बेहतर स्वास्थ्य की कुंजी है असंतृप्त वसा 

पुफा और मुफा जैसे स्वस्थ वसा कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करने में मदद करते हैं और हमारे दिल की रक्षा करते हैं
भारत में हृदय से संबंधित बीमारियों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है जिसने अब बड़े पैमाने पर लोगों को मौत का ग्रास बनाने वाली संक्रामक बीमारियों की जगह ले ली है। मुंबई शहर के नगरपालिका प्राधिकारियों की ओर से हाल में किये गये एक खुलासे के अनुसार सिर्फ मुंबई में दिल के दौरे के कारण हर रोज 80 लोगों की मौत हो जाती है। देश भर में, कार्डियोवैस्कुलर बीमारियां हर साल ढाई करोड़ लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार है। ये बीमारियां दुनिया में किसी भी देश की तुलना में भारतीयों को बहुत जल्द प्रभावित कर रही हैं। भारत में दिल के मरीज की औसत आयु अमेरिका में 70 से 80 वर्ष की तुलना में बहुत कम 50 से 60 वर्ष है।
अस्वास्थ्यकर जीवनशैली, तनाव, शारीरिक व्यायाम की कमी, मोटापा और खराब आहार अधिक से अधिक लोगों में कार्डियोवैस्कुलर समस्याएं पैदा कर रही है। रक्तचाप के ऊंचा स्तर के अलावा, उच्च कोलेस्ट्रॉल हृदय रोग के लिए एक बड़ा जोखिम कारक है। रक्त में घूम रहे काॅलेस्ट्राॅल का उच्च स्तर धीरे- धीरे धमनियों की दीवारों में जमा होने लगता है, उन्हें संकरा कर देता है और हृदय में रक्त प्रवाह को कम कर दिल के दौरा पैदा करता है। निवारक स्वास्थ्य सेवा हृदय रोगों को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है। यदि लोगों को मोनो असंतृप्त वसीय अम्लों (मुफा: एमयूएफए), पॉलीअनसेचुरेटेड फैटी एसिड (पुफा: पीयूएफए) और संतृप्त वसा, और हमारे स्वास्थ्य में इनकी भूमिका के बारे में पता होगा तो कोलेस्ट्रॉल को कम करना किसी के लिए मुश्किल नहीं है।
कम कार्बोहाइड्रेट या कम वसा वाले भोजन के जुनून वाले इन दिनों में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि हमारा शरीर वसा के बिना जीवित नहीं रह सकता। वसा सिर्फ ईंधन का एक प्रमुख स्रोत नहीं है, बल्कि यह वसा में घुलनशील विटामिन जैसे कुछ पोषक तत्वों को अवशोषित करने में भी मदद करता है। वसा दो प्रकार के होते हैं - संतृप्त और असंतृप्त वसा। मक्खन या नारियल के तेल जैसे संतृप्त वसा में कमरे के तापमान पर ठोस हो जाने की प्रवृत्ति होती है। जैतून के तेल या कनोला तेल जैसे असंतृप्त वसा में कमरे के तापमान पर भी तरल रहने की ही प्रवृति होती है। असंतृप्त वसा भी दो प्रकार के होते हैं: मुफा (मोनो अनसैचुरेटेड फैटी एसिड) और पुफा (पॉलीअनसेचुरेटेड फैटी एसिड)।
असंतृप्त वसा स्वस्थ है
अधिकांश भारतीय आजकल डेयरी उत्पादों, मांस और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों से बहुत अधिक वसा और कोलेस्ट्रॉल का सेवन कर रहे हैं।
अच्छे स्वास्थ्य के लिए सही उपाय सही मात्रा में सही वसा खाना है। हालांकि हमें अपने आहार में संतृप्त और असंतृप्त दोनों प्रकार की वसा की जरूरत होती है, लेकिन हमें असंतृप्त वसा का ही अधिक सेवन करना चाहिए। हम रोजाना जितनी कैलोरी का सेवन करते हैं उनमें से करीब 20 से 30 प्रतिषत कैलारी ही हमें वसा से लेनी चाहिए। हालांकि, संतृप्त वसा इसमें से 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। 
संतृप्त वसा और ट्रांस वसा (हाइड्रोजनीकृत तेल और मक्खन में मौजूद) हमारे शरीर में खराब कोलेस्ट्रॉल (एलडीएल) के स्तर को बढ़ा सकते हैं। उन्हें असंतृप्त वसा से स्थानापन्न करना दिल के अच्छे स्वास्थ्य और समग्र स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। मक्खन को नकली मक्खन या फैट स्प्रेड्स जैसे अधिक संतृप्त वसा वाले उत्पादों को कम वसा वाले विकल्प के साथ स्थानापन्न करना, आहार में अधिक मुफा और पुफा वाले उत्पादों को शामिल करना और मांस से वसा को कम करना हानिकारक संतृप्त फैटी एसिड के हमारे सेवन को कम करने का एक शानदार तरीका है।
मुफा और पुफा जैसे असंतृप्त वसा को स्वस्थदायक वसा माना जाता है। मुफा विटामिन ई से भरपूर होते हैं जो शरीर की कोशिकाओं को विनष्ट होने से बचाती है। मूंगफली बटर, मूंगफली तेल, नट, जैतून का तेल, कनोला तेल, और सूरजमुखी तेल मुफा के अच्छे स्रोत हैं।
पुफा दो प्रकार के होते हैं - ओमेगा- 6 फैटी एसिड और ओमेगा- 3 फैटी एसिड। ये सोयाबीन, मक्का और सैफ्लावर, फलेक्स और सूरजमुखी जैसे बीज, अखरोट, सोया दूध, और ट्युना, सैलमाॅन और सार्डिन्स जैसी वसायुक्त मछलियों जैसे तेल में पाये जाते हैं। आजकल फैट स्प्रेड्स और खाना पकाने के कुछ तेल ओमेगा-3 से भरपूर होते हैं। इससे आपको असंतृप्त वसा की रोजमर्रे की जरूरत पूरी हो जाती है। 
ओमेगा 3: चमत्कारी पोषक तत्व
ओमेगा -3 फैटी एसिड को चमत्कारिक पोषक माना जाता है जिसमें हर तरह के लाभ निहित होते हैं। यह तीन वसा - एएलए, ईपीए और डीएचए के समूह को बनाते हैं। ये मेटाबोल्जिम के लिये जरूरी होते हैं तथा रक्त के थक्के को नियंत्रित करते हैं। ये हमारे शरीर में सूजन को कम करने में मदद करते हैं तथा हमें हृदय रोग, कैंसर, सूजन आंत्र रोग और गठिया से बचाने में मददगार होते हैं। ओमेगा -3 फैटी एसिड बुरे (एलडीएल) कोलेस्ट्रॉल और हमारे रक्त प्रवाह में घूमने वाली ट्राइग्लिसराइड्स की मात्रा कम करते हैं। इनसे मानसिक स्वास्थ्य में भी लाभ पहुंचता हैं। ओमेगा 3 अवसाद और मानसिक थकान में भी फायदेमंद हैं। 
शाकाहारी लोगों के लिये फ्लैक्ससीड अथवा फ्लैक्ससीड तेल सहित हरी पत्तेदार सब्जियों, सोयाबीन और राजमा जैसे सेम और अखरोट जैसे नट्स, चावल की भूसी, कैनोला और सोयाबीन के तेल फैटी वसा के प्रमुख स्रोत हैं। 
असंतृप्त वसा से भरपूर आहार कई बीमारियों को रोकने में मददगार साबित होते हैं और किसी भी व्यक्ति को प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रखते हैं। 


