मनोचिकित्सकों ने साइकोलॉजिकल फर्स्ट एड (पीएफए) को बढ़ावा देने का किया आहवान

मनोचिकित्सकों ने साइकोलॉजिकल फर्स्ट एड को बढ़ावा देने का आहृवान करते हुए कहा कि जिस तरह से शरीर में चोट लगने पर या अन्य बीमारी होने पर तत्काल फर्स्ट एड लेने की जरूरत होती है उसी तरह से मन को चोट लगने पर, मानसिक संकट या मनोवैज्ञानिक समस्या होने पर साइकोलॉजिकल फर्स्ट एड की जरूरत होती है ताकि मानसिक समस्या गंभीर नहीं हो और उसका समय रहते इलाज हो सके।


मनोचिकित्सकों ने कहा कि साइकोलॉजिक फर्स्ट एड की मदद से हजारों जानें बचाई जा सकती हैमिसाल के तौर पर तनाव (स्ट्रेस), डिप्रेशन और एंग्जाइटी जैसी मानसिक समस्याएं बहुत ही सामान्य है लेकिन अगर ये गंभीर रूप धारण कर ले और इनका इलाज नहीं हो तो ये आत्महत्या का भी कारण बन सकती हैं। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं जबकि इससे अधिक संख्या में लोग ताउम्र मानसिक समस्याओं को झेलते रहते हैं।


नई दिल्ली के फोर्टिस-एस्कार्ट हार्ट इंस्टीच्यूट के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. मनु तिवारी ने कहा कि मन को लगी चोट या मानसिक बीमारी समुचित इलाज नहीं होने पर गंभीर रूप धारण कर सकती है और इसकी भयावह परिणति आत्महत्या के रूप में भी हो सकती है।


वरिष्ठ मनोचिकित्सक एवं कास्मोस इंस्टीच्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस के निदेशक डा. सुनील मित्तल ने कहा कि हमारे समाज में मानसिक समस्याओं एवं बीमारियों को लेकर व्यापक पैमाने पर भ्रांतियां और अंधविश्वास कायम है जिसके कारण मनोरोगियों का समुचित इलाज होने एवं देखरेख होने की बजाए समाज एवं परिवार के लोग उनकी या तो अनदेखी करते हैं या उनके साथ भेदभाव करते हैं जिससे मरीज की मानसिक समस्या बढ़ती जाती है और कई बार इतनी गंभीर हो जाती है कि मरीज आत्महत्या कर लेता है।


जीवन अनमोल हास्पीटल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. अजय डोगरा ने कहा कि साइकोलॉजिक फर्स्ट एड की मदद से मरीज तनाव, डिप्रेशन और एंग्जाइटी जैसी मानसिक समस्याओं से उबर सकता है। बच्चे विशेष कर तनाव के शिकार होते हैं, खास तौर पर परीक्षा के समय। बच्चों पर माता-पिता और शिक्षकों की अत्यधिक महत्वाकांक्षाओं के कारण परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने का बहुत अधिक दवाब होता है और कई बार जब वे परीक्षा में अच्छे नम्बर नहीं ला पाते हैं तो आत्महत्या तक कर लेते हैं


कास्मोस की मनोचिकित्सक डा. शोभना मित्तल ने कहा कि मानसिक समस्याओं से ग्रस्त लोगों को रिश्तेदार, दोस्त या सहपाठी/सहकर्मी द्वारा मानसिक सहायता दी जा सकती है लेकिन बेहतर यह है कि मनोचिकित्सकों की मदद ली जाए ताकि समस्या का समय पर समुचित समाधान हो सके।


डॉ. तिवारी ने बताया कि अक्सर परिवार के लोग मानसिक बीमारियों के लक्षणों से अनजान होते हैंउन्होंने बताया कि अगर आपको या आपके परिजनों में से किसी को नींद नहीं आती हो, भूख नहीं लगती हो, उदासी या हीनता की भावना हो, बात-बात पर शक करने की प्रवृति हो, शराब/अफीम/ स्मैक आदि


का नशा हो, घबराहट या बेचैनी होती हो, अत्यधिक गुस्सा आता हो अथवा बहकी-बहकी बातें करते हों तो मनोचिकित्सक से मदद ली जानी चाहिए। अगर बच्चे बहुत अधिक चंचल हों या उनका पढ़ाई में ध्यान नहीं लग पा रहा हो तो भी मनोचिकित्सक से सलाह ली जानी चाहिए।


डा. डोगरा ने कहा कि अगर मानसिक समस्या से ग्रस्त व्यक्ति को साइकोलॉजिकल फर्स्ट एड मिले तो वे अपने को बेहतर और सुरक्षित महसूस करेंगे। उनके मन को शांति मिलेगी तथा मन में उम्मीद जागेगी। वे अपने को समाज एवं परिवार से जुड़ा हुआ महसूस करेंगेवे अपनी भावनाओं पर बेहतर तरीके से नियंत्रण कर सकेंगे और खुद की मदद के लिए खुद को सक्षम पाएंगे।


