मस्तिष्क में पानी भर जाने की बीमारी हाइड्रोसेफलस बच्चों में बहुत सामान्य है। हालांकि यह बड़े लोगों को भी होती है। बच्चों में यह आमतौर पर पैदाइशी होती है जबकि बड़ों में मस्तिष्क के ट्यूमर, तपेदिक, कीड़े की बीमारी और गर्भावस्था में उल्टी—सीधी दवाइयों के सेवन जैसे कारणों से होती है। हाइड्रोसेफलस दो तरह की होती है - आंतरिक और बाह्य। दोनों ही तरह की हाइड्रोसेफलस मस्तिष्क में पानी भरने की वजह से होती है। मस्तिष्क के पानी को सेरिबरो स्पाइनल फ्ल्यूड (सी. एस. एफ) कहते हैं। मस्तिष्क में बनने वाला यह पानी स्पाइन और मस्तिष्क में रोटेट करता है । जब सी. एस. एफ. के रास्ते में किसी तरह की रुकावट आ जाती है तब हाइड्रोसेफलस बन जाती है। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में दिन भर में करीब पांच लीटर पानी बनता है लेकिन सारा पानी मस्तिष्क में ही अवशोषित हो जाता है । परन्तु हाइड्रोसेफलस के मरीज के सिर में पानी तो बनता रहता है लेकिन अवशोषित नहीं हो पाता है और मस्तिष्क में ही जमा रह जाता है।
हमारे मस्तिष्क में पानी की चार थैलियां होती है। जब मस्तिष्क का पानी थैलियों के अंदर जमा होता है तब उसे आंतरिक हाइड्रोसेफलस कहते हैं। यह एक्विडक्टोस्टिनोसिस की वजह से होता हैै । हमारे मस्तिष्क के अंदर तीसरे और चैथे वेंट्रिकल के बीच में एक जोड़ होता है जिसे एक्विडक्टी कहते हैं। एक्विडक्टी के छोटी रह जाने या पैदाइशी तौर पर नहीं बनने की स्थिति एक्विडक्टास्टिनोसिस कहलाती है। बाह्¬य हाइड्रोसेफलस में मस्तिष्क की सतह के ऊपर और पानी की थैलियों में भी अर्थात सिर के क्रेेनियल कैविटी के अंदर चारों तरफ पानी जमा हो जाता हैै। इसमें मस्तिष्क से पानी बाहर निकलने का रास्ता ही बंद हो जाता है। हमारे देश में यह बीमारी सबसे अधिक पैदाइशी कारणों से होती है। लेकिन हमारे यहां मस्तिष्क की तपेदिक के कारण होने वाली हाइड्रोसेफलस का प्रकोप भी बहुत अधिक है। तपेदिक से पीड़ित व्यक्ति का इलाज नहीं होने पर तपेदिक मस्तिष्क तक पहुंच जाती है जिससे मस्तिष्क में पानी के बहने के रास्ते के अंदर तपेदिक के कीटाणु जमा हो जाता है और वहां हाइड्रोसेफलस हो जाता है। इसमें मरीज को पहले तपेदिक की मेनिंनजाइटिस होती है और यह मेनिंनजाइटिस बाद में हाइड्रोसेफलस बन जाती है। आजकल कीड़े की बीमारी के कारण हाइड्रोसेफलस होना सामान्य बात हो गयी है। कीड़े के अंडे शरीर में खून के रास्ते घूमते हुये जब मस्तिष्क के चौथे वेंट्रिकल में पहुंच जाता है तब यह मस्तिष्क से पानी निकलने के रास्ते में रुकावट पैदा कर देता है जिससे हाइड्रोसेफलस हो जाता है। हाइड्रोसेफलस हाने का एक मुख्य कारण मस्तिष्क में ट्यूमर का होना है क्योंकि मस्तिष्क का टयूमर सी एस एफ के बहने के रास्ते में रुकावट पैदा करता है। मस्तिष्क में पीछे की तरफ चौथे वेंट्रिकल में ट्यूमर होने; तीसरे वेंट्रिकल में ट्यूमर होन या लैटरल वेंट्रिकल में ट्यूमर होने पर मस्तिष्क में पानी इक्ट्टा होने लगता है। इसके अलावा कोरोएड प्लेक्सेस पेपिलोमा ट्यूमर के कारण भी हाइडोसेफलस हो सकती है। चूकि सी एस एफ कोरोएड प्लेक्सेस से ओज होकर निकलता है इसलिये काोरोएड प्लेक्सेस का ट्यूमर हो जाने पर उसमें से पानी अधिक मात्रा में निकलने लगता है.कोरोएड प्लेक्सेस में पानी लगातार रिसता रहता है लेकिन सिर पूरे पानी बहने के रास्ते में तपेदिक के कीटाणु जमा हो जाते हैं और वहां हाइड्रोसेफलस हो जाता है। इससे मरीज को पहले तपेदिक की मेनिंनजाइटिस होती है और यह मेनिंनजाइटिस बाद में हाइड्रोसेफलस बन जाता है। हाइड्रोसेफलस होने का मुख्य कारण मस्तिष्क में ट्यमर है क्योंकि मस्तिष्क का ट्यूमर सी एस एफ के बहने के रास्ते में रुकावट पैदा करता है । मस्तिष्क में पीछे की तरफ चौथे वेंट्रिकल; तीसरे वेंट्रिकल या लैटरल वेंट्रिकल में ट्यूमर होने पर मस्तिष्क में पानी इक्ट्ठा होने लगता है। इसके अलावा कोरोएड प्लेक्सेस पेपिलोमा ट्यूमर के कारण भी हाइड्रोसेफलस हो सकती है। चूंकि मस्तिष्क का पानी (सी. एस.एफ.) कोरोएड प्लेक्सेस से होकर बहता रहता है इसलिये कोरोएड प्लेक्सेस का ट्यूमर हो जाने पर उसमें से पानी अधिक मात्रा में निकलने लगता है। कोरोएड प्लेक्सेस में पानी लगातार रिसता रहता है लेकिन सिर पूरे पानी को अवशोषित नहीं कर पाता है और सिर में पानी जमा होने लगता है। यह हाइड्रोसेफलस न तो आंतरिक होता है और न ही बाहय। यह कोरोएड प्लेक्सेस पेपिलोमा के कारण होता है।
एक्विडक्टास्टिवोसिस नामक पैदाइशी नुख्श के कारण भी की तरफ एक गुब्बरा बन जाता है । इसके रोगी के मस्तिष्क में सी एस एफ जमा होकर हाइड्रोसेफलस पैदा कर देता है। मेंनिगोमाइलोसिस और हाइड्रोसेफलस 30 हजार में से तकरीबन एक दो बच्चों को होती है। हालांकि यह पैदाइशी है लेकिन दवाइयों के कारण भी यह हो सकती है। गर्भवती महिलायें अक्सर डाक्टर की सलाह के बगैर ही हारमोन की दवाइयों या एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन करने लगती हैं। हारमोन की दवाइयों से खून गाढ़ा हो जाता है जिसकी बजह से गर्भावस्था के दौरान ही या प्रसव के थोड़े दिन की भीतर ही महिला को सेरीब्रल थे्रोम्बोसिस हो सकती है। सेरीब्रल की मुख्य थ्रोम्बोसिस को वीनस थ्रोम्बोसिस कहते हैं। इस वीनस थ्रोम्बोसिस के कारण मस्तिष्क में पानी कर अवशोषण बहुत कम होता है और महिला को हाइड्रोसेफलस हो जाता है। यह भी देखा गया है कि गर्भावस्था के दौरान कुछ महिलायें बहुत ज्यादा तनाव में रहती है। खान-पान का उचित ध्यान नहीं रख्ती है। नमक का ज्यदा सेवन करती हैं और आराम भी नहीं करती जिसकी बजह से उनके पैरों में सूजन आ जाताी है और उनका रक्तचाप बहुत उंचा हो जाता है। इसके कारण खून की नस फट सकती है। और ब्रेन हैमरेज या मिर्गी होने की आशंका हो सकती है।
हाइड्रोसेफलस के परम्परागत इलाज के तहत मस्तिष्क में एक सुराख करके एक नली डाल दी जाती है और इस नली के दूसरे हिस्से को त्वचा के अंदर ही अंदर लाकर पेट में डाल दिया जाता है। इससे मस्तिष्क में बना पानी पेट में जाने लगता है। इस तरह मरीज के मस्तिष्क का पानी उसके ही शरीर में काम आ जाता है। और उसके शरीर में लवण, प्रोटीन या किसी अन्य चीज की कमी नहीं होती है। इस आपरेशन में अधिक से अधिक 35 मिनट का समय लगता है और यह आपरेशन बहुत सुरक्षित होता है। हालांकि यह इलाज स्थाई है लेकिन अगर बीच में कोई कचरा आ जाये या मस्तिष्क का कोई टुकड़ा आ जाये या नली में संक्रमण हो जाये तो नली बंद हो सकती है और इस नली को दोबारा चालू करने के लिये एक छोटा आपरेशन करना पड़ता है। लेकिन आधुनिक इलाज में यह नौबत ही नहीं आती। आधुनिक इलाज में मस्तिष्क में जहां पैदाइशी रास्ता नहीं बना होता है वहां इंडोस्कोप के जरिये मस्तिष्क में एक छोटा सुराख करके वहां एक नली डालकर उसे रास्ते को बना दिया है या थर्डवेंटिक्लोस्टोमी कर दी जाती है अर्थात् पानी की थेैली का जो हिस्सा मस्तिष्क के बाहर चमक रहा होता है उसको फोड़ दिया जाता है ताकि सारा पानी मस्तिष्क की सतह पर आकर अवशोषित हो सके। इसमें दोबारा आपरेशन करने की की जरुरत पड़ने की आकांशा कम रहती है। वेंट्रिकलोस्टोमी से मस्तिष्क के पानी की थैलियों को फोड़कर बनाया गया छेद बंद हो सकता है और उसमें पानी दोबारा भर सकता है लेकिन फिर भी 95 प्रतिशत मामलों में यह आपरेशन कारगर होता है और दोाबारा आपरेशन करने की जरुरत नहीं पड़ती। कीड़े के अंडे को बाहर निकालने के लिये किये जाने वाले आपरेशन में मस्तिष्क में पीछे से चैथे वेंट्रिकल को खोलकर कीड़े के अंडों को बाहर निकाल लिया जाता है। यह आपरेशन स्थाई होता है और न तो दोबारा आपरेशन करने की जरुरत नहीं होती न ही शंट डालने की जरुरत होती है। कोरेाएड प्लेक्ससे पेपिलोमा के ट्यूमर की वजह से होने वाले हाइड्रोसेफलस के आपरेशन में मस्तिष्क में दूरबीन लगाकर उस कोरोएड प्लेक्सेस को जला दिया जाता है जिससे उसकी सी एस एफ बनाने वाली कोशिकायें खत्म हो जाती है और मरीज ठीक हो जाता है । गर्भावस्था के दौरान गलत दवाइयों के सेवन से होने वाले थ्रोम्बोसिस के इलाज के लिये रोगी को हीपेरिन का इंजेक्शन देकर थ्रोम्बस को गला दिया जाता है जिससे पानी का बहाव ठीक हो जाता है।
गर्भावस्था में गलत दवाइयां खाने का भी परिणाम है हाइड्रोसेफलस
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स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस — जब झुक जाये गर्दन
स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस वैसी बीमारी है जिसमें गर्दन एक तरफ झुक जाती है। इस समस्या के गंभीर होने पर मरीज चलने-फिरने में भी लाचार हो सकता है। इस बीमारी में गर्दन की जोड़ों में भी समस्या उत्पन्न हो सकती है और जोड़ बेकार हो सकते हैं।
इस बीमारी के कारणों के बारे में अभी तक ठीक से पता नहीं चला है। यह बीमारी कुछ परिवारों एवं जातीय समूहों में अधिक है। यह बीमारी वयस्क अवस्था में शुरू होती हैं। स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस की बीमारी से दस हजार में से एक व्यक्ति पीड़ित है। अमरीका में 83 हजार से अधिक लोग इससे पीड़ित हैं।
नई दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ न्यूरो एवं स्पाइन सर्जन डा.एस.के.सोगानी के अनुसार स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस तीन तरह की होती है। टोनिक- जब सिर एक तरफ झुक जाता है, क्लोनिक- जब सिर हिलता रहता है। मिश्रित- जब दोनों स्थितियां पैदा होती हैं।
गले की गतिशीलता संबंधी यह बीमारी मस्तिष्क की क्रियाशीलता में खराबी से जुड़ी हुयी है। यह बीमारी गले की मांसपेशियों के समय-समय या स्थायी तौर पर सिकुड़ने के कारण होती है। ये मांसपेशियां ही सिर की स्थिति को नियंत्रित करती हैं। इन मांसपेशियों में सिकुड़न के कारण सिर एक तरफ झुक जाता है। इसमें कंधे की स्थिति भी असामान्य हो सकती है। कुछ मरीजों को सिर या हाथों में थरथराहट या कंपन महसूस हो सकती है। कई बार मरीज को बहुत अधिक एवं तीव्र दर्द का अनुभव हो सकता है। स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस मरीज की क्रियाशीलता को प्रभावित कर सकती है लेकिन शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित नहीं करती है। यह बीमारी एंक्जाइटी या तनाव के दौरान तीव्र हो जाती है। एक समय समझा जाता था कि यह मानसिक बीमारी है लेकिन यह दिमाग को प्रभावित नहीं करती है।
डा.सोगानी बताते हैं कि स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस संबंधी गतिशीलता कई बार सोने के दौरान भी उभर सकती है। लेकिन टहलने-घुमने के दस मिनट से चार घंटे के बाद यह गतिशीलता दूर हो सकती है। यही कारण है कि कई लोगों को पीठ के बल लेटने पर राहत मिलती है। चेहरे के पीछे सिर या ठुड्डी को छूने या दबाने से अस्थायी तौर पर स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस संबंधी गतिशीलता दूर हो सकती है। करीब 20 प्रतिशत मरीजों को बीमारी होने के पांच साल के बाद अचानक यह बीमारी दूर हो सकती है। यह बीमारी मध्यम वय के लोगों में ज्यादा सामान्य है।
नयी दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के अलावा अपोलो मिलेनियम अस्पताल में वरिष्ठ न्यूरो सर्जन के रूप में कार्यरत डा. सोगानी बताते हैं कि इस बीमारी का कोई निश्चित इलाज नहीं है। लेकिन आम तौर पर मरीजों का पहले दवाईयों से इलाज करने की कोशिश की जाती है। स्पास्मोडिक टोर्टिकोलिस होने पर कई मामलों में दवाईयों से लाभ होता है। कई बार दवाईयों से फायदा नहीं होने पर सिकुड़ने वाली मांसपेशियों में बोटोलिनस टाॅक्सिन नामक इंजेक्शन देने की जरूरत पड़ जाती है। इस प्रक्रिया को कीमोडिनर्वेशन कहा जाता है।
कुछ मरीजों को इंजेक्शन से भी फायदा नहीं होता है और ऐसी स्थिति में सर्जरी की मदद लेनी पड़ती है। इसके तहत गर्दन की क्रियाशीलता में बाधक बनने वाले नसों को काट दिया जाता है। इस बीमारी के उपचार के लिये सर्जरी के कई तरीकों का विकास हो चुका है। यह सर्जरी सलेक्टिव डिनर्वेटिव सर्जरी कहलाती है। यह सर्जरी अत्यंत ही जटिल होती है और इसे केवल कुशल एवं अनुभवी न्यूरोसर्जन से ही कराया जाना चाहिये। इसके इलाज के लिए बायोफिडबैक एवं इलेक्ट्रिकल स्टिमुलेशन की भी मदद ली जाती है। मरीज की जरूरत के अनुरूप सही तरीके का इस्तेमाल करने पर करीब 80 प्रतिशत मरीजों की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार होता है।
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स्पाइनल इंजेक्शन से कमर दर्द का इलाज
आज के आधुनिक एवं व्यस्त जीवन में कमर दर्द एक महामारी बनता जा रहा है जिससे लगभग हर व्यक्ति अपने जीवन काल में कभी न कभी किसी न किसी हद तक जरूर प्रभावित होता है। एक अनुमान के अनुसार आज हमारे देश में हर सातवां व्यक्ति कमर दर्द से पीड़ित है। अध्ययनों के अनुसार कमर दर्द 60 से 80 प्रतिशत वयस्कों को कभी न कभी प्रभावित करता है।
कमर दर्द कई कारणों से हो सकता है जिनमें कमर की हड्डी में बीमारी, कमर की मांसपेशियों की कोई समस्या, डिस्क की समस्या, रीढ़ में चोट, ट्यूमर तपेदिक या अन्य संक्रमण और दिमागी तनाव। हालांकि ज्यादातर मामलों में मांसपेशियों में समस्या के कारण ही कमर दर्द होता है। मांसपेशियों में खिंचाव, ठंड लगने, गलत तरीके से बैठने, ज्यादा देर तक काम करने, भारी सामान उठाने आदि कारणों से मांसपेशियों में समस्या आ सकती है।
उम्र बढ़ने के कारण डिस्क का पानी कम होता जाता है और कमर का लचीलापन घटता जाता है। कमर दर्द की समस्या से ग्रस्त करीब पांच से दस प्रतिशत लोगों में डिस्क के आसपास की नसों पर दबाव पड़ना शुरु हो जाता है। उम्र बढ़ने पर डिस्क का लचीलापन और पानी घटने के साथ ही डिस्क के बाहरी हिस्से का लिगामेंट भी ढीला पड़ जाता है। इससे थोड़ा सा वजन उठाने या हल्का झटका लगने पर डिस्क बाहर आ जाती है। इससे भी सियाटिका का दर्द होता है। डिस्क बाहर निकल कर पीछे की तरफ फूल जाती है या नसों की तरफ निकल कर उन्हें दबाने लगती है। ज्यादा दबाव आने पर मरीज को कई बार लकवा मार देता है या मरीज टट्टी-पेशाब पर से नियंत्रण खो देता है।
कमर दर्द के इलाज के लिये सबसे पहले इसके कारणों का पता लगाया जाता है। कमर दर्द के कारणों की सही-सही और सबसे अधिक जानकारी मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग(एम.आर.आई.) से मिलती है। इससे यह पता चल जाता है कि किस नस पर कितना दबाव पड़ रहा है। आरंभिक स्थिति में कमर दर्द के इलाज के तौर पर चिकित्सक मरीज को आराम करने तथा व्यायाम करने की सलाह देते हैं। कई चिकित्सक मरीज को टैªक्शन लगाने की भी सलाह देते हैं। लेकिन मरीज को कमजोरी, सुन्नपन और पेशाब करने में दिक्कत होने पर आपात स्थिति में आपरेशन करने की जरुरत पड़ जाती है। आॅपरेशन कई तरीकों से की जाती है। आपरेशन के दौरान दोनों तरफ की हड्डी या एक तरफ की हड्डी को काटकर उसमें छेद कर दिया जाता है। कमर दर्द के कारगर एवं कष्टरहित इलाज की खोज के लिये दुनिया भर में अध्ययन- अनुसंधान चल रहे हैं। इनकी बदौलत कमर दर्द के इलाज की अनेक कारगर एवं कष्टरहित विधियां एवं तकनीकें उपलब्ध हो गयी हैं।