व्यायाम की तुलना में अधिक कारगर है शुगर रहित आहार

केवल शारीरिक श्रम एवं व्यायाम के जरिये ही शरीर के वजन को कम नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों से लोगों द्वारा व्यायाम को अपनाये जाने के वाबजूद मोटापे के मामलों में कई गुना बढ़ोतरी हुयी है। शक्कर एवं कार्बोहाइड्रेट से भरपूर आहार इसके लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। लोग जिस तरह की कैलोरी ग्रहण करते हैं, उसके स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव मोटापे से कहीं अधिक होते हैं। कैलोरी नियंत्रण के जरिये सेहतमंद वजन को बरकरार रखने का संदेश इसलिये अनुपयोगी साबित होता रहा है क्योंकि लोगों के मन में यह गलत धारणा बैठी हुयी है कि व्यायाम नहीं करने के कारण मोटापा होता है। 
ब्रिटिश जर्नल आफ स्पोर्ट्स मेडिसिन में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार शारीरिक श्रम की तुलना में आहार का बहुत अधिक महत्व है और अगर लोग अधिक शक्कर एवं कार्बोहाइड्रेट युक्त आहार का सेवन करते रहें तो व्यायाम करने पर भी वजन घटाने अथवा स्वस्थ बने रहने में मदद नहीं मिलती है। इस अध्ययन ने इस लोकप्रिय धारणा को खारिज कर दिया है कि केवल व्यायाम से ही वजन घटाया जा सकता है। 
नियमित रूप से व्यायाम करने तथा सामान्य वजन के होने के बावजूद स्वस्थ दिखने वाला व्यक्ति गलत आहार- चीनी तथा कार्बोहाइड्रेट से भरपूर आहार का सेवन करने के कारण बहुत ही अस्वस्थ हो सकता है। जिन लोगों का बाॅडी मास इंडेक्स (बीएमआई) सामान्य है उनमें से 40 प्रतिशत लोगों को उच्च रक्त चाप, डिसलिपिडेमिया, फैटी लीवर रोग और हृदय रोग जैसी मोटापे से जुड़ी हुयी समस्यायें हो सकती है। शारीरिक निष्क्रियता की तुलना में खराब आहार के साथ-साथ धूम्रपान करने तथा शराब पीने पर अधिक बीमारियां होती है। 
यह एक मिथ है कि अगर व्यक्ति व्यायाम करता रहे तो वह जंक डायट भी लेता रह सकता है। दरअसल कैलोरी का क्या स्रोत है यह भी महत्वपूर्ण है। उदाहरण के तौर पर शुगर से मिलने वाली कैलोरी वसा के जमाव तथा भूख को बढ़ावा देती है जबकि वसा से मिलने वाली कैलोरी ''पेट भरा होने'' तथा संतुष्टी का अहसास कराती है। वसा या प्रोटीन से मिलने वाली कैलोरी की तुलना में चीनी से मिलने वाली हर 150 कैलोरी टाइप 2 मधुमेह के खतरे को 11 गुना बढ़ाती है। इसलिये आज के समय में आसानी से उपलब्ध होने वाले शुगर युक्त ड्रिंक्स के बारे में पुनर्विचार करने की जरूरत है। 
परामर्श एवं शिक्षा की तुलना में खान-पान की आदतों में बदलाव लाना जन स्वास्थ्य के लिये अधिक प्रभावकारी होगा। अपने आहार में शुगर की मात्रा घटाने का स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक साकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बाजार में कृत्रिम मिठास पैदा करने वाले अनेक बेहतरीन विकल्प उपलब्ध हैं जो हमारे आहार में मीठापन पैदा करते हैं लेकिन ये रोज-मर्रे के आहार में व्यापक तौर पर इस्तेमाल होने वाली क्रिस्टलाइज्ड चीनी के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभावों से मुक्त हैं। 
लोग अपने वजन पर नियंत्रण रखने के लिये सबसे महत्वपूर्ण काम यह कर सकते हैं कि वे कैलोरी (खास तौर पर शुगर से मिलने वाली कैलोरी) तथा कार्बोहाइड्रेट के सेवन पर नियंत्रण करें। बेहतर स्वास्थ्य के लिये सभी प्राकृतिक खाद्य पदार्थ बेहतर हैं। इस मिथ को तोड़ा जाना चाहिये कि स्थूल जीवन शैली एवं मोटापे में सीधा संबंध है। 
अंत में, खराब आहार को बढावा नहीं दिया जाना चाहिये। लोग अस्वास्थ्यकर आहार का सेवन करके स्वस्थ बने नहीं रह सकते हैं, चाहे वे कितना ही व्यायाम क्यों न करें। इसलिये आप अपने शरीर से प्यार करते हैं तो शुगर एवं कार्बोहाइड्रेड में कटौती करें।


 


सार्वजनिक स्थलों पर अपने बच्चे को स्तनपान कराने में लज्जा महसूस न करें

युवा माताओं को सार्वजनिक स्थानों और सामाजिक स्थितियों में स्तनपान कराने को लेकर अपनी हिचक छोड़ देनी चाहिए
 
