करें।
0 जब घर से बाहर कुछ खा रहे हों तो  पहले पता कर लें कि वहां साफ पानी उपलब्ध है या नहीं और अगर साफ पानी नहीं हो तो पैक किया हुआ खाद्य पदार्थ खरीदें। अपने साथ डिस्पोजेबल रूमाल या कपड़े रखें या गीला किया हुआ पेपर टाॅवल रखें। कुछ खाने से पहले उससे हाथों और वहां की सतह की ठीक से सफाई कर लें।  
0 अगर आप मांसाहारी हैं तो बाहर ले जाने के लिए खाना पैक करते समय कच्चे मांस को अन्य खाद्य पदार्थों से अलग रखें।
0 प्लेटों, अन्य बरतनों और चाकू वगैरह को साफ कर खाद्य पदार्थों से अलग रखें।
0 भोजन को तेज आंच में तैयार करें। इससे खाद्य विषाक्तता पैदा करने वाले हानिकारक जीवाणु मर जाते हैं। 
0 मांस और मुर्गी वगैरह को ग्रील करने पर अक्सर उसका बाहरी हिस्सा बहुत जल्द भूरा हो जाता है इसलिए यह पता कर लें कि वह ठीक से पका है या नहीं। मांस आदि के पूरी तरह से नहीं पकने पर उस हिस्से में जीवाणु पनप कर तेजी से वृद्धि कर सकते हैं। हैम्बर्गर या अन्य मांस (बछड़े, मेमना और सुअर का मांस) को 160 डिग्री फारेनहाईट और मुर्गी को 165 डिग्री फारेनहाईट पर पकाएं। स्टिक और रोस्ट किए हुए मांस को 160 डिग्री से 170 डिग्री फारेनहाइट में पकाएं। पूरी मुर्गी को 180 डिग्री फारेनहाइट पर पकाएं।
0 मांस, चिकन और आलू या अन्य सलादों को बर्फ में पैक कर, आइस पैक या बिल्कुल ठंडे पानी में फ्रीज में रखें।
0 पेय और खाद्य पदार्थों को अलग-अलग फ्रीज में रखें क्योंकि पेय पदार्थों वाले कूलर को बार-बार खोलना पड़ता है। 
0 कूलर को कार के सबसे ठंडे हिस्से में या छाया वाले स्थान पर सूर्य की धूप से दूर रखें।
0 फ्रीज को हमेशा अधिक तापक्रम पर रखें। तापमान कम करने पर बर्फ पिघलने लगेंगी जिससे जीवाणु पनप सकते हैं।
0 फ्रीज नहीं होने पर फलों, सब्जियों, कड़ी चीज, ब्रेड, मक्खन, क्रेकर या पेय पदार्थों को सीमित मात्रा में ही खरीदें।
0 फ्रीज से कोई खाद्य सामग्री निकालने पर उसका इस्तेमाल दो घंटे से पहले ही कर लें । इसके बाद वह सुरक्षित नहीं रह जाता है। 90 डिग्री फारेनहाइट या इससे अधिक तापमान पर कोई भी खाद्य सामग्री एक घंटे से अधिक समय तक नहीं छोड़ें। 
0 डिब्बाबंद पेय और खाद्य पदार्थों के इस्तेमाल से बचें। सभी डिब्बाबंद पेय और आहार 20 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड पर रखे जाने के लिए बनाए जाते हैं लेकिन गर्मियों में तापमान 40 से 45 डिग्री तक पहुंच जाता है जिससे इनमें विभिन्न रोगाणुओं को तेजी से पनपने का मौका मिल जाता है। ऐसे शीतल पेय, फलों के रस या अन्य डिब्बाबंद आहार के सेवन से खाद्य विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है। इनके सेवन के आठ घंटे बाद से खाद्य विषाक्तता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।


गर्मियों में संभल कर करें डियोडरेंट का इस्तेमाल

गर्मियों में लोग पसीने और दुर्गंध से निजात पाने के लिए दुर्गंधनाशकों (डियोडेरेंट) का जमकर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इनका लगातार और असावधानी पूर्वक इस्तेमाल हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
दुर्गंधनाशकों में मुख्य तौर पर पसीने को रोकने वाले रसायन होते हैं जो त्वचा के रोम छिद्रों को बंद कर पसीना निकलने की प्रक्रिया को बाधित कर दुर्गंध को रोकते हैं। लेकिन रोम छिद्रों के बंद होने से शरीर के तरल विषाक्त पदार्थों के निष्कासन में रूकावट पहुंचती है। तरल विष सामान्यतः यकृत और त्वचा से निकलते हैं। लेकिन जब त्वचा से विषाक्त पदार्थ बाहर नहीं निकल पाते हैं तो त्वचा निस्तेज हो जाती है और यकृत अधिक कार्य करने लगता है जिससे यकृत संबंधी बीमारियों के हाने का खतरा बढ़ जाता है। पसीना निकलने से न सिर्फ त्वचा स्वस्थ रहती है बल्कि इससे रक्त में आक्सीजन की आपूर्ति करने और रक्त को शुद्ध करने में भी सहायता मिलती है। लेकिन जब त्वचा के रोम छिद्र बंद हो जाते हैं तो इससे शरीर की महत्वपूर्ण 
गतिविधियां बाधित होती हैं और फेफड़ों को अधिक तनाव का सामना करना पड़ता है। दुर्गंधनाशक के अनवरत इस्तेमाल से त्वचा में एलर्जी भी हो सकती है और यह हमारे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है। ये विषैले पदार्थ रक्त में पहुंचकर रक्त को अशुद्ध कर देते हैं। 
अमरीका के क्लिनिकल टाॅक्सिकोलाॅजी आफ काॅमर्शियल प्रोडक्ट के अनुसार सभी दुर्गंधनाशक विषैले होते हैं लेकिन इनमें विषाक्तता का स्तर भिन्न-भिन्न होता है। विषाक्तता पैमाने पर इसकी विषाक्तता आम तौर पर एक से छह तक होती है। एक स्तर की विषाक्तता सामान्य मानी जाती है जबकि छह स्तर की विषाक्तता घातक होती है। बाजार में उपलब्ध दुर्गंधनाशकों की विषाक्तता आम तौर पर दो से तीन होती है और ये अधिक घातक नहीं होती है लेकिन इनके अधिक समय तक लगातार इस्तेमाल से स्वास्थ्य को खतरा पहुंच सकता है। 
दुर्गंधनाशक आमतौर पर क्रीम और पेंसिल या स्टिक के रूप में बाजार में उपलब्ध हैं।  क्रीम दुर्गंधनाशक में मुख्य तौर पर आक्सीक्विनोलिन सल्फेट होता है जो एक जाना माना विषैला रसायन है और यह केन्द्रिय तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। इसके अलावा इसमें फार्मलडिहाइड होता है जिसका इस्तेमाल शव संलेपन में किया जाता है और यह भी विषाक्त होता है। जिंक सल्फोकार्बाेनेट भी एक जाना माना कृमिनाशक है इसमें एस्ट्रिंजेंट गुण होने के कारण इसका इस्तेमाल भी दुर्गंधनाशक में किया जाता है। 
पेंसिल दुर्गंधनाशक में इन विषाक्त रसायनों के अलावा बेस बनाने के लिए पेट्रोलक्टम (पेट्रोलियम जेली का एक व्युत्पन्न) भी होता है। पेट्रोलक्टम त्वचा में जलन और त्वचा की कई बीमारियां पैदा करता है। पेंसिल दुर्गंधनाशक में सोडियम हाइड्रोक्साइड भी होता है जिसमें कास्टिक सोडा नामक रसायन भी होता है जिसका इस्तेमाल कपड़ा धोने के साबुन में किया जाता है। कास्टिक सोडा एक कड़ा क्षार है और यह वातावरण से भी नमी को सोख सकता है। इसके बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल से भी त्वचा में जलन हो सकती है। 
दुर्गंधनाशक बनाने के दौरान इन रसायनों के अलावा भी बेंजोइक अम्ल और क्लोरेट हाइड्रेट जैसे कई अन्य रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। ये रसायन इतने विषैले होते हैं कि इनमें से किसी रसायन को यदि कोई बच्चा चख ले तो उसके शरीर में ऐंठन हो सकती है और उसकी जान भी जा सकती है। क्लोरेट हाइड्रेट बहुत ही अधिक क्षयकारी होता है और इसका इस्तेमाल धातुओं को मजबूत और कड़ा बनाने के लिए किया जाता है। इसे थोड़ा सा भी चखने पर बेहोशी हो सकती है।
गर्मी के मौसम में शरीर को झुलसाने वाली गर्मी के कारण दुर्गंधनाशक जल्दी वाष्पीकृत नहीं हो पाते और विषैले गैसों में तब्दील हो जाते हैं। ये न सिर्फ इसका इस्तेमाल करने वाले लोगों को हानि पहुंचाते हैं बल्कि उसके आसपास के लोगों के भी शरीर में ये गैसें सांस के जरिये पहुंचकर उतनी ही हानि पहुंचाते हैं।
दुर्गंधनाशक को पसीनारोधी भी माना जाता है लेकिन ये न तो सही मायने में पसीना को रोकते हैं और न ही दुर्गंध को ही रोक पाते हैं क्योंकि ये त्वचा के रोम छिद्रों को बंद कर पसीना निकलने के प्राकृतिक प्रवाह को ही बंद कर देते हैं। यही नहीं ये लाभदायी जावाणुओं को भी मार देते हैं। रोम छिद्रों के बंद हो जाने से शरीर से प्राकृतिक तेल भी बाहर नहीं निकल पाते हैं जो कि त्वचा को स्वस्थ बनाये रखने और कांति पैदा करने के लिए जरूरी है। इसके कारण मुंहासे और ब्लैक हेड्स की समस्या उत्पन्न हो जाती है।


