आंत के कैंसर

आंत का कैंसर कोलोरेक्टल कैंसर के नाम से भी जाना जाता है। आंत का कैंसर तब होता है जब बड़ी आंत की दीवार में असामान्य कोशिकाएं अनियंत्रित ढंग से विकसित होने लगती हैं।
बड़ी आंत शरीर की पाचन प्रणाली का हिस्सा होता है। इसमें मलाशय, गुदा और मलनाली शामिल होते है।
आंत के कैंसर के प्रकार 
माना जाता है कि, अधिकतर आंत कैंसर आंत की दीवार के परत पर मौजूद गैर-नुकसानदेह सूजन से विकसित होते हैं। इन गैर-नुकसानदेह सूजनों को एडेनोमास या पाॅलिप कहा जाता है।
आंत के कैंसर के सबसे आम प्रकार को एडीनोकार्सिनोमा कहा जाता है, यह नाम आंत की परत में मौजूद उन ग्रंथि कोशिकाओं पर रखा गया है जिनमें सबसे पहले कैंसर विकसित होता है। अन्य दुर्लभ प्रकारों में स्कवैमस कोशिका कैंसर (जो आंत के परत में त्वचा समान कोशिकाओं में आरंभ होता है), कार्सिनॉयड ट्यूमर, सेक्रोमास और लिम्फोमास शामिल है।
आंत के कैंसर के लक्षण 
आंत का कैंसर आमतौर पर धीरे-धीरे विकसित होने वाला कैंसर है। रोग के आरंभिक चरणों में अक्सर कोई लक्षण नहीं होते हैं। आंत कैंसर के सबसे आम लक्षण निम्न हैं:
— गुदा से रक्तस्राव 
— एनीमिया के लक्षण
— आंत के प्रवृत्ति में परिवर्तन (दस्त या कब्ज)
— पेट में दर्द या मरोड़ें उठना
— सूजन
— वजन में कमी
— ऐसी थकावट या सुस्ती जिसका कोई स्पष्ट कारण ना हो
न सिर्फ आंत के कैंसर बल्कि ऐसी अनेक स्थितियाँ हो सकती हैं जिनके कारण ये लक्षण हो सकते हैं। यदि आपको इनमें से किसी एक लक्षण का अनुभव हुआ है, तो यह महत्वपूर्ण है कि आप डॉक्टर के साथ इसकी चर्चा करें।


बड़ी आंत के कैंसर
बड़ी आंत के कैंसर (कोलोरेक्टल कैंसर) के मामले ज्यादा आम है। कोलन व रेक्टम हमारे पाचन तंत्र के सबसे निचले हिस्से में पाए जाते है।
बड़ी आंत का कैंसर आम तौर पर 50 साल की उम्र के बाद देखा जाता है। पिछले कई सालों में कोलोरेक्टल कैंसर के इलाज में काफी सुधार हुआ है, लेकिन बेहतर इलाज के लिए इसका जल्द पता चलना जरूरी है। 
बड़ी आंत के कैंसर का खतरा किसे हो सकता है?
- 50 साल की उम्र के बाद
- ज्यादा कैलोरी व कम रेशे (फायबर) वाला भोजन करने वालों को
- अगर पोलिप हों। पोलिप बड़ी आंत की अंदरूनी दीवार पर विकसित होते हैं, लेकिन ये कैंसरग्रस्त नहीं होते। कोलोरेक्टल कैंसर की जांच करवाने के बाद आपको पॉलिप होने की जानकारी मिलती है।
- जिन महिलाओं को स्तन, अंडाशय (ओवरी) या गर्भाशय (यूटेरस) का कैंसर है।
- जिन्हें पहले भी कोलोरेक्टल कैंसर हुआ हो।
- माता पिता, भाई बहन या बच्चे को कोलोरेक्टल कैंसर हो।
- कोलन में जलन (अल्सरेटिव कोलन)
बड़ी आंत के कैंसर के लक्षण 
- शरीर के निचले हिस्से में जलन, सिकुड़न, सूजन होना
- डायरिया होना, मल की रुकावट, पेट पूरी तरह से साफ ना होना
- मल से खून निकलना
- नियमित स्वरुप से मल ना निकलना
- वजन कम होना
- हर वक्त थकान महसूस होना
- उल्टी होना
उपर बताए गए लक्षण सिर्फ कैंसर के नही है, लेकिन कैंसर की संभावना बताते है, इसलिए अपने डॉक्टर से जरूर जांच करवाएं। 


छोटी आंत के कैंसर
छोटी आंत आमाशय के पीछे व उदरगुहा के अधिकांश भाग को घेरे हुए, लगभग 6 मीटर लम्बी व 2.5 सेमी मोटी और अत्यधिक कुण्डलित नलिका होती है। इसमें आगे से पीछे की ओर तीन भाग होते हैं-
ग्रहणी
ग्रहणी छोटी आंत का लगभग 25 सेमी लम्बा अपेक्षाकृत कुछ मोटा और अकुण्डलित प्रारम्भिक भाग होता है। यह आमाशय के पाइलोरस से प्रारम्भ होकर 'सी' की आकृति बनाता हुआ बाईं ओर को मुड़ा रहता है। इसकी भुजाओं के बीच में मीसेन्ट्री द्वारा सधा हुआ गुलाबी-सा अग्न्याशय होता है। यकृत से पित्तवाहिनी तथा अग्न्याशय में अग्न्याशिक वाहिनी ग्रहणी के निचले भाग में आकर खुलती है। ये क्रमशः पित्तरस तथा अग्न्याशिक रस लाकर ग्रहणी में डालती हैं। पीछे की ओर ग्रहणी मध्यान्त्र में खुलती है।
मध्यान्त्र तथा शेषान्त्र
छोटी आन्त्र का शेष भाग अत्यधिक कुण्डलित तथा लगभग 2.5 मीटर लम्बी मध्यान्त्र और 3.5 मीटर लम्बी शेषान्त्र में विभेदित होता है। इस भाग के चारों ओर बड़ी आन्त्र होती है। मध्यान्त्र व शेषान्त्र की पतली भित्ति में ब्रूनर ग्रन्थियाँ तथा आन्त्रीय ग्रन्थियाँ होती हैं। जिनसे आन्त्र रस निकलकर भोजन में मिलता रहता है। इसके अतिरिक्त इसकी भित्ति में अनेक अंगुली के आकार के छोटेदृछोटे रसांकुर होते हैं। ये पचे हुए भोजन का अवशोषण करते हैं और अवशोषण तल को बढ़ाते हैं। 
छोटी आंत के कैंसर के प्रकार
कार्सिनाॅयड ट्यूमर, सार्कोमा, एडेनोकार्सिनोमा और लिम्फोमा।
एडेनोकार्सिनोमा ट्यूमर - यह आमतौर पर ग्रहणी में, आंत्र म्यूकोसा में होता है। यह अधिक बार होता है।
सार्काेमा- ये कई प्रकार के होते हैं। लीमोसार्कोमा आमतौर पर लघ्वान्त्र में विकसित होता है और ज्यादातर मामलों में, यह छोटी आंत की मांसपेशियों की दीवार को प्रभावित करता है। सार्कोमा शरीर के किसी भी भाग में दिखाई दे सकते हैं। नियोएंडोक्राइन ट्यूमर (कार्सिनॉयड) - यह छोटी आंत के भीतर हार्मोन का उत्पादन करने वाली कोशिकाओं में विकसित होता है।
लिंफोमा - यहछोटी आंत के लिंफोइड ऊतक को प्रभावित करता है। 
छोटी आंत के कैंसर के कारण और जोखिम कारक
ज्यादातर मामलों में इसके कारण अज्ञात होते हैं। छोटी आंत के कैंसर के जोखिम कारकों में क्रोहन रोग, सीलिएक रोग, पीट्ज एवं जेघर्स सिंड्रोम शामिल हैं।
छोटी आंत के कैंसर के लक्षण
- छोटी आंत में खून बहने के कारण काले रंग का मल
- पेट में दर्द और ऐंठन
- एनीमिया (खून की कमी)
- वजन घटना
- दस्त
बड़ी और छोटी आंत के कैंसर का निदान
बड़ी और छोटी आंत के कैंसर का पता एंडोस्कोपी और कोलोनोस्कोपी जांच के द्वारा लगाया जाता है। ये उपकरण किसी भी असामान्य क्षेत्र की पहचान कर लेते हैं। यदि आवश्यक हो, तो ये परीक्षण करते समय ही ऊतक का एक छोटा सा नमूना आगे के परीक्षण के लिए निकाल लिया जाता है। इनके अलावा कैप्सूल एंडोस्कोपी का भी सहारा लिया जा सकता है। इसके तहत मरीज को एक बड़े आकार के कैप्सूल निगलने को दी जाती है। इसके अंदर एक कैमरा, बैटरी, प्रकाश और ट्रांसमीटर होता है। कैमरा आठ घंटे तक प्रति सेकंड दो तस्वीरें भेजता है। ये तस्वीरें रोगी की कमर के चारों ओर एक बेल्ट से जुड़ी एक छोटी सी रिकॉर्डिंग उपकरण को भेजी जाती है और इन तस्वीरों को डाॅक्टर अपने कंप्यूटर पर अपलोड कर लेते हैं। यह कैप्सूल डिस्पोजेबल होता है और आमतौर पर प्राकृतिक रूप से शरीर से उत्सर्जित हो जाता है। लेकिन अगर यह अपने आप नहीं निकलता है तो इसे हटाने के लिए सर्जरी की आवश्यकता हो सकती है। इनके अलावा रोगी के आंत की बेरियम एक्स-रे भी की जा सकती है। यह क्लिनिक के एक्स-रे विभाग में किया जाता है। इस परीक्षण के लिए, आंतों का खाली होना महत्वपूर्ण होता है। इसके तहत रोगी को तरल बेरियम पिलाकर एक्स-रे ली जाती है। इससे बाद में कब्ज हो सकता है और रोगी को हल्के जुलाब के सेवन आवश्यकता हो सकती है। कैंसर के निदान के लिए छोटी आंत की एमआरआई भी ली जा सकती है। इससे ट्यूमर के होने का पता चलता है। यह प्रारंभिक चरण में कैंसर का पता लगाता है। लेकिन इससे कभी-कभी आंत के कैंसर का स्पष्ट चित्र प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। 
आंत के कैंसर के उपचार
सर्जरी - यह आंत के कैंसर के लिए मुख्य इलाज है। इसके तहत आंत के कैंसरग्रस्त हिस्सों को निकाल दिया जाता है। रायह रोगग्रस्त आंत के वर्गों, साथ ही बाधा दूर करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
रेडियोथेरेपी एवं कीमोथेरेपी- सर्जरी के बाद भी कुछ कैंसरग्रस्त कोशिकाएं रह जाती है जिन्हें नष्ट करने के लिए रेडियोथेरेपी दी जाती है। विकिरण चिकित्सा सर्जरी के बाद या कीमोथेरेपी के साथ दी जाती है। 


 


कैंसर रहित ट्यूमर होते हैं फाइब्रॉएड

फाइब्रॉएड नॉन-कैंसरस (सौम्य) ट्यूमर होते हैं, जो गर्भाशय की मांसपेशी की परतों पर बढ़ते हैं। इन्हें गर्भाशय फाइब्रॉएड, म्यॉमास तथा फिब्रोमयोमस के नाम से भी जाना जाता है। फाइब्रॉएड चिकनी मांसपेशियों और रेशेदार ऊतकों से बने होते हैं। अलग-अलग महिलाओं में फाइब्रॉएड का आकार अलग-अलग हो सकता है। यह सेम के बीज से लेकर तरबूज जितना बड़ा हो सकता है।
लगभग 20 प्रतिशत महिलाओं को पूरे जीवन में फाइब्रॉएड कभी न कभी जरूर प्रभावित करता है। 30 से 50 के बीच आयु वर्ग की महिलाओं को फाइब्रॉएड विकसित होने की आशंका सबसे अधिक होती है। सामान्य वजन वाली महिलाओं की तुलना में अधिक वजन और मोटापे से ग्रस्त महिलाओं में फाइब्रॉएड विकासित होने का जोखिम अधिक होता है।
फाइब्रॉएड क्या है 
गर्भ के अंदर घातक (कैंसर वाली) चिकनी मांसपेशियां विकसित हो सकती हैं, इन्हें गर्भ का लेमियोसार्कोमा कहा जाता है। हालांकि ये अत्यंत दुर्लभ होते हैं। यह चार प्रकार, इंट्राम्यरल फाइब्रॉएड, सबसरोसल फाइब्रॉएड, सरवाइकल फाइब्रॉएड तथा सरवाइकल फाइब्रॉएड का होता है। यह क्यों होता है इसका ठीक-ठीक कारण अभी तक पचा नहीं चल सका है। 
उपचार व दवाएं 
फाइब्रॉएड के इलाज के लिए कोई अकेला कारगर इलाज नहीं है। इससे निपटने के लिए कई प्रकार से इलाज किया जाता है और इसके कई उपचार विकल्प मौजूद हैं। यदि आपको इसके लक्षण दिखाई देते हैं तो अपने डॉक्टर से इसके उपचार के संभावित विकल्पों के बारे में चर्चा करें। फाइब्रॉएड के होने के कई बार कोई संकेत नहीं मिलते हैं। ये कैंसर रहित होते हैं और शायद ही कभी गर्भावस्था में हस्तक्षेप करते हैं। ये धीरे-धीरे बढ़ते हैं, और और रजोनिवृति के बाद हटने भी लगते हैं, जब प्रजनन हार्मोन का स्तर कम होता है।
फाइब्रॉएड के लिए दवाएं 
गर्भाशय फाइब्रॉएड के लिए ली जाने वाली दवाएं मासिक धर्म चक्र को विनियमित करने वाले हॉर्मोंस को लक्षित करती हैं। इनसे मासिक धर्म के भारी लक्षणों जैसे माहवारी रक्तस्राव और श्रोणि दबाव का इलाज होता है। ये दवाएं फाइब्रॉएड को खत्म तो नहीं करतीं, लेकिन, छोटा जरूर कर सकती हैं। इसके उपचार में गोनाडोट्रोपिन-रिलेक्सिंग हॉर्मोन अगोनिस्ट्स, प्रोजेस्टिन-रिलेक्सिंग इंट्रॉटरीने डिवाइस, आईयूडी आदि उपयोग किये जा सकते हैं।
अन्य उपचार माध्यम 
आपका डॉक्टर आपको अन्य दवाएं लेने की सलाह दे सकता है। उदाहरण के लिए मुंह से ली जाने वाली गर्भ निरोधकों या जेस्टिन्स माहवारी रक्तस्राव को नियंत्रित करने में मदद कर सकते हैं, लेकिन ये फाइब्रॉएड का आकार कम नहीं कर सकती हैं। नोनस्टेरॉइडल एंटी-इंफ्लेमेटरी ड्रग्स (एनएसएआईडी), जो कि हार्मोनल दवाएं नहीं हैं, फाइब्रॉएड से संबंधित दर्द से राहत दिलाने में प्रभावी हो सकती हैं। लेकिन ये फाइब्रॉएड की वजह से हो रहे रक्तस्राव को कम नहीं करतीं। इसके अलावा भारी माहवारी रक्तस्राव और एनीमिया होने पर आपका चिकित्सक आपको विटामिन और आयरन सप्लीमेंट लेने का सुझाव भी दे सकता है।


महिलाओं की सामान्य समस्या है एन्डोमीट्रीओसिस

आधुनिक युग के कारण नित नई बीमारियों का न केवल पता चलता है बल्कि अस्वस्थ दिनचर्या के कारण कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्यायें भी होती हैं जो पुरुषों और महिलाओं को प्रभावित करती हैं। एन्डोमीट्रीओसिस भी आधुनिक युग की महिलाओं की सामान्य समस्या है जो सबसे अधिक कामकाजी महिलाओं में देखी जाती है, क्योंकि उनकी दिनचर्या अनियमित होती है। तनाव भी इस बीमारी का कारण है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं यह केवल कामकाजी महिलाओं को ही होता है, यह बीमारी घरेलू महिलाओं को भी प्रभावित करती है। जिनकी जिंदगी तनाव और अवसादग्रस्त होती है उनमें यह बीमारी अधिक देखी जाती है। 
क्या है एन्डोमीट्रीओसिस
यह एक प्रकार की दर्दनाक और खतरनाक समस्या है जो अंतर्गर्भाशयकला (एन्डोमीट्रियम) में होती है। अंतर्गर्भाशयकला एक प्रकार का म्यूकस यानी श्लेष्मा है जो गर्भाशय की झिल्ली पर होता है। यह गर्भाशय के आंतरिक और बाहरी मुख पर भी हो सकता है। वास्तव में यह गर्भाशय, अंडाशय और फैलोपियन ट्यूब और गर्भ के पीछे कहीं भी हो सकता है। किसी प्रकार के घाव या सर्जरी भी इस बीमारी के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। दुर्लभ मामलों में ही एन्डोमीट्रीओसिस शरीर के अन्य हिस्से में हो सकते हैं। इसमें योनि के मुख पर अतिरिक्त कोशिकाओं का विकास हो जाता है जो मासिक धर्म और यौन संबंध बनाने के दौरान दर्द का कारण बनता है। कुछ मामलों में एन्डोमीट्रीओसिस आंतरिक शारीरिक रचना को प्रभावित करता है और इसकी गंभीर स्थिति को 'फ्रोजेन पेल्विस' के नाम से जाना जाता है।
एन्डोमीट्रीओसिस के लक्षण 
मासिक धर्म के दौरान कभी-कभी ऐसा दर्द होता है कि महिला इसे बर्दाश्त नहीं कर पाती और यह असनीय हो जाता है। कई बार तो यह दर्द पूरे महीने तक बना रहता है। इसके अलावा पीठ में दर्द, कंधों में दर्द और जांघों में भी तेज दर्द होता है। डायरिया, कब्ज, सूजन और मूत्र में खून निकलने जैसे लक्षण भी इसी से जुड़े हुए हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि इसके कारण सामान्य दर्द होता है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इस बीमारी से ग्रस्त महिला गर्भवती नहीं हो सकती है। क्योंकि इसके कारण शुक्राणु फैलोपियन ट्यूब तक नहीं जा पाता और महिला गर्भधारण नहीं कर पाती है।
एन्डोमीट्रीओसिस के कारण
हालांकि अभी तक यह बीमारी एक पहेली बनी हुई है, इसके लिए जिम्मेदार प्रमुख कारणों का पता अभी तक नहीं चल पाया है। शोधकर्ताओं का मानना है कि इम्यूनिटी के कारण गर्भाशय में अतिरिक्त कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है। अनियमित दिनचर्या के कारण भी यह बीमारी अधिक देखी जाती है और काफी हद तक तनाव भी इस बीमारी का कारण है।
निदान और उपचार 
इसके लक्षणों के आधार पर चिकित्सक महिला के गर्भाशय ग्रीवा या गर्भाशय स्नायुबंधन की जांच करते हैं। इसके परिणाम के बाद चिकित्सक महिला के गर्भाशय का आंतरिक परीक्षण करते हैं, इसके लिए लैप्रोस्कोपी का सहारा लिया जाता है। इस तकनीक में नाभि के माध्यम से बहुत छोटा कैमरा महिला के गर्भाशय में डालकर उसकी स्थिति का पता लगाया जाता है। सर्जरी के जरिये एन्डोमीट्रीओसिस का उपचार किया जाता है। त्वरित राहत के लिए दर्दनिवारक दवाओं का प्रयोग किया जा सकता है। अगर आपको मासिक धर्म और यौन संबंध के दौरान दर्द हो तो चिकित्सक से जरूर संपर्क करें और अपनी स्थिति के बारे में बतायें।