 


 


महिलाएं कैसे कर सकती हैं अपनी सेहत की रक्षा

आज बदलते समय में महिलाओं को कुछ साल पहले की तुलना में स्वस्थ और फिट रहने के लिए बहुत अधिक प्रयास करना पड़ता है क्योंकि अब उन्हें अपने घरों और कार्यस्थल के प्रबंधन की दोहरी जिम्मेदारियों की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है


रोकथाम के लिए स्वास्थ्य देखभाल


2. अब सर्वाइकल कैंसर का टीका उपलब्ध है और सर्विक्स (गर्भाशय का मुंह) के कैंसर से बचने के लिए इसे लगा लेना चाहिए।


3. महिलाओं को रोजाना व्यायाम करना चाहिए और कम तेल वाले स्वस्थ और अच्छी तरह से संतुलित आहार का सेवन करना चाहिए। इसके अलावा यदि उनके स्वास्थ्य परीक्षण के दौरान विटामिन डी और कैल्शियम की कमी का पता चलता है तो विटामिन डी और कैल्सियम सप्लिमेंट भी लेना चाहिए


4. 40 साल की उम्र के बाद महिलाओं को स्तन कैंसर को रोकने और इसकी जल्द पहचान में मदद करने के लिए नियमित रूप से मैमोग्राफी कराना चाहिए। इसके अलावा उन्हें नियमित स्व-स्तन परीक्षण भी करना चाहिए।


5. रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को हड्डियों की ताकत की जांच करने के लिए नियमित रूप से बीएमडी (बोन मिनरल डेंसिटी जांच करानी चाहिए और हड्डियों के कमजोर पाये जाने पर डॉक्टर इसके लिए मुंह से खाई जाने वाली दवा दे सकता है


6. सभी महिलाओं को रोजाना विशेषकर प्रसव के बाद योनि की मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए केगल्स व्यायाम करना चाहिए इससे गर्भाशय को नीचे आने से रोकने और मूत्र के रिसाव को रोकने में मदद मिलती है


1. प्रजनन की उम्र वाली महिलाओं (18 से 50 वर्ष के बीच उम्र वाली महिलाएं) को नियमित रूप से अपना पैप स्मीयर टेस्ट कराना चाहिए। इसमें डॉक्टर ओपीडी में गर्भ के मुंह से कुछ कोशिकाओं को निकालता है और कैसर पूर्व और कैंसर कोशिकाओं का पता लगाने के लिए इसे प्रयोगशाला में भेजता है।


महिला स्वास्थ्य समस्याएं और उनके समाधान


गर्भाशय से असामान्य रक्तस्राव (एबनार्मल यूटेरिन ब्लीडिंग : एयूबी)


यदि महिला को पीरियड के दौरान अधिक रक्तस्राव होता हो और रक्त का थक्का भी आता हो तो ऐसा फाइब्रॉइड या एडेनोमायोसिस पॉलिप की उपस्थिति के कारण हो सकती है या यह गर्भाशय के कैंसर का लक्षण भी हो सकता है। एयूबी (एबनार्मल यूटेरिन ब्लीडिंग) के कारण एनीमिया हो सकता है और यह जीवन की खराब गुणवत्ता का कारण भी बन सकती है। इसके कारण महिला हर समय कमजोर और थकी- थकी सी रहती है। कभी-कभी यह एयूबी हाइपोथायरायडिज्म (थायराइड हार्मोन की कमी) जैसी हार्मोनल समस्याओं के कारण भी हो सकती हैलेकिन दवाओं द्वारा आसानी से इसका इलाज किया जा सकता है।


 


 


स्तनपान कराने से महिलाओं में हृदय रोग एवं स्ट्रोक होने का खतरा 18 प्रतिशत तक घट जाता है

• हरियाणा सरकार की ओर से स्तनपान कराने के बारे में जागरूकता अभियान


फरीदाबाद के सर्वोदय अस्पताल के वरिष्ठ इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. एल. के. झा ने अपने एक नवीनतम अनुसंधान से निष्कर्ष निकाला है कि अगर माताएं अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराएं तो स्ट्रोक एवं हार्ट अटैक जैसे कार्डियोवैस्कुलर रोग होने का खतरा 18 प्रतिशत तक घट जाता है।


यह निष्कर्ष इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हरियाणा सरकार ने एक से 7 अगस्त 2017 तक स्तनपान के बारे में जागरुकता पैदा करने के लिए एक विशेष अभियान चलाया हैहरियाणा के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के निदेशक राकेश गुप्ता ने यह जानकारी देते हुए कहा, “स्वास्थ्य विभाग विशिष्ट स्तनपान कराने के बारे में लोगों को जागरूक बना रहा है।"


