जब बन जाये दिमाग में नसों के गुच्छे

- Vinod Kumar 

मस्तिष्क में खून की नसों का गुच्छा बन जाने की स्थिति अत्यंत खतरनाक साबित होती है। यह अक्सर मस्तिष्क रक्त स्राव का कारण बनती है। इस स्थिति को आर्टिरियोवीनस मालफाॅर्मेशन कहा जाता है जिसमें दिमाग में खून की नलियों का एक असामान्य गुच्छा बन जाता है। 

बुजुर्गों में बढ़ रहा है पार्किंसन रोग>



चालीस-पचास साल की उम्र जीवन के ढलान की शुरूआत अवश्य है लेकिन इस उम्र में अपने जीवन के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंचा व्यक्ति पार्किंसन जैसे स्नायु रोग के कारण अपाहिज जिंदगी जीने को विवश हो जाता है। पार्किंसन की बीमारी दिमागी कोशिकाओं को नष्ट करके न केवल सोचने-विचारने एवं स्मरण की शक्ति को कुंद कर देती  हैं बल्कि रोजमर्रे के काम करने में भी अक्षम बना देती हैं। मरीज एक तरह से लुंजपुज बना देने वाली इस बीमारी से पूरी दूनिया की आबादी में से आधे प्रतिशत लोग अर्थात हर 200 लोगों में से एक व्यक्ति पीड़ित है। मौजूदा समय में बुजुर्गों की संख्या बढ़ने के कारण पार्किन्सन रोगियों की संख्या बढ़ने लगी है। एक अनुमान के अनुसार भारत में तकरीबन छह लाख लोग पार्किंसन से पीड़ित हैं। केवल अमरीका में यह बीमारी हर साल करीब 50 हजार लोगों को मानसिक एवं शारीरिक तौर पर अपंग बना देती है। पार्किंसन की बीमारी आम तौर पर 40 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन करीब 20 प्रतिशत मरीजों में यह बीमारी 20 साल की उम्र के बाद ही आरंभ हो सकती है। 
पार्किन्सन के लिये प्रदूषण, मांसाहार, मादक दवाइयों के सेवन और मस्तिष्क की चोट को जिम्मेदार माना जाता है लेकिन अभी तक इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बीमारी दुर्घटनाओं तथा मुक्केबाजी जैसे खेलों में दिमाग को चोट पहुंचने से भी हो सकती है। पूर्व मुक्केबाज चैम्पियन मोहम्मद अली को भी पार्किसन्न से ग्रस्त बताया जाता है। पार्किन्सन के रोगी को हालांकि पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता लेकिन समुचित उपचार की बदौलत  मरीज सामान्य जिंदगी जी सकता है। 
पार्किंसन के लक्षण
पार्किंसन का सबसे आरंभिक लक्षण यह है कि हाथ-पैर रूके होने पर अपने आप हिलने लगते हैं लेकिन काम करने पर ठीक हो जाते हैं। अन्य लक्षणों में दोनों या एक हाथ में कंपन आना, कसाव हो जाना, पीठ झुक जाना, पैरों का जम जाना, उनका आगे नहीं बढ़ पाना, चलते-चलते अचानक गिर पड़ना या डगमगाने लगना और चलते-चलते अचानक पीछे की ओर झुक जाना आदि शामिल है।
पार्किन्सन का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि मरीज जब बात करता है तो उसके चेहरे पर कोई अभिव्यक्ति नहीं होती। वह चाहे किसी भी तरह की बात क्यों न करे उसके चेहरे में  कोई फर्क नहीं आता। इस स्थिति को मास्क क्लाइव कहा जाता है। ऐसा लगता है कि मरीज कोई मुखौटा पहने हुये हो। पार्किंसन के मरीजों की याददाश्त एवं सोचने-समझने की शक्ति में कमी आ सकती है। वे डिप्रेशन से ग्रस्त हो सकते हैं। उनकी सक्रियता कम हो जाती है। वे हमेशा सुस्त-सुस्त दिखते हैं। मरीज को कोई काम करने की इच्छा नहीं होती है।
पार्किंसन का उपचार
पार्किन्सन रोग के इलाज का सबसे सरल तरीका यह है कि मरीज को जिस रसायन की कमी है  वह मरीज को दिया जाये। पार्किन्सन के इलाज के लिये डोपामिन नामक दवा का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। यह एक रसायन है जो विश्व के विभिन्न देशों में अलग-अलग ब्रांड नामों से मिलता है। डोपामिन देने से मरीज के मस्तिष्क में डोपामिन जमा होने लगता है और पार्किन्सन के मरीज को राहत मिलने लगती है। लेकिन पार्किन्सन रोग में दवाइयां 80 प्रतिशत मरीजों पर कोई असर नहीं कर पाती हैं। जैसे-जैसे मरीज की उम्र बढ़ती जाती है दवाइयों का असर घटता जाता है इस कारण उम्र बढ़ने के साथ दवा की खुराक बढ़ायी जाती है। कुछ मरीजों में अधिक समय तक दवाइयों के सेवन के दुष्प्रभाव भी देखे गये हंै। इन दुष्प्रभावों के कारण कुछ मरीजों के हाथ-पैर बहुत तेजी से हिलने लगते हैं।
आपरेशन का विकल्प
जो रोगी दवाइयों से ठीक नहीं हो पाते हैं अथवा जिन पर दवाइयों के दुष्प्रभाव होते हैं उनका इलाज आपरेशन किया जाता है। ये आपरेशन पिछले 60-70 सालों से इस्तेमाल हो रहे हैं। आपरेशन के जरिये मस्तिष्क के अंदर कुछ खास-खास स्थानों पर चोट पहुंचायी जाती है। पहले किये जाने वाले आपरेशन के तहत मस्तिष्क के भीतर इंजेक्शन के जरिये एक विशेष रसायन पहुंचाया जाता था। इस रसायन के प्रभाव से मस्तिष्क का वह हिस्सा गल जाता है और रोगी ठीक हो जाता है। एक अन्य तरह के आॅपरेशन के तहत मस्तिष्क के अंदर एक गर्म सलाई डाली जाती है। इसकी मदद से मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को जला दिया जाता है। आधुनिक समय में मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को रेडियो तरंगों की मदद से भी जलाया जाता है।
हाल के अनुसंधानों से पता चला कि पुराने तरह के आॅपरेशनों की मदद से मस्तिष्क के भीतर सही-सही जगह पर पहुंचना संभव नहीं हो पाता है जिससे मरीज को स्थायी फायदा नहीं होता है। ऐसे आपरेशन के बाद मरीज को अक्सर दोबारा पार्किन्सन होने का खतरा रहता है। कई मरीजों को ऐसे आपरेशनों का दुष्प्रभाव भी होता है। इसके बाद वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क के सूक्ष्म से सूक्ष्म हिस्से की ब्रेन रिकार्डिंग  करने का तरीका विकसित किया। इसके अलावा एक और नयी पद्धति का विकास हुआ जिसमें पेसमेकर सरीखा एक इलेक्ट्रोड मस्तिष्क के अंदर डाल दिया जाता है। इसे ठीक जगह पर पहुंचा कर करंट छोडी़ जाती है जिससे वहां के स्नायुओं का धु्रवीकरण समाप्त हो जाता है और इन स्नायुयों की गतिविधियां पहले जैसी हो जाती है। लेकिन इन तकनीकों की सफलता मस्तिष्क में सही-सही छेद करने और सही जगह पर पहंुचने पर निर्भर करती है।
पार्किंसन का आधुनिक उपचार
पार्किंसन के इलाज के लिये हाल के दिनों में गामा नाइफ पर आधारित एक नायाब तरीका विकसित हुआ है। इसके लिये न तो मस्तिष्क को खोलना पड़ता है और न ही छेद करना पड़ता है। पहले के आपरेशनों के तहत मस्तिष्क को खोल कर ही वांछित जगह पर पहुंचते थे। मस्तिष्क को खोलने पर रक्तस्राव एवं संक्रमण होने की आशंका बनी रहती है।
गामा नाइफ की मदद से पार्किन्सन के इलाज के लिये एम आर आई नियंत्रित गाइडेंस की मदद ली जाती है। एम आर आई से प्राप्त मस्तिष्क की तस्वीरों को कम्प्यूटर में डालकर विश्लेषण किया जाता है और इस विश्लेषण के आधार पर उस जगह का सही-सही पता लगाया जाता है जहां गामा नाइफ दी जानी होती है। गामा नाइफ की मदद से वांछित जगह पर रुग्न स्नायुओं को जला दिया जाता है। यह पाया गया है कि कई मरीजों को तो आपरेशन से तुरंत फायदा पहुंच जाता है लेकिन कई मरीजों को नुकसान पहुंचने का भी खतरा रहता है। परम्परागत आॅपरेशन से हाथ-पैर की गतिविधियों को संचालित करने वाले हिस्से को भी चोट पहुंच सकती मस्तिष्क के जिन-जिन हिस्से से होकर गुजरता है उन हिस्सों को नुकसान पहुंचने की आशंका होती है। लेकिन गामा नाइफ के साथ इलाज करने पर इस तरह का कोई खतरा नहीं होता क्योंकि गामा नाइफ करने में न तो मस्तिष्क में कोई छेड़छाड़ करने की और न ही उसमें किसी बाहरी वस्तु को प्रवेश कराने की जरूरत होती है। इसलिये यह तकनीक पूरी तरह से दुष्प्रभाव रहित है। इतना अवश्य है कि इससे कुछ मरीजों को पूरा फायदा होता है जबकि कुछ मरीजों को उतना फायदा नहीं हो पाता है।
यह समझ लेना चाहिये कि गामा नाइफ या अन्य आपरेशनों से मरीज को फायदा पहुंचने का अर्थ यह नहीं है कि मरीज बिल्कुल चंगा हो जायेगा बल्कि इसका अर्थ यह है कि मरीज को या तो कम दवाइयां देनी पड़ेगी या मरीज पहले जितनी दवाइयों में ही सामान्य महसूस करेगा और मरीज जीवन के कुछ और वर्ष सामान्य तरीके से जी सकेगा। आॅपरेशन या गामा नाइफ से इलाज के बाद मरीज को पहले जो दवाइयां फायदा नहीं करती थी वे दवाइयां फायदा पहुंचाने लगती हैं या जो दवाइयां पहले वह बर्दाश्त नहीं कर पाता था वह अब बर्दाश्त कर लेता है। इस तरह मरीज दवाइयों की मदद से आसान एवं सामान्य जीवन जी पाने योग्य हो जाता है जो आपरेशन या गामा नाइफ बगैर संभव नहीं था।


बच्चे में सिर दर्द का कारण हो सकता है मस्तिष्क ट्यूमर

बच्चों में सिर दर्द व्यापक समस्या है। आम तौर पर बच्चों के सिरदर्द को मामूली बीमारी समझ कर नजरअंदाज कर दिया जाता है। कई बार बच्चा जब सिरदर्द की शिकायत करता है तब मां-बाप यह मान बैठते हैं वह पढ़ाई अथवा स्कूल जाने से बचने का बहाना कर रहा है। हालांकि बच्चे का सिरदर्द अक्सर सामान्य कारणों से होता है लेकिन इसके बावजूद इसे मामूली नहीं समझना चाहिये क्योंकि यह दिमागी रसौली का भी संकेत हो सकता है। हालांकि बच्चों में सिर दर्द आम तौर पर आंखों में कमजोरी, साइनस एवं सर्दी-जुकाम जैसे कारणों से अधिक होते हैं जबकि बड़े लोगों में सिर दर्द का सामान्य कारण तनाव होता है जो बच्चों में आम तौर पर नहीं पाया जाता है। लेकिन बच्चों के साथ-साथ बड़े लोगों में सिर दर्द कई बार इन मामूली कारणों के अतिक्ति मस्तिष्क की रसौली अर्थात ब्रेन ट्यूमर,हाइड्रोसेफलस एवं मेनिनजाइटिस जैसे गंभीर कारणों से  भी होता है। इसलिये सिर दर्द को हमेशा गंभीरता से लेना चाहिये। ट्यूमर की आरंभिक अवस्था में तो केवल सिर दर्द होता है लेकिन ट्यूमर जब बड़ा होकर आंखों से जुड़े स्नायु तंत्र को दबाने लगता है तब नेत्र की रोशनी घटने लगती है और बच्चा अंधा भी हो सकता है।
मस्तिष्क का ट्यूमर बच्चे को पैदाइश से ही हो सकता है। बच्चे को दिमागी रसौली की आरंभिक अवस्था में सिर दर्द एवं नजर में कमजोरी आने के अलावा भूख और शारीरिक वजन में लगातार गिरावट आती जाती है।
दिमागी रसौली कई तरह की होती है लेकिन इनमें से दो बहुत ही सामान्य हैं। ये हैं - ग्लायोमा एवं मेनिंनजियोमा। ग्लायोमा बच्चों में जबकि मेनिनजियोमा बड़े लोगों में सामान्य हैै। बच्चों एवं युवाओं में आम तौर पर दिमागी रसौली कैंसर रहित अर्थात बिनाइन (लो ग्रेड ग्लायोमा) होती है, लेकिन अगर इसका लंबे समय तक इलाज नहीं कराया जाये तब यही रसौली कैंसर युक्त अर्थात मेलिंग्नेंट में बदल सकती है। ग्लायोमा ट्यूमर मस्तिष्क के अंदर के उतकों से उत्पन्न होता है जबकि कैंसर युक्त अर्थात मेनिनजियोमा मस्तिक के पर्दे से उत्पन्न होता है। मेनिनजियोमा  कई सालों में धीरे-धीरे विकसित होकर कभी-कभी इतना बड़ा हो जाता है कि उसे आपरेशन से पूरा निकालना संभव नहीं होता। दूसरी तरफ हाई ग्रेड ग्लायोमा ट्यूमर बहुत तेजी से कुछ ही महीनों में वृद्धि करके मस्तिष्क के अंदर दबाव डालने लगता है। अगर ट्यूमर आंखों की नर्व के ऊपर हो और वह नर्व पर बहुत अधिक दबाव डाल रहा हो तो आंखों की रोशनी भी खत्म हो सकती है। अगर ट्यूमर मस्तिष्क में उस हिस्से में हो जहां से शरीर का दायां या बायां हिस्सा नियंत्रित होता है तो उस हिस्से में लकवा मार सकता है। ट्यूमर के मस्तिष्क के सतह पर केन्द्र्र में होने पर बच्चे को मिर्गी के दौरे पड़ सकते हैं।
मस्तिष्क के ट्यूमर की पहचान जल्द से जल्द होने पर इलाज अधिक कारगर होता है। इसलिये अगर बच्चा सुबह-सुबह सिर में दर्द होने की शिकायत करे तब इसकी अनदेखी नहीं करना चाहिये बल्कि सिर दर्द के सही कारणों का पता लगाकर उचित उपचार आरंभ करना चाहिये। बच्चे की आंखों में कोई कमजोरी या खराबी, साइनस एवं जुकाम आदि की समस्या नहीं होने पर मस्तिष्क ट्यूमर होने की आशंका हो सकती है। मस्तिष्क के ट्यूमर का पता लगाने के लिये कम्प्यूटराइज्ड टोमोग्राफी अर्थात कैट स्कैन अथवा मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.) की मदद से बच्चे के सिर की स्कैनिंग की जाती है । 
बच्चों में आम तौर पर मस्तिष्क ट्यूमर के साथ-साथ दिमाग में पानी भरने की बीमारी हाइड्रोसेफलस भी हो सकती है,क्योंकि ट्यूमर के बढ़ने पर मस्तिष्क से पानी निकलने का रास्ता बंद हो जाता है जिससे सिर में पानी जमा हो जाता है। हाइड्रोसेफलस की समस्या हमारे देश में ट्यूबरक्युलोसिस (टी बी) मेनिनजाइटिस के अधिक प्रकोप के कारण बहुत ही आम है। 
ट्यूमर के साथ -साथ हाइड्रोसेफलस होने पर सबसे पहले हाइड्रोसेफलस का और फिर बाद में ट्यूमर का इलाज किया जाता है। हाइड्रोसेफलस का इलाज करने के लिये आपरेशन का सहारा लिया जाता है। इस आपरेशन के तहत बच्चे के सिर में एक छोटा सा सूराख करके एक नली डाल दी जाती है और इस नली के दूसरे सिरे को त्वचा के अंदर ही अंदर लाकर पेट में प्रवेश करा दिया जाता है। इससे मस्तिष्क का पानी नली के रास्ते पेट में आने लगता है । इसे शंट आपरेशन कहा जाता है। इस आॅपरेशन के बाद बाहर से देखने पर यह पता नहीं चलता है कि बिच्चे को शंट लगा है। हालांकि आजकल बिना  शंट के ही इंडोस्कोपी की मदद से हाइड्रोसेफलस का इलाज होने लगा है। हाइड्रोसेफलस का इलाज हो जाने के बाद ही ट्यूमर का इलाज किया जाता है।
बच्चों में मस्तिष्क ट्यूमर के इलाज के  लिये आपरेशन, रेडियोथेरपी और कीमोथेरेपी का सहारा लिया जाता है। आपरेशन से पहले बायोप्सी करके ट्यूमर होने को सुनिश्चित करना आवश्यक होता है क्योंकि बच्चों में मस्तिष्क ट्यूमर के अलावा तपेदिक,वायरल संक्रमण आदि होना सामान्य है। बायोप्सी करना इसलिये भी जरूरी हो जाता है क्योंकि आम तौर पर सीटी स्केैन या एम आर आई से यह नहीं पता चल पाता कि ट्यूमर कैंसर युक्त है या नहीं। अब नवीनतम तकनीकों की मदद से मस्तिष्क के अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र ब्रेन स्टेम से भी बायोप्सी के नमूने लेना संभव हो गया है। ब्रेन स्टेम हृदय एवं श्वसन का केंद्र्र बिन्दु है। वैसे बच्चों के ब्रेन स्टेम में सामान्यतः ग्लायोमा ही होता है । बच्चे के मस्तिष्क की बायोप्सी करने के लिये मस्तिष्क में मात्र दो सेंटीमीटर का छेद किया जाता है। कई बार मस्तिष्क के महत्वपूर्ण क्षेत्र में ट्यूमर होने पर समूचे ट्यूमर को निकालना संभव नहीं हो पाता है। 
ट्यूमर को पूरा-पूरा निकालने की कोशिश में मरीज को लकवा मारने की आशंका रहती है। हालांकि अब ट्यूमर को कम्प्यूटर आधारित स्टीरियोटेक्टिक तकनीक के जरिये निकाला जाने लगा है जो अत्यंत सुरक्षित तरीका है।
आपरेशन के बाद भी अगर ट्यूमर काफी बड़े आकार का रह जाये तब उसे सामान्य तरीके से रडियोथेरेपी दी जाती है। लेकिन अगर आपरेशन के जरिये ट्यूमर के आकार को काफी छोटा कर लिया जाये तब रेडियेशन के साथ-साथ एक्स या गामा नाइफ भी दी जाती है। अगर ट्यूमर कैंसर रहित अर्थात बिनाइन ग्लायोमा है और उसकी वृद्धि बहुत धीरे-धीरे हो रही होती है तब सिर्फ एक्स या गामा नाइफ दी जाती है। चूंकि बच्चों में ज्यादातर बिनाइन ग्लायोमा होते हैं इसलिये उनके पूरे मस्तिष्क को रेडियेशन नहीं देकर केवल प्रभावित हिस्से पर ही रेडियेशन दिया जाता है क्योंकि पूरे मस्तिष्क में रेडियेशन देने पर बच्चे का शारीरिक एवं मानसिक विकास प्रभावित हो सकता है। ऐसी स्थिति में अगर बिनाइन ट्यूमर का पूर्णतया इलाज कर भी दिया जाये तो रेडियेशन के कारण मस्तिष्क को क्षति होने से शारीरिक एवं मानसिक विकास के कम होने का खतरा रहता है। 
इसके अलावा पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाले ग्रोथ हार्मोन सहित अन्य हार्मोनों में भी खराबी आ जाती है। बच्चे को उच्च रेडियेशन देने पर उसके मस्तिष्क को गंभीर क्षति हो सकती है जिससे बच्चा मनोरोगी भी हो सकता है। इसलिये इन सब बातों को ध्यान में रखकर बच्चे के मस्तिष्क ट्यूमर में केवल प्रभावित हिस्से में रेडियेशन की डोज दी जाती है ताकि मस्तिष्क का शेष हिस्सा रेडियेशन के दुष्प्रभाव से बचा रह सके। एक्स नाइफ से रेडियेशन देने पर केवल प्रभावित हिस्से को ही रेडियेशन देना संभव हो गया है।