भारत में मुख्य रूप से कम पोषण के कारण शिशु मृत्यु दर काफी अधिक है। दुनिया भर के साक्ष्यों से पता चलता है कि जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान की शुरुआत कर, जीवन के पहले छह महीने में विशेष स्तनपान कराकर, और 6-9 महीने की उम्र में सही और पर्याप्त पूरक आहार शुरू कर शिशुओं और बच्चों में कुपोषण को रोकने में मदद मिल सकती है और उन्हें स्वस्थ रखा जा सकता है। ''विशेष स्तनपान (एक्सक्लूसिव ब्रेस्टफीडिंग)'' का अर्थ किसी भी प्रकार के पूरक आहार (दवाओं को छोड़कर पानी, जूस, गैर मानव दूध, या खाद्य पदार्थ) के बगैर, जीवन के पहले छह महीने के दौरान शिशु को सिर्फ मानव दूध का सेवन कराना है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) तृतीय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान शुरू करने की दर केवल 24.5 प्रतिशत है, और छह महीने की उम्र तक विशेष स्तनपान कराने की दर मात्र 46.4 प्रतिशत है। उम्र के लिहाज से इस आंकड़े की व्याख्या से पता चलता है कि विशेष स्तनपान के मामले में पहले महीने से छठे महीने तक तेजी से गिरावट आती है और सिर्फ 27.6 प्रतिशत भारतीय बच्चे को ही छह महीने की उम्र तक विशेष स्तनपान कराना जारी रखा जाता है। इस तरह ये निम्न आंकड़े चिंता का विषय हैं।
विशेष स्तनपान की दर इतना कम होने के मुख्य कारणों में से एक कारण यह है कि ज्यादातर भारतीय महिलाएं सार्वजनिक स्थानों पर या सामाजिक स्थितियों में अपने बच्चे को स्तनपान कराने में असहज महसूस करती हैं। वे स्वयं के प्रति सजग रहती हैं और शर्मिंदगी महसूस करती हैं और घर के बाहर या अन्य लोगों की मौजूदगी में, विशेष रूप से अजनबी लोगों की मौजूदगी में शिशु को स्तनपान कराने से बचती हैं। हालांकि इसे लंबे समय के लिए टाला नहीं जा सकता है। हर समय घर के अंदर रहकर शिशु को स्तनपान कराने के समय पर स्तनपान कराना हमेशा व्यावहारिक नहीं होता है।
यहाँ सार्वजनिक स्थानों पर स्तनपान कराने के लिए कुछ उपयोगी विचार दिये जा रहे हैं जिससे माताओं को शिशुओं को स्तनपान कराने में आसानी होगी:
स्तनपान कराने के अनुकूल कपड़े पहनें: ऐसे कपड़े पहनें जिससे आप बच्चे को स्तनपान कराने में सुविधा महसूस कर सकें और आराम से शिशु को स्तनपान करा सकें। ब्रेस्टफीडिंग ब्रा का प्रयोग करें। इससे आपको कप को सामने से जल्दी नीचे लाने में सुविधा होगी। बनियान और टाॅप जैसे कम से कम दो परत के कपड़े पहनें। दो परत के कपड़े पहनने पर जब आप स्तनपान कराने के लिए बाहरी टाॅप को खोलेंगी या उपर करेंगी तो इससे आपके स्तन और पेट को ढकने में मदद मिलेगी। 
स्तनपान के अनुकूल स्थान:  इन दिनों कई दुकानों और मॉल में स्तनपान कराने वाली माताओं के लिये विशेष व्यवस्था और विशेष स्थान (आमतौर पर एक छोटा सा कमरा) होता है। जब आपको अपने बच्चे को स्तनपान कराना हो तो ऐसी जगह की तलाश करें। यह देखें कि आप जहां हैं वहां स्तनपान कराने की जगह या चेंजिंग रूम है। इससे आपको सम्पूर्ण स्तनपान कराने का अनुभव होगा और यह आपके और आपके बच्चे के लिये सुखद एवं निजी होगा। 
अन्य माताओं के साथ मिलकर: अन्य युवा माताओं के बीच रहना शुरूआती अवस्था में आपके लिये आत्मविश्वास बढ़ाने वाला होगा। धीरे-धीरे आप सार्वजनिक स्थानों पर बच्चों को स्तनपान कराने के लिये अभ्यस्त हो जायेंगी। अगर आपके साथ अन्य युवा मातायें नहीं हों तो आप अपने पति या मां को स्तनपान कराने के समय साथ रहने को कह सकती हैं। 
घर से बाहर जाने की योजना बनायें: आप अपनी यात्रा की योजना इस प्रकार बनायें ताकि आप स्तनपान अनुकूल स्थानों के आसपास रहें। अगर आपके पास कार है तो यथा संभव कार से ही कहीं आये-जायें ताकि आपको सुविधाजनक तरीके से स्तनपान करने के लिये निजी जगह मिल सके। आप जहां जा रही हैं वहां के आसपास अगर आपके परिवार का कोई सदस्य या कोई दोस्त है तो अपने बच्चे को स्तनपान कराने के लिये उनके यहां जा सकती हैं। 
जब आप घर से बाहर हों तो आप अपने बच्चे को मां के दूध से बंचित नहीं करें और अपने संकोच पर काबू रखें। बच्चे को स्तनपान कराना अत्यंत स्वभाविक एवं प्राकृतिक है ओर मां के रूप में आपके लिये ऐसा करना उचित है। आपको सार्वजनिक स्थल पर स्तनपान कराने के दौरान शांत रहना चाहिये और इसके कारण आपको किसी तरह की शर्मिंदगी महसूस नहीं करनी चाहिये। सार्वजनिक जगह पर स्तनपान करना ऐसी चीज नहीं है जो अचानक होती है, लेकिन अगर इसके लिये आपको अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लगता है तो भी बिल्कुल ठीक है। 


डॉ रागिनी अग्रवाल डब्ल्यू प्रतीक्षा अस्पताल, गुड़गांव में चिकित्सा सेवा प्रभाग की निदेशक हैं। 


 