हिंसा से त्रस्त आधी दुनिया के लिये आधा कानून

घर की चाहरदीवारी के भीतर होने वाली हिंसा से औरतों को बचाने के मकसद से बनाया गया ''घरेलू हिंसा निषेध कानून 2005'' पिछले दिनों लागू कर दिया गया। हालांकि इस कानून का मसौदा केन्द्र सरकार ने साल भर पहले ही तैयार कर लिया था लेकिन घरेलू हिंसा को व्यापक रूप से परिभाषित करने और कुछ और प्रावधानों को शामिल करने की मांग को देखते हुये इसके क्रियान्वयन को तब स्थगित कर दिया गया था। घरेलू हिंसा रोकने संबंधी विधेयक पिछले वर्ष अगस्त में संसद में पारित हुआ था। 13 सितंबर, 2005 को राष्ट्रपति की संस्तुति से इसे कानून को दर्जा मिला। तबसे महिला संगठन इसे जल्द लागू कराने का प्रयास कर रहे थे। शुरू में इस कानून के तहत महिलाओं को पति व बिना विवाह साथ रह रहे पुरुष और उसके रिश्तेदारों के हाथों हिंसा से बचाने की बात थी। लेकिन आखिरकार पत्नी व बिना विवाह साथ रह रही महिला के अलावा मां, बहन व अन्य महिला रिश्तेदारों को भी इसके तरह संरक्षण देने का फैसला किया गया। 


महिलाओं के खिलाफ तेजी से बढ़ रही घरेलू हिंसा के मद्देनजर इस कानून को लागू किया जाना महिलाओं को सुरक्षित वातावरण मुहैया कराने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। स्वयंसेवी संस्थायें एवं महिला संगठन लंबे अर्से से वैसे विशेष कानून की मांग कर रहे थे जो बंद दरवाजों की पीछे होने वाले हिंसक बतार्व को रोकने, महिलाओं को सुरक्षा दिलाने तथा दोषियों को सजा दिलाने में कारगर साबित हो सके। 


हमारे समाज में यह कानून इस मायने में महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे समाज में हिंसा की सबसे ज्यादा शिकार महिलायें ही होती हैं, उनके उत्पीड़न की सबसे ज्यादा घटनाओं में परिजनों का हाथ होता है और आरोपियों को सजा न मिल पाने की सबसे उंची दर औरतों के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामले में ही होते हैं। 


इस कानून के तहत घर में रह रही किसी भी महिला के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन और शरीर को कोई नुकसान या चोट पहुंचाना, शारीरिक या मानसिक कष्ट देना अथवा ऐसा करने की मंशा रखना, यौन उत्पीड़न करना, गरिमा व प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना, गाली गलौज करना, रौब जमाना, बच्चे न होने या पुत्र न होने पर ताने मारना, अपमानित करना या पीड़ा पहुंचाने की धमकी देना घरेलू हिंसा के दायरे में आयेगा। यही नहीं, महिला के आर्थिक और वित्तीय संसाधनों तथा जरूरतों को पूरा न करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आएगा। इस कानून में सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह है जिस घर में महिला रह रही है उसे वहां से निकाला नहीं जा सकेगा। इस कानून में पीड़ित महिला की मदद के लिए एक संरक्षण अधिकारी और गैर सरकारी संगठन की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया है जो पीड़ित महिला की मेडिकल जांच, कानूनी सहायता, सुरक्षा और छत मुहैया कराने जैसे काम देखेंगे। कानून के तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा को दंडनीय और गैर जमानती अपराध माना गया है और अपराधी को एक साल की कैद या 20 हजार रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। इस कानून में इस बात का भी उल्लेख है कि पीड़ित महिला के पक्ष में मजिस्ट्रेट के आदेश के उल्लंघन पर क्या कार्रवाई होगी।


हमारे समाज में महिलाओं के खिलाफ सदियों से हो रहे अत्याचारों खास तौर पर घरों की चाहरदीवारी में हो रही हिंसा का सीधा संबंध पुरूष मानसिकता से है जिसके कारण पुरूष अपने को श्रेष्ठ और महिला को निकृष्ठ मानता है। महिलाओं के खिलाफ जारी हिंसा को समाप्त करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारी परम्परागत सोच है और इस कारण महिलाओं के खिलाफ जारी हिंसा को रोकने के  कानून को कारगर तरीके से लागू करने के लिये सबसे अधिक जरूरत परम्रागत सोच को बदलने तथा जागरूकता कायम करने की है। औरतों को सम्पत्ति, वस्तु और भोग्या मानने की मानसिकता से ग्रस्त हमारे समाज में औरतों को पीटना एवं उन्हें प्रताड़ित करना मर्दों का मूल अधिकार माना जाता हैं। महिलाओं को सदियों से पुरूषों की संरक्षण में रहने की सीख दी जाती रही है। यह कहा जाता रहा है कि औरत को जीवन भर किसी न किसी पुरूष के संरक्षण में रहना चाहिये - बचपन में पिता के संरक्षण में, युवावस्था में पति के संरक्षण में और बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में। ऐसे में महिलायें अपने पतियों, बेटों, अथवा घर के अन्य सदस्यों के हाथों पिटना एवं उनकी कू्ररता का शिकार होना अपना नियति समझ कर चुपचाप सहती रहती हैं। यह मानसिकता आज भी नहीं बदली है। 


यह पाया गया है कि घरेलू हिंसा की शिकार ज्यादातर महिलायें अशिक्षित या कम शिक्षित होती हैं इसलिए वे आर्थिक रूप से अपने आप को सहारा नहीं दे पातीं। ज्यादातर महिलाओं के लिये पति के घर के अतिरिक्त कोई और आश्रय नहीं होता है, इसलिए पति के हाथों होने वाली हिंसा को सहन करती रहती हैं। पति की हिंसा की शिकार ज्यादातर महिलायें अपने पिता के घर नहीं जा पाती हैं क्योंकि या तो उनके पिता की मृत्यु हो चुकी हो चुकी होती है या वे सामाजिक लांछन के डर से बेटी को रखने में समर्थ नहीं होते। आम तौर पर पुलिस भी घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला की कोई मदद नहीं करती। इस तरह, घरेलू हिंसा से पीड़ित ज्यादातर महिलाओं को उसी स्थिति में रहना पड़ता है।


संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15-49 वर्ष की 70 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं। नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो के अनुसार पति और रिश्तेदारों द्वारा महिलाओं पर हिंसा के मामलों में पिछले एक साल में 9.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 


आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में घरेलू हिंसा के 55 हजार 439 मामले दर्ज हुए जिनकी संख्या वर्ष 2003 में 50 हजार 703 थी। यह हालत तो तब है जबकि घरेलू हिंसा के ज्यादातर मामले थानों तक जाते ही नहीं हैं। गरीब और अनपढ़ ही नहीं, पढ़ी-लिखी और संपन्न महिलाएं भी घरेलू हिंसा की यंत्रणा भोगती रहती हैं। घरेलू हिंसा के  जो मामले दर्ज भी होते हैं उनमें से ज्यादातर में अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती। यह इस तथ्य से भी जाहिर है कि देश भर में बलात्काार के करीब 49 हजार मामले आज तक लंबित हैं। यह पाया गया है कि बलात्कार के 100 में से 84 मामलों में अपराधी पीड़ित महिला का परिचित ही होता है। बलात्कार के हर 10 में से तीन मामलों में पड़ोसी ही आरोपी होता है। 


घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाने के मार्ग में जो मुख्य बाधायें हैं उनमें परम्परागत सोच, सामाजिक लांछन और आर्थिक पराधीनता के अलावा जटिल और लंबी कानूनी प्रक्रियायें भी हैं। पति के अत्याचार या घरेलू हिंसा की जो महिलायें शादी के बंधन से मुक्त होना चाहती हैं उन्हें कानून का सहारा या तो मिलता ही नहीं या लंबे समय के जद्दोजहद के बाद तब मिलता है जब उस सहारे की कोई औचित्य ही नहीं रहता है। जिन महिलाओं को शादी के बाद जान का खतरा बना हुआ है उन्हें भी शादी के बंधन से आजाद होने की दिशा में कोई कानूनी मदद नहीं मिल पाती है। भारत में तलाक के लिये वैवाहिक संबंधों में न सुधरने वाली दरार होना मात्र ही पर्याप्त कारण नहीं समझा जाता। अदालतों में बच्चों के स्वामित्व को लेकर होने वाले विवादों का निपटारा भी पौराणिक तरीकों से किया जाता है। ऐसे विवादों में वैवाहिक सम्पत्ति, स्त्री धन की वापसी और गुजारा भत्ता आदि भी शामिल है जिसे स्त्री के हितों के खिलाफ ही आंका जाता रहा है। पर्याप्त जन अदालतों के अभाव में महिलाओं को तलाक के निपटारे के लिए मजबूरन पुलिस और अनुच्छेद 498 ए का सहारा लेना पड़ता है। एक गुमराह पति की स्वीकृति मात्र से भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) के अनुच्छेद 498 ए के तहत तलाक नहीं मिल जाता। महिला को अदालत में जाना पड़ता है और थाने में पति के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराना पड़ता है। अगर वह अपने पति पर आर्थिक रूप से निर्भर है और पति को जेल हो जाए तो गुजारा भत्ते का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। इसलिए महिलाएं सभी वैवाहिक विवादों के जल्द निपटारे के लिए अनुच्छेद 498 ए का प्रयोग करती हैं। पति की क्रूरता के 81 प्रतिशत मामलों का निपटारा नहीं हो पाता। प्रत्येक एक लाख की जनसंख्या में पति या रिश्तेदारों की क्रूरता के मामले 4.4 दर्ज होते हैं जबकि दहेज हत्या के 0.7 और यौन उत्पीड़न के 0.9 अपराध होते हैं। इसी प्रकार पति या रिश्तेदारों की बर्बरता के मामलों में गिरफ्तारियों का प्रतिशत मात्र 10.3 है। इसलिए एक महिला के लिए कोई ऐसा रास्ता नहीं है जिसमें उसे आपात स्थिति में राहत मिल सके। चाहे वह हिंसा से सुरक्षा हो, पति के घर से निकाला जाना हो, पति को सम्पत्ति बेचने से रोकना हो, बैंक लाॅकर खाली करना हो अथवा अपने बच्चों से अलग करके उनके साथ रहने का अधिकार छीनना ही क्यों न हो। परिणामस्वरूप उत्पीड़ित महिला को अपने जायज हक से कम पर ही संतोष करने पर मजबूर होना पड़ता है। उत्पीड़न की शिकार महिलाएं आईपीसी के अनुच्छेद 498 ए के तहत मानसिक और शारीरिक बर्बरता का आपराधिक मामला दर्ज करा सकती हैं और इन्हीं के आधार पर तलाक का मामला भी दर्ज हो सकता है। लेकिन अदालती फैसला आने में लगने वाले लंबे समय के कारण महिला को आपसी सहमति के आधार पर ही तलाक लेना पड़ता है। 


जाहिर है कि घरेलू हिंसा (निरोधक) विधेयक घरेलू हिंसा से त्रस्त महिलाओं की समस्याओं को पहचानने और उन्हें राहत दिलाने की दिशा में एक अच्छा कदम साबित हो सकता है। सवाल है तो बस यह कि नया कानून कहां तक व्यावहारिक हो पायेगा। यह कानून रातों रात नहीं बना बल्कि इसे बनाने और लागू करवाने के लिए तमाम महिला संगठनों ने खासा संघर्ष किया है। और जिन संगठनों ने इसके लिए संघर्ष किया है उन्हें यह अच्छी तरह पता है कि अमलीकरण का असली संघर्ष तो इसके बाद शुरू होगा। घरेलू हिंसा निषेध कानून को किताबों से लाकर आम औरतों के लिए रोजमर्रा की जिंदगी की हिंसा से बचने की ढाल बनाना बड़ी चुनौती है। इसलिए भी, कि इस रास्ते की बाधांएं ज्यादा बड़ी है और इसलिए भी कि किसी राजनैतिक संघर्ष से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है परंपरानिष्ठ समाज की मान्यताओं से लड़ना जरूरी यह है कि इस कानून का इस्तेमाल किसी हथियार की तरह करने और प्रतिघात न्योतने की बजाय इसे औरतों की सशक्तिकरण की सकारात्मक मुहिम का हिस्सा बनाया जाए। 


आम तौर पर औरतें घरेलू हिंसा समेत बहुत सारे अन्याय उन्हें अपनी किस्मत मानकर सहती रहती हैं। ऐसे कानून तभी कारगर हो सकते हैं, जब पीड़ित पक्ष को यह जानकारी ही नहीं यह भरोसा भी दिलाया जाए कि अन्याय उसकी किस्मत नहीं है। उसे इससे मुक्ति मिल सकती है और इस मामले में उसकी मदद के लिए न सिर्फ कानून वरन पूरी सामाजिक व्यवस्था उसके साथ है। स्त्री अधिकार को लेकर एक संवेदनशील सामाजिक व्यवस्था का बनाना और उसका भरोसा दिलाना कानून बनाने जितना ही महत्वपूर्ण है ताकि उत्पीड़िता को यह न लगे कि यदि वह कानून का इस्तेमाल करती है तो पूरा जमाना उसका दुश्मन  बन जाएगा। उसे यह भरोसा रहे कि वह कानून का इतेमाल करने के बाद भी वह समाज में सम्मान से जी सकेगी। इसके साथ ही यह जरूरी है उस मशीनरी की मानसिकता को बदलना, जो इसे निचले स्तर पर लागू करेगी। मसलन बलात्कार के मामलों में अक्सर यह शिकायत रहती है कि जब कोई पीड़ित औरत थाने रपट लिखाने जाती है तो वहां उसे सहानुभूति की बजाय उसे अक्सर उसी नजर से देखा जाता है जिस नजर से बलात्कार करने वालों ने देखा था। घरेलू हिंसा के मामलों में भी ऐसे ही खतरे हैं। एक लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए हमें ऐसी तमाम छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़नी होगी। घरेलू हिंसा निषेध कानून तो इस दिशा में एक कदम भर है।


क्या है घरेलू हिंसा कानून के प्रावधान एवं उसकी प्रकृति 


घरेलू हिंसा कानून को पांच अध्याय में बांटा गया है। पहले अध्याय में मुख्य बातों को परिभाषित किया गया है। दूसरे अध्याय में घरेलू हिंसा के मुद्दे के बारे में विशेष वर्णन किया गया है और इस घरेलू हिंसा की अवधारणा में निहित विभिन्न पहलुओं की व्याख्या करने की कोशिश की गई है। तीसरे अध्याय में सुरक्षा अधिकारियोें और सेवा प्रदाताओं के अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्याख्या की गई है। चैथे अध्याय में राहत पाने के लिये प्रक्रियाओं एवं कार्यवाहियों की व्याख्या की गयी है। पांचवें अध्याय में दंड, अपराध की प्रकृति और सुरक्षा अधिकारियों और सेवा प्रदाताओं की स्थिति के बारे में बताया गया है। 


पहले अध्याय में तीन परिभाषाएं हैं जो इस कानून के कारगर क्रियान्वयन के लिये महत्वपूर्ण हैं। ये परिभाषायें पीड़िता  के पारिवारिक संबंध और साझी गृहस्थी के बारे में है। 


इस कानून में पीड़ित व्यक्ति (धारा 2ए) की परिभाषा उस महिला के रूप में की गई है जिसका प्रतिवादी के साथ पारिवारिक संबंध रहा हो और जिसने प्रतिवादी द्वारा की गयी किसी प्रकार की घरेलू हिंसा का शिकार होने का आरोप लगाया हो। इसका अर्थ यह हुआ कि पीड़ित व्यक्ति निश्चित तौर पर महिला हो और उसका कोई पारिवारिक संबंध होगा। 


इस कानून में पारिवारिक/घरेलू संबंध (धारा 2 एफ) को एक ही घर में एक साथ रहने वाले दो व्यक्तियों के संबंध के रूप में परिभाषित किया गया है जो साझी गृहस्थी में रह रहे हैं और जिनके बीच समरक्तता, विवाह या विवाह जैसे अन्य संबंधों के कारण रिश्ते हैं, या गोद लिये जाने अथवा संयुक्त परिवार के सदस्य के तौर पर एक दूसरे के साथ रहने के कारण एक दूसरे के बीच संबंध है। इस तरह से, कानून में साझी गृहस्थी में एक साथ रहने और परिवार जैसे किसी रिश्ते की बात कही जाने के कारण इस कानून का दायरा व्यापक बन गया है। 


मौजूदा समय में बाल यौन दुव्र्यहार के मुद्दे के लिए कोई विशेष कानून नहीं है और इसे इस कानून के दायरे में  लाया जा सकता है। इसके अलावा (साझी गृहस्थी) (धारा 2 एस) का उल्लेख किये जाने पर इसमें वह घर शामिल होता है जिस पर मालिकाना हक पीड़ित व्यक्ति और प्रतिवादी के नाम संयुक्त तौर पर हो सकता है या नहीं भी हो सकता है। इसमें किराये का घर भी शामिल हो सकता है। इस परिभाषा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यदि अत्याचार करने वाला व्यक्ति और पीड़ित व्यक्ति वैसे घर में एक साथ रहते आये हों जो कि उनके नाम नहीं, बल्कि संयुक्त परिवार के नाम है, तो भी यह साझी गृहस्थी मानी जाएगी, भले ही पीड़ित व्यक्ति अथवा अत्याचार करने वाले व्यक्ति का साझी गृहस्थी में कोई हक, हिस्सा या उसका सरोकार हो या नहीं। 


इस कानून में सुरक्षा अधिकारी और सेवा प्रदाता की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया है जो घरेलू हिंसा की पीड़िता के लिये मुख्य सहायक के रूप में काम करते हैं। उनके कार्यों की व्याख्या तीसरे अध्याय में की गई है। 