दिमागी कैंसर का संकेत हो सकता है सिर दर्द

अक्सर सिर दर्द को  मामूली बीमारी समझ कर अनदेखी कर दी जाती है लेकिन अगर सिर में लगातार दर्द रहे तथा दवाइयों और अन्य उपायों से यह ठीक नहीं हो तो यह मस्तिष्क कैंसर का संकेत हो सकता है। यह कैंसर किसी भी उम्र में यहां तक कि बचपन में भी हो सकता है लेकिन 40 साल की उम्र के बाद इसके होने की आशंका अधिक होती है। मस्तिष्क कैंसर में सिर दर्द, उल्टी, दौरा पड़ने, हाथ या पैर में कमजोरी आने, चेहरा टेढ़ा होनेे, खाना निगलने में परेशानी, चलते समय पैर डगमगाने जैसी शिकायतें होती हैं। अगर किसी व्यक्ति को लगातार सिर दर्द रहता हो और छोटी-मोटी दवाइयों से भी ठीक नहीं हो तथा आंखों या साइनुसाइटिस संबंधित जांच से भी इसके कारणों का पता नहीं चले तोे मरीज को अपने मस्तिष्क की जांच खासकर सीटी स्कैन अवश्य करानी चाहिए। बच्चों में ब्रेन कैंसर होने पर मस्तिष्क का आकार बढ़ने, खाने में अरूचि और कब्जियत जैसी शिकायतें होती है। टट्टी करते वक्त बच्चे जब जोर लगाते हैं तो उनके सिर में दर्द होने लगता है इसलिए वे टट्टी करना नहीं चाहते हैं। इससे उनकी कब्जियत और बढ़ जाती है। बच्चों में ऐसे लक्षण होने पर उनके मस्तिष्क का सीटी स्कैन अवश्य करा लेना चाहिए। सीटी स्कैन में मस्तिष्क की विस्तृत तस्वीर आ जाती है जिसे देखकर सिर दर्द के कारण का पता लगाया जा सकता है। हालांकि सिर दर्द से पीड़ित एक या दो प्रतिशत से भी कम रोगियों में ब्रेन कैंसर होता है लेकिन ब्रेन कैंसर की शुरूआत में ही इसका पता चल जाने पर मरीज केे इलाज होने की संभावना अधिक होती है। 
ब्रेन कैंसर में अधिकतर ग्लायोमा किस्म के ट्यूमर होते हैं। ग्लायोमा ट्यूमर बहुत जल्दी वृद्धि करते हैं। एक-दो हफ्ते में ही उनकी कोशिकाएं दोगुनी हो जाती हैं और वे इसी रफ्तार से बढ़ती जाती हैं जिससे ट्यूमर का आकार भी बहुत तेजी से बढ़ता जाता है। ट्यूमर के बढ़ने से ट्यूमर के आस-पास का हिस्सा दबने लगता है। बोलने से संबंधित स्नायु के दबने से मरीज को बोलने में परेशानी होने लगती है, पैर की गतिविधियों से संबंधित स्नायु के दबने से चलने-फिरने में परेशानी होने लगती है। इसी तरह शरीर के अन्य अंग को संचालित करने वाले स्नायु के दबने से अन्य तरह की परशानियां भी हो सकती हैं।
मेनिनजियोमा ट्यूमर आम तौर पर कैंसर नहीं होते। मेनिनजियोमा मस्तिष्क के ड्यूरामेटा (कवरिंग) का ट्यूमर है। यह ट्यूमर धीरे-धीरे बढ़ता है। यह ट्यूमर जब किसी खास जगह पर होता है तो खतरनाक हो सकता है क्योंकि वैसी स्थिति में इसका आपरेशन करना कठिन होता है। एक बार मेनिनजियोमा ट्यूमर को आपरेशन से सफलतापूर्वक निकाल देने और उसे गामा नाइफ जैसी तकनीक से जला देने पर उसके दोबारा होने की आशंका बहुत कम होती है और मरीज सामान्य जिंदगी जी सकता है।
ग्लायोमा ट्यूमर के इलाज के तौर पर सबसे पहले इसका आपरेशन किया जाता है। आपरेशन से यह भी पता लग जाता है कि यह सामान्य किस्म का ट्यूमर है या कैंसर वाला ट्यूमर है। इसी के आधार पर मरीज की बाकी जिंदगी का अंदाजा लगाया जा सकता है। आपरेशन के दौरान ट्यूमर का जितना अधिक हिस्सा निकाला जाता है, मरीज को उतना ही अधिक फायदा होता है। लेकिन ट्यूमर को निकालते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि इससे मरीज को कोई हानि न हो इसलिए ट्यूमर का उतना ही हिस्सा निकाला जाता है जिससे मरीज अपाहिज न हो और अपना काम खुद कर सके। 
ग्लायोमा ट्यूमर के आपरेशन के बाद मरीज को आमतौर पर रेडियोथेरेपी दी जाती है। इसके बाद कुछ मरीजों को कीमोथेरेपी दी जाती है। इसके तहत मरीज को दवाइयां दी जाती हैं। ग्लायोमा ट्यूमर के मरीजों को कीमोथेरेपी से विशेष फायदा नहीं होता है इसलिए ग्लायोमा ट्यूमर के बहुत कम मामलों में कीमोथेरेपी दी जाती है। लेकिन अगर मरीज को दौरा रोकने की दवा दी जाती है तो उसे नियमित रूप से यह दवा लेनी चाहिए। इससे दौरा नियंत्रित रहता है। 
इलाज के बाद मरीज का सिर दर्द ठीक हो सकता है, उल्टियां भी कम हो जाती है, लेकिन मस्तिष्क का जो हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुका होता है उसे ठीक नहीं किया जा सकता है। दो साल से कम उम्र के बच्चों में बहुत ही खतरनाक किस्म का ब्रेन कैंसर होता है और ऐसे में छह महीने भी जीवित रहना मुश्किल होता है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों में रेडियोथेरेपी भी नहीं दी जाती क्योंकि इससे बच्चे के मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है या बच्चे की बुद्धि क्षमता कम हो सकती है। हालांकि कुछ बच्चों में ऐसे ब्रेन ट्यूमर भी होते हैं जिन्हें निकाल देने पर बच्चा सामान्य जिंदगी जी सकता है। इसलिए ब्रेन ट्यूमर की स्थिति में बच्चे का आपरेशन कराना जरूरी होता है। अधिक उम्र के लोगों में भी अधिक खतरनाक किस्म का ब्रेन कैंसर होता है। 
अब विश्व भर के न्यूरो सर्जन और जैव प्रोद्यौगिकी विशेषज्ञ ऐसा इलाज विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे ट्यूमर दोबारा वृद्धि न करने पाए। इसके तहत जीन थेरेपी, जी,एल.ए. तकनीक, ब्रेकी थेरेपी जैसी तकनीकों पर गहन पूर्वक शोध किये जा रहे हैं। चिकित्सकों को इन तकनीकों में से सबसे अधिक उम्मीद जीन चिकित्सा से ही है। अमेरिका, इंग्लैंड और जापान में कैंसर मरीजों पर जीन थेरेपी का इस्तेमाल शुरू हो गया है। भारत में अभी इस थेरेपी से इलाज में कम से कम एक-दो साल लगेंगे क्योंकि यहां अभी इस तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं है।


बढ़ रहा है ब्रेन अटैक का प्रकोप

आधुनिक शहरी जीवन में  ब्रेन अटैक का प्रकोप तेजी से बढ़ता जा रहा है। कुछ समय पहले तक बे्रन अटैक (मस्तिष्क घात) को दिल के दौरे(हार्ट अटैक) और कैंसर के बाद असामयिक मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण माना जाता था लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के अनुसार यह आज असामयिक मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन गया है। आज की तनावभरी एवं भागदौड़ की जिंदगी में हमेशा मस्तिष्क घात का खतरा मंडराता रहता है। यहां तक कि आज युवा लोग भी इसके शिकार होने लगे हैं जबकि कुछ समय पूर्व माना जाता था कि यह मुख्य तौर पर अधिक उम्र के लोगों को ही ग्रास बनाता है। आधुनिक समय में उच्च रक्त चाप, मोटापा, मधुमेह, शराब, भागदौड़, दिमागी तनाव, अत्यधिक व्यस्तता एवं काम का बोझ और धूम्रपान आदि के कारण बे्रन अटैक का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है। 
ज्यादातर मामलों में बे्रन अटैक उस स्थिति में होता है जब किन्ही कारणों से मस्तिष्क को रक्त की आपूर्ति किसी रक्त धमनी के फट जाने, उसमें रक्त का थक्का बन जाने या कहीं से थक्का आ कर वहां फंस जाने, उसमें वसा या कोलेस्ट्रोल के जम जाने के कारण बाधित हो जाती है। 
ब्रेन अटैक यानि मस्तिक घात दो तरह के होते हैं। पहले तरह के बे्रन अटैक में मस्तिष्क की रक्त नलियों में अवरोध आ जाने अथवा बंद हो जाने के कारण मस्तिष्क को होने वाले रक्त प्रवाह में रूकावट आ जाती है। दूसरे प्रकार के मस्तिष्क घात में मस्तिष्क में रक्त जमा हो जाता है। दूसरी अवस्था के ब्रेन अटैक को ब्रेन हैमरेज कहा जाता है जो जानलेवा साबित होता है।
थोड़े समय के लिये हाथ-पैर या शरीर के आधे या पूरे हिस्से का सुन्न पड़ जाना, बैठे-बैठे हाथ-पैर में थोड़ी कमजोरी महसूस होना, सुन्नपन का अहसास होना, आवाज लड़़खड़ाने लगना, आंखों के आगे अंधेरा छा जाना आदि मस्तिष्क घात के संकेत हैं जो हो सकता है कि कुछ समय बाद ठीक हो जाये लेकिन कुछ समय बाद इसी तरह के लक्षण दोबारा उभर सकते हैं। इलाज में बिलंब होने पर दिमाग को पूर्ण घात लग सकता है और मरीज की मौत तक हो सकती है। समय-समय पर थोड़ी देर तक के लिये आने वाले इस तरह के लक्षण को ट्रांससिएट इस्चेमिक अटैक कहते हैं। अगर ये बार-बार या स्थायी तौर पर हों तो मरीज बड़े पक्षाघात का शिकार हो जाता है इससे शरीर का आधा भाग नाकाम (अधरंग) हो जाता है और एक हाथ या पैर कमजोर पड़ जाता है। इलाज से कुछ ही रोगियों में पूरा फायदा हो पाता है और वे अपनी पूर्व स्थिति में पहुंच कर सामान्य ढंग से काम-काज कर पाते हैं। ज्यादातर मरीजों को आंशिक लाभ ही हो पाता है। जिस मरीज में एक बार पक्षाघात होता है उसमें इसके दोबारा होने की आशंका बनी रहती है। इसलिये पक्षाघात के हल्के या बड़े दौरे के बाद मरीज का पूरा निरीक्षण-परीक्षण करके कारणों का पता लगाकर उपचार करना अनिवार्य हो जाता है ताकि उन्हें भविष्य के बड़े खतरों से बचाया जा सके। ब्रेन अटैक होने पर आसपास की मस्तिष्क की कोशिकाओं को भारी क्षति होती है और इन कोशिकाओं को दोबारा जीवित करना मुश्किल होता है। ब्रेन अटैक होने के तीन से छह घंटे के भीतर मरीज को अस्पताल ले आने पर उसे लकवा या अन्य विकलांगता से बचाया जा सकता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में होने वाली नयी शोधों से अर्जित उपलब्धियों की बदौलत आज पक्षाघात के मरीजों को जीवनदान दिया जा सकता है। 
नयी चिकित्सा तकनीकों की मदद से मरीजों को भविष्य में दोबारा पक्षाघात होने के खतरे से बचाया जा सकता है। अगर मरीज तीन घंटे के भीतर सभी सुविधाओं से युक्त अस्पताल पहुंच जाये तो उसे क्लाॅट डिजाॅलविंग थिरेपी की नयी तकनीक से आपरेशन किये बगैर बचाया जा सकता है। इस थिरेपी के तहत मरीज को इंजेक्शन के जरिये टिश्यू प्लासमिनोजेन एक्टिवेटर दिया जाता है जो मस्तिष्क की रक्त धमनी में जमा रक्त के थक्के को घुला देता है। यह नयी तकनीक रक्त के थक्के को घुलाने वाली अन्य परम्परगत तकनीकों की तुलना में कम से कम दस गुना ज्यादा कारगर है। आधुनिक समय में मस्तिष्क की रक्त धमनियों मे रूकावट का पता अल्ट्रासाउंड या कैरोटिड डाप्लर की तकनीक से आसानी से लगाया जा सकता है। एम.आर. एंजियोग्राफी से यह पता चल जाता है कि किस हद तक रूकावट है। परन्तु स्थिति का सही जायजा एंजियोग्राफी से ही पता चल पाता हैं। मस्तिष्क की रक्त धमनी में अवरोध को दूर करने के लिये एंजियोप्लास्टी या आपरेशन की सहायता लेनी पड़ सकती है। ब्रेन अटैक के कुछ मामले में गामा या एक्स नाइफ से भी मरीज का उपचार किया जा सकता है।
बे्रन अटैक के लक्षण अक्सर एंजाइना की तरह लगते हैं जिस कारण मरीज हृदय रोग चिकित्सक के पास चला जाता है जिससे समय नष्ट होता है और मरीज की हालत और गंभीर हो जाती है।
ब्रेन अटैक से बचने के लिये मोटापा, धूम्रपान और शराब सेवन से बचे रहना चाहिये और रक्त चाप पर नियंत्रण रखना चाहिये। बेहतर तो यही है कि 40 साल से अधिक उम्र के लोग नियमित तौर पर अपने रक्त चाप की जांच करायें। क्योंकि रक्त चाप ठीक रहने से बे्रन अटैक की आश्ंाका कम रहती है। 
मधुमेह, उच्च रक्त चाप, अधिक कालेस्ट्रोल और बे्रन स्ट्रोक आनुवांशिक कारणों से भी होते हैं इसलिये जिन परिवारों में इन रोगों का इतिहास रहा हो उस परिवार के सदस्यों को अधिक सावधान रहने की जरूरत है। 
हार्मोनल गर्भनिरोधक गोलियों से रक्त स्राव का खतरा बढ़ता है। किडनी में खराबी होने पर भी गंभीर उच्च रक्त चाप हो सकता है और इससे मस्तिष्क स्राव की आशंका बन सकती है। ऐसे मरीजों को ब्रेन हैमरेज होने पर उनका आपरेशन करना मुश्किल होता है जिससे उनकी मौत की आशंका बढ़ जाती है। करीब 15 साल पहले तक यह माना जाता था कि यह बीमारी लंदन और अमरीका जैसे विकसित देशों में ही होती है लेकिन कई अध्ययनों से यह साबित हो गयाा है कि यह बीमारी गांवों और शहरों में बराबर ही होती है और भारत में भी उतनी ही होती है जितना कि लंदन और अमरीका में, क्योंकि इसका किसी प्रकार के वातावरण, जलवायु या खान-पान से कोई संबंध नहीं है।


विकलांग बना सकता है ब्रेन स्ट्रोक (पक्षाघात)