बढ़ी हुयी डिस्क का इंजेक्शन (स्पाइनल इंजेक्शन) के जरिये भी इलाज किया जा सकता है। इसे सलेक्टिव रूट अथवा इपिड्यूरल इंजेक्शन कहा जाता है। यह इंजेक्शन न केवल कमर दर्द से राहत दिलाने में बल्कि कमर दर्द के कारणों की जांच में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इंजेक्शन से उन मरीजों को विशेष लाभ हो सकता है जिन्हें दवाईयों और फिजियोथिरेपी आदि से कोई फायदा नहीं हो पा रहा है। इंजेक्शन का इस्तेमाल उन मरीजों के लिये भी किया जाता है जिन्हें असहनीय कमर दर्द हो रहा हो और दवाईयों से कोई लाभ होने के बजाय नुकसान हो रहा हो अथवा जो मरीज और अधिक दवाईयां नहीं खाना चाहते हों।
स्पाइनल इंजेक्शन के जरिये कमर दर्द के इलाज के लिये फ्लोरोस्कोप की मदद से स्क्रीन पर रीढ़ की तस्वीर देखते हुये शल्य चिकित्सक प्रभावित नसों के आसपास स्टेराॅयड एवं दवाई प्रविष्ट कराते हैं। इससे नस पर पड़ने वाला दबाव समाप्त हो जाता है। लगभग 60 प्रतिशत मरीजों को स्पाइनल इंजेक्शन के बाद कमर एवं पैर के दर्द से निजात मिल जाता है। कुछ मरीजों को करीब छह माह तक दर्द से राहत रहती है जबकि कई मरीजों को स्थायी तौर पर दर्द से निजात मिल जाता है। स्पाइनल इंजेक्शन से भी मरीज को कोई फायदा नहीं होने पर आपरेशन ही एकमात्र रास्ता रह जाता है।
स्पाइनल इंजेक्शन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी मदद से कई मरीजों में आॅपरेशन की स्थिति टाली जा सकती है। स्पाइनल इंजेक्शन के लिये मरीज को अस्पताल में भर्ती नहीं करना पड़ता है।
कमर दर्द के इलाज की इंडोस्कोपी आधारित एक अन्य विधि में एक छेद के जरिये डिस्क में दूरबीन प्रवेश करायी जाती है और उसी दूरबीन से देखते हुये औजारों की मदद से डिस्क को निकाल लिया जाता है। एक नयी विधि माइक्रो डिस्कैक्टोमी कहलाती है जिसमें माइक्रोस्कोप की सहायता से कमर में मात्र एक इंच का चीरा लगाकर पूरा आपरेशन किया जा सकता है।
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डीप ब्रेन स्टिमुलेशन से पार्किंसोनिज्म का इलाज
अब तक लाइलाज माने जाने वाली पार्किंसोनिज्म जैसी मूवमेंट डिसआर्डर बीमारियों का डीप ब्रेन स्टिमुलेशन नामक नवीनतम तकनीक से कारगर एवं सफल इलाज संभव हो गया है।
पार्किंसन आम तौर पर अधिक उम्र के लोगों की बीमारी है। इसके मरीज के एक हाथ-पैर या दोनों हाथों-पैरों में इतने कंपन होते हैं कि व्यक्ति खुद ग्लास तक नहीं पकड़ पाता और न ही अपने कपड़े पहन पाता है। कभी-कभी तो इतना अधिक कंपन होता है कि रोगी को अपने हाथ दबा कर रखना पड़ता है। कंपन के कारण उसे चोट लगने की भी संभावना रहती है। डीप ब्रेन स्टिमुलेशन पार्किंसोनिज्म के अलावा कम उम्र के उन स्नायु मरीजों के लिये भी कारगर साबित हो रही है जिनके मस्तिष्क का कोई खास क्षेत्र ट्यूमर या अन्य कारणों से क्षतिग्रस्त हो गया है। मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने के कारण इन मरीजों के हाथ-पैर में बहुत ज्यादा कंपन होता है। इस वजह से न तो वे चल-फिर पाते हैं और न ही हाथ से कोई काम कर पाते हैं।
मरीज को एक तरह अपाहिज बना देने वाली पार्किंसोनिज्म जैसी स्नायु बीमारियों से पूरी दुनिया की आबादी में से 0.01 प्रतिशत लोग अर्थात हर दस हजार लोगों में से एक व्यक्ति पीड़ित है। मौजूदा समय में बुजुर्गों की संख्या बढ़ने के कारण पार्किंसोनिज्म रोगियों की संख्या बढ़ने लगी है। एक अनुमान के अनुसार भारत में तकरीबन छह लाख लोग पार्किंसोनिज्म से पीड़ित हैं। केवल अमरीका में यह बीमारी हर साल करीब 50 हजार लोगों को मानसिक एवं शारीरिक तौर पर अपंग बना देती है।
पार्किंंसोनिज्म आम तौर पर 40 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन करीब 20 प्रतिशत मरीजों में यह बीमारी 20 साल की उम्र के बाद ही आरंभ हो सकती है।
पार्किंसोनिज्म के इलाज का सबसे सरल तरीका यह है कि मरीज को जिस रसायन की कमी है वह मरीज को दिया जाये। इसके लिये डोपामिन नामक दवा का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। डोपामिन देने से मरीज के मस्तिष्क में डोपामिन जमा होने लगता है और पार्किंसन के मरीज को राहत मिलने लगती है। लेकिन पार्किंसन के 10 प्रतिशत मरीजों पर दवाईयां कोई असर नहीं कर पाती हैं। जैसे-जैसे मरीज की उम्र बढ़ती जाती है दवाईयों का असर घटता जाता है। इस कारण उम्र बढ़ने के साथ दवा की खुराक बढ़ायी जाती है। कुछ मरीजों में अधिक समय तक दवाईयों के सेवन के दुष्प्रभाव भी देखे गये हैं। इन दुष्प्रभावों के कारण कुछ मरीजों के हाथ-पैर बहुत तेजी से हिलने लगते हैं। जो रोगी दवाईयों से ठीक नहीं हो पाते हैं अथवा जिन पर दवाईयों के दुष्प्रभाव होते हैं उनका इलाज आपरेशन से किया जाता है। ये आपरेशन पिछले 30 सालों से इस्तेमाल में आ रहे हैं। आपरेशन के जरिये मस्तिष्क के अंदर कुछ खास-खास स्थानों पर चोट पहुंचायी जाती है। पहले किये जाने वाले आपरेशन के तहत मस्तिष्क के भीतर इंजेक्शन के जरिये एक विशेष रसायन पहुंचाया जाता है। इस रसायन के प्रभाव से मस्तिष्क का वह हिस्सा गल जाता है और रोगी ठीक हो जाता है। एक अन्य तरह के आपरेशन के तहत मस्तिष्क के अंदर एक गर्म सलाई डाली जाती है। इसकी मदद से मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को जला दिया जाता है। आधुनिक समय में मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को रेडियो तरंगों की मदद से भी जलाया जाता है।
हाल के अनुसंधानों से पता चला कि पुराने आॅपरेशनों की मदद से मस्तिष्क के भीतर सही-सही जगह पर पहुंचना संभव नहीं हो पाता है जिससे मरीज को स्थायी फायदा नहीं होता है। ऐसे आपरेशन के बाद मरीज को अक्सर दोबारा पार्किंसन होने का खतरा रहता है। कई मरीजों पर ऐसे आपरेशनों के दुष्प्रभाव भी होते हैं।
आधुनिक समय में पार्किंसोनिज्म एवं मूवमेंट डिसआर्डर की अन्य बीमारियों के इलाज के लिये डीप ब्रेन स्टिमुलेशन नामक नवीनतम तकनीक का विकास हुआ है। भारत के कुछ चुने हुये चिकित्सा केन्द्रों में इस तकनीक का इस्तेमाल आरंभ हो गया है। इस तकनीक से इलाज के तहत मरीज के मस्तिष्क के थैलेमस क्षेत्र में एक इलेक्ट्रोड डालकर तथा छाती में किसी भी जगह त्वचा के नीचे एक पेसमेकर रखकर वहां से एक इलेक्ट्रोड या कैथेटर मस्तिष्क के कैथेटर से जोड़ दिया जाता है। इस इलेक्ट्रोड से प्रवाहित होने वाला करंट थैलेमस को उत्तेजित करता है। करंट को रिमोट कंट्रोल के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह पेसमेकर दिल के पेसमेकर की तरह ही होता है। अगर इस मशीन का लगातार इस्तेमाल किया जाये तो इसकी बैटरी पांच साल चलती है और अगर रात में बंद कर दिया जाये तो बैटरी 10 साल चलती है। उसके बाद बैटरी बदलनी पड़ती है।
हालांकि इन बीमारियों का इलाज पहले दवाईयों से ही किया जाता है। लेकिन अगर मरीज को दवाईयों से कोई फायदा नहीं हो रहा हो, मरीज दवाईयों को लेने में असमर्थ हो या दवाईयों के बहुत ज्यादा दुष्प्रभाव हो रहे हों तब कई मरीजों का इलाज डीप ब्रेन स्टिमुलेशन तकनीक से किया जाता है और उन्हें इस तकनीक से फायदा भी होता है।
यह सर्जरी सामान्य एनीस्थिसिया देकर ही की जाती है और रोगी होश में रहता है जिससे पता चल जाता है कि यह तकनीक मरीज में कारगर होगी या नहीं। मरीज को पहले सामान्य एनीस्थिसिया देकर उसे हल्का सा करंट से उत्तेजित करके देखा जाता है कि उसके हाथ-पैर का कंपन नियंत्रित हो गया या नहीं। कंपन नियंत्रित होने पर ही मशीन लगायी जाती है। उसके बाद इसके सही डोज और करंट का निर्धारण किया जाता है। जिस मरीज में लगता है कि यह तकनीक कारगर नहीं होगी उसे यह मशीन नहीं लगायी जाती है। हालांकि अभी यह मशीन बहुत महंगी है और भारत में इस तकनीक से इलाज करने में तीन से पांच लाख रुपये का खर्च आता है।
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कैंसर कोशिकायें जब दिमाग में पहुंच जाये
मस्तिष्क का मेटास्टैसिस शरीर के अन्य हिस्से में उत्पन्न होने वाली कैंसर कोशिकाओं से उत्पन्न होने वाला बे्रन ट्यूमर है। कैंसर की जांच एवं चिकित्सा की नवीनतम तकनीकों के विकास के कारण कैंसर मरीजों के अधिक दिनों तक जीवित रहने की संभावना बढ़ने से मस्तिष्क मेटास्टैसिस की समस्या बढ़ रही है। लेकिन गामा नाइफ तकनीक की बदौलत अब मस्तिष्क मेटास्टैसिस के इलाज में क्रांति आ गयी है। गामा नाइफ तकनीक नयी दिल्ली के विद्यासागर मानसिक स्वास्थ्य एवं स्नायु संस्थान (विमहांस) स्थित गामा नाइफ सेंटर के अलावा देश के गिने-चुने चिकित्सा संस्थान में उपलब्ध है।
विशेषज्ञों के अनुसार मस्तिष्क मेटास्टैसिस आम तौर पर फेफड़े, स्तन, गुदा और गुर्दा के कैंसर के कारण उत्पन्न होता है। इस अवस्था में मस्तिष्क के किसी खास क्षेत्र के हिस्से में वृद्धि होने लगती है। मस्तिष्क मेटास्टैसिस के ट्यूमर के बढ़ने या उसमें सूजन आने से या तो मस्तिष्क के भीतर (इंट्राक्रैनियल) दबाव बढ़ जाता है या मस्तिष्क की कार्यशीलता में बाधा आती है। कई बार इस दबाव के कारण सेरेेेब्रल स्पाइनल फ्ल्यूड के रास्ते में अवरोध उत्पन्न होने से मस्तिष्क में पानी भरने (हाइड्रोसिफेलस) जैसी समस्या पैदा होती है। तकरीबन दो-तिहाई मामलों में इसके लक्षण कभी भी प्रकट हो सकते हैं। इसके मरीजों में सिर दर्द, जी मिचलाने, उल्टी, आलस्य और सोचने की शक्ति में हा्रस जैसे लक्षण पैदा होते हैं। रोग के और गंभीर होने पर दौरा पड़ने, कमजोरी, चाल एवं आवाज में गड़बड़ी और स्पष्ट दिखाई नहीं देने जैसी समस्याएं बढ़ जाती हैं। मस्तिष्क मेटास्टैसिस के पांच से दस प्रतिशत रोगियों में अन्य गंभीर लक्षण भी पैदा हो सकते हैं। मेटास्टैसिस के तीन से 14 प्रतिशत रोगियों में ट्यूमर के भीतर रक्तस्राव (हैमरेज) हो सकता है। ऐसा आम तौर पर मेलानोमा, कोरियोकारसिनोमा, गुर्दा, थायराइड, फेफड़े, स्तन और जर्म कोशिकाओं के ट्यूमर में होता है। अधिकतर मेटास्टैसिस गोलाकार घाव की तरह होते हैं। मेटास्टैसिस धमनियों और नसों के माध्यम से रक्त संवहन के द्वारा मस्तिष्क तक फैलते हैं। धमनी के रक्त मस्तिष्क में जाने से पहले फेफड़े में जाते हैं। फेफड़े के प्रारंभिक अवस्था के ट्यूमर कोशिकाओं के बड़े समूह केशिकाओं के द्वारा छन जाते हैं लेकिन बहुत से इंबोली धमनियों के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंच जाते हैं। लेकिन फिर भी अकेली ट्यूमर कोशिकाएं फेफड़े की केशिकाओं के माध्यम से चली जाती हैं और बड़े ट्यूमर इंबोली नसों से हृदय के दायें और बांये आलिंद के बीच के रंध्रों के जरिये धमनियों में प्रवेश कर जाते हैं।
ब्रेन मेटास्टैसिस का पता एम.आर.आई. जांच से चलता है। इससे अत्यंत छोटे मेटास्टैसिस ट्यूमर और उसके स्थान का भी पता चल जाता है जिससे ट्यूमर के आपरेेशन करने में सहूलियत होती है।
मस्तिष्क के मेटास्टैसिस में अन्य कैंसर की तुलना में अस्वस्थता, विकलांगता और मृत्यु दर कहीं अधिक है। अन्य कैंसर की तुलना में इसकी सर्जरी भी अधिक कठिन है क्योंकि इससे मरीज को मानसिक और शारीरिक कमजोरी आने की आशंका होती है। लेकिन प्रारंभिक अवस्था में ही इसकी पहचान और इलाज करके इसके लक्षणों को कम किया जा सकता है और रोगी को अधिक लंबी और बेहतर जिंदगी दी जा सकती है।
मौजूदा समय में रेडियो तरंगों पर आधारित गामा नाइफ जैसी तकनीकों के इस्तेमाल की बदौलत अब ट्यूमर का इलाज कष्ट रहित एवं आसान हो गया है। गामा नाइफ की मदद से आॅपरेशन के बाद बचे हुये ट्यूमर को भी हटाया जा सकता है। साथ ही इसकी मदद से मस्तिष्क में गहराई में स्थित ट्यूमर का इलाज किया जा सकता है क्योंकि शल्य क्रिया की मदद से उस ट्यूमर तक पहुंचना कई बार संभव नहीं होता है।
गामा नाइफ में रेडियो तरंगें एक साथ कई स्रोतों से डाली जाती है। इसे मस्तिष्क में एक हेलमेट की तरह पहना दिया जाता है जिसके विभिन्न स्रोतों से गामा-नाइफ निकलने वाली किरणें ट्यूमर पर डाली जाती हैं। ये कैंसर कोशिकाओं को मार देती हैं। इससे 90 से 100 प्रतिशत मस्तिष्क मेटास्टैसिस का इलाज संभव है। मस्तिष्क में अधिक मेटास्टैसिस होने पर इसका इलाज पुरानी पद्धति के रेडियोथेरेपी से करने पर मरीज के मंदबुद्धि होने या याददाश्त कम होने की आशंका होती है। इससे दिमागी सूजन भी आ सकती है। लेकिन गामा नाइफ से कई ट्यूमरों का एक साथ इलाज करने पर ऐसी कोई समस्या नहीं आती है। जापान के कुछ विशेषज्ञों ने गामा नाइफ के द्वारा एक ही समय में 50 से 60 मस्तिष्क मेटास्टैसिस का इलाज किया है।
गामा नाइफ विशेषज्ञों के अनुसार गामा नाइफ एक तरह का न्यूरोसर्जिकल यंत्र है। मस्तिष्क के आपरेशन में सामान्य तौर पर धातु या प्लास्टिक के औजारों से या लेजर की किरणों से मस्तिष्क के प्रभावित हिस्सों को काटा जाता है, लेकिन गामा नाइफ में किसी धातु या प्लास्टिक के औजारों के बगैर ही गामा किरणों की मदद से मस्तिष्क के प्रभावित हिस्से को काटा जाता है।
आज मस्तिष्क के ट्यूमर के इलाज में गामा नाइफ का व्यापक इस्तेमाल होने का कारण यह है कि परम्परागत आपरेशन के दौरान रक्त स्त्राव होने, मस्तिष्क के सामान्य हिस्सों को क्षति पहुंचने, आपरेशन के बाद मस्तिष्क के भीतर ट्यूमर के छूट जाने या ट्यूूमर के साथ-साथ मस्तिष्क के और भी हिस्सों को स्थायी क्षति पहुंचने जैसे कई दुष्प्रभाव होते हैं। हालांकि अब परम्परागत आपरेशन के दौरान माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल शुरू होने के कारण मस्तिष्क में बहुत छोटा सा छेद करके ही गहराई में आपरेशन किया जा सकता है, परंतु इसमें भी ऐसे दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
गामा नाइफ से आपरेशन करने के दौरान मरीज को बेहोश नहीं करना पड़ता। मरीज की चमड़ी को सुन्न करके मस्तिष्क पर धातु का एक फ्रेम (स्टीरियोटेक्टिक फ्रेम) कसा जाता है और इसके ऊपर विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक बाॅक्स लगाए जाते हैं। इसके बाद एम.आर.आई., सी.टी.स्कैन या एंजियोग्राम किया जाता है और इन तस्वीरों को कम्प्यूटर में डाल दिया जाता है। इस दौरान मरीज पूरे होश में रहता है। वह बात भी कर सकता है और सब कुछ देख-सुन सकता है। जब कम्प्यूटर के अंदर सारी तस्वीरें पहुंच जाती हैं तो उसका विश्लेषण करके यह पता किया जाता है कि आपरेशन करने के स्थान के आस-पास कोई ऐसी चीज तो नहीं है जिसमें किरणें जाने से उसे क्षति पहुंचे। इन सब बातोें को ध्यान में रखते हुए प्लानिंग की जाती है और तत्पश्चात विकिरण दिया जाता है।
इसके लिए रोगी को मात्र 48 घंटे ही अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता है। जिस दिन रोगी को भर्ती किया जाता है, उस दिन उसका सिर्फ निरीक्षण ही किया जाता हैै। अगले दिन सुबह इलाज शुरू होता है जो शाम तक खत्म हो जाता है। इसके बाद रोगी आराम करता है और अगले दिन वह घर जा सकता है। यही नहीं वह उसी दिन से काम पर भी लौट सकता है। -
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मस्तिष्क एवं रीढ़ की लाइलाज बीमारियों की कारगर चिकित्सा