प्रोस्टेट कैंसर का शुरुआती चरण में ही कराएं इलाज

प्रोस्टेट कैंसर पुरुषों को होता है। प्रोस्टेट कैंसर के लक्षणों का पता अगर शुरुआत में ही चल जाए तो इसके इलाज में आसानी होती है। प्रोस्टेट एक ग्रंथि है जो कि पेशाब की नली के ऊपरी भाग के चारों तरफ होती है। यह ग्रंथि अखरोट के आकार जैसी होती है जिसका काम वीर्य में मौजूद एक द्रव पदार्थ का निर्माण करना है। प्रोस्टेट कैंसर 50 साल से अधिक उम्र के पुरूषों में होती है। 
प्रोस्टेट कैंसर का खतरा किन पुरुषों को होता है?
- 55 साल से ज्यादा उम्र के पुरुष
- अगर पिता या भाई को प्रोस्टेट कैंसर हुआ हो
- अश्वेत पुरुषों को
- मटन, घी या दूध का बहुत ज्यादा सेवन करने वाले पुरुषों को
प्रोस्टेट कैंसर के लक्षण
प्रोस्टेट कैंसर होने पर रात में पेशाब करने में दिक्कत होती है। रात में बार-बार पेशाब आता है और आदमी सामान्य अवस्था की तुलना में ज्यादा पेशाब करता है। उसे पेशाब करने में कठिनाई होती है और वह पेशाब को रोक नही सकता है। पेशाब रोकने में उसे बहुत तकलीफ होती है। पेशाब रुक-रुक कर आता है, जिसे कमजोर या टूटती मूत्रधारा कहते हैं। पेशाब करते वक्त पेशाब में रक्त निकलता है। वीर्य में भी रक्त निकलने की शिकायत होती है। शरीर में लगातार दर्द बना रहता है। कमर के निचले हिस्से या कूल्हे या जांघों के ऊपरी हिस्से में भी जकड़न भी रहती है।
प्रोस्टेट कैंसर के कारण
प्रोस्टेट होने के असली कारणों का पता अभी तक नहीं चल पाया है लेकिन कुछ कारण हैं जो इस कैंसर के के लिए जोखिम कारक हैं। धूम्रपान, मोटापा, सेक्स के दौरान वायरस का संक्रमण या फिर शारीरिक शिथिलता यानी की व्यायाम न करना प्रोस्टेट कैंसर का कारण हो सकता है। कभी-कभी असुरक्षित तरीके से पुरूषों की नसबंदी भी प्रोस्टेट कैंसर का कारण बनता है। यदि परिवार में किसी को पहले भी प्रोस्टेट कैंसर हुआ है तो भी इस कैंसर के होने का जोखिम बना रहता है। ज्यादा वसायुक्त मांस खाना भी प्रोस्टेट कैंसर का कारण बन सकता है। जिन पुरूषों की प्रजनन क्षमता कम होती है उनको भी प्रोस्टेट कैंसर होने का खतरा होता है। लिंग गुणसूत्रों में गडबडी के कारण भी प्रोस्टेट कैंसर हो सकता है।
जांच
इसका पता लगाने के लिए व्यक्ति को रक्त की जांच व यूरीनरी सिस्टम का अल्ट्रासाउंड करवाना चाहिए। यदि इन जांचों में कोई कमी पायी जाती है, तो यूरोलॉजिस्ट से संपर्क करें। प्रोस्टेट कैंसर की जांच के लिए डॉक्टर प्रोस्टेट स्पेसिफिक एंटीजन (पीएसए) का टेस्ट करवा सकते हैं। यह शरीर का एक रसायन होता है, जिसका स्तर ज्यादा हो तो प्रोस्टेट कैंसर की संभावना ज्यादा होती है।
इलाज
वृद्धावस्था में प्रोस्टेट कैंसर होने की ज्यादा संभावना होती है। यदि प्रोस्टेट कैंसर का पता स्टेज-1 और स्टेज-2 में चल जाए तो इसका बेहतर इलाज रैडिकल प्रोस्टेक्टमी नामक ऑपरेशन से होता है। लेकिन, यदि प्रोस्टेट कैंसर का पता स्टेज-3 व स्टेज-4 में चलता है तो इसका उपचार हार्मोनल थेरैपी से किया जाता है। गौरतलब है कि प्रोस्टेट कैंसर की कोशिकाओं को टेस्टोस्टेरान नामक हार्मोन से खुराक मिलती है। इसलिए पीड़ित पुरुष के टेस्टिकल्स को निकाल देने से इस कैंसर को नियंत्रित किया जा सकता है। 
बचाव
खान-पान और दिनचर्या में बदलाव करके प्रोस्टेट कैंसर की संभावना को कम किया जा सकता है। ज्यादा चर्बी वाले मांस को खाने से परहेज करें। धूम्रपान और तंबाकू का सेवन करने से बचें। यदि आपको प्रोस्टेट कैंसर की आशंका दिखे तो चिकित्सक से संपर्क जरूर करें।


पेट का कैंसर

पेट के अन्दर होने वाली असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि को पेट का कैंसर कहते है। इस बीमारी के कोई भी लक्षण बाद की अवस्थाओं तक पहुंचने से पहले सामने नही आते हैं। पेट के कैंसर को बड़ी आंत का कैसर भी कहते है और यह पाचन तंत्र के निचले हिस्से में होता है। यह वह जगह है जहां भोजन से शरीर के लिए ऊर्जा पैदा की जाती है। साथ ही यह शरीर के ठोस अवशिष्ट पदार्थों को भी पचाता है। पेट का कैंसर भीतरी परत से शुरू होकर धीरे-धीरे बाहरी परतों पर फैलता है। इसीलिए यह बताना मुश्किल होता है कि कैंसर कितने भीतर तक फैला हुआ है।
पेट के कैंसर के मरीजों की संख्या आज दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। पेट का कैंसर महिलाओं की तुलना में पुरूषों में अधिक होता है। ज्यादातर लोगों में पेट के कैंसर का पता 60 वर्ष की उम्र के बाद चलता है। बहुत ही कम मामले ऐसे हैं जिनमें इस रोग का पता 50 वर्ष की उम्र से पहले लगता है और यह महिलाओं की अपेक्षा पुरूषों में अधिक होता है। दुनिया भर में कैंसर से होने वाली मौतों का प्रमुख कारण पेट का कैंसर है।
पेट के कैंसर के जोखिम कारक 
- धूम्रपान
- मसालेदार भोजन
- शराब या तम्बाकू का इस्तेमाल
- पेट के पुराने विकारों जैसे गैस्ट्राइटिस वाला इतिहास
- पेट की शल्य चिकित्सा
पेट के कैंसर को कम करने के लिए जंकफूड छोड़कर, संतुलित भोजन खासकर तरल पदार्थ जूस, सूप, पानी इत्यादि की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। अपनी दिनचर्या में प्रतिदिन व्यायाम को शामिल करके भी पेट के कैंसर के खतरे को कम किया जा सकता है।
पेट के कैंसर का निदान
थोड़ी सी सावधानी बरतकर आप कैंसर को बढ़ने से रोक सकते हैं, अन्यथा बढ़ने के बाद यह कैंसर बहुत नुकसानदायक हो सकता है। पेट का कैंसर बड़ी आंत का कैसर है जो पाचन तंत्र के निचले हिस्से में होता है। यह वह जगह है जहां भोजन से शरीर के लिए ऊर्जा पैदा की जाती है। साथ ही यह शरीर के ठोस अवशिष्ट पदार्थों को भी पचाता है। पेट का कैंसर भीतरी परत से शुरू होकर धीरे-धीरे बाहरी परतों पर फैलता है। इसीलिए यह बताना मुश्किल होता है कि कैंसर कितने भीतर तक फैला हुआ है। पेट के कैंसर के निदान में अगर जोखिम कारकों और लक्षणों से पेट के कैंसर की सम्भावना होती है तो डॉक्टर एक फेकल ऑकल्टक ब्लड टेस्ट कर सकते हैं जिससे मल में रक्त की छोटी से छोटी मात्रा का भी पता लग जाता है। हालांकि पेट के कैंसर होते हुए भी हमेशा मल में रक्त दिखाई नही देता। ऐसी दशा में आमतौर पर किया जाने वाला अगला परीक्षण अपर इन्डोस्कोपी या अपर गैस्ट्रा इंटेस्टिनल (जीआई) रेडियोग्राफी होता है। अपर जीआई रेडियोग्राफी के दौरान रोगी को बेरियम वाला एक घोल दिया जाता है जिससे उसके पेट में एक परत बन जाती है और उसके बाद रेडियोलॉजिस्ट पेट का एक्सरे लेता है। इन्डोस्कोपी के दौरान रोगी को स्थिर रखा जाता है और एक ऑप्टिक ट्यूब को गले के रास्ते से पेट तक पहुंचाया जाता है। डॉक्टर इस उपकरण का इस्तेमाल पेट के आंतरिक हिस्सों की जांच करने के लिए करते हैं। यदि किसी भी जांच से कैंसर का पता चलता है तो डॉक्टर एक बायोप्सी करते हैं जिसमें प्रयोगशाला में जांच के लिए पेट के एक छोटे से टिश्यू को बाहर निकाला जाता है। अक्सर यह इन्डोस्कोपी के दौरान किया जा सकता है। पेट के कैंसर की पुष्टि के लिए बॉयोप्सी जरूरी है।
पेट के कैंसर का पूर्वानुमान 
आधुनिक जीवनशैली में कैंसर के रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। फेफड़े के बाद पेट का कैंसर, कैंसर से होने वाली मौत के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। पेट के कैंसर के लिए कई कारण जिम्मेदार होते हैं।
पेट के कैंसर या अन्य प्रकार के कैंसर के लिए अलग-अलग कारण जिम्मेदार होते हैं। कैंसर कोशिकाओं में फैलने वाली बीमारी है। यदि इसका पता चलने पर शुरूआत में ही इलाज कर लिया जाए तो अच्छा रहता है, वरना ये जानलेवा भी साबित हो सकता है। कोई भी दो कैंसर रोगी एक जैसे नहीं होते। अलग-अलग कैंसर से पीड़ित रोगियों के लिए डॉक्टर के उपचार का तरीका भी अलग-अगल हो सकता है। तम्बाकू या शराब का सेवन करने वाले लोगों के पेट के कैंसर से ग्रस्त होने की ज्यादा आशंका होती है। कई मामलों में आनुवांशिक कारण भी कैंसर के लिए जिम्मेदार होते हैं। फलों और सब्जियों का बहुत कम मात्रा में सेवन करने वाले लोगों के साथ ही सॉल्टेड मीट ज्यादा खाने वालों को भी यह समस्या हो सकती है। 
पेट के कैंसर की आशंका
धूम्रपान और शराब का सेवन
धूम्रपान करने और शराब का सेवन करने वाले लोगों को पेट का कैंसर होने की आशंका ज्यादा रहती है। कुछ लोगों को आदत होती है कि वे शराब के साथ सिगरेट भी पीते हैं, ऐसा करना कैंसर के मामले में और ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है।
अधिक मसालेदार भोजन
अधिक मसालेदार भोजन का सेवन भी पेट के कैंसर की आशंका को बढ़ाता है। यदि आपको ज्यादा मसालेदार भोजन करना पसंद है, तो अपनी इस आदत पर धीरे-धीरे नियंत्रण करें।
आनुवांशिक कारण
पेट के कैंसर के कुछ कारणों में कोई पुराना विकार जैसे गैस्ट्राइटिस की लंबे समय तक समस्या होना, पेट की किसी भी तरह की कोई शल्य (सर्जरी) चिकित्सा या आनुवांशिक कारण भी पेट के कैंसर के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।
असंतुलित खानपान
अगर आपके खाने में फल, सब्जियों की मात्रा कम और डिब्बाबंद आहार और फास्ट फूड की मात्रा ज्यादा होती है तो आपको पेट का कैंसर होने की आशंका ज्यादा रहती है।
पर्निशियस रक्ताल्पता
पर्निशियस रक्ताल्पता से भी पेट के कैंसर की आशंका बनी रहती है। पर्निशियस रक्ताल्पता विटामिन बी 12 के आंतरिक घटक की कमी के कारण होती है और जो भोजन के अवशोषण के लिए आवश्यक तत्व होता है।
व्यायाम की कमी
सेहतमंद रहने के लिए आपका नियमित व्यायाम करना बहुत जरूरी है। अनियमित दिनचर्या के बीच व्यायाम न करने की आदत आपको पेट के कैंसर का शिकार बना सकती है।
पेट के कैंसर का कारण उम्र से भी जुड़ा हुआ है। जिन लोगों की उम्र 60 वर्ष या इससे अधिक होती है, उन्हें पेट का कैंसर होने की आशंका ज्यादा रहती है। पेट का कैंसर एक जानलेवा बीमारी है। उपरोक्त बातों में से यदि कुछ भी आपसे जुड़ा हुआ है, तो आप समय-समय पर जांच कराकर इसके खतरे से बचे रह सकते हैं। समय से उपचार ही पेट के कैंसर का बचाव है।
पेट के कैंसर में डाक्टर को कब सम्पर्क करें
जब साधारण उपचारों जैसे एन्टामसिड्स आदि से पेट के लक्षणों में कोई भी फायदा न हो या जब लक्षण एक या दो सप्ताह से अधिक समय तक बने रहें तो आपको बिना देर किये डॉक्टर के पास जाना चाहिए। आम तौर पर पेट के कैंसर के कोई भी लक्षण प्रकट नही होते हैं। और अगर प्रकट होते भी है तो उन पर ध्यान नही दिया जाता क्योंकि ज्यादातर पेट के कैंसर से उत्पन्न होने वाले लक्षण पेट के अल्सर, वायरस और अन्य पेट सम्बन्धी विकारों की तरह ही होते हैं। 
पेट के कैंसर के मरीजों की संख्या आज दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। पेट का कैंसर महिलाओं की तुलना में पुरूषों में अधिक होता है। आमतौर पर पेट के कैंसर का पता 60 वर्ष की उम्र तक आते-आते ही पता चलता है। शुरूआत में पेट का कैंसर लक्षणहीन होता है। यह पेट के अंदर असामान्य कोशिकाओं की होने वाली अनियंत्रित वृद्धि है। लेकिन पेट में दर्द, मल में रक्त आना, कमजोरी होना आदि इसके लक्षण हो सकते हैं। 
पेट के कैंसर के लक्षण
- पेट में दर्द होना
- मल में रक्त का आना
- अचानक से वजन घटना
- एनीमिया की शिकायत
- कमजोरी महसूस होना 
- भोजन के बाद उल्टी
- जी मिचलाना 
- भूख घटना 
- अपच रहना
- डायरिया
- कब्ज 
अगर आपको इनमें से कोई भी लक्षण दिखें तो तुरन्त अपने डाक्टर को संपर्क करें, यह पेट के कैंसर के लक्षण हैं। समय रहते डाक्टर से संपर्क करने से कैंसर को बढ़ने से रोका जा सकता हैं।
पेट के कैंसर की चिकित्सा
पेट के कैंसर के उपचार के लिए सर्जरी करवाई जा सकती है। इसके अलावा कीमोथेरेपी, रेडिएशन ट्रीटमेंट के माध्यम से पेट के कैंसर की चिकित्सा संभव हो सकती है।
पेट के कैंसर के लिए तीन मुख्य उपचार सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी हैं। इस बीमारी के इलाज के लिए वर्तमान में सिर्फ सर्जरी ही उपलब्ध है। कीमोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी का इस्तेमाल केवल लक्षणों को दूर करने और बीमारी की प्रगति को धीमा करने के लिए किया जाता है और इसमें कभी-कभी अधिक समय लग सकता है।
पेट के कैंसर की सर्जरी, जिसे गैस्ट्रेक्टोमी कहा जाता है इसमें पेट के भाग या फिर पूरे पेट को बाहर निकालना शामिल है। साथ ही लिम्ब ग्लैंड के पास वाले हिस्सों को भी हटाया जा सकता है। अगर मरीज को कैंसर के शुरुआती दौर में ही पता चल जाए तो कैंसर वाले भाग को निकाल दिया जाता है और मरीज पूरी तरह ठीक हो जाता है।
कीमोथेरेपी में एन्टीकैंसर दवायें शामिल हैं जो मुंह द्वारा या सुई से नस में दी जाती हैं।
रेडिएशन थेरेपी में उच्च ऊर्जा वाला रेडिएशन शामिल है जिसका उपयोग कैंसर वाली कोशिकाओं पर अटैक करने के लिए किया जाता है।
कीमोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी का इस्तेमाल अकेले या संयुक्त रूप से किया जा सकता है। इससे कैंसर से प्रभावित कोशिकाओं को प्रभावी तरीके से नष्ट किया जा सकता है। हालांकि दोनो ही थेरेपी स्वस्थ उतकों को भी नष्ट करती हैं जिससे कई दुष्प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए कीमोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी के साथ थकान, जी मिचलाना, रक्त दाब में कमी और बालों का गिरना आदि जैसे दुष्प्रभाव का उपचार भी शामिल किया जाता है। पेट कैंसर के उपचार के लिए यह भी जरूरी है कि रोगी लगातार पौष्टिक भोजन लें।
पेट के कैंसर से बचाव
पेट के कैंसर के कारणों को अभी पूरी तरह समझा नही जा सका है। लेकिन कुछ ऐसे उपाय है जिन्हें अपनाकर आप पेट के कैंसर की रोकथाम कर सकते है। आप अपने भोजन और दिनचर्या में जरूरी बदलाव कर इस बीमारी से खुद को बचा सकते हैं। 
भोजन में ज्यादातर ताजे फलों और सब्जियों का सेवन करें, धूम्रपान न करें, शराब कम पिएं। अधिकांश विशेषज्ञों की यह सलाह है कि महिलाओं को दिन में एक ड्रिंक और पुरूषों को दिन में दो से अधिक ड्रिंक नही लेने चाहिए। मसालेदार भोजन, बेक किए हुए भोजन और नाइट्रेट्स द्वारा सुरक्षित किए गए खाद्य पदार्थों से बचें। 
पेट के कैंसर से बचाव के उपाय
तनाव को रखें दूर 
तनाव मुक्त रहिये और कैंसर से बचिए। ताजा शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि मानसिक तनाव कैंसर के प्रमुख लक्षणों में है। तनाव का स्तर ही इस बात का भी निर्धारण करता है कि कैंसर शरीर के किस हिस्से को प्रभावित करेगा। इसलिए कैंसर से बचे रहने के लिए तनाव को दूर रखें। 
खुश रहें और सकारात्मक सोचें
पेट के कैंसर के जोखिम को कम करने के लिए जीवन शैली में परिवर्तन करें। स्वस्थ रहने के लिए नियमित व्यायाम और समय पर भोजन लेना जरूरी है। आधुनिक जीवन शैली में समय पर भोजन और व्यायाम के लिए समय नहीं मिलता लेकिन स्वस्थ रहने के लिए अपनी दैनिक दिनचर्या में थोड़ा परिवर्तन जरूरी है। आप अपने रोजमर्रा के जीवन में जरूरी परिवर्तन करके पेट के कैंसर के जोखिम को कम कर सकते हैं।
फलों और सब्जियों का सेवन 
फल, सब्जियां, साबुत अनाज, विटामिन, खनिज और फाइबर एंटीऑक्सीडेंट होते है, जो कैंसर की रोकथाम में अहम भूमिका निभाते हैं। इसलिए ऐसे फलों और सब्जियों की किस्म का चयन करें जो विटामिन और पोषक तत्वों से भरपूर हांे।
वसा और कोलेस्ट्रॉल
विशेष रूप से जो पशु स्रोतों से प्राप्त वसा और कोलेस्ट्रॉल को लेना कम कर दे क्योंकि वसा और कोलेस्ट्रॉल में वृद्धि पेट के कैंसर होने के खतरे को बढ़ा देता है। जबकि उच्च फाइबर आहार से सुरक्षात्मक प्रभाव दिखाई देता है।
शराब का सेवन
अगर आप शराब लेते है तो वैसे तो शराब लेनी नही चाहिए लेकिन फिर भी अगर आप लेते है तो कम मात्रा में लें। अल्कोहल की मात्रा के सम्बध में अधिकांश विशेषज्ञ यह सलाह देते हैं कि महिलाओं को एक दिन में एक ड्रिंक से अधिक और पुरूषों को एक दिन में दो से अधिक ड्रिंक नही लेने चाहिए।
धूम्रपान से बचाव
अगर आपको पेट के कैंसर की रोकथाम करनी है तो धूम्रपान करना छोड़ देना चाहिए। और अगर आप नही छोड़ पा रहे है तो आप इस बारे में अपने डॉक्टर से बात करें, क्योंकि यह पेट के कैंसर के लिए एक जोखिम कारक भी है। धूम्रपान दो मुख्य कारणों के कारण आपका जोखिम बढ़ सकता है पहले सांस द्धारा तंबाकू के धुएं का निगलाना, दूसरा तम्बाकू का उपयोग।
व्यायाम को अपने दिनचर्या में शमिल करें। 
व्यायाम को कम से कम 30 मिनट करने का प्रयास करें। यदि आप से शुरू में 30 मिनट नही होता है तो कम समय के लिए करें और धीरे धीरे समय बढ़ा दें। इसके अलावा, किसी भी व्यायाम कार्यक्रम को शुरू करने से पहले अपने डॉक्टर से सलाह जरूर ले लें।
स्वस्थ वजन बनाए रखें। 
अन्य सभी की तुलना में मोटापे से ग्रस्त लोगों में पेट के कैंसर का जोखिम अधिक होता हैं। इसके अलावा, शरीर के कुछ अंग से दूसरों की तुलना में अधिक जोखिम होता हैं। अध्ययनों से संकेत मिलता है कि कमर में अतिरिक्त वसा पेट के कैंसर में जांघों या कूल्हों में अतिरिक्त वसा की तुलना में अधिक जोखिम बढ़ाती है।
परिवार का चिकित्सा इतिहास 
क्या आप जानते हैं कि अगर आपके परिवार के इतिहास में किसी को पेट का कैंसर है तो आपमें इसके विकास की अधिक संभावना होती है? जब आप अपने डॉक्टर से पेट के कैंसर की रोकथाम पर चर्चा करें तो उसे जरूर बताए कि परिवार के सदस्य को पेट का कैंसर है क्योंकि इससे अन्य प्रकार के कैंसर (जैसे पेट, जिगर, और हड्डी) के होने की भी संभावना बढ़ सकती है। 