मस्तिष्क के एक या अधिक नसों के फटने से रक्तस्त्राव होने, उनमें रक्त के थक्के जमने या उनमें ट्यूमर अथवा एन्युरिज्म के बनने आदि के कारणों से होने वाले पक्षाघात हमारे देश में विकलांगता और असामयिक मौत के प्रमुख कारणों में से एक हैं। गले की एक या अधिक धमनियों में वसा के जमाव के बाद अक्सर उनमें रक्त के थक्के की उत्पत्ति होने की आशंका होती है। दरअसल वसा के जमाव के कारण इन नसों का लचीलापन कम हो जाता है। जमे वसा की भीतरी परत में दरार आने से वसा के कण या उस पर जमे खून के थक्के रक्त के प्रवाह के साथ मस्तिष्क तक पहुंच जाते हैं और ये वहां की महत्वपूर्ण कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाते हैं। ये अगर कुछ समय के लिये मस्तिष्क के किसी हिस्से को नुकसान पहुंचायें तो इससे मामूली दौरे या अस्थायी पक्षाघात होते हैं। इसे ट्रांसियेंट इस्कीमिक अटैक (टीआईए) कहा जाता है।
इससे एक आंख या दोनों आंखों से दिखना बंद हो जाना, दायें या बायें तरफ की वस्तुयें नहीं दिखना, एक हाथ या एक पैर का काम नहीं करना, आवाज साफ नहीं निकलना या कुछ शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाना जैसे लक्षण उत्पन्न करने वाले छोटे-बड़े पक्षाघात हो सकते हैं जो कुछ देर में खत्म हो जाते हैं और व्यक्ति सामान्य हो जाता है। दरअसल ये लक्षण चेतावनी है जिसे नजरअंदाज करने पर बड़ा लकवा उत्पन्न हो सकता है। ऐसे लक्षण उभरने पर मरीज अगर जल्द से जल्द सुयोग्य चिकित्सक के पास चला जाये तो गले की नब्ज देख कर रोग का अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर संदेह हो तो उसकी पुष्टि करने के लिए कम्प्युटर टोमोग्राफी (सी.टी. स्कैन), मैग्नेटिक रिसोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.), डाप्लर आदि जांच विधियों का सहारा लिया जाता है।
अगर ये बार-बार या स्थायी तौर पर हों तो मरीज बड़े पक्षाघात का शिकार हो जाता है इससे शरीर का आधा भाग नाकाम (अधरंग) हो जाता है और एक हाथ या पैर कमजोर पड़ जाता है। इलाज से कुछ ही रोगियों में पूरा फायदा हो पाता है और वे अपनी पूर्व स्थिति में पहुंच कर सामान्य ढंग से काम-काज कर पाते हैं। ज्यादातर मरीजों को आंशिक लाभ ही हो पाता है। जिस मरीज में एक बार पक्षाघात होता है उसमें इसके दोबारा होने की आशंका बनी रहती है। इसलिये पक्षाघात के हल्के या बड़े दौरे के बाद मरीज का पूरा निरीक्षण-परीक्षण करके कारणों का पता लगाकर उपचार करना अनिवार्य हो जाता है ताकि उन्हें भविष्य के बड़े खतरों से बचाया जा सके।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में होने वाली नयी शोधों से अर्जित उपलब्धियों की बदौलत पक्षाघात के मरीजों को जीवनदान दिया जा सकता है। नयी चिकित्सा तकनीकों की मदद से मरीजों को भविष्य में दोबारा पक्षाघात होने के खतरे से बचाया जा सकता है।
गले की कैरोटिड नामक धमनियां ही मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को बनाये रखती हैं और उनमें पोषक तत्व पहुंचाती रहती हैं। इन धमनियों में होने वाले रक्त प्रवाह में रूकावट से भविष्य में पक्षाघात की भयंकर बीमारी हो सकती है।
आधुनिक समय में इस रूकावट का पता अल्ट्रासाउंड या कैरोटिड डाप्लर की तकनीक से आसानी से लगाया जा सकता है। एम.आर. एंजियोग्राफी से यह पता चल जाता है कि किस हद तक रूकावट है। परन्तु स्थिति का सही जायजा एंजियोग्राफी से ही हो पाता है। अगर रूकावट 70 प्रतिशत से ज्यादा हो अथवा मरीज को पहले से ही हल्का या बड़ा पक्षाघात हो चुका हो तो मरीज का तत्काल इलाज करना जरूरी हो जाता है।
दिमागी दौरे का इलाज इस बात पर निर्भर करता है कि किस धमनी में, कहां पर, कितना और कितनी लंबाई में रूकावट है। इन सब की जानकारी एंजियोग्राफी से चल जाता है और एंजियोग्राफी के निष्कर्ष के आधार पर ही तय किया जाता है कि उपचार की किन विधियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
रूकावट 50 प्रतिशत से कम होने पर इलाज के लिये पहले दवाईयों का सहारा लिया जाता है लेकिन 70 प्रतिशत से अधिक रूकावट होने पर आपरेशन अथवा एंजियोप्लास्टी का सहारा लिया जाता है। रूकावट कम होने पर मरीजों को एस्प्रिन और एसिट्रोम जैसी जो दवाइयां दी जाती हैं वे रक्त को पतला करती हैं ताकि धमनियों में काॅलेस्ट्राल का जमाव नहीं हो। इन दवाईओं से इलाज के दौरान मरीज की नियमित जांच आवश्यक है ताकि रक्त अधिक पतला नहीं हो अन्यथा हैमरेज का खतरा बढ़ सकता है। रूकावट अधिक होने पर इलाज का परम्परागत तरीका आॅपरेशन एंडआरटेªक्टोमी है। इसमें गर्दन की नसों को खोलकर काॅलेस्ट्राल या वसा के जमाव को निकाल दिया जाता है जिससे रक्त का प्रवाह सामान्य हो जाता है। आपरेशन के दौरान मस्तिष्क की नसों को क्लैम्प लगाकर बंद कर दिया जाता है ताकि मस्तिष्क पर किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं पड़े। यह आपरेशन काफी सफल और कारगर किस्म का है जिससे अच्छे परिणाम मिलते हैं। इसकी सफलता दर 90 प्रतिशत है। लेकिन इस आपरेशन की स्थिति में एनेस्थिसिया से होने वाले दुष्प्रभाव तो होते ही हैं, साथ ही आपरेशन के दौरान कुछ स्नायु कट जाते हैं जो बाद में सामान्य कार्य नहीं कर पाते। इस आपरेशन के बाद अवरुद्व धमनी खुल जाती है लेकिन आपरेशन के पहले तक होने वाले नुकसान ठीक नहीं होते। आपरेशन के बाद भविष्य में दोबारा धमनी में रूकावट होने की संभावना कम हो जाती है।
अब मरीज को बेहोश किये तथा चीड़-फाड़ किये बगैर वसा के जमाव को दूर करने की तकनीक विकसित हुई है। इस नयी तकनीक को कैरोटिड स्टेंटिंग कहा जाता है। यह तकनीक बंद हृदय रक्त धमनियों को खोलने के लिये इस्तेमाल में आने वाली एंजियोप्लास्टी की तरह ही है। इसमें जांघ की एक धमनी में छोटा सा छेद करके उसके रास्ते होकर स्टेंट नामक स्प्रिंगनुमा यंत्र को गले की कैरोटिड धमनियों तक पहुंचाया जाता है। स्टेंट को ठीक जगह पर पहुंचाकर इन्हें आटोमेटिक छतरी की तरह खोल दिया जाता है जिससे यह धमनी में फैल जाता है। इससे वहां जमा वसा धमनियों की भीतरी परत में दब जाता है जिससे धमनी से दोबारा रक्त का प्रवाह होने लगता है। साथ ही इसमें वसा के कणों के टूटकर मस्तिष्क में जाने की आशंका समाप्त हो जाती है तथा पक्षाघात होने का खतरा टल जाता है। 
यह तकनीक एक महत्त्वपूर्ण चिकित्सकीय उपलब्धि है जिसके आपरेशन की तुलना में कई फायदे हैं। सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि इसमें चीर-फाड़ की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके लिये मरीज को एनेस्थिसिया आदि देकर बेहोश नहीं करना पड़ता तथा आपरेशन की तुलना में इसमें बहुत कम समय आधा से एक घंटा लगता है। इस कारण मरीज जल्दी स्वास्थ्य लाभ करता है। इस विधि में मरीज को संक्रमण होने तथा मौत होने की आशंका आपरेशन की तुलना में बहुत कम होती है। मरीज को दूसरे ही दिन अस्पताल से छुट्टी दी जा सकती है। इन कारणों से इस पर कम खर्च आता है, इसके बावजूद इस विधि का फायदा परम्परागत आपरेशन से कहीं अधिक है।
इस विधि का इस्तेमाल उन मरीजों के लिये भी किया जा सकता है जिनका आपरेशन करना संभव नहीं है। खासकर उन रोगियों में जिनकी गले की धमनी में काफी ऊपर तक रूकावट है। 
विकसित देशों में व्यापक तौर पर प्रचलित यह तकनीक देश के कईअस्पतालों में उपलब्ध हो गयी है। शीघ्र ही इस तकनीक के कुछ और अस्पतालों  में इस्तेमाल शुरू होने की उम्मीद है। ऐसा होने पर देश के ज्यादा से ज्यादा मरीज इस तकनीक का फायदा उठा सकेंगे।


सड़क दुर्घटना में हो सकती है स्पाइनल कार्ड को क्षति 

सड़क दुर्घटनाओं में सिर के अलावा स्पाइनल कार्ड या इन दोनों को क्षति पहुंचने की आशंका न  केवल बहुत अधिक होती है। इन दोनों महत्वपूर्ण अंगों की क्षति मौत अथवा विकलांगता का कारण बन सकती है। आम तौर पर सड़क दुर्घटना के शिकार व्यक्ति के सिर की चोट की तरफ अधिक ध्यान जाता है जबकि स्पाइनल कार्ड की चोट की या तो अनदेखी हो जाती है या उसकी तरफ बाद में ध्यान जाता है। सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति को अस्पताल ले जाते समय भी उसके सिर की चोटों की तरफ अन्य अंगों की चोट की अपेक्षा अधिक ध्यान दिया जाता है जिससे जाने-अनजाने मरीज की स्पाइनल कार्ड कट जाती है या क्षतिग्रस्त हो जाती है क्योंकि उनका वर्टिब्रल कालम दुर्घटना के दौरान ही टूट चुकी होती है। सड़क दुर्घटनाओं में घायल लोगों में से तकरीबन 10 से 15 प्रतिशत लोगों की स्पाइन दुर्घटना के दौरान क्षति ग्रस्त नहीं होती है, लेकिन घायल व्यक्ति को गाड़ी से निकालने या अस्पताल ले जाने के दरम्यान उसकी स्पाइन क्षतिग्रस्त हो जाती है। इसलिये आसपास के लोगों को चाहिये कि सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति को कम से कम हिलाये-डुलाये अथवा मोडे़ बगैर सीधा उठाकर एंबुलेंस या गाड़ी में सावधानी  पूर्वक लिटाना चाहिये। अगर मरीज किसी कार के अंदर फंसा हुआ हो तो मरीज को मोड़कर निकालने की बजाय वाहन के चदरे को काटकर या वाहन की सीटों को उठाकर मरीज को निकालना चाहिये। सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति के सिर में चोट लगने पर तत्काल सड़क के किनारे उल्टा या करवट में लिटा दिया जाना चाहिये ताकि घायल व्यक्ति अगर उल्टी करे तब उल्टी फेफड़ों में नहीं जा पाये और फेफड़ों में संक्रमण नहीं हो। इससे एक फायदा यह होगा कि उसे मिर्गी का दौरा आने पर उसका जुबान नहीं कटेगा। घायल व्यक्ति के शरीर के किसी स्थान से रक्त बहने पर वहां पट्टी या रूमाल कस कर बांध देना चाहिये ताकि रक्तस्राव कम हो और मरीज को अस्पताल पहुंचते ही उसे टांके लग सकें। सिर या स्पाइनल कार्ड की किसी भी तरह की चोट या क्षति को कभी भी हल्के ढंग से नहीं लेना चािहये और इसका तुरंत इलाज करवाना चाहिये क्योंकि इलाज में देर होने पर मरीज को स्थायी क्षति पहुंच सकती है। 


सिर में चोट को हल्के में न लें

दुर्घटनायें रोजमर्रे के जीवन के अभिन्न हिस्से हैं। हर समय और हर जगह दुर्घटनाओं की आशंका बनी रहती है।  आम जिंदगी में होने वाली सड़क एवं अन्य दुर्घटनाएं कारण आज मौत एवं विकलांगता का सबसे प्रमुख कारण बनती जा रही हैं। दिनों-दिन बेतहाशा बढ़ते वाहनों तथा यातायात नियमों की अनदेखी के कारण सड़क दुर्घटनाओं में भयानक तेजी आ गयी है। आप चाहे पैदल चल रहे हों अथवा दुपहिये, तिपहिये, कार या बस से कहीं सफर कर रहे हों; आप कभी भी-कहीं भी सड़क दुर्घटनाओं के शिकार बन सकते हैं। 
सिर में चोट के नुकसान
दुर्घटनाओं में सिर में चोट लगने पर व्यक्ति की स्थिति गंभीर हो सकती है। सिर में चोट का तत्काल एवं समुचित इलाज नहीं होने पर व्यक्ति की मौत हो सकती है अथवा वह अपाहिज भी हो सकता है। सिर में चोट लगने पर व्यक्ति बेहोश हो सकता है, उस थोड़ी देर के क्षण को पूरी तरह भूल सकता है। कभी-कभी दुर्घटना होने पर सिर्फ सिर के ऊपरी हिस्से में चोट लगती है जिससे व्यक्ति घायल हो सकता है। कभी-कभी चोट लगने पर व्यक्ति कुछ समय तक तो ठीक एवं होशो-हवाश में रहता है लेकिन दो-तीन घंटे बाद या एक दिन बाद भी वह बेहोश हो सकता है  क्योंकि चोट लगने के बाद अंदर सिर के रक्त की ''क्लौटिंग'' बढ़ती रहती है और मस्तिष्क की नसों पर दबाव पड़ता रहता है जिससे व्यक्ति बेहोश हो सकता है। हालांकि हल्की दुर्घटनाओं में 80 प्रतिशत लोगों को हल्की चोट ही लगती है और उससे उसका कोई खास नुकसान नहीं होता है। इसमें मस्तिष्क का ''कनकसन'' होता है और थोड़ी देर में व्यक्ति ठीक हो जाता है। इसके बावजूद सिर में लगी किसी चोट को मामूली नहीं समझना चाहिए और न ही इतनी गंभीरता से लेनी चाहिए कि घायल व्यक्ति उम्मीद ही खो दे।
सिर में चोट लगने पर क्या करें 
किसी व्यक्ति के सिर में चोट लगने पर यह देखना बहुत जरूरी होता है कि व्यक्ति सुस्त तो नहीं हो रहा है, बहुत अधिक सो तो नहीं रहा है या बेहोश तो नहीं हो रहा है। सिर में चोट लगने पर शरीर का कोई भी भाग प्रभावित हो सकता है। सिर में तेज दर्द हो सकता है, उल्टी हो सकती है, स्थायी बेहोशी हो सकती है, किसी एक हाथ या पैर या दोनों हाथों-पैरों में लकवा मार सकता है, आंखों में खराबी आ सकती है तथा बोलने व सुनने की शक्ति जा सकती है। सिर में चोट लगने पर शरीर का कौन सा भाग प्रभावित होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि चोट सिर के किस हिस्से में लगी है। जैसे मस्तिष्क के ''स्पीच'' क्षेत्रा में चोट लगने पर व्यक्ति की बोलने की शक्ति चली जाती है। एक्सप्रेशिव स्पीच क्षेत्रा मेें चोट लगने पर व्यक्ति समझता तो है, लेकिन बोल नहीं पाता है जबकि रिसेप्टिव स्पीच क्षेत्रा में चोट लगने पर व्यक्ति बोलता है जबकि रिसेप्टिव स्पीच क्षेत्र में चोट लगने पर व्यक्ति बोलता है लेकिन समझता नहीं है। इसी तरह मस्तिष्क के याददाश्त से संबंधित भाग में चोट लगने पर व्यक्ति स्मृति खो देता है।
गंभीर चोट 
मस्तिष्क के कुछ खास हिस्से जैसे 'ब्रेन स्टेम' क्षेत्र में चोट लगने पर होने वाली क्षति आपरेशन से भी ठीक नहीं की जा सकती। यह क्षति स्थायी रूप से हो जाती है। इसमें मस्तिष्क की कार्यप्रणाली इस कदर क्षतिग्रस्त हो जाती है जिसे ठीक करना संभव नहीं होता। हालांकि इसमें सही इलाज होने पर कुछ रोगी अपने राजमर्रा के काम करने लगते हैं।
चोट लगने पर व्यक्ति अगर बेहोश हो जाये तो उसे फौरन डाॅक्टर के पास ले जाना चाहिए। अगर चोट लगने के बाद व्यक्ति होश में है, चल-फिर रहा है, लेकिन तेज चोट लगी है तो ऐसे मरीज का 24 घंटे तक निरीक्षण करना जरूरी है और उस दौरान यदि उसे सिर में तेज दर्द, बेहोशी, उल्टी, दौरा पड़ने या हाथ-पैर में कमजोरी होने की शिकायत हो तो उसे फौरन डाक्टर के पास ले जाना चाहिए क्योंकि सिर में चोट का समय पर इलाज होना बहुत जरूरी है। ऐसे मरीज में चोट की वजह से कोई क्लाॅट या सूजन विकसित हो सकता है जिसकी वजह से आगे भी क्षति हो सकती है। हालांकि कुछ चोट से मस्तिष्क को हुयी क्षति का इलाज नहीं है। डाक्टरी इलाज का मुख्य उद्देश्य चोट की वजह से मस्तिष्क की कोशिकाओं को आगे होनेवाली क्षति को रोकना होता है क्योंकि मस्तिष्क की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने के बाद पुनर्जीवित नहीं होती हैं। कोई व्यक्ति अगर चोट लगने पर बेहोश हो जाए और बेहोश ही रहे तो खतरा बढ़ जाता है।   


दर्द का विज्ञान

दर्द को समझने के लिये दार्शनिकों,  वैज्ञानिकों एवं चिंतकों ने कम दर्द नहीं सहा है लेकिन आज भी दर्द के रहस्य पर से पूरी तरह से पर्दा नहीं उठ सका है। दर्द क्या है, यह क्यों और कहां से उठता है और इस पर कैसे काबू पाया जा सकता है जैसे सवाल आज भी वैज्ञानिकों को परेशान किये हुये हैं। दर्द की पहेली के बारे में फ्रांस के मेडिकल मिशनरी डा. अल्बर्ट शेजर ने 1931 में लिखा था - दर्द मानव जाति के लिये मौत से भी अधिक भयावह दैवी विपत्ति है।
कहा जाता है कि दर्द को केवल वही जानता है जो इसे झेलता है। तभी तो मीरा ने गाया था.. मेरा दर्द न जाने कोय।... दर्द कोई भी नहीं चाहता है लेकिन दर्द है कि होता ही है। आखिर दर्द है क्या है। 
दर्द दरअसल शरीर के चेतावनी संकेत के रूप में काम करके आपकी रक्षा करता है। मिसाल के तौर पर आप अपना हाथ गर्म तवे पर रख दें तो दर्द कहेगा कि तवे पर से तत्काल हाथ हटा लें। दर्द न केवल शरीर को चोट से बचाता है बल्कि जख्म को जल्द ठीक होने में मदद करता है। दर्द होने के कारण आप आराम करने को मजबूर होते हैं और शरीर को आपके जख्म को ठीक करने में मदद मिलती है। 
दर्द से राहत पाने के उपायों की तलाश पाषाण युग से ही अनवरत जारी है। प्राचीन काल के शिलालेखों से पता चला है कि उस समय दर्द से राहत के लिये दबाव, ताप, जल एवं धूप का इस्तेमाल किया जाता था। दर्द से तड़पते लोग जादूगरों, शैमनों और पुजारियों के पास जाते थे जो दर्द से राहत दिलाने के लिये जड़ी-बूटियों, जादू-टोने, झाड़-फूंक, मंत्रों और पूजा-पाठ एवं अनुष्ठानों का प्रयोग करते थे। प्राचीन मानव दर्द को शैतान, बुराई और जादू-टोने से जोड़ते थे। युनानियों एवं रोमनों ने पहली बार संवेदना की अवधारणा विकसित की जिसके अनुसार दर्द की अनुभूति को पैदा करने में मस्तिष्क एवं स्नायु प्रणाली की भूमिका है। इस अवधारणा को मध्य काल और आगे चल कर पुनर्जागरण काल (1400 से 1500) में मान्यता मिली और इसके पक्ष में अनेक सबूत जुटाये गये। लियोनार्दो दा विंसी और उनके समय के अनेक सिद्धांतकारों ने यह माना कि दर्द एवं अन्य अनुभूतियों के लिये मस्तिष्क ही मुख्य रूप से जिम्मेदार है। लियोनार्दो दा विंसी ने ही इस धारणाा को विकसित किया कि स्पाइनल कार्ड ही मस्तिष्क तक विभिन्न अनुभूतियों को पहुंचाता है। 
सत्तरहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में दर्द जैसी अनुभूतियों पर अध्ययन-अनुसंधान दुनियाभर के दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों के लिये रोचक विषय बना रहा। दर्द पर वैज्ञानिक अनुसंधान एवं दर्द की आधुनिक चिकित्सा की शुरूआत 1880 से हुयी। उन्नीसवीं शताब्दी में दर्द के विज्ञान के नये दायरे में आने से दर्द की कारगर चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त हुआ। अध्ययनों एवं अनुसंधानों से चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों ने पाया कि अफीम, मार्फिन, कोडीन एवं कोकिन जैसी औषधियां दर्द से राहत दिलाने में कारगर हैं। इसके आधार पर ही आज की अत्यंत लोकप्रिय दर्दनिवारक औषधि एस्प्रीन के विकास का मार्ग खुला। पिछले एक दशक के दौरान हुये अनुसंधानों से वैज्ञानिकों ने पाया कि सभी तरह के दर्द एक समान नहीं होते हैं। मधुमक्खी के काटने का दर्द आथ्र्राइटिस के दर्द से अलग होता है। यही नहीं अलग - अलग व्यक्ति दर्द का अहसास अलग-अलग तरीके से करते हैं। पुरुषों की तुलना में महिलायें और वयस्कों की तुलना में बच्चे दर्द को भिन्न तरीके से महसूस करते हैं। कुछ लोगों को कोई खास दर्द अधिक महसूस होता है तो कुछ लोगों को वही दर्द कम महसूस होता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें जन्म से ही दर्द का अहसास नहीं होता है। ऐसे लोग एक विशिष्ट अवस्था से ग्रस्त होते हैं जिसे दर्द के प्रति जन्मजात असंवेदनशीलता अर्थात कंजेनिटल इनसेंसिटिविटी टू पेन कहा जाता है। ऐसे लोगों की स्नायु प्रणाली दर्द से संबंधित संकेतों को पकड़ या पहचान पाने में असमर्थ रहती है। यह अवस्था घातक साबित हो सकती है।
दर्द का अहसास आखिर कैसे होता है। स्पाइनल कार्ड एवं नर्व शरीर के विभिन्न अंगों और मस्तिष्क के बीच दर्द की अनुभूति संवाहन करते हैं। हमारी त्वचा के नीचे अवस्थित रिसेप्टर नर्व कोशिकायें  ठंडा, गर्म, नरम, कठोर एवं दर्द की अनुभूतियों को ग्रहण करता है। हमारे शरीर में हजारों की संख्या में रिसेप्टर नर्व कोशिकायें होती हैं। अलग-अलग कोशिकायें अलग -अलग अनुभूतियों को ग्रहण करती हैं। ज्यादातर  कोशिकायें दर्द की अनुभूतियों को ग्रहण करती हैं जबकि कुछ ही कोशिकायें सुखद अनुभूतियों को ग्रहण करती हैं। जब शरीर के किसी अंग में गड़बड़ी होती है या चोट लगती है तो ये कोशिकायें नर्व के जरिये अपने संदेश स्पाइनल कार्ड को भेजती है और फिर स्पाइनल कार्ड के जरिये संदेश मस्तिष्क तक पहुंचता है। 
दर्द निवारण एवं प्रबंधन के विशेषज्ञ डा. विजयशील कुमार बताते हैं कि दर्द निवारक दवाइयां इन संदेशों को मस्तिष्क तक आने से रोकती हंै और मरीज को दर्द से राहत मिलती है। कई बार दर्द यू हीं हो सकती है। मिसाल के तौर पर मामूली सिर दर्द। लेकिन कई बार दर्द ऐसा गहरा एवं स्थायी होता है कि यह दर्दनिवारक दवाइयों से भी नहीं जाता है। यह इस बात का संकेत होता है कि कोई गंभीर समस्या है। लंबे समय तक रहने वाले तेज दर्द कैंसर, गठिया, कमर दर्द, मधुमेह, माइग्रेन तथा स्नायु रोगों जैसी गंभीर बीमारियों से हो सकता है। 
आज दर्द से राहत दिलाने के लिये अनेक दवाइयों, उपायों और तकनीकों का विकास हो चुका है। दर्द से राहत के लिये डाक्टरी पर्चे के बगैर मिलने वाली दवाइयों में तीन श्रेणियों की दवाइयां प्रमुख है। ये हैं - एस्प्रीन, एसिटामिनोफेन और आईब्रुफेन। ये सभी दर्दनिवारक दवाइयां प्रोस्टाग्लैंडिन्स नामक रसायन उत्सर्जित करती हैं। शरीर इस रसायन का उत्सर्जन तब करता है जब कोशिकायें  जख्मी होती हैं। यह माना जाता है कि प्रोस्टाग्लैंडिन्स दर्द, जलन, सूजन आदि में काफी राहत प्रदान करता है। इस तरह की समस्यायें आम तौर पर ऊतक के क्षतिग्रस्त होने पर होती है। जब गंभीर चोट, सर्जरी अथवा गंभीर बीमारी के कारण दर्द बहुत तेज होता है तो तेज एवं अधिक असरकारक दवाइयों की जरूरत होती है। ऐसी दवाइयों को नाॅनस्टेराॅयडल एंटी-इंफलेमेट्री ड्रग्स (एन.एस.ए.डी.) कहा जाता है। ये दवाइयां भी प्रोस्टाग्लैंडिन्स रसायन का उत्पादन करती हैं। 
आज भी यह देखने के लिये किसी तकनीक का विकास नहीं हो पाया है कि किसी व्यक्ति को कितना दर्द हो रहा है। किसी भी जांच या परीक्षण, किसी भी इमेजिंग उपकरण और अन्य तरह के यंत्र से दर्द की तीव्रता एवं जगह का सही-सही निर्धारण नहीं किया जा सकता है। इसलिये अक्सर चिकित्सक को दर्द के बारे में जानने के लिये मरीज की खुद की व्याख्या पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आज ऐसी अनेक तकनीकों का विकास हुआ है जिससे दर्द के कारणों का पता लगाया जा सकता है। इन तकनीकों में इलेक्ट्रोमायोग्राफी (ई.एम.जी.), नर्व कंडक्शन स्डटी एवं इवोक्ड पोटेंशियल स्डटी, मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.) और एक्स-रे आदि प्रमुख हैं।