दूसरे अध्याय में (घरेलू हिंसा) (धारा 3) की व्यापक परिभाषा दी गयी है। जिसमें सभी प्रकार की हिंसा और शारीरिक, मानसिक, यौन, मौखिक और आर्थिक दुव्र्यवहार जैसे सभी तरह के अत्याचार शामिल हैं। इसके अलावा  इसके दायरे में कोई कार्य, अनाचरण/कार्याधिकार या प्रतिवादी द्वारा पीड़ित व्यक्ति को क्षति, चोट या उसके स्वास्थ्य, सुरक्षा और तंदुरुस्ती को खतरे में डालने जैसे व्यवहार भी शामिल हंै। यह परिभाषा घरेलू हिंसा के समाधान के लिए मुख्य आधार तैयार करती है और यह घरेलू हिंसा को कारगर तरीके से रोकने तथा इससे पीड़ित व्यक्ति को क्षति-पूर्ति दिलाने में मददगार साबित होती है। यह परिभाषा इस कानून के तहत विभिन्न प्राधिकरणों के जरिये इसके क्रियान्वयन के लिये आधार तैयार करता है। 


इस कानून के क्रियान्वयन के लिये संरक्षक अधिकारी और सेवा प्रदाताओं की नियुक्ति जरूरी है जिनके अधिकारों और कर्तव्यों की व्याख्या अध्याय तीन में की गयी है। संरक्षक अधिकारी की नियुक्ति हर जिले में होगी तथा राज्य सरकार उसके कार्यक्षेत्र को अधिसूचित करेगी। (धारा 9) इनके निम्नलिखित कार्यक्षेत्र हैं। 


- इस कानून के तहत अपनी जिम्मेदारियां निभाने वाले मजिस्ट्रेट की सहायता करना
- घरेलू हिंसा की रिपोर्ट तैयार करना 
- निर्धारित प्रपत्र में मजिस्ट्रेट के लिये एक आवेदन तैयार करना 
- कानूनी सहायता की उपलब्धता को सुनिश्चित करना 
- सेवा प्रदाताओं की एक सूची देना
- यह सुनिश्चित करना कि कानूनी सहायता उपलब्ध करायी गई है
- पीड़िता के लिये आश्रय की व्यवस्था करना
- कानूनी कार्यवाही शुरू करने के लिये आवश्यक कदम उठाना
- यह सुनिश्चित करना कि चिकित्सकीय जांच जल्द से जल्द हो
- अगर पीड़िता को चोट लगी है तो मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट देना 
- अगर किसी तरह की आर्थिक राहत का आदेश मिला है तो यह सुनिश्चित करना कि पीड़िता को वह राहत मिले।


यह बात नोट की जानी चाहिए कि संरक्षण अधिकारी मजिस्ट्रेट के सीधे नियंत्रण एवं उनकी निगरानी में है। 
इस कानून में सेवा प्रदाता (धारा 10 ) का प्रावधान किया गया है जो कोई भी स्वैच्छिक संस्था/एन जी ओ/कंपनी हो सकती है जो कानूनी/चिकित्सकीय/वित्तीय सहायता जैसे कानूनी तरीकों से महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से स्थापित हो और यह संस्था/कंपनी राज्य सरकार के पास पंजीकृत हो। 


सेवा प्रदाता को निम्नलिखित कार्य सौंपे गये हैं
घरेलू हिंसा की रिपोर्ट तैयार करना और उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना
पीड़िता को चिकित्सकीय सहायता की उपलब्धता सुनिश्चित करना और संरक्षण अधिकारी तथा स्थानीय पुलिस थाने को रिपोर्ट प्रेषित करना 
पीड़िता के लिये आश्रय में रहने आदि की व्यवस्था करना तथा कार्यवाही आरंभ करने के लिये स्थानीय पुलिस थाने को रिपोर्ट प्रेषित करना ,
इस कानून के अध्याय चार में समुचित उपाय किये जाने की प्रक्रियाओं के बारे में विस्तार से उल्लेख है। 


मस्जिेट्रेट के अधिकारों के ब्यौरे निम्नलिखित हैं- 
- मजिस्ट्रेट की ओर से पीड़िता/संरक्षण अधिकारी अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रथम श्रेणी के दंडाधिकारी को आवेदन दिया जा सकता है। 
- फैसला सुनाने के दौरान संरक्षण अधिकारी/सेवा प्रदाता की रिपोर्ट पर गौर किया जाना जरूरी है।
- पीड़िता केा आर्थिक राहत देने का आदेश दिया जा सकता है। यह फैसला पीड़िता को हुयी क्षति या चोट के मुआवजे के लिये अन्य व्यक्ति या निकाय से संपर्क करने के पीड़िता के अधिकार से स्वतंत्र होगा। 
- यह भी कहा गया है कि आवेदन पर तीन दिन के भीतर विचार लिया जाना चाहिए और 60 दिन के भीतर उसके बारे में कोई फैसला सुनाया जाना चाहिए।
- यह भी कहा गया है कि कानूनी कार्यवाही शुरू होने के दो दिन के भीतर प्रतिवादी को नोटिस दिया जाना चाहिए  तथा ड्यूटी निभाने वाले संरक्षण अधिकारी की यह जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी कि नोटिस संबंधित व्यक्ति को मिल जाये। अगर मजिस्ट्रेट को जरूरी लगे तो कानून में कल्याण विशेषज्ञों के जरिये काउंसलिंग एवं सहायता देने का भी प्रावधान है। मामले की सुनवाई बंद कमरे में भी करने का प्रावधान है बशर्ते मजिस्ट्रेट को यह जरूरी लगे।


इस कानून की एक महत्वपूर्ण एवं अनोखी विशेषता यह है कि यह कानून पीड़िता को उसी मकान में रहने का अधिकार देता है जिसमें वह पीड़ित के साथ पहले से रह रही थी भले ही उसके पास उस मकान के संबंध में कोई अधिकार/टाइटिल या बेनेफिशियल इंटरेस्ट हो या नहीं। पीड़िता को पीड़ित व्यक्ति द्वारा मकान से निकाला या हटाया नहीं जा सकेगा अगर यह कानूनी प्रक्रियाओं के अनुसार हो।


पीड़िता के लिये जो समाधान उपलब्ध है वे हैं - संरक्षण आदेश (धारा 18), आवास आदेश (धारा 19), आर्थिक राहत (धारा 20) और मुआवजा आदेश (धारा 24)


आंकड़ों में घरेलू हिंसा 
- भारत में प्रतिदिन 26 वें मिनट में महिला का उत्पीड़न।
- 34 वें मिनट में बलात्कार।
- 42 वें मिनट में यौन उत्पीड़न।  
- 43 वें मिनट में महिला का अपहरण।
- 93 वें मिनट में जलाई जाती है एक महिला।
- अमेरिका में हर 18 मिनट में महिला की पिटाई।
- कोलंबिया में महिला मरीजों में 20 प्रतिशत घरेलू हिंसा की शिकार। 
- ब्रिटेन में हर तीसरे परिवार में एक महिला उत्पीड़ित।
- आस्ट्रिया में 1500 तलाकशुदा महिलाओं में 59 प्रतिशत ने घरेलू हिंसा के चलते लिया तलाक।


घरेलू हिंसा निषेध कानून के तहत निम्न आचरण अपराध माने गये हैं 


शारीरिक हिंसा
0 मारपीट, डांटना
0 थप्पड़ मारना
0 धक्का देना
0 किसी भी तरह की शारीरिक चोट पहुंचाना


यौन हिंसा
0 सेक्स संबंध स्थापित करने के लिए मजबूर करना
0 अश्लील फिल्म, साहित्य या चित्र देखने के लिए बाध्य करना अथवा ऐसी कोई हरकत करना जो महिला के सम्मान को ठेस पहुंचाती हो
0 बालिकाओं से यौन दुव्र्यवहार करना


आर्थिक हिंसा
0 महिला व बच्चों को भरण-पोषण के लिए पैसा नहीं देना
0 महिला व बच्चों को खाना, दवाइयां आदि न उपलब्ध कराना
0 नौकरी करने में बाधा डालना
0 अपने वेतन का उपभोग न करने देना
0 घर से बाहर निकाल देना
0 यदि किराए के मकान में रह रही है तो तो किराया न देना
0 घरेलू सामान का उपयोग करने से रोकना


मौखिक व भावनात्मक हिंसा
0 बेइज्जत करना
0 नाम लेकर फिकरे कसना
0 महिला के चरित्र व कार्यों पर आक्षेप करना
0 लड़का नहीं पैदा करने के लिए ताने देना
0 नौकरी करने से रोकना
0 शादी के लिए बाध्य करना
0 आत्महत्या की धमकी देना
0 अन्य कोई भी मौखिक व भावनात्मक हिंसा


पारिवारिक परामर्श केंद्र
परिवार परामर्श केंद्र में मौजूद पुलिस के आला अधिकारी वर्दी और डंडे के जोर पर सारे मामले चुटकियों में हल कर देते हैं। न कोई नुकर, न कोई विरोध और न ही कोई सवाल। पतिदेव सिर्फ हां और जी हां में जबाब देते हुए अपनी  अर्धांगिनी को साथ लेकर घर की ओर चल देता है। फाइलों में एक मामला 'निपट'जाता है। 