पेट में कृमि: एक आम समस्या

पेट में कई प्रकार के कृमिओं का होना सामान्य बात है। बच्चों से लेकर बूढों तक की आंतों में ये कृमि पाये जाते हैं। इन कृमियों के कारण सैकड़ों लोग प्रतिवर्ष मौत का शिकार होते हैं और सैकड़ों लोग अन्य रोगों की गिरफ्त में आ जाते हैं। पेट के कीड़ांे का मनुष्य पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण हैं स्वच्छ पीने के पानी का अभाव, दूषित एवं अशुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन तथा शारीरिक स्वच्छता के प्रति उदासीनता। पेट में कीड़े होने से बुखार, शरीर का पीला पड़ जाना, पेट में दर्द, दिल में धक-धक होना, चक्कर आना, खाना अच्छा न लगना तथा यदा-कदा दस्त होना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। पेट के कीड़े कई प्रकार के होते हैं। लेकिन मुख्यतः ये दो प्रकार की श्रेणियों में बंटे हैं- गोल कृमि, या 'राउंड वर्म' और फीता कृमि, या 'टेप वर्म'। 
गोल कृमि: ये सबसे अधिक पाये जाने वाले आंत्र कृमि हैं। इन कृमियों में नर और मादा अलग-अलग होते हैं। इनका रंग सफेद या पीलापन लिए होता है। इस कृमि की मादा एक ही दिन में हजारों की संख्या में अंडे देती है। ये अंडे हजारों की संख्या में मल के साथ निकल कर मिटटी, पानी, सब्जियों और अन्य खाद्य एवं पेय पदार्थों को दूषित करते रहते हैं। जब कोई स्वस्थ व्यक्ति इन संक्रमित खाद्य, या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तो ये अंडे उसकी छोटी आंत में पहुंच कर वहां फूट जाते हैं तथा उनसे वहां पर लार्वा पैदा होते हैं। ये लार्वा छोटी आंत में पहुंच जाते हैं। ये कृमि गुदा और स्त्री योनि तक भी पहुंच जाते हैं। 
लक्षण: इसमें व्यक्ति की भूख प्रायः घट जाती है। परंतु कभी-कभी व्यक्ति की भूख बहुत अधिक बढ़ जाती है। कई बार इनके कारण आंतो में रुकावट भी उत्पन्न हो जाती है और व्यक्ति को मितली, या उल्टी आने लगती है। रोगी के पेट में दर्द रहने लगता है तथा मरोड़ के साथ कभी कब्ज हो जाता है, या कभी दस्त आने लगते हैं। नींद में रोगी के मुंह से लार बहती है और बच्चे दांत पीसने लगते हैं। मुंह से बदबू आने लगती है। चेहरे का रंग फीका पीला हो जाता है। शरीर कमजोर और हाथ-पैर दुबले हो जाते हैं। पेट में अफरा, शरीर में अधिक गर्मी प्रतीत होते हैं। रोगी के नाक-मुंह में खुजली होती है। कभी-कभी शरीर पर पित्ती भी उछल जाती है। 
धागे वाले कृमि: सबसे अधिक व्यक्तियों में इसी प्रकार के आंत कृमि पाये जाते हैं। इन कृमियों का अधिकतर आक्रमण बच्चों पर ही होता है। ये कृमि बहुत छोटे होते हैं। इसके भी अंडे मल द्वारा धूल, मिटटी, पानी, सब्जियों आदि तक पहुंच जाते हैं, जिनके सेवन मात्र से ये अंडे पेट में पहुंच जाते हैं। 
लक्षण: इन कृमियों के कारण बच्चों की गुदा द्वार पर, विशेष कर रात्रि के समय, तीव्र खुजली होती है, खुजली के कारण जब बच्चा अपनी अंगुली से गुदा पर खारिश करता है, तो इनके अंडे अंगुली पर चिपक कर उसके मुंह तक पहुंच जाते हैं। इससे बच्चों को नींद नहीं आती। कभी-कभी वे सोते हुए दांत किटकिटाते हैं तथा अपनी नाक को नोचते हैं। इसके कारण उनकी भूख कम हो जाती है। पेट में दर्द रहता है। 
अंकुश कृमि: ये कृमि धागे की भांति, बारीक हरियाली लिए, सफेद रंग के होते हैं। ये संक्रमित व्यक्ति की ग्रहणी तथा मध्य आंत में काफी संख्या में पाये जाते हैं। इन कृमियों के अंडे भी मल के साथ शरीर से बाहर आ कर मिट्टी में मिल जाते हैं। जब व्यक्ति नंगे पांव इनके संपर्क में आता है, तो ये पैर की कोमल त्वचा से चिपक कर, त्वचा में प्रवेश कर के, रक्त में मिल कर, फेफड़ों आदि से छोटी आंत में ग्रहणी तक पहुंच जाते हैं। 
लक्षण: इससे उत्पन्न रोग का मुख्य लक्षण रक्त की भारी कमी हो जाना है, जिससे शरीर और चेहरा पीला पड़ जाता है। भूख घट जाती है तथा कमजोरी बढ़ती है। आमाशय में पेप्टिक अल्सर की तरह का दर्द रहने लगता है। उल्टी भी होती है। इससे कभी-कभी मल के साथ रक्त भी आता है। 
स्ट्रोगइ लोइडोसिस स्टार कोरलिस: ये कृमि अत्यंत सूक्ष्म होते हंै, जो मनुष्य की छोटी आंत की ग्रहणी तथा मध्य आंत में हजारों की संख्या में पाये जाते हैं। 
लक्षण: कृमि का लार्वा त्वचा के जिस स्थान पर प्रवेश करता है, वहां तीव्र खुजली होती है और वह स्थान लाल हो कर सूज जाता है। इसके कारण रोगी को उल्टी, भूख की कमी, हल्का ज्वर, दमा जैसा श्वास और रुक-रुक कर खांसी होने लगती है। आमाशय में दर्द, अफरा तथा कभी कब्ज और कभी अतिसार की शिकायतें रहने लगती हैं। बच्चों का पेट फूल जाता है। इन कृमियों से फेफड़ों में संक्रमण के कारण कभी-कभी निमोनिया भी हो जाता है, जिससे रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। 
फीता कृमि: आम तौर से फीता कृमि कम व्यक्तियों में ही देखा गया है। जो लोग मांसाहारी हैं और गाय, या सुअर के मांस का उपयोग करते हैं, उन्हीं में ये कृमि पाये जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि ये कृमि इन दो पशुओं के शरीर में अपने जीवन का मुख्य काल व्यतीत करते हैं। इनके मांस को खाने वाले व्यक्तियों के पेट में ये कृमि आसानी से स्थानांतरित हो जाते हैं। ये कृमि, व्यक्ति की आंत की दीवार में अपना सिर गड़ाये रख कर, उसका रक्त चूसते रहते हैं। यह आंत कृमि, फीते के समान, बहुत लंबे तथा भूरे-सफेद रंग के होते हैं। इन कृमियों का शरीर, कद्दू के बीजों की तरह, चैरस खंडों के आपस में मिलने से जंजीर के रूप में होता है। इन कृमियों के शरीर मंे आहार नहीं होता। इसलिए ये अपने लिए पोषक तत्व ऊपरी सतह से ही प्राप्त करते हैं। 
लक्षण: इन कृमियों की उपस्थिति के बावजूद कभी-कभी व्यक्ति में कोई लक्षण प्रकट नहीं होता और व्यक्ति इनकी उपस्थिति से अज्ञान बना रहता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों के शरीर से कभी-कभी मल के साथ इस कृमि के खंड अवश्य निकलते रहते हंै, जिनसे इन कृमियों की पहचान की जा सकती है। इनके कारण व्यक्ति की भूख बहुत बढ़ जाती है। कभी-कभी पेट में तीव्र दर्द भी होने लगता है। मल ढीला आने लगता है। गुदा और नाक में खुजली होने लगती है। व्यक्ति के पोषक तत्व समाप्त होने लगते हैं। व्यक्ति दुबला और कमजोर होता जाता है। सिर दर्द रहने लगता है। पाचन कमजोर हो जाता है।


 


पेट की गैस कहीं बड़ी समस्या में न बदल जाए

आजकल पेट में गैस बनना एक साधारण बात हो गई है। पाचन तंत्र में विकार उत्पन्न होने की वजह से उदर और आंतों में गैस की समस्या उत्पन्न हो जाती है है। गैस बनना किसी रोग का लक्षण भी हो सकता है। अधेड़ उम्र के लोग इससे अधिक पीड़ित रहते हैं क्योंकि इस उम्र में पाचन क्रिया कमजोर होने लगती है। लोग अक्सर इसे आम समस्या समझकर नजर अंदाज कर दिया करते हैं।
गैस उदर या आंतों में बनती है। उदर व आंत शरीर के वे भाग हैं जिसमें आहार का पाचन होता है। पाचन के लिए आमाशयिक रस की जरूरत होती है। अमाशयिक रस में एंजाइम, पेप्सिन, लाइपेज और रेनिन होते हैं। पेप्सिन, हाइड्रो क्लोरिक अम्ल के साथ मिलकर प्रोटीन को पेप्टीन में बदलता है। रेनिन, दूध के केसीनोजन को गाढ़ा करता है और लाइपेज वसा का पाचन कराता है। अमाशयिक रस द्वारा ही कुछ विषैले पदार्थ जैसे विष, धातु, अल्केलोइड्स आदि निकलते हैं। अनावश्यक जीवाणुओं व कीटाणुओं का नाश भी अमाशयिक रस के द्वारा ही होता है। खाने की चीजों के पाचन के लिए अमाशयिक प्रक्रिया के दौरान पोषक तत्व सोख लिए जाते हैं, और अनचाहे अवशेष मलमूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं। पाचन क्रिया के तहत रासायनिक प्रक्रिया होती है और गैस बन जाती है। गैस का अधिक या कम बनना पाचन शक्ति, व्यक्ति की आयु, शारीरिक और मानसिक रोग और खाने की चीजों के मिश्रण आदि पर निर्भर होता है।
पेट की गैस दो प्रकार की होती है। एक तो वह जो भोजन करते समय हमारे पेट में पहुंच जाती है। जैसे− नाइट्रोजन, ऑक्सीजन। दूसरी कार्बन डाइआक्साइड, हाइड्रोजन और मीथेन है जो पाचन प्रक्रिया के दौरान आंतों में बनती है। एक स्वस्थ व्यक्ति में ये गैसें कम मात्रा में होती हैं जो कि मलद्वार या डकार से आसानी से बाहर निकल जाती हैं। परन्तु अधिक मात्रा में गैस बनने और पाचन क्रिया के दौरान इसके भोजन में मिलने के कारण इससे कष्ट देने वाले लक्षण पैदा होने लगते हैं। खाना खाने के एक या दो घंटे पश्चात पेट में भारीपन महसूस होता है और सांस लेने में भी तकलीफ होती है तथा मलद्वार से अधिक गैस निकलने के कारण आंतों में अनपचे कार्बोहाइडे्रट का बैक्टीरिया द्वारा फर्मेंटेशन होता है। ये गैसें अधिकतर हाइड्रोजन कार्बन डाईआक्साइड और मीथेन होती हैं। सामान्यतः इनमें कोई गंध नहीं होती।
पेट के दर्द की वजह गैस नहीं है। दर्द आंतों की गतिशीलता में कमी की वजह से होता है। ज्यादा गैस बनना किसी गंभीर रोग से संबंधित हो सकता है। खट्टी डकारें आना, पेट का फूलना और मलद्वार से दुर्गंधमय गैस निकलने को नजरअदांज नहीं किया जाना चाहिए। इनका पूरा इलाज होना जरूरी है। उदर के रोग जैसे गैस्ट्राइटिस, पेट में अल्सर या पेप्टिक कैंसर, आंतों के रोग एंट्राइटिस, अल्सर, एमीबाइसिस तथा जिआर्डिएसिस आदि से भी गैस की समस्या हो सकती है।
इसके अलावा हवाई यात्रा में भी गैस विकार की समस्या का सामना करना पड़ सकता है। हवाई यात्रा के दौरान इस रोग से ग्रस्त लोगों को अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है क्योंकि हवाई जहाज में वायुमण्डल का दबाव कम होने के कारण उदर की गैस आयतन में तीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है और कष्टदायक लक्षण सामने आने लगते हैं।
मुंह और सांस लेने के अंगों में विकारों की वजह से भी गैस की समस्या हो सकती है। नाक, सांस में बाधा, टौंसिल और एडिनाइड का इलाज आसानी से संभव हो सकता है और अगर गैस की समस्या इनके कारण से हो तो उसे दूर किया जा सकता है। इसी तरह दांतों के विकार और कृत्रिम दांतों की बनावट के कारण होने वाले विकार भी गैस के लक्षण हो सकते हैं।
शिशुओं में भी गैस विकार की समस्या पाई जाती है। शिशु मां से या बोतल से दूध पीते समय मुंह से हवा अंदर ले लेते हैं। इस प्रकार दूध के साथ−साथ आक्सीजन और नाइट्रोजन गैसें भी उनके पेट में पहुंच जाती हैं। यदि पेट में गैस ज्यादा मात्रा में हो जाती है तो वह दूध पीना छोड़ देता है और बेचैनी महसूस करता है, रोने लगता है और यदि यह गैस समय पर डकार द्वारा नहीं निकलती है तो या तो शिशु उल्टी कर देता है या फिर उसे असमय ही गैस के साथ मल हो जाता है।
गैस निकालने के लिए बच्चे को दूध पिलाने के बाद कंधे से लगाकर पीठ थपथपानी चाहिए, जब तक कि वह डकार न ले ले। गैस के विकार से होने वाली समस्या से बचने के लिए खाने−पीने में सफाई की आदत की जरूरत होती है। जल्दी−जल्दी जरूरत से ज्यादा खाना, खाते समय, चिंता या मानसिक तनाव से ग्रस्त होना, भोजन के समय बीच−बीच में ज्यादा पानी पीना आदि गैस की परेशानी को और अधिक बढ़ाते हैं। जुलाब की गोलियों का बार−बार इस्तेमाल भी हानिकारक होता है।
गैस के अलग−अलग शारीरिक और रोगात्मक कारण होते हैं इसलिए हर किसी के लिए एक सा भोजन उपयुक्त नहीं होता। जिन खाने की चीजों से गैस बनने की संभावना हो उनसे बचना चाहिए। कोका कोला, पेप्सी, सोड़ा आदि पेय ज्यादा गैस पैदा करते हैं क्योंकि इन सब में कार्बन डाईआक्साइड तथा सोडे की मात्रा ज्यादा होती है। ऐसी खाने की चीजों से भी बचना चाहिए जिनमें लेक्टोज की मात्रा ज्यादा होती है। बच्चों को लेक्टोज रहित आहार के तहत न्यूट्रा माइजेन जैसे एमिनो एसिड, प्रोटीन हाइड्रोलाइसेट या फिर सोयाबीन का दूध दिया जा सकता है। बड़ों को सभी प्रकार के दूध, आइस्क्रीम, चीज, दूध से बनी मिठाई, दूध से बने पेय, सफेद ब्रेड, बिस्कुट, क्रीम सूप, क्रीम युक्त व्यंजन और ठंडे मांसाहार से बचना चाहिए।
कुछ सब्जियां और फल भी अधिक गैस बनाते हैं। फूल गोभी, पत्ता गोभी, सूखी फलियां, ककड़ी, हरी मिर्च, सलाद, मटर, मूली, प्याज, कच्चे सेब, तरबूज, खरबूजा आदि अधिक गैस बनाते हैं। तले हुए या वसायुक्त पदार्थों से भी ज्यादा गैस बनती है। इनके इस्तेमाल से आंतों में कार्बन डाईआक्साइड बनती है।
अन्य रोगों की तरह गैस विकार की समस्या पर काबू पाने के लिए भी नियमित व्यायाम और योगाभ्यास लाभदायक होते हैं। सुबह शाम 2−4 किलोमीटर तक घूमना गैस की समस्या को दूर करने के लिए अच्छा व्यायाम है। इससे रक्त संचार भी ठीक बना रहता है। पाचन शक्ति भी सही रहती है। मानसिक तनाव से दूर रहते हुए शांति से सादा भोजन, इसका सबसे बड़ा इलाज है।
खाना खाते वक्त कम पानी पीना चाहिए। क्योंकि अधिक पानी पाचन के लिए हानिकारक होता है। रात को देर से भोजन करना भी गैस की समस्या को बढ़ाता है। भोजन को ठीक से पचने के लिए 6−8 घंटे लगते हैं। इसके लिए पूर्ण आराम और 7−8 घंटे की नींद आवश्यक होती है। इन सावधानियों को बरतने के बाद भी यदि गैस से पीछा न छूटे तो किसी विशेषज्ञ से सलाह लें।