घरेलू इलाज भी लाभकारी हो सकते हैं बच्चों के लिये

शिक्षा के तमाम प्रचार-प्रसार के बावजूद आज भी बच्चों की छोटी-मोटी बीमारियों को लेकर माता-पिता के बीच खासी चिंता बनी है, खासकर पहली संतान के माता-पिता के लिए। बच्चों की बड़ी बीमारियों के प्रति तो लोग काफी सचेत रहते हैं लेकिन छोटी-छोटी बीमारियों को लेकर काफी परेशान हो जाते हैं। कई बार तो समझ नहीं पाते हैं कि इन बीमारियों का घरेलू इलाज किया जाए या फिर डाॅक्टर को दिखाया जाए। इन छोटे-छोटे रोगों पर काबू पाना उतना ही जरूरी है, जितना कि विकास से संबंधित अन्य काम। 
उल्टी-दस्त- तीन वर्ष तक के बच्चों में उल्टी-दस्त की बीमारी बहुत सामान्य है। एक अनुमान के मुताबिक विकासशील देशों में प्रतिवर्ष 50 लाख यानी प्रति मिनट 10 बच्चे इस रोग से मुत्यु की चपेट में आ जाते हैं। इस रोग का मुख्य कारण आँतों का संक्रमण, वायरस, बैक्टीरिया, प्रोटोजोआ, फंगस और अधिक पोषण या कम पोषण की स्थिति तो है ही, साथ ही साथ बच्चों को दूध पिलाने के लिए जिस बोतल का इस्तेमाल किया जाता है कई बार उसमें कीटाणु हो जाते हैं। इसलिए जितनी जल्दी हो सके बोतल की आदत छुड़ा दें तो बेहतर है। इन सबके अलावा गंदे हाथ, गंदा पानी और दूषित भोजन आदि भी दस्त और उल्टी का प्रमुख कारण है।
पहले लोगों में यह धारणा थी कि केवल डाॅक्टर ही इसका इलाज कर सकता है। लेकिन अगर माँ तुरन्त घर पर ही इसका उपचार शुरू कर दे और बच्चे को अधिक मात्रा में तरल पदार्थ दिया जाए तो उसके शरीर में पानी की कमी नहीं होगी। आपको सिर्फ दस्त और उल्टी के साथ निकले हुए पानी की पूर्ति करना है। यह पूर्ति घर में उपलब्ध किसी भी प्रकार के तरल पदार्थ देकर की जा सकती है जैसे-चावल का माँड, दाल का पानी, दूध-चीनी, नमक का घोल, नींबू का शर्बत, नमकीन मट्ठा या लस्सी, छाछ, हल्की चाय या केवल साफ पानी। ओ.आर.एस. घोल भी सही ढंग से बनाकर बच्चे को बार-बार थोड़ी मात्रा में देना चाहिए।
इन सबसे न केवल बच्चे को ताकत मिलेेगी, बल्कि उसकी प्राण रक्षा भी होगी। आमतौर पर लोगों में धारणा बनी है कि जब बच्चों को उल्टी और दस्त हो तो उसे खाने-पीने के लिए कम दिया जाए, क्योंकि इससे दस्त नहीं होगा। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। दस्त के शिकार बच्चों को और अधिक पोषण की जरूरत होती है।
दाँत निकलना
बच्चों के दाँत निकलने की परेशानियों के बारे में वे कहते हैं कि इसे सामान्य रूप में लिया जाना चाहिए।
आमतौर पर लोेगों में यह धारणा बनी रहती है कि इसके दौरान बच्चे को तकलीफ होती है और उन्हें दस्त होने लगता है, पर ऐसी बात नहीं है। 
इस समय बच्चों के खाने-पीने में किसी भी तरह का परहेज नहीं करना चाहिए। 6-8 महीने की उम्र में बच्चे किसी भी चीज को पकड़कर मुँह में डालने की कोशिश करते हैं। मसूढ़े फूल जाने के कारण बच्चों को मसूढ़ों में खुजली होने लगती है और उसे बेचैनी सी होती है। इसी खुजलाहट को कम करने के लिए बच्चा कभी अपने हाथ को तो कभी पास पड़ी किसी भी वस्तु को मुँह में डालकर काटता है जिससे संक्रमण हो जाता है और इसी वजह से उन्हें दस्त अधिक होता है। यह बच्चे की स्वाभाविक प्रवृति है।
सर्दी-जुकाम
सर्दी-जुकाम का घरेलू उपचार सबसे अच्छा है। दरअसल यह वायरस के कारण होता है और इसमें नाक बहती है। जब ज्यादा जुकाम होता है तो बुखार, बदन दर्द और भूख कम हो जाती है। इन स्थितियों में गर्म सिकाई और गर्म पानी का भाप देना बहुत ही फायदेमंद होता है। जब बुखार जाए तो पैरासिटामोल देना चाहिए।
घमौरियाँ
गर्मी के दिनों में बच्चों के शरीर पर घमौरी हो जाती है जिससे इन्हें बहुत बेचैनी और खुजली वगैरह होने लगती है, अक्सर अधिक या मोटे कपड़े पहनाने से या कभी-कभी बुखार के कारण भी शरीर में दाने हो जाते हैं, जो चेहरे, गर्दन, काँख, पेट और पीठ में हो जाता है। इससे बचाव के लिए बच्चों को कम और पतले ढीले सूती कपड़े पहनाएँ। कमरे को ठण्डा रखने का प्रयास करें। खुजलाहट के लिए कैलामाइन लोशन लगाएँ।


बच्चों को लेकर अंधविश्वास एवं भ्राँतियाँ

अंधविश्वास हानिकारक हो सकते हैं
शिशुओं की देखभाल को लेकर कई तरह के अंधविश्वास हैं। माताएँ अपने शिशुओं के पालन-पोषण के दौरान या तो पुराने तौर-तरीके का इस्तेमाल करती हैं या फिर पुराने तौर-तरीकों को बेकार समझ कर उन्हें पूरी तरह ठुकरा देती हैं, लेकिन दोनों ही स्थितियाँ अच्छी नहीं हैं। माताओं को यह जानना जरूरी है कि देखभाल के सही एवं वैज्ञानिक तौर-तरीके क्या हैं ताकि वे किसी भ्राँति या अंधविश्वास में पड़े बगैर अपने शिशुओं की सही देखभाल कर सकें। 
अंधविश्वास— जन्म के दो या तीन दिन तक बच्चे को माँ का दूध नहीं चाहिये। उसे माँ के दूध की जगह शहद या अन्य चीजें दी जानी चाहिये। पहले दो-तीन दिनों तक दूध खराब होता है इसलिये उसे फेंक देना चाहिये।
तथ्य— जन्म के तुरन्त बाद ही शिशु को माँ का दूध देना चाहिए। पहले कुछ दिनों में माँ का दूध काॅलेस्ट्रम कहा जाता है। यह स्वास्थ्यवर्द्धक होता है। माँ का दूध नवजात शिशुओं और बच्चों के लिए सबसे उचित आहार है। तीन महीने तक तो शिशु को सिर्फ माँ का दूध ही देना चाहिए और दूध पिलाने के बाद डकार जरूर दिलवा देना चाहिए। इस बीच अगर बच्चे को पानी न भी दिया जाए तो कोई बात नहीं, क्योंकि माँ के दूध में ही पानी की उचित मात्रा होती है। हाँ! सफाई का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए।
अंधविश्वास— माँ के बीमार होने पर बच्चे को स्तनपान नहीं करवाना चाहिए।
तथ्य— माँ के बीमार होने पर बच्चे को स्तनपान करवाना किसी भी प्रकार से नुकसानदेह नहीं है, क्योंकि माँ के दूध से बच्चे को एंटी-बाॅडीज प्राप्त होता है। हाँ! कैंसर, एड्स या मानसिक बीमारी होने पर माताओं को अपने बच्चे को दूध पिलाने की सलाह नहीं दी जाती है।
अंधविश्वास— बच्चे के प्रथम वर्ष में केवल दूध ही पर्याप्त है। अन्य आहार की जरूरत नहीं हैं।
तथ्य— बच्चे को आमतौर पर छह महीने के बाद से दूध के साथ अन्य आहार घोल के रूप में दी जानी चाहिये। आहार ऐसा हो जिसे बच्चा आसानी से पचा सके। घर में बना ताजा और साफ खाद्य पदार्थ साबूदाने की खिचड़ी या खीर, दही का मट्ठा, सूजी की खिचड़ी या खीर, हरी सब्जियों का सूप, उबला अंडा, उबला आलू दही में मसल कर दिया जाना चाहिए। फलों में नारंगी या मौसमी का जूस और केला दिया जा सकता है।
अंधविश्वास— डिब्बाबंद आहार स्वच्छ एवं पौष्टिक होते हैं। बच्चे के लिये यह सुरक्षित एवं फायदेमंद हैं। 
तथ्य— महंगे और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों का सेवन बच्चे के लिये हानिकारक हो सकता है। इसलिये इसका सेवन आपके बच्चे के लिये मुफीद नहीं है। टेलीविजन, रेडियो और पत्रा-पत्रिकाओं में विज्ञापनों के कारण ये डिब्बाबंद आहार लोकप्रिय हो गये हैं लेकिन ये उपयोगी नहीं हैं। इनकी जगह घर में माताएँ साफ और अच्छे किस्म का चावल या गेहूं लेकर अच्छा आहार बना सकती हैं।
अंधविश्वास— दाँत निकलने पर बच्चे को दस्त होता है इसलिये उसे दाँत निकलने के दौरान गरिष्ठ आहार नहीं देना चाहिये। 
तथ्य— बच्चे के दाँत निकलने को सामान्य रूप में लिया जाना चाहिए। इस दौरान खाने-पीने में किसी तरह के परहेज या अतिरिक्त सावधानी की जरूरत नहीं। लोगों में यह धारणा भी नाहक ही है कि दाँत निकलने के समय बच्चे को तकलीफ होती है और इसीलिए उसे दस्त होता है। पर ऐसी बात नहीं है। 6-8 महीने की उम्र तक बच्चा किसी भी चीज को पकड़कर मुँह में डालने की आदत सीख जाता है जिससे उसे इंफेक्शन होता है और उसे दस्त अधिक होता है। 
अंधविश्वास— बच्चों को बुखार एवं सर्दी-खाँसी होने पर नहलाना नहीं चाहिये।
तथ्य— आम लोगों में धारणा है कि नहलाने से बुखार अथवा सर्दी-खाँसी बढ़ सकती है। लेकिन यह धारणा सर्वथा गलत है। बच्चों में तेज बुखार (102 डिग्री फारेनहाइट) होने पर बुखार उतारने वाली विभिन्न दवाइयाँ काम नहीं कर पाती हैं। ऐसी परिस्थिति में बच्चे को ठंड में गुनगुने पानी और गर्मी में सादा पानी से अच्छी तरह से नहलाना चाहिये। जिससे उसका बुखार जल्द से जल्द सामान्य स्तर पर आ सके।
अंधविश्वास— दही, केला, संतरा, चावल आदि ठण्डा होता है। इसलिये बच्चे को सर्दी के मौसम में या खाँसी-जुकाम होने पर नहीं देना चाहिये।
तथ्य— खाने की कोई भी चीज न तो ठंडी होती है और न ही गर्म होती है इसलिये बच्चे को किसी भी मौसम या किसी भी बीमारी में उपयुक्त पौष्टिक आहार दिया जा सकता है।
इसी तरह के कुछ अंधविश्वासों का निवारण निम्न सवाल जवाब के जरिये किया जा रहा है। 
अंधविश्वास— आँख में घर का बना काजल लगाने से बच्चे की आँखें बड़ी हो जाती हैं।
तथ्य— आँखों का बड़ी या छोटी होना आनुवांशिक है। काजल वगैरह लगाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन आँख में कोई भी काजल लगाने से बच्चे की आँखों में ट्रकोमा होने का खतरा है, जो बाद में बच्चे में अंधेपन का एक प्रमुख कारण है। इसलिए छोटे बच्चे (दो वर्ष से कम) में काजल का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि छोटा बच्चा ट्रकोमा के लक्षण को नहीं बता पाएगा और यह बीमारी बढ़ने पर खतरनाक हो सकती है। दो वर्ष से अधिक उम्र के बच्चे को काजल लगाना हो तो आँख की बाहरी सतह पर लगाएँ। आँख के अंदर काजल नहीं लगाएँ, क्योंकि काजल से आँख में इंफेक्शन होने का डर है। 
अंधविश्वास— बच्चों में कम उम्र में दाँत निकलना अशुभ होता है। 
तथ्य— सामान्यतः बच्चे में 6 महीने की उम्र के बाद निकलते हैं। लेकिन किसी बच्चे में यह दाँत तीन महीने की उम्र पर भी निकल सकते हैं तो किसी बच्चे में यह 9-10 माह पर निकलते हैं। यह शरीर की एक सामान्य प्रक्रिया है। इसको अशुभ कहना एक अंधविश्वास है। इसलिए आपको इस वजह से परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। 
अंधविश्वास— गर्भवती महिला को सुबह-सुबह दूध और फल देने से बच्चे का रंग साफ हो सकता है। 
तथ्य— यह सब एक कोरा अंधविश्वास है। बच्चे का रंग आनुवांशिकता (यानी माता-पिता, दादा-दादी इत्यादि) के आधार पर तय होता है। अगर गर्भवती महिला की अच्छी तरह से देखभाल की जाए तो बच्चा स्वस्थ होगा और स्वस्थ बच्चे का रंग सामान्य से कुछ साफ होता है।
अंधविश्वास— केला ठण्डा होता है और जाड़े में इसे खाने पर ज्यादा बलगम बनती है। इ​सलिए बच्चों को जाड़े के मौसम में केला नहीं देना चाहिए।
तत्य— केला भी अन्य फलों की तरह एक फल है जिससे बच्चे को काफी कैलोरी मिलती हैै। यह एक अंधविश्वास है कि केला ठण्डा होता है। दुनिया में जितनी खाने की चीजें हैं वह न ठंडी है न गर्म। अगर आप किसी चीज को फ्रिज में रखेंगे तभी वह ठंडी होगी।
अंधविश्वास— चावल ज्यादा खाने से बच्चा मोटा हो जाता है इसलिए बच्चों को रोटी खिलानी चाहिए।
तथ्य— चावल एक प्रकार का अनाज है और इसका कंपोजीशन भी गेहूं जैसा ही होता है। इसलिए अगर बच्चा ज्यादा चावल खाता है तो उससे कोई नुकसान नहीं है। पहाड़ी इलाकों और दक्षिण भारत में भी लोग मुख्यतः चावल ही खाते हैं। अगर बच्चे का वजन ज्यादा हो तो उसे घी और चीनी कम देना चाहिए।
अंधविश्वास— ज्यादा घी और मक्खन खाने से बच्चे के गुर्दे कमजोर हो जाते हैं।
तथ्य— घी और मक्खन खाने से बच्चे के गुर्दे पर कोई फर्क नहीं पड़ता। बच्चे के अच्छे विकास के लिए आहार में वसा (घी, मक्खन आदि), प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, मिनरल इत्यादि जो भी डालना पड़े डाल सकते हैं। चार वर्ष के बच्चे घर के भोजन, जो अन्य सदस्य लेते हैं जैसे चपाती, दाल, दूध, दही, पनीर, चावल, हरी सब्जियाँ, फल, अंडा इत्यादि दे सकते हैं। लेकिन दो तथ्यों का ध्यान रखना है। एक तो उसकी खुराक में प्रोटीन, विटामिन, मिनरल तथा कैलोरी उम्र की आवश्यकतानुसार मिलना चाहिए। दूसरे बच्चे की खुराक स्वादिष्ट होनी चाहिए। 
अंधविश्वास— ग्लूकोज बहुत ठण्डा होता है और बच्चे को निमोनिया कर सकता है। इसलिए बच्चे को ग्लूकोज नहीं देना चाहिए। 
तथ्य— सारे खाने की चीजें जैसे दाल, चावल, गेहूं इत्यादि ग्लूकोज की इकाइयों से ही मिल कर बने हैं और ये सब चीजें खाने के बाद शरीर इसे ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है। अतः यह सोचना कि ग्लूकोज ठण्डा होता है एक मिथ्या और अंधविश्वास है। अतः बच्चे को पानी में ग्लूकोज-डी मिलाकर पिलाने से कोई नुकसान नहीं है। यह सोचना कि इसके पिलाने से बच्चे को निमोनिया हो जाएगा, बिल्कुल गलत है। ग्लूकोज-डी के साथ-साथ बच्चे को पानी के साथ चीनी, शक्कर या गुड़ भी मिलाकर पिलाया जा सकता है। 
अंधविश्वास— बच्चे को खांसी होने पर मां का दूध पीने पर दूध से खाँसी बढ़ती है
तथ्य— माँ का दूध बच्चे के लिए अमृत समान है। माँ का दूध प्रथम छह माह में न केवल बच्चे को संपूर्ण जीवाणुरहित पौष्टिक आहार प्रदान करता है अपितु बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। माँ का दूध या अन्य किसी दूध से खाँसी का कोई सरोकार नहीं है। खाँसी तो साँस की नली में और उसके आसपास की जगह में किसी इंफेक्शन या एलर्जी की वजह से होता है। यह एक अंधविश्वास है कि दूध पीने से खाँसी बढ़ेगी।