इधर वर्दी के सामने भीगी बिल्ली बने पतिदेव घर पहुंचते ही सिंह रूप धारण कर लेते हैं और पुलिस से मिली गालियों और दुत्कार से पैदा हुई कुंठा को अपनी पत्नी और बच्चों पर निकालते हैं। नतीजा यह होता है कि घर बसने की रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फिर जाता है। झिड़कियों और डांट के सामने कबूल किए गए बयान और वादे केंद्र से बाहर निकलते ही उपशब्दों और हाथापाई में बदल जाते हैं। कई मामले ऐसे भी पाए गए हैं, जहां अपमान का बदला पति ने पत्नी को मारपीट कर पूरा किया है। पतिदेव के गुस्से का ग्रास बन चुकी महिलाएं दूसरी बार डर के मारे परामर्श-केंद्र में जाने की हिम्मत नहीं करती और पुलिस उनकी परवाह भी नहीं करती।


सन 1995 में परिवार-परामर्श केंद्र में 265 मामले और इस वर्ष 30 अप्रैल तक 71 मामले दर्ज किए गए, लेकिन किसी भी मामले की समीक्षा नहीं की गई। मामलों की खानापूर्ति करते हुए इन्हें एक ही सुनवाई में या तो निपटा दिया जाता है या फिर तलाक का मामला बताकर कोर्ट में खदेड़ दिया जाता है। 


दंपतियों की परेशानियों को गंभीरता से समझने और उन्हें सहजता से रास्ता बताने के लिए परामर्श केन्द्र में माजशास्त्रियों को भी नहीं बिठाया जाता। इसके कारण उनकी समस्या जस की तस बनी रहती है।    


 


सर्जरी का बदलता परिदृृश्य

एक युवती सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो जाती है। मस्तिष्क में लगी गहरी चोट के कारण वह बेहोश हो जाती है। मौके पर पहुंचे एक आपातकालिक चिकित्सक तत्काल अपनी जेब से अत्यन्त छोटी पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड मशीन से युवती के मस्तिष्क की स्कैनिंग करते हैं तथा प्राप्त जानकारियों एवं तस्वीरों को मोबाइल फोन के जरिए जर्मनी के एक अत्याधुनिक अस्पताल को डिजिटल रूप में भेज देते हैं। उस अस्पताल में डिजिटल तस्वीरों के विश्लेषण से मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त हिस्से की नसों तथा मस्तिष्क में रक्त स्राव का पता लगा लिया जाता है। जर्मन अस्पताल के वरिष्ठ शल्य चिकित्सक आनन-फानन में आपात आपरेशन की पूरी रूपरेखा तैयार करते हैं। तब तक घायल युवती को बोस्निया के स्थानीय अस्पताल में भर्ती करके उसे आपरेशन के लिए तैयार किया जाता हैै। बोस्निया से सैकड़ों किलोमीटर दूर जर्मनी में बैठे शल्य चिकित्सक इंटरनेट के जरिए बोस्निया के अस्पताल के रोबोट को आपरेशन के बारे में निर्देश देते हैं और रोबोट दूर बैठे चिकित्सक के निर्देश के अनुसार आपरेशन करता जाता है। आपरेशन सफल होता है और युवती जल्द ही स्वस्थ हो जाती है। स्वस्थ होने पर युवती उस शल्य चिकित्सक से मिलने जर्मनी जाती है, जिसने हाथ लगाए बगैर उसका सफल आपरेशन किया था। 
यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि हकीकत है। आज इस तरह की सर्जरी हालांकि बहुत कम होती है लेकिन भविष्य में इंटरनेट और रोबोट की मदद से दूर से होने वाली सर्जरी (दूर सर्जरी) आम हो जायेगी। भविष्य में शल्य चिकित्सक आपरेशन कक्ष में यहां तक कि उसी शहर या देश में मौजूद रहे बगैर मीलों दूर से मरीजों के आपरेशन कर सकेंगे। 
मीलों दूर से सर्जरी 
इस तरह के आपरेशन कुछ समय पूर्व अमरीका के पेनसिल्वया स्टेट युनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने भी किये थे। इन अनुसंधानकर्ताओं ने इंटरनेट से जुड़े रोबोट की मदद से 17 मरीजों की सफल शल्य चिकित्सा करके भविष्य में सैकडों-हजारों मील दूर से की जाने वाली सर्जरी का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इन अनुसंधानकर्ताओं ने दिल के मरीजों की दूर से सर्जरी करने के लिये रोबोटिक आर्म की मदद से मरीजों के शरीर में बहुत छोटा छिद्र करके कम्प्यूटर संचालित अत्यंत छोटा कैमरा फिट कर दिया। शल्य चिकित्सक के निर्देश पर काम करने वाले और सर्जन की गतिविधियों की नकल करने वाले कम्प्यूटर तक डाक्टर के हाथों की गतिविधियां प्रेषित की गयी। इस कम्प्यूटर के ने डिजिटल टेक्नोलाॅजी की मदद से आपरेशन कक्ष के शल्य टेबल से जुड़े दो रोबोटिक हाथों को निर्देशित करते हुये आपरेशन को अंजाम दिया। इस तकनीक की मदद से पिछले दस महीनों में 17 मरीजों का आपरेशन किया गया है और अब सभी मरीज सकुशल हैं। किसी भी मरीज को रोबोट आधारित आपरेशन के कारण, आपरेशन के दौरान या बाद में किसी तरह की परेशानी या जटिलतायें नही हुयी । 
ऐसी ही एक और घटना में न्यूयार्क के चिकित्सकों की एक टीम ने फ्रांस के अस्पताल में भर्ती एक 68 वर्षीय महिला के गाॅल ब्लाडर का आपरेशन रोबोट के जरिए किया। हालांकि ऐसी घटनाएं भले ही चमत्कार की तरह लगती हैं, लेकिन आज भी दुनिया के कम से कम 100 अस्पतालों में रोबोटिक सर्जरी के ये चमत्कार रोजमर्रे की आम घटनाएं की तरह है। इंटरनेट, रिमोट कंट्रोल, मोबाइल और रोबोट के इस्तेमाल की बदौलत हासिल हुई इन तकनीकी कामयाबियों के आज क्रांतिकारी परिणाम सामने आ रहे हैं। 
रोबोटिक सर्जरी
नवीनतम शल्य तकनीकों के माध्यम से आज कोई भी चिकित्सक दुनिया के किसी भी हिस्से में जटिल से जटिल  आॅपरेशन कर सकता है या आपरेशन में भागीदारी कर सकता है। आज सिर्फ मनोरंजन, संचार एवं सूचना तथा परिवहन के क्षेत्र में ही नहीं, चिकित्सा के क्षेत्र में दूरियों का खात्मा हो गया है। मरीज चाहे युद्ध मैदान में घायल पड़ा सिपाही हो या अंतरिक्ष में बीमार कोई अंतरिक्ष यात्री, उसका इलाज और जरूरत पड़ने पर आपरेशन तत्काल संभव है, वह भी दुनिया के माने हुए सर्जनों के हाथों।
जिस प्रकार 20वीं शताब्दी में कंप्यूटर ने मानव जीवन की गति असीमित कर दी, उसी प्रकार रोबोटिक तकनीक 21वीं शताब्दी में मनुष्य की जीवन शैली और चिकित्सा के तौर-तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाली है। हम मनुष्य की तरह रोबोट का काम करना भले ही भविष्य की हकीकत है, लेकिन रोबोटिक सर्जरी अब भविष्य नहीं वर्तमान की हकीकत बन चुकी है। 
भारत में रोबोटिक सर्जरी