आधुनिक समय में डीप बे्रन स्टिमुलेशन, ब्लाडर पेसमेकर, बैक्लोफेन पंप, स्टीरियोटेक्टिक तकनीक, रोबोटिक आर्म, इंडोस्कोपी और माइक्रो डिस्कएक्टमी जैसी नवीनतम तकनीकों की बदौलत मस्तिष्क एवं स्पाइन की लाइलाज और दुसाध्य बीमारियों की चिकित्सा अब आसान हो गयी है। लाइलाज मानी जाने वाली पार्किंसोनिज्म जैसी मूवमेंट डिसआर्डर बीमारियों के इलाज में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन और स्पाइन की कई दुसाध्य बीमारियों एवं समस्याओं के इलाज में ब्लाडर पेसमेकर और बैक्लोफेन स्पाइनल पंप काफी कारगर साबित हो रहे हैं। यही नहीं आज इंडोस्कोपी, स्टीरियोटेक्टिक एवं रोबोटिक सर्जरी की बदौलत एक समय खतरनाक और अत्यंत असुरक्षित मानी जाने वाली मस्तिष्क और स्पाइन की सर्जरी अत्यंत सुरक्षित, आसान एवं कारगर बन गयी है।
पार्किंसोनिज्म जैसी मूवमेंट डिसआर्डर की बीमारियों के मरीजों के अलावा कम उम्र के उन स्नायु मरीजों के कारगर उपचार के लिये डीप ब्रेन स्टिमुलेशन की तकनीक का विकास हुआ है जिनके मस्तिष्क का कोई खास क्षेत्र ट्यूमर या अन्य कारणों से क्षतिग्रस्त हो गया है। मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने के कारण इन मरीजों के हाथ-पैर में बहुत ज्यादा कंपन होता है। इस वजह से न तो वे चल-फिर पाते हैं और न ही हाथ से कोई काम कर पाते हैं। भारत के कुछ चुने हुये चिकित्सा केन्द्रों में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन का इस्तेमाल आरंभ हो गया है।
इस तकनीक से इलाज के तौर पर मरीज के मस्तिष्क के थैलेमस क्षेत्र में एक इलेक्ट्रोड डालकर तथा छाती में किसी भी जगह त्वचा के नीचे एक पेसमेकर रखकर वहां से एक इलेक्ट्रोड या कैथेटर मस्तिष्क के कैथेटर से जोड़ दिया जाता है। इस इलेक्ट्रोड से करंट जाकर थैलेमस को उत्तेजित करता है। रिमोट कंट्रोल से करंट को नियंत्रित किया जा सकता है तथा घटाया-बढ़ाया जा सकता है। यह पेसमेकर दिल के पेसमेकर की तरह ही होता है। अगर इस मशीन का लगातार इस्तेमाल किया जाये तो इसकी बैटरी सात साल चलती है और अगर रात में इसे बंद कर दिया जाये तो बैटरी 14 साल चलती है। उसके बाद बैटरी बदलनी पड़ती है।
हालांकि इन बीमारियों का इलाज पहले दवाईयों से ही किया जाता है। लेकिन अगर मरीज को दवाईयों से कोई फायदा नहीं हो रहा हो, मरीज दवाईयां लेने में असमर्थ हो या दवाईयों के बहुत ज्यादा दुष्प्रभाव हो रहे हों तब कई मरीजों का इलाज डीप ब्रेन स्टिमुलेशन तकनीक से किया जाता है और उन्हें इस तकनीक से फायदा भी होता है।
यह सर्जरी बिना एनीस्थिसिया दिये ही की जाती है। सर्जरी के दौरान रोगी होश में रहता है ताकि यह पता चल जाये कि यह तकनीक मरीज में कारगर होगी या नहीं। मरीज को पहले हल्के करंट से उत्तेजित करके देखा जाता है कि इससे मरीज के हाथ-पैर का कंपन नियंत्रित हो गया या नहीं। अगर मरीज के हाथ-पैर का कंपन नियंत्रित हो जाता है तभी इस मशीन को लगाया जाता है। उसके बाद इसके सही करंट का निर्धारण किया जाता है। अभी यह मशीन बहुत महंगी है। भारत में इस तकनीक से इलाज करने में तीन लाख रुपये का खर्च आता है।
आधुनिक न्यूरो सर्जरी की एक और महत्वपूर्ण कामयाबी स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी है। मौजूदा समय में इस सर्जरी में रोबोट एवं कम्प्यूटर की भी मदद ली जाने लगी है जिससे मस्तिष्क की सर्जरी बिल्कुल कारगर बन गयी है। हमारे देश में पहली रोबोटिक सर्जरी अपोलो अस्पताल में हुयी और यहां अब तक सौ से अधिक रोबोटिक आर्म संचालित फ्रेमलेस स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी हो चुकी है। स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी से मस्तिष्क के अंदुरूनी भाग के ट्यूमर की सर्जरी पहले से ज्यादा सुरक्षित हो गयी है और इससे मरीज को होने वाले खतरे कम हो गये हैं।
आधुनिक समय में माइक्रो डिस्कएक्टमी और इंडोस्कोपी डिस्कएक्टमी नामक तकनीक का भी विकास हुआ है। इसमें माइक्रोस्कोप और इंडोस्कोपी की मदद से लम्बर डिस्क एक्टमी की जाती है। इसमें भी डेढ़ से दो इंच का चीरा लगाया जाता है। इस आपरेशन के लिये मरीज को कई बार बेहोश भी नहीं करना पड़ता है, बल्कि स्थानीय एनीस्थिया से भी आपरेशन हो सकता है। मरीज दूसरे ही दिन घर जा सकता है। अब पिट्यूटरी ट्यूमर को भी इंडोस्कोपी के जरिये निकाला जाना संभव हो गया है। इसके लिये मस्तिष्क में किसी तरह की चीर-फाड़ करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके लिये नाक के जरिये इंडोस्कोपी यंत्र डालकर ट्यूमर को निकाल लिया जाता है।
मौजूदा समय में बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं के कारण मस्तिष्क के साथ-साथ स्पाइन में चोट लगने की समस्याएं बढ़ रही हैं। इन दुर्घटनाओं में स्पाइन इस कदर क्षतिग्रस्त हो जाती है कि मरीज अपाहिज हो जाता है। आजकल स्पाइन की समस्याओं के इलाज के लिये ब्लाडर पेसमेकर तथा बैक्लोफेन पंप का भी इस्तेमाल होने लगा है।
सामान्य लोगों में यूरिनरी ब्लाडर मूत्र से भरने के बाद सिकुड़ जाता है। इससे कुछ घंटे तक पेशाब नियंत्रित रहता है। बाद मांसपेशियों के सिकुड़ने से ब्लाडर खाली होता है। लेकिन अगर ब्लाडर के सिकुड़ने के कारण नर्व के क्षतिग्रस्त होने या पेशाब को निकलने से रोकने वाली मांसपेशियों में कमजोरी आने या किसी अन्य कारणवश अगर यूरिनरी ब्लाडर पर से यह नियंत्रण खत्म हो जाए तो ब्लाडर पेसमेकर लगाकर सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है। इसके अलावा स्पाइनल इंजुरी के कारण स्पाइनल काॅर्ड और नर्व के क्षतिग्रस्त होने और टीबी, ट्यूमर या रेडियेशन से स्पाइन के क्षतिग्रस्त होने जैसी स्थितियों में भी यह पेसमेकर कारगर है। इस पेसमेकर को रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित किया जाता है। इस तकनीक से इलाज करने में तकरीबन दो लाख रुपये खर्च होते हैं। कुछ लोगों के यूरिनरी ब्लाडर कभी-कभी सिकुड़ना बंद कर देते हैं या ठीक से नहीं सिकुड़ते हैं। ऐसे रोगियों को छह से आठ घंटे तक कैथेटर पर रहना पड़ता है। जिन लोगों को लगातार कैथेटर अंदर डालकर रखना पड़ता है उन्हें बार-बार कैथेटर डालने से पेशाब का संक्रमण हो जाता है। इस संक्रमण से कभी -कभी किडनी क्षतिग्रस्त हो जाती है। लेकिन ऐसे रोगियों में यह पेसमेकर लगा देने से उनमें इन समस्याओं से बचाव होता है।
स्पाइनल इंजुरी, फ्लूरोसिस जैसी कई स्पाइन संबंधित बीमारियों, तपेदिक, ट्यूमर या रेडियेशन से स्पाइन को क्षति पहुंचती है। स्पाइनल काॅर्ड और नसों में क्षति होने से हाथ-पैर में जकड़न आ जाती है और कभी-कभी तो जकड़न इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि रोगी का चलना भी मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी कंपन भी होने लगता है। आम तौर पर इसका इलाज दवा से किया जाता है और यह समस्या बैक्लोफेन दवा से अक्सर ठीक हो जाती है। लेकिन कभी-कभी इतनी गंभीर क्षति होती है कि बैक्लोफेन दवा की डोज बढ़ानी पड़ती है। लेकिन दवा की डोज बढ़ाने से मरीज को उल्टी होने लगती है और चक्कर आने लगते हैं। ऐसी स्थिति में मुंह के जरिये बैक्लोफेन की दो खुराक देने से पूरा फायदा नहीं होता और इससे ज्यादा खुराक देने पर मरीज बर्दाश्त नहीं कर पाता। लेकिन यही दवा जब पंप के जरिये सीधे स्पाइन में पहुंचायी जाती है तो मरीज को फायदा हो जाता है। चूंकि यह दवा सीधे स्पाइन में भेजी जाती है इसलिए बैक्लोफेन दवा की बहुत ही कम खुराक से काम चल जाता है। यह पंप त्वचा के अंदर रखी जाती है। एक बार में यह पंप तीन-चार महीने तक काम करती है। इसके बाद पंप को दोबारा भरना पड़ता है। बैक्लोफेन स्पाइनल पंप में भी रिमोट कंट्रोल होता है।
स्पाइन के क्षेत्र में दूसरी बड़ी क्रांति स्पाइनल प्लेटिंग है। चोट, तपेदिक और डिस्क समस्याओं के कारण रीढ़ के कमजोर हो जाने पर रीढ़ में प्लेट लगाकर मरीज को शीघ्र बैठने लायक बनाया जा सकता है और उसे दर्द से मुक्ति दिलायी जा सकती है। इस तकनीक के तहत रीढ़ के रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर भाग पर धातु की प्लेटें प्रत्यारोपित (इम्प्लांट) की जाती हैं। इसे 'स्पाइनल इन्स्ट्रयुमेंटेशन' अथवा प्लेटिंग कहा जाता है। इससे कमजोर या टूटी हुयी रीढ़ को सहारा मिल जाता है। बाद में रीढ़ की हड्डियां जुड़ कर मजबूत हो जाती हैं।
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लाइलाज नहीं हैं सिर एवं चेहरे की विकृतियां
किसी व्यक्ति के सिर एवं चेहरे का आकार आनुवांशिक तौर पर ही तय होता है लेकिन कई बार कुछ पैदाइशी नुख्श के कारण सिर एवं चेहरे के आकार या तो बहुत छोटे हो जाते हैं या उनमें विकृतियां आ जाती हैं। इन विकृतियों को क्रैनियोफेसियल एनामलिज कहा जाता है। एक अनुमान के अनुसार हर दस हजार नवजात शिशुओं में से तीन से पांच बच्चे क्रैनियोफेेसियल विकृतियों से ग्रस्त होते हैं।
नवजात बच्चों के सिर एवं चेहरे के आकार को अनेक कारण प्रभावित करते हैं। इन कारणों में से सबसे प्रमुख कारण क्रैनियोफेसियल बीमारियां एवं विकृतियां हैं जो खोपड़ी एवं चेहरे के ऊपरी हिस्से से ताल्लुक रखती हैं। ये बीमारियां एवं विकृतियां कई तरह की होती हैं। इनमें से कुछ विकृतियां कपाल की अस्थियों की संधिरेखा (क्रैनियोफेसियल स्यूचर) के समय से पूर्व जुड़ जाने से पैदा होती हैं। इस स्थिति को सिनोस्टोसिस कहा जाता है। कुछ तरह की क्रैनियोफेसियल विकृतियां कपाल की संरचना में किसी नुख्श या गड़बड़ी के कारण पैदा होती हैं।
खोपड़ी का ऊपरी भाग झिल्लीनुमा (मेम्ब्रेनस) होता है। खोपड़ी का निचला भाग कोंड्रोक्रेनियम कहलाता है। आम तौर पर बच्चों में मस्तिष्क के विकास एवं खोपड़ी के आकार में बढ़ोतरी एक साथ होती है। सामान्य अवस्था में खोपड़ी में होने वाला विकास सभी दिशाओं में समान एवं समसमांगी होता है। खोपड़ी का विकास जन्म के समय से सात वर्षों के भीतर तेजी से होता है लेकिन कपाल संबंधी हिस्से में होने वाली ज्यादातर बढ़ोतरी जीवन के पहले ही साल में हो जाती है। इसका कारण यह है कि इसी दौरान मस्तिष्क में तीव्र विकास होता है। दो साल की उम्र तक मस्तिष्क अपने अधिकतम विकास को पूरा कर लेता है।
बच्चे के जन्म के समय खोपड़ी दरअसल अनेक छोटी अस्थियों की सम्मिलित सरंचना होती है। ये अस्थियां फाइबर अथवा स्यूचर से पृथक रहती हैं। इस व्यवस्था के कारण गर्भस्थ शिशु का सिर प्रसव नाल से बाहर आता है। इसके अलावा इसी व्यवस्था के कारण जन्म के आरंभिक दिनों में मस्तिष्क के साथ-साथ खोपड़ी का विकास संभव हो पाता है। मस्तिष्क के विकास के साथ जब खोपड़ी में विकास होता है तो अस्थियों के साथ-साथ स्यूचर में भी फैलाव होता है। यह फैलाव समसामांगी होता है। लेकिन कुछ कारणों से एक या एक से अधिक स्यूचर समय से पूर्व एक दूसरे से जुड़ जाते हैं जिससे खोपड़ी को सभी दिशाओं में फैलने का मौका नहीं मिलता है। इस कारण खोपड़ी या तो फैल नहीं पाती या किसी एक दिशा में अधिक फैल जाती है। इससे खोपड़ी एवं चेहरे के आकार में विकृतियां आ जाती है। यही स्थिति क्रैनियोसिनोस्टोसिस अथवा क्रैनियोस्टेनोसिस कहलाती है। स्यूचर के समयपूर्व जुड़ जाने के कारणों का अभी तक स्पष्ट तौर पर पता नहीं चला है।
क्रैनियोसिनोस्टोसिस कई तरह की होती है और यह इस बात पर निर्भर करती है कि खोपड़ी के कौन से स्यूचर समयपूर्व जुड़ गये हैं। कुछ बच्चों में सभी स्यूचर समयपूर्व जुड़ जाते हैं। ऐसे बच्चों का तत्काल आपरेशन होना जरूरी है। आॅपरेशन के जरिये सभी स्यूचर को खोल दिया जाता है और हड्डियों को सही अवस्था में रख दिया जाता है ताकि खोपड़ी का सामान्य तरीके से विकास हो सके।
कुछ तरह की क्रैनियोसिनोस्टोसिस का संबंध पैदाइशी जबकि कुछ का संबंध विकास संबंधित अन्य समस्याओं से होता है।
कुछ क्रैनियोसिनोस्टोसिस का जन्म के समय ही पता चल जाता है लेकिन कुछ का पता जन्म से कुछ महीने के बाद चलता है। चूंकि जीवन के पहले साल में ही सिर के ज्यादातर विकास होते हैं इस कारण आम तौर पर इन विकृतियों का पता इसी दौरान चलता है और इसका इलाज भी इसी दौरान होना चाहिये।
कई बच्चों में क्रैनियोसिनोस्टोसिस इस कदर प्रकट होती है कि चिकित्सक को बच्चा देखते ही इसका पता चल जाता है। कुछ मामलों में क्रैनियोसिनोस्टोसिस का पता लगाने के लिये रेडियोग्राफिक परीक्षण की जरूरत पड़ सकती है। क्रैनियोसिनोस्टोसिस विकृतियों की जांच का कारगर एवं लोकप्रिय तरीका त्रिआयामी सी टी स्कैन है। हालांकि खोपड़ी के एक्स-रे से भी क्रैनियोसिनोस्टोसिस की स्थितियों का पता लगाया जा सकता है। लेकिन कई बार किसी रेडियोलाॅजिक परीक्षण से क्रैनियोसिनोस्टोसिस का स्पष्ट तौर पर पता नहीं चल पाता है। ऐसी स्थिति में कुछ सप्ताह से कुछ महीने तक बच्चों के सिर एवं चेहरे के आकार पर निगरानी रखी जाती है।
क्रैनियोफेसियल और क्रैनियोसिनोस्टोसिस विकृतियों से ग्रस्त ज्यादातर बच्चों को सर्जरी की जरूरत पड़ती है। सर्जरी कब की जानी चाहिये और किस तरह की सर्जरी होनी चाहिये इसके बारे में न्यूरोसर्जन ही फैसला करते हैं। अक्सर इस तरह के आपरेशन करने वालों की टीम में न्यूरो सर्जन के अलावा विशेष तौर पर प्रशिक्षित क्रैनियोफेेसियल प्लास्टिक सर्जन भी होते हैं। ऐसे ज्यादातर आपरेशन जीवन के पहले साल में और कुछ आपरेशन तो पहले कुछ माह के भीतर होने चाहिये।
कई मां-बाप सोचते हैं कि जब बच्चा ठीक ठाक है हैं और उसे किसी तरह की परेशानी नहीं है तो आपरेशन की क्या जरूरत है। क्रैनियोसिनोस्टोसिस विकृतियों का इलाज नहीं होने पर बच्चे के सिर के भीतर अतिरिक्त दबाव पैदा हो सकता है तथा मस्तिष्क को नुकसान पहुंच सकता है। यही नहीं इसका उपचार नहीं हुआ तो खोपड़ी और चेहरे में गहरी विकृतियां पैदा हो सकती है और बच्चे को ताउम्र इन विकृतियों के साथ रहना पड़ सकता है। इन विकृतियों के साथ पैदा होने वाले बच्चे को नजर संबंधी समस्यायें हो सकती है। इसके अलावा उनमें हीन भावना एवं व्यवहार तथा मनोविज्ञान संबंधी समस्यायें पैदा हो सकती है।
इस आपरेशन में क्रैनियोटोमी करके स्यूचर से अस्थियों को अलग किया जाता है एवं कुछ दूरी पर रखकर जोड़ दिया जाता है। यह आॅपरेशन बहुत ही सफल है और ज्यादातर बच्चे आपरेशन के बाद बिल्कुल सामान्य जीवन जीते हैं। सिर में किये गये आपरेशन या चीरे के निशान बालों से ढक जाते हैं। बच्चों के सिर या चेहरे की सभी तरह की विकृतियां दूर हो जाती है। कुछ समय बाद इन विकृतियों का आभास तक नहीं होता है। इस आपरेशन के लिये तीन से चार दिन तक अस्पताल में रहने की जरूरत होती है। सर्जरी के बाद बच्चे को एक दिन गहन चिकित्सा कक्ष में रखा जाता हैं।
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ये दर्द कहां से उठता है... जो जिगर के पार होता है...
दर्द को समझने के लिये दार्शनिकों, वैज्ञानिकों एवं चिंतकों ने कम दर्द नहीं सहा है लेकिन आज भी दर्द के रहस्य पर से पूरी तरह से पर्दा नहीं उठ सका है। दर्द क्या है, यह क्यों और कहां से उठता है और इस पर कैसे काबू पाया जा सकता है जैसे सवाल आज भी वैज्ञानिकों को परेशान किये हुये हैं। दर्द की पहेली के बारे में फ्रांस के मेडिकल मिशनरी डा. अल्बर्ट शेजर ने 1931 में लिखा था - दर्द मानव जाति के लिये मौत से भी अधिक भयावह दैवी विपत्ति है।
कहा जाता है कि दर्द को केवल वही जानता है जो इसे झेलता है। तभी तो मीरा ने गाया था.. मेरा दर्द न जाने कोय।...