बच्चों में जन्मजात एवं गंभीर विकृतियाँ 

हर माता-पिता की दिली तमन्ना होती है कि उसकी संतान स्वस्थ एवं सही-सलामत पैदा हो और वह हर तरह की विकृतियों से मुक्त हो। लेकिन हर माता-पिता पर कुदरत मेहरबान नहीं होती। एक अनुमान के अनुसार लगभग दो प्रतिशत बच्चे जन्मजात विकृतियों के साथ ही पैदा होते हैं। इन बच्चों में से 50 फीसदी बच्चे तो गंभीर किस्म की विकृतियों से ग्रस्त होते हैं। ये विकृतियाँ आनुवांशिक या अन्य कारणों से हो सकती है। सामान्य जन्मजात विकृतियों में से अधिकतर विकृतियों का पता तो बाहर से ही चल जाता है। इन विकृतियों में बच्चे का ओठ कटा होना, तालु नहीं होना, हाथ या पैर की उंगलियाँ कम या ज्यादा होना, पैर की उंगलियों का जुड़ा होना, हाथ पूरा बना हुआ नहीं होना, पेट से आँतों का बाहर होना, पीठ पर नस का फोड़ा होना आदि प्रमुख हैं। कुछ विकृतियाँ शरीर के अंदर होती हैं और इनका बाहर से पता नहीं लगता, लेकिन ये गंभीर विकृतियाँ होती हैं। इन विकृतियों में दिल में सुराख, आँतों में रूकावट और साँस की तकलीफ जैसी विकृतियाँ शामिल हैं। 
नस के फोड़े की विकृति अत्यंत गंभीर किस्म की समस्या है जिसका इलाज अत्यंत जटिल है। अनुमान के अनुसार ढाई सौ बच्चों में से तकरीबन एक बच्चा इस बीमारी से ग्रस्त होता है। नस का फोड़ा सिर के पीछे, कमर, कमर के नीचे वाले हिस्से या मलद्वार के ठीक ऊपर रीढ़ की हड्डी में हो सकता है। 
अगर महिला के किसी बच्चे में इस तरह की विकृतियाँ हुयी हैं तो भविष्य में गर्भधारण होने की स्थिति में वे फाॅलिक एसिड की गोलियों का सेवन किसी स्त्राी रोग विशेषज्ञ की सलाह से आरंभ कर सकती हैं। इससे होने वाले बच्चे में जन्मजात विकृतियाँ होने की आशंका कम होती है। अध्ययनों से यह पाया गया है कि फाॅलिक एसिड की गोलियों के सेवन से जन्मजात विकृतियाँ होने की आशंका कम हो जाती है। लेकिन फाॅलिक एसिड का सेवन गर्भधारण के तीन महीने पूर्व से लेकर गर्भधारण के तीन महीने बाद तक जारी रखना चाहिये। 
ऐसी किसी विकृति की आशंका होने पर तत्काल योग्य विशेषज्ञ से संपर्क करना जरूरी है क्योंकि इन बीमारियों का जल्द से जल्द निवारण हो जाये उतना अच्छा है। 


लाइलाज नहीं बच्चों में तपेदिक या क्षय रोग

तपेदिक या क्षय रोग की बीमारी एक घातक बीमारी है। बच्चों में यह बीमारी और भी घातक है क्योंकि बच्चे के शरीर के विभिन्न अंग, जिनमें तपेदिक प्रभाव डालती है विकास की अवस्था में होते हैं और इस बीमारी के होने से उनका विकास अवरुद्ध होने की पूरी संभावना होती है। दुर्भाग्यवश यह बीमारी भारतवर्ष में सामाजिक दृष्टि से काफी खराब मानी जाती है। यहाँ तक कि समाज के कुछ वर्गों में इन बीमारी से ग्रसित मरीज का सामाजिक बहिष्कार तक किया जाता है। प्राचीन काल में यह शायद इसलिए होता था क्योंकि इस बीमारी का तब कोई इलाज नहीं था और बीमारी का एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में मुँह से निकले बलगम के द्वारा फैलने का डर रहता था। लेकिन आज इस बीमारी का शत-प्रतिशत इलाज संभव है और इलाज के एक या दो महीने के भीतर ही बीमारी ग्रसित मनुष्य से संक्रमण किसी और को होने का खतरा भी खत्म हो जाता है। इसलिए आज जरूरत है लोगों को शिक्षित करने की ताकि इस बीमारी को भी अन्य संक्रमण के समान ही समझें और इस बीमारी से ग्रसित मरीज का केवल इलाज ही सही ढंग से न कराएँ, वरन् उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी बरकरार रखें। 
तपेदिक की बीमारी का प्रकोप भारतवर्ष में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में व्याप्त है। एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में तकरीबन 40-50 करोड़ लोग इस बीमारी से ग्रसित हो सकते हैं। इनमें से तकरीबन 3-4 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके मुँह से बलगम आता है तथा इससे यह बीमारी दूसरे लोगों को फैल सकती है। विकासशील देश जैसे भारत इत्यादि में इस बीमारी का खतरा विकसित देशों जैसे अमेरिका इत्यादि की तुलना में 20-25 गुणा ज्यादा है। क्योंकि वयस्क लोगों से ही यह बीमारी बलगम के जरिये बच्चों में भी फैलती है। इसलिए बच्चों में भी इस बीमारी का प्रकोप काफी ज्यादा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार करीब 35 लाख बच्चे तपेदिक से ग्रस्त हैं जबकि तकरीबन एक-दो करोड़ बच्चों में इस बीमारी के होने की संभावना काफी ज्यादा है।
वैसे तो यह बीमारी किसी भी वर्ग या समाज के बच्चे को हो सकती है लेकिन निम्न श्रेणी के बच्चों में इसके होने के आसार ज्यादा हो सकते हैं। 
 1. अति भीड़-भाड़ वाले झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चे
 2. कुपोषण या एनीमिया के शिकार बच्चे
 3. खसरा, काली खाँसी इत्यादि से ग्रसित बच्चे
 4. जिन बच्चों के घर के आसपास किसी वयस्क को बलगम वाली तपेदिक है।
 5. जो बच्चे किसी बीमारी के लिए स्टेराॅयड जैसी दवाईयाँ ले रहे हों।
 6. जिन बच्चों को बी.सी.जी. का टीका न लगा हो।
इस श्रेणी में आने वाले बच्चों की खास देखरेख करने की जरूरत है।
तपेदिक एक बहुत ही गंभीर बीमारी है क्योंकि यह बच्चे के शरीर के किसी भी भाग को प्रभावित कर सकती है। उसी के अनुसार यह निम्न प्रकार की हो सकती हैµ
 1. बच्चों में सबसे सामान्य फेफड़े की तपेदिक है।
 2. दूसरे नंबर पर गले के लिम्फ नोड्स की तपेदिक है।
 3. दिमाग की तपेदिक
 4. पेट की तपेदिक
 5. हड्डियों की तपेदिक
 6. इसके अलावा कभी-कभी तपेदिक अन्य अवयव जैसे यूरिनरी सिस्टम(गुर्दे एवं उससे संबंधित अवयव), हृदय की माँसपेशियाँ इत्यादि पर भी असर डालती है। एक तरह से यह बीमारी शरीर के किसी भी हिस्से पर प्रभाव डाल सकती है।
बच्चों में तपेदिक बीमारी का शक कुछ लक्षणों के आधार पर किया जा सकता है। इन लक्षणों का दो भागों में अध्ययन किया जा सकता है। 
 सामान्य लक्षण- जैसे बच्चे की भूख कम हो जाना, बच्चे को हल्का बुखार रहना, बच्चे का विकास रुक जाना इत्यादि
 विशेष लक्षण- ये लक्षण बच्चे के विभिन्न भागों पर प्रभाव के कारण हो सकते हैं जैसे-
 1. फेफड़े की तपेदिक में बच्चे के साँस का तेज चलना इत्यादि, कुछ बच्चों में खाँसी हो सकती है। लेकिन इसमें बलगम नहीं आता है। इसलिए बच्चे के फेफड़े की तपेदिक से दूसरे लोगों को संक्रमण नहीं हो सकता है। 
 2. गले के लिम्फ नोड की तपेदिक में बच्चे के गले के ऊपर बड़ी-बड़ी गिल्टियाँ निकल आती हैं। ये गिल्टियाँ आपस में जुड़ भी सकती है। कभी-कभी इन गिल्टियों में मवाद आने से ठण्डा फोड़ा(कोल्ड एबसेस) बन सकता है। 
 3. दिमाग की तपेदिक एक भयंकर बीमारी है। इसमें बच्चे को बेहोशी व दौरे आ सकते हैं। इसका जल्द से जल्द इलाज करना चाहिए अन्यथा इसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। 
 4. पेट की तपेदिक में बच्चे के पेट में पानी आने से पेट फूल सकता है। बच्चे को आँत की तपेदिक होने पर आँत में रुकावट हो सकती है जिससे बच्चे को बार-बार पेट में दर्द होना, उल्टी होना, शौच का रूक जाना इत्यादि हो सकता है। इसका जल्द से जल्द इलाज जरूरी है अन्यथा आँत के फटने का डर रहता है। 
 5. हड्डी की तपेदिक में सबसे प्रमुख रीढ़ की हड्डी की तपेदिक है जिससे वहाँ पर कुबड़ापन हो जाता है। इसका जल्द इलाज करने की जरूरत है अन्यथा बच्चे की रीढ़ की हड्डी के अंदर मौजूद स्पाइनल काॅर्ड रोगग्रस्त होने से बच्चे के शरीर के नीचे के भाग जैसेµपैर, पेशाब की ग्रंथि, शौच की ग्रंथि इत्यादि प्रभावित हो सकते हैं। इसके अलावा तपेदिक कूल्हे, घुटने और टखने के जोड़ को प्रभावित कर सकती है जिससे बच्चे के जोड़ों में सूजन आ सकती है और बच्चे को चलने में लंगड़ापन आ सकता है। इस तरह के बच्चों में भी जल्दी जाँच एवं इलाज कराने की जरूरत है अन्यथा यह बीमारी पूरे जोड़ को समाप्त कर सकती है। इसका पता लगाने के लिए आधुनिक परीक्षण जैसे एम.आर.आई. का उपयोग किया जा सकता है। मैंने हड्डी की तपेदिक के तकरीबन 30 से ज्यादा बच्चों का इलाज किया है। इस समय यह सब बच्चे बिल्कुल ठीक हैं। इसमें सबसे प्रमुख बात है किसी जानकार विशेषज्ञ से जल्द से जल्द इलाज कराने की।
 6. अगर किसी बच्चे को बार-बार पेशाब में संक्रमण होता है और यह सामान्य एंटीबायोटिक से ठीक नहीं होता है तो तपेदिक का शक होना जरूरी है।
इस तरह विभिन्न लक्षणों के आधार पर अभिभावकों को सतर्क हो जाना चाहिए तथा तुरन्त किसी विशेषज्ञ से मिलकर जल्द जाँच-पड़ताल और उपयुक्त उपचार कराना चाहिए।
तपेदिक की बीमारी का पता लगाने में कई बार बहुत मुश्किल होती है। इसके लिए बहुत से आधुनिक जाँच-पड़ताल के जरिये, जैसे-तपेदिक के जीवाणु का पी.सी.आर. विधि द्वारा मालूम करना, एलिसा, एफ.एन.ए.सी. और बायोप्सी, एम.आर.आई. और सी.टी. स्कैन आदि उपलब्ध हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतवर्ष में यह सब केवल बड़े अस्पतालों जैसे-आयुर्विज्ञान मेडिकल, अपोेलो अस्पताल आदि में ही उपलब्ध है। इन्हीं आधुनिक जाँच-पड़ताल के जरिये मैंने अपोलो अस्पताल में बहुत से पेट, हड्डी और दिमाग की तपेदिक(खासकर ट्यूबरकुलोमा) के बच्चों का प्रारंभिक अवस्था में ही पता लगाया है और इससे इसका सफल इलाज संभव हो सका क्योंकि अगर बीमारी का पता लगाने में जरा भी देर होती है तो इससे बीमारी के बढ़ने का खतरा होता है और तब इसका सफल इलाज संभव नहीं होता।
तपेदिक की बीमारी की रोकथाम के लिए भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रम चला रखे हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इसमें बच्चों की तपेदिक के बारे में कोई प्रभावपूर्ण कदम नहीं है। मेरा मानना है कि जब तक समाज का हर सदस्य इस बीमारी से लड़ने में सहयोग नहीं देगा तब तक इसे जड़ से खत्म करना मुश्किल है। अगर निम्न बातों पर ध्यान दिया जाए तो बच्चों में तपेदिक के रोग को काफी हद तक कम किया जा सकता है-
 1. हर बच्चे को जन्म के तुरन्त बाद बी.सी.जी. का टीका लगवाया जाए। 
 2. बच्चे की नियमित जाँच-पड़ताल किसी स्वास्थ्य केंद्र या बाल रोग विशेषज्ञ से करानी चाहिए ताकि बच्चा एनीमिया या कुपोषण का शिकार न हो सके। बच्चे को सभी जरूरी टीके जैसे-काली खाँसी, खसरा इत्यादि समय पर लगवाने चाहिए क्योंकि इन सब बीमारियों के होने पर बच्चे की प्रतिरक्षण क्षमता कम हो जाती है जिससे उस पर तपेदिक के जीवाणु के हावी होने के आसार बढ़ जाते हैं। 
 3. चूंकि सामाजिक रूप से यह एक खराब बीमारी मानी जाती है इसलिए अभिभावक इसे किसी से भी छुपाकर रखते हैं जिससे बच्चे के तपेदिक के इलाज में देर होती है। इसी कारण तपेदिक ग्रस्त वयस्क लोगों के बलगम से इस बीमारी का बच्चों में फैलने की भी संभावना बनी रहती है। अगर इसका जल्द इलाज किया जाए तो बलगम एक-दो महीने के अंदर कीटाणुरहित हो जाता है जिससे इसके दूसरे लोगों में फैलने के आसार कम होंगे।
 4. इस बीमारी का इलाज लंबे समय(6-12 माह) तक चलता है। लेकिन बहुत से अभिभावक इसका इलाज 2-3 माह के बाद (जब बच्चा कुछ ठीक लगने लगता है) ही अपने आप से बंद कर देते हैं। इससे बीमारी कुछ अंतराल के बाद फिर आ जाती है। इस तरह के तपेदिक के जीवाणु तपेदिक की सामान्य दवाईयों से प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर लेते हैं और तब इसका ठीक होना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर ऐसा व्यक्ति बलगमी खाँसी वाला है तो वह लंबे समय तक तपेदिक के जीवाणु समाज के अन्य सदस्यों को फैलाता रहेगा। इसलिए जरूरत है इस बीमारी का पूरी लगन से इलाज करने की- न केवल अपने बचाव के लिए वरन् समस्त समाज के हित हेतु।
 5. बच्चों को अधिक भीड़-भाड़ वाले और अधिक नमी वाले स्थान में (जहाँ धूप के दर्शन ही न हों ) नहीं रखना चाहिए।
बच्चों में तपेदिक के इलाज के लिए आजकल काफी अच्छी दवाईयाँ उपलब्ध हैं। लेकिन ये दवाईयाँ किसी विशेषज्ञ की निगरानी में सही समय, सही मात्रा और सही अंतराल में देने की जरूरत है अन्यथा यह बच्चे को नुकसान भी कर सकती है। बच्चे में किसी भी दवा का चयन करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह बच्चे के विकास पर कोई प्रतिकूल असर न डाले। मैंने अपोलो अस्पताल में तपेदिक के 500 से अधिक बच्चों को इलाज किया हैै। जिन बच्चों के अभिभावकों ने बीमारी को गंभीरता से लिया तथा इलाज निर्देशानुसार किया उनमें इलाज सफल रहा तथा बच्चों के विकास पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ये सभी बच्चे बिल्कुल स्वस्थ हैं।


कैसे रखें बच्चे का पेट दुरुस्त

बच्चे के संपूर्ण विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसका पाचन तंत्रा स्वस्थ रहे। पाचन तंत्रा को स्वस्थ बनाने के लिए इसे न केवल बाहरी संक्रमण से बचाने की जरूरत है अपितु उसका खान-पान भी पौष्टिक होना चाहिए। पेट के संक्रमण अक्सर दूषित जल या दूषित खाने की वस्तुओं से होते है। इन संक्रमणों में प्रमुख हैं-बैक्टीरिया (ई. कोलाई, शिजेला, सालमोनेला इत्यादि), प्रोटोजोआ (अमीबा, जीआरडिया इत्यादि), एस्केरिस, पिन वर्म, वायरल (रोटा वायरस) इत्यादि। पेट संक्रमण गंभीर, सामान्य या चिरकालिक रूप में हो सकता है। 
गंभीर पेट संक्रमण के लक्षण पेट में नाभि के आसपास या पूरे पेट में दर्द, उल्टी, दस्त, बुखार इत्यदि हो सकते हैं। सामान्य संक्रमण के लक्षण पेट में हल्का-हल्का दर्द जो बीच में तेज हो जाता है, खट्टी डकार आना, भूख का कम होना, वजन का नहीं बढ़ना, खाने के तुरन्त बाद शौच के लिए जाना इत्यादि है। चिरकालिक संक्रमण के लक्षण हैं-पेट में कभी-कभी बहुत मामूली सा दर्द होना, भूख काफी कम हो जाना, बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में अवरुद्धता, एनीमिया इत्यादि। इस तरह के संक्रमण बच्चे के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकते है क्योंकि एक तो इससे बच्चे के शारीरिक विकास में अवरुद्धता आने से बच्चा बौना रह जायेेगा और दूसरे बच्चे का अगर शारीरिक विकास ठीक नहीं है तो उसका मानसिक विकास भी कुछ पाॅइन्ट कम हो जाएगा। बच्चे को इस तरह के संक्रमण से बचाने के लिए पानी को किसी अच्छे फिल्टर (जैसे-एक्वागार्ड इत्यादि) से साफ करें। खाने-पीने की अन्य वस्तुओं में सफाई का पूरा ध्यान रखें। बच्चे के पेट को दुरुस्त रखने के लिए उसका आहार पौष्टिक होना चाहिए। इसमें आवश्यक मात्रा में प्रोटीन, विटामिन 'बी' काॅम्प्लेक्स, आयरन एवं मिनरल होने चाहिए। इसके लिए शाकाहारी बच्चे को दूध या उसकी बनी चीजें जैसेµसूजी, साबूदाना या चावल की खीर, दाल या उसकी बनी चीजें जैसे हलुआ, चीला, पकौड़ी, फल एवं हरी सब्जियाँ जैसे पालक, लौकी, तोरई, टिंडा इत्यादि तथा माँसाहारी बच्चे को अंडा, चिकन, मछली इत्यादि दे सकते हैं। बाजार में मिलने वाले फास्ट फूड जैसेµटाॅफी, चाॅकलेट, भुजिया, नमकीन, बर्गर, पिज्जा इत्यादि एकदम नहीं देना चाहिए क्योंकि ये न केवल बच्चे के पेट के लिए हानिकारक हैं बल्कि यह पौष्टिकता के नाम पर एकदम बेकार भी हैं।