आईवीएफ में अंडे और शुक्राणु दाताओं के कानूनी अधिकार

इनफर्टिलिटी हर देश में सबसे अधिक व्यापक चिकित्सा समस्याओं में से एक है जिससे अधिक से अधिक लोग प्रभावित हो रहे हैं। अनुमान लगाया गया है कि दुनिया में सभी दम्पतियों में से करीब 15 प्रतिशत दम्पति बच्चे जनने में असमर्थ हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि माता- पिता बनना सबसे  मूल्यवान और आशीर्वादों और वरदानों में से एक है और यह हर किसी के लिए एक बुनियादी मानव अधिकार है।
हाल के वर्षों में, वैसे लोगों या दम्पतियों में, जो गर्भ धारण करने या स्वाभाविक रूप से बच्चे पैदा करने में असमर्थ हैं, तीसरे पक्ष के द्वारा बच्चे पैदा करने की व्यवस्था उनके माता- पिता बनने के सपने को पूरा करने के लिए काफी लोकप्रिय हो गयी है। माता- पिता बनने के लिए एक स्वस्थ अंडे को एक स्वस्थ शुक्राणु से निषेचित होकर एक स्वस्थ गर्भ में प्रत्यारोपित होना होता है। दम्पति में से किसी एक में भी किसी प्रकार की कमी होने पर, अंडा या शुक्राणु दान और सरोगेसी के रूप में तीसरे पक्ष की सहायता की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
सरोगेसी और इसकी मदद से जन्मे बच्चे की कस्टडी और माता- पिता के अधिकारों से संबंधित विवादों के खतरों के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सरोगेट मां के द्वारा शोषण या गर्भावस्था के नौ महीनों के दौरान बच्चे से भावनात्मक लगाव की वजह से इस तरह की समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। हालांकि, युग्मक दाताओं (अंडा या शुक्राणु दाता) के अधिकारों, भूमिका और जिम्मेदारियों पर अब तक कम ध्यान दिया गया है जो एक किराए की मां के विपरीत, असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक (एआरटी) से पैदा हुए बच्चे से आनुवंशिक रूप से जुड़े होते हैं।
हालांकि भारत में वर्तमान में ऐसा कोई भी कानून नहीं है, जो विशेष रूप से असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीकों को कवर करता हो। असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक (विनियमन) विधेयक संसद में लंबित है और जल्द ही इसके पारित हो जाने की उम्मीद है। यह इनफर्टिलिटी क्लीनिक और मानव शरीर के बाहर शुक्राणु और अंडों को निषेचन कराने वाले असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक बैंको की मान्यता की प्रक्रियाओं को विनियमित करेगा और इन क्लीनिक और असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक बैंको पर निगरानी रखेगा। इस प्रकार यह नैतिकता और अच्छी चिकित्सा प्रक्रियाओं के ढांचे से संबंधित सभी वैध अधिकारों की रक्षा करेगा।
अब तक, इस क्षेत्र में 2005 में पारित भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के दिशा निर्देषों पर आधारित एआरटी विधेयक के तात्कालिक संस्करण की चर्चा होती रही है। ये दिशा निर्देश एआरटी क्लीनिकों पर नैतिकता के रूप में कार्य करते हैं। एआरटी विधेयक के साथ-साथ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के 2005 के दिशा निर्देशों में अंडे और शुक्राणु दाताओं के कर्तव्यों की इस प्रकार व्याख्या की गयी है:
1) दाता की पहचान को गुप्त रखना जाना चाहिए: एआरटी विधेयक और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशा निर्देशों (2005) के अनुसार, दाता की पहचान को उजागर करने वाली किसी भी जानकारी को प्राप्तकर्ता को नहीं बताया जाएगा। दाता के नाम, पता या दाता की पहचान को उजागर करने वाले किसी भी तथ्य के बारे में प्राप्तकर्ता को नहीं बताया जाएगा। दूसरे शब्दों में, दाताओं को गुमनाम रखा जाना चाहिए।
दाता के बारे में प्राप्तकर्ता को न बताये जाने के साथ- साथ प्राप्तकर्ता की पहचान के बारे में भी दाता को नहीं बताया जायेगा। विधायिका की मंशा वैसे दाताओं के हितों की रक्षा करना है जो अपनी पसंद और गोपनीयता के साथ यह कार्य करते हैं, बच्चे के पालन- पोषण के दायित्व से खुद को मुक्त रखना चाहते हैं और प्राप्तकर्ता के पक्ष में दान किये गये युग्मक के उपर अपने सभी अधिकारों को त्यागना चाहते हैं।
2) दाताओं के बारे में जानकारी की गोपनीयता: एआरटी विधेयक और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशा निर्देशों के अनुसार, दाताओं के बारे में सभी जानकारी गोपनीय रखी जानी चाहिए और दाता की सहमति या सक्षम न्यायालय की अदालत के किसी आदेश के अलावा स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के केंद्रीय डेटाबेस के अलावा अन्य किसी के लिए खुलासा नहीं किया जा सकता। दान गोपनीयता का कार्य है और इसकी पवित्रता को बनाए रखा जाना चाहिए।
3) बच्चे पर माता पिता का कोई अधिकार और जिम्मेदारी नहीं: एक दाता को अपने युग्मक से गर्भ धारण या जन्मे बच्चे पर कोई अधिकार और जिम्मेदारी नहीं होती है। जैसा कि दाता की गुमनामी और गोपनीयता के बारे में एआरटी विधेयक और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशा निर्देशों के तहत कहा गया है उसका अर्थ दाता के अधिकार की रक्षा करना है।
उपर बताये गये दाताओं के विशिष्ट अधिकार के अलावा, उनके कुछ अधिकार एआरटी क्लीनिकों और एआरटी बैंकों के कर्तव्यों से भी पैदा होते हैं।
1) दान करने, विशेषकर अंडा दान करने के मामले में इससे जुड़े चिकित्सीय खतरों और की जाने वाली चिकित्सीय प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए दाता को चिकित्सीय परामर्श करने का अधिकार होता है।
2) दाता को अपनी सहमति देने से पहले उसकी अपनी भूमिका, अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में कानूनी रूप से जागरूक होना चाहिए। दाता के द्वारा दी गयी सहमति सूचित सहमति होनी चाहिए।
3) अंडे दान करने के लिए एआरटी विधेयक के अनुसार निर्धारित उम्र मापदंड महिला के लिए 21 से 35 वर्ष (दोनों वर्ष शामिल) और वीर्य दाता के लिए 21 से 45 वर्श (दोनों वर्ष शामिल) के बीच होना चाहए।
4) अंडा दाता दान अंडे के प्राप्तकर्ता के लिए सरोगेट माता नहीं हो सकती।
5) दाता को आर्थिक रूप से मुआवजा पाने का अधिकार है, इसलिए उसे बात की जानकारी होनी चाहिए कि मुआवजा किस प्रकार लिया जाएगा। एआरटी क्लिनिक डोनर कार्यक्रम में शामिल किसी भी तरह के व्यावसायिक मामले में शामिल नहीं हो सकती।
6) कोई भी महिला अपने जीवन में छह बार से अधिक अंडे दान नहीं कर सकती और अंडा लेने  के बीच कम से कम से कम तीन महीने का अंतराल होना चाहिए।
7) शादीशुदा दाता के मामले में, पति की सहमति अनिवार्य है।
8) दाता को उस कार्य के बारे में जिसके बारे में वह सहमति दे रहा हो / रही हो, उसके बारे में उचित समझ और जागरूकता होनी चाहिए। इस प्रकार, दाता को शारीरिक रूप से फिट और पूरी तरह स्वस्थ होने के अलावा, मानसिक रूप से फिट होना चाहिए और उसकी उचित मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग की जानी चाहिए।
9) दाता को चिकित्सा जोखिम और विवादों से बचने के लिए सही और सटीक जानकारी और चिकित्सा के बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
इसके अलावा, एआरटी विधेयक में यह प्रावधान है कि इनफर्टिलिटी के इलाज के लिए किसी असिस्टेड रिप्रोडक्टिव क्लीनिक के इस्तेमाल के अलावा, भारत के बाहर और भारत में किसी पार्टी के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अंडों, शुक्राओं, युग्मनजों और भ्रूण की बिक्री एक अपराध माना जाएगा।


 


 


 


किराऐ पर कोख : उपकार या व्यापार


15 गर्भवती महिलाऐं एक साथ एक बडे आरामदायक कमरे में सोने की तैयारी कर रही हैं, उनकी देखभाल के लिए डॉक्टरों का एक दल,रसोईये ओैर सहायक हरदम तैयार रहते हैं, ये नजारा आमतौर पर असामान्य हो सकता हैं, लेकिन डॉ आन्नद के अस्पताल में आम बात हैं, ये सभी महिलाऐं बच्चे पैदा करने में अक्षम महिलाओं के लिए बच्चे पैदा करने की तैयारी कर रही हैं। 
विशेषज्ञों के अनुसार भारत में सेरोगेट मदरर्स आसानी से मिल जाती हैं। डॉ नंदा कहती हैं,''ये एक नेक काम हैं, एक महिला किसी भी वजह से खुद अपना बच्चा बिना किसी सेरोगेट मदर की मदद के नही पा सकती,दुसरी तरफ एक और महिला जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं,अपने परिवार के लिए कुछ करना चाहती हैं, अगर ये दोनो एक दूसरे की मदद करना चाहते हैं, तो इसमें लोगो को आपति नही होनी चाहिऐं। 
सेरोगेसी की मदद से अपना बच्चा पा चुकी एक विदेशी महिला ने अपनी खुशी कुछ इस तरह जताई, बच्चे को पाने की खुशी को बयान करना मुश्किल हैं, दुनिया भर की दौलत भी इस खुशी के लिए कम हैं। सरोगेट मदर बन चुकी एक महिला रेखा ने बताया कि गर्भ के दौरान इस बच्चे से इन्हे बहुत लगाव महसूस हुआ, लेकिन बच्चे से ज्यादा लगाव उसके माता-पिता को हैं, वे इसका बहुत ख्याल रखेंगें। 


सरोगेट मदर बनने के लिए जरूरी है स्वास्थ्य
सेरोगेट मदर बनने के लिए महिला का शारीरिक तौर पर स्वस्थ होना बहुत जरूरी हैं। महिला का पहले मां बन चुका होना भी अच्छा होता हैं, सेरोगेसी से पहले महिला सहित 
माता-पिता को उचित जानकारी दी जाती हैं। गर्भ के दौरान पूरा खर्च जिसमें चिकित्सा और खाना शामिल हैं अलग से दिया जाता हैं,लिखित तौर पर ये भी तय कर लिया जाता हैं ​कि सेरोगेट मदर बच्चे को जन्म के तुरन्त बाद बच्चे के माता-पिता को सौंप देगीं। 
भारत में अकसर नजदीकी रिशतेदार जैसे बहनें या अन्य भी सेरोगेट मदर बन जाती है, असम की एक महिला ने अपनी बेटी के लिए सेरोगेट मदर बनी,उन्होनें दो जुडवा बच्चों को जन्म दिया। सेरोगेट मदर की कोख में उस महिला के अण्डाणु और पुरूष के शुक्राणु का वैज्ञानिक तरीके से निषेचन करवाया जाता हैं, इसी कारण बच्चे में सारे अनुंवाशिक गुण अपने माता-पिता के ही होते हैं। नैन-नक्श से लेकर आदतों तक सभी कुछ अपने मूल माता-पिता के ही होते हैं। वैज्ञानिक तरीके से अगर समझा जाए तो ये ठीक उसी तरह हैं जैसे हम कई बार अपना बरतन छोटा पडने पर हम किसी और का बरतन कुछ दिनों के लिए रख लें।
भारत में सेरोगेसी के तरीके को वैद्यानिक रूप 2002 में मिला। कई और देशों में भी वैद्यानिक होने के बावजूद भारत सबसे बडे केन्द्र की तरह उभरा हैं। 
इसका एक बडा कारण भारत के एक बडे तबके का आर्थिक रूप से कमजोर होना भी हैं, साथ ही भारत में अपेक्षतः कम खर्चिली चिकित्सा भी विदेशियों के इस और खिचांव का कारण हो सकता हैं।दिल्ली सहित भारत के तमाम हिस्सो में ऐसे अस्पताल मिल जाऐगें जहा सेरोगेट मदर्स मिल जाऐगीं। 