डॉ. झा की ओर से तैयार रिपोर्ट में कार्डियोवैस्कुलर प्रणाली पर स्तनपान के प्रभाव के बारे में अध्ययन किया गयाइस अनुसंधान में मध्यम आयु वर्ग की 29000 महिलाओं को शामिल किया गया और उनसे प्राप्त निष्कर्षों का विश्लेषण किया गया। इससे निष्कर्ष निकलता है कि जो महिलाएं जल्द से जल्द अपने बच्चे को स्तनपान शुरू कर देती हैं उन्हें स्तनपान नहीं कराने वाली महिलाओं की तुलना में दिल का दौरा पड़ने तथा स्ट्रोक होने का खतरा 18 प्रतिशत कम होता है।


यह देखा गया है कि दो बच्चों को स्तनपान करने वाली महिलाओं को एक बच्चे को स्तनपान कराने वाली महिलाओं की तुलना में दोगुनी सुरक्षा मिलती है


डॉ एल. के. झा कहते हैं कि हृदय रोगों के मामले में स्तनपान का माताओं को अल्पावधि के साथ-साथ दीर्घावधि लाभ मिलते हैं। अल्पावधि तौर पर स्तनपान से वजन घटाने, कोलेस्ट्रॉल कम करने, रक्तचाप को नियंत्रित करने और गर्भावस्था के बाद ग्लूकोज के स्तर को नियंत्रित रखने में मदद मिलती है


वह कहते हैं, “गर्भावस्था के कारण महिला के चयापचय में परिवर्तन होता है क्योंकि गर्भावस्था के बाद उनके शरीर में होने वाले बच्चे के विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने और बच्चे के जन्म के बाद स्तनपान कराने के लिए वसा संरक्षित होने लगती हैस्तनपान कराने के कारण जमा वसा तेजी से और अधिक मात्रा में खत्म होती है और इससे बाद के जीवन में कार्डियोवैस्कुलर रोगों का खतरा घटता है। वह कहते हैं कि स्तनपान महिलाओं में हृदय रोग के बोझ को कम करने में काफी योगदान दे सकता है।


पुरुषों की तुलना में महिलाओं को दिल का दौरा पड़ने से मौत होने का खतरा अधिक होता है, और इसका मुख्य कारण महिलाओं में हृदय रोग के प्रति जागरूकता की कमी है। सीने में दर्द तथा सांस लेने में दिक्कत जैसे शुरुआती लक्षणों की उपेक्षा करने से दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ता है और देर करने से इन रोगों का उपचार अधिक जटिल होता जाता हैडॉ. झा की हाल की रिपोर्ट के अनुसार यह देखा गया है कि जटिल हृदय रोगों के मामले 30 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं।


 


डायबिटीज या मधुमेह में अपने अंगों की सुरक्षा पर खास ध्यान दें

डा. अभिषेक वैश्य नई दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में आर्थोपेडिक सर्जन हैं।