मधुमेहग्रस्त बच्चे बोझ नहीं

मौजूदा समय में हमारे देश में मधुमेह का प्रकोप बच्चों में तेजी से बढ़ रहा है। वैसे तो देश में मधुमेह के मरीजों की संख्या अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है लेकिन बच्चों में मधुमेह का बढ़ता प्रकोप गंभीर चिंता का विषय है। एक अनुमान के अनुसार भारत में अगले दशक में मधुमेह का प्रकोप विश्व भर में सबसे अधिक होने की आशंका है। इसका मुख्य कारण खान-पान और रहन-सहन के तौर-तरीकों में बदलाव आना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यु.एच.ओ.) का आकलन है कि सन् 2010 तक मधुमेह रोगियों की संख्या विश्व भर में सबसे अधिक होगी। दिल्ली मधुमेह अनुसंधान केन्द्र (डी.डी.आर.सी.) के केवल राजधानी दिल्ली में इस समय 10 से 15 लाख लोग मधुमेह से ग्रस्त हैं। उनके अनुसार दिल्ली में मधुमेह के इतने मरीज और होंगे लेकिन जागरुकता एवं जानकारी के अभाव में वे अपने रोग से बेखबर हैं। 
लेकिन अपने देश में बच्चों में मधुमेह (जुवेलाइन डायबेटिक) का बढ़ता प्रकोप एक गंभीर खतरा है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में हर एक हजार बच्चों में दो बच्चे मधुमेह से पीड़ित हैं। केवल दिल्ली में चार से पाँच हजार बच्चे मधुमेह के मरीज हैं। दिल्ली में इतने और बच्चे मधुमेह पीड़ित होंगे लेकिन न तो उनमें रोग का पता चला है और न ही उनका किसी तरह का उपचार हो रहा है। मधुमेह के वैसे मरीजों को जिनके रोग का पता नहीं चला है, टाइप-1 डायबेटिक कहा जाता है और इनकी संख्या मधुमेह के कुल मरीजों की संख्या का 10 प्रतिशत है।
मधुमेहग्रस्त बच्चों के माता-पिता को अत्यंत तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ता है। ये माता-पिता समाज में अपने बच्चे के रोग का भेद नहीं खोलना चाहते क्योंकि उन्हें भय होता है कि अगर लोगों को उनके बच्चे के रोग के बारे में पता चल गया तो उनके बच्चे को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलेगी। निश्चय ही ऐसे बच्चे का पालन-पोषण एवं देखभाल अत्यंत जिम्मेदारी एवं चुनौती भरा कार्य है। लेकिन ऐसे बच्चों को बोझ मानना या अन्य बच्चों से कम करके आँकना मधुमेहग्रस्त बच्चों के साथ अन्याय है क्योंकि ये बच्चे किसी भी मायने में अन्य बच्चों से उन्नीस नहीं होते हैं। ये बच्चे भी भविष्य में अपना, अपने परिवार एवं देश का नाम रौशन कर सकते हैं बशर्ते परिवार एवं समाज के लोग इन बच्चों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखें। लोगों को यह समझ लेना चाहिये कि मधुमेह पीड़ित बच्चे की क्षमतायें दूसरे बच्चों की तुलना में किसी भी तरह से कम नहीं होतीं। ऐसे बच्चों के पालन-पोषण एवं विकास में माता-पिता के साथ-साथ पूरे परिवार, समाज एवं स्कूल का महत्वपूर्ण योगदान होता है। बच्चे के माता-पिता के लिये यह आवश्यक है कि वे स्कूल के अध्यापकों से बच्चे की बीमारी के बारे में नहीं छिपायें बल्कि उन्हें इस बात से अवगत करायें कि उनके बच्चे की क्या विशेष जरूरतें हो सकती हैं और संकट के समय में क्या करना जरूरी होगा।
बच्चों में मधुमेह की शुरूआत अक्सर अचानक ही होती है। सहसा अधिक प्यास लगने लगती है, भूख बहुत बढ़ जाती है और वजन घटने लगता है। बच्चे बार-बार मूत्र त्याग करते हैं। अगर माता-पिता इन्हीं लक्षणों के उभरने पर बच्चे का सही इलाज आरंभ कर दें तो बाद में बच्चे को कोई खास दिक्कत नहीं होती लेकिन कई बच्चों में मधुमेह का पता तब चलता है जब मधुमेह के कारण बच्चा बेहोश हो जाता है या शरीर में कोई गंभीर संक्रमण हो जाता है।
बच्चों में मधुमेह कई कारणों से होते हैं जिनमें विषाणुओं का संक्रमण, रोग प्रतिरक्षण प्रणाली में गड़बड़ी और आनुवांशिक गड़बड़ियाँ प्रमुख हैं। इन कारणों से अग्न्याशय में स्थित इंसुलीन बनाने वाली पैंक्रियाज ग्रंथि नष्ट हो जाती है जिससे शर्करा को पचाने वाली इंसुलीन की या तो कमी हो जाती है या इसका बनना बंद हो जाता है। शरीर में इंसुलीन के कम होने या नहीं होने पर शर्करा पच नहीं पाता और बिना पचे मूत्रा के रास्ते शरीर से बाहर निकल जाता है। इससे शरीर की कोशिकाओं को ग्लूकोज नहीं मिल पाता है। शरीर काम के लिये आवश्यक ऊर्जा नहीं जुटा पाता और बच्चा हमेशा थका-थका रहता है।
अभी तक मधुमेह का कोई स्थायी उपचार विकसित नहीं हो पाने के कारण मधुमेहग्रस्त बच्चे को ताउम्र इंसुलीन के टीके लेने होते हैं जिसकी मात्रा उम्र के हिसाब से तय होती है। इसके अलावा खान-पान में सावधानियाँ बरतनी पड़ती है। मधुमेह ग्रस्त बच्चे इंसुलीन के टीके लेकर तथा खान-पान संबंधी एहतियात बरत कर सामान्य बच्चों की भाँति पढ़ाई-लिखाई एवं खेल-कूद जैसी हर गतिविधियों में भाग ले सकते हैं। लगन एवं मेहनत की बदौलत कई बच्चों ने विभिन्न क्षेत्रों में शानदार कामयाबियाँ पायी है और कीर्तिमान स्थापित किया है।
मधुमेह से ग्रस्त बच्चों के साथ दो संकटमय स्थितियाँ पैदा हो सकती है अतः माता-पिता एवं शिक्षकों को इनके बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिये। पहली स्थिति में रक्त शक्कर की मात्रा घटने से बच्चा हाइपोग्लाइसीमिया में जा सकता है। यह स्थिति अधिक मात्रा में इंसुलीन लेने या समय पर भोजन नहीं करने के परिणाम से उत्पन्न होती है। ऐसे में बच्चे का चेहरा पीला पड़ जाता है, उसे अचानक बहुत कमजोरी महसूस होने लगती है, तेज भूख लगती है, पसीना अधिक आता है, दिल की धड़कन बहुत तेज हो जाती है, बदन काँपने लगता है तथा चक्कर आने लगता है। इस संकट से बच्चे को बचाने के लिये उसे तुरन्त शक्करयुक्त मीठी चीज देना जरूरी होता है। इससे आम तौर पर बच्चे की स्थिति कुछ ही मिनटों में सुधर जाती है। लेकिन अगर 10-15 मिनट में आराम नहीं हो तो बच्चे को तत्काल चिकित्सक के पास ले जाना चाहिये। हाइपोग्लाइसीमिया की गंभीर स्थिति में बच्चा बेहोश हो सकता है। ऐसे में बच्चे को किसी अस्पताल की इमरजेंसी में ले जाना चाहिये।
मधुमेह के बच्चे के साथ दूसरी गंभीर अवस्था डायबिटिक कीटो-एसिडोसिस है। इस अवस्था में रक्त शक्कर बहुत अधिक बढ़ जाता है, शरीर में जैव-रासायनिक असंतुलन पैदा हो जाता है, मूत्रा में शर्करा के साथ कीटोन भी जाने लगता है, शरीर में पानी की कमी हो जाती है और रक्त में अम्ल का स्तर बढ़ जाता है। यह स्थिति उपचार के एहतियात का ठीक से पालन नहीं करने या कोई गंभीर संक्रमण हो जाने पर पैदा होती है। इस स्थिति में बच्चे को प्यास बहुत लगती है, बार-बार पेशाब होता है, पेट में दर्द उठता है, जी मिचलाता है, उल्टी हो सकती है, मुँह सूख जाता है, सांस तेज हो जाती है और साँस से सड़े फल जैसी बदबू आती है और नब्ज कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति होने पर बच्चे को तत्काल चिकित्सक के पास ले जाना चाहिये।


बच्चों में गुर्दे की बीमारियाँं 

बहुत से लोेेग सोचते हैं कि गुर्दे से संबंधित बीमारियाँ केवल बड़ों को होती हैं। लेकिन एक सर्वेक्षण के अनुसार 10 फीसदी बच्चे 18 वर्ष की उम्र तक गुर्दे या मूत्रा प्रणाली की किसी बीमारी से ग्रस्त हो सकते हैं। ये बीमारियाँ संक्रमण के कारण पैदा होती हंै। कई बार बीमारी जन्मजात भी हो सकती है। गुर्दे और मूत्रा प्रणाली से संबंधित जो बीमारियाँ बच्चों को होने की आशंका काफी रहती है, उनमें नेफ्रोटिक सिंड्रोम, मूत्रा प्रणाली में संक्रमण, पोस्ट स्ट्रेप्टोकोकल ग्लोमेरुलो नेफ्राइटिस और गुर्दे की पथरी प्रमुख हैं।
नेफ्रोटिक सिंड्रोम
लक्षण- चेहरे पर सूजन, जो बाद में पूरे शरीर पर फैल सकती है, बच्चे द्वारा पेशाब कम करना, रक्तचाप बढ़ना, फेफड़े व पेट आदि में पानी जमा होने से पैदा लक्षण।
उम्र- सामान्यतः दो से छह वर्ष के बच्चों को।
प्रभाव- शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में कमी, जिसके चलते संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
कारण- स्वतः या कोई संक्रमण, जैसेµखाँसी, जुकाम, दस्त, बुखार आदि में गुर्दे का जन्मजात दोष उत्तेजित हो जाना।
सावधानी- उचित इलाज कराने वाले 70 फीसदी बच्चे पूरी तरह ठीक हो जाते हैं जबकि बाकी 30 फीसदी को छह माह से साल भर के बीच यह बीमारी दोबारा हो सकती है। लिहाजा साल भर बहुत ही सावधानी बरतने की जरूरत है, जिससे दोबारा संक्रमण नहीं हो।
संभावित अनिष्ट- उचित इलाज नहीं होने या बार-बार यह बीमारी होने पर गुर्दे काम करना बंद कर सकतेे हैं। 
मूत्र प्रणाली का संक्रमण
लक्षण- बच्चे की भूख कम हो जाना, पेशाब करते समय जलन होना, पेशाब में खून आना, पेट में नाभि के निचले हिस्से में हल्का दर्द रहना, हल्का या कभी-कभी तेज बुखार आना, शारीरिक व मानसिक विकास रुक जाना।
सावधानी- अभिभावकों द्वारा ठीक तरह से देखभाल करने और गंभीरता से इलाज कराने पर यह बीमारी पूरी तरह ठीक हो जाती है, लेकिन इसमें चूक होने पर शल्य चिकित्सा की नौबत आ सकती है।
संभावित अनिष्ट- पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों, खासकर लड़कों में यह संक्रमण होने पर उचित इलाज के बावजूद मूत्रा-प्रणाली में विकार आ सकता है। इन विकारों का समय पर इलाज नहीं हो तो यह गुर्दा खराब होने का कारण बन सकता है। 
पोस्ट स्ट्रेप्टोकोकल नैफ्राइटिस
लक्षण- बुखार, खाँसी, नाक बहना या फोड़ा-फुंसी आदि होना, खाँसी-जुकाम आदि ठीक होने पर भी बुखार का बना रहना, भूख कम होना, चेहरे पर सूजन, पेशाब में हल्का खून आना, रक्तचाप बढ़ने से सिरदर्द, बेहोशी व दौरे पड़ना।
संभावित अनिष्ट- गुर्दे खराब हो सकते हैं, रक्तचाप ज्यादा बढ़ने पर दिमाग की नस फट सकती है।
गुर्दे की पथरी
लक्षण- पेट के ऊपरी व बाहरी हिस्से में और कभी-कभी जाँघ की तरफ दर्द, पेशाब करते समय दर्द, पेशाब करते समय जननाँग को हाथ से खींचना।
शुरुआती उपचार- बच्चे को खूब पानी पिलाएँ, छोटी पथरी पेशाब के रास्ते बाहर निकल जाएगी।
संभावित अनिष्ट- उचित इलाज नहीं होने पर गुर्दा खराब हो सकता हैै। 


खतरनाक हो सकती है बच्चों में एनीमिया की अनदेखी 

बच्चों में खून की कमी या एनीमिया (रक्ताल्पता) काफी खतरनाक समस्या है। इससे उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है। एनीमिया के शिकार बच्चों के वजन और लंबाई में वृद्धि रूक जाती है। वे पढ़ाई-लिखाई से दूर भागना शुरू कर देते हैं। ज्यादातर माता-पिता यह नहीं समझ पाते हैं कि बच्चा रक्ताल्पता की वजह से ऐसा व्यवहार कर रहा है जबकि बहुत से माता-पिता जानते हुए भी एनीमिया को गंभीरतापूर्वक नहीं लेते हैं।
सामान्यता यदि किसी बच्चे का हीमोग्लोबिन 12 ग्राम से कम है तो इसे एनीमिया कहा जाएगा। लेकिन बच्चे में एनीमिया के लक्षण हीमोग्लोबिन के 12 ग्राम के स्तर से नीचे आने के पहले ही दिखने लगते हैं। इसका कारण यह है कि शरीर की अन्य कोशिकाओं में लौह तत्व की कमी पहले होती है। बच्चे की भूख में कमी, वजन व लंबाई में वृ़िद्ध रूक जाना, चिड़चिड़ापन, पढ़ाई में मन न लगना आदि एनीमिया के लक्षण हैं। एनीमिया होने पर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाती है, जिससे बच्चे में न्यूमोनिया, पेट के संक्रमण, टाइफाइड आदि जल्दी-जल्दी होते हैं। अगर हीमोग्लोबिन पाँच ग्राम के स्तर से कम हो गया है, तो बच्चे का दिल सही तरह से काम करना बंद कर सकता है। अपने देश में एनीमिया केवल गरीबों के बच्चों में ही नहीं, संपन्न परिवारों के बच्चों में भी आम बात है। एक सर्वेक्षण के अनुसार तकरीबन 30-40 प्रतिशत बच्चों को एनीमिया होता है। इनमें से तकरीबन 5-10 प्रतिशत बच्चों को गंभीर एनीमिया (पाँच ग्राम के स्तर से कम हीमोग्लोबिन) होता है।
वैसे तो एनीमिया के कई प्रकार हैं, लेकिन अपने देश में दो तरह का एनीमिया सबसे ज्यादा होता है-लौह तत्व की कमी या पोषण संबंधी एनीमिया और थेलेसीमिया। एनीमिया के शिकार बच्चों में 90 प्रतिशत से ज्यादा को लौह तत्व की कमी या पोषण संबंधी एनीमिया होता है। अगर बच्चे की खुराक में आयरन व प्रोटीन उपयुक्त मात्रा में नहीं हो, तो बच्चे को इस तरह का एनीमिया हो सकता है। नवजात शिशु के शरीर में आयरन की मात्रा 0.5 ग्राम होती है, जबकि वयस्कों के शरीर में आयरन की मात्रा पाँच ग्राम होती है। इसका तात्पर्य यह है कि नवजात शिशु के वयस्क होने तक उसे लगभग 4.5 ग्राम आयरन की जरूरत पड़ेगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए करीब एक मिलीग्राम आयरन प्रति दिन आँतों से अवशोषित होकर शरीर में पहुँचना चाहिए, क्योंकि खुराक में मौजूद आयरन का केवल 10 प्रतिशत भाग ही आँतों से अवशोषित हो पाता है। इसलिए नवजात शिशु के वयस्क होने तक खुराक में तकरीबन 10 मिलीग्राम आयरन प्रतिदिन होना चाहिए। इसके अलावा खुराक में प्रोटीन की मात्रा भी पर्याप्त होनी चाहिए ताकि शरीर में हीमोग्लोबिन बन सके। हीमोग्लोबिन बनने के लिए आयरन और प्रोटीन, दोनों की आवश्यकता होती है।
बच्चों का रुझान बाजार में मिलने वाले फास्ट फूड, टाॅफी, चाॅकलेट, नमकीन, भुजिया, पिज्जा, शीतल पेय आदि की तरफ ज्यादा रहता है। लेकिन इन खाद्य पदार्थों में प्रोटीन व आयरन बहुत ही नगण्य मात्रा में होते हैं। इस कारण ऐसी चीजें ज्यादा खाने वाले बच्चे एनीमिया का शिकार हो जाते हैं। बच्चे को एनीमिया जैसी खतरनाक बीमारी से बचाने के लिए बाजार में उपलब्ध फास्ट फूड आदि से दूर ही रखना चाहिए। इसके बदले उन्हें घर में उपलब्ध भोजन, जैसे-अनाज, सब्जियाँ, फल, दूध, अंडा आदि उपयुक्त मात्रा में देना चाहिए।
अगर किसी बच्चे को एनीमिया हो गया है तो तुरन्त किसी विशेषज्ञ डाॅक्टर से उसकी जाँच करानी चाहिए, क्योंकि बच्चे को एनीमिया के साथ-साथ कुपोषण, पेट या शरीर के किसी अन्य हिस्से में संक्रमण, रिकेट्स (हड्डियों की बीमारी) आदि की शिकायत भी हो सकती है। साथ ही, बच्चे को आयरन व बी-काॅम्पलेक्स की कितनी मात्रा दी जाए, यह उसके वजन पर निर्भर करता है और इनकी उचित मात्रा डाॅक्टर ही बता सकता है। बच्चे की खुराक में प्रोटीनयुक्त खाद्य पदार्थ भी उपयुक्त मात्रा में होने चाहिए। शुरू में बच्चे की भूख एनीमिया की वजह से काफी कम होती है, इसलिए बच्चे को भूख लगने के लिए कोई दवा भी दी जा सकती है। सामान्यतया बच्चे को ठीक होने में छह माह से लेकर एक वर्ष तक लग सकता है। इसलिए माता-पिता को इस दौरान काफी सब्र रखने की जरूरत होती है। मैंने अपोलो अस्पताल में एनीमिया के शिकार करीब 30-35 ऐसे बच्चों को देखा है जिनकी लंबाई उम्र के अनुपात में करीब 10-15 सेंटीमीटर कम और वजन करीब 4-6 किलोग्राम कम था। उपयुक्त इलाज करने के छह माह से एक वर्ष के भीतर बच्चे की लंबाई और वजन उम्र के अनुपात में आ गया। इसलिए अगर एनीमिया से पीड़ित किसी बच्चे का समय से इलाज नहीं कराया गया तो उसकी लंबाई जितनी संभव हो सकती है, उसमें 15-20 सेंटीमीटर कम रह जा सकती है।
एनीमिया की दूसरी सामान्य वजह थेलेसीमिया है। यह आनुवांशिक बीमारी है जिसमें हीमोग्लोबिन बनने की प्रक्रिया ही दोषपूर्ण हो जाती है। थेलेसीमिया में सबसे प्रमुख है बीटा थेलेसीमिया, जिसमें हीमोग्लोबिन की बीटा चेन में गड़बड़ी होने की वजह से थेलेसिमिया हो जाती है।
पूरे विश्व में करीब 18 करोड़ लोग बीटा थेलेसीमिया जीन के वाहक हैं। इनमें से करीब 2.5 करोड़ लोग भारत में हैं। प्रति वर्ष विश्व में करीब एक लाख और भारत में करीब 8000 थेलेसीमिया ग्रस्त बच्चे पैदा होते हैं। साइप्रस को छोड़कर पूरे विश्व में यह बीमारी व्याप्त है। भारत में उत्तर पूर्वी राज्यों में यह बीमारी प्रमुख रूप से होती है।
इस बीमारी से बच्चे में एनीमिया के लक्षण पाँच-छह माह की उम्र से ही प्रकट होने लगते हैं। इसका पता एचबी इलेक्ट फोरेसिक या पीसीआर से लगाया जाता है। इस बीमारी का जितनी जल्दी पता लग सके, उतना ही बेहतर रहता है। इसके इलाज में बच्चे को नियमित रूप से खून चढ़ाना पड़ता है, ताकि उसका हीमोग्लोबिन स्तर 10 ग्राम के स्तर के आसपास बना रहे और एनीमिया के चलते उसके शरीर या किसी अंग को नुकसान न हो। ऐसे बच्चे को हर 3-4 सप्ताह पर खून की आवश्यकता होती है। खून अच्छे केंद्र से ही लेना चाहिए, क्योंकि जो खून चढ़ाया जा रहा है वह पूरी तरह जाँचा-परखा होना चाहिए।
नियमित रूप से खून चढ़ाने पर बच्चों के शरीर में आयरन की मात्रा ज्यादा हो जाती है। शरीर में जरूरत से ज्यादा आयरन हो जाना भी नुकसानदेह होता है। आयरन की मात्रा जाँचने के लिए हर तीन महीने पर सीरम फेरेटिन जाँच करनी पड़ती है। यदि इस जाँच से पता चलता है कि शरीर में आयरन आवश्यकता से अधिक है तो अतिरिक्त आयरन को शरीर से निकालने के लिए उपचार करना पड़ता है। थेलेसीमिया से ग्रस्त बच्चे में आयरन की मात्रा अधिक होने से रोकने के लिए अंडे की जर्दी, पालक आदि चीजें नहीं दी जाती है। जिसमें आयरन ज्यादा होता है ऐसे बच्चे को ज्यादा चाय पिलानी चाहिए क्योंकि इसमें मौजूद टेनिन आँतों से लौह तत्व अवशोषित कर लेता है। दिल्ली में थेलेसीमिया बीमारी के उपचार के कई अच्छे केंद्र हैं, जैसे कलावती अस्पताल, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, गंगाराम अस्पताल व अपोलो अस्पताल। अपोलो अस्पताल में ऐसे बच्चों के लिए एक विशेष पैकेज की व्यवस्था है।
थेलेसीमिया के उपचार के लिए मैरो ट्राँसप्लांटेशन पद्धति भी अपनाई जाती है। इसमें बोन मैरो कोशिकाओं की जरूरत पड़ती है। इस पद्धति में एचएल टाइपिंग की जाती है। माता-पिता या भाई-बहन से ही संभव भविष्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग की संभावना तलाशी जा रही है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक 30-40 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से ग्रस्त होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि केवल गरीबों के बच्चों को यह रोग होता है। संपन्न घरों के बच्चे भी खानपान की गलत आदतों के कारण इसके शिकार हो जाते हैं। खास बात यह है कि इस रोग का पूरी तरह इलाज संभव है, लेकिन दूसरी ओर इसे नजरअंदाज करने के नतीजे खतरनाक हो सकते हैं। 
खून की कमी हैै 