किसी के घर को रोशन करने तक तो ठीक हैं, लेकिन एक व्यापार के रूप में स्थ्ति काफी भयावह रूप ले सकता हैं।आमतौर पर बच्चे के जन्म तक तो सेरोगेट मदर का ख्याल रखा जाता हैं, लेकिन बाद में उसका कोई खास ख्याल नहीं रखा जाता। अगर सिर्फ पैसो की मजबूरी के कारण एक महिला अपना स्वास्थ्य दाव पर रखे,पीडा सहे यहॉ तक की अपनी जान का जोखिम उठाए तो ये एक प्रकार का से उच्च वर्ग का निम्न वर्ग को पैसो के बल पर प्रयोग करना ही हुआ। व्यापार का रूप ले चुके इस उपकार ने नव धनाढयो के लिए भी एक अतिरिक्त विकल्प का काम किया हैं। अब अपने काम या आराम में व्यस्त धनी महिलाऐं सेरोगेट मदर के जरिये अपने परिवार के लिए बच्चा दे सकती हैं। मां बनने के इस अतिरिक्त विकल्प ने फैशन और ग्लैमर की दुनिया में तो एक वरदान का काम किया हैं। 
अमूमन देखा जाता हैं कि गर्भ के दौरान मां का बच्चे के साथ एक भावनात्मक रिश्ता जुड जाता हैं।जो उम्रभर बना रहता हैं, मगर सेरोगेसी के जरिये पैदा बच्चे के साथ ऐसा कोई रिश्ता जुडना मुश्किल होता हैं, तो बच्चे पर मनोवैज्ञानिक तौर पर पडने वाले प्रभाव नकारात्मक भी हो सकता स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले समय में और अधिक सेरोगेसी के केस भारत में आने की संभावना हैं। डॉ इंदिरा हिंदुजा सेरोगेसी विशेषज्ञा ने बताया कि,लोगो कि झिझक अब बदल रहीं हैं, अब लोग ज्यादा खुले हैं।मगर सेरोगेसी के बढता प्रचलन अनाथ बच्चों को गोद लेने वाले विकल्प को भी बेकार बना देता हैं। 
घर मे चिराग के लिए सेरोगेट मदर का उपकार एक सराहनीय काम हैं। मगर एक व्यापार के रूप में सिर्फ उच्च वर्ग का धन के दम पर शोषण ही हैं। 


कैंसर के खतरे को बढ़ा रही है आधुनिक जीवन शैली

वर्ष 2030 तक भारत में कैंसर के मामलों में 78 प्रतिशत वृद्धि होने का अनुमान


मानव विकास सूचकांक पर आधारित एक अध्ययन में भारतीय आबादी में कैंसर के मामलों में 78 प्रतिषत वृद्धि होने का अनुमान 
चिकित्सकों का कहना है कि जीवन शैली के कारण कैंसर के खतरे बढ़ रहे हैं। वह कहते हैं कि यह भविष्य का एक खतरनाक संकेत है और इसकी रोकथाम के तत्काल उपाय किये जाने चाहिए विषेशकर जीवनशैली के स्तर पर इसकी रोकथाम के तत्काल उपाय अवश्य किये जाने चाहिए। हालांकि गर्भाशय ग्रीवा कैंसर और लीवर और पेट के कुछ कैंसर जैसे संक्रमण की वजह से पैदा होने वाले कैंसर के मामलों में कमी आ रही है। लेकिन हार्मोन असंतुलन, खराब आहार और व्यायाम की कमी जैसी आदतों, धूम्रपान और शराब का बहुत अधिक सेवन से जुड़े फेफड़े, वृहदांत्र और स्तन जैसे कैंसर के मामलों में तेजी से वृद्धि के कारण यह कमी गैर प्रासंगिक रह गयी है।  
यह रिपोर्ट द लैंसेट ओंकोलॉजी जर्नल में प्रकाषित हुयी है। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) द्वारा विभिन्न देशों के बीच कैंसर के मौजूदा और भविष्य की प्रवृति पर वर्ष 2008 में 184 देशों से प्राप्त कैंसर पर अनसंधान के लिए अंतर्राश्ट्रीय एजेंसी (इंटरनेषनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर : आरएआरसी) आंकड़ों का विष्लेशण किया गया। मानव विकास इंडेक्स (एचडीआई) जीवन प्रत्याषा, षिक्षा और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का एक समग्र सूचक होता है।
जिन क्षेत्रों में स्तन, फेफड़े, कोलोरेक्टम और प्रोस्टेट के अधिकतम प्रकोप हैं उन क्षेत्रों में दुनिया भर के कैंसर के आधे मामले पाये जाते हैं जबकि मध्यम एचडीआई वाले क्षेत्रों में आमाशय, पेट और लीवर के कैंसर सामान्य हैं। इस तरह इन दोनों मध्यम से लेकर उच्चतम एचडीआई वाले क्षेत्रों में ये सात कैंसर कुल कैंसर का लगभग 62 प्रतिषत हैं। कम एचडीआई क्षेत्रों में स्तन कैंसर और लीवर कैंसर दोनों की तुलना में गर्भाषय कैंसर अधिक सामान्य पाया गया। 184 देशों में पुरुषों में विभिन्न प्रकार के 9 कैंसर सामान्य रूप से पाये गये जिनमें प्रोस्टेट, फेफड़े और लीवर कैंसर ज्यादा आम थे। महिलाओं में स्तन और गर्भाषय ग्रीवा के कैंसर सामान्य रूप से पाये गये। मध्यम एचडीआई और उच्च एचडीआई क्षेत्रों में गर्भाशय ग्रीवा और पेट के कैंसर के मामलों में कमी देखी गयी जबकि महिला स्तन, प्रोस्टेट और कोलोरेक्टम के कैंसर के मामलों में वृद्धि पायी गयी।     
यदि इस अध्ययन में अनुमानित कैंसर विशिष्ट और सेक्स विशिष्ट प्रवृति जारी रहती है तो वर्ष 2008 में सभी प्रकार के कैंसर के एक करोड़ 20 लाख 70 हजार नये मामलों से बढ़कर वर्ष 2030 में 2 करोड़ 20 लाख 20 हजार हो जाने का अनुमान है जो कि विष्व में कैंसर के मामलों में 75 प्रतिशत की वृद्धि होगी।
प्रसिद्ध कैंसर विशेषज्ञ डा. विवेक गर्ग कहते हैं, ''लोगों को स्वास्थ्यवर्द्धक आहार का सेवन, धूम्रपान की आदत का त्याग कर और व्यायाम के साथ-साथ टीकाकरण और जल्द पहचान के प्रति जागरुक कर भविष्य के एक तिहाई से से लेकर आधे मामलों को कम करना संभव हो सकता है।