गर्मियों में कैसे बचें फूड प्वाइजनिंग से

गर्मियों में खासकर बच्चों में फूड प्वाइजनिंग एक आम समस्या है। गंदे हाथों से खाद्य पदार्थों को छूने और खराब हो चुके खाद्य पदार्थों को खाने से हानिकारक जीवाणु और विषैले पदार्थ पाचन तंत्र में चले जाते हैं। ऐसा आम तौर पर आलू के सलाद, फ्राई किए हुए चावल, मांस, चिकन, मछली, अंडे से बने खराब हो चुके व्यंजनों को खाने से होता है। 
ग्रीष्म और वर्षा ऋतु अर्थात मई, जून और जुलाई माह में इस रोग का प्रकोप इस कारण से अधिक होता है, क्योंकि इन महीनों में इसके जीवाणु अधिक पनपते हैं। साथ ही कटे हुए फल, सब्जियां, मिठाईयां एवं अन्य खाद्य पदार्थ जल्दी खराब हो जाते हैं। मक्खी और मच्छर इनके जीवाणुओं को एक खाद्य पदार्थ से दूसरे खाद्य पदार्थ तक ले जाते हैं। जब जावाणुओं से संक्रमित खाद्य पदार्थ को कोई व्यक्ति खाता है तो वह खाद्य विषाक्तता का शिकार हो जाता  है।
फूड प्वाइजनिंग होने पर रोगी के पेट में ऐंठन, जी मिचलाने, डायरिया और कभी-कभी बुखार और ठंड जैसे लक्षण हो सकते हैं। इसके लक्षण खाना खाने के दो घंटे से लेकर कुछ दिनों में प्रकट हो सकते हैं। कभी-कभी तो फूड प्वाइजनिंग, पेट के फ्लू और वायरल संक्रमण में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इनके लक्षण तकरीबन एक जैसे ही होते हैं। हालांकि फूड प्वाइजनिंग में रोगी को बहुत परेशानी होती है लेकिन आम तौर पर रोगी की हालत गंभीर नहीं होती और उचित समय पर डाक्टर की सलाह पर उल्टी रोकने वाली दवा, उचित मात्रा में पेय पदार्थ लेने और आराम करने पर रोगी की हालत में जल्द सुधार हो जाता है। अधिकतर लोगों को एंटीबायोटिक दवा लेने की जरूरत नहीं पड़ती। विषाक्त खाद्य पदार्थों का पता भोजन की जांच अथवा टट्टी की जांच से चल जाता है। जिआरडिया जैसे परजीवियों के संक्रमण होने पर रोगी का इलाज अलग तरीके से किया जाता है। कभी-कभी इसके लक्षण इंफ्लामेट्री बाॅउल सिंड्रोम या गंभीर पाचन समस्या के रूप में प्रकट होते हैं।
फूड प्वाइजनिंग से बचने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि किसी खाद्य पदार्थ को छूने से पहले हाथों को अच्छी तरह से धो लेना चाहिए और कच्चे मांस या अंडे को छूने और बाथरूम से आने के बाद हाथों को किसी एंटीबैक्टीरियल साबुन से अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। जितनी भोजन की जरूरत हो उतना ही बनाना चाहिए और बच जाने पर उसे सही तापक्रम पर रखना चाहए। आम तौर पर लोग बचे हुए साॅस और मसालों को फ्रीज में नहीं रखते हैं जबकि जीवाणु इनमें तेजी से वृद्धि करते हैं।
अधिक उम्र के लोगों और बच्चों के पाचन तंत्र की कार्यक्षमता कम होती है और उनमें जीवाणुओं को नष्ट करने वाले स्टोमेक एसिड भी कम होते हैं इसके कारण उनमें  खाद्य विषाक्तता होने पर उनकी हालत गंभीर हो जाती है। गर्भवती महिलाओं को भी खाने-पीने के मामले में अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत होती है। इसके अलावा मधुमेह, कैंसर या एड्स जैसी किसी गंभीर बीमारी या कमजोर प्रतिरक्षण क्षमता वाले लोगों में भी फूड प्वाइजनिंग होने का खतरा अधिक होता है और उनका इलाज करना मुश्किल हो जाता है। 
बच्चों को खाद्य विषाक्तता होने पर शरीर में बहुत जल्द पानी की कमी हो जाती है, चमड़ी ढीली पड़ जाती है और आंखें धंस जाती हैं। बच्चा ज्यादातर निद्रावस्था में ही रहता है, उसकी चेतना कम हो जाती है, उसके शरीर में पेशाब का बनना भी कम हो जाता है और वह जल्द ही गंभीर अवस्था में आ जाता है। आरंभिक अवस्था में जीवन रक्षक घोल (ओ.आर.एस.-ओरल रिहाइड्रेशन साल्ट्स) काफी लाभदायक होता है। ओ.आर.एस. हर जगह आसानी से उपलब्ध हो जाता है। एक गिलास पानी में एक बड़ा चम्मच ओ.आर.एस. का पाउडर मिलाकर घोल बना लेना चाहिए और मरीज को यह घोल बार-बार पिलाना चाहिए। यदि बाजार में जीवन रक्षक घोल उपलब्ध नहीं है तो घर पर इसे सरलता से बनाया जा सकता है। एक गिलास पानी में एक चम्मच चीनी, चुटकी भर नमक, आधा नींबू और चुटकी भर मीठा सोडा डालकर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना लेना चाहिए। इसके अलावा मरीज को घर में उपलब्ध नारियल का पानी, छाछ, पतली दाल, शीतल पेय, चाय जैसे तरल पदार्थ भी पिलाते रहना चाहिए। अगर बच्चे के शरीर में पानी की अधिक कमी हो गयी है, वह निद्रावस्था में या बेहोश है, उसकी सांसें तेज चल रही है, पेशाब करना बंद कर दिया है या आठ घंटे तक टट्टी नहीं रूकी हो तो उसे तुरंत नजदीक के अस्पताल में ले जाना चाहिए। 


खतरनाक हो सकता है हाजत दबाना

मूत्र मार्ग की समस्याओं से प्रायः हर महिला को किसी न किसी उम्र में दो-चार होना पड़ता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इन समस्याओं एवं परेशानियों का अधिक सामना करना पड़ता है। करीब 20 प्रतिशत वयस्क महिलायें इस तरह की समस्याओं से ग्रस्त रहती हैं। मधुमेह, गुर्दे की पथरी, मूत्रीय प्रणाली की पैदाइशी विकृतियों और तंत्रिका संबंधी बीमारियों से ग्रस्त महिलाओं में ये समस्यायें एवं संक्रमण अधिक होते हैं। 
पुरूषों की तुलना में महिलाओं को इस तरह की समस्यायें अधिक होने का कारण उनकी शारीरिक संरचना में निहित है। साथ ही यह पाया जाता है कि महिलायें घर से बाहर निकलने पर मूत्र त्यागने की इच्छा को काफी अधिक समय तक दबाये रहती हैं। महिलाओं को मूत्रीय प्रणाली में होने वाली इन समस्याओं में मूत्र के रास्ते या मूत्र प्रणाली में संक्रमण सबसे सामान्य है। 
ज्यादातर महिलाओं में इस तरह के संक्रमण यौवनावस्था में खास कर शादी के तुरंत बाद आरंभ हो जाते हैं। इस अवस्था में या तो थैली की गर्दन संकरी हो जाती है या यूरेथरा में रूकावट आ जाती है जिसके कारण मसाना पूरी तरह खाली नहीं हो पाता और मसाने में पेशाब बचा रहता है जिससे संक्रमण होने का खतरा बना रहता है। महिला को बार-बार मूत्र त्यागने के लिये जाना पड़ता है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनका मसाना खाली हो ही नहीं रहा है। पेशाब करते समय दर्द, जलन और पेट के निचले हिस्से में तेज दर्द जैसी दिक्कतें होती हैं। इन्हें बार-बार मूत्र त्यागने की इच्छा होती है लेकिन मूत्र त्यागने जाने पर मूत्र बूंद-बूंद करके टपकता है। इस कारण मरीज महिला काफी बेचैन रहती है। महिलाओं में मूत्र मार्ग या मूत्र प्रणाली की समस्यायें बहुत कुछ उनकी शारीरिक संरचना से जुड़ी होती है।
महिलाओं में मूल नली (यूरेथरा) नैसर्गिक तौर पर योनि से बिल्कुल सटी होती है। इसलिये यौन क्रिया के समय मूत्र नली को थोड़ा-बहुत आघात लगने का हमेशा खतरा रहता है। इसके अलावा महिलाओं में मूत्र नली की लंबाई पुरुषों की तुलना में कम होती है। एक वयस्क महिला की मूत्र नली की लंबाई मात्र डेढ़ इंच ही होती है इस कारण मूत्र द्वार से हानिकारक जीवाणुओं के मूत्राशय तक पहुंचने में आसानी होती है। इसके अलावा भग में स्थित होने के कारण मूत्र द्वार भी गुदा के पास होता है इस कारण गुदा में मौजूद जीवाणु भी बड़ी आसानी से मूत्र द्वार तक और फिर वहां से मूत्राशय तक पहुंच सकते हैं। इस तरह महिलायें अपनी शारीरिक संरचना के कारण भी मूत्रीय प्रणाली से जुड़े विभिन्न संक्रमणों तथा कष्टों को झेलने के लिये अभिशप्त हो जाती हैं।
वैसे तो स्त्रियों को बचपन से ही मूत्रीय प्रणाली के संक्रमणों का खतरा होता है लेकिन उनके वयस्क होने पर यह खतरा और बढ़ जाता है। यौवनावस्था में कामोत्तेजना, यौन सक्रियता  तथा यौन क्रियाओं के कारण इन संक्रमणों की आशंका कई गुणा बढ़ जाती है। इस वजह से इन समस्याओं को हनीमून सिस्टाइटिस के नाम से भी जाना जाता है। 
गर्भधारण के कारण मूत्रीय प्रणाली पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है जिससे गुर्दों के मूत्र को निकासी करने वाला हिस्सा और मूत्रवाहक नलियां (यूरेटर) फूल जाता है। 
अधिक उम्र की महिलाओं में कभी-कभी हार्मोन संबंधी असंतुलन के कारण भी मूत्रीय संक्रमण, सिस्टाइटिस, पथरी और गुर्दे में खराबी जैसी समस्यायें उत्पन्न हो सकती है। हालांकि आज इन समस्याओं का लेजर की मदद से मरीज को कोई कष्ट दिये बगैर हो सकता है। 
रोग के आरंभ में तो मूत्र त्यागने संबंधी दिक्कतें होती है लेकिन रोग बढ़ जाने पर पेशाब में खून भी आ सकता है। अगर संक्रमण गुर्दे तक पहुंच जाये तब मरीज को बुखार, जी मिचलाने, उल्टियां होने और पीठ के निचले हिस्से में दर्द होने जैसी शिकायतें हो सकती है।
रोग के आरंभिक अवस्था में एंटीबायोटिक दवाइयों से फायदा पहुंच सकता है। कई बार लंबे समय तक एंटीबायोटिक दवाइयों का प्रयोग करना पड़ सकता है। बार-बार मूत्रीय संक्रमण की शिकायत होने पर योग्य यूरोलाॅजिस्ट से परामर्श लेना श्रेस्यकर होता है। पेचीदा मामलों में अल्ट्रासाउंड, आई.वी.पी.और यूरोफ्लोमीटरी इत्यादि की मदद से जांच करने की जरूरत पड़ सकती है। हालांकि मूत्रीय प्रणाली की समस्यायें महिला जीवन की आम त्रासदी है लेकिन सावधानियां बरत कर इनसे एक हद तक बचा जा सकता है। महिलाओं को शरीर के सभी अंगों के साथ-साथ गुप्तांगों की सफाई एवं स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना चाहिये। नायलन के बजाय सूती के अंतरवस्त्रों का इस्तेमाल करना चाहिये क्योंकि सूती के वस्त्र पसीने तथा अन्य तरह के स्राव को सोख लेते हैं जिससे बैक्टीरिया के पनपने की आशंका कम हो जाती है। मूत्र त्यागने की इच्छा को कभी भी दबाना नहीं चाहिये। इसके अलावा सहवास के पूर्व स्नान करना एवं सहवास के बाद मूत्र त्यागना उचित रहता है।


किसी भी उम्र में हो सकता है ओवरी कैंसर

ओवरी का कैंसर बचपन से बुढ़ापे तक किसी भी उम्र में हो सकता है। गर्भाषय और स्तन कैंसर के बाद महिलाओं में ओवरी का कैंसर तीसरे नंबर पर है। ओवरी अनेक तरह की कोशिकाओं से निर्मित होती है, इसलिए इसमें भिन्न-भिन्न तरह के ट्यूमर होते हैं।
ओवरी में ट्यूमर नॉन कैंसरस भी होते हैं, जो संक्रमण से, ओवरी में रक्त, पानी या मवाद भरने से होते हैं. ट्यूमर का इलाज इनके लक्षण मरीज की उम्र और इनके नाप पर निर्भर करती है।. इसका खतरा सबसे ज्यादा कम उम्र की लड़कियों में या रजोनिवृत्ति के बाद होता है। यह साइलेंट बीमारी है, जिसका महीनों तक लक्षण प्रकट नहीं होता, इसलिए इसका पता नहीं लगता।
रोग के कारण 
कुछ ओवरी के कैंसर आनुवांषिक होते हैं। इसका खतरा स्तन, आंत और यूटेरस कैंसर से भी बढ़ता है। गंदगी, गुप्तांग में टैल्कम पाउडर का प्रयोग, खाने में कैलोरी की अधिक मात्रा से भी इसका खतरा बढ़ता है। टेस्ट ट्यूब बेबी में अंडे बनने की दवा के प्रयोग से भी इसका खतरा बढ़ता है।
लक्षण
40 वर्ष से ज्यादा की उम्र की महिलाओं में इसके लक्षण सामान्य होते हैं, जैसे- पेट के निचले हिस्से में भारीपन, गैस की शिकायत, पेट में जलन, भूख न लगना, खाने के बाद पेट फूलना, कुछ ही दिनों में पेट का बढ़ जाना, पेट में दर्द, अचानक वजन कम हो जाना और अनियमित मासिक की शिकायत हो, तो ये ट्यूमर का संकेत हो सकते हैं।
इलाज
ज्यादातर ओवरी के ट्यूमर की पहचान एडवांस्ड स्टेज में होती है। इसका इलाज सर्जरी है। सर्जरी से यह सुनिष्चित हो जाता है कि ट्यूमर कैंसरजन्य ही है और इससे कैंसर की स्टेजिंग का भी पता चल जाता है। ऑपरेशन में कैंसर से युक्त अंग हटा दिये जाते हैं और उसके बाद कीमोथेरेपी दी जाती है। कुछ एडवांस्ड स्टेज के ओवरी के कैंसर में सर्जरी नहीं हो सकती है, सिर्फ कीमोथेरेपी से ही इलाज होता है।


गर्भाशय की रसौली

भ्रूण का पालन-पोषण करने वाली बच्चेदानी की रसौलियां महिलाओं की अत्यंत व्यापक समस्या है। एक अनुमान के अनुसार 35 वर्ष से अधिक उम्र की हर पांचवीं महिला को यह समस्या होती है। ज्यादातर मामलों में ये रसौलियां कैंसरजन्य या जानलेवा नहीं होती हंै लेकिन ये संतानहीनता का कारण बन सकती हैं। इन रसौलियों के कारण माहवारी के दौरान  अधिक रक्त स्राव होने के कारण एनीमिया हो सकती है। 
बच्चेदानी में होने वाली इन छोटी-छोटी रसौलियों के कारण माहवारी के दौरान ज्यादा रक्त आने लगता है। यह रक्तस्राव अधिक दिनों तक चल सकता है। आम तौर पर तीन से पांच दिन में बंद हो जाने वाला रक्तस्राव दस दिन तक भी जारी रह सकता है। इससे शरीर में रक्त की कमी (एनीमिया) हो जाती है। इससे महिला को कमजोरी एवं थकान होती है। ज्यादातर मामलों में मासिक चक्र पूर्ववत रहता है। कई बार मासिक खत्म हो जाने के बाद भी बीच-बीच में योनि से खून आने की शिकायत होती है। कुछ अन्य मामलों में रसौलियों में संक्रमण हो जाने से योनि से रक्त से सना हुआ दुर्गंधयुक्त स्राव आने लगता है। ऐसा होना रसौलियों के साथ -साथ कोई अन्य बीमारी होने का संकेत हो सकता है। कुछ मामलों में मासिक स्राव के समय पेट के निचले हिस्से में दर्द की शिकायत होती है। 
रसौलियां बढ़ने पर पेडू (पेल्विस) में भारीपन महसूस होने लगता है। कुछ मामलों में रसौलियां भीतर ही भीतर अपनी धुरी पर घूम जाती है जिससे पेट में अचानक तेज दर्द उठने लगता है। कई महिलाओं में रसौलियों के बहुत अधिक बढ़ जाने पर आसपास के अंगों पर दबाव पड़ने लगता है। बड़ी आंत एवं मलाशय पर दबाव पड़ने के कारण कब्ज तथा मूत्राशय पर दबाव पड़ने के कारण पेशाब रूक जाता है और थोड़ी-थोड़ी देर पर थोड़ा - थोड़ा पेशाब भी निकलता है।
ये रसौलियां संतानहीनता का बहुत बड़ा कारण हैं। अक्सर इन रसौलियों का पता संतान नहीं होने पर महिला की डाॅक्टरी जांच के दौरान ही लगता है। रसौलियों के कारण गर्भाशय में गर्भ को ठीक से जगह नहीं मिल पाती है जिससे गर्भ खुद ही गिर जाता है। कई बार संसेचित डिंब गर्भाशय की भीतरी सतह से चिपक नहीं पाता है। लेकिन कई महिलाओं में इन रसौलियों के बावजूद गर्भ ठीक से ठहर जाता है और भू्रण सामान्य रूप से बढ़ता रहता है। ऐसे मामलों में आपरेशन से प्रसव कराने की जरूरत पड़ सकती हैै। 40 साल की उम्र की तकरीबन 25 फीसदी महिलाओं की बच्चेदानी में ये रसौलियां होती हैं। हालांकि ये रसौलियां कैंसरजन्य नहीं होती हैं। समझा जाता है कि इस्ट्रोजन हार्मोन से ये रसौलियां अंकुरित होती हैं और उनका आकार बढ़ता है।
इन रसौलियों के इलाज के तौर पर पहले दवाईयां दी जाती हैं। लेकिन अगर दवाईयों से रक्तस्राव कम नहीं हो या रसौलियांे के आकार का बढ़ना जारी रहे और रसौलियां बढ़ कर बहुत बड़ी हो जाये तो आपरेशन करके बच्चेदानी निकाल दी जाती है। 
डिसफंक्शनल यूटैरन ब्लीडिंग (डी.यू.बी.) और एंडोमेट्रियोसिस जैसी बीमारियों की वजह से भी रक्तस्राव अधिक हो सकता है। डी.यू.बी. का पता डायल्टेशन एंड क्यूरोटार्ज (डी.एंड.सी.) नामक एक छोटे से आपरेशन के जरिये लगाया जाता है। लेकिन इन सब बीमारियों की पहचान स्त्री रोग विशेषज्ञ ही कर सकता है। कई बार महिलाएं सोचती हैं कि अल्ट्रासाउंड से ही बीमारी का पता लग जाएगा। लेकिन अल्ट्रासाउंड से हर तरह की बीमारियों की पहचान नहीं की जा सकती है। इसलिए ऐसी तकलीफ होने पर पहले किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए और अगर डाॅक्टर अल्ट्रासाउंड कराने की सलाह दें तभी अल्ट्रासाउंड कराना चाहिए। मरीज को इन समस्याओं से निजात पाने के लिए हार्मोन की गोली तभी लेनी चाहिए जब उनकी डी.एंड.सी. और अन्य सभी रिपोर्टें सामान्य हो। कुछ महिलाएं इन समस्याओं के इलाज के लिए डाॅक्टर के पास इस भय से जाने से कतराती हैं कि डाॅक्टर कहीं आपरेशन की सलाह न दे दे। लेकिन अगर रसौली बहुत बड़ी है या दवाईयों से ठीक नहीं हो रही हो और डाॅक्टर आपरेशन कराने की सलाह दे रहे हों तो आपरेशन में देर नहीं करनी चाहिए। मौजूदा समय में इन रसौलियों का इलाज लैपरोस्कोपी तकनीक से भी होने लगा है। इसके लिये चीर-फाड की जरूरत नहीं पड़ती है और न ही मरीज को कोई कष्ट होता है। 