बच्चों की सामान्य बीमारियाँ

बच्चों में रोजमर्रे की बीमारियाँ अधिकतर बैक्टीरिया या वायरस के जरिये होती हैं। इनके प्रमुख लक्षणों में बुखार, खाँसी, दस्त, शरीर में फोड़े-फुंसी का निकलना, पेशाब में जलन इत्यादि शामिल है। इन समस्याओं के होने पर बच्चे को किसी अच्छे विशेषज्ञ से दिखाना चाहिये ताकि समय रहते उसका उपचार किया जा सके।
वाइरस जनित रोग
खसरा माता (मीजिल्स)
यह संक्रमण रोग बच्चों में सबसे अधिक होता है एवं मृत्यु और स्वास्थ्य क्षीणता का एक प्रमुख कारण है। इसके होने के बाद बच्चों को क्षयरोग एवं कुपोषण होने के अधिक अवसर होते हैं। यह मीजिल्स वायरस के द्वारा होता है। यह छींकने, खाँसने आदि के समय एक दूसरे में सीधे अथवा अन्य माध्यमों से रोगी से स्वस्थ बच्चों में लग जाता है। इसमें रोगी बच्चे को पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ देना चाहिए और पौष्टिक खुराक देना चाहिए ताकि बच्चे को कुपोषण न हो। दूध, फलों का रस आदि भी पर्याप्त मात्रा में देना चाहिए। किसी अच्छे विशेषज्ञ से बच्चे को दिखाना चाहिए ताकि रोग का उचित इलाज कराया जा सके। बच्चे का भोजन बंद करना, बच्चे को नहलाना बंद करना, बच्चे को झाड़-फूंक कराना इत्यादि से बचना चाहिए। इस रोग से बचाव के लिए बच्चे को 9-12 माह की उम्र के बीच रोग प्रतिरोधक टीका (मीजिल्स वैक्सीन) एक बार अवश्य लगवाना चाहिए।
जर्मन मीजिल्स (रुबैला)
यह मीजिल्स की तुलना में कम संक्रामक है। इसके प्रमुख लक्षण कान के पीछे की लसिका ग्रंथियों में सूजन आना है। इसमें बुखार और पूरे शरीर पर दाने आ जाते हैं। तीन दिन में ये दाने समाप्त हो जाते हैं। गर्भवती माताओं को अगर प्रथम या द्वितीय माह में यह रोग हो तो उसके शिशु में विभिन्न प्रकार के जन्मजात रोग और संरचना त्राुटि होती है। इसको कन्जैनाइटिल रूबैला सिंड्रोम कहते हैं जिसका कोई विशिष्ट उपचार नहीं है। बच्चे को 15 माह की उम्र में एम.एम.आर. का टीका लगावाने से इस रोग से बचाव किया जा सकता है। 
कनफेड (मम्प्स)
यह वायरस से होने वाला संक्रमण है। इस रोग में कर्ण पूर्ण ग्रंथियों (पेरोटिड) में सूजन हो जाती है। इसके अलावा अन्य लार ग्रंथियों में भी सूजन आ सकती है। रोग जटिल होने पर पुरुषों को वृषण शोथ हो सकता है। इसमें पुरुषों के अंडकोषों में असहनीय दर्द होता है और उसमें सूजन आ जाती है, तेज बुखार हो जाता है और अपुष्टि (टेस्टीकुलर एट्रोफी) के कारण बंध्यपन हो जाती है। यह विशेष रूप से ठंड और बसंत में होता है एवं शहरों में गाँवों की अपेक्षा अधिक होता है। बच्चे को 15 माह की उम्र में एम.एम.आर. (मीजिल्स, मम्प्स, रूबैला) का टीका लगवाने से इस रोग से बचाव होता है। 
चिकिन पाॅक्स या छोटी माता (वेरीसैला)
यह हरपीज वायरस वैरीसैला से होने वाला संक्रामक रोग है। इसके जीवाणु श्वास नली के द्वारा शरीर में प्रवेश करते हैं और विभिन्न अंगों में रोग पैदा करते हैं। प्रारंभ में बुखार, सिर दर्द, शरीर दर्द और मामूली ठंड लगती है और यह 24 घण्टे तक रहता है। इसके बाद त्वचा में दाने दिखाई देते हैं और खुजली होती है। दाने धड़ में होते हैं तथा चेहरे में कम और हथेली तथा तलवे में नहीं होते हैं। रोग जटिल होने पर बैक्टीरिया संक्रमण, पूरे शरीर में संक्रमण (सेप्टीसीमिया), जोड़ों का दर्द (आर्थराइटिस), फेफड़े में सूजन (न्यूमोनिया) या मस्तिष्क में सूजन (इन्कैफेलाइटिस) हो सकता है। 
पीलिया (वायरल हेपेटाइटिस)
यकृत को प्रभावित करने वाला यह प्रमुख वायरस रोग है। यह दो प्रकार का होता हैµइन्फैक्टिव हेपेटाइटिस और सीरम हेपेटाइटिस। इंफैक्टिव हेपेटाइटिस में वायरस भोजन और पानी के द्वारा जबकि सीरम हेपेटाइटिस में खून चढ़ाने या इंजेक्शन आदि से रोगी के शरीर में पहुँचते हैं। इन रोगियों के रक्त में आस्टोलिया एन्टीजेन पाया जाता है। इसमें प्रारंभ में रोगी को बुखार आता है, भूख कम हो जाती है, जी मिचलाता है और उल्टी भी हो सकती है, साथ में सिरदर्द और पेट दर्द भी हो सकता है। इसके बाद यकृत बढ़ जाता है, आँखों में पीलापन दिखाई देने लगता है, फिर बुखार आदि ठीक होने लगता है। पेशाब पीली आती है, मल का रंग बदल जाता है, कभी-कभी तिल्ली बढ़ जाती है। यह 3-4 सप्ताह में ठीक हो जाता है। रंग बढ़ते जाने पर यकृत फेल हो सकता है। इसका कोई विशेष उपचार नहीं है। रोगी को पूर्ण विश्राम (बेड रेस्ट) करना चाहिए। भोजन में अधिक कार्बोहाइड्रेट जैसेµग्लूकोज, गन्ने का रस, शहद आदि देना चाहिए। कम से कम चर्बी खाना चाहिए और घी, चिकनाई, तेल आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। समय-समय पर योग्य चिकित्सक से परामर्श करते रहना चाहिए।
मस्तिष्क शोथ या मस्तिष्क ज्वर (एन्केफैलाइटिस)
यह रोग प्रायः जापानीज-बी वाइरस के द्वारा होता है। यह कोकसकी, इको, पोलियो वायरस, हरपीज, इंफ्लुएंजा, खसरा और जर्मन मीजिल्स वायरस से भी होता है। इस रोग में मस्तिष्क में संक्रमण के कारण सूजन आ जाती है। यह रोग धीरे-धीरे या अचानक हो सकता है। पहले रोगी को बेचैनी रहती है, उसके बाद सुस्ती और बेहोशी आ जाती है। मस्तिष्क में श्वसन केन्द्र प्रभावित होने के कारण श्वसन तेज हो जाता है और उसके बाद अनियमित हो जाता है। इसके अलावा शरीर में अर्द्ध पक्षाघात या क्रेनियल नर्व्स का लकवा भी हो जाता है। अगर स्पाइनल कार्ड प्रभावित है तो पेशाब रुक जाती है और दोनों पैरों में लकवा हो सकता है व झटके आ सकते हैं। 
पोलियो
यह रोग बच्चों में विकलाँगता का प्रमुख कारण है। यह रोग पोलियो वायरस स्ट्रेन 1, 2, 3 के द्वारा होता है। इस रोग में पक्षाघात लकवा से लेकर मृत्यु तक संभव है। यह रोग विश्व के सभी देशों में होता है और 2 वर्ष से 80 वर्ष के उम्र के बच्चे इससे अधिक प्रभावित होते हैं। रोगाणु मुँह से साँस के द्वारा शरीर में पहंचते हैं। आँतों की अंदर की झिल्ली और लसिका ग्रंथियों में वृद्धि करके ये रक्त में पहुँचते हैं जहाँ तंत्रिका तंत्रा (सी.एन.एस.) में जाकर रोग पैदा करते हैं।
जुकाम (काॅमन कोल्ड)
यह प्रायः वायरस के कारण होता है। इसमें श्वसन तंत्रा के ऊपरी भागों में सूजन आ जाती है। नाक बहती है, पहले स्राव पानी जैसा आता है जो बाद में म्यूकस की तरह हो जाता है। रोग बढ़ने पर बुखार, बदन दर्द और भूख कम हो जाती है एवं स्राव को निगलने के कारण दस्त हो सकते हैं। इसमें पानी की भाप बहुत लाभदायक होती है। बुखार होने पर पैरासिटामोल देना चाहिए।
बैक्टीरिया जनित रोग
न्यूमोनिया
यह रोग प्रायः बैक्टीरिया, वायरस एवं फंगस के कारण होता है। कभी-कभी फेफड़े में उल्टी, मिट्टी का तेल आदि जाने से भी हो सकता है। यह रोग प्रायः अचानक प्रारंभ होता है। कंपकंपी के साथ तेज बुखार, खाँसी और साँस लेने में तकलीफ होती है। कभी-कभी छाती में दर्द हो सकता है, उल्टी और दस्त अथवा झटके भी आ सकते हैं एवं नीलापन भी हो जाता है। न्यूमोनिया का संदेह होने पर तुरन्त योग्य चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए।
मेनिनजाइटिस
मस्तिष्क और स्पाइनल कार्ड के चारों ओर की झिल्ली में संक्रमण को मेनिनजाइटिस कहते हैं। यह दो तरह के होते हैंµपायोजेनिक तथा एसेप्टिक मेनिनजाइटिस। पायोजेनिक मेनिनजाइटिस बैक्टीरिया के द्वारा होती है और यह रोग अचानक होता है। इसमें रोगी को तेज बुखार, मिचली, उल्टी और भूख की कमी के अलावा रोगी को देखने में चकाचैंध लगती है। रोगी को झटके भी आ सकते हैं, बेचैनी बढ़ती है और सिर दर्द होता है। इसमें नवजात शिशु रोगी दूध नहीं पीता। एसेप्टिक मेनिनजाइटिस माइक्रो बैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस, वायरस, फंगस या प्रोटोजोआ के कारण होती है। यह रोग धीरे-धीरे बढ़ता है। रोगी को सुस्ती रहती है, सुस्ती बढ़ती जाती है, बेहोश हो जाता है, गर्दन अकड़ जाती है, दिमाग की नसों के लकवा के कारण आँखें टेढ़ी हो जाती है या उभर जाती है, आवाज लड़खड़ाने लगती है, शरीर अकड़ने के कारण धनुषवत हो जाता है। इसका तुरन्त इलाज कराना जरूरी है। 
बच्चों में क्षय रोग (ट्यूबर कुलोसिस)
यह अत्यंत पुराना और संक्रामक रोग है जो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक बैक्टीरिया के द्वारा फैलता है। यह रोग गाँवों में तथा गरीब व निम्न स्तरीय रहन-सहन वाले वर्गों में अधिक मिलता है। यह रोग रोगी के साथ रहने से फैलता है। रोगी के थूक, मल-मूत्रा, उल्टी या विभिन्न मार्गों से निकले मवाद रोग फैलाने में सहायक होते हैं। यह रोग कुपोषित बच्चों में अधिक मिलता है। आरंभ में बच्चों में यह रोग बिना लक्षण के हो सकता है अथवा हल्का बुखार, थकान, कमजोरी, भूख न लगना, वजन कम होना अथवा शारीरिक वृद्धि में रुकावट आदि लक्षण हो सकते हैं। कुछ बच्चों में खाँसी एक प्रमुख लक्षण हो सकता है। यदि रोग की आरंभिक अवस्था में ही सही इलाज प्रारंभ हो जाए व नियमित इलाज करवाया जाए तो बीमारी का पूर्ण निदान संभव है परंतु देर होने पर वही गंभीर रूप ले लेती है और बच्चे की मृत्यु भी हो सकती है। 
बच्चों में कुष्ठ रोग
कुष्ठ रोग एक विश्वव्यापी रोग है जो माइक्रोबैक्टीरियम लेप्रे नामक जीवाणु के द्वारा होता है। इसके लगभग 25 प्रतिशत रोगी सिर्फ भारत में ही पाए जाते हैं। बच्चों में 4-5 वर्ष की उम्र तक यह अक्सर छिपा रहता है जिसके कारण इसका पता देर से चल पाता है। यह बीमारी पुरुषों में अधिक होती है। अधिकांशतः रोगी के शरीर पर उपस्थित जख्मों से निकलने वाले तरल पदार्थ द्वारा यह रोग फैलता है। इसके अलावा रोगी द्वारा प्रयोग की जा रही वस्तुओं से भी रोग फैलने की संभावना रहती है। माँ के दूध के द्वारा भी जीवाणुओं के फैलने की संभावना होती है। 
रह्युमेटिक फीवर
यह भारत वर्ष में 20 वर्ष से कम उम्र में सबसे ज्यादा होने वाला हृदय रोग है। हृदय के अलावा यह रक्तवाहिनियों, जोड़ों व अन्य ऊतकों को भी प्रभावित करता है। इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं - बुखार, शरीर के विभिन्न जोड़ों में बारी-बारी करके दर्द व सूजन होना, गले में दर्द की शिकायत होने के कुछ दिनों बाद बुखार हो जाना आदि। रोग के बढ़ जाने पर रोगी की साँस फूलना, कमजोरी, थकान, शरीर की वृद्धि न होना, पसीना निकलना, सिरदर्द, चक्कर आना, उल्टी, छाती में दर्द इत्यादि लक्षण पाए जा सकते हैं। यदि रोगी का इलाज प्रारंभिक अवस्था में ही हो जाए तो बच्चा पूर्णतः स्वस्थ हो सकता है लेकिन समय पर सही इलाज न होने पर मृत्यु भी हो सकती है। 
काली खाँसी, कुकुर खाँसी (परट्यूसिस)
बच्चों में होने वाले इस रोग में रुक-रुक कर खाँसी के दौरे आते हैं। एक बार होने के बाद यह जीवन भर नहीं होती। यह हीमोफिलिस परट्यूसिस नामक बैक्टीरिया से होता है। रोगी के छींकने-खाँसने से जीवाणु थूक के कणों के साथ वायुमंडल में फैल जाते हैं और जब स्वस्थ बच्चा साँस लेता है तो जीवाणु उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यह प्रायः 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को होता है।
टायफाइड या मियादी बुखार
इसमें बच्चों को दीर्घकालिक बुखार आता है। यह साल्मोनेला टाइफोसा नामक बैक्टीरिया के द्वारा होता है। यह गंदगी के कारण होता है। यह गर्मी और बरसात में अधिक होता है क्योंकि इन दिनों मक्खियों की संख्या अधिक रहती है, जो रोग फैलाने का काम करती है। भोजन के साथ या पानी के साथ इसके कीटाणु शरीर में पहुँचते हैं। पहले वे आँतों की लिम्फ ऊतकों में वृद्धि करते हैं जहाँ से खून में पहुँचकर शरीर के विभिन्न अंगों में रोग पैदा करते हैं। 
टिटनेस
यह एक तीव्र और घातक रोग है। यह क्लोस्ट्रीडियम टिटेनाई नामक बैक्टीरिया से होता है। ये कीटाणु मिट्टी, धूल, जानवरों और मनुष्यों के मल में पाये जाते हैं। रोग के कीटाणु शरीर में किसी चोट के द्वारा प्रवेश करते हैं। घाव के स्थान में यह टिटेनोस्पाजमिन नामक टौक्सिन पैदा करते हैं जो बाद में शरीर में फैल जाते हैं और रोग के विभिन्न लक्षण पैदा करते हैं। नवजात शिशुओं में नाड़ के द्वारा प्रवेश करते हैं। प्रारंभ में बच्चे को माँ का दूध पीने में परेशानी होती है। शिशु अत्यधिक रोता है और शरीर में आकुंचन आने लगता है। बड़े बच्चों में जकड़न के कारण सिर शरीर के पीछे की ओर मुड़ जाता है और शरीर धनुषवत हो जाता है। यह अत्यधिक घातक है। इस रोग की मुख्य पहचान यह है कि बच्चा बिल्कुल होश में रहता है।  
परजीवी रोग
कृमि रोग (वर्म इन्फेस्टेशन)
भारत सहित अन्य विकासशील देशों में जहाँ स्वच्छता की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है, वहाँ बच्चों में यह रोग अधिक होता है।
1. सूत्र कृमि (ऐन्ट्रोबियासिस, पिन वर्म)
यह कृमि बच्चों में बहुलता से मिलते हैं। इसका नर 2-5 मि.ली. लंबा और सफेद होता है तथा मादा 8-13 मि.ली. लंबा होता है। यह आँत के सीकम या एपेन्डिक्स भाग में रहते हैं और मल के साथ बाहर निकलते हैं। रोगी को गुदा के चारों तरफ खुजली होती है। खुजाने से चमड़ी लाल पड़ जाती है। कुछ रोगियों में चिड़चिड़ापन, रात में नींद न आना, भूख कम लगना, पेट में दर्द होना, दस्त जैसे लक्षण हो सकते हैं। कुछ बच्चे रात में सोते समय दाँत किटकिटाते हैं और बिस्तर पर ही पेशाब कर देते हैं।
2. गोल कृमि (एस्केरिस, केंचुआ)
इसकी लंबाई 20-40 सें.मी. होती है तथा आकृति केंचुएँ की तरह होती है। इसके अंडे पानी या खाने के साथ पेट में पहुँचते हैं और वृद्धि करते हैं। रोगी के पेट में दर्द होता है, पेट फूलता है, खून की कमी हो जाती है और शारीरिक विकास रुक जाता है। कुछ बच्चे मिट्टी आदि खाने लगते हैं। कुछ रोगियों में खुजली, चिड़चिड़ापन और दस्त भी हो सकते हैं। कभी-कभी कृमियों के इकट्ठे होने के कारण आँतों में रुकावट भी हो सकती है। बच्चे के मल के साथ या कभी-कभी उल्टी में इसके कृमि निकलते हैं। लार्वा के फेफड़े में होने के समय न्यूमोनिया भी हो सकता है, यकृत बढ़ सकता है और मस्तिष्क में जाने से झटके भी आ सकते हैं।
3. हुक वर्म
यह इन्काइलोस्टोमा ड्यूओडिनल नामक कृमि से होता है। कृमि के लार्वा शरीर में त्वचा भेदकर प्रवेश करते हैं इसलिए नंगे पैर रहने वालों में यह अधिक होता है। इसमें भूख कम हो जाती है, पेट में दर्द होता है, दस्त के साथ खून आने लगता है तथा शरीर में रक्त अल्पतता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है, शरीर में सूजन आ जाती है और बच्चा कुपोषण का शिकार हो जाता हैै। बाद में खून की गति तेज हो जाती है और साँस फूलने लगती है। जिस स्थान से लार्वा घुसता है वहाँ पर खुजली हो सकती है। 
आँतों के प्रोटोजोआ रोग
अमीबायसिस
यह एन्टारोग बच्चों में कम होता है। इसमें पेट में मामूली तकलीफ या दस्त और पेचिस हो सकती है। पेचिस धीरे-धीरे बढ़ता है और मलद्वार से सफेद म्यूकस और खून निकलने लगता है। इसके साथ पेट में दर्द या मरोड़ होती है, कभी-कभी साधारण बुखार भी हो सकता है। रोग बढ़ने पर यकृत बढ़ सकता है, आँतों में रुकावट आ सकती है या आँतों में छेद भी हो सकता है। 
जिआर्डियासिस
यह जिआर्डिया लेम्बलिया प्रोटोजोआ से होने वाली आँत की बीमारी है। इसमें रोगी बच्चे के पेट में साधारण दर्द होता है और बच्चा बार-बार दस्त जाता है। दस्त से दुर्गन्ध आती है। बच्चे की भूख कम हो जाती है या कभी-कभी बच्चे मिट्टी भी खाने लगते हैं। बच्चे का स्वास्थ्य गिरता जाता है और बच्चा कुपोषण का शिकार हो जाता है।
मलेरिया
यह भी प्रोटोजोआ के संक्रमण के कारण होता है। मादा एनोफिलीज मच्छर के काटने से इसके परजीवी मनुष्य के शरीर में पहुँचते हैं, जो यकृत में रहकर वृद्धि करते हैं। फिर रक्त में लाल कणिकाओं में वृद्धि करते हैं जिनसे निकलकर रोग के लक्षण पैदा करते हैं। वयस्कों के विपरीत 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में यह रोग ठंड देकर नहीं आता। बच्चे को तेज बुखार, सिरदर्द और बेचैनी होती है। कभी-कभी बुखार की जगह मात्रा पेट में दर्द, उल्टी, झटके या बेहोशी के लक्षण प्रकट हो सकते हैं। प्रायः यह बुखार एक या दो दिन छोड़कर आता है। जिन बच्चों में प्रथम बार मलेरिया होता है और जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, ऐसे बच्चों में यह घातक रूप ले लेता है। इनमें बेचैनी, भूख की कमी, अधिक रोना, सुस्ती या रात में नींद न आना आदि लक्षण मिल सकते हैं। कभी-कभी बुखार नहीं भी आता या बुखार बहुत तेज (लगभग 105 डिग्री फारेनहाइट) तक हो सकता है। जाँच के दौरान तिल्ली या यकृत बढ़ी मिलती है तथा शरीर में रक्त अल्पतता हो सकती है। 