कीमोथेरेपी (कीमो)

कीमोथेरेपी (कीमो) एक प्रकार का कैंसर का उपचार है जिसके तहत कैंसर कोशिकाओं को खत्म करने के लिए कड़ी दवाइयां दी जाती है।
कीमोथेरेपी कैसे काम करती है?
कीमोथेरेपी कैंसर कोशिकाओं के विकास को रोककर या धीमा करके काम करती है, जो तेजी से बढ़ती हैं और बार-बार विभाजित होती हैं। इस उपचार से हानिकारक स्वस्थ कोशिकाएं भी खत्म हो सकती हैं जो तेजी से विभाजित होती हैं, जैसे कि आपके मुंह, आंतों की कोशिकाएं या जो आपके बालों को बढ़ने का कारण बनती हैं। एक बार कीेमो खत्म होने पर अक्सर इसके दुष्प्रभाव खत्म हो जाते हैं या पूरी तरह से चले जाते हैं।
कीमोथेरेपी क्या करती है?
— कीमोथेरेपी कैंसर कोशिकाओं को इस हद तक नष्ट कर देती है कि आपका डॉक्टर अब आपके शरीर में उनका पता नहीं लगा सकता है।
— कीमोथेरेपी कैंसर को फैलने से रोकती है, इसके विकास को धीमा करती है।
— कीमोथेरेपी ट्यूमर को सिकोड़ती है जो दर्द या दबाव का कारण बनते हैं।
कीमोथेरेपी कैसे दी जाती है?
— इंजेक्शन के रूप में - आपके हाथ, जांघ या कुल्हे की मांसपेशियों में या आपके पेट के फैटी हिस्से में त्वचा के ठीक नीचे मांसपेशी में।
— इंट्रा-आर्टेरियल (आईए) - सीधे उस धमनी में जो कैंसर को पोषित कर रही है।
— इंट्रापेरिटोनियल (आईपी) - सीधे उस क्षेत्र में जिसमें आपके आंत, पेट, यकृत और अंडाशय जैसे अंग होते हैं।
— इंट्रावेनश (आईवी) - सीधे एक नस में।
— टाॅपिकली - क्रीम के रूप में जिसे आप अपनी त्वचा पर रगड़ सकते हैं।
— मुंह से - गोलियों, कैप्सूल या तरल पदार्थों के रूप में जिन्हें आप निगलते हैं।
इसके सामान्य दुष्प्रभाव क्या हैं?
● थकान
● बालों का झड़ना
● आसानी से चोट लगना और खून बहना
● संक्रमण
● एनीमिया (लाल रक्त कोशिका की गिनती कम हो जाना)
● मतली और उल्टी
● भूख में परिवर्तन
● कब्ज
● डायरिया
● निगलने के दौरान मुंह, जीभ और गले में खराश और दर्द जैसी समस्याएं
● तंत्रिका और मांसपेशियों की समस्याएं, जैसे सुन्नता, झुनझुनी और दर्द  
● त्वचा और नाखून में बदलाव, जैसे सूखापन और रंग में परिवर्तन
● किडनी की समस्या
● वजन संबंधी समस्याएं
● कीमो ब्रेन (एकाग्रता और फ़ोकस का प्रभावित होना)
● मूड में उतार- चढ़ाव
● कामेच्छा में परिवर्तन
● प्रजनन संबंधी समस्याएं


 


आंखों से सुनिये और कान से देखिये

परम्परागत स्नायु विज्ञान के तहत श्रवण तंत्र का कार्य आवाज को रिकार्ड करना है जबकि दृश्य तंत्र दृश्यों पर फोकस करता है और ये दोनों कभी नहीं मिलते। इसके बावजूद मस्तिष्क के सुपीरियर कोलिकुलस जैसे ''हाइयर कोगनिटिव'' निर्माता इन अलग-अलग इनपुट्स का इस्तेमाल हमारे सिनेमैटिक अनुभवों के लिए करता है। 
बीएमसी न्यूरोसाइंस जर्नल के ताजे अंक में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि मस्तिष्क आवाज का इस्तेमाल सीधे तौर पर देखने के लिए और प्रकाश को सुनने के लिए कर सकता है। यह शोध यह व्याख्या करता है कि अंधे बेहतर क्यों सुनते हैं और बहरे की दृष्टि क्यों अच्छी होती है।
इस अध्ययन के तहत अनुसंधानकर्ताओं ने स्क्रिन पर एक लाइट फ्लैश को लोकेट करने के लिए बंदरों को प्रशिक्षित किया। जब प्रकाश बहुत तेज था तो उन्हांने इसे आसानी से पता कर लिया जबकि धीमी प्रकाश में उन्हें ढूंढने काफी समय लगा। लेकिन जब धीमा प्रकाश ने थोड़ी आवाज बनाया तो बंदरों ने इसे तुरंत ढूंढ लिया। वास्तव में यह पुराने सिद्धांतों की व्याख्या कर सकता है।
विजुअल प्रोसेसिंग की शुरुआती अवस्था के लिए जिम्मेदार 49 न्यूरॉन्स से रिकार्डिंग के तहत अनुसंधानकर्ताओं ने उत्प्रेरक को पाया जो व्यवहारों को प्रतिम्बिबित करता है। जब आवाज को घुमाया जा रहा था तब न्यूरॉन ने इस प्रकार की प्रतिक्रिया की कि वहां तेज प्रकाश है। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के अनुसंधानकर्ता ये वांग कहते हैं कि इससे यह व्याख्या होती है कि कान और आंख के मस्तिष्क क्षेत्र के बीच सीधा संबंध है।
फ्रांस के टाउलौस में यूनिवर्साइट पॉल सैबेटर के मुख्य अनुसंधानकर्ता पास्कल बैरोन कहते हैं कि यह अध्ययन पहला साक्ष्य यह पेश करता है कि एक संवेदी कोशिका एक वैकल्पिक अनुभूति को संसाधित कर सकता है।  
यह खोज व्याख्या करता है कि मनुष्य सहित अधिकतर जानवर उत्तेजित होने पर आश्चर्यजनक रूप से तत्काल प्रतिक्रिया करते हैं जिस तरह से रस्टलिंग टाइगर या हांकिंग बुस करते हैं। 
बैरोन कहते हैं कि दृश्य क्षेत्र के विशेषकर कोनों में जहां दृष्टि खराब होती है कान धीमेपन का निवारण करता है और दृश्य तंत्र को उत्तेजित करता है। वांग कहते हैं कि शुरुआती दृश्य तंत्र का स्थानीक परिशुद्धता का अतिरिक्त लाभ यह है कि मस्तिष्क के कुछ उंचे क्षेत्र हमारे सेंट्रल गेज को प्राथमिकता देने के लिहाज से खराब काम करते हैं। 
हमारे इमेज प्रोसेसर को सीधे साउंड इनपुट्स भेजकर श्रव्य तंत्र समय-संवेदनशील सूचना के साथ टेलीफोन से बात करने बच सकता है।  
यह खोज गड़बड़ स्थिति सिनेस्थेसिया का अनुभव करने वाले वैसे कुछ लोग जो रंगों को महसूस कर सकते हैं, सुन सकते है और टेस्ट कर सकते हैं, से असंबद्ध है। उदाहरण के लिए अधिक जटिल अभिव्यक्ति ब्रेन प्रोसेसिंग के बाद की अवस्था को संघटित करता है ताकि एक रंग, एक अक्षर या एक आकार के शामिल होना एक निश्चित नोट के प्रत्यक्ष बोध को स्वतः ही बढ़ा सकता है।
बैरोन को इस नयी खोज में सबसे अधिक उत्तेजित  संवेदी क्षेत्रों में ''कॉर्टिकल प्लास्टिसिटी'' के लिए संभावना करता है। उदाहरण के लिए परिभाषा के अनुसार अंधा देखने के लिए दृश्य तंत्र का इस्तेमाल नहीं करता है। लेकिन यह अनुसंधान उसे सुनने के लिए उसे इस्तेमाल करने की सलाह देता है। यह इसकी व्याख्या कर सकता है कि अंधे लोग किस तरह सुनने के ऐसे विकसित कौशल को विकसित कर सकते हैं और इसी तरह बहरे अक्सर क्यों अच्छी दृष्टि से युक्त होते हैं।   