दर्द कोई भी नहीं चाहता है लेकिन दर्द है कि होता ही है। आखिर दर्द है क्या घ् दर्द दरअसल शरीर के चेतावनी संकेत के रूप में काम करके आपकी रक्षा करता है। मिसाल के तौर पर आप अपना हाथ गर्म तवे पर रख दें तो दर्द कहेगा कि तवे पर से तत्काल हाथ हटा लें। दर्द न केवल शरीर को चोट से बचाता है बल्कि जख्म को जल्द ठीक होने में मदद करता है। दर्द होने के कारण आप आराम करने को मजबूर होते हैं और शरीर को आपके जख्म को ठीक करने में मदद मिलती है।
दर्द से राहत पाने के उपायों की तलाश पाषाण युग से ही अनवरत जारी है। प्राचीन काल के शिलालेखों से पता चला है कि उस समय दर्द से राहत के लिये दबाव, ताप, जल एवं धूप का इस्तेमाल किया जाता था। दर्द से तड़पते लोग जादूगरों, शैमनों और पुजारियों के पास जाते थे जो दर्द से राहत दिलाने के लिये जड़ी-बूटियों, जादू-टोने, झाड़-फूंक, मंत्रों और पूजा-पाठ एवं अनुष्ठानों का प्रयोग करते थे।
प्राचीन मानव दर्द को शैतान, बुराई और जादू-टोने से जोड़ते थे। युनानियों एवं रोमनों ने पहली बार संवेदना की अवधारणा विकसित की जिसके अनुसार दर्द की अनुभूति को पैदा करने में मस्तिष्क एवं स्नायु प्रणाली की भूमिका है। इस अवधारणा को मध्य काल और आगे चल कर पुनर्जागरण काल (1400 से 1500) में मान्यता मिली और इसके पक्ष में अनेक सबूत जुटाये गये। लियोनार्दो दा विंसी और उनके समय के अनेक सिद्धांतकारों ने यह माना कि दर्द एवं अन्य अनुभूतियों के लिये मस्तिष्क ही मुख्य रूप से जिम्मेदार है। लियोनार्दो दा विंसी ने ही इस धारणाा को विकसित किया कि स्पाइनल कार्ड ही मस्तिष्क तक विभिन्न अनुभूतियों को पहुंचाता है।
सत्तरहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में दर्द जैसी अनुभूतियों पर अध्ययन-अनुसंधान दुनियाभर के दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों के लिये रोचक विषय बना रहा। दर्द पर वैज्ञानिक अनुसंधान एवं दर्द की आधुनिक चिकित्सा की शुरूआत 1880 से हुयी। उन्नीसवीं शताब्दी में दर्द के विज्ञान के नये दायरे में आने से दर्द की कारगर चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त हुआ। अध्ययनों एवं अनुसंधानों से चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों ने पाया कि अफीम, मार्फिन, कोडीन एवं कोकिन जैसी औषधियां दर्द से राहत दिलाने में कारगर हैं। इसके आधार पर ही आज की अत्यंत लोकप्रिय दर्दनिवारक औषधि एस्प्रीन के विकास का मार्ग खुला। पिछले एक दशक के दौरान हुये अनुसंधानों से वैज्ञानिकों ने पाया कि सभी तरह के दर्द एक समान नहीं होते हैं। मधुमक्खी के काटने का दर्द आथ्र्राइटिस के दर्द से अलग होता है। यही नहीं अलग-अलग व्यक्ति दर्द का अहसास अलग-अलग तरीके से करते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलायें और वयस्कों की तुलना में बच्चे दर्द को भिन्न तरीके से महसूस करते हैं। कुछ लोगों को कोई खास दर्द अधिक महसूस होता है तो कुछ लोगांे को वही दर्द कम महसूस होता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें जन्म से ही दर्द का अहसास नहीं होता है। ऐसे लोग एक विशिष्ट अवस्था से ग्रस्त होते हैं जिसे दर्द के प्रति जन्मजात असंवेदनशीलता अर्थात कंजेनिटल इनसेंसिटिविटी टू पेन कहा जाता है। ऐसे लोगों की स्नायु प्रणाली दर्द से संबंधित संकेतों को पकड़ या पहचान पाने में असमर्थ रहती है। यह अवस्था घातक साबित हो सकती है।
स्पाइनल कार्ड एवं नर्व शरीर के विभिन्न अंगों और मस्तिष्क के बीच दर्द की अनुभूति संवाहन करते हैं। हमारी त्वचा के नीचे अवस्थित रिसेप्टर नर्व कोशिकायें ठंडा, गर्म, नरम, कठोर एवं दर्द की अनुभूतियों को ग्रहण करता है। हमारे शरीर में हजारों की संख्या में रिसेप्टर नर्व कोशिकायें होती हैं। अलग-अलग कोशिकायें अलग-अलग अनुभूतियों को ग्रहण करती हैं। ज्यादातर कोशिकायें दर्द की अनुभूतियों को ग्रहण करती हैं जबकि कुछ ही कोशिकायें सुखद अनुभूतियों को ग्रहण करती हैं। जब शरीर के किसी अंग में गड़बड़ी होती है या चोट लगती है तो ये कोशिकायें नर्व के जरिये अपने संदेश स्पाइनल कार्ड को भेजती है और फिर स्पाइनल कार्ड के जरिये संदेश मस्तिष्क तक पहुंचता है।
दर्द निवारक दवाईयां इन संदेशों को मस्तिष्क तक आने से रोकती हैं और मरीज को दर्द से राहत मिलती है। कई बार दर्द यू हीं हो सकती है। मिसाल के तौर पर मामूली सिर दर्द। लेकिन कई बार दर्द ऐसा गहरा एवं स्थायी होता है कि यह दर्दनिवारक दवाईयों से भी नहीं जाता है। यह इस बात का संकेत होता है कि कोई गंभीर समस्या है। लंबे समय तक रहने वाले तेज दर्द कैंसर, गठिया, कमर दर्द, मधुमेह, माइग्रेन तथा स्नायु रोगों जैसी गंभीर बीमारियों से हो सकता है।
आज दर्द से राहत दिलाने के लिये अनेक दवाइयों, उपायों और तकनीकों का विकास हो चुका है। दर्द से राहत के लिये डाक्टरी पर्चे के बगैर मिलने वाली दवाइयों में तीन श्रेणियों की दवाइयां प्रमुख है। ये हैं - एस्प्रीन, एसिटामिनोफेन और आईब्रुफेन। ये सभी दर्दनिवारक दवाइयां प्रोस्टाग्लैंडिन्स नामक रसायन उत्सर्जित करती हैं। शरीर इस रसायन का उत्सर्जन तब करता है जब कोशिकायें जख्मी होती हैं। यह माना जाता है कि प्रोस्टाग्लैंडिन्स दर्द, जलन, सूजन आदि में काफी राहत प्रदान करता है। इस तरह की समस्यायें आम तौर पर ऊतक के क्षतिग्रस्त होने पर होती है। जब गंभीर चोट, सर्जरी अथवा गंभीर बीमारी के कारण दर्द बहुत तेज होता है तो तेज एवं अधिक असरकारक दवाइयों की जरूरत होती है। ऐसी दवाइयों को नाॅनस्टेराॅयडल एंटी-इंफलेमेट्री ड्रग्स (एन.एस.ए.डी.) कहा जाता है। ये दवाइयां भी प्रोस्टाग्लैंडिन्स रसायन का उत्पादन करती हैं।
आज भी यह देखने के लिये किसी तकनीक का विकास नहीं हो पाया है कि किसी व्यक्ति को कितना दर्द हो रहा है। किसी भी जांच या परीक्षण, किसी भी इमेजिंग उपकरण और अन्य तरह के यंत्र से दर्द की तीव्रता एवं जगह का सही-सही निर्धारण नहीं किया जा सकता है। इसलिये अक्सर चिकित्सक को दर्द के बारे में जानने के लिये मरीज की खुद की व्याख्या पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आज ऐसे अनेक तकनीकों का विकास हुआ है जिससे दर्द के कारणों का पता लगाया जा सकता है। इन तकनीकों में इलेक्ट्रोमायोग्राफी (ई.एम.जी.), नर्व कंडक्शन स्डटी एवं इवोक्ड पोटेंशियल स्डटी, मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.) और एक्स- रे आदि प्रमुख हैं।
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ब्रेन ट्यूमर
आम तौर पर लोग लगातार या अक्सर होने वाले सिर दर्द को गंभीरता से नहीं लेते हैं लेकिन यह दिमाग के किसी हिस्से में पनप रहे ट्यूमर का संकेत हो सकता है। हालांकि ट्यूमर शरीर के किसी भी अंग में हो सकता है लेकिन मस्तिष्क में होने वाले ट्यूमर ज्यादा ही खतरनाक होते हैं। अगर सिर में अक्सर दर्द हो, सिर दर्द के साथ उल्टी हो, किसी अंग में कमजोरी महसूस हो, आंखों की रौशनी घट रही हो तथा दिमागी दौरे पड़ते हों तो ये लक्षण ब्रेन ट्यूमर के हो सकते हैं और ऐसी स्थिति में जांच एवं इलाज में विलंब करना मौत को बुलावा देना साबित हो सकता है।
ब्रेन ट्यूमर किसी भी व्यक्ति को किसी भी उम्र में हो सकता है। जन्म के तुरंत बाद किसी बच्चे से लेकर मौत की कगार पर पहुंचे 80 साल के किसी बूढ़े व्यक्ति को भी ब्रेन ट्यूमर हो सकता है। बच्चों को ब्रेन ट्यूमर होने पर सिर का आकार बड़ा होने लगता है क्योंकि बच्चे के सिर की हड्डियां जुड़ी नहीं होती है। इसलिये अगर किसी बच्चे के सिर का आकार तेजी से बढ़ रहा हो तो तत्काल किसी न्यूरो सर्जन से सलाह करनी चाहिये। दस साल से कम उम्र के बच्चों को 10 से 20 साल के बच्चों को तुलना में ब्रेन ट्यूमर अधिक होते हैं।
अगर 25 से 30 साल से अधिक उम्र के स्वस्थ व्यक्ति को जिंदगी में पहली बार दौरा पड़ा हो तो यह ब्रेन ट्यूमर का संकेत हो सकता है। ब्रेन ट्यूमर का मुख्य लक्षण सिर दर्द है । सिर दर्द मुख्य तौर पर सुबह उठने पर शुरू होता है। आरंभ में सिर के एक हिस्से में दर्द होता है लेकिन बाद में पूरे सिर में दर्द हो सकता है। सिर दर्द जब पूरी तीव्रता के साथ होता है तो उल्टी भी होती है। उल्टी आम तौर पर सुबह होती है और उल्टी होने पर सिर दर्द से आराम मिल जाता है। ब्रेन ट्यूमर होने पर आंखों की ज्योति भी कम हो सकती है। मरीज को कम दिखाई पड़ने के अलावा आंखों के आगे अंधेरा चमकने और एक आंख से कम दिखने जैसे लक्षण भी हो सकते हैं। मिर्गी के दौरे ब्रेन ट्यूमर के प्रमुख लक्षण हैं। दौरे पूरे शरीर में, शरीर के आधे हिस्से में, केवल एक हाथ में और यहां तक कि केवल एक ऊंगली में भी हो सकते हैं। जब दौरा पूरे शरीर में होता है तो मरीज बेहोश हो जाता है। बेहोश होने के बाद जिस तरफ से दौरा आरंभ हुआ होता है उस तरफ कमजोरी रह सकती है। इसे आम बोलचाल में लकवा मारना भी कहा जाता है। इसके अलावा किसी भी अंग का सुन्न हो जाने, चींटियां चलने जैसा महसूस होने या क्षणिक समय के लिये ताकत कम हो जाने जैसे लक्षण भी मस्तिष्क या स्पाइन के ट्यूमर के संकेत हो सकते हैं।
ब्रेन ट्यूमर कई प्रकार के होते हैं। हालांकि इसे कैंसर के आधार पर मुख्य रूप से दो वर्गों - कैंसरजन्य और कैंसर रहित ट्यूमर में विभाजित किया गया है। बच्चों को ज्यादातर कैंसर वाले, 20 से 40 साल के लोगों को ज्यादातर कैंसर रहित और 50 साल से अधिक उम्र के लोगों को ज्यादातर कैंसर वाले ट्यूमर होते हैं।
ब्रेन ट्यूमर दरअसल मस्तिष्क की कोशिकाओं का असामान्य विभाजन है। हमारे शरीर की सामान्य कोशिकायें एक समान गति से विभाजित (नष्ट) होती रहती हैं और नयी कोशिकायें बनती रहती हैं। ये नयी कोशिकायें नष्ट हुयी कोशिकाओं का स्थान लेती हैं। आम तौर पर हमारा शरीर ओंकोजीन नामक प्रक्रिया की मदद से इन कोशिकाओं पर नियंत्रण रखता है। ओंकोजीन कोशिकाओं को नियमित रूप से विभाजित करने के लिये प्रेरित करती है। कोशिकाओं पर से ओंकोजीन का नियंत्रण समाप्त हो जाने पर इन कोशिकाओं का अनियमित विभाजन आरंभ हो जाता है। अंत में ये कोशिकायें गांठ का रूप धारण कर लेती हैं। कैंसर रहित गांठ (ट्यूमर) के विभाजित होने की गति कम रहती है लेकिन कैंसर वाले ट्यूमर की कोशिकाओं के विभाजन की गति अत्यंत तीव्र होती है। ये कोशिकायें गुणात्म्क रूप से बढ़ती जाती हैं और शीघ्र ही भयानक गांठ का रूप धारण कर लेती हैं। हमारे मस्तिष्क के भीतर सीमित जगह होती है। गांठ के कारण सामान्य मस्तिष्क पर दबाव पड़ता है जिससे मस्तिष्क के कार्यकलाप में बाधा पड़ती है। मस्तिष्क के जिस भाग पर दबाव पड़ता है उस भाग से संचालित होने वाले शरीर के अंग काम करना बंद कर देते हैं। गांठ के कारण ही सिर दर्द, उल्टी और दौरे जैसी समस्यायें होती हैं।
किसी व्यक्ति को काफी लंबे समय से सिर दर्द होने पर सिर दर्द के कारणों की समुचित जांच होनी चाहिये। इसके लिये सीटी स्कैन अथवा एम.आर.आई. की मदद ली जाती है। सी टी स्कैन में कोई धब्बा (स्पाॅट) आने पर ब्रेन ट्यूमर की पुष्टि हो जाती है। ऐसी स्थिति में समय गंवाये बगैर न्यूरो विशेषज्ञ से इलाज आरंभ कर देना चाहिये। पुराने जमाने में कम्प्यूटराइज्ड टोमोग्राफी (सी टी) स्कैन और मैगनेटिक रिजोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.) जैसी जांच तकनीकों के नहीं होने के कारण ब्रेन ट्यूमर का पता नहीं चलता था। लेकिन मौजूदा समय में इन नयी जांच तकनीकों की उपलब्धता के कारण ब्रेन ट्यूमर का पता समय पर लगने लगा है। कभी-कभी तो किसी और कारणों से करायी गयी जांच से भी ट्यूमर होने का पता चल जाता है।
अगर ट्यूमर कैंसर रहित हो तो आपरेशन के बाद मरीज पूरी तरह ठीक हो जाता है। कई मरीज को आपरेशन के बाद दौरे आते हैं। ऐसी स्थिति में मरीज को तीन साल के लिये दौरे के नियंत्रण की दवाईयां दी जाती हैं। जब तीन साल तक दौरे नियंत्रण में रहते हैं तो दवाइयां बंद कर दी जाती हैं।
कैंसर रहित ट्यूमर को आपरेशन के जरिये हटा देने पर उस जगह पर दोबारा ट्यूमर नहीं बनता है लेकिन कैंसरयुक्त ट्यूमर को निकाल देने के बाद भी उस जगह दोबारा ट्यूमर होने की आशंका होती है। हालांकि आज कैंसर युक्त ट्यूमर को रेडियो थिरेपी की मदद से जलाया जा सकता है लेकिन इसके बावजूद छह महीने से पांच साल में दोबारा ट्यूमर हो सकता है। लेकिन रेडियो थिरेपी नहीं देने पर तीन-चार महीने में ही दोबारा ट्यूमर हो सकता है। ट्यूमर जब तीन सेंटी मीटर से छोटा होता है तो गामा नाइफ रेडियोथिरेपी से उसे जलाया जा सकता है।
मौजूदा समय में ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी में रोबोटिक आर्म, स्टीरियोटौक्सी एवं सी आर्म की मदद ली जाने लगी है जिससे आपरेशन में किसी भी तरह की गलती होने
की गुंजाइश नहीं रहती है और आपरेशन पूरी तरह से कारगर होता है। अनेक देशों में इम्यूनोथिरेपी पर तेजी से काम चल रहा
है और आने वाले कुछ वर्षों में इस थिरेपी का इस्तेमाल ब्रेन ट्यूमर के इलाज में होने लगेगा। इस थिरेपी के तहत शरीर से कोशिकाओं को निकाल कर ट्यूमर पर आघात कराया जाता है। उम्मीद है कि इस विघि के इस्तेमाल में आने के बाद ब्रेन ट्यूमर के इलाज में क्रांति आ जायेगी।
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मांसाहार एवं अधपके भोजन से सिस्टीसरकोसिस का खतरा
यदि सोचने की शक्ति और याददाश्त कमजोर हो रही हो, भुलक्कड़ प्रवृत्ति पनप रही हो, छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट होती हो, बिना कारण किसी पर खीझ आती हो, अचानक चक्कर आते हों, नींद कम आती हो, कभी-कभी कुछ सेकेंड मात्र के लिए बेहोशी आती हो, काम करने की इच्छा नहीं होती हो, आंखों की रोशनी दिन ब दिन घट रही हो, यौन शक्ति क्षीण पड़ती जा रही हो, शरीर का कोई अंग सुन्न हो जाता हो, फड़कने लगता हो या कमजोर पड़ जाता हो तो समझिये कि ये लक्षण आपमें मौत का कहर बरपाने वाले सिस्टीसरकी नामक परजीवी (पारासाइट) के पलने के संकेत हो सकते हैं जो सिस्ट बनकर किसी भी क्षण आपको सिस्टीसरकोसिस की खौफनाक बीमारी का शिकार बना सकते हैं।
केन्द्रीय स्नायु तंत्र को प्रभावित करने वाली सस्टीसरकोसिस की बीमारी टीनिया सोलियम नाम फीता कृमि (टेप वर्म) परजीवियों के संक्रमण से होता है। मुख्य तौर पर यह बीमारी फीता कृमि से संक्रमित मांस खास तौर पर सूअर का मांस, अधपकी सब्जियां और बिना धुला सलाद खाने से होती है। यह बीमारी पालतू कुत्तों से भी फैलती है। किसी नस्ल के पालतू कुत्ते के सिरटीसरकोसिस के परजीवियों से संक्रमित होने पर पालने वाले को छूने मात्र से यह रोग हो सकता है।
वैसे तो सिस्टीसरकोसिस पैदा करने वाले फीता कृमि विश्वभर में मौजूद हैं लेकिन अमरीका जैसे विकसित देशों की तुलना में भारत जैसे विकासशील देशों में इस बीमारी का प्रकोप बहुत अधिक है। यह बीमारी उन ग्रामीण क्षेत्रों एवं मलिन बस्तियों में बहुत अधिक है जहां गंदगी अधिक है तथा सूअर खुले में घूमते रहते हैं तथा मानव मल खाते रहते हैं। इससे फीता कृमियों को अपना जीवन चक्र पूरा करने में मदद मिलती है।
सिस्टीसरकोसिस पैदा करने वाली टीनिया सोलियम नामक फीता कृमि(टेप वर्म)हमारे देश में इस बीमारी के फैलने के अनुकूल माहौल मौजूद हैं क्योंकि यहां सूअर का गोश्त बहुत ही आसानी से प्रचूर मात्रा में और काफी सस्ता मिलता है। देश के एक जाति विशेष का तो सूअर का मांस ही मुख्य भोजन है। देश में मांस जांच संबंधी कानून होने के बावजूद सरकारी लापरवाही से फीता कृमि से संक्रमित सूअर का मांस धड़ल्ले से बिकता है।
फीता कृमि से संक्रमित भोजन खाने से या संक्रमित पानी पीने से फीता कृमियों के लार्वे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ये शरीर के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं लेकिन इसके लक्षण मुख्य तौर पर तब प्रकट होते हैं जब इसके लार्वे मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते हैं। इन लार्वों के मस्तिष्क में पहुंचने के हफ्ते से महीने बाद बीमारी के लक्षण प्रकट हो सकते हैं।