बच्चों में दौरे लाइलाज नहीं

बच्चों को दौरे पड़ने को लेकर बहुत से अंध्विश्वास प्रचलित हैं। इनमें मुख्यतः दौरे पड़ने को बच्चे पर भूत-प्रेत का साया पड़ना समझा जाता है। वास्तव में यह सब इसलिए है क्योंकि लोगों को दौरे पड़ने के सही व वैज्ञानिक कारणों का पता नहीं है। बच्चों में दौरे दिमाग के सेरेब्रल हारमोन्स की प्रतिवर्ती क्रिया के असामान्य होने की वजह से होते हैं। लेकिन उचित इलाज के बाद ये बच्चे पूरी तरह ठीक हो सकते हैं। बच्चे को दौरे पड़ने जन्म के बाद किसी भी उम्र में शुरू हो सकते हैं। ये दौरे कई तरह के होते हैं।
1.बच्चे के हाथ-पैरों का कड़ा होना और हाथ-पैरों का असामान्य हरकतें करना, दाँत भिंचना व मुँह से झाग निकलना।
2.बच्चे का बार-बार कोई असामान्य हरकत करना।
3.कुछ पल के लिए बच्चे की हालत बेहोशी जैसी हो जाना।
4.नवजात शिशु के चेहरे (मुँह और आँख) की माँसपेशियों की असामान्य हरकत, बच्चे का एकदम तेज चीखना, बच्चे का हाथ-पैर कड़ा करना आदि।
अगर बच्चे में यह दौरा बार-बार आता है तो इसे एपिलेप्सी कहते हैं। अगर किसी बच्चे को 30 मिनट से ज्यादा देर तक दौरा पड़े तो इसे स्टेटस एपिलेपटिकस कहते हैं। यह एक आपात स्थिति है, जिसमें बच्चे को तुरन्त अस्पताल में भर्ती करके इलाज कराना जरूरी है। बच्चे के किसी भी दौरे का इलाज करने के लिए दौरे का कारण जानना बहुत जरूरी है। बच्चों को बुखार की वजह सेे जन्म के समय की घटनाओं, उपापचय की क्रिया में गड़बड़ी, दिमाग में संक्रमण आदि के कारण दौरे पड़ सकते हैं।
तकरीबन 4-5 फीसदी बच्चों में बुखार की वजह से दौरे आ सकते हैं। लेकिन यह कहने से पहले, कि दौरा बुखार की वजह से है, कुछ प्रमुख कारण जैसे मेनिनजाइटिस (दिमाग की झिल्ली का संक्रमण) का आवश्यक डाॅक्टरी परीक्षण करना जरूरी है। बुखार के कारण आने वाले दौरे दो प्रकार के होते हैं, सामान्य बुखार वाले दौरे और एटिपिकल फैब्रिल सीज्योर।
सामान्य बुखार के कारण आने वाले दौरे छह माह से छह वर्ष के बीच में पड़ते हैं। सामान्यतः 100 डिग्री फाॅरेनहाइट से ज्यादा बुखार होने पर दौरा शुरू होता है। इस दौरे में दोनों हाथ-पैर असामान्य हरकतें करते हैं, मुँह से झाग आता है और दाँत भी भिँच सकते हैं। दौरे के बाद बच्चों को बेहोशी या तो बिल्कुल नहीं होती या बहुत थोड़े समय के लिए होती है। दौरे के बाद बच्चों में कोई तंत्रिकातंत्रा संबंधी विकार, जैसेे हाथ-पैर को फालिज मारना आदि नहीं होते हैं। इसमें बच्चे का ई.ई.जी. कराने पर बिल्कुल सामान्य निकलता है। इस तरह के दौरे को रोकने के लिए यह जरूरी है कि बच्चे को बुखार 100 डिग्री फाॅरेनहाइट से आगे न बढ़ने दिया जाए और बुखार की वजह का जल्द से जल्द उचित इलाज किया जाय। इस तरह के दौरे में बच्चे को दौरे रोकने की कोई दवा देने की जरूरत नहीं है। ऐसे दौरे छह वर्ष की उम्र के बाद अपने आप ठीक हो जाते हैं।
एटिपिकल फैब्रिल सीज्योर में बच्चे को छह माह के पहले या छह वर्ष के बाद भी बुखार के साथ दौरे आते हैं। दौरा अन्य तरह का हो सकता है, जैसे बच्चे का असामान्य व्यवहार। दौरे में अकड़न शरीर के केवल एक ही हिस्से में सीमित होती है। दौरे के बाद बच्चे को बेहोशी हो सकती है या शरीर के किसी हिस्से में कमजोरी हो सकती है या कोई तंत्रिका संबंधी परेशानी हो सकती है। बच्चे का ई.ई.जी. असामान्य रहता है। इस तरह के दौरे के आगे चलकर मिर्गी में बदल जाने की आशंका ज्यादा होती है। इसलिए ऐसे बच्चों का उचित इलाज जरूरी है।
बच्चे में दौरे की दूसरी प्रमुख वजह जन्म के समय हुई समस्याएँ जैसे बर्थ एस्फिक्सिया (जन्म के समय व तत्पश्चात बच्चे के दिमाग को आक्सीजन की उचित मात्रा न मिलना), बर्थ ट्राॅमा, बच्चे को अधिक समय तक पीलिया होना, जन्म के पश्चात् बच्चे को लंबी बीमारी होना आदि हो सकती है। इसलिए किसी भी दौरे वाले बच्चे की बर्थ हिस्ट्री विस्तारपूर्वक लेने की जरूरत पड़ती है। अगर गर्भवती महिला की देखरेख और बच्चे का जन्म किसी विशेषज्ञ की निगरानी में हो तो इस प्रकार के दौरों से बच्चों को बचाया जा सकता है।
बच्चे में दौरे का तीसरा प्रमुख कारण बच्चे के दिमाग में हुए विभिन्न संक्रमण हैं। इनमें प्रमुख हैं-
1. दिमागी तपेदिक—अगर इस बीमारी से पूरा शरीर प्रभावित हो तो इसे ट्यूबरक्यूलर मेनिनजाइटिस कहते हैं। यह बहुत ही घातक बीमारी है, जिसमें तपेदिक ठीक होने के बाद भी बच्चे को दौरे आने की संभावना रहती है। अगर शरीर का कोई खास हिस्सा ही इस बीमारी से प्रभावित हो तो इसे ट्यूबरकोलोमा कहते हैं। 
2. न्यूरोसाइटिसिरोसिस—यह बीमारी टीनिया कीटाणु के कारण होती है। इसके अंडे बिना धुले हुए फल व सब्जियों के खाने से बच्चे के पेट में पहुँच जाते हैं, जहाँ पर साइटिसेरेकस नाम का लार्वा बनता है। कुछ तत्वों में यह लार्वा दिमाग में पहुँच जाता है। वहाँ पहुँचकर इसकी मृत्यु हो जाती है और यह केल्सीफाइड यानी पत्थर की तरह कठोर हो जाता है। इसके दिमाग में पहुँचने से लेकर केल्सीफाइड होने तक कभी भी बच्चे को दौरे पड़ सकते हैं। अगर यह बच्चे के दिमाग के दाएँ भाग में होता है तो दौरा शरीर के बाएँ भाग में पड़ता है और अगर यह दिमाग के बाएँ भाग में होता है तो दौरा शरीर के दाएँ भाग में पड़ता है। इसका पता सी.टी. स्कैन या एम.आर.आई. से चलता है। 
3. बैक्टीरियल और वायरल मेनिनजाइटिस—विभिन्न वायरस जैसे एनसेफालिटीज वायरस, हरपीज वायरस और पोलियो वायरस एवं बैक्टीरिया जैसे साल्मोनेला, मेनिनगोकस और हेमोलीज इंफ्लुएंजा-बी भी दिमाग की झिल्ली में सूजन पैदा कर सकते हैं, जिससे बच्चे को दौरा आ सकता है। यह घातक बीमारी है। इसका पता जल्दी चल जाए और सही तरह से इलाज हो जाए तभी इस बीमारी के पूरी तरह ठीक होने की आशा की जा सकती है, अन्यथा इन बच्चों में ठीक होने के बाद भी दिमागी कमजोरी और दौरे आने का खतरा रहता है।
बच्चे में दौरे का चौथा प्रमुख कारण उपापचय संबंधी है। इसमें प्रमुख हैं—हाइपोग्लेसिमिया (बच्चे के खून में शर्करा की मात्रा कम होना), हाइपोकेलसिमिया (बच्चे के खून में कैल्सियम का कम होना), हाइपोनेटेमिया अर्थात बच्चे के खून में सोडियम की कमी। साल भर से कम उम्र के किसी बच्चे को अगर दौरा आता है तो उपरोक्त स्थितियों का ध्यान रखना जरूरी है। दौरे का एक अन्य कारण है किसी वजह से दिमागी चोट। इस चोट की वजह से या तो केवल दिमाग की झिल्ली में थोड़ी सूजन आ सकती है या फिर दिमाग के अंदर रक्तस्राव हो सकता है। ज्यादातर बच्चों को चोट लगने के तुरन्त बाद ही दौरे आते हैं। लेकिन कुछ बच्चों में ये दौरे चोट लगने के कई वर्षों बाद भी आ सकते हैं। तकरीबन 25-30 प्रतिशत बच्चों में दौरे का कारण ही पता नहीं चल पाता है। इसे इडियोपैथिक एपिलेप्सी कहते हैं।
बच्चों को अधिकतर दौरा घर में या स्कूल में पड़ता है। दौरे के समय बच्चे को तुरन्त एक करवट सुला दें और किसी स्टील की चम्मच में चारों तरफ कोई मुलायम कपड़ा या पट्टी बाँधकर चम्मच को बच्चे की जीभ व दाँत के बीच में रखें ताकि बच्चे की जीभ को क्षति न हो। साथ ही बच्चे को तुरन्त किसी पास के अस्पताल में ले जाकर प्राथमिक उपचार कराएँ।
बच्चे के दौरे का इलाज शुरू करने से पहले उसकी पूरी जाँच-पड़ताल करना जरूरी है। जरूरत होने पर एम.आर.आई., सी.टी., ई.ई.जी. आदि नवीनतम तकनीकों की सहायता लेने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।
बच्चे में दौरे का इलाज एक बहुत ही जटिल समस्या है। यह इलाज किसी विशेषज्ञ की निगरानी में ही होना चाहिए। दौरे के इलाज के लिए समाज में प्रचलित झाड़-फूंक, टोटका आदि से बचना चाहिए। कई बार अभिभावक परेशान होकर नीम-हकीमों और टोने-टोटके वालों के पास चले जाते हैं। इससे समस्या और जटिल हो सकती है और बच्चे का भी अनावश्यक उत्पीड़न होता है। इलाज के दौरान माता-पिता और सगे-संबंधियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस बीमारी से संबंधित अंध्विश्वासों, बच्चे की पढ़ाई और शादी-ब्याह का क्या होगा, इत्यादि व अन्य किसी पहलू पर बच्चे के सामने विचार-विमर्श न करें क्योंकि इससे बच्चे के मनोवैज्ञानिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। घर के सारे सदस्यों का बच्चे के प्रति बर्ताव बिल्कुल सामान्य होना चाहिए। इसका इलाज लंबे समय तक चलता है। लेकिन माता-पिता का अच्छा सहयोग मिलने पर ये बच्चे पूर्णतया ठीक हो जाते हैं।


जब संकुचित हो जाती हैं बच्चों की श्वास नलियाँ (अस्थमा)

बच्चों में अस्थमा यानी दमा की समस्या एक गंभीर बीमारी है। इससे बच्चे की शारीरिक, मानसिक एवं अन्य गतिविधियों का विकास अवरुद्ध होने की आशंका रहती है। पिछले कुछ सालों में इस बीमारी के शिकार बच्चों की संख्या कई गुणा बढ़ी है। इसकी वजह प्रदूषित जलवायु और खाद्य पदार्थ है। दरअसल, अस्थमा फेफड़ों पर असर करने वाली बीमारी है। इसके कारण फेफड़ों को हवा पहुँचाने वाली श्वास नलियाँ संकुचित हो जाती हैं। श्वास नलियों के संकुचित होने की वजह आम तौर पर पेशियों का सख्त होना, हवा मार्ग की अंदरूनी परत में सूजन आना और चिपचिपा बलगम होती है। इन स्थितियों में फेफड़ों तक हवा पहुँचने और बाहर निकलने में रूकावट आती है जिसके कारण साँस लेने में तकलीफ होने लगती है। अस्थमा की तकलीफ बच्चों को किसी भी उम्र में शुरू हो सकती है।
अस्थमा के प्रमुख लक्षण खाँसी, घरघराहट, छाती में जकड़न और पूरी साँस न ले पाना, साँस में घरघराहट के साथ सीटी की आवाज, नींद में रूकावट (रात के समय और सुबह इसका हमला और भी तेज होता है), खेलने-कूदने पर जल्दी दम फूलना इत्यादि हैं। वैसे तो अस्थमा आनुवांशिक है, लेकिन कई बार यह कई-कई पीढ़ियों तक दबा रहता है। इसलिए यह भी जरूरी नहीं कि परिवार का हर बच्चा अस्थमा से पीड़ित हो। कुछ मामलों में अस्थमा के लक्षण उभरने की प्रवृति होेती है। इन्हें अस्थमा ट्रिगर्स (दमा को उभारने के कारण) कहते हैं। इनमें प्रमुख हैं — सर्दी का वायरल संक्रमण, वायु प्रदूषण, सिगरेट आदि का धुआँ या धुएँ वाली जगह, शारीरिक थकान या ज्यादा खेलकूद, ठंडी हवा, फूलों के पराग कण, घर की धूल, पालतू जानवरों के बाल और पंख, आटे या लकड़ी का बुरादा आदि। कभी-कभी मौसम बदलने या बच्चे में किसी मानसिक दवाब से भी अस्थमा का दौरा पड़ सकता है। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चे में अस्थमा उभारने वाले ट्रिगर का ध्यान रखें और यथासंभव बच्चे को उससे बचा कर रखें।
अस्थमा को लेकर लोगों में काफी सारी धारणाएँ हैं। इसकी सही जानकारी बहुत जरूरी है। सबसे पहली बात तो यह है कि अस्थमा छूत का रोग नहीं है। रक्त संबंधियों में पाँव फैलाने की इसकी प्रवृति जरूर है, फिर भी यह जरूरी नहीं कि अगर आपके एक बच्चे को अस्थमा है तो दूसरे को भी हो। अस्थमा के शिकार बच्चे को व्यायाम करने पर कोई पाबंदी नहीं है। लेकिन ऐसे व्यायाम कराएँ जिनसे उनकी शारीरिक शक्ति तो बढ़े मगर अस्थमा की तकलीफ न बढ़े। उन्होंने बताया कि तैरने और योग करने से इसमें काफी लाभ पहुँचता है। साँस संबंधी व्यायाम भी बच्चे के लिए लाभदायक हो सकते हैं। यदि व्यायाम करने में कोई समस्या आती है तो तुरन्त किसी विशेषज्ञ से संपर्क करना चाहिए।
मानसिक परेशानी, उत्तेजना, क्रोध, हताशा या पारिवारिक समस्याओं से यह बढ़ सकती है। माता-पिता के सकारात्मक और विश्वासपूर्ण व्यवहार से इसमें मदद मिलती है। बाजार में बिकने वाली डिब्बा बंद चीज बच्चों को न खाने दें, क्योंकि इसमें खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने के लिए जो रसायन मिले होते हैं, वे अस्थमा के ट्रिगर हो सकते हैं। बाहर के दूषित खाद्य पदार्थों से भी संक्रमण हो सकता है और यह संक्रमण ट्रिगर का काम कर सकता है। करीब एक हजार से अधिक दमे के शिकार बच्चों पर शोध करने पर पाया कि जिन बच्चों के माता-पिता ने पर्याप्त सावधानी बरती, उनमें से 60 फीसदी बच्चे अस्थमा से मुक्त हो गए।