भारत में अभी तक दूरसंचालित रोबोटिक सर्जरी का इस्तेमाल आरंभ नहीं हुआ है, लेकिन कुछ बड़े अस्पतालों में आपरेशनों के दौरान रोबोट एवं रोबोटिक आर्म का इस्तेमाल होने लगा है। न्यूरो एवं स्पाइन सर्जरी की आधुनिकतम तकनीकों  के विशेषज्ञ डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि आने वाले समय में मरीज की एम.आर्र.आई.(मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग), सीटी (कम्प्यूटर टोमोग्राफी) अथवा पेट (पोजिट्राॅन इमिशन टोमोग्राफी) जैसे परीक्षणों के स्कैन इंटरनेट के जरिये दूर बैठे सर्जन को भेज दिये जायेंगे और सर्जन स्कैन का विश्लेषन करके सर्जरी की प्लानिंग करेगा तथा अपने कम्प्यूटर से ही आपरेशन कक्ष में इंटरनेट से जुड़े कम्प्यूटर संचालित रोबोट को आपरेशन से संबंधित निर्देश देगा और रोबोट सर्जन के निर्देश के अनुसार मरीज का आपरेशन करेगा। 
विशेषज्ञों का मानना है कि इंटरनेट और रोबोट की मदद से होने वाली सर्जरी परम्परागत सर्जरी की तुलना में सही एवं सुरक्षित होती है। जाहिर है कि आने वाले समय में दूर सर्जरी की बदौलत शल्य चिकित्सा का परिदृश्य पूरी तरह से बदलने वाला है। भविष्य में नयी दिल्ली या मुंबई में बैठा सर्जन किसी दूर दराज के कस्बे में इंटरनेट के जरिये आपरेशन कर सकेगा जिससे गंभीर मरीजों को बड़े शहर लाने-ले जाने में लगने वाले समय और पैसे की बचत तो होगी ही, मरीज का सही समय पर आपरेशन करके मरीज की जान बचायी जा सकेगी 
डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि हमारे देश में इस तरह के आपरेशनों की शुरूआत होने में कम से कम एक दशक लगेंगे लेकिन फिलहाल अपने देश के कुछ आधुनिक अस्पतालों में मस्तिष्क तथा कुछ अन्य अंगों के आपरेशनों में रोबोट एवं रोबोटिक आर्म की सहायता ली जा रही है । आपरेशन के दौरान माइक्रोस्कोप, मस्तिष्क की त्रिआयामी इमेजिंग, इंटरवैंशनल एमआरआई, इंटरनेट, रोबोटिक सर्जरी, स्टीरियोटैक्सी, इंडोस्कोपी और रेडियोसर्जरी जैसी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल होने से न केवल आपरेशन आसान एवं कारगर बन गए हैं, बल्कि शल्य चिकित्सकों की की क्षमता भी बढ़ गई है। 
इन आधुनिकतम तकनीकों, कम्प्यूटरों एवं रोबोट के अर्विभाव के कारण एक समय खतरनाक और अत्यंत असुरक्षित माने जाने वाली मस्तिष्क, हृदय और स्पाइन की सर्जरी आज अत्यंत सुरक्षित एवं कारगर बन गयी है। भविष्य में सर्जरी की कुछ वर्ष पूर्व तक लोग मस्तिष्क या स्पाइन सर्जरी कराने से डरते थे, क्योंकि इसमें आपरेशन के लिये मस्तिष्क को खोलना पड़ता था या काफी चीर-फाड़ करनी पड़ती थी। इससे मस्तिष्क या स्पाइन के दूसरे भागों को भी क्षति पहुंचने की आशंका होती थी। 
आधुनिक आपरेशन थियेटर
सर्जरी की नयी-नयी तकनीकों के आगमन के साथ आॅपेशन थियेटरों का स्वरूप भी आज काफी हद तक बदल गया है और भविष्य में यह बदलाव तेजी से जारी रहेगा। भविष्य में आपरेशन थियेटरों से परम्परागत कैंची-छुरियों एवं चीर-फाड़ के काम में आने वाले अन्य औजारों की विदाई होने वाली है। कम से कम चीर-फाड़ (मिस अर्थात् मिनिमली इंवैसिव सर्जरी) या बिना चीर-फाड़ (निस अर्थात् नाॅन इंवैसिव सर्जरी) के किये जाने वाले आपरेशनों की गुंजाइश बढ़ने के साथ अब चाकू-छुरियों का स्थान कम्प्यूटर, माॅनिटर, कैमरे, स्कोप्स, इंसफलेटर्स, पम्प, शेवर्स, प्रिंटर और वी सी आर जैसे उपकरण लेने वाले हैं। भविष्य में बनने वाले ऐसे चलायमान एवं डिजिटल आपरेशन थियेटरों से शल्य चिकित्सकों की क्षमता एवं गति बढ़ेगी, आपरेशन में कम समय लगेगा, आपरेशन की कारगरता बढ़ेगी, आपरेशन के दौरान किसी तरह की गलती होने तथा मरीज को कोई जोखिम होने की आशंका घटेगी। आपरेशन की नयी तकनीकों के आगमन के साथ आज आपरेशन के परम्परागत तौर-तरीके तथा परम्परागत आपरेशन थियेटर न केवल अपर्याप्त एवं अनुपयोगी साबित होते जा रहे हैं, बल्कि इनका संचालन कठिन एवं खर्चीला भी होता जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही साथ आधुनिक समय में बनने वाले डिजिटल आपरेशन थियेटरों और उनमें मौजूद नवीनतम तकनीकों एवं आधुनिक उपकरणों के संचालन एवं प्रबंधन के लिये विशेष प्रशिक्षण तथा कौशल की आवश्यकता पड़ने लगी है। कई बार यह काम प्रशिक्षित कर्मियों के भी बूते का नहीं हो पाता। इन समस्याओं के निदान के लिये बहुराष्ट्रीय स्ट्राइकर कंपनी ने विशेष आपरेशन कक्ष (इंडोस्यूट) का विकास किया है जिससे आपरेशन थियेटर के संचालन से जुड़ी तमाम समस्याओं का समाधान मिल गया है। स्ट्राइकर इंडोस्यूट आपरेटिंग रूम (इंडोस्यूट ओ आर) में तमाम उपकरणों और तकनीकों का शल्य चिकित्सक के साथ पूर्ण समायोजन होता है और शल्य चिकित्सक के निर्देश के अनुसार सभी तकनीकों एवं उपकरणों का संचालन होता है जिससे चिकित्सक को आपरेशन में किसी तरह की असुविधा नहीं होती है, समय की बचत होती है और आपरेशन भी कारगर होता है। 
इंडोस्यूट में सभी उपकरण एवं तकनीकें कम्प्यूटर से संचालित होते हैं और एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े होते हैं। ये सभी उपकरण शल्य चिकित्सक की आवाज के आधार पर काम करते हैं। इससे आपरेशन करने की सर्जन की क्षमता एवं गति बढ़ जाती है। सर्जन की अपने सहायकों पर निर्भरता कम हो जाती है। इसके अलावा इस आपरेशन को छात्र अपने क्लास रूम में देख सकते हैं अथवा इनका किसी सेमीनार आदि में प्रसारण हो सकता है। ऐसे आधुनिक आॅपरेशन थियेटर सेटेलाइट एवं इंटरनेट के जरिये अन्य आपरेशन थियेटरों से भी जुड़े रहते हैं। 
अस्थि शल्य चिकित्सक डा. राजू वैश्य बताते हैं कि इंडोस्यूट, कम्प्यूटर नैविगेशन सिस्टम और रोबोटिक सर्जरी जैसी नयी प्रौद्योगिकियों की बदौलत न केवल परम्परागत आपरेशन की खामियों को दूर किया जा सकता है, बल्कि इनकी मदद से शल्य चिकित्सक आपरेशन से पहले आपरेशन के बारे में समुचित योजनायें बना सकता है। यही नहीं, इन तकनीकों की बदौलत शल्य चिकित्सक को आपरेशन के दौरान भी कम्प्यूटर से यह सलाह मिलती रहेगी कि उसे किस दिशा में जाना है और किस गलती में सुधार करने की आवश्यकता है। डा. वैश्य बताते हैं कि अभी तक किसी भी आपरेशन की सफलता सिर्फ शल्य चिकित्सकों की कुशलता पर ही निर्भर करती थी और इसलिये अलग-अलग शल्य चिकित्सक द्वारा किये जाने वाले एक ही आपरेशन की सफलता दर अलग-अलग होती थी। लेकिन इंडोस्यूट एवं अन्य नयी तकनीकों के आने से चाहे कोई भी शल्य चिकित्सक आपरेशन करे, आपरेशन में सफलता की दर परम्परागत आपरेशनों की तुलना में काफी अधिक होगी। 