सिस्टीसरकोसिस की परजीवियों के लार्वे जब दिमाग में विकसित होकर सिस्ट बनने लगते हैं तो उस व्यक्ति में इस खतरनाक बीमारी के लक्षण उभरने लगते हैं। फीता कृमि संक्रमण से मिर्गी भी होती है इसलिए संक्रमित मरीज को सिस्टीसरकोसिस और मिर्गी साथ भी हो सकती है।
18 साल की उम्र के बाद मिर्गी होने का एक कारण सिस्टीसरकोसिस हो सकती है। एक अध्ययन के अनुसार मिर्गी के हर पांचवें रोगी का कारण भी सिस्टीसरकोसिस ही है।
मरीज में पनप रहे सिस्टीसरकोसिस के परजीवियों का पता सी.टी. स्कैन या एम.आर.आई. जांच से चल जाता है। यदि बीमारी का प्रारम्भिक अवस्था में पता चल जाए तो इसका इलाज काफी आसान होता है वरना स्थिति बिगड़ जाती है। संक्रमित मांस का पूर्व में पता चल जाए तो इस बीमारी से बचा जा सकता है । जो लोग पालतू कुत्ते रखते हैं उन्हें अपनी और अपने कुत्ते की सिस्टीसरकोसिस संबंधी जांच अवश्य करा लेनी चाहिए और बतौर सावधानी एक समयान्तराल से कुत्ते की नियमित जांच करानी चाहिए।
इस बीमारी का इलाज दवाइयों से किया जाता है लेकिन गंभीर स्थिति में इसके इलाज के लिये सर्जरी की जरूरत पड़ती है। सिस्ट के मरने पर उसके चारों तरफ एक कड़ी कवच बन जाती है। इससे मस्तिष्क में सूजन होती है और स्नायुओं पर दवाब पड़ता है। ऐसे में सर्जरी के जरिये सिस्ट को निकालना जरूरी हो जाता है अन्यथा मरीज की मौत तक हो सकती है।
जब यह सिस्ट मस्तिष्क की पानी की थैलियों (वेंट्रीकल) में फंस जाती है तो पानी का बहाव रूकने के कारण हाइड्रोसेफलस नामक बीमारी हो जाती है। हाइड्रोसेफलस के परम्परागत इलाज के तहत मस्तिष्क में एक सुराख करके एक नली डाल दी जाती है और इस नली के दूसरे हिस्से को त्वचा के अंदर ही अंदर लाकर पेट में डाल दिया जाता है। मस्तिष्क से कीड़े के अंडे को बाहर निकालने के लिये किये जाने वाले आपरेशन में मस्तिष्क में पीछे से चैथे वेंट्रिकल को खोलकर कीड़े के अंडों को बाहर निकाल लिया जाता है सिस्टीसरकोसिस का समुचित इलाज नहीं होने पर मरीज की जान जाने का भी खतरा भी हो सकता है।
सिस्टीसरकोसिस से बचाव के उपाय
— सूअर अथवा अन्य तरह के कच्चे अथवा अधपके मांस का सेवन नहीं करें।
— शौच से आने के बाद तथा खाना खाने से पहले हाथों को साबुन से अच्छी तरह धो लें।
— सभी तरह की सब्जियों को पानी से अच्छी तरह से धोने के बाद और अच्छी तरह पकाने के बाद खायें।
— सलाद तथा फलों को अच्छी तरह से धों लें।
— गंदे पानी या मल में उगे सब्जियों का सेवन नहीं करें।
— पीने के लिये उबले अथवा विसंक्रमित पानी का ही प्रयोग करें।
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पियूष ग्रंथि की तपेदिक से भारत अछूता नहीं
आगरा के विशंभर अग्रवाल पिछले कई वर्षों से सिर दर्द और नजर में कमजोरी से परेशान थे। उन्होंने नेत्र विशेषज्ञ से आंखों की जांच कराकर चश्मा लिया। चश्मे से भी कोई फायदा नजर नहीं आने पर उन्होंने सिर दर्द की दवाइयां खायी। लेकिन सिर दर्द और नजर में कमजोरी घटने के बजाय बढ़ती गयी। कई चिकित्सकों से इलाज कराने के बाद जब वह न्यूरो सर्जन के पास पहुंचे तब न्यूरो सर्जन ने पियूष ग्रंथि में ट्यूमर (पिट्यूटरी ट्यूमर) का संदेह व्यक्त किया और उन्हें आपरेशन कराने की सलाह दी। उन्होंने आॅपरेशन से बचने के लिये अनेक चिकित्सकों से अपना इलाज कराया लेकिन जब उन्हें कोई फायदा नजर नहीं आया तब वह नौएडा (उ.प्र.) स्थित कैलाश अस्पताल तथा नयी दिल्ली के विद्यासागर मानसिक स्वास्थ्य एवं न्यूरो विज्ञान संस्थान (विमहांस) के न्यूरो सर्जन डा. अजय बक्शी के पास पहुंचे। आरंभिक जांच से पियूष ग्रंथि में मैक्रोएडीनोमा नामक ट्यूमर होने का संदेह हुआ। डा. बक्शी ने इलाज के तौर पर माइक्रो न्यूरो सर्जरी की मदद से मस्तिष्क में चीर-फाड़ किये बगैर पिट्यूटरी ट्यूमर निकालने का निर्णय लिया। माइक्रो न्यूरो सर्जरी से पिट्यूटरी ट्यूमर निकालने के लिये नाक के रास्ते अत्यंत सूक्ष्म उपकरणों की मदद से ट्यूमर निकाल लिया जाता है। इसमें रोगी के शरीर पर किसी तरह के टांके नहीं आते हैं। इस तकनीक के तहत नाक के भीतर छोटा चीरा लगाकर और कुछ हड्डियों को तोड़कर माइक्रो न्यूरो सर्जरी के उपकरणों को मस्तिष्क में प्रवेश कराया जाता है। इसके बाद कुछ विशेष यंत्र की मदद से नाक के रास्ते ही ट्यूमर को तोड़कर उनके छोटे-छोटे टुकड़े निकाल लिये जाते हैं।
जब माइक्रो न्यूरो सर्जरी की मदद से इस ट्यूमर को निकाल कर इसकी पैथोलाॅजिक जांच की गयी तो पता चला कि विशंभर अग्रवाल के पियूष गं्रथि में ट्यूमर नहीं बल्कि तपेदिक है। यह चिकित्सा जगत में एक विलक्षण मामला है। दरअसल पियूष ग्रंथि की तपेदिक अत्यंत दुर्लभ किस्म की बीमारी है और विश्व भर में अब तक केवल 25-30 मरीजों में ही इस बीमारी का पता चला है।
हालांकि तपेदिक अत्यंत सामान्य संक्रामक बीमारी है जो शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकती है। तपेदिक आम तौर पर फेफड़े को प्रभावित करती है लेकिन पियूष ग्रंथि की तपेदिक इतनी असामान्य बीमारी है कि चिकित्सकों को इसके बारे में आम तौर पर इसका आभास नहीं रहता है। डा. बक्शी के अनुसार पियूष ग्रंथि के ट्यूमर और तपेदिक के लक्षणों में भी इस हद तक समानता होती है कि यह अंतर करना मुश्किल होता है कि मरीज के पियूष गं्रथि में ट्यूमर है या तपेदिक है। इन दोनों बीमारियों में सिर दर्द, आंखों की नजर कमजोर होने, कभी-कभी एक वस्तु का दो दिखने, अधिक प्यास लगने और कभी-कभी सेक्स से संबंधित समस्याएं होने जैसे लक्षण हो सकते हैं।
विशंभर अग्रवाल की पियूष ग्रंथि की तपेदिक पाये जाने के मद्देनजर भारत में इस बीमारी की व्यापकता की पुष्टि हुयी है और इसके मद्देनजर पियूष (पिट्यूटरी) ग्रंथि की बीमारियों के इलाज में एक नया आयाम जुड़ गया है क्योंकि अगर पहले से ही पियूष ग्रंथि की तपेदिक होने की पुष्टि हो जाये तो मरीज का इलाज दवाइयों से भी हो सकता है। भारत में तपेदिक का प्रकोप अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक होने के कारण यहां पिट्यूटरी ग्रंथि की तपेदिक के भी मरीज काफी संख्या में हो सकते हैं। एक अनुमान के अनुसार विश्व भर में हर साल करीब 80 लाख लोग तपेदिक से संक्रमित होते हैं और इनमें से करीब 30 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है। सिर्फ भारत में ही हर साल तपेदिक के कारण छह लाख लोगों की मौत हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार प्रति मिनट तपेदिक के एक मरीज की मौत होती है।
तपेदिक का समय पर इलाज नहीं होने पर इसके कीटाणु 'मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्युलोसिस' पिट्यूटरी ग्रंथि को भी प्रभावित कर लेती है। सबसे पहले तपेदिक के जीवाणु मस्तिष्क के निचले हिस्से तक पहुंचते हैं उसके बाद ये जीवाणु पियूष ग्रंथि की रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर इस ग्रंथि को नष्ट करना शुरू कर देते हैं।
मस्तिष्क के निचले भाग में सेला टुर्सिका नामक हड्डियों की खास संरचना के बीच अवस्थित मटर के आकार की पियूष (पिट्यूटरी) ग्रंथि अत्यंत महत्वपूर्ण संरचना है जिससे अनेक महत्वपूर्ण हार्मोनों का उत्सर्जन होता है। शरीर की ज्यादातर अंतरस्राव ग्रंथियों को नियंत्रित करने वाली पिट्यूटरी ग्रंथि मुख्य तौर पर थायराइड, गर्भाशय, शिश्न, गुर्दे के उपरी भाग में स्थित एड्रिनल ग्रंथि तथा ग्रोथ हार्मोन एवं इसके उपउत्पादकों के उत्पादन को नियंत्रित करती है। पिट्यूटरी ग्रंथि प्रसव के बाद स्तन से दूग्ध स्राव को नियंत्रित करती है। सेला टुर्सिका इस महत्वपूर्ण ग्रंथि के लिये सुरक्षा कवच का काम करती है। लेकिन सेला टुर्सिका के कारण पिट्यूटरी ग्रंथि को फैलने के लिये सीमित जगह मिल पाती है। ट्यूमर या अन्य कारणों से पिट्यूटरी ग्रंथि में फैलाव होता है तो इससे मस्तिष्क के उस हिस्से पर दबाव पड़ता है जहां से आंखों के स्नायु गुजरते हैं। इससे सिर दर्द एवं आंखों में कमजोरी एवं रोशनी जाने का खतरा रहता है। इसके अलावा ट्यूमर होने के कारण पिट्यूटरी ग्रंथि दबाव पड़ने से सिकुड़ जाती है जिससे उसकी सामान्य गतिविधियां एवं सक्रियता प्रभावित होती है। ट्यूमर के अलावा तपेदिक होने से इस ग्रंथि की सक्रियता घट जाती है।
यदि किसी व्यक्ति को रक्त चाप और मधुमेह हो तथा शरीर में सूजन एवं चेहरे का आकार बदल रहा हो तो उसे लापरवाही नहीं करनी चाहिये बल्कि किसी इंडोक्राइनोलाॅजिस्ट से यह जांच करानी चाहिये कि कोई हार्मोन असंतुलन तो नहीं है।
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ब्रेन ट्यूमर की चिकित्सा में क्रांति
आज इंडोस्कोपी, स्टीरियोटैक्सी, रोबोटिक सर्जरी एवं गामा / एक्स नाइफ जैसी मिनिमल इंवैसिव तकनीकों की बदौलत मस्तिष्क के आपरेशन के लिये दिमाग पर नश्तर चलाने की जरूरत काफी हद तक समाप्त हो गयी है। कुछ वर्ष पूर्व तक मस्तिष्क के आपरेशन काफी खतरनाक माने जाते थे जिनसे मरीज की जान जाने अथवा उसके विकलांग हो जाने की आशंका बहुत अधिक रहती थी लेकिन आज मस्तिष्क की सर्जरी काफी हद तक सुरक्षित, कष्टरहित एवं कारगर हो गयी है।
स्टीरियोटैक्सी सर्जरी
आज स्टीरियोटैक्सी तकनीक के आगमन से मस्तिष्क की सर्जरी के क्षेत्र में क्रांति आ गयी है। इसकी मदद से मस्तिष्क एवं उसके किसी भी हिस्से को कोई नुकसान पहुंचाये बगैर मस्तिष्क के भीतर की किसी भी संरचना तक पहुंचा जा सकता है और उसकी खराबियों को दूर किया जा सकता है। ।
स्टीरियोटैक्सी सर्जरी की शुरूआत डाईस्काइनेसिय एवं दर्द से संबंधित समस्याओं के निवारण के लिये हुयी थी लेकिन आज इसका इस्तेमाल दिमाग में रक्त के थक्के (एन्युरिज्म), मस्तिष्क रक्तस्राव, मस्तिष्क ट्यूमर जैसी मस्तिष्क की विभिन्न समस्याओं के अलावा स्पाइन की बीमारियों को दूर करने के लिये भी होने लगा है। हाल के वर्षों में स्टीरियोटैक्सी तकनीकों के इस्तेमाल में काफी वृद्धि हुयी है। इसकी मदद से कम्प्यूटरीकृत एक्सियल टोमोग्राफी( सी टी स्कैन) और न्यूक्लियर मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग जैसी तकनीकों के विकास से सर्जन को स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी की प्लानिंग में काफी मदद मिलने लगी है। इससे सर्जरी लगभग शत- प्रतिशत सही एवं कामयाब होने लगी है।
स्टीरियोटैक्सी सर्जरी दो तरह की होती है- फ्रेम वाली और बिना फ्रेम वाली। फ्रेम वाली स्टीरियोटैक्सी सर्जरी करीब 30.40 सालों से हो रही है लेकिन बिना फ्रेमवाली स्टीरियोटैक्सी सर्जरी और कम्प्यूटरीकृत फ्रेमयुक्त स्टीरियोटैक्सी सर्जरी का इस्तेमाल हाल में ही शुरू हुआ है। स्टीरियोटैक्सी सर्जरी की मदद से मस्तिष्क ट्यूमर का सही-सही पता लगाया जा सकता है, उसकी बायोप्सी ली जा सकती है या उसे निकाला जा सकता है।
रोबोटिक सर्जरी
फ्रेमलेस स्टीरियोटैक्सी सर्जरी में अब रोबोट की मदद भी ली जाने लगी है। इसके तहत सर्जरी से सबंधित आंकड़े एवं जानकारियों को आपरेशन थियेटर के कम्प्यूटर पर भेज दिया जाता है। यह कम्प्यूटर रोबोट को बताता है कि ट्यूमर कहां पर और कितनी गहराई में है। इसके बाद रोबोट के हाथ की मदद से सर्जरी की जाती है। हालांकि हमारे देश में अभी रोबोटिक सर्जरी सिर्फ अपोलो अस्पताल में ही उपलब्ध है।
आने वाले समय में इंटरनेट और रोबोट की मदद से शल्य चिकित्सक अब आपरेशन कक्ष में यहां तक कि उसी शहर या देश में मौजूद रहे बगैर रोगियों का आपरेशन कर सकेंगे। अमरीका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में प्रयोग के स्तर पर इस तरह के आपरेशनों की शुरूआत हो चुकी है। इसके तहत आने वाले समय में मरीज की एम.आर.आई. (मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग), सीटी (कम्प्यूटर टोमोग्राफी) अथवा पेट (पोजिट्राॅन इमिशन टोमोग्राफी) जैसे परीक्षणों के स्कैन इंटरनेट के जरिये दूर बैठे सर्जन को भेज दिये जाते हैं और सर्जन स्कैन का विश्लेषन करके सर्जरी की प्लानिंग करके अपने कम्प्यूटर से ही आपरेशन कक्ष में इंटरनेट से जुड़े कम्प्यूटर संचालित रोबोट को आपरेशन से संबंधित निर्देश देता है और रोबोट सर्जन के निर्देश के अनुसार मरीज का आपरेशन करता है।
इंटरनेट की मदद से रोबोटिक सर्जरी न केवल अधिक सही एवं सुरक्षित होती है बल्कि समय गंवाये की जा सकती है। इसमें गलती की गुंजाइश कम होती है।
मस्तिष्क की इंडोस्कोपी
इंडोस्कोपी की बदौलत मस्तिष्क के भीतर झांकना, मस्तिष्क की नाजुक एवं सूक्ष्मतम कोशिकाओं तक पहुंचना एवं उनका आपरेशन करना कष्टरहित, आसान और सुरक्षित हो गया है। इंडोस्कोपी के विकास के कारण अब खोपड़ी में बहुत छोटा सूराख करके ही अथवा मस्तिष्क को खोले बगैर बड़े से बड़े आपरेशन किये जा सकते हैं।
इंडोस्कोप बुनियादी तौर पर एक ऐसा उपकरण है जिससे शरीर के किसी भाग के भीतर प्रकाश भेजा जा सकता है। अगर इससे शक्तिशाली कैमरा एवं प्रकाश स्रोत जोड़ दिया जाये तो यह शरीर के भीतर की तस्वीरों को इससे जुड़े टेलीविजन माॅनीटर पर दिखा सकता है। इससे शल्य चिकित्सक बड़ा छेद किये बगैर शरीर के अंदर की गतिविधियों को साफ तौर पर देख सकता है। सर्जन इन तस्वीरों के आधार पर आधुनिकतम सूक्ष्म इंडोस्कोपी उपकरणों की मदद से जटिल से जटिल आपरेशन अत्यंत सफलतापूर्वक एवं किसी जोखिम के बगैर कर सकता है।
इंडोस्कोपी की मदद से पीयूष ग्रंथि के ट्यूमर को निकालना, दिमाग के पानी के रिसाव को बंद करना, क्लिवस जैसे मस्तिष्क के कुछ भागों की बायोप्सी करना तथा मस्तिष्क में रक्त के थक्के का पता लगाकर उसे निकालना बिल्कुल आसान एवं कष्टरहित हो गया है। इंडोस्कोपी आधारित कीहोल क्रानियोटोमी की मदद से दिमागी फोड़े, एन्युरिज्म एवं सिस्ट आदि का इलाज संभव हो गया है।
माइक्रोडिस्क एक्टमी
आधुनिक न्यूरो सर्जरी की एक और उपलब्धि माइक्रो डिस्क एक्टमी के रूप में सामने आयी है। इसमें माइक्रोस्कोप की मदद से डिस्क एक्टमी की जाती हैं। इसमें भी डेढ़ से दो इंच का चीरा लगाया जाता है। इसमें कैमरा युक्त स्कोप डालकर पिट्यूटरी या अन्य ट्यूमर को निकाला जा सकता है। इस आपरेशन के लिये मरीज को कई बार बेहोश भी नहीं करना पड़ता बल्कि स्थानीय एनीस्थिया से भी आपरेशन हो सकता है और मरीज दूसरे ही दिन घर जा सकता है।
गामा/एक्स नाइफ
आज गामा नाइफ एवं एक्स नाइफ जैसी तकनीकों की मदद से मस्तिष्क में चीर-फाड़ किये बगैर ट्यूमर का सफाया किया जा सकता है।
आधुनिक समय में लगभग हर तरह के ट्यूमर खास तौर पर कैंसर रहित अर्थात बिनाइन ट्यूमर के कष्टरहित तथा कारगर इलाज के लिये गामा नाइफ का सफलता पूर्वक उपयोग हो रहा है। गामा नाइफ की मदद से आपरेशन के बाद छूटे हुये ट्यूमर को भी हटाया जा सकता है। साथ ही इसकी मदद से मस्तिष्क में गहराई में स्थित ट्यूमर का इलाज किया जा सकता है क्योंकि शल्य क्रिया की मदद से उस ट्यूमर तक पहुंचना कई बार संभव नहीं होता है।
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धूम्रपान बढा़ता है ब्रेन हैमरेज एवं ब्रेन अटैक का खतरा
धूम्रपान दिमागी नस के फटने (बे्रन हैमरेज) और मस्तिष्क घात (ब्रेन हैमरेज) का कारण बन सकता है। अमेरिकन एसोसिएशन आफ न्यूरोलाॅजिकल सर्जन्स के अनुसार धूम्रपान रक्त धमनियों में सिकुड़न पैदा करके ब्रेन हैमरेज और ब्रेन अटैक की जानलेवा स्थितियां पैदा करता है। धूम्रपान के अलावा मोटापे, शराब सेवन और दिमागी तनाव से भी ब्रेन हैमरेज और ब्रेन अटैक हो सकते हैं। ब्रेन हैमरेज और ब्रेन अटैक होने पर मरीज की जान बचाने के लिये तत्काल आपरेशन करना जरूरी होता है।
न्यूरोसर्जनों ने अपने हाल के अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि सिगरेट पीने से ब्रेन अटैक एवं ब्रेन हैमरेज का खतरा बढ़ता है। अमरिकन एसोसिएशन आफ न्यूरोलाॅजिकल सर्जन्स की वैज्ञानिक शोध पत्रिका जर्नल और न्यूरोसर्जरी में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट के अनुसार धूम्रपान से दिमागी नस के फटने की आशंका बढ़ती है। दिमागी नस के फटने से ब्रेन हैमरेज और ब्रेन अटैक जैसी खतरनाक स्थितियां पैदा हो सकती है।