गर्भाशय कैंसर
यह कैंसर गर्भाशय (यूटेरस) में होता है, जहां बच्चा विकसित होता है। गर्भाशय का कैंसर कई तरह का होता है। जैसे एन्डोमेट्रियल कैंसर व यूटेरियन सार्कोमस। एन्डोमेट्रीयल कैंसर सामान्य है और यह तब होता है, जब कैंसर का हमला गर्भाशय (यूटेरस) की परत पर होता है। यूटेरियन सार्कोमस के मामले काफी कम पाए जाते है। यह गर्भाशय (यूटेरस) की पेशियां या सहायक उतकों में फैलता है। इसीलिए हर साल डॉक्टर से पेल्विक जांच कराना चाहिए।
गर्भाशय के कैंसर की आशंका किन महिलाओं को ज्यादा होती है - 
- पचास साल से ज्यादा उम्र होने पर 
- पहले कभी हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी करवाई गई हो
- एन्डोमेट्रीयल हायपरप्लेशिया, यानी कि गर्भाशय में कई परते होने पर
- मोटापा होने पर
- बड़ी आंत का कैंसर होने पर 
- गर्भाशय के कैंसर के लक्षण 
- योनि से असामान्य रक्तस्राव, 
- असामान्य माहवारी
- मासिक चक्र के दौरान बहुत ज्यादा रक्त का रिसाव होना
- पूर्व रजोनिवृत्त महिलाओं में सामान्य अवधियों के बीच रक्त स्राव
- पूर्व रजोनिवृत्त महिलाओं में जो 40 की ऊम्र से अधिक की हो गयी हों योनि से रक्त का आना और / या अत्यंत, भारी, लंबी - अवधि या लगातार एपिसोड होना (मैलिगनेन्सी का पूर्व संकेत हो सकता है)
- रक्ताल्पता, खून की कमी (यह महिला द्वारा लंबे समय तक लगातार असामान्य मासिक रक्तस्राव के लक्षणों को नजरअंदाज करने से हो सकता है)
- पेट के निचले हिस्से में दर्द या पैल्विक में ऐंठन
- पूर्व रजोनिवृत्त महिलाओं में पतला सफेद या स्पष्ट योनि स्राव। 
- पेशाब करते समय, या सेक्स के दौरान दर्द
- मल या मूत्र के साथ रक्त का आना
ये लक्षण किसी और बीमारी के भी हो सकते है, इसीलिए डॉक्टर की सलाह लेना ही उचित है।
महिलाओं में गर्भाशय कैंसर का खतरा लगातार बढ़ रहा है। यह रोग किसी वर्ग विशेष या आयु वर्ग तक ही सीमित नहीं है। भारत में सभी आयु वर्ग की उन महिलाओं की बात करें जो 23 किस्म के कैंसरों में से किसी न किसी प्रकार के कैंसर से ग्रस्त हैं तो उनमें भी सबसे अधिक 26.5 प्रतिशत महिलाएं गर्भाशय के कैंसर से ग्रस्त हैं। 
महिलाओं द्वारा कम बच्चों को जन्म देने या बहुत देर से गर्भधारण करने के कारण गर्भाशय कैंसर का खतरा बढ़ रहा है। अपने करियर को पहली प्राथमिकता या करियर में आगे बढ़ने के चक्कर में महिलाएं जल्दी गर्भधारण करना नहीं चाहती हैं। यह गर्भाशय कैंसर का एक मुख्य कारण हो सकता है। महिलाओं गर्भधारण नहीं होने के कारण उनके षरीर में बनने वाले हार्मोनों के प्रभाव स्वरूप कैंसर टयूमर विकसित हो सकता है।
गर्भाशय कैंसर के जोखिम कारक 
गर्भाशय के कैंसर का अर्थ एन्डोमेट्रियम की मैलिगनेन्सी (कोशिकाओं की असामान्य वृद्धि) से होता है जो एन्डोमेट्रियम की कोशिकाओं से बना होता है। ये कोशिकायें गर्भाशय की पूरी मोटाई के माध्यम से अस्तर के रूप में फैली होती हैं। सर्विक्स, गर्भाशय के प्रवेशद्वार पर स्थित होता है जो विषाणु के संक्रमण को गर्भाशय में पहुंचने से रोकता है। गर्भाशय कैंसर के जोखिम कारक हैं - 
- ईस्ट्रोजन का उच्च स्तर
- एन्डोमेट्रियम हाईपरप्लासिया
- मोटापा
- उच्च रक्तचाप
- पॉलीसिस्टिक अंडाशय सिंड्रोम
- कभी भी गर्भाधान नहीं होना
- बांझपन (गर्भवती होने में असमर्थता)
- शीघ्र मीनार्की (माहवारी की जल्दी शुरुआत)
- रजोनिवृत्ति में देरी (मीनोपॉज, माहवारी बंद होना)
- एन्डोमेट्रियम पॉलिप या यूटीराइन अस्तर की अन्य सौम्य वृद्धि 
- मधुमेह
- टॉमेक्सिफेन
- हाईपरप्लासिया
- पशु वसा का अधिक सेवन
- पैल्विक विकिरण चिकित्सा
- स्तन कैंसर
- डिम्बग्रंथि के कैंसर
- शराब का सेवन  
गर्भाशय कैंसर से बचाव 
यह कैंसर वंशानुगत नहीं होता है। गर्भाशय कैंसर ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) विषाणु के संक्रमण द्वारा होता है जो सर्विक्स को संक्रमित करता है। यह सामान्य विषाणु है तथा जननांग के संपर्क से संचरित होता है। इस विषाणु संक्रमण की रोकथाम अब टीकाकरण के द्वारा संभव है।
गर्भाशय कैंसर से बचने के लिए मोटापा कम होना जरूरी है। शरीर पर जमा अतिरिक्त चर्बी गर्भाशय कैंसर का कारण हो सकता है। 
जिन महिलाओं में मासिक धर्म की जल्दी शुरु होता है, या देर से रजोनिवृत्ति होती है और जिन महिलाओं ने अपने जीवन में बच्चे को जन्म नहीं दिया है उनमें गर्भाशय के कैंसर होने की अधिक संभावना होती है। इसलिए उन्हें नियमित जांच करानी चाहिए और गर्भाशय में किसी भी प्रकार का असामान्य परिवर्तन होने पर शीघ्र निदान सुनिश्चित करना चाहिए। 
धूम्रपान करने वाली महिलाएं ओवेरियन कैंसर की चपेट में जल्दी आ सकती हैं। इसलिए धूम्रपान व नशे के सेवन से बचें। 
सुरक्षित संबंध नारीत्व के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, फिर यह सुरक्षा सर्विकल कैंसर के अर्थ में और भी अहम हो जाता है। भारत में महिलाओं की कैंसर से मृत्यु मुख्यतः सर्विकल कैंसर (स्तन कैंसर से अधिक) के कारण होती है।
सावधानियां
- समय पर खाना खाएं, 
- सुबह व शाम व्यायाम करें।
- कम उम्र में लड़कियों की शादी न करें।
- बच्चे दो से ज्यादा न हों।
- 60 साल की उम्र तक की महिलाओं को करानी चाहिए नियमित जांच।
उपचार
गर्भाशय के कैंसर का उपचार उसके स्टेज और ट्यूमर के आकार पर निर्भर करता है। रेडिएशन थेरेपी और हिस्टरेक्टमी इसके सबसे प्रचलित उपचार हैं। प्रथम स्तर के कैंसर के लिए इसका उपयोग किया जाता है। हालांकि रेडिएशन थेरेपी दर्द रहित होती है, पर इसके साइड इफेक्ट हो सकते हैं। इसके कारण दर्द, उल्टी, चक्कर आना और डायरिया या यूरिनरी समस्याएं हो सकती हैं। हिस्टरेक्टमी में पूरा गर्भाशय निकाल दिया जाता है। हिस्टरेक्टमी कराने वाली महिला कभी मां नहीं बन सकती, क्योंकि इसमें पूरा गर्भाशय निकाल दिया जाता है।


लीवर (यकृत) कैंसर

लीवर कैंसर तब होता है जब लीवर की असामान्य कोशिकाएं अनियंत्रित ढंग से विकसित होने लगती हैं।
लीवर, पेट के ऊपरी दाएं हिस्से में स्थित होता है। यह शरीर के सबसे बड़े अंगों में से एक है। लीवर का काम खून से अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालना, चर्बी के पाचन में मदद हेतु पित्त बनाना, ऊर्जा के लिए शरीर द्वारा प्रयोग होने वाले शक्कर का संग्रहण करना है।1
लीवर कैंसर के प्रकार
लीवर कैंसर मुख्यतः दो प्रकार के होते  हैं और इनका नाम लीवर के उस हिस्से पर रखा जाता है जिसमें कैंसर सबसे पहले विकसित होता है।
लीवर कैंसर का सबसे आम प्रकार लीवर की प्रमुख कोशिकाओं में शुरू होता है। यह हीपेटोसेलुलर कार्सिनोमा कहलाता है। जबकि कोलेंजियोकार्सिनोमा पित्त नली को ढकने वाली कोशिकाओं में शुरू होता है।
लीवर कैंसर के लक्षण 
लीवर कैंसर के सबसे आम लक्षण निम्न हैं -
— पेट के ऊपरी दाएं हिस्से में असहजता का अहसास
— पेट के दाएं हिस्से में, पंजर के नीचे एक कठोर गांठ होना।
— पीठ के ऊपरी हिस्से में, दायां स्कंधास्थि (शोल्डर ब्लेड) के आसपास पीड़ा होना
— बिना किसी कारण के वजन कम होना
— त्वचा का पीला पड़ना और आंखों का सफेद होना 
— असामान्य थकान
— भूख की कमी और/या मितली
हालांकि ऐसे लक्षण सिर्फ लीवर कैंसर में ही नहीं, बल्कि अन्य बीमारियों में भी हो सकते हैं। लेकिन ऐसे लक्षण प्रकट होने पर डॉक्टर से सलाह-मषविरा अवष्य लेना चाहिए।
जैसा कि नाम से ही जाहिर है लीवर कैंसर (हेपैटोसेलुलर कारसिनोमा) की शुरूआत लीवर से होती है। इसे प्राथमिक (प्राइमरी) कैंसर या हेपैटोमा भी कहा जाता है। लीवर विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से बना होता है (उदाहरण के लिए पित्त नलिकाओं, रक्त वाहिकाओं और वसा का संग्रह करने वाली कोशिकाएं)। हालांकि, लीवर कोशिकाएं (हेपैटोसाइट्स) 80 प्रतिशत लीवर ऊतकों का निर्माण करती हैं। इस तरह, अधिकतर प्राइमरी कैंसर (90-95 प्रतिशत से अधिक) लीवर कोशिकाओं से पैदा होते हैं और उन्हें हेपैटोसेलुलर कैंसर या कारसिनोमा कहा जाता है। लीवर कैंसर इस मायने में बेहद खतरनाक होता है कि जब तक मरीज को यह पता चलता है कि वह इस रोग से पीड़ित है तब तक यह लीवर से बाहर शरीर के दूसरे अंगों में भी फैल चुका होता है और सिर्फ 5 प्रतिशत मरीज ही ऐसे होते हैं जो रोग से ग्रस्त होने के बाद बिना इलाज के पांच वर्ष भी जिंदा रह पाते हैं। ऐसे में उम्मीद की बस एक ही किरण बच जाती है कि जिन मरीजों को लीवर कैंसर का खतरा हो वे अपनी निरंतर रूप से जांच करवाते रहें ताकि शुरूआती दौर में ही इसका पता लगाया जा सके। 
इलाज
शुरूआती लीवर कैंसर का इलाज सर्जरी के माध्यम से टयूमर को हटाकर (रिसेक्शन), उसे नष्ट कर या लीवर प्रतिरोपण के द्वारा किया जाता है। हालांकि, शुरूआती लीवर कैंसर की पहचान से संबंधित जांच के जो तकनीक हैं वे उतने सक्षम नहीं हैं लेकिन बहुत सारी नई तकनीकों से संबंधित शोध जारी हैं और वे उम्मीद जगाते हुए भी प्रतीत होते हैं। लीवर कैंसर से जुड़े हुए सबसे आम रोग हैं वायरल हेपटाइटिस, अल्कोहलिम और सिरोसिस। हालांकि, क्रॉनिक वायरल हेपटाइटिस अल्कोहलिम में सामान्य है और वायरल हेपटाइटिस और अल्कोहलिम दोनों ही सिरोसिस का कारण बनते हैं जो कि अक्सर ही कैंसर में विकसित हो जाता है। लीवर कैंसर दुनिया भर में विकसित होने वाला तीसरा सबसे सामान्य कैंसर है। यह जानलेवा होता है और इससे ग्रस्त अधिकतर रोगियों की साल भर के अंदर ही मौत हो जाती है। लीवर कैंसर के रोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसका कारण मधुमेह, मोटापा और हेपटाइटिस सी है जो कि लीवर में संक्रमण पैदा कर लीवर कैंसर का कारण बनता है।
इंटरवेंसनल रेडियोलौजिस्ट कैथेटर के माध्यम से शरीर के सभी भागों में वैसकुलर सिस्टम के प्रयोग द्वारा इलाज करने में समर्थ होते हैं। कैंसर के मरीजों के इलाज के मामले में इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिस्ट दवा के बगैर ही या शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित किए बगैर ही शरीर के अंदर जाकर कैंसर के टयूमर पर हमला कर पाने में सक्षम होते हैं। मिनिमली इंवेसिव इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिकल थेरैपी को टयूमर के इलाज में बहुत ही प्रभावकारी माना जा रहा है और इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले समय में यह थेरैपी, सर्जरी की अन्य सभी तकनीकों को पीछे छोड़ते हुए उनका स्थान ले लेगी। ट्रांसआर्टिरियल केमोएंबोलाइजेशन थेरैपी की सफलता से इस बात की संभावना बनती है कि भविष्य में इसके माध्यम से लीवर कैंसर के रोगियों का अच्छी तरह से उपचार हो पाएगा।
ट्रांसआर्टिरियल केमोएंबोलाइजेशन थेरैपी की प्रक्रिया के दौरान इंटरवेंशनल रेडियोलॉजिस्ट सबसे पहले पेट के निचले हिस्से की त्वचा में बहुत ही बारीक छेद कर उसमें एक कैथेटर डालता है। उसी के सहारे केमोथेरैपी दवा को इंजेक्शन के माध्यम से धमनियों में पहुंचाया जाता है जिससे ये धमनियां अवरोधित हो जाती हैं। इस अवरोध के कारण रक्त टयूमर तक नहीं पहुंच पाता और टयूमर तक अधिक मात्रा में दवाओं को पहुंचाया जाता है। 
इस प्रक्रिया के कई लाभ हैं। इसकी सहायता से सामान्य इंफ्यूजन के मुकाबले टयूमर तक अधिक मात्रा में दवा पहुंचाई जा सकती है। सामान्य लीवर के सेलों को पोर्टल सर्कुलेशन और विकारग्रस्त कोशिकाओं को हेपेटिक धमनी के द्वारा रक्त पहुंचाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि टयूमर तक शरीर के अन्य भागों को किसी भी तरह से प्रभावित किए बगैर दवा पहुंचाई जा सकती है जिससे उन्हें नष्ट करना आसान हो जाता है। इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिस्ट इस प्रक्रिया के अंतर्गत एंबोलाइजेशन का भी इस्तेमाल करते हैं। एंबोलाइजेशन एक स्थापित इंरवेंशनल रेडियोलॉजी तकनीक है जिसे ट्रॉमा के शिकार लोगों, बच्चे के जन्म के बाद अगर रक्त का बहना न रूके तब और टयूमर के इलाज में प्रयोग किया जाता है। कैंसर के मरीजों का इलाज करते हुए इंटरवेंशनल रेडियोलॉजिस्ट एंबोलाइजेशन का प्रयोग टयूमर को हो रही रक्त की आपूर्ति को रोकने, टयूमर के विकिरण तथा इस तकनीक को केमोथेरैपी के साथ जोड़कर कैंसर की दवाओं को टयूमर तक सीधे पहुंचाने के लिए करते हैं। 
इसके अलावा इंटरवेंशनल रेडियोलॉजिस्ट इमेजिंग का भी इस्तेमाल करते हैं ताकि रेडियोफ्रिक्वेंसी गर्मी को त्वचा के रास्ते कैंसर कोशिकाओं को जलाने या मारने के लिए टयूमर तक सीधे पहुचाया जा सके। कैंसर के प्रभाव वाले लीवर टयूमर को नष्ट करने के लिए रेडियोफ्रिक्वेंसी एबलेशन यानी आरएफए एक गैर-शल्य चिकित्सकीय एवं रोग से प्रभावित हिस्से तक ही सीमित रहने वाला समाधान प्रस्तुत करता है जो अपनी गर्मी के द्वारा टयूमर कोशिकाओं को तो मार डालता है, लेकिन लीवर का जो स्वास्थ्यप्रद ऊतक है उसे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करता। इस तरह यह सिस्टेमिक थेरैपी के मुकाबले मरीजों के हिसाब से सरल इलाज है। रेडियोफ्रिक्वेंशी ऊर्जा मरीज के सर्वांगीन स्वास्थ्य को प्रभावित किए बगैर दी जा सकती है और इस कारण से अधिकतर लोग कुछ दिनों के अंदर ही अपनी सामान्य दिनचर्या को फिर से शुरू कर सकते हैं। आरएफए केवल 4 सेंटीमीटर के टयृूमर का ही इलाज कर सकता है। अगर टयूमर का आकार बड़ा है तो केमोएंबोलाइजेशन के माध्यम से उसका आकार घटाने के बाद आरएफए की प्रक्रिया को अपनाया जाता है। इस प्रक्रिया से टयूमर को इतना घटाया जा सकता है कि बाद में सर्जरी कर उसे निकाला जा सके। इससे दर्द में भी बहुत राहत मिलती है और अन्य दुष्प्रभावों को भी कम किया जा सकता है। इससे कोई टॉक्सिक असर भी नहीं होता और न ही सामान्य शल्य चिकित्सा की तरह ऑपरेशन होने वाले अंगों पर निशान पड़ता है। 


किडनी का कैंसर

किडनी 
किडनी रिब केज के नीचे आने वाला सबसे पहला अंग है जो कि स्पाइन के दायें और बायें भाग में होता है। यह शरीर में रक्त साफ रखने के लिए उसे छानता है और शरीर से अतिरिक्त पानी और नमक का निष्कासन करता है ।
किडनी शरीर में पेय को संतुलित रखने में मुख्य भूमिका निभाते हैं और शरीर में पानी को भी संतुलित रखते हैं। ये रेनिन नामक हार्मोन भी बनाते हैं जो कि रक्त चाप और एरिथ्रोपोएटिन नामक हार्मोन को भी संतुलित रखते हुए लाल रक्त कोशिकाओं के उत्पादन को भी संतुलित रखते हैं।
वैसे मरीज जिनकी किडनी पूरी तरह से खराब हो जाती हैं या ठीक प्रकार से काम नहीं करती हैं उन्हें डायलीसिस या किडनी ट्रांसप्लांट की आवश्ययकता होती है । हमारी किडनी संचलन के दौरान रक्त वाहिनियों और ट्युबूल्स की मदद से रक्त को साफ कर द्रव को दोबारा अवशोषित करती हैं । प्रत्येक किडनी न्यूरान नामक छोटी इकाई से बनी होती है ।ढध्चझ
किडनी का कैंसर
यह किडनी की असामान्य कोशिकाओं के अनियंत्रित विकास के कारण होता है जो कि किडनी की सामान्य कोशिकाओं को नष्ट कर उन्हें प्रभावित कर शरीर के दूसरे अंगों को भी प्रभावित करता है।
किडनी के कैंसर के प्रकार
युवाओं में मुख्यतः तीन प्रकार के किडनी के कैंसर पाये जाते हैं - 
रेनल सेल कार्सिनोमा - यह किडनी को बनाने वाली छोटी ट्यूब की परत में शुरू होती है जो कि इकट्ठे होकर किडनी का निर्माण करते हैं। यह लगभग 85 प्रतिशत किडनी के कैंसर का कारक बनता है। हालांकि रेनल सेल कार्सिनोमा सिर्फ एक किडनी में होता है लेकिन कभी-कभी यह दोनों किडनी में भी होता है। यह कुछ आनुवांशिक असामान्यताओं के कारण भी हो सकता है। किडनी के कैंसर के लिए जिम्मेदार सबसे प्रमुख आनुवांशिक बीमारी हिपेल लिन्डाम बीमारी है। 
ऐसे अधिकतर ट्यूमर की खोज तब की जाती है जब किसी भी प्रकार का ट्यूमर रक्त या लिम्फ से दूसरे अंग में फैल चुका हो । रेनल सेल कार्सिनोमा कई प्रकार के होते हैं, जैसे- क्लीसयर सेल ट्यूमर (रेनल सेल कार्सिनोमा का 75 प्रतिशत), पैपीलरी ट्यूमर, क्रामफोब ट्यूमर और दूसरे प्रकार के कैंसर आनकोसाइटोमा। इस प्रकार के ट्यूमर का पता जीन्स में किसी प्रकार की असामान्यता को माइक्रोस्कोप में देखकर लगता है। इस प्रकार के गुर्दे का कैंसर धूम्रपान के कारण या कैडमियम के संपर्क में रहने के कारण होता है।
ट्रांजिशनल सेल कार्सिनोमा - यह किडनी के ट्यूब्सि के निकलने के साथ होता है। यह लगभग 6 से 7 प्रतिशत किडनी के कैंसर के लिए जिम्मेदार होता है। यह माइक्रोस्कोप के अंदर रेनल सेल कार्सिनोमा से अलग दिखता है और यह अक्सर रेनल पेल्विस (फनेल के आकार की जगह जो कि यूरेटर को किडनी के मुख्य भाग से जोड़ती है) से शुरू होता है। ट्रांजिशनल सेल कार्सिनोमा किडनी के कैंसर का धूम्रपान से गहरा संबंध है। यह कैंसर यूराइनरी सिस्टम के दूसरे भागों को भी प्रभावित करता है, जैसे कि यूरीन को किडनी से ब्लैडर तक ले जाने वाली ट्यूब। यह ब्लैडर की दीवार को भी प्रभावित कर सकता है।
रेनल सार्कोमा - यह किडनी के अंदर रक्त वाहिनियों से शुरू होता है या कैंसर के सबसे आम प्रकार में परिवर्तन के कारण होता है। यह किडनी के कैंसर का सबसे असामान्य प्रकार है और लगभग 1 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार है। बच्चों में होने वाले इस प्रकार के ट्यूमर को नेफरोब्ला स्टोरमा कहते हैं और यह सामान्य तौर पर विल्म्स ट्यूमर के नाम से जाना जाता है। 
किडनी के कैंसर के लक्षण 
अधिकतर स्थितियों में किडनी का कैंसर किसी प्रकार के दर्द के बिना ही बढ़ता जाता है। कुछ प्रकार के किडनी के कैंसर का पता लक्षण के बिना ही लग जाता है। जब किडनी के कैंसर के लक्षण बढ़ते हैं तो ऐसे में रेनल सेल कार्सिनोमा के बहुत से लक्षण प्रकट होते हैं जो कि किडनी से सम्बन्धित नहीं दिखाई देते हैं। इस प्रकार का ट्यूमर आसपास की वेन्स में भी फैल जाता है और वेन्स में ब्लाॅकेज का कारक बनता है। इस प्रकार का ट्यूमर एक या एक से अधिक हार्मोन का निर्माण भी करता है जो कि रूकावट का कारक बनत्ते हैं। ट्यूमर के कारण एक या एक से अधिक हार्मोन का निर्माण भी हो सकता है। इसके कुछ मुख्य लक्षण हो सकते हैं-
- वेन्स में रूकावट 
- रक्त में यूरीन का आना (हीमैट्यूरीया)
- पेट में दर्द 
- पेट में कोई असामान्य गांठ या सूजन 
- लगातार थकान होना 
- वजन का घटना 
- बिना कारण बुखार का आना 
- बढ़े हुए लिम्फर नोड्स 
- पुरूषों में स्क्रोटम के बायीं तरफ बड़ी वेन्स का इकट्ठा होना जिन्हें वैरीकोसील कहते हैं।
- हाई ब्लड प्रेशर जो कि सामान्य तौर पर नियंत्रित होता है।
- सांस लेने में परेशानी होना या रक्त के जमने के कारण पैरों में दर्द होना।
- पेट में जमे तरल पदार्थ के कारण पेट में सूजन।
- हड्डियों का आसानी से टूटना
किडनी के कैंसर से बचाव
आजकल किडनी का फेल होना या उसमें खराबी आना एक आम समस्या बन गयी है। तनाव भरी जिंदगी और अनियमित दिनचर्या ने इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है। किडनी का फेल होना और काम करना बंद कर देना अचानक होता है, जिससे इस बीमारी को ठीक करने का शायद ही मौका मिलता है। किडनी के कैंसर के लक्षण पूरी तरह से कैंसर होना सुनिश्चित नहीं करते क्योंकि यह लक्षण शरीर में उत्पन्न हुई किसी अन्य बीमारी के भी लक्षण हो सकते हैं। हो सकता है कि रोगी तब तक अपने आपको स्वस्थ महसूस करता रहे जब तक कि उसकी किडनी असावधानी के चलते पूरी तरह से काम करना बंद न कर दे।
बचाव
किडनी के कैंसर का सबसे प्रभावी तरीका धूम्रपान से परहेज है। स्वस्थ आहार, व्यायाम और उच्च रक्तचाप का नियंत्रण कर भी इस रोग के जोखिम को कम करने में मदद मिलती है। व्यावसायिक कामों में रसायनों से संपर्क में आने में पर्याप्त सावधानी बरतनी चाहिए। क्रोनिक किडनी के रोगी को अपनी किडनी की स्थिति की नियमित जांच करवाना चाहिए, किसी भी असामान्य लक्षण के मामले में डॉक्टर को बतलाना चाहिए और अपनी किडनी को कैंसर से बचाने के लिए सभी कारकों के जोखिम से बचने के लिए प्रयास करना चाहिए।