 टेलीविजन से बढ़ती नेत्र समस्यायें

टेलीविजन का बच्चों में मानसिक एवं स्नायु समस्यायें ही नहीं, आंखों की समस्यायें भी तेजी से बढ़ रही है। राष्ट्रीय नेत्र अंधता निवारण सोसायटी की ओर से किये गये सर्वेक्षण में करीब 25 प्रतिशत बच्चों को विभिन्न नेत्र समस्याओं एवं दृष्टि दोषों से ग्रस्त पाया गया। वर्तनांक (रिफ्रेक्टिव) दोष सबसे सामान्य नेत्र समस्या है और नेत्र दोषों से ग्रस्त करीब 60 प्रतिशत मरीजों मेें यही दोष पाया गया।
नेत्र विशेषज्ञों का कहना है कि टेलीविजन जैसे इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण पर शहरी लोगों खासकर बच्चों में आंखों में खिंचाव (स्ट्रेन) एवं आंख दर्द की समस्यायें तेजी से बढ़ रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में आंखों में स्ट्रेन से ग्रस्त लोगों की संख्या कई गुणा अधिक हो गयी है।
लगातार टेलीविजन देखने और कम्प्यूटर पर काम करने से आंखों में स्ट्रेन एवं थकावट की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। हालांकि इस बारे में कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है, लेकिन गांवों की तुलना में शहरों में मायोपिया जैसे दृष्टि दोषों की समस्या अधिक पायी गयी है। इसका एक बड़ा कारण शहरों में टेलीविजन एवं कम्प्यूटरों का अंधाधुंध इस्तेमाल है।
नेत्र विशेषज्ञों के अनुसार बच्चों को अधिक मायोपिया होने का मुख्य कारण यह है कि शहरी बच्चे मनोरंजन के लिये टेलीविजन एवं वीडियो गेमों जैसे दृश्य माध्यमों पर अधिक निर्भर रहते हैं, जिसके कारण आंखों पर अधिक जोर पड़ता है।
आज के समय में खासतौर पर शहरों में बच्चों पर एक तरफ तो पढ़ाई का बोझ बढ़ा है, दूसरी तरफ खेल-कूद जैसे मनबहलाव के परम्परागत तौर-तरीकों का स्थान टेलीविजन, वीडियो गेमों एवं कम्प्यूटरों ने ले लिया है। आंखों पर बहुत अधिक जोर डालने वाले मनोरंजन के आधुनिक तौर तरीकों, पढ़ाई तथा निकट से किये जाने वाले अन्य कार्यों की वजह से आंखों से जुड़ी सिलियरी कोशिकाओं में खिंचाव पैदा होता है। टेलीविजन, वीडियो एवं कम्प्यूटर जैसी पास रखी वस्तुओं को देखने के लिये सिलियरी कोशिकाओं को सिकुड़ना पड़ता है ताकि नेत्रा लेंस का पावर बढ़ जाये और निकट की वस्तुयें दिखाई पड़े। इन कोशिकाओं में बार-बार बहुत अधिक खिंचाव होने पर आंखों के रंजित पटल (कोराॅइड) में फैलाव होता है और नेत्र गोलक बड़ा हो जाता है जिससे मायोपिया उत्पन्न होती है।
लगातार देर तक टेलीविजन देखने और कम्प्यूटर पर देर तक काम करने या गेम खेलने से आंखों में खिंचाव एवं विकृति पैदा होती है। इससे आंखें कमजोर एवं रुग्न होती हैं जिसके कारण बार-बार नेत्रा संक्रमण, आंखों से पानी आने तथा सिर दर्द की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। ये समस्याएं अंततः मायोपिया पैदा करती हैं या मायोपिया को और बढ़ाती हैं।
नेत्र विशेषज्ञों का कहना है कि किताब पढ़ने की तुलना में टेलीविजन देखने पर और कारणों से भी आंखों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। किताबों में छपे अक्षर स्थिर होते हैं जबकि टेलीविजन स्क्रीन पर उभरने वाले दृश्य गतिशील होते हैं। यही नहीं टेलीविजन पर स्थिर दिखने वाले दृश्यों में भी गतिशीलता होती है। यह गतिशीलता ''पिक्सेल्स'' नामक बिन्दुओं में निहित होती है। टेलीविजन के पिछले हिस्से में लगे 'इलेक्ट्राॅन गन' से टेलीविजन स्क्रीन की पिछली सतह पर बहुत तीव्र गति से इलेक्ट्राॅनों की बौछार होती है। जिस बिन्दु पर इलेक्ट्राॅन पड़ते हैं वह बिन्दु बहुत कम क्षण के लिये चमक उठता है। हमारी आंखें इस झिलमिलाहट को पकड़ नहीं पातीं क्योंकि इसकी गति बहुत तेज होती है, लेकिन इस अप्रत्यक्ष झिलमिलाहट के कारण हमारी आंखों पर खिंचाव आ सकता है और आंखें खराब हो सकती हैं। टेलीविजन एवं कम्प्यूटर स्क्रीन से आंखों को एक और खतरा विकिरण के कारण होता है। टेलीविजन एवं कम्प्यूटरों से एक्स पराबैंगनी एवं अवरक्त (इन्फ्रा) किरणों का उत्सर्जन होता है।
नयी दिल्ली के सेंटर फाॅर आई केयर के निदेशक डा. विशाल ग्रोवर की सलाह है कि बच्चों को टेलीविजन के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए जरुरी है बच्चों सीमित तौर पर टेलीविजन देखने दिया जाये। इसके अलावा उन्हें बहुत पास से टेलीविजन नहीं देखने दिया जाये। बच्चों को टेलीविजन स्क्रीन के आकार से कम से कम सात गुना अधिक दूरी अथवा टेलीविजन से तकरीबन तीन मीटर दूर से ही टेलीविजन देखने देना चाहिये। बड़े पर्दे वाले टेलीविजन देखने से आंखों को तुलनात्मक रुप से आराम रहता है लेकिन छोटे कमरे में बड़े पर्दे वाले टेलीविजन ठीक नहीं हैं। काफी लंबे समय तक एकटक होकर टेलीविजन नहीं देखना चाहिए। थोड़ी देर टेलीविजन देखने के बाद आंखों को आराम देना चाहिये। बच्चे आम तौर पर फर्श पर बैठ कर अथवा बिस्तर पर लेट कर टेलीविजन देखते हैं। इससे आंखों के साथ गर्दन में खिंचाव की समस्या आ सकती है। यह कोशिश करनी चाहिए कि टेलीविजन एवं देखने वाले एक ही उंचाई पर हों।


छोटे पर्दे फैला रहे हैं बड़ेे रोग

टेलीविजन चैनलों को आज सामाजिक विकृतियां और सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने के लिये जिम्मेदार माना जा रहा है, लेकिन चिकित्सका विशेषज्ञों का कहना है कि टेलीविजन के कारण बच्चों में कई तरह बीमारियां तेजी से फैल रही है। चिकित्सकों के अनुसार ज्यादा टेलीविजन देखने के कारण बच्चे न केवल मिरगी, चिड़चिड़ापन, मोटापे, अनिद्रा और नेत्र समस्याओं के शिकार हो रहे हैं बल्कि उनके मानसिक स्तर में भी गिरावट आ रही है।


टेलीविजन से फैलती मिर्गी 
स्नायु विशेषज्ञों के अनुसार अधिक टेलीविजन देखने के कारण बच्चे मिरगी के रोगी बनते जा रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार देश में लगभग 52 लाख मिरगी के रोगी हैं, जिनमें टेलीविजन प्रेरित रोगियों की संख्या तीन लाख है। इनमें अधिकतर बच्चे हैं। नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ स्नायु विशेषज्ञ डा. एस.के.सोगानी के अनुसार लंबे समय तक काफी निकट से लगातार टेलीविजन देखने के कारण मिरगी हो सकती है। टेलीविजन देखते समय मस्तिष्क में प्रकाश संवेदी (फोटो सेनसिटिव) कोशिकाएं तेजी से प्रतिक्रिया करती हैं, जिससे मस्तिष्क के आणविक स्तर में असामान्य परिवर्तन होने लगता है, जिससे मस्तिष्क की ऊर्जा शक्ति अव्यवस्थित हो जाती है और मस्तिष्क से असामान्य तरल पदार्थ बहने लगात है, जो मिरगी का रूप ले लेता है। ऐसी मिरगी को साइकोमेटिव (मनोप्रेरित) मिरगी कहते हैं। मनोप्रेरित मिरगी की संभावना वयस्कों की अपेक्षा बच्चों में अधिक होती है, क्योंकि टेलीविजन कार्यक्रमों के प्रति एकाग्रता बच्चों में ज्यादा होती है। ऐसी मिरगी का पता आसानी से नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि इसमें मुंह से झाग नहीं निकलता। हालांकि इस प्रकार की मिरगी का इलाज संभव है, लेकिन लोग यह समझ नहीं पाते कि यह मिरगी है या बेहोशी। इसलिए आम तौर पर इसका इलाज नहीं करवाते। 


मिरगी मस्तिष्क की एक प्रकार की अचेतना की अवस्था है, जिसमें व्यक्ति कुछ मिनट के लिए चेतनाशून्य हो जाता है। मस्तिष्क में लाखों कोशिकाएं होती हैं, जो व्यवस्थित रूप से कार्य करती हैं। ये कोशिकाएं न्यूरोंस कहलाती हैं और विद्युत धारा और रासायनिक वाहकों के माध्यम से कार्य करती हैं। मस्तिष्क में इन कोशिकाओं पर नियंत्रण करने और संतुलन बनाए रखने के लिए निरोधी कोशिकाएं होती हैं। जब कभी निरोधी कोशिकाएं अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाती हैं, तो मस्तिष्क में कोशिकाओं की अनियंत्रित और अनियमित क्रिया शुरू हो जाती है। ऐसी ही प्रक्रिया मिरगी की होती है।


टेलीविजन से बढ़ती अपच एवं अनिद्रा की समस्यायें डा. गोविंद वल्लभ पंत अस्पताल के पूर्व मनोचिकित्सक डा. मनोरंजन सहाय के अनुसार टेलीविजन में एक प्रकार का आकर्षण होता है। इसके कारण जो बच्चे लगातार टेलीविजन देखते हैं, उन्हें धीरे-धीरे इसकी लत लग जाती है। आज दिन रात विभिन्न तरह के कार्यक्रमों का प्रसारण करने टेलीविजन चैनलों की बाढ़ आ जाने के कारण आज बच्चे पहले की तुलना में अधिक देर रात तक टेलीविजन देखते रहते हैं। इसका असर उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता है। वे पढ़ाई करने की अपेक्षा टेलीविजन देखना ही ज्यादा पसंद करते हैं। इस तरह वे न सो पाते हैं और न ही पढ़ाई कर पाते हैं। इसका प्रभाव उन पर जैविक रूप से भी पड़ता है और इससे उनकी पाचन शक्ति और नींद प्रभावित होती है। 


टेलीविजन के कारण मानसिक समस्यायें
डा. सहाय कहते हैं कि जब बच्चे माता-पिता की बात नहीं मानते हैं, तो घर में तनाव का माहौल बन जाता है, जिससे बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। इसके कारण वे चिड़चिड़े और जिद्दी हो जाते हैं। अपनी बात मनवाने के लिए वे उल्टी-सीधी हरकतें भी करने लगते हैं। इस तरह उनके व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है।


नयी दिल्ली स्थित बत्रा अस्पताल के मनोचिकित्सक डा. नीलम कुमार वोहरा का मानना है कि टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम पश्चिमी देशों की संस्कृति की नकल पर आधारित होते हैं। बच्चों को परिवार से मिलने वाली संस्कृति टेलीविजन पर दिखायी जाने वाली संस्कृति से भिन्न होती है। इसलिए बच्चे यह निर्णय नहीं कर पाते कि उन्हें कौन सी संस्कृति अपनानी है। टेलीविजन के कार्यक्रमों के आकर्षण और ग्लैमर से प्रभावित होकर बच्चे टेलीविजन चैनलों द्वारा परोसी जा रही अपसंस्कृति से प्रेरित हो जाते हैं।  