दिमाग की नस में गुब्बारे जैसा बनने की स्थिति को एन्युरिज्म कहा जाता है। यह गुब्बारा कभी भी फट सकता है जिससे मस्तिष्क रक्तस्राव (ब्रेन हैमरेज) हो सकता है और तत्काल इलाज नहीं होने पर मरीज की जान जा सकती है। दिमागी नस के फटने अथवा ब्रेन हैमरेज के मुख्य कारण उच्च रक्त चाप और दिमाग की नसों में गुच्छे बन जाने अर्थात आर्टिरियोवीनस मालफाॅर्मेशन (ए वी एम) है। मधुमेह के रोगियों में ब्रेन हैमरेज की आशंका अधिक होती है। धूम्रपान के अलावा मोटापे, शराब, भागदौड़ और दिमागी तनाव से भी दिमागी नस के फटने एवं बे्रन हैमरेज की आशंका बढ़ती है।
एक अनुमान के अनुसार केवल अमरीका में करीब 18 हजार लोग हर साल दिमागी नस के फटने के कारण या तो असामयिक मौत अथवा विकलांगता के शिकार बनते हैं।
सिगरेट का धुंआ दिमाग की नसों के फटने के अलावा दिमाग की नसों में अवरोध का भी कारण बनता है। इससे ब्रेन अटैक हो सकता है। ज्यादातर मामलों में ब्रेन अटैक उस स्थिति में होता है जब किन्हीं कारणों से मस्तिष्क को रक्त की आपूर्ति किसी रक्त धमनी के फट जाने, उसमें रक्त का थक्का बन जाने या कहीं से थक्का आ कर वहां फंस जाने, उसमें वसा या कोलेस्ट्रोल के जम जाने के कारण बाधित हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के अनुसार ब्रेन अटैक आज असामयिक मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन गया है।
जर्नल आफ न्यूरोसर्जरी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार फिनलैंड के हेलसिंकी स्थित हेलसिंकी यूनिवर्सिटी सेंट्रल हास्पीटल के न्यूरोसर्जरी विभाग के न्यूरोसर्जनों ने उनके पास इलाज के लिये आने वाले मरीजों की जांच के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि सिगरेट पीने से दिमागी नस में अवरोध अथवा दिमागी नस के फटने की आशंका कई गुना बढ़ती है। इन सर्जनों का कहना है सिगरेट छोड़ना अथवा सिगरेट से परहेज करना एन्युरिज्म से बचने का अच्छा विकल्प है।
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि एन्युरिज्म के फटने की आशंका धूम्रपान, मरीज की उम्र और एन्युरिज्म के आकार पर निर्भर करती है। इस अध्ययन से इस बात की पुष्टि हुयी है कि धूम्रपान से एन्युरिज्म का आकार बढ़ता है। अमेरिकन एसोसिएशन आफ न्यूरोलाॅजिकल सर्जन्स के अनुसार धूम्रपान से रक्त धमनियों में सिकुड़न पैदा होती है। यह तो पता चला है कि धूम्रपान से एन्युरिज्म के आकार में वृद्धि होती है लेकिन अभी यह पता नहीं चला है कि धूम्रपान नया एन्युरिज्म पैदा करता है या नहीं।
एन्युरिज्म का रोगी अगर गुब्बारा फटने के चार घंटे के अंदर न्यूरोसर्जरी के किसी अच्छे अस्पताल में पहुंच जाये तो तुरत आपरेशन के जरिये फटे हुए गुब्बारे को एक विदेशी क्लिप के जरिये सील कर दिया जाता है। इस एन्युरिज्म का इलाज पहले 24 या 48 घंटे के अंदर नहीं हो पाने पर इसके दोबारा फटने की आशंका बहुत ज्यादा होती है। अगर पहले ब्रेन हैमरेज से रोगी बच भी जाता है तोे एन्युरिज्म के दूसरी या तीसरी बार फटने पर रोगी का जीवित रहना असंभव हो जाता है। एन्युरिज्म और आर्टिरियोवीनस मालफाॅर्मेशन की सर्जरी सभी आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित आपरेशन थियेटर में ही संभव हो पाता है जहां अल्ट्रासाउंड, माइक्रोस्कोप, डिजीटल सब्सट्रैक्शन एंजियोग्राफी और न्यूरोसर्जरी की आधुनिकतम मशीनें और औजार उपलब्ध हो। इसलिए हमारे देश में बहुत कम अस्पतालों में एन्युरिज्म और आर्टिरियोवीनस मालफाॅर्मेशन का आपरेशन संभव है।
ब्रेन अटैक में हाथ-पैर या शरीर के आधे या पूरे हिस्से का सुन्न पड़ जाने, बैठे-बैठे हाथ-पैर में थोड़ी कमजोरी महसूस होने, सुन्नपन का अहसास होने, आवाज लड़़खड़ाने, आंखों के आगे अंधेरा छा जाने जैसे लक्षण हो सकते हैं। हो सकता है कि कुछ समय बाद ये ठीक हो जाये लेकिन कुछ समय बाद इसी तरह के लक्षण दोबारा उभर सकते हैं। इलाज में विलंब होने पर दिमाग को पूर्ण घात लग सकता है और मरीज की मौत तक हो सकती है।
ब्रेन अटैक होने पर आसपास की मस्तिष्क की कोशिकाओं को भारी क्षति होती है और इन कोशिकाओं को दोबारा जीवित करना मुश्किल होता है। ब्रेन अटैक होने के तीन से छह घंटे के भीतर मरीज को अस्पताल ले आने पर उसे लकवा या अन्य विकलांगता से बचाया जा सकता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में होने वाली नयी शोधों से अर्जित उपलब्धियों की बदौलत आज पक्षाघात के मरीजों को जीवनदान दिया जा सकता है।
नयी चिकित्सा तकनीकों की मदद से मरीजों को भविष्य में दोबारा पक्षाघात होने के खतरे से बचाया जा सकता है। अगर मरीज तीन घंटे के भीतर सभी सुविधाओं से युक्त अस्पताल पहुंच जाये तो उसे क्लाॅट डिजाॅलविंग थिरेपी की नयी तकनीक से आपरेशन किये बगैर बचाया जा सकता है। धूम्रपान और शराब सेवन से बचना चाहिये तथा जो लोग शराब या धूम्रपान का सेवन करते हैं और जिनकी उम्र 40 साल से ज्यादा है उन्हें अपने रक्त चाप की नियमित जांच करानी चाहिये क्योंकि रक्त चाप ठीक रहने से ब्रेन अटैक की आशंका कम रहती है।
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माइक्रोसर्जरी से एकोस्टिक न्यूरोमा का उपचार
सुबह जागने पर सिरदर्द, किसी एक कान में घनघनाहट की आवाज गूंजने और सुनने की क्षमता में कमी आने तथा चाल में लड़खड़ाहट होने जैसी समस्याएं एकोस्टिक न्यूरोमा नामक ट्यूमर के संकेत हो सकते हैं जिसकी अनदेखी की बहरेपन और असामयिक मौत जैसी घातक परिणति हो सकती है। लेकिन एकोस्टिक न्यूरोमा से ग्रस्त मरीजों के लिये खुशखबरी यह है कि अब माइक्रोसर्जरी, गामा नाइफ एवं स्टीरियोटेक्टिक रेडियोथिरेपी जैसी नवीनतम तकनीकों की मदद से इसका इलाज पूरी सफलता के साथ होना संभव हो गया है।
मस्तिष्क के श्रवण संबंधी आठवें नर्व के बहुत धीमी गति से बढ़ने वाले ट्यूमर को एकोस्टिक न्यूरोमा कहा जाता है। यह ट्यूमर कैंसर रहित होता है। यह देखा गया है कि न्यूरोफाइब्रोमेटोसिस नामक जेनिटिक बीमारी से ग्र्रस्त लोगों में एकोस्टिक न्यूरोमा ट्यूमर होने की आशंका बहुत अधिक होती है।
एकोस्टिक न्यूरोमा के मामले हालांकि तुलनात्मक रूप से बहुत कम पाये जाते हैं लेकिन मस्तिष्क के सामान्यतम ट्यूमरों में से करीब आठ प्रतिशत ट्यूमर एकोस्टिक न्यूरोमा ट्यूमर के होते हैं। एक अनुमान के अनुसार हर साल एक लाख में एक व्यक्ति इस बीमारी का शिकार होता है।
इसके लक्षणों में सिर दर्द, उल्टी एवं जी मिचलाने, सुनने की क्षमता में कमी होने, चक्कर आने, चलने-फिरने में संतुलन बना नहीं पाने, चेहरे अथवा एक कान पर सूजन तथा दर्द, आधे चेहरे के सुन्न हो जाने तथा कभी-कभी देखने में दिक्कत जैसे लक्षण हो सकते हैं।
एकोस्टिक न्यूरोमा ट्यूमर के बारे में विस्तृत एवं सही जानकारी के लिये एम.आर.आई.कराना जरूरी होता है। इसके अलावा सीटी स्कैन, श्रवण परीक्षण (आडियोलाॅजी), संतुलन बनाने की क्षमता की जांच (इलेक्ट्रोनिस्टैग्मोग्राफी) तथा श्रवण एवं ब्रेन स्टेम के परीक्षण के लिये बी ए ई आर (बे्रन स्टेम आडिटरी इवोकड रिसपांस) जैसे परीक्षणों की भी जरूरत पड़ सकती है।
अगर एकोस्टिक न्यूरोमा ट्यूमर तीन संेटीमीटर से बड़ा हो तो ट्यूमर को हटाने के लिये आॅपरेशन का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन ट्यूमर जब तीन सेंटी मीटर से छोटा होता है तब मरीज को गामा नाइफ से भी फायदा होता है। कुछ साल पहले होने वाले आॅपरेशनों से आसपास के स्नायुओं मुख्य तौर पर पांचवी, सातवीं, नौवीं और दसवीं नर्व के क्षतिग्रस्त होने की आशंका रहती थी लेकिन अब माइक्रोसर्जरी तकनीकों के विकास के कारण आसपास के नर्व ऊतकों को नुकसान पहुंचने की आशंका कम हो गयी है। कुछ मामलों में जब आपरेशन से गंभीर दुष्परिणाम होने की आशंका हो तो ट्यूमर के पूरे हिस्से को नहीं हटाया जाता है। आपरेशन के दौरान ट्यूमर के छोड़े हुये टुकड़े को गामा नाइफ अथवा रेडियोथिरेपी के जरिये समाप्त किया जाता है। ऐसी परिस्थिति आम तौर पर केवल उस समय आती है जब ट्यूमर ब्रेन स्टेम से चिपका हुआ होता है एवं ट्यूमर को निकालने के आपरेशन से बे्रन स्टेम के क्षतिग्रस्त होने की आशंका रहती है।
एकोस्टिक न्यूरोमा ट्यूमर को निकालने के लिये होने वाला आपरेशन अत्यंत जटिल किस्म का होता है और इसकी सफलता के लिये सुप्रशिक्षित सर्जन के अलावा माइक्रोस्कोप, नर्व स्टिमुलेटर और अल्ट्रासोनिक एसपाइरेटर जैसे आधुनिकतम उपकरणों की जरूरत होती है।
जो मरीज आपरेशन नहीं कराना चाहते या जिन मरीजों के लिये आपरेशन के खतरनाक होने की आशंका होती है अथवा जिनके ट्यूमर तीन सेंटी मीटर से छोटे होते हैं उनका इलाज गामा नाइफ या स्टीरियोटेक्टिक रेडियोथिरेपी से किया जाता है।
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इंडोस्कोपी से कुशिंग रोग एवं पिट्यूटरी ट्यूमर का इलाज
बच्चों एवं युवाओं में उच्च रक्त चाप, मधुमेह और चेहरे अथवा पूरे शरीर में सूजन तथा अविवाहित महिलाओं में माहवारी बंद होने तथा स्तन से दूध आने जैसे लक्षण कुशिंग रोग नामक गंभीर स्नायु बीमारी के संकेत हो सकते हैं। लेकिन जानकारी एवं जागरूकता के अभाव में लोग सामान्य फिजिशियन से इलाज कराते रहते हैं जिसके कारण उनकी बीमारी बढ़ती रहती है और कई बार खतरनाक नतीजे सामने आते हैं।
आम तौर पर पिट्यूटरी ट्यूमर के कारण होने वाला कुशिंग रोग शरीर में कोटिसाॅल या स्टेराॅयड नामक हार्मोन के बढ़ जाने से होता है। शरीर में हार्मोन असंतुलन उत्पन्न हो जाने के कारण होने वाले इस रोग को हाइपरकोटिसोलिज्म भी कहा जाता है। यह दुर्लभ किस्म की बीमारी है और अक्सर 20 से 40 वर्ष उम्र के लोगों को होती है। लेकिन यह बीमारी बच्चों को भी हो सकती है।
मनुष्य के जीवित रहने के लिये शरीर में इस हार्मोन की निर्धारित मात्रा की उपस्थिति बहुत आवश्यक है लेकिन इसकी मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाना खतरनाक साबित हो सकता है।
कुशिंग रोग के लक्षणों में शरीर के ऊपरी भाग में मोटापा, चेहरे का गोलाकार हो जाना, गर्दन के चारों तरफ अधिक वसा जम जाना तथा हाथ एवं पैर पतले हो जाना प्रमुख है। इसके अलावा त्वचा पतली एवं कमजोर हो जाती है। इसके कारण त्वचा जल्दी फट जाती है। पेट, जांघ, पीठ के निचले हिस्से, बांह और छाती पर बैंगनी-गुलाबी निशान पड़ जाते हैं तथा उठने-बैठने जैसी रोजमर्रे की गतिविधियों के कारण कमर दर्द हो सकता है तथा छाती की हड्डियों एवं रीढ़ में फ्रैक्चर होने की आशंका रहती है। अनेक लोगों में थकान, उच्च रक्त चाप एवं उच्च रक्त शुगर के अलावा चिड़चिड़ापन, दुश्चिंता एवं अवसाद की भी शिकायत हो सकती है।
इस रोग से ग्रस्त महिलाओं के चेहरे, गर्दन, छाती, पेट और जांघ में अधिक बाल हो जाते हैं। उनकी माहवारी या तो अनियमित हो जाती है या बंद हो जाती है। पुरुषों में प्रजनन क्षमता एवं सेक्स की इच्छा घट जाती है।
कुशिंग रोग का सबसे बड़ा कारण पिट्यूटरी टूयमर है हालांकि यह ट्यूमर कैंसररहित होता है। पिट्यूटरी ट्यूमर को इंडोस्कोपी के जरिये निकाला जाना संभव हो गया है। इसके लिये मस्तिष्क में किसी तरह की चीर-फाड़ करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके लिये नाक के जरिये इंडोस्कोपी यंत्र डालकर ट्यूमर को निकाल लिया जाता है।
बच्चों में भी पिट्यूटरी ट्यूमर हो सकता है लेकिन बच्चों में पिट्यूटरी ट्यूमर इतने छोटे आकार का होता है कि आम तौर पर इसका पता कैट स्कैन में नहीं चलता है। इसका पता उन्नत एम.आर.आई. से ही चलता है।
अगर किसी व्यक्ति को उच्च रक्त चाप और मधुमेह हो तथा शरीर में सूजन एवं चेहरे का आकार बदल रहा हो तो उसे लापरवाही नहीं करनी चाहिये बल्कि किसी इंडोक्राइनोलाॅजिस्ट से यह जांच करानी चाहिये कि कोई हार्मोन असंतुलन तो नहीं है। महिलाओं में पिट्यूटरी ट्यूमर होने पर प्रोलेक्टिन हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है जिससे माहवारी बंद हो जाती है, गर्भधारण नहीं होता है तथा अविवाहित महिलाओं में स्तन से दूध आने लगता है।
पुरुषों में इस ट्यूमर के कारण प्रोलेक्टिन हार्मोन के अधिक होने का पता नहीं चलता। उनमें इस ट्यूमर का तभी पता चलता है जब यह ट्यूमर बढ़ कर आंखों के नर्व को दबाने लगता है। इसके कारण कई बार आंख खराब हो जाने के कारण ही इसका पता लग पाता है लेकिन महिलाओं में इसका पता आरंभिक अवस्था में लग सकता है। देर से पता चलने पर जब ट्यूमर का आकार बड़ा हो जाता है तो इंडोस्कोपी के अलावा रेडियेशन के जरिये ट्यूमर के शेष भाग को भी नष्ट करना जरूरी होता है।
जानकारी के अभाव में आम तौर पर लोग पिट्यूटरी ट्यूमर के लक्षणों को समझ नहीं पाते हैं और वे या तो इलाज में लापरवाही बरतते हैं या सामान्य चिकित्सक की दवाइयां खाते रहते हैं। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने हाल में कुशिंग रोग से ग्रस्त 18 साल की उम्र के एक छात्र का इंडोस्कोपी से इलाज किया। इस रोग के कारण उसका चेहरा फूल कर बड़ा हो गया था। उसके घर एवं आसपास के लोग पहले तो यह समझते रहे कि वह मोटा हो रहा है। लेकिन उसे उच्च रक्त चाप, मधुमेह, पूरे शरीर में सूजन और जख्म होने पर उसे जब उनके पास लाया गया तो उन्नत किस्म की एम.आर.आई से पिट्यूटरी ट्यूमर का पता चल गया। यह ट्यूमर मात्र सात मिली मीटर का था। इंडोस्कोपी की मदद से उसके पिट्यूटरी ट्यूमर को निकाल देने पर वह छात्र पूरी तरह से ठीक हो गया।
पिट्यूटरी ट्यूमर का दवाइयों से भी इलाज हो सकता है लेकिन इसके लिये लंबे समय तक दवाइयां खानी पड़ती है। जब तक दवाइयों का सेवन जारी रहता है ट्यूमर दबा हुआ रहता है लेकिन दवाईयों का सेवन बंद करने पर ट्यूमर दोबारा उभर आता है। जिन लोगों के लिये सर्जरी या इंडोस्कोपी अनुकूल नहीं होती उन्हें दवाइयां खाने की ही सलाह दी जाती है।
इंडोस्कोपी की मदद से ट्यूमर हटाने के लिये मरीज को मात्र दो दिन अस्पताल में रहना पड़ता है।
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चेहरा जब जलन से भर जाये
सीने में जलन और आंखों में तूफान लिये आज हर दूसरा तीसरा आदमी मिल जायेगा, लेकिन हममें से बहुत कम लोगों ने चेहरे में भयानक जलन की असहनीय पीड़ा झेली है। चिकित्सा विज्ञान में इसे ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया कहा जाता है।
ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया अत्यंत तकलीफदेह बीमारी है जिसमें मरीज के चेहरे में भयानक जलन एवं भीषण पीड़ा होती है। कई बार यह पीड़ा एवं जलन इतनी अधिक बढ़ जाती है कि मरीज हंस या मुस्कुरा भी नहीं सकता। यहां तक कि हवा का झोंका लगने पर भी असहनीय जलन एवं पीड़ा होती है। खाना खाने या चबाने पर यह पीड़ा एवं जलन काफी अधिक हो जाती है। कई मामलों में मरीज चेहरे व दांत के दर्द के कारण दांत वाले डाॅक्टर के पास जाकर अपने सारे दांत निकलवा चुका होता है लेकिन यह बीमारी ठीक नहीं होती, क्योंकि यह बीमारी दिमाग की नस के कारण होती है।
इस बीमारी की शुरुआत खुद ब खुद होती है और आरंभ से ही मरीज को काफी तेज दर्द होता है। इसमें दर्द से ज्यादा जलन होती है। ऐसा लगता कि एक तरफ का चेहरा जल रहा है मानो किसी ने बिजली के करंट के झटके चेहरे पर लगा दिये हों।
यह बिना किसी कारण के होता है। पीड़ा एवं जलन का यह दौर आधे से 60 मिनट से अधिक नहीं रहता है लेकिन यह दौर इतना अधिक असहनीय होता है कि मरीज के लिये इसे बर्दाश्त करना मुश्किल होता है।
इस बीमारी में जलन एवं पीड़ा चेहरे के किसी एक हिस्से में होती है- या तो दायें या बायें हिस्से में। इसमें ज्यादातर मामलों में एक तरफ आंख एवं गाल में पीड़ा एवं जलन होती है। कई मामलों में यह बीमारी ट्यूमर के कारण होती है। हालांकि आम तौर पर यह ऐसे ट्यूमर के कारण होती है जो कैंसरजन्य नहीं होता है। इस कारण ट्यूमर को निकाल देने पर ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया ठीक हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया के तकरीबन पांच से आठ प्रतिशत मामलों में ट्यूमर पाये जाते हैं। लेकिन कई मामलों मंे ट्यूमर अथवा नस पर दबाव नहीं होने पर भी यह बीमारी होती है।