विश्व भर में 14 नवंबर को विश्व मधुमेह (डायबिटीज) दिवस मनाया जाता है। आज पूरी दुनिया में लगभग 42 करोड़ 50 लाख लोग डायबिटीज से पीड़ित है। इंडियन डायबिटीज फेडरेशन (आईडीएफ) के अनुसार भारत में लगभग 7 करोड़ लोग डायबिटीज के शिकार है। डायबिटीज आधुनिक जीवनशैली की देन कहा जा सकता है। मधुमेह ऐसी बीमारी है जो एक बार हो जाए तो इससे पीछा छुड़ाना लगभग नामुममिन है लेकिन इसे नियंत्रण में रखकर इसके दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है।
क्या है डायबिटिज
जब शरीर में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है तो इस स्थिति को डायबिटीज कहा जाता है. यह इंसुलिन की कमी के कारण होता है जो कि एक हार्मोन है। हम जो खाते हैं उसे यह ऊर्जा में बदलता है। साथ ही यह  हमारे शरीर में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद करता है।
डायबिटिज के दुष्प्रभाव
अनियंत्रित डायबिटीज रहने पर रक्त शुगर अधिक बढ़ जाता है और इसका गंभीर असर हृदय, रक्त धमनियो, नर्वं, आंखों और किडनी के अलावा शरीर के जोड़ों और हड्डियों पर भी पड़ता है। मधुमेह को अनियंत्रित छोड़ देने पर पैरों में अल्सर और संक्रमण के अलावा डायबेटिक फुट की समस्या भी हो सकती है, जिसमें पैरों को काटने की नौबत आ सकती है। इसके अलावा फ्रोजेन शेल्जर, ओस्टियोपोरोसिस और आर्थराइटिस की समस्या भी बढ़ सकती है। यह देखा गया है कि जिन लोगों को मधुमेह नहीं है उनकी तुलना में मधुमेह रोगियों में ये समस्याएं बहुत अधिक होती हैं। मधुमेह के मरीजों में फ्रैक्चर देर से ठीक होते हैं।
शरीर के अंगों की सुरक्षा कैसे करें
मधुमेह के कारण खराब होने वाले अंगों को काटने के मामले काफी होते हैं। मधुमेह तंत्रिकाओं को नष्ट कर सकता है। रक्त संचार में कमी ला सकता है जिससे मधुमेह रोगियों में पैर और फुट अल्सर और अन्य समस्याओं के विकसित होने की संभावना अधिक रहती है। इन्हें अनियंत्रित छोड़ने पर कुछ जटिलताएं पैदा हो सकती है जिससे अंगों को काटने की नौबत आ सकती है। मधुमेह के रोगियों को अपने विभिन्न अंगों पर खास ध्यान देना चाहिए ताकि वे अपने अंगों को बचा सकें। ऐसे में उन्हें अपने पैरों को अपने पैरों को स्वच्छ और सुरक्षित रखना चाहिए। मधुमेह के मरीजों के लिए रोजाना पैरों का परीक्षण किया जाना जरूरी होता है। अल्सर, दरारें, कट, लालिमा, सूजन और घाव होने के किसी भी लक्षण पर पूरी नजर रखी जानी चाहिए। नंगे पांव चलने से पैर घायल हो सकते हैं। पैरों के नाखून काटते वक्त सबसे ज्यादा कट लगने की संभावना होती है इसलिए नाखून काटते वक्त पैरों का खास ध्यान रखें। अपने पैरों को चोट से बचायें। ऐसी चीजों से बचने की कोशिश करें जो आपके पैरों में चोट का कारण बन सकती है।
महिलाओं में मधुमेह
हालांकि मधुमेह महिला और पुरूष में भेदभाव नहीं करता है लेकिन यह देखा गया है कि महिलाएं मधुमेह होने पर मधुमेह को नियंत्रित रखने के प्रति गंभीर नहीं होती है और इस कारण वे अपनी लापरवाही के कारण खुद को अधिक नुकसान पहुंचाती हैं। मधुमेह होने पर महिलाओं को पुरूषों की तरह के ही लक्षण होते हैं लेकिन उन्हें कुछ खास लक्षण भी होते हैं जिनमें योनि खमीर संक्रमण, मूत्र संक्रमण, पॉलीसिस्टिक अंडाशय सिंड्रोम और यौन अक्षमता प्रमुख है। डायबिटीज से ग्रस्त महिलाओं को गर्भधारण में अधिक कठिनाई होती है।
यही नहीं गर्भावस्था के दौरान अगर मधुमेह तो और उसे सही तरीके से नियंत्रित किया जाता है तो गर्भपात होने तथा होने वाले बच्चे को विकृतियां या बीमारियां होने का खतरा हो सकता है। ऐसे में गर्भावस्था के दौरान होने वाले मधुमेह को नियंत्रित रखना जरूरी है। यह देखा जाता है कि आम तोर पर गर्भावस्था के दौरान होने वाला मधुमेह बच्चे जनने के बाद ठीक हो जाता है।
डायबिटीज के प्रमुख लक्षण
इसके कुछ प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं :
टाइप 2 मधुमेह के लक्षण : अत्यधिक प्यास लगना, बार-बार पेशाब आना, अचानक
वजन कम होना, थकान महसूस होना
टाइप 1 डायबिटीज के लक्षण : बार-बार संक्रमण होना, धुंधला दिखाई देना।
क्या करें
अगर यह बीमारी हो जाए तब जीवन शैली में सुधार करके तथा नियमित दवाइयों का
सेवन करके इसे नियंत्रण में रखा जाना चाहिए। यहां कुछ ऐसे उपाय बताये जा
रहे हैं जिनकी मदद से इस बीमारी से काफी हद तक बचा जा सकता है।
नियमित रूप से संतुलित आहार के सेवन करें और व्यायाम करें।
खानपान की आदत में सुधार करें
वजन पर रखें काबू रखें
तनाव से दूर रहें
विटामिन-के का सेवन करें
धूम्रपान छोड़ें
अधिक पानी पीएं
फाइबर युक्त आहार
हरी पत्तेदार सब्जियां का सेवन अधिक करें।
शारीरिक गतिविधियों को बढ़ाएं
शुगर की नियमित जांच करवाएं
थोड़े-थोड़े अन्तराल में भोजन करें
ट्रांस फैट से दूर रहें
नियमित रूप से चिकित्सक से परामर्श लेते रहें।