महिलाओं के लिये कितने सुरक्षित हैं कार्यस्थल 

अधिकतर भारतीय महिलाओं के लिए घर ही उनके प्राथमिक कार्यस्थल होते हैं। जगह की कमी, पर्याप्त वेंटिलेशन और प्रकाश का अभाव तथा शौचालय का अभाव उनकी कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसके अलावा कई महिलाओं का अपने घरों पर कोई अधिकार नहीं होता और वे अपने पति, ससुराल वालों, मकान मालिक और म्युनिसिपल प्राधिकरण की दया पर वहां रह पाती हैं। हालांकि महिलाओं के व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा पर बहुत कम आंकड़ा उपलब्ध है।


कार्यस्थल का प्रतिकूल वातावरण
राष्ट्रीय आयोेग ने 1988 में विभिन्न निकायों में स्वरोजगाररत महिलाओं और अनौपचारिक निकायों में काम कर रही महिलाओं के व्यावसायिक स्वास्थ्य पर एक विस्तृत अध्ययन किया। आयोग ने हाल के वर्षों में स्थितियों में थोड़ा अंतर पाया। कई व्यवसायों में महिलाएं खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। ब्लाॅक प्रिंटिंग, स्क्रिन प्रिंटिंग, डाईंग, बीड़ी निर्माण, बेकार पदार्थों के निपटारे और फटे-पुराने कपड़ों को उधेड़ने जैसे कामों में महिलाएं काफी संख्या में जुड़ी होती हैं और उन्हें इनसे निकलने वाले विषैले रसायनों और रोगजनक कीटाणुओं के संपर्क में रहना पड़ता है।


लकड़ियों पर खाना बनाने वाली महिलाओं को कल-कारखानों में काम करने वाले लोगों की तुलना में अधिक प्रदूषकों के संपर्क में रहना पड़ता है। महाराष्ट्र में जलने के मामलों का अध्ययन करने पर पाया गया कि करीब 55 प्रतिशत महिलाएं भोजन बनाने के दौरान जलती हैं। हरियाणा में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं के जलने के 26 प्रतिशत मामलों में घर में हुई दुर्घटना और 55 प्रतिशत मामलों में घरेलू कार्य जिम्मेदार होते हैं।


रात्रि पाली में काम की मुश्किलें
एक समय था जब महिलाएं घर-परिवार की दहलीज के बाहर कदम नहीं रखती थीं। उन्हें चौबीसों घंटे घर में ही रहना पड़ता था। धीरे-धीरे महिलाएं काफी तादाद में घर से बाहर काम करने लगीं। आज महिलाएं दिन की पाली में ही नहीं, बल्कि रात की पाली में भी काम करती हैं। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ दिल्ली में ही ढाई लाख कामकाजी महिलाएं रात्रिकालीन पालियों में काम करती हैं। इनमें से अधिकतर महिलाएं टेलीफोन आपरेटर, नर्स, डाॅक्टर, ब्राॅडकास्टर, विमान परिचारिकाएं, होटल कर्मचारी तथा पत्रकार हैं। हालांकि ब्राॅडकास्टर, पत्रकार और होटल तथा एयरलाइन स्टाफ को रात्रि ड्यूटी के बाद आफिस की गाड़ियां घर छोड़ने जाती है। ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं रात्रि ड्यूटी के बाद निजी वाहन से भी घर चली जाती हैं, लेकिन निचले पदों पर काम करने वाली महिलाओं के पास ऐसी सुविधाएं नहीं होती और इस कारण उन्हें कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।


दस साल पहले महिला पत्रकारों को रात्रि में काम नहीं करना पड़ता था, लेकिन अब संवाद समितियों, अंग्रेजी और हिंदी के अखबारों तथा इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में महिलाओं को रात्रि ड्यूटी भी करनी पड़ती है। हालांकि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के ज्यादातर अखबारों में महिलाएं रात्रि ड्यूटी से मुक्त हैं। हालांकि अब इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तथा अखबारों के इंटरनेट संस्करण के आविर्भाव के कारण रात्रिपाली में काम करने वाली महिला पत्रकारों की संख्या बढ़ रही है। रात्रि ड्यूटी में काम करनेवाली महिलाओं में सबसे अधिक परेशानी टेलीफोन आपरेटरों को उठानी पड़ती है, क्योंकि आपरेटरों की रात्रि ड्यूटी शाम 6 बजे से 12 बजे रात तक तथा 3 बजे सुबह से 5 बजे सुबह तक की होती है। बीच में उन्हें 3 घंटे का ब्रेक दिया जाता है। लेकिन कोई महिला रात में 12 बजे घर जाकर वापिस 3 बजे सुबह आफिस नहीं आ सकती। इसलिए उन्हें 6 बजे शाम से 5 बजे सुबह तक आफिस में ही रहना पड़ता है। इस तरह इन महिलाओं को लगातार 11 घंटे आफिस में बिताने पड़ते हैं। फिर इनकी तनख्वाह भी इतनी कम होती है कि वे निजी वाहन वहन नहीं कर सकतीं। इसलिए इन्हें घर जाने के लिए सरकारी बसों पर निर्भर रहना पड़ता है और बसें छह बजे सुबह के बाद ही सुलभ हो पाती हैं। फिर रात में अकेले सफर करना भी खतरे से खाली नहीं होता, मजबूरन इन्हें सुबह होने का इंतजार करना पड़ता है।


लगभग इसी तरह की स्थिति नर्सों के साथ भी है, क्योंकि रात्रि ड्यूटी में आराम करने के लिए उनके पास विश्राम कक्ष नहीं होते, जैसा कि डाॅक्टरों के लिए होते हैं। जब तक वे काम में व्यस्त होती हैं, तब तक उन्हें कमरे की जरूरत नहीं होती, लेकिन जब उनका काम खत्म हो जाता है तो वे इधर-उधर भटकती रहती हैं। उनके पास निजी वाहन की सुविधाएं भी नहीं होती, ताकि वे ड्यूटी खत्म होने के बाद घर जा सकें। मजबूरन उन्हें आफिस की गाड़ी का इंतजार करने के लिए अस्पताल में ही रूकना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों में सुरक्षा की अत्यंत खराब व्यवस्था होने के कारण रात्रि पाली में नर्सों को हर समय असुरक्षा का भय होता है, क्योंकि रात में रोगी तथा स्टाफ कम होने के कारण अस्पताल सूना हो जाता है, किसी भी समय उनके साथ कुछ भी हो सकता है। नर्सें तभी थोड़ा सुरक्षित महसूस करती हैं जब उनके वार्ड के दरवाजे भीतर से बंद होते हैं। उन्हें रात में अपनी शारीरिक सुरक्षा के लिए सतर्क रहना पड़ता है। रात में रोगियों के रिश्तेदार, अस्पताल के पुरुष कर्मचारी से लेकर बाहरी आदमी कोई भी उनके साथ बदसलूकी कर सकता है या उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ कर सकता है। यही नहीं, महानगरों में जिस तरह से अपराध, हिंसा और महिलाओं के साथ अत्याचार और दुव्र्यवहार के मामले बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए आम तौर पर महिलाएं रात में ड्यूटी करने से कतराती हैं। लेकिन परिवार की आर्थिक समस्याओं और जीवन में आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा के कारण कई महिलाएं वैसी नौकरियां करने को मजबूर हो जाती हैं जिनमें रात में भी ड्यूटी करनी पड़ती है।


जिन महिलाओं के बच्चे छोटे होते हैं, उनके लिए रात की ड्यूटी करना बहुत कठिन होता है। जब वे रात में ड्यूटी कर रही होती हैं उनका ध्यान बच्चे की ओर ही होता है। इस तरह वे ढंग से काम नहीं कर पातीं और तनाव में होती हैं। कुछ महिलाओं के पति या घर वाले इन परिस्थितियों को समझते हुए उनका साथ देते हैं और सहयोग भी करते हैं, जबकि कुछ महिलाओं को दिन में घर तथा रात में दफ्तर का काम करना पड़ता है। जिसका, नतीजा यह होता है कि उन्हें स्वास्थ्य संबंधित कई गंभीर समस्याएं हो जाती हैं। उनके पाचन और तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ियां हो जाती हैं और उनमें निर्णय लेने की क्षमता की कमी होने लगती है। 


आज के समय में जब महिलाएं पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दावा कर रही है और कई क्षेत्रों में पुरुषों से आगे निकलने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, तब यह मांग तो नहीं की जा सकती कि महिलाओं को रात्रि पाली की ड्यूटी से मुक्त रखा जाए, लेकिन इतनी व्यवस्था तो अवश्य होनी चाहिए ताकि वे निर्भय होकर ड्यूटी कर सकें और ड्यूटी के बाद सुरक्षित घर पहुंच सकें। अगर दफ्तरों में सुरक्षा, विश्राम तथा घर पहुंचाने की पुख्ता व्यवस्था हो तो महिलाएं रात्रि पाली में काम करने से कतई नहीं कतरायेंगी।