स्तन की बायोप्सी

स्तन की बायोप्सी एक सरल चिकित्सा प्रक्रिया है जिसमें स्तन से कुछ ऊतक निकाले जाते हैं और उन्हें जांच के लिए प्रयोगशाला में भेजा जाता है। इससे यह निर्धारित करने में मदद मिल सकती है कि आपके स्तन में गांठ कैंसरजन्य है या कैंसररहित है।
स्तन की बायोप्सी क्यों की जाती है?
स्तन की बायोप्सी आम तौर पर स्तन में गांठ की जांच करने के लिए की जाती है। ज्यादातर स्तन गांठ कैंसर रहित होते हैं। ज्यादातर मामलों में डॉक्टर बायोप्सी कराने के लिए तब कहते हैं जब उन्हें मैमोग्राम या स्तन के अल्ट्रासाउंड के रिपोर्ट को लेकर शंका होती है या शारीरिक परीक्षण के दौरान स्तन में गांठ पाई जाती है।
स्तन की बायोप्सी कराने को तब भी कहा जा सकता है यदि स्तन में कुछ परिवर्तन हो रहा हो, जैसे निप्पल से रक्तनुमा स्राव हो रहा हो, स्तन में पपड़ी पड़ रही हो, त्वचा पर गडढे हों, स्केलिंग हो क्योंकि ये सभी लक्षण स्तन ट्यूमर के विशिष्ट लक्षण हैं।
स्तन की बायोप्सी कैसे की जाती है?
स्तन की बायोप्सी से पहले, आपके डॉक्टर आपके स्तन की जांच करेंगे। इसमें शामिल हो सकते हैंः
— विस्तृत शारीरिक परीक्षण
— अल्ट्रासाउंड स्कैन
— मैमोग्राम
— एमआरआई स्कैन
इन परीक्षणों में से एक परीक्षण के दौरान, आपके डॉक्टर एक पतली सुई या तार को उस क्षेत्र में डाल सकते हैं ताकि सर्जन आसानी से क्षेत्र का पता लगा सके। यह प्रक्रिया आपको लोकल एनेस्थीसिया देकर की जाएगी।
स्तन बायोप्सी के प्रकार
फाइन नीडल बायोप्सी: सर्जन एक छोटी सुई और सिरिंज को गांठ में डालता है और एक नमूना लेता है।
कोर नीडल बायोप्सी: यह फाइन नीडल बायोप्सी के समान है। इस प्रक्रिया में, आपका डॉक्टर कई नमूनों को इकट्ठा करने के लिए एक बड़ी सुई का उपयोग करता है। प्रत्येक सूई का आकार चावल के दाने के आकार के बराबर होता है।
स्टीरियोटैक्टिक बायोप्सी: आपको चेहरा नीचे कर एक विद्युत से संचालित टेबल पर लिटा दिया जाता है जिसमें एक छेद हो सकता है। आपका सर्जन टेबल के नीचे से काम कर सकता है जबकि आपके स्तन को दो प्लेटों के बीच मजबूती से रखा जाता है। डाॅक्टर एक छोटा चीरा लगाएगा और सुई या वैक्यूम-संचालित प्रोब से नमूने लेगा।
एमआरआई-गाइडेड कोर नीडल बायोप्सी: एमआरआई मशीन ऐसी तस्वीरें उपलब्ध कराएगी जो सर्जन को गांठ से नमूने लेने में मदद करेगी। इसमें एक छोटा चीरा लगाया जाता है और एक मोटी नीडल से नमूने लिये जाते हैं।
सर्जिकल बायोप्सी: इसके तहत सर्जरी से स्तन से नमूने लेकर प्रयोगशाला में भेजा जाता है जहां इसके किनारों की जांच की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पूरे कैंसरग्रस्त गांठ को हटा दिया गया है या नहीं। भविष्य में इस क्षेत्र की निगरानी के लिए एक मेटल मार्कर को स्तन में छोड़ा जा सकता है।
स्तन की बायोप्सी के जोखिम क्या हैं?
● स्तन के आकार में परिवर्तन जो निकाले गए ऊतक के आकार पर निर्भर करता है।
● निशान
● सूजन
● पीड़ा
● संक्रमण
हालांकि, उपरोक्त दुष्प्रभावों में से अधिकांश अस्थायी होते हैं और इलाज से ठीक हो जाते हैं। बायोप्सी से जटिलताएं नहीं के बराबर होती हैं, जबकि इसके लाभ काफी अधिक होते हैं। इससे आपके संभावित कैंसरयुक्त गांठ होने का समय पर पता चल जाता है और इस प्रकार इस प्रक्रिया से संबंधित किसी भी जोखिम पर यह भारी हैं।
प्रक्रिया के बाद
1. आप उसी दिन घर जा सकते हैं।
2. आपकी बायोप्सी से लिये गये नमूने विश्लेषण के लिए प्रयोगशाला में भेजे जाएंगे
3. आपको अपने डॉक्टर की सलाह के अनुसार बायोप्सी की जगह को साफ रखने और ड्रेसिंग बदलने की आवश्यकता होगी।
4. यदि निम्न लक्षण दिखाई देते हैं तो कृपया अपने डॉक्टर से संपर्क करें:
— 1000 फारेनहाइट से अधिक बुखार
— बायोप्सी की जगह का लाल होना और खराश
— बायोप्सी की जगह पर गर्मी महसूस होना
— बायोप्सी की जगह से किसी प्रकार का स्राव


 