बढ़ रहा है पित्ताशय की पथरी का प्रकोप

पित्ताशय (गाॅल ब्लैडर) की पथरी की समस्या हमारे देश में बहुत अधिक है। रहन-सहन एवं खान-पान के तौर-तरीकों में तेजी से आ रहे बदलाव खास तौर पर फास्ट फुड के बढ़ते प्रचलन के कारण पित्ताशय की पथरी का प्रकोप बढ़ रहा है।
आहार पचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने, पित्त को संग्रह करके रखने और भोजन ग्रहण करने के बाद पित्त को जरूरत के अनुसार आंतों में पहुंचाने वाले पित्ताशय में पथरी की समस्या से हमारे देश में तकरीबन तीन से चार फीसदी लोग पीड़ित हैं। यह समस्या दक्षिण भारत की तुलना में उत्तरी भारत में ज्यादा है। उत्तरी भारत में तो पित्ताशय की पथरी की समस्या अमरीका जैसे विकसित देशों के समान ही व्यापक होती जा रही है। यह देखा गया है कि पश्चिमी आहार शैली अथवा फास्ट फूड खाने वालों में पित्ताशय की पथरी की समस्या अधिक आम होती है। यह पाया गया है कि जिन लोगों के रहन-सहन एवं खान-पान की शैली में अचानक बदलाव आया हो उन्हें इसकी समस्या ज्यादा होती है क्योंकि शरीर के जीन आहार की आनुवांशिक आदत में आये इस बदलाव को तत्काल स्वीकार नहीं कर पाते। यह देखा गया है जो लोग गांव से पलायन करके शहर आते हैं और जिनके खान-पान एवं रहन-सहन में अचानक परिर्वतन आता है वैसे लोगों एवं उनके बच्चों को पित्ताशय की पथरी की समस्या अधिक होती है। 
पित्ताशय की पथरी की समस्या बच्चों और महिलाओं में भी सामान्य है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह बीमारी अधिक होती है। महिलाओं में हार्मोन में परिवर्तन के कारण इसका प्रकोप अधिक है। गर्भावस्था के हार्मोन से पित्ताशय की गतिशीलता धीमी पड़ जाती है जिसके कारण कुछ संदिग्ध महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान पथरी बढ़ जाती है। कई महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान की जाने वाली अल्ट्रासाउंड में उनके पित्ताशय में पथरी दिख जाती है।
पित्ताशय लीवर में बनने वाली पित्त का संग्रह करता है। पित्त भोजन पचाने में मदद करता है। पेट को आहार पचाने के लिये जब पित्त की जरूरत होती है तब पित्ताशय से पित्त निकल कर आहार में मिल जाता है। ऐसा माना जाता है कि चर्बी जैसे खाद्य पदार्थों को पचाने में इसकी खास जरूरत पड़ती है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में नित हो रहे शोधों एवं अनुसंधानों से पित्ताशय की पथरी के बारे में हमारी धारणा तेजी से बदल रही है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब पित्ताशय को उतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है जितना पहले माना जाता था। आज माना जाता है कि पित्ताशय के बगैर भी रहना संभव है जबकि कुछ साल पहले तक यह समझा जाता था कि पित्ताशय के बगैर किसी व्यक्ति का जीवित रहना संभव नहीं है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, बल्कि पित्ताशय के बगैर भी व्यक्ति की पाचन शक्ति सामान्य रहती है और वह लंबी जिंदगी जीता है। इसलिए पित्ताशय को निकाल देने पर रोगी को कोई हानि नहीं पहुंचती है। इसके बगैर पाचन क्रिया में कोई फर्क नहीं पड़ता है। पित्ताशय को निकाल देने पर पित्त सीधा लीवर और दूसरी नलियों में जमा होता है।
पित्ताशय में मौजूद चर्बी में काॅलेस्ट्राॅल होता है। इसके अलावा पित्ताशय में पित्त का पिगमेंट होता है। ये सब रसायनिक तौर पर काफी अस्थायी होते हैं और ये घनीभूत होकर पथरी का रूप धारण कर लेते हैं। पथरी की समस्या सामान्य एवं स्वस्थ व्यक्ति में भी बिना किसी कारण के हो सकती है। जिन लोगों में पित्ताशय की मांसपेशियां ठीक से सिकुड़ नहीं पाती हंै उसमें पित्त की गतिशीलता अर्थात पित्त के अंदर-बाहर होने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है जिससे पथरी बनना और आसान हो जाता है।
आज ज्यादा से ज्यादा लोगों में पित्ताशय की पथरी होने के मामले प्रकाश में आ रहे हैंै। इसका एक कारण यह है कि अल्ट्रासाउंड की सुविधा व्यापक हो रही है और जिससे सामान्य एवं स्वस्थ लोगों में भी पित्ताशय की पथरी का पता चलने लगा है। लेकिन कई बार कुछ चिकित्सक जाने-अनजाने लोगों को पित्ताशय की पथरी को निकालने के लिये आपरेशन कराने की सलाह दे देते हैं। पथरी को लेकर मरीज के मन में इस तरह की आशंका होती है कि पथरी होने का नाम सुन कर ही घबरा जाता है और पथरी निकलवाने का आपरेशन करवाने को तैयार हो जाता है। कुछ लोग कैंसर के डर से भी पथरी का आपरेशन करवा लेते हैं। लेकिन पथरी का अंधाधुध आपरेशन करना उचित नहीं है क्योंकि जिन लोगों में पित्ताशय की पथरी होती है, उनमें से सिर्फ 0.5 प्रतिशत लोगों अर्थात 200 में से सिर्फ एक मरीज को ही पथरी के कारण कोई परेशानी होती है और उन्हें आपरेशन की आवश्यकता पड़ती है। 
पित्ताशय की पथरी को साइलेंट स्टोन कहा जाता है, क्योंकि इस पथरी के कारण अक्सर मरीज को कोई तकलीफ नहीं होती है और मरीज को आपरेशन कराने की जरूरत नहीं होती। लेकिन जब पथरी के कारण किसी तरह की तकलीफ होने लगे तब आपरेशन कराने में देर नहीं करना चाहिए, क्योंकि आपरेशन में देर करने पर काॅम्प्लीकेशन होने की आशंका 30 प्रतिशत तक हो जाती है। 
अल्ट्रासाउंड कराने पर पित्ताशय में अगर बहुत बड़ी पथरी नजर आ रही हो तो भी चिकित्सक आपरेशन कराने की सलाह देते हैं क्योंकि बड़ी पथरी का आपरेशनबढ़  नहीं कराने पर कैंसर का खतरा रहता है। पित्ताशय में अधिक वृद्धि होने, पित्ताशय में गंभीर संक्रमण होने के कारण बुखार तथा मवाद होने पर भी आॅपरेशन की जरूरत पड़ सकती है। इसके अलावा मधुमेह के रोगियों में ज्यादा खतरा रहता है इसलिए ऐसी स्थिति में आॅपरेशन कराने में विलंब नहीं करना चाहिए। 
आजकल पथरी का आपरेशन बहुत सुरक्षित हो गया है। कुछ साल पहले तक इसका आपरेशन पेट में चीरा लगाकर किया जाता था। अब कुछ साल से पथरी का आपरेशन लैपरोस्कोपी की मदद से होने लगा है जिसमें पेट में 10-11 मिली मीटर का एक छेेद किया जाता है। इसमें कोई टांका या पट्टी लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती हैै, बल्कि आपरेशन के बाद इस छेद पर मेडिकल सुपर ग्लू लगा दिया जाता है ताकि मरीज घर पर नहा भी सके। आपरेशन के चार घंटे बाद मरीज चल सकता है और रात को सामान्य भोजन करता है। आपरेशन के अगले दिन मरीज को अस्पताल से छुट्टी मिल जाती है। 
अब पित्ताशय की पथरी माइक्रोलैपरोस्कोपी आपरेशन के द्वारा निकाली जाने लगी है। यह आपरेशन दूरबीन से किया जाता है और इसके लिए मात्र तीन मिली मीटर का छेद किया जाता है। इसलिए अब मरीज को आपरेशन के नाम से घबड़ाना नहीं चाहिए और अगर चिकित्सक आपरेशन की सलाह दे तो जल्द से जल्द आॅपरेशन करा लेना चाहिए। लैपरोस्कोपी आपरेशन में कभी-कभी लेजर का भी इस्तेमाल किया जाता है लेकिन यह रोगी की स्थिति पर निर्भर करता है। 
पित्ताशय की पथरी के इलाज के लिए आपरेशन के अलावा और भी कई विकल्प  हैं लेकिन वे अधिक कारगर नहीं हैं, खतरों से भरे हैं और रोगी पर इनके दुष्प्रभाव भी होते हैं। पथरी के इलाज के लिये अपनायी जाने वाली एक वैकल्पिक पद्धति के तहत रोगी के पेट में एक छेद करके औजार डाल दिया जाता है। यह औजार पेट में मिक्सी की तरह घूमता है और सारी पथरी को चूर-चूर करके और साफ करके निकाल देता है, लेकिन इसमें पेट में पित्ताशय के आस-पास की संरचनाओं के क्षतिग्रस्त होने की भी आशंका होती है। एक अन्य उपाय के तहत पेट में छेद करके एक विषैला रसायन डाल दिया जाता है जिससे पथरी घुल जाती है, लेकिन इसमें भी पेट के दूसरे हिस्सों के क्षतिग्रस्त होने या उसमें छेद होने का खतरा रहता है। इसलिए पथरी निकालने के लिए इन उपायों का सहारा नहीं लिया जाता है। हालांकि वैसे उपायों पर अभी शोध हो रहे हैं ताकि जो रोगी आपरेशन कराने लायक नहीं हों उन्हें किसी और तरीके से पथरी से निजात दिलाया जा सके। जैसे हृदय रोगियों को बेहोश नहीं करने की स्थिति में बिना आपरेशन किये ही पथरी का इलाज हो सके। लेकिन आपरेशन के लायक मरीजों की आपरेशन के जरिये ही पथरी निकालनी चाहिए। 
इस मामले में चिकित्सक की भी अहम भूमिका है। उसे रोगी को उचित सलाह देना चाहिए। क्योंकि पित्ताशय का आपरेशन जरूरी नहीं होने पर नहीं करना चाहिए और न ही आपरेशन में इतना विलंब करना चाहिए कि काॅम्प्लीकेशन का खतरा हो जाए। काॅम्प्लीकेशन होने पर बड़ा आपरेशन करना पड़ता है और रोगी को कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ सकता है। इसमें रोगी की जान को भी खतरा हो सकता है। काॅम्प्लीकेशन बढ़ने पर पित्ताशय से पथरी निकलकर पैंक्रियाज को प्रभावित कर सकती है जिसे पैंक्रियाटाइटिस कहते हैं। इसका आपरेशन काफी खर्चीला है। 
पित्ताशय की पथरी का इलाज आम तौर पर दवाइयों से नहीं किया जाता है। सिर्फ उन्हीं रोगियों का दवा से इलाज किया जाता है जिनका पित्ताशय कार्य कर रहा होता है और उसमें छोटी-सी एक पथरी ही होती है। दवा से पथरी का इलाज करने पर रोगी को काफी लंबे समय तक दवा लेनी होती है जिससे रोगी पर दवा के काफी दुष्प्रभाव पड़ते हैं। इसके अलावा दवा बंद होने पर दोबारा पथरी हो सकती है। 
आम धारणा है कि पित्ताशय के आपरेशन के बाद व्यक्ति का वजन बढ़ जाता है, लेकिन ऐसा पुराने जमाने में होता था जब पेट खोलकर आपरेशन किया जाता था और आपरेशन के बाद मरीज काफी दिनों तक बेवजह आराम करता था तथा व्यायाम नहीं करता था। इस तरह व्यक्ति का वजन आराम करने के कारण बढ़ता था न कि आपरेशन के कारण।


युवाओं में आम है गुर्दे एवं मूत्रांगों की पथरी

रक्त को शुद्ध करने के लिये फिल्टर का काम करने वाले गुर्दे और रक्त के गंदे अवशेष को मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालने वाले मूत्रांगों में पथरी की समस्या अत्यंत व्यापक है। 20 से 40 साल उम्र के लोगों में गुर्दे एवं मूत्रीय प्रणाली में पथरी की समस्या आम है। 
गुर्दे एवं मूत्रांगों में पथरी के अनेक कारण हैं लेकिन कुछ जीवाणुओं का संक्रमण गुर्दे की पथरी का प्रमुख कारण हैं। जीवाणुओं के संक्रमण के अलावा बहुत अधिक कैल्शियम एवं आक्जिलेट ग्रहण करने, पारा थायरायड में गड़बड़ी एवं आनुवांशिक कारणों से भी गुर्दे एवं मूत्रीय प्रणाली में पथरी हो सकती है। गर्म प्रदेशों में रहने वाले लोगों को गुर्दे एवं मूत्रांगों में पथरी होने का खतरा बहुत अधिक रहता है। इसके अलावा कुछ लोगों की आंत में कैल्शियम अवशोषित करने की क्षमता बहुत अधिक होती है। यही अवशोषित कैल्शियम मूत्र की थैली अथवा मूत्र नली में पथरी पैदा करता है। 
आहार के जरिये शरीर में पहुंचने वाले कैल्शियम के अधिकांश हिस्से मूत्र के जरिये शरीर से बाहर निकल जाते हैं लेकिन इसका एक हिस्सा गुर्दे या मूत्रांगों में जमा होकर पथरी का रूप ग्रहण कर सकता है। 
गुर्दे एवं मूत्रांगों में पथरी की रोकथाम के लिये अधिक मात्रा में पानी पीना चाहिये। सेब, संतरे, चीज, चाॅकलेट, कोका, काॅफी, आईसक्रीम जैसे आक्जेलेट्स से भरपूर खाद्य पदार्थों के सेवन से परहेज करना चाहिये। पथरी के मरीजों को अधिक मात्रा में नींबू-पानी पीना चाहिये ताकि मूत्र में मौजूद कैल्शियम की मात्रा कम हो जाये। 
गुर्दे के आसपास दर्द, पेशाब के रास्ते खून निकलने, पेशाब में जलन, ठंड लगकर बुखार आने और रक्तचाप बढ़ने जैसे लक्षण गुर्दे एवं मूत्रांगों में पथरी के संकेत हो सकते हैं। 
गुर्दे एचं मूत्रांगों में पथरी की जांच एक्स रे, अल्ट्रासाउंड तथा आई.वी.पी. के जरिये आसानी से हो सकती है। जरूरत पड़ने पर पथरी की जांच के लिये पोलेराइजिंग माइक्रोस्कोप, एक्स-रे डिफ्रैक्शन एवं इंफ्रारेड तथा थर्मल विश्लेषण की भी मदद ली जा सकती है।
एक समय गुर्दे एवं मूत्रांगों में मौजूद पथरी को निकालने के लिये सर्जरी करनी पड़ती थी लेकिन अब लेजर की मदद से चीर-फाड़ के बगैर पथरी बाहर निकाली जा सकती है। इसके लिये सूक्ष्म दूरबीन यूरोस्कोप की निगरानी में लेजर के जरिये पथरी को घुला दिया जाता है। लेजर के प्रभाव से पथरी बारीक कणों के घोल में बदल जाती है जिसे लिथोट्रिप्सी से सोख लिया जाता है। अगर पथरी छोटे आकार की हो तो उसे लेजर के जरिये ही वाष्पित कर दिया जाता है। 
गुर्दे एवं मूत्रांगों की लेजर चिकित्सा की आधुनिकतम सुविधाओं से युक्त नार्थ प्वांइट हास्पीटल में लेजर की मदद से सैकड़ों मरीजों के गुर्दे एवं मूत्रांगों की पथरी निकाल चुके डा. भार्गव बताते हैं कि लेजर की मदद से पथरी के अलावा गुर्दे एवं मूत्रांगों के अन्य विकारों की भी चिर-फाड़ के बगैर कारगर चिकित्सा की जा सकती है। लेजर की मदद से मूत्रांगों में कैंसर, स्ट्रिक्चर, सिस्ट और बढ़े हुये प्रोस्टेट की भी चिकित्सा की जा सकती है। 