कई मामले में टेग्रेटाॅल नामक दवा लेने पर रोगी को काफी राहत मिलती है। लेकिन अगर इस दवाई से भी कोई फायदा नहीं हो तो आगे की जांच की जरूरत होती है। जांच के तौर पर मस्तिष्क की एम.आर.आई. करनी पड़ती है।
चेहरे में आने वाली पांचवी क्रेनियल नर्व नामक नस में इरिटेशन होने के कारण भी ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया होती है। इसमें खून की एक नस पांच नंबर की नस से टकराती है और ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया पैदा करती है। कई बार इस नर्व के अत्यधिक संवेदनशील होने के कारण भी यह बीमारी होती है लेकिन ऐसी स्थिति में एम.आर आई. में भी कारणों का पता नहीं चलता है। कई बार इस नर्व पर दबाव पड़ने से भी यह बीमारी होती है। ऐसी स्थिति में सिर के पीछे माइक्रोस्कोप की सहायता से माइक्रो वैस्कुलर डिकम्प्रेशन (एम.वी.डी.) नामक छोटा सा आॅपरेशन करते हैं। इस आॅपरेशन के तहत दोनों नसों के बीच में एक मांस का या टेफलान का टुकड़ा लगा दिया जाता है जिससे नसें आपस में नहीं टकराती हैं और ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया ठीक हो जाता है।
इस रोग के मरीज को सबसे पहले टेग्रेटाॅल जैसी दवाइयां दी जाती हैं। इससे आराम नहीं मिलने पर चिकित्सक मरीज को ग्लिसराॅल इंजेक्शन देते हैं। नर्व में यह इंजेक्शन लगाकर नर्व को सुन्न कर दिया जाता है। जब इससे भी राहत नहीं मिले तो एक बार फिर एम.आर.आई. कराकर देखा जाता है।
इस रोग के इलाज के लिये राइजोटोमी नामक एक और तरीका अपनाया जाता है। इसके तहत पांचवी नर्व के संवेदी रेशों को काट दिया जाता है। इससे चेहरे में जलन एवं पीड़ा समाप्त हो जाती है लेकिन कई बार चेहरे उस खास हिस्से में हमेशा के लिये सुन्नपन आ सकता है। ऐसे में रोगी को भोजन के स्वाद का पता नहीं चलता है। लेकिन उसे पीड़ा एवं जलन से राहत मिल जाती है।
राइजोटोमी या तो सामान्य सर्जरी के जरिये या रेडियो फ्रीक्वेंसी तरंगों की मदद से की जा सकती है। आजकल इसके लिये गामा नाइफ का भी उपयोग किया जाने लगा है लेकिन अनेक मामलों में इसके परिणाम अच्छे नहीं आते हैं।
माइक्रोवैस्कुलर डिकम्प्रेशन अधिक कारगर तरीका है। इस विधि से इलाज करने पर चेहरे में सुन्नपन आने की आशंका कम रहती है। यही नहीं अगर सुन्नपन आ भी जाये तो धीरे-धीरे यह ठीक हो जाता है। माइक्रोवैस्कुलर डिकम्प्रेशन में 90.95 प्रतिशत मामलों में मरीज को पूरी राहत मिल जाती है। आपरेशन के बाद भी मरीज को मेजिटाॅल दवाइयां पहले जितनी खुराक में लेनी पड़ती है। लेकिन धीरे- धीरे दवाइयां बंद कर दी जाती है। इस दवा को अचानक बंद नहीं करना चाहिए वरना चेहरे में दर्द दोबारा आ सकता है।
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मस्तिष्क सर्जरी का बदलता परिदृश्य
आकाश चंद शर्मा बिहार पुलिस की नौकरी में हैं। अपराधियों से मुठभेड़ के दौरान उनके सिर में गोली लगी थी। गोली लगने के बाद वह लंबी बेहोशी में चले गये। उनके परिवार वालों और सहकर्मियों ने तो उन्हें बचने की पूरी उम्मीद छोड़ दी थी लेकिन वह सबको आश्चर्य में डालते हुये मौत को पछाड़ कर जीवित बच निकले बल्कि होश में आने के कुछ ही दिनों बाद सामान्य कामकाज करने में सक्षम हो गये। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है लेकिन न्यूरो सर्जरी की नवीनतम आधुनिकतम तकनीकों की बदौलत आज इस तरह का चमत्कार समान्य घटना की तरह हो गया है।
आज न्यूरो सर्जरी की आधुनिकतम तकनीकों, कम्प्यूटरों एवं रोबोट के अर्विभाव के कारण मस्तिष्क की गंभीर चोटों अथवा गंभीर दिमागी बीमारियों के शिकार व्यक्ति को न केवल बचाना बल्कि आपरेशन के बाद उसकी रोजमर्रे की सक्रियता को कायम रखना संभव हो गया है।
आज इंडास्कोपी, स्टीरियोटैक्टिक एवं रोबोटिक सर्जरी की बदौलत एक समय खतरनाक और अत्यंत असुरक्षित माने जाने वाली मस्तिष्क और स्पाइन की सर्जरी अत्यंत सुरक्षित, आसान एवं कारगर बन गयी है। कुछ वर्ष पूर्व तक लोग मस्तिष्क या स्पाइन सर्जरी कराने से डरते थे, क्योंकि इसमें आपरेशन के लिये मस्तिष्क को खोलना पड़ता था या काफी चीर-फाड़ करनी पड़ती थी जिससे काफी रक्त स्राव होता था और इससे मस्तिष्क या स्पाइन के दूसरे भागों को भी क्षति पहुंचने की आशंका होती थी। अक्सर मरीज आपरेशन के बाद कई-कई सप्ताह तक बेहोश ही रहता था अथवा उसे कई तरह के दुष्प्रभाव होने की आशंका होती थी लेकिन आज मस्तिष्क की सर्जरी पूरी तरह से सुरक्षित बन गयी है।
न्यूरो सर्जरी के क्षेत्र में स्टीरियोटेक्टिक तकनीक एक महत्वपूर्ण क्रांति है। स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी दो तरह की होती है - फ्रेम वाली और बिना फ्रेम वाली। फ्रेम वाली स्टीरियोटेक सर्जरी तो करीब 30.40 साल से हो रही है लेकिन बिना फ्रेमवाली स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी का प्रचलन हाल में शुरू हुआ है। फ्रेम वाली स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी में इसमें रोगी के सिर पर एक फ्रेम लगाया जाता है और कैलकुलेट करके ट्यूमर का पता लगाया जाता है, उसके बाद उसका बायोप्सी ली जाती है या उसे निकाला जाता है। कुछ सालों से फ्रेम वाली स्टीरियोटेक सर्जरी में कम्प्यूटर का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसमें कम्प्यूटर के द्वारा कैलकुलेट करके ट्यूमर का पता लगाया जाता है और सीटी स्कैन या एम.आर.आई. से डाटा देखकर आपरेशन की जाती है। फ्रेमलेस स्टीरियोटैक्सी में रोगी के सिर में कुछ मार्कर्स लगाकर सीटी स्कैन या एम.आर.आई. की मदद से सर्जरी की जाती है। इसके तहत सिर में छोटा सा छेद करके ट्यूमर का पता लगाया जा सकता है और इससे दो मिलीमीटर के ट्यूमर भी निकाले जा सकते हैं। फ्रेमलेस स्टीरियोटैक्सी सर्जरी में अब रोबोट की मदद भी ली जाने लगी है। इसके तहत स्टीरियोटैक्टिक का डाटा आपरेशन थियेटर के कम्प्यूटर पर भेज दिया जाता है जो रोबोट को बताता है कि ट्यूमर कहां पर और कितनी गहराई में है। इसके बाद रोबोट के हाथ की मदद से सर्जरी की जाती है। हालांकि हमारे देश में अभी रोबोटिक सर्जरी सिर्फ अपोलो अस्पताल में ही उपलब्ध है और यहां सौ से अधिक रोबोटिक आर्म संचालित फ्रेमलेस स्टीरियोटौकी सर्जरी हो चुकी है।
स्पाइन के क्षेत्र में दूसरी महत्वपूर्ण कामयाबी इंडोस्कोपी है। डिस्क की समस्याओं के समाधान के लिये इंडोस्कोपी की मदद से सर्जरी की जा सकती है। इसके तहत नस को दबाने वाला डिस्क से मांस का छोटे से टुकडे़ को निकाल लिया जाता है। इसमें दो-तीन सेंटीमीटर से भी कम के अत्यंत छोटे चीरे लगाने की जरूरत पड़ती है इस चीरे के जरिये कैमरायुक्त स्कोप डाला जाता है। जबकि सामान्य आपरेशन के लिये काफी बड़ा चीरा लगाना पड़ता है और उस बड़े चीरे से भी काफी छोटे टुकड़े को निकालना पड़ता है। मस्तिष्क में ट्यूमर, हाइड्रोसेफलस आदि का आॅपरेशन अब इंडोस्कोपी तकनीक से होने लगा है। इस तकनीक के तहत मस्तिष्क में एक छोटा सा छेद करके चार-पांच मिलीमीटर का स्कोप और कैमरा डालकर मस्तिष्क के ट्यूमर का आॅपरेशन किया जाता है। आजकल पिट्यूटरी ट्यूमर का आपरेशन इंडोस्कोपी के द्वारा ही नाक के माध्यम से होने लगा है जिसमें एक भी टांका नहीं लगता है। इंडोस्कोपी तकनीक का इस्तेमाल हाइड्रोसेफलस के आपरेशन में भी होने लगा है। हाइड्रोसेफलस में रोगी के सिर में पानी भर जाता है जिससे उसका सिर बड़ा हो जाता है।
आज मस्तिष्क की सर्जरी के बाद दो से तीन दिन की भीतर ही मरीज अस्पताल से छुट्टी पाकर घर जा सकता है और एक सप्ताह बाद अस्पताल आकर टांके निकलवा होगा। इससे मरीज को मनोवैज्ञानिक लाभ होता है और उसे यह नहीं लगता है कि कोई बड़ा आपरेशन हुआ है।
स्पाइन के क्षेत्र में दूसरा बड़ी क्रांति स्पाइनल प्लेटिंग है। जब से चोट,तपेदिक और डिस्क संबंधी समस्याओं के कारण रीढ़ कमजोर हो जाती है तो मरीज की रीढ़ में प्लेट लगाकर मरीज को शीघ्र चलने-फिरने लायक बनाया जा सकता है। इस तकनीक के तहत रीढ़ के रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर भाग पर धातु की प्लेटें प्रत्यारोपित (इम्प्लांट) की जाती है। इसे 'स्पाइनल इन्स्ट्रयुमेंटेशन' अथवा प्लेटिंग कहा जाता है। इससे कमजोर या टूटी हुयी रीढ़ को सहारा मिल जाता है। बाद में रीढ़ की हड्डियां जुड़ कर मजबूत हो जाती हैं और मरीज सामान्य जीवन जीने लायक हो जाता है। स्पाइनल प्लेटिंग करने वाले चिकित्सक का पूर्णरूप से प्रशिक्षित होना आवश्यक है। इसमें रीढ़ के अत्यंत छोटे हिस्से में अत्यंत सूक्ष्म स्क्रू की मदद से बहुत छोटी-सी प्लेट को प्रत्यारोपित करना पड़ता है। प्लेटिंग के लिये टाइटेनियम अथवा इस्पात की प्लेट का इस्तेमाल होता है जो शरीर में किसी तरह की प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करती। यह प्लेट शरीर का ही हिस्सा बन जाती है और इसलिये कुछ समय बाद रीढ़ के क्षतिग्रस्त भाग के मजबूत बन जाने के बाद प्लेट को निकालने की जरूरत नहीं पड़ती है। यह प्लेट जिंदगी भर चलती है। लेकिन किसी कारण या दुर्घटनावश अगर प्लेट के साथ कोई दिक्कत हो जाये तब इसे आपेरशन करके निकाल लिया जाता है।
आधुनिक न्यूरो सर्जरी की और उपलब्धि माइक्रो डिस्क एक्टमी के रूप में सामने आयी। इसमें माइक्रोस्कोप की मदद से डिस्क एक्टमी की जाती हैं इसमें भी डेढ़ से दो इंच का चीरा लगाया जाता है। इसमें कैमरा युक्त स्कोप डालकर पिट्युटरी या अन्य ट्यूमर को निकाला जा सकता है। इस आपरेशन के लिये मरीज को कई बार बेहोश भी नहीं करना पड़ता बल्कि स्थानीय एनीस्थिया से भी आपरेशन हो सकता है। मरीज दूसरे ही दिन घर जा सकता है।
मस्तिष्क में गहरी चोट लगने पर मस्तिष्क के भीतर रक्त के जम जाने का खतरा बहुत अधिक होता है। इसके लिये क्रिनियोटोमी तकनीक का सहारा लिया जाता है। मस्तिष्क के आपरेशन की एक नयी तकनीक तकनीक की मदद से 30 मिनट में ही खोपड़ी को खोलकर क्लाॅट को बाहर निकाला जा सकता है। जबकि इसी आपरेशन को परम्परागत तरीके से हाथ से करने पर आपरेशन में करीब तीन घंटे लगते है।
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दिमाग के भीतर झांकना हुआ आसान
प्रकृति की जटिलतम संरचना माने जाने वाले मानव मस्तिष्क को एक समय अबूक्ष एवं अभेद्य माना जाता था। लेकिन आज इंडोस्कोपी की बदौलत मस्तिष्क के भीतर झांकना और उसके भीतर की गड़बड़ियों को ठीक करना संभव हो गया है। इंडोस्कोपी के विकास के बाद मस्तिष्क की सर्जरी में क्रांति सी आ गयी है। मस्तिष्क का आपरेशन एक समय जटिल एवं खतरों से भरा माना जाता था लेकिन इंडोस्कोपी की बदौलत मस्तिष्क की नाजुक एवं सूक्ष्मतम कोशिकाओं तक पहुंचना एवं उनका आपरेशन करना कष्टरहित, आसान और सुरक्षित हो गया है। न्यूरो सर्जरी की तकनीकों खास तौर पर इंडोस्कोपी के विकास के कारण अब खोपड़ी में बहुत छोटा सूराख करके ही अथवा मस्तिष्क को खोले बगैर बड़े से बड़े आपरेशन किये जा सकते हैं। इन तकनीकों के कारण अब मरीज को कम दर्द एवं कष्ट सहना पड़ता है और मरीज को आपरेशन के बाद कम दुष्प्रभाव झेलने पड़ते हैं। इंडोस्कोप बुनियादी तौर पर एक ऐसा उपकरण है जिससे शरीर के किसी भाग के भीतर प्रकाश भेजा जा सकता है। अगर इससे शक्तिशाली कैमरा एवं प्रकाश स्रोत जोड़ दिया जाये तो यह शरीर के भीतर की तस्वीरों को इससे जुड़े टेलीविजन माॅनीटर पर दिखा सकता है। इससे शल्य चिकित्सक बड़ा छेद किये बगैर शरीर के अंदर की गतिविधियों को साफ तौर पर देख सकता है। सर्जन इन तस्वीरों के आधार पर आधुनिकतम सूक्ष्म इंडोस्कोपी उपकरणों की मदद से जटिल से जटिल आपरेशन अत्यंत सफलतापूर्वक एवं किसी जोखिम के बगैर कर सकता है। इंडोस्कोप की मदद से नाक के रास्ते भी दिमाग के सेला एवं कोडेमा जैसे उन हिस्सों तक पहुंच कर आपरेशन करना संभव हो गया है जहां परम्परागत तरीके से पहुंचना न केवल कठिन बल्कि कई बार जानलेवा भी साबित होता था। नाक के रास्ते इंडोस्कोपी का मुख्य इस्तेमाल पीयूष ग्रंथि के ट्यूमर को निकालने में होता है लेकिन इससे दिमाग के पानी के रिसाव को भी बंद किया जा सकता है। इसके अलावा इससे क्लिवस जैसे मस्तिष्क के कुछ भागों की बायोप्सी भी की जा सकती है। इंडोस्कोपी तकनीक का इस्तेमाल प्रोलैक्टिनोमास, कुशिंग रोग, एक्रोमेगेली और एडेनोमास जैसे विभिन्न पीयूष ट्यूमरों को निकालने के लिये भी होता है। परम्परागत तरीके से पिट्यूटरी एडेनोमास को निकालने के लिये ऊपरी होठ के नीचे अथवा नाक के भीतर छेद करना पड़ता था। इसके कारण मरीज को आॅपरेशन के बाद नाक पर पट्टी लगाये रखनी पड़ती थी। इंडोस्कोप की मदद से सिर में पानी भर जाने की बीमारी हाइड्रोसेफलस का भी इलाज किया जा सकता है। इस बीमारी के कारण या तो बच्चे को असमय मौत अथवा ताउम्र शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता का शिकार होना पड़ता है। लेकिन आज इंडोस्कोपी की बदौलत मस्तिष्क में अत्यंत छोटा छेद करके इसका इलाज संभव हो गया है।
मस्तिष्क के पानी को सेरिबरो स्पाइनल फ्ल्यूड (सी. एस. एफ.) कहते हैं। मस्तिष्क में बनने वाला यह पानी स्पाइन और मस्तिष्क में रोटेट करता है । जब सी. एस. एफ. के रास्ते में किसी तरह की रुकावट आ जाती है तब हाइड्रोसेफलस बन जाती है। हाइड्रोसेफलस के परम्परागत इलाज के तहत मस्तिष्क में एक सुराख करके एक नली डाल दी जाती है और इस नली के दूसरे हिस्से को त्वचा के अंदर ही अंदर लाकर पेट में डाल दिया जाता है। इससे मस्तिष्क में बना पानी पेट में जाने लगता है। आधुनिक इलाज में मस्तिष्क में जहां पैदाइशी रास्ता नहीं बना होता है वहां इंडोस्कोप के जरिये मस्तिष्क में एक छोटा सुराख करके वहां एक नली डालकर उस रास्ते को बना दिया जाता है या थर्डवेंट्रिक्लोस्टोमी कर दी जाती है अर्थात् पानी की थेैली का जो हिस्सा मस्तिष्क के बाहर चमक रहा होता है उसको फोड़ दिया जाता है ताकि सारा पानी मस्तिष्क की सतह पर आकर अवशोषित हो सके। इसमें दोबारा आॅपरेशन करने की जरुरत पड़ने की आशंका कम रहती है। वेंट्रिक्लोस्टोमी से मस्तिष्क के पानी की थैलियों को फोड़कर बनाया गया छेद बंद हो सकता है और उसमें पानी दोबारा भर सकता है लेकिन फिर भी 95 प्रतिशत मामलों में यह आपरेशन कारगर होता है और दोबारा आपरेशन करने की जरुरत नहीं पड़ती। शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता एवं लकवा से लेकर दर्दनाक मौत का सबब बनने वाले ब्रेन हेमरेज का भी इंडोस्कोपी से इलाज संभव हो गया है। उच्च रक्त चाप के कारण कई बार मस्तिष्क के अंदर कोशिकायें फट जाती है जिससे दिमाग में भीतर ही भीतर रक्त स्राव होता है। यह अत्यंत गंभीर स्थिति होती है जिससे रोगी की मौत हो सकती है। अभी हाल तक बे्रन हैमरेज के ज्यादातर मरीज मौत के शिकार हो जाते थे लेकिन अब इंडोस्कोपी की मदद से छोटे से छोटे रक्त के थक्के का पता लगाकर उसे निकालना संभव हो गया है। इसके लिये मस्तिष्क में अत्यंत छोटा छेद करने की जरूरत होती है। इंडोस्कोपी आधारित कीहोल क्रानियोटोमी की मदद से दिमागी फोड़े, एन्युरिज्म एवं सिस्ट आदि का इलाज संभव हो गया है।
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कमर दर्द स्पाइन की तपेदिक एवं रसौली का संकेत हो सकता है
आधुनिक समय में स्पाइन की तपेदिक (ट्यूबरकुलोसिस) एवं रसौली ट्यूमर)के प्रकोप में भयानक तेजी आ गयी है। कुछ साल पहले तक स्पाइन की तपेदिक बहुत कम लोगों को होती थी लेकिन अब इनके रोगियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है ।
स्पाइन की तपेदिक
आज स्पाइन की तपेदिक कमर दर्द एवं गर्दन दर्द की प्रमुख समस्या बन गयी है। कमर एवं गर्दन के सामान्य दर्द आराम करने पर ठीक हो जाते हैं लेकिन स्पाइन की तपेदिक के कारण उभरने वाले कमर एवं गर्दन के दर्द आम तौर पर आराम करने के बाद भी ठीक नहीं होते । इसके अलावा स्पाइन की तपेदिक होने पर रोगी को कमर दर्द के अलावा हाथ-पैर में झनझनाहट, सुन्नपन और कमजोरी आने, बैठे-बैठे अचानक उठने पर पैरों के सुन्न हो जाने, चलते-चलते अचानक गिर जाने, लगातार कब्ज, टट्टी और पेशाब में रूकावट आने या उनपर नियंत्रण नहीं रहने और लिखावट बदल जाने जैसी समस्यायें हो सकती हैं। इलाज नहीं कराने या इलाज में विलंब होने पर स्पाइन की हड्डी अंदर से गल जाती है और रोगी को लकवा (पारालाइसिस) मार देता है।