स्टेम सेल से 130 लाइलाज बीमारियों का इलाज

हमारे देश में हर दिन जन्म लेने वाले 30 हजार बच्चों में से करीब 30 बच्चे जन्मजात बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। इसके अलावा पांच वर्ष से कम उम्र के तकरीबन बीस लाख बच्चे अन्य बीमारियों से ग्रस्त होकर असामयिक मौत के ग्रास बन जाते हैं। हालांकि इनमें से ज्यादातर बच्चों स्टेम सेल आधारित चिकित्सा एवं अन्य आधुनिक चिकित्सा तकनीकों की मदद से काल ग्रस्त होने से बचाया जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य से भारत इन चिकित्सा तकनीकों के इस्तेमाल के मामले में काफी पीछे है।
दुनिया भर में हुये अध्ययनों एवं अनुसंधानों से पता चला है कि स्टेम सेल थिरेपी के जरिये 130 से अधिक आनुवांशिक एवं लाइलाज बीमारियों का इलाज हो सकता है। इसके अलावा इस समय स्टेम सेल आधारित चिकित्सा विधियों का विकास करने के लिये कम से कम 500 क्लिनिकल अध्ययन चल रहे है और स्टेम सेल अनुसंधान में भारतीय वैज्ञानिक भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं लेकिन दुर्भाग्या से हमारे समाज में और यहां तक कि चिकित्सकों के बीच स्टेम सेल की उपयोगिता को लेकर पर्याप्त जागरूकता कायम नहीं हुयी है। 
प्रमुख स्त्री रोग विषेशज्ञ तथा यहां स्थित फीनिक्स हास्पीटल की निदेशक डा. उर्वशी सहगल कहती है, ''अब ज्यादा से ज्यादा माता-पिता अपने होने वाले बच्चे तथा अपने पूरे परिवार के स्वस्थ्य भविष्य के लिये गर्भनाल रक्त बैंकिंग का लाभ उठाने के लिये आगे आ रहे हैं। यही नहीं गर्भास्था के प्रति भी स्त्री रोग विशेषज्ञों का नजरिया भी धीरे-धीरे बदल रहा है तथा वे भी स्टेम सेल एवं रिजेनेरेटिव चिकित्सा के क्षेत्र में विकसित हो रही नयी तकनीकों से अवगत हो रहे हैं।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ अस्थि शल्ष चिकित्सक डा. राजू वैश्य बताते हैं, आस्टियो आर्थराइटिस एवं जोड़ों में लगने वाली चोटों में ऑटोलोगोस कोंड्रोसाइट इम्लांटेशन (ए सी आई) एवं ऑटोलोगोस बोन इम्लांटेषन (ए बी आई) जैसी स्टेम सेल आधारित तकनीकें अत्यंत कारगर साबित हो रही है और अस्थि शल्य चिकित्सकों बीच ये तकनीकें अब तेजी से लोकप्रिय भी हो रही हैं। इन तकनीकों के कारण चीर-फाड़ नहीं करनी पड़ती है, इनका बहुत कम दुष्प्रभाव है, ये तकनीकें अधिक सुरक्षित एवं कारगर हैं। यही कारण है कि धीरे-धीरे ये तकनीकें परम्परात अस्थि षल्य चिकित्सा का स्थान ले रही हैं।''
इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ कास्मेटिक एवं प्लास्टिक सर्जन डा. अनूप धीर बताते हैं कि स्टेम सेल एवं रिजेनेरेटिव कोशिकाओं का इस्तेमाल कास्मेटिक एवं प्लास्टिक शल्य क्रियाओं खास तौर पर स्तर में उभार लाने तथा चेहरे पर निखार लाने के लिये की जाने वाली प्रक्रियाओं में भी इस्तेमाल होने लगा है। 
रिजेनेरेटिव चिकित्सा के क्षेत्र में हुये अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि रक्त एवं रोग प्रतिरक्षण से संबंधित अनेक विकारों के अलावा सेरेब्रल पाल्सी, कुछ तरह के कैंसर, होडकिन्स रोग एवं अन्य आनुवाषिंक बीमारियों के इलाज में स्टेम सेल थिरेपी कारगर है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत में स्टेम सेल को लेकर जागरूकता का भारी अभाव है। न केवल आम लोगों में बल्कि चिकित्सकों में भी स्टेम सेल थिरेपी के बारे में कम जागरूकता है।
भारत में स्टेम सेल थिरेपी एवं स्टेम सेल बैंकिंग की अवधारणा पांच साल से अधिक समय से स्थापित हो चुकी है और धीरे-धीरे लोग स्टेम सेल थिरेपी का लाभ उठाने के लिये आगे आ रहे हैं और चिकित्सा जगत में भी स्टेम सेल आधारित चिकित्सा को वैकल्पिक चिकित्सा के तौर पर देखा जाने लगा है। भारत में इस समय छह से अधिक गर्भनाल रक्त बैंक स्थापित हो चुके हैं और अब अधिक संख्या में गर्भवती महिलायें इसका लाभ उठाने के लिये आगे आ रही हैं। इस समय स्टेम सेल बैंकिंग क्षेत्र का 300 प्रतिशत से अधिक दर से विकास हो रहा है और यह स्पश्ट हो रहा है कि भारत धीरे-धीरे स्टेम सेल के क्षेत्र में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय विकास दर को छू लेगा।   


एब्डोमिनोप्लास्टी (टमी टक)

टमी टक सर्जरी, या एब्डोमिनोप्लास्टी के तहत पेट की अतिरिक्त वसा और त्वचा को हटाया जाता है और, ज्यादातर मामलों में कमजोर या अलग हो चुकी मांसपेशियों को पुनस्र्थापित कर पेट की मांसपेशियों को मजबूत बनाया जाता है।
यह प्रक्रिया पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए उपयुक्त है जिनका वजन सामान्य है और स्वास्थ्य अच्छा है। टमी टक लिपोसक्शन (वसा के जमाव को हटाने के लिए की जाने वाली कॉस्मेटिक सर्जरी) के समान नहीं है। महिलाओं में गर्भधारण के बाद पेट की मांसपेशियों और त्वचा में खिंचाव आ जाता है। ऐसी महिलाओं के लिए ढीली मांसपेशियों में कसाव लाने के लिए और लटकी हुई त्वचा को कम करने के लिए यह प्रक्रिया उपयोगी साबित हो सकती है। टमी टक उन पुरुषों या महिलाओं के लिए भी एक विकल्प है जो अपने जीवन में कभी मोटे थे, और अभी भी उनके शरीर में अत्यधिक वसा जमा है या त्वचा ढीली हो गई है।
टमी टक से बचें, अगर:
(क) आप महिला है और अभी बच्चे पैदा करने की योजना बना रही हैं
(ख) आप अभी भी बहुत वजन कम करने की योजना बना रहे हैं, तो आप तब तक प्रतीक्षा करें जब तक आपका वजन स्थिर नहीं हो जाता है।
(ग) आप पेट पर दिखाई देने वाले सर्जरी के निशान के साथ सहज महसूस नहीं करेंगे।
टमी टक कैसे की जाती है?
अपेक्षित परिणामों की प्रकृति के आधार पर, इस सर्जरी में एक से पांच घंटे तक का समय लग सकता है। ऑपरेशन के दौरान सोने के लिए आपको जेनरल एनीस्थिसिया दी जाएगी।
कम्प्लीट एब्डोमिनोप्लास्टी 
— यह विकल्प उन रोगियों के लिए है जिन्हें सबसे अधिक सुधार की आवश्यकता होती है। इसके तहत पेट के निचले हिस्से में चीरा लगाया जाता है, और चीरा आम तौर पर कूल्हे की हड्डी से कूल्हे की हड्डी तक लगाया जाता है। सर्जन आवश्यकतानुसार आपके पेट की त्वचा और मांसपेशियों की कांट-छांट करेगा और आकार देगा। इस प्रक्रिया में आपकी नाभि के आसपास भी एक चीरा लगाया जाएगा, क्योंकि आपकी नाभि के आस-पास के ऊतक को हटाना आवश्यक है। आपकी त्वचा के नीचे ड्रेनेज ट्यूब रखी जा सकती है जिसे कुछ दिनों में हटा दिया जाएगा।
पार्शियल या मिनी-एब्डोमिनोप्लास्टी
— मिनी-एब्डोमिनोप्लास्टी में अपेक्षाकृत छोटे चीरे लगाये जाते हैं और अक्सर उन रोगियों पर की जाती है जिनके पेट में नाभि के नीचे वसा जमा होता है। इस प्रक्रिया के दौरान, अधिक संभावना है कि आपकी नाभि को वहां से हटाया नहीं जाएगा। चीरा की लाइन और आपकी नाभि