जब गुर्दे बंद कर देें काम करना

भारत में हर साल एक लाख से अधिक मरीजों के गुर्दे फेल होते हैं। केवल उत्तर प्रदेश में हर साल करीब 14 हजार मरीजों के गुर्दे बेकार होते हैं। इनमें से करीब 92 प्रतिशत मरीजों की समुचित चिकित्सा के अभाव में मौत हो जाती है। 
रीढ़ के दोनों तरफ स्थित गुर्दे रक्त को छानकर उसे साफ करने का काम करते हैं ताकि शरीर में स्वच्छ रक्त का प्रवाह हो। हृदय की तरह दिन-रात अनवरत काम करते हुये हमारे ये गुर्दे रक्त से छाने गये जहरीले अंश को मूत्र के रास्ते शरीर से बाहर निकाल देते हैं। गुर्दे खराब होने पर रक्त की सफाई नहीं हो पाती जिसके कारण शरीर के विभिन्न अंगों एवं मांसपेशियों को अशुद्ध और जहरीले रक्त की आपूर्ति होती है। ऐसे में रोगी की जान बचाने के लिये डायलिसिस के जरिये या तो रक्त को कृत्रिम तौर पर साफ करना जरूरी होता है या गुर्दे का प्रत्यारोपण करना पड़ता है। गुर्दे के मरीज के लिये डायलिसिस मशीन कृत्रिम गुर्दे का काम करती है। मरीज की स्थिति के अनुसार सप्ताह में तीन बार या अधिक बार डायलिसिस के जरिये रक्त को साफ करना पड़ता है। 
ज्यादातर मरीज आर्थिक तंगी एवं गरीबी के कारण गुर्दे बेकार होने पर डायलिसिस, गुर्दा प्रत्यारोपण या कोई अन्य इलाज नहीं करवा पाते जिसके कारण उनकी मौत हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में हर साल एक लाख मरीजों में से केवल तीन हजार मरीज गुर्दा प्रत्यारोपित करवा पाते हैं और तकरीबन पांच हजार मरीज डायलिसिस करवाते हैं। शेष करीब 93 प्रतिशत अर्थात हर साल गुर्दे के करीब 92 हजार मरीजों की मौत समुचित उपचार के अभाव में हो जाती है। 
अपने देश में डायलिसिस तथा गुर्दा प्रत्यारोपण की सुविधाओं का भयंकर अभाव है। देश में ऐसे अस्पताल एवं चिकित्सा केन्द्र गिनती के हैं जहां ये सुविधायें मौजूद हैं। इसके अलावा देश में नेफ्रोलाॅजिस्ट की भी काफी कमी है। देश में डायलिसिस कराने वाले नेफ्रोलाॅजिस्ट 700 हैं जबकि गुर्दा प्रत्यारोपित करने वाले सर्जनों की संख्या मात्र 50 है। 
गुर्दा प्रत्यारोपण के मामले में एक और दिक्कत समुचित गुर्दे के नहीं मिलने को लेकर है। हालांकि गुर्दे के समुचित प्रत्यारोपण के बाद मरीज सामान्य जीवन जीने में सक्षम रहता है लेकिन उसे जिंदगी भर मंहगी दवाइयां खानी पड़ती है और काफी सावधानियां बरतनी पड़ती है। इन सब के बावजूद प्रत्यारोपण की सफलता दर 90 प्रतिशत से भी अधिक है। मरीज के शरीर को स्वीकार्य गुर्दे सामान्यतः 13 साल से अधिक चलते हैं। 
गुर्दा प्रत्यारोपण के लिये किसी भी व्यक्ति से गुर्दा नहीं लिया जा सकता है। हाल में बने अंग दान कानून के बाद अब बे्रन डेथ व्यक्ति का भी गुर्दा लिया जाना संभव हो गया है। लेकिन भारत में ज्यादातर गुर्दा प्रत्यारोपण जीवित व्यक्ति के गुर्दे के ही हो रहे हैं। सबसे अच्छा गुर्दादाता परिवार के किसी सदस्य को ही माना जाता है क्योंकि ऐसी स्थिति में मरीज के शरीर में गुर्दे की स्वीकार्यता बढ़ जाती है। गुर्दा दानदाता के शरीर से एक गुर्दा निकालने पर दानदाता को कोई नुकसान नहीं होता है। वह सभी काम पहले की तरह कर सकता है और वह अपनी पूरी जिंदगी जीता है। जिस व्यक्ति से गुर्दा लिया जाता है उसकी पूरी जांच की जाती है ताकि यह पता लगे कि उसे कोई गंभीर बीमारी तो नहीं है। इसके अलावा यह भी देखा जाता है कि गुर्दा दान दाता का रक्त मरीज के रक्त से मिलता है या नहीं। अगर परिवार का कोई व्यक्ति गुर्दा देने के लिये अनुकूल नहीं पाया जाता तो परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति का गुर्दा उसकी मर्जी से लिया जा सकता है। कानून के तहत गुर्दे को खरीदना-बेचना गैरकानूनी है इसलिये यह सुनिश्चित करना जरूरी होता है कि जो व्यक्ति गुर्दा दे रहा है वह अपनी मर्जी से और बिना किसी प्रलोभन के दे रहा है। इसके अलावा यह भी पूरी तरह से सुनिश्चित किया जाता है कि गुर्दादान दाता को गुर्दा देने से भविष्य में किसी तरह की दिक्कत तो नहीं आयेगी। अगर आॅपरेशन कक्ष में गुर्दादान दाता के शरीर से गुर्दा निकालते वक्त भी ऐसा लगता है कि गुर्दा निकालने से उसे कोई खतरा हो सकता है तो किसी भी हालत में उसका गुर्दा नहीं लिया जाना चाहिये। हालांकि दो में से एक गुर्दा निकालने से व्यक्ति को कोई दिक्कत नहीं होती है। 
गुर्दे में खराबी के लिये मधुमेह और उच्च रक्त दाब मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। हालांकि गुर्दे की पथरी, प्रोस्टेट की बीमारी और गुर्दे में संक्रमण के कारण भी गुर्दे खराब हो सकते हैं। करीब 50 प्रतिशत मरीजों में उच्च रक्त दाब और मधुमेह के कारण ही गुर्दे खराब होते हैं। मधुमेह होने पर गुर्दे तत्काल खराब नहीं होते बल्कि 15-20 साल में खराब होते हैं। अगर मरीज आरंभ से ही मधुमेह को नियंत्रित रखे तो गुर्दे को खराब होने से बचाया जा सकता है। गुर्दे पर मधुमेह के प्रभाव को डायबिटिक नेफ्रोपैथी कहा जाता है। अगर मरीज मधुमेह के साथ-साथ उच्च रक्त दाब से भी पीड़ित हो तो डायबिटिक नेफ्रोपैथी होने की आशंका चैगुनी हो जाती है। 
रक्त दाब काफी समय तक रहने पर गुर्दे पर दबाव पड़ता रहता है जिससे गुर्दे खराब हो जाते हैं। गुर्दे की पथरी का लंबे समय तक इलाज नहीं कराने पर पथरी धीरे-धीरे गुर्दे को क्षतिग्रस्त कर सकती है। बिना कारण से या चिकित्सक के परामर्श के बगैर दवाइयों के सेवन करने से भी गुर्दे को नुकसान पहुंच सकता है। कुछ लोग कई देशी और दर्दनिवारक दवाइयां का अंधाधुंध सेवन करते हैं। कई लोग जोड़ों में दर्द होने पर कोई समुचित इलाज कराये बगैर 20-20 साल तक दर्दनिवारक दवाइयां ही खाते रहते हैं। इसके अलावा गुर्दे की कुछ बीमारियां वंशानुगत होती हैं। इनमें पाॅलिसिस्टिक बीमारी प्रमुख है जिसमें गुर्दे बढे़ होते हैं और बड़े-बड़े सिस्ट हो जाते हैं। 
गुर्दे की बीमारी किसी भी उम्र में हो सकती है लेकिन यह बीमारी अधेड़ावस्था में ज्यादा होती है। 
कई बार गुर्दे क्षतिग्रस्त या खराब नहीं होते बल्कि निष्क्रिय हो जाते हैं। खास तौर पर डिहाइड्रेशन, पेट में खराबी, पतला दस्त होने पर कई बार गुर्दे अस्थायी तौर पर निष्क्रिय हो जाते हैं। कई बार मरीज की कुछ दिन डायलिसिस करने पर गुर्दे में  सुधार होता है लेकिन जिस व्यक्ति के गुर्दे खराब हो चुके हैं उनके गुर्दे डायलिसिस करने पर भी ठीक नहीं हो सकते हैं। 
कई मरीजों में गुर्दे 50 से 90 प्रतिशत मृत होते हैं और केवल पांच प्रतिशत ही सक्रिय होते हैं। ऐसे मरीजों की डायलिसिस करने पर हो सकता है कि उनकी स्थिति में कुछ सुधार हो और मरीज को अधिक अंतराल के बाद डायलिसिस करने की जरूरत पड़े। 
गुर्दे के 90 प्रतिशत मरीजों में जब तक  बीमारी गंभीर रूप धारण नहीं कर लेती है तब तक बीमारी के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। मरीज में जो लक्षण प्रकट होते हैं वे ऐसे लक्षण होते हैं जिनसे यह स्पष्ट नहीं होता कि मरीज को गुर्दे की समस्या है। ऐसे मरीजों को आम तौर पर कमजोरी, हीमोग्लोबिन में कमी, रक्त दाब बढ़ने और मूत्र में शुगर आने जैसे लक्षण प्रकट होते हैं और मरीज गुर्दे की बीमारी का इलाज कराने के बजाय कोई अन्य इलाज कराता रहता है। गुर्दे की बहुत कम बीमारियों के लक्षण गुर्दे की बीमारियों की तरफ इशारा करते हैं। 
गुर्दे की बीमारी का पता लगाने के लिये रक्त एवं यूरिया परीक्षण किये जाते हैं। करीब 90 प्रतिशत रोगियों में यूरिया के सामान्य परीक्षण से ही यह पता लग जाता है कि गुर्दे में कोई खराबी तो नहीं है। 
गुर्दे की खराबी के इलाज के लिये कुछ नयी कारगर विधियों के विकास की कोशिश हो रही है। इनमें जीन थिरेपी महत्वपूर्ण है। इस थिरेपी की मदद से कई आनुवांशिक बीमारियों से गुर्दे को बचाया जा सकता है।  


पेट की बीमारियों का आसान हुआ उपचार

हमारे देश में प्राचीन कहावत है कि पेट नरम, पैर गर्म और सिर ठंडा, डाक्टर आये तो मारे डंडा। लेकिन कई बार पेट को ठंडा तथा हाजमा आदि को दुरूस्त रखने के बावजूद खाने की नली, बड़ी आंत, अमाशय, मलाशय और  ग्रहणी  में अल्सर, पोलिप और कैंसर जैसी जानलेवा स्थितियां उत्पन्न हो जाती है। एक समय पेट की ऐसी समस्याओं को दूर करने के लिये पेट को चीर कर आपरेशन करने की जरूरत पड़ जाती थी लेकिन आज गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल वीडियो इंडोस्कोपी और इंटेस्टाइनल इंडोस्कोपी अल्ट्रासाउंड जैसी नवीनतम तकनीकों की मदद से मरीज को कष्ट दिये बगैर और किसी तरह की चीर-फाड़ किये बगैर इन समस्याओं से कुछ मिनटों से लेकर एक-दो घंटे में मुक्ति दिलायी जा सकती है। 
दूरबीन आधारित इंटेस्टाइनल इंडोस्कोपी तथा इंडोस्कोपी अल्ट्रासाउंड की मदद से खाने की नली, अमाशय और छोटी आंत के अगले हिस्से अर्थात ग्रहणी(ड्यूडोनल) और बड़ी आंत के विभिन्न हिस्सों, अमाशय और मलाशय को न केवल देखा जा सकता है बल्कि इन अंगों में आये किसी विकार को तत्काल दूर किया जा सकता है।
गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल इंडोस्कोपी के लिये इंडोस्कोप नामक पतली एवं लचीली नली का इस्तेमाल किया जाता है जिसके अगले भाग पर लेंस एवं कैमरे लगे होते हैं। यह  इंडोस्कोप वीडियो माॅनीटर से जुड़ा होता है। इंडोस्कोप का अगला छोर शरीर के जिन भागों एवं अंगों से होकर गुजरता है उसके दृश्य वीडियो मानीटर पर देखे जा सकते हैं। वीडियो मानीटर को कम्प्यूटर से जोड़ कर इन दृश्यों की कई प्रतियां बनायी जा सकती है एवं उनका विश्लेषण किया जा सकता है। 
गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल इंडोस्कोपी की मदद से पेट दर्द, जी मिचलाने, उल्टी और निगलने में दिक्कत जैसी समस्याओं के सही कारणों का पता लगा कर उनका निदान किया जा सकता है। इसकी मदद से खाने की नली एवं बड़ी आंत तथा ग्रहणी में सूजन, अल्सर, ट्यूमर आदि का पता लगाकर उनका इलाज किया जा सकता है। इससे किसी ऊतक की बायोप्सी ली जा सकती है ताकि इस बात की पुष्टि हो सके कि मरीज को आंत या खाने की नली में कैंसर है या नहीं। यह भी पता लगाया जा सकता है कि पेट में अल्सर पैदा करने वाले जीवाणु हेलीकोबैक्टर पाइलोरी मौजूद हैं या नहीं। साथ ही साइटोलाॅजी संबंधी परीक्षण के लिये भी इंडोस्कोपी की मदद ली जा सकती है। इनके अलावा आंत या खाने की नली में सिकुड़न, पोलिप दूर करने और रक्त स्राव को रोकने के लिये इंडोस्कोप की मदद ली जा सकती है। कई बार बच्चे तेजाब निगल जाते हैं जिससे खाने की नली सिकुड़ जाती है। ऐसी स्थिति में इंडोस्कोपी की  मदद से खाने की नली की सिकुड़न को एक बैलून के जरिये दूर किया जाता है। 
गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल इंडोस्कोपी का एक और रूप कोलोनस्कोपी है जिसकी मदद से मलद्वार एवं बड़ी आंत की जांच की जा सकती है तथा उनमें उत्पन्न अल्सर या पोलिप को निकाला जा सकता है अथवा अन्य खराबियों को दूर किया जा सकता है। इसके तहत अंगुली जितनी पतली लचीली ट्यूब को मलद्वार के जरिये प्रवेश कराया जाता है तथा उसे सरकाकर उसके सिरे को मलाशय एवं बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता है। इसकी मदद से बड़ी आंत एवं मलाशय की जांच की जा सकती है, बायोप्सी ली जा सकती है तथा पोलिप को निकाला जा सकता है। पोलिप बड़ी आंत की भीतरी परत में असामान्य वृद्धि है जो आमतौर पर कैंसररहित  होती है। लेकिन पोलिप की परिणति कोलोरेक्टल  कैंसर के रूप में हो सकती है। इसलिये इसे जल्द से जल्द निकाल देना ही उचित रहता है। इसका आकार एक बिन्दु के बराबर भी हो सकता है और कई इंच का भी हो सकता है। कोलोनस्कोपी की मदद से पोलिप को नष्ट करने की विधि को पोलिपक्टोमी कहा जाता है। इसकी मदद से पोलिप को या तो जला दिया जाता है या स्नेयर नामक वायर लूप या बायोप्सी उपकरण की मदद से पोलिप को निकाल दिया जाता है। इस तकनीक को स्नेयर पोलिपक्टोमी कहा जाता है। 
गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल इंडोस्कोपी आज आपरेशन एवं लैपरोस्कोपी का सुरक्षित विकल्प बनकर सामने आया है। उन्होंने बताया कि इसने लैपरोस्कोपी की सीमाओं को भी दूर कर दिया है। उदाहरण के तौर पर लैपरोस्कोपी की मदद से पित की थैली निकाली जा सकती है। पित्त की थैली को निकालने के बाद कई बार पित्त की पथरी पित्त की थैली की नली में खिसक जाती है। इससे पीलिया होने का खतरा रहता है और 'की होल' सर्जरी नहीं हो पाती है। ऐसे में विशेष  इंडोस्कोपी के जरिये दूरबीन की मदद से पित्त पथरी भी निकाली जा सकती है। 
इंडोस्कोपी के कारण अब पेट के आपरेशन बहुत सीमित हो गये हैं। कई बार वैसे अल्सर जिनसे रक्त निकल रहा हो आॅपरेशन के जरिये निकालना जरूरी होता है लेकिन अब दूरबीन की मदद से अल्सर तक पहुंचकर इंजेक्शन की मदद से उसे ठीक कर दिया जाता है। कई बार पेट की सर्जरी संभव नहीं होती है खास कर आंत या खाने की नली में कैंसर होने पर। लेकिन इंडोस्कोपी से मरीज के जीवन को लंबा किया जा सकता है। इस कैंसर में खाने की नली अवरूद्ध हो जाती है जिससे मरीज खाना भी नहीं खा पाता है। इंडोस्कोपी की मदद से खाने की नली में विशेष स्टंट डाल दिया जाता है। इंडोस्कोपी के लिये मरीज को बेहोश करने अथवा अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें आपरेशन की तरह का कोई खतरा नहीं है। इसे करते समय मरीज को थोड़ी बेचैनी एवं असुविधा होती है, लेकिन मरीज इसे सहन कर सकता है। 


घातक हो सकती है बच्चे के पेट फूलने की अनदेखी

भारत जैसे विकासशील देशों में कुपोषण के कारण बच्चों में पेट फूलना एक आम समस्या है। जानकारी एवं जागरूकता के अभाव में आम तौर पर माता-पिता अक्सर इसकी अनदेखी करते हैं, लेकिन कभी-कभी यह गंभीर रोग का सूचक  हो सकता है। पेट फूलने (एब्डोमिनल डिस्टेंशन) की समस्या नवजात शिशुओं में भी हो सकती है। सिर्फ दूध पीने वाले शिशुओं को अक्सर पेट फूलने की शिकायत रहती है। इसका मुख्य कारण पेट के अंदर हवा चला जाना है। जब बच्चा दूध पीता है तब दूध के साथ वह हवा भी अंदर ले लेता है जिससे उसका पेट फूल जाता है। इसलिए दूध पिलाने के बाद बच्चे को कंधे से लगाकर डकार दिला देना चाहिए इससे अतिरिक्त हवा बाहर निकल जाती है और बच्चे का पेट नहीं फूलता तथा पेट में दर्द होने की संभावना भी काफी कम हो जाती है। 
पेट में कीड़े, जिगर बड़ा हो जाना, तिल्ली बड़ी हो जाना आदि बच्चों में पेट फूलने के प्रमुख कारण हैं। कुछ बच्चों के पेट में कुछ जन्मजात विकृतियां जैसे बच्चे के पेट में जन्म से ही पानी से भरी झिल्ली या ट्यूमर होता है। इन विकृतियों का आमतौर पर जन्म से पहले पता नहीं चलता, लेकिन बच्चे के थोड़ा बड़ा हो जाने पर बच्चे को नहलाते या कपड़े पहनाते समय अचानक इसका पता लगता है। ऐसा लगता है कि बच्चे के पेट में कोई रसौली है या पेट बढ़ा हुआ है। ऐसे बच्चों में आमतौर पर लीवर बढ़ रहा होता है, लीवर के अंदर कोई सिस्ट या ट्यूमर होता है, तिल्ली बढ़ रही होती है, आंतें फूलने लगती है, गुर्दे में कोई ट्यूमर या कैंसर होने के कारण गुर्दा बढ़ रहा होता है या गुर्दे में रूकावट की वजह से मसाने में पेशाब इकट्ठा होते रहने के कारण पेट फूल सकता है। इनके अलावा छोटी बच्चियों के ओवरी में सिस्ट हो जाती है और यह धीरे-धीरे बहुत बड़ा आकार धारण कर लेती है जिससे बच्ची का पेट बढ़ जाता है।
पेट में कीड़े होने पर संक्रमण भी हो सकता है और उसका असर जिगर और तिल्ली पर पड़ सकता है जिससे जिगर या तिल्ली बढ़ सकता है। बच्चे को बार- बार मलेरिया होने की स्थिति में उसकी तिल्ली बहुत बढ़ जाती है जिससे उसका पेट भी बढ़ जाता है। किसी बच्चे के अधिक दिनों तक एनीमिया से पीड़ित रहने पर भी उसका जिगर बढ़ सकता है। बच्चे को गुर्दे की बीमारी होने, गुर्दे  में खराबी होने या उसकी वजह से प्रोटीन की कमी होने पर गुर्दे फूल सकते हैं और बच्चे का पेट बढ़ सकता है। हमारे देश में बच्चों में पेट की तपेदिक बहुत सामान्य है और इसकी वजह से भी बच्चे का पेट फूल सकता है। 
कुछ बच्चों में कैंसर की वजह से भी पेट फूल सकता है। गुर्दे, आंत, जिगर, तिल्ली या पेट के किसी अन्य भाग में कैंसर हो जाने पर न सिर्फ बच्चे का पेट फूलने लगता है, बल्कि पेट में दर्द भी हो सकता है, पेशाब में खून आ सकता है, खून बनना बंद हो सकता है, पेशाब या टट्टी आना रूक सकता है जिससे बच्चा दिनोंदिन पीला पड़ता जाता है, उसकी भूख कम हो जाती है और बुखार आने लगता है। ऐसे बच्चों में रोग और रोग की गंभीरता का पता लगाने के लिए अन्य जांच की भी जरूरत पड़ती है। कुछ बच्चों में हार्मोन खासकर थाइराॅयड हार्मोन की कमी के कारण भी पेट फूलने लगता है। यह समस्या जन्मजात भी हो सकती है। ऐसे बच्चों में हार्मोन की जांच करायी जाती है और उसी के आधार पर बच्चे का इलाज होता है। 
बच्चों में पेट फूलने की समस्या को कभी भी हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिए। माता-पिता को बच्चे को नहलाते या कपड़े पहनाते समय उसके पेट को ध्यान से देखकर और छूकर यह पता लगाते रहना चाहिए कि बच्चे का पेट तो नहीं फूल रहा है। थोड़ी सी भी शंका होने पर नजदीकी चिकित्सक से बच्चे को दिखलाना चाहिए।
किसी बच्चे का पेट बढ़ने पर उसका कारण मालूम करना और उस कारण का निवारण करना बहुत जरूरी है। इसके लिए चिकित्सक सबसे पहले बच्चे के पेट में कीड़े का पता लगाने के लिए खून, पेशाब और टट्टी की जांच कराते हैं। ट्यूमर या कैंसर का शक होने या बच्चे में खून नहीं बनने की स्थिति में कुछ एक्स-रे या अल्ट्रासाउंड भी किया जा सकता है। इससे बीमारी का पता चल जाता है और उसी के आधार पर बच्चे का इलाज किया जाता है। 
हमारे देश में साफ-सफाई के प्रति लोगों के लापरवाह होने के कारण पेट में कीड़े की समस्या सामान्य है और बच्चे के पेट फूलने का मुख्य कारण पेट में कीड़े होना ही होता है। खाने-पीने की चीजों के स्वच्छ नहीं होने और बच्चों के मिट्टी में खेलने के कारण कीड़ों के अंडे पेट में चले जाते हैं और वहां अपनी संख्या बढ़ाते रहते हैं। इसलिए रहने की जगह को साफ रखना जरूरी है, खाने-पीने की चीजों को ढककर रखना चाहिए और उन पर मक्खियां नहीं बैठने देना चाहिए।
अगर बच्चे का पेट सिर्फ कीड़े की वजह से फूला है तो इसका इलाज बहुत आसान होता है। बच्चों के पेट में दो तरह के कीड़े होते हैं एक तो नंगी आंखों से दिखाई देते हैं। इनमें सबसे सामान्य एस्केरिस कीड़ा होता है यह 5.6 इंच लंबा हो सकता है और इसकी वजह से बच्चों के आंत में रूकावट आ सकती है। इस कारण से बच्चा जो खाता-पीता है शरीर को नहीं लगता है और बच्चा एनीमिक हो जाता है। कभी-कभी ये कीड़े आंत से निकलकर पेट में स्वतंत्र रूप से घूमते रहते हैं या पेट से बाहर निकल आते हैं जिससे पेट में मवाद बनने लगता है। कुछ कीड़े ऐसे होते हैं जो नंगी आंखों से दिखाई नहीं देते और इन्हें माइक्रोस्कोप या दूरबीन से देखना ही संभव होता है। इसलिए इनका पता टट्टी की जांच के बाद ही लगता है। 
पेट में कीड़े होने पर बच्चे को कीड़े की दवाई दी जाती है जिससे कीड़े मर जाते हैं और टट्टी के साथ पेट से बाहर निकल जाते हैं। जिन बच्चों में पेट फूलने का कारण खून नहीं बनना या एनीमिक होना होता है उन्हें तीन से छः महीने तक लौह तत्वों की दवाइयां दी जाती है जिससे धीरे-धीरे बच्चे का खून बनने लगता है। ऐसे बच्चों को प्रचूर लौह तत्व वाली हरी सब्जियां अधिक से अधिक देनी चाहिए। जिन बच्चों में कीड़े के कारण किसी तरह की जटिलता आ गयी हो या आंत गल गयी हो तो उसका इलाज आॅपरेशन से किया जाता है।  
जिन बच्चों की जांच में पेट में कोई ट्यूमर या सिस्ट का पता चलता है या गुर्दे फूले होने या मसाना फूले होने का संकेत मिलता है, उनका इलाज आपरेशन से किया जाता है। कुछ बच्चों की आंतें जन्म से ही बहुत फूली होती हैं लेकिन उनमें न तो ट्यूमर होता है और न कोई सिस्ट होता है, फिर भी आंत के कुछ हिस्सों में जन्म से ही कुछ कमी होती है और आंत सही ढंग से काम नहीं करता और आंत फूलने लगती है जिससे बच्चे को कब्ज हो जाती है, ऐसी स्थिति में आंत के खराब हिस्से को आपरेशन के जरिये निकाल दिया जाता है। 