स्पाइन की तपेदिक में मरीज को शाम के वक्त हल्का बुखार रह सकता है और वजन दिनोंदिन गिरता जाता है। इन लक्षणों वाले मरीजों में बीमारी का स्पष्ट तौर पर पता करने के लिये उनके रक्त का ई.एस.आर.परीक्षण, छाती का एक्स-रे, मांटुज जांच, स्पाइन की एक्स रे जांच और कैट स्कैन जैसे परीक्षण किये जाते हैं। इनसे यह पता चल जाता है कि हड्डी गली हुयी तो नहीं है या तपेदिक के कारण हड्डी के अंदर कोई संक्र्रमण तो नहीं रह गया है।
आम लोगों में यह धारणा है कि फेफड़े की तपेदिक की तरह स्पाइन की तपेदिक भी छुआछुत की बीमारी है। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से गलत है। दरअसल स्पाइन की तपेदिक क्लोज ट्यूबरकुलोसिस होती है अर्थात इसके कीटाणु दूसरे लोगों को संक्रमित नहीं कर सकते ।
स्पाइन की तपेदिक होने के कारणों में शरीर में संक्रमण का होना और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होना प्रमुख है। इसलिये हमें खांसी, जुकाम, बुखार जैसी बीमारियों को हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिये क्योंकि ये बीमारियां धीरे-धीरे रोगों से बचाव करने की हमारे शरीर की शक्ति को कम करती हैं जिससे हमारा शरीर दूसरे रोगों से मुकाबला नहीं कर पाता और हम तपेदिक एवं अन्य बीमारियों से घिर सकते हैं। मधुमेह और कैंसर की दवाइयां शरीर की कोशिकाओं को मारती हैं जिससे भी शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति कम होती है।
स्पाइन की रसौली
स्पाइन की रसौली (ट्यूमर) रीढ़ अथवा स्पाइन के वर्टिब्रल बाॅडी या स्पाइनल कैनाल के अंदर के ड्यूरल मेम्ब्रेन में हो सकती है। कभी-कभी ड्यूरल मेम्बे्रन के अंदर भी ट्यूमर हो सकता है। स्पाइन में कैंसर युक्त अर्थात मेनिनजियोमा अैार कैंसर रहित अर्थात ग्लायोमा दोनों प्रकार के ट्यूमर हो सकते हैं।
मैनिनजियोमा मेम्ब्रेन से होता है जबकि ग्लायोमा स्पाइनल कार्ड के अंदर होता हैं। स्पाइन के मेनिनजियोमा के लक्षण सामान्य कमर दर्द की तरह ही होता है। इसमें कमर दर्द बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है और वर्षों तक चलता रहता है। एम.आर.आई. कराने पर ही इसका पता चलता हैं। इस ट्यूमर को आपरेशन से ही पूरा निकालना संभव होता है और इसके कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होते हैं जबकि ग्लायोमा का इलाज संभव नहीं है क्योंकि इसको काट कर निकालते समय स्पाइनल काॅर्ड अक्सर क्षतिग्रस्त हो जाती है जिससे मरीज को लकवा हो जाता है और वह आपरेशन के बाद भी चलने-फिरने लायक कम रहता है। कमर दर्द के 30 से 40 साल तक के ज्यादातर मरीजों में बिनाइन अर्थात नाॅन कैंसरस ट्यूमर का कारण तपेदिक या चोट की वजह से ही रक्त का थक्का बनना होता है। स्पाइन में नाॅन कैंसरस ट्यूमर आमतौर पर कैंसरस ट्यूमर में नहीं बदलते लेकिन नाॅन कैंसरस ट्यूमर में लगातार जलन या खुजलाहट होने से या बिना जांच किये उसमें सीधे-सीधे रेडियोथेरेपी देने से यह कैंसर ट्यूमर में बदल सकता है।
स्पाइन की तपेदिक और रसौली में कमर दर्द
स्पाइन की तपेदिक एवं रसौली (ट्यूमर ) होने पर भी कमर दर्द की समस्या आम तौर पर हो सकती है। वैसे तो आज की तेज रफ्तार और तनाव भरी जिंदगी में कमर एवं गर्दन दर्द एक आम समस्या बन गयाी है। आज हर दूसरा-तीसरा आदमी कमर और गर्दन दर्द से पीड़ित है। हालांकि करीब 60 से 70 फीसदी मामलों में सरवाइकल के कारण एवं गर्दन दर्द और डिस्क की गड़बड़ी के कारण कमर दर्द की समस्या होती है। लेकिन सरवाइकल एवं लम्बर स्पांडुलाइटिस के अलावा कुछ अन्य बीमारियां भी कमर एवं गर्दन दर्द के कारण बन सकती हैं। इसके अलावा कीड़े के अंडे भी कमर दर्द का कारण बन सकते हैं। खाने-पीने के दौरान कीड़े के जो अंडे पेट में जाते हैं वे कभी-कभी रक्त के जरिये स्पाइनल काॅर्ड के अंदर जाकर दब जाते हैं और स्पाइनल काॅर्ड के ऊतकों के अंदर जाकर पनपते रहते हैं और ये कमर दर्द के कारण बनते हैं। इसे स्पाइनल सिस्टीसरकोसिस की बीमारी कहा जाता है।
कभी-कभी हड्डियों के आपस में जुड़ने जैसी पैदाइशी बीमारियां भी कमर दर्द का कारण बनती हंै। हालांकि 100 से 200 मरीजों में से एक को ही ऐसा होता है। इसे क्रेनियोवर्टिबल जैक्शन की एनामोली कहते हंै। आम तौर पर 25 से 30 साल तक इसके लक्षण नहीं उभरते हैं। लेकिन इसके बाद हल्का झटका या हल्की चोट लगने पर ये उभरकर सामने आ जाती है। इसका इलाज सिर्फ आपरेशन से ही संभव है।
कमर दर्द दो साल के बच्चे से लेकर बूढ़ों को भी हो सकता है। बच्चों में कमर दर्द अक्सर पैदाइशी कारणों से होता है। हड्डी के ठीक से नहीं बनने या पूरी तरह नहीं बनने, टेढ़ी बनने या नर्व के ऊपर जोड़ पड़ने से बच्चों में कमर दर्द हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान गलत दवाइयों के सेवन से भी बच्चे की पीठ में फोड़े हो सकते हैं जिसे मेनिन्गोमाइलोसिस कहा जाता है। इसमें आपरेशन के बाद बच्चे में कमर दर्द हमेशा के लिये रह जाता है। बच्चों में कमर दर्द का एक मुख्य कारण तपेदिक और गले में संक्रमण है। बच्चों में तपेदिक अधिक होने के कारण स्पाइन में भी तपेदिक हो जाती है। इसके अलावा बच्चों में रक्त कैंसर(ल्युकेमिया) भी बहुत सामान्य है। इससे भी बच्चों को कमर दर्द रह सकता है। कभी-कभी बच्चों के गिरने से उनकी स्पाइन टेढ़ी हो जाती है या स्पाइन की मांसपेशियां टूट जाती हैं। ये कमर दर्द के कारण बन सकते हैं। महिलाओं में कमर दर्द के मुख्य कारण पेल्विक इंफ्लामेंट्री डिजीज है अर्थात बच्चेदानी या अन्य प्रजनन अंगों में कोई छोटे संक्रमण के कारण नर्व में सनसनाहट होती रहती है और इसकी वजह से कमर दर्द होता है। कभी-कभी स्तन कैंसर के रोगियों में उसकी मेटास्टिसिस कमर में चली जाती है जिससे कमर दर्द होने लगता है। इसके अलावा महिलाओं में कमर दर्द के सामान्य कारण ओस्टियोपोरोसिस, पेल्विक कैविटी के अंदर संक्रमण, माहवारी में गड़बड़ी, बच्चेदानी के ऊपर सूजन आदि शामिल हैं। ऐसी स्थिति में महिला रोग विशेषज्ञ से जांच कराने तथा उसमें कोई खराबी नहीं आने पर एम.आर.आई. कराने पर पता चल जाता है कि किस नर्व के ऊपर दबाव है या कौन सी नर्व कमर दर्द का कारण बन रही है। ऐसे में नर्व को दबाने वाली हड्डी के हिस्से को काट कर निकाल देने से कमर दर्द ठीक हो जाता है।
वृद्धावस्था में होने वाले कमर दर्द में हड्डी के मुड़ने या बढ़ने से नसों पर दबाव पड़ने लगता है। लेकिन बढ़ी हुयी हड्डी को काट कर निकाल देने पर कमर दर्द ठीक हो जाता है। कमर दर्द के वास्तविक कारणों का पता कैट स्कैन या एम.आर.आई. से ही लगता है।
स्पाइन की तपेदिक एवं रसौली का उपचार
स्पाइन की तपेदिक एवं रसौली होने की पुष्टि के लिये बायोप्सी आवश्यक हो जाती है ताकि यह पता चल जाये कि ट्यूमर कैंसर का तो नहीं है क्योंकि कैंसर के ट्यूमर का आपरेशन करने से कोई फायदा नहीं होता है। हालांकि आम लोगों में यह धारणा कि स्पाइन का किसी भी तरह का आपरेशन सुरक्षित नहीं है अब गलत साबित हो चुकी है। कुछ सालों से स्पाइन सर्जरी अब माइक्रोस्कोप की मदद से किया जाने लगा है। इसमें लेजर का भी इस्तेमाल होने लगा है जिससे स्पाइनल काॅर्ड को क्षति पहुंचाये बगैर स्पाइन का आपरेशन करना संभव हो गया है। आजकल तपेदिक, इंट्राड्यूरल ट्यूमर, एक्स्ट्राड्यूरल ट्यूमर, मेनिनजियोमा, न्यूरोफाइब्रोमा, वर्टिब्रल बाडी ट्यूमर, सिस्टीसरकोसिस आदि के आपरेशन 95 से 98 प्रतिशत तक सुरक्षित साबित हो रहे हैं। इनके दोबारा होने की संभावना भी नहीं होती है। स्पाइन में मेनिनजियोमा, तपेदिक या न्यूरोफाइब्रोमा के ट्यूमर होने पर आपरेशन से उसे शत-प्रतिशत तक निकाला जाता है, लेकिन ग्लायोमा ट्यूमर चूंकि कैंसर का ट्यूमर होता है और उसकी जडं़े अंदर बहुत गहराई तक होती है इसलिये इसे पूरा नहीं निकाला जाता है और बचे हुये भाग को रेडियोथेरेपी या कीमोथेरेपी से नष्ट किया जाता है। रेडियोथेरेपी ग्लायोमा और मेटास्टेसिस ट्यूमर में दिया जाता है अर्थात यह सिर्फ मेंलिग्नेंट ट्यूमर या लिम्फोमा में दिया जाता है। बिनाइन ट्यूमर में रेडियोथेरेपी देने पर उसमें कैंसर बनने का खतरा रहता है। इसलिये किसी भी ट्यूमर की पूरी जांच किये बगैर रेडियोथेरेपी देने से उसके कैंसर में तब्दील होने का खतरा रहता है। इसलिये किसी भी ट्यूमर की पूरी जांच किये बगैर रेडियोथेरेपी नहीं दी जाती है।
कुछ मामलों में स्पाइन के आपरेशन के दौरान खून की कोई नाड़ी बंद हो सकती है या स्पाइनल काॅर्ड क्षतिग्रस्त हो सकता है। खून की नाड़ी को तो खोला जा सकता है लेकिन स्पाइनल काॅर्ड में हुयी क्षति को ठीक नहीं किया जा सकता है क्योंकि मस्तिष्क और स्पाइन की कोशिकाओं में पुनर्जीवित होने की शक्ति नहीं होती है। इसलिये स्पाइन की कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने की स्थिति में उसके आस-पास वाली कोशिकाओं को फिजियोथेरेपी की मदद से अधिक काम करने का प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि वे ज्यादा से ज्यादा काम कर सकें।
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पंगू जीवन से छुटकारा दिलायेगी स्पाइनल प्लेटिंग
आम जीवन में घटने वाली विभिन्न दुर्घटनाओं और कुछ बीमारियों के कारण रीढ़ के क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर हो जाने पर मरीज को असहनीय कष्ट सहते हुये पंगू जिंदगी जीनी पड़ती है। लेकिन अब स्पाइनल प्लेटिंग ऐसे लोगों के लिये वरदान बनकर सामने आयी है। इस तकनीक के कारण अपाहिज जीवन जीने को मजबूर लोग बैठने योग्य हो जाते हैं और अगर उनके पैरों में ताकत हो तो चलने-फिरने लायक भी हो जाते हैं तथा वे सामान्य काम-काज करने में सक्षम हो सकते हैं।
तेजी से भागते आधुनिक जीवन में दुर्घटनायें आम हो गयी हैं। सोते-जागते कभी भी-कहीं भी हम हादसों के शिकार हो सकते हैं। घर-बाहर होने वाली ऐसी दुर्घटनाओं में रीढ़ मामूली या गंभीर तौर पर क्षतिग्रस्त हो सकती है। इसके अलावा कैंसर, तपेदिक, ट्यूमर एवं ओस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारियों के कारण भी रीढ़ को नुकसान पहुंच सकता है या रीढ़ गल अथवा कमजोर हो सकता है। कैंसर या ट्यूमर रीढ़ से भी शुरू हो सकता है या किसी दूसरे अंगों से शुरू होकर भी रीढ़ तक पहुंच सकता है। रक्त कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर तथा स्तन कैंसर के रीढ़ तक पहुंच जाने की आशंका बहुत अधिक होती है। आज कीमोथेरेपी तथा रेडियो थेरेपी की मदद से कैंसर के रोगियों को लंबा जीवन दिया जाना संभव हो गया है। लेकिन कैंसर के रीढ़ तक पहुंच जाने पर कैंसर के मरीजों को अपना शेष जीवन बिस्तर पर व्यतीत करना पड़ सकता है। स्पाइनल प्लेटिंग ऐसे मरीजों को अपाहिज जीवन से मुक्ति दिला कर उनके शेष जीवन में सक्रियता ला सकती है।
इसके अलावा कई बार डिस्क की बीमारियों के कारण भी व्यक्ति चलने-फिरने में असमर्थ हो जाता है। स्पाइनल प्लेटिंग के जरिये मरीज को इस स्थिति से उबारा जा सकता है।
दुर्घटनाओं में स्पाइन तथा स्पाइनल कार्ड में चोट लगने की आशंका आम तौर पर पुरुषों को अधिक होती है क्योंकि पुरुषों को घर से बाहर कल-कारखानों एवं खेत-खलिहानों में काम करते समय या सड़कों पर वाहन चलाते समय दुर्घटनाओं में जख्मी होने का खतरा अधिक होता है। लेकिन मौजूदा समय में अब ज्यादा से ज्यादा महिलायें घर से बाहर नौकरी एवं रोजगार करने लगी हैं। अब बड़े शहरों में महिलायें भी सड़कों पर स्कूटर एवं कारें चलाने लगी हैं जिसके कारण वे भी सड़क दुर्घटनाओं की चपेट में अधिक संख्या में आने लगी हैं। इसके अलावा घर में काम-काज के दौरान भी छत से गिर जाने और चिकनी फर्श पर फिसल जाने जैसी घटनाओं से रीढ़ को चोट लगने की आशंका बनी रहती है। स्पाइनल प्लेटिंग की मदद से अब ऐसे लोग बिस्तर पर लेटे रहने के लिये मजबूर होने की बजाय कुछ ही दिनों में काम-काज करने लायक हो सकते हैं।
रीढ़ में चोट लगने या उसके क्षतिग्रस्त होने के कारण रीढ़ की हड्डियों की विशेष संरचना के बीच सुरक्षित रहने वाला स्पाइनल कार्ड भी प्रभावित हो सकता है। स्पाइनल कार्ड के कट जाने या क्षतिग्रस्त हो जाने पर मरीज हाथ-पैर हिलाने-डुलाने में असमर्थ हो जाता है। यहंा तक कि मल-मूत्र त्यागने की प्रक्रिया पर से भी मरीज का नियंत्रण समाप्त हो जाता है। स्पाइनल कार्ड अत्यंत संवेदनशील, नाजुक और महत्वपूर्ण तंतु है जिसके माध्यम से मस्तिष्क हाथ-पैर, आंतों और मूत्राशय की कार्यप्रणालियों का संचालन करता है। रीढ़ के तपेदिक और फोड़े जैसे रोगों से ग्रस्त हाने अथवा किसी दुर्घटना में चोटग्रस्त होने पर सबसे पहले रीढ़ की हड्डियां क्षतिग्रस्त होती हैं। ये हड्डियां अपनी शक्ति खोने लगती हैं और इनका आपसी सामन्जस्य समाप्त होने लगता है। इससे रीढ़ में असंतुलन उत्पन्न होता है जिससे रीढ़ में दर्द उठता है। चलने-फिरने पर यह दर्द बढ़ जाता है। इससे हाथों और पैरों में भी कमजोरी आती है। रोग या चोट के अधिक गंभीर होने पर स्पाइनल कार्ड पर दबाव पड़ने लगता है जिससे मरीज हाथ-पैर हिलाने- डुलाने तथा अपनी इच्छा से मल-मूत्र त्यागने की क्षमता खोकर पूरी तरह से पंगू जीवन जीने को मजबूर हो जाता है।
इसके उपचार के लिये पहले मरीज को महीनों तक बिस्तर पर बिना हिलाये-डुलाये लिटाये रखना पड़ता था जिसके कारण उसे शैया व्रण, छाती तथा मूत्र मार्ग में संक्रमण की आशंका हो जाती है। साथ ही उसकी सामान्य जीवन की गतिविधियांे पर भी प्रतिबंध लग जाता है। इसके अलावा मरीज को लंबे समय तक दर्दनिवारक एवं एंटी बायोटिक दवाइयां खानी पड़ती है जिसका मरीज पर दुष्प्रभाव होता है। मरीज को शैया व्रण होने पर प्लास्टिक सर्जरी कराने की जरूरत पड़ जाती है। इसलिये ऐसे मरीजों को शीघ्र बैठने, खड़ा होने तथा चलने-फिरने लायक बनाने की कोशिश के तहत स्पाइनल प्लेटिंग का इस्तेमाल आरंभ हुआ। हालांकि विदेशों में इस तकनीक का व्यापक तौर पर इस्तेमाल होने लगा है लेकिन अपने देश में अभी इसका इस्तेमाल कुछ इने-गिने चिकित्सा केन्द्रों में ही हो रहा है।
हालांकि अभी प्लेटिंग में इस्तेमाल होने वाली टाइटेनियम प्लेट तथा स्क्रू आदि विदेशों से आयात होते हैं इस कारण प्लेटिंग पर आरंभिक खर्च थोड़ा अधिक होता है लेकिन मरीज अस्पताल से शीघ्र छुट्टी पाकर घर जा सकता है, अपना काम शीघ्र कर सकता है और उसे अधिक समय तक बिस्तर पर एक ही करवट लेटे रहने के कारण शैया व्रण होने की आशंका नहीं होती। इसलिये स्पाइनल प्लेटिंग कुल मिलाकर महंगा साबित नहीं होता है।
इस तकनीक के तहत रीढ़ के रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर भाग पर धातु की प्लेटें प्रत्यारोपित (इम्प्लांट) की जाती है। इसे 'स्पाइनल इन्स्ट्रमेंटेशन' अथवा प्लेटिंग कहा जाता है। इससे कमजोर या टूटी हुयी रीढ़ को सहारा मिल जाता है। बाद में रीढ़ की हड्डियां जुड़ कर मजबूत हो जाती है और मरीज सामान्य जीवन जीने लायक हो जाता है।
स्पाइनल प्लेटिंग करने वाले चिकित्सक का पूर्णरूप से प्रशिक्षित होना आवश्यक है। इसमें रीढ़ के अत्यंत छोटे हिस्से में अत्यंत सूक्ष्म स्क्रू की मदद से बहुत छोटी-सी प्लेट को प्रत्यारोपित करना पड़ता है।
प्लेटिंग के लिये टाइटेनियम अथवा इस्पात की प्लेट का इस्तेमाल होता है जो शरीर में किसी तरह की प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करती। यह प्लेट शरीर का ही हिस्सा बन जाती है और इसलिये कुछ समय बाद रीढ़ के क्षतिग्रस्त भाग के मजबूत बन जाने के बाद प्लेट को निकालने की जरूरत नहीं पड़ती है।
यह प्लेट जिंदगी भर चलती है। लेकिन किसी कारण या दुर्घटनावश अगर प्लेट के साथ कोई दिक्कत हो जाये तब इसे आपेरशन करके निकाल लिया जाता है।
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