 


जन्मजात हो सकता है हर्निया

आधुनिक समय में हर्निया महिलाओं एवं पुरुषों की सामान्य  समस्या बन गयी है। हर्निया का प्रकोप बढ़ने का मुख्य कारण लोगों में मोटापे की बढ़ रही समस्या तथा व्यायाम एवं शारीरिक श्रम से बचने की बढ़ रही प्रवृतियां हैं। इन कारणों से मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। जांघ के विशेष हिस्से की मांसपेशियों एवं लिगामेंट के बहुुत अधिक कमजोर हो जाने के कारण पेट (आंत) के हिस्से मांसपेशियों से होकर बाहर निकल जाते हैं। इसे ही हर्निया कहा जाता है। वैसे हर्निया होने के जन्मजात कारण भी होते हैं। बच्चों में आम तौर पर जन्मजात कारणों से ही हर्निया होती है। कई मामलों में बचपन से ही हर्निया होती है लेकिन इसके लक्षण 23 से 30 साल के बीच उस समय उभरते हैं जब मांसपेशियां कमजोर हो जाती है। 
बच्चों एवं पुरुषों में जन्मजात अथवा अचानक वजन बढ़ने जैसे अन्य कारणों से होने वाली हर्निया जांघ में जांघिया वाले क्षेत्र(ग्रोइन एरिया) में ही होती है।
पुरुषों में अधिक उम्र में  वजन में अचानक परिवर्तन के अलावा प्रोस्टेट की समस्या, खांसी, कब्ज और मूत्र त्यागने में दिक्कत जैसे कारणों से भी हर्निया होने की आशंका बढ़ती है क्योंकि इन कारणों से पेट पर अधिक जोर पड़ता है। दूसरी तरफ महिलाओं में हर्निया होने के कारण आम तौर वही नहीं होते जो पुरुषों के लिये होते हैं। महिलाओं में प्रसव अथवा बच्चेदानी निकालने के लिये किये जाने वाले आपरेशन के बाद हर्निया होने की आशंका बढ़ जाती है क्योंकि आपरेशन के कारण मांसपेशियां कमजोर हो जाती है्र। आपरेशन के कारण होने वाली हर्निया को इनसिशनल हर्निया कहा जाता है। इस तरह की हर्निया होने की आशंका उन महिलाओं में अधिक होती है जिनका प्रसव या  बच्चेदानी निकालने के लिये आपरेशन किया गया हो। 
हर्निया की समस्या हालांकि पुरूषों एवं महिलाओं दोनों में पायी जाती है लेकिन परुषों में यह बीमारी महिलाओं की तुलना में तकरीबन आठ गुना अधिक व्यापक है। यह बीमारी मध्यम वय के लोगों में खास तौर पर वैसे लोगों में अधिक सामान्य है जिन्हें खड़े रहकर काम करना पड़ता है। हर्निया के रोगियों को असहनीय कष्ट सहना पड़ता है। हर्निया के बहुत अधिक समय तक रहने के कारण नपुंसकता और आंत के फटने जैसी समस्यायें हो सकती है। 
हर्निया के इलाज के लिये एकमात्र उपाय आपरेशन है लेकिन अब लैपरोस्कोपी अथवा लेजर तकनीक की मदद से हर्निया का आपरेशन अत्यंत कष्टरहित एवं कारगर बन गया है। हर्निया के परम्परागत आपरेशन के तहत हर्निया को काट कर निकाल लिया जाता है लेकिन इस आपरेशन के साथ मुख्य समस्या यह है कि मरीज को आपरेशन के बाद औसतन डेढ़ महीने तक आराम करने की जरूरत होती है। यही नहीं इस आपरेशन के बाद दोबारा हर्निया होने की आशंका बनी रहती है।
परम्परागत आपरेशन के बाद दोबारा हर्निया होने की आशंका करीब 20 प्रतिशत तक होती है। परम्परागत आपरेशन की तुलना में लीशटेंस्टियन रिपेयर नामक तकनीक अधिक कारगर है और इस तकनीक से आपरेशन करने पर आपरेशन के बाद दोबारा हर्निया होने की आशंका एक प्रतिशत से भी कम होती है। इस तकनीक के तहत कम से कम टांके लगाये जाते हैं और कमजोर मांसपेशियों पर एक विशेष नेट रोपित कर दिया जाता है। हालांकि इस तरीके से आपरेशन करने पर भी मांसपेशियों में चीर-फाड़ करने की जरूरत पड़ती है और मरीज को आपेरशन के दौरान कष्ट सहना पड़ता है और आॅपरेशन के बाद काफी समय तक विश्राम करनी होती है। 
अब लैपरोस्कोपी आधारित सर्जरी के विकास के बाद हर्निया के आपरेशन के लिये मांसपेशियों में चीर-फाड़ करने की आवश्यकता समाप्त हो गयी है। लैपरोस्कोपी सर्जरी के तहत किसी भी मांसपेशी को काटे या मांसपेशियों में चीर-फाड़ किये बगैर उदर के निचले हिस्से की त्वचा में मात्र आधे इंच का चीरा लगाकर मांसपेशियों के बीच अत्यंत पतली ट्यूब (कैनुला) प्रवेश करायी जाती है। इस ट्यूब के जरिये लैपरोस्कोप डाला जाता है। यह लैपरोस्कोप अत्यंत सूक्ष्म कैमरे से जुड़ा होता है।
फाइबर आप्टिक तंतु के जरिये भीतर की तस्वीरों को परिवर्द्धित आकार में उससे जुड़े टेलीविजन के माॅनिटर पर देखा जा सकता है। टेलीविजन माॅनिटर पर तस्बीरों को देखते हुये इस पतली ट्यूब के रास्ते आधे इंच के व्यास वाली एक और पतली ट्यूब प्रवेश करायी जाती है। इस ट्यूब की मदद से हर्निया को हटाकर वहां एक विशेष जाली (नेट) फिट कर दी जाती है जिससे भविष्य में दोबारा हर्निया होने की आशंका समाप्त हो जाती है। 
हालांकि फिलहाल लैपरोस्कोपी आपरेशन परम्परागत आपरेशन की तुलना में दोगुना महंगा है क्योंकि इसके लिये जरूरी उपकरण विदेशों से आयातित होते हैं लेकिन लैपरोस्कोपी आपरेशन के बाद मरीज शीघ्र काम काज करने लायक हो जाता है और उसे अधिक समय तक अस्पताल में नहीं रहना पड़ता है। अमरीका में किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि परम्परागत आपरेशन के बाद मरीज को करीब 48 दिन आराम करने की जरूरत होती है जबकि नयी तकनीक से आपरेशन करने के बाद करीब नोै दिन का आराम पर्याप्त होता है। 
अब लैपरोस्कोपी का अधिक विकसित रुप माइक्रो लैपरोस्कोपी के रुप में सामने आया है। भारत में यह तकनीक कुछ गिने-चुने चिकित्सा केन्द्रों में उपलब्ध हो गयी है। इस नयी तकनीक के कारण हर्निया का आपरेशन और अधिक कष्टरहित एवं कारगर बन गया है। मरीज को उतना ही कष्ट होता है मानो उसे सुई चुभोई जा रही है। परम्परागत माइक्रोस्कोप आपरेशन के लिये 11 मिली मीटर व्यास का चीरा लगाने की जरूरत होती है जबकि माइक्रोलैपरोस्कोपी आपरेशन के तहत मात्र पांच मीली मीटर व्यास का चीरा लगाना ही पर्याप्त होता है। यही नहीं माइक्रोलैपरोस्कोपी आपरेशन के बाद टांके को हटाने की जरूरत नहीं पड़ती है। इस तरह दूर-दराज के मरीजों को दोबारा सर्जन के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे मरीज स्थानीय चिकित्सक से ही चेकअप आदि करवा सकते हैं।


पेट दर्द को अनदेखा न करें

पेट दर्द को कभी भी मामूली न समझें क्योंकि यह कई रोगों का कारण हो सकता है। दैनिक जीवन में बच्चों, बड़ों सभी को पेटदर्द की समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसे में बार-बार होने वाले पेट दर्द को सामान्य समझ कर गंभीरता से न लेने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
पेट में अल्सर
हमारे आमाशय में लगातार हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का निर्माण होता है जो आमाशय की मुलायम दीवारों को जला डालने में सक्षम होता है। आम तौर पर यहां बनने वाला गोंद जैसा लसलसा पदार्थ, जिसे 'म्यूकस' कहा जाता है, अम्ल के घातक प्रहारों से आमाशय की रक्षा करता है। इसमें अम्ल को अपने अंदर घोल कर निष्क्रिय बना डालने की अद्भुत क्षमता होती है। वहीं, यदि अम्ल के घातक हमलों से इस की परत नष्ट हो जाती है तो यह तुरंत अपना पुनर्निर्माण कर अम्ल के प्रहारों को रोकता है।
इस सामान्य प्रक्रिया के अलावा जब कोई व्यक्ति अधिक चाय, काॅफी, शराब, धूम्रपान, दर्द निवारक दवाएं, मिर्च-मसालों आदि का सेवन करता है तो उस में अम्ल की मात्रा सामान्य से कहीं अधिक बनने लगती है और म्यूकसरूपी रक्षक इन तीव्र हमलों से बच नहीं पाता है। फलस्वरूप, यहां की मुलायम दीवारें जल जाती हैं और ऐसा लंबे समय तक लगातार होता रहे तो आमाशय में 'घाव' बन जाते हैं जिसे चिकित्सीय भाषा में 'पेप्टिक अल्सर' कहते हैं।
इस प्रकार के रोगियों में सीने व पेट के मिलन स्थल पर 'जलन के साथ दर्द' होता है जो कंधों, पीठ और हाथ तक फैल जाता है। यदि घाव पेट यानी आमाशय में है तो दर्द भोजन के आधे से डेढ़ घंटे के भीतर शुरू हो जाता है और यदि घाव 'छोटी आंत' में है तो दर्द भोजन के 3 या 4 घंटे बाद होता है।
इस रोग का दर्द ज्यादातर मध्यरात्रि में होता है जिससे व्यक्ति की नींद उचट जाती है, क्योंकि उस समय पेट में भोजन न होने से वह खाली होता है जिससे अम्ल के दुष्प्रभाव को रोकने वाला कुछ नहीं होता। जब पेट में अम्ल अधिक मात्रा में बनता है तो दबाव बढ़ने से कई बार यह अम्ल छाती के बीचोंबीच भोजन नली को भी क्षति पहुंचाते हुए मुंह के रास्ते भी बाहर निकलता है। इस स्थिति को चिकित्सा विज्ञान में 'हार्ट बर्न' के नाम से जाना जाता है।
ऐसे रोगी को थोड़े समय के अंतराल पर दिन में 5-6 बार हल्का भोजन लेते रहना चाहिए। इसी प्रकार भोजन के डेढ़ घंटे बाद 1 कप ठंडा दूध पीते रहना चाहिए क्योंकि भोजन और दूध अम्ल को निष्क्रिय बनाते हैं।
आधी रात में दर्द होने पर 1 कप दूध व बिस्कुट या डबलरोटी लेने से राहत महसूस होती है। किसी भी दवा का सेवन अपने डाक्टर की सलाह पर ही करें। रोगी को मानसिक तनाव से बचना चाहिए और मिर्च-मसाले, शराब, सिगरेट, दर्द निवारक औषधियों से परहेज करना चाहिए।
पैंक्रियाटाइटिस
पैंक्रियाज मछलीनुमा अवयव है जो महत्त्वपूर्ण पाचक रस बनाता है। शराब का अधिक व लगातार सेवन करने और पित्ताशय की पथरी के लंबे समय तक कायम रहने पर यह खराब हो जाता है। इससे पेट में असहनीय दर्द, जी मिचला कर उलटियां, वजन में तेजी से गिरावट, अति अम्लता का प्रकोप आदि लक्षण प्रकट होते हैं जो स्थिति को बदतर बना देते हैं। इससे बचाव के लिए शराब का त्याग करना चाहिए और पाचन क्रिया को प्रोत्साहित करने वाली दवाओं का सेवन करना चाहिए।
पित्ताशय की पथरी
लीवर से स्रावित होने वाले पाचक रस को 'पित्त' कहते हैं। इसमें पित्त अम्ल, पित्त लवण आदि मौजूद होते हैं। रक्त का वसीय घटक कोलैस्ट्रौल इसी पित्त अम्लों में घुला रहता है जिनका समीकरण 1ः20 से 1ः30 होता है। किसी भी कारण से जब यह सामान्य समीकरण अपने निश्चित अनुपात से नीचे गिरने लगता है तो यह रक्त का वसीय घटक कोलैस्ट्रॉल, ठोस अवस्था में आ कर पित्त की थैली में जमा हो जाता है और इसके चारों ओर कैल्शियम और रंगीन पित्त के चकत्ते घेरा डाल लेते हैं, जिसे पथरी कहा जाता है।
इस में रोगी को पेट में असहनीय दर्द उठता है जो पीछे पीठ व आगे गले तक भी जाता है और रोगी दर्द से कराह उठता है। पित्ताशय की पथरी 40 वर्ष की आयु से ऊपर की मोटी महिलाओं में अधिक होती है। सोनोग्राफी और सीटी स्कैन जैसी रोग निदान तकनीकों से रोग का पता लगाया जाता है। शल्यक्रिया द्वारा इस का पूर्ण उपचार संभव है। खून में कोलैस्ट्राॅल का स्तर और लिवर परीक्षण समय-समय पर करवाते रहना सबसे बेहतर है। पथरी रोग के लंबे समय तक अनियंत्रित रहने पर संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
कुछ सामान्य कारण
कभी-कभी मानसिक तनाव की स्थिति में आंतों की संकुचित होने की प्रक्रिया और पाचक रस के स्रावित होने की दर बढ़ जाती है जिसकी परिणाम स्वरूप दस्त होने लगता है। इस प्रकार के मल में अधिक मात्रा पानी की होती है।
कब्ज भी पेटदर्द का एक सामान्य कारण है। मल आंतों में कड़ा हो कर ऐंठन (मरोड़) उत्पन्न करता है। कब्ज से छुटकारा पाने के लिए पर्याप्त मात्रा में जल का सेवन करें और खूब सलाद खाएं। नियमित रूप से व्यायाम करना भी काफी लाभदायक होता है।
पार्टियों या बाजार में कुछ खाद्य व पेय पदार्थ संक्रमित हो जाते हैं जिनके सेवन से उलटी और दस्त शुरू हो जाती है। यह फूड पाॅयजनिंग पेट में मरोड़ भी पैदा करता है।
गरमी के दिनों में उलटी-दस्त और पेट में दर्द एक आम शिकायत रहती है। ओआरएस का सेवन उलटी-दस्त के कारण शरीर में हुई पानी की कमी को पूरा करता है।
परीक्षण
एसिडिटी या पेप्टिक अल्सर के निदान के लिए बेरियम मील एक्स-रे किया जाता है। इसके लिए बेरियम सल्फेट का घोल पिला कर एक्सरे लिया जाता है जिससे आमाशय और आंतें साफ दिखाई देती हैं और घाव स्पष्ट नजर आता है।
एंडोस्कोपी परीक्षण तकनीक द्वारा आमाशय या आंतों में घाव (पेप्टिक अल्सर) की जांच की जाती है। मुंह या नाक के रास्ते ट्यूब डाल कर इस यंत्र द्वारा इन अंगों को स्पष्ट देखा जा सकता है।
पैंक्रियाज की खास जांच के लिए 'ईआरसीपी' तकनीक वर्तमान समय में प्रयोग की जाती है जिससे इस अंग की भलीभांति जांच होती है।
रक्त परीक्षण जिसमें एमाइलेज स्तर, लाइपेज स्तर, कोलैस्ट्राॅल स्तर (लिपिड प्रोफाइल) आदि शामिल हैं, से विभिन्न पाचक अंगों की कार्यप्रणाली का स्तर ज्ञात होता है।
मल परीक्षण द्वारा भी इन अवयवों की कार्यप्रणाली के बारे में पता चलता है। कई बार मल में रक्तस्राव सिर्फ सूक्ष्मदर्शी से ही दिखता है।
इसलिए, पेटदर्द को सामान्य समझ कर अनदेखा न करें क्योंकि यह कई रोगों के कारणों का पिटारा हो सकता है। इसलिए इसका कारण जान कर उचित इलाज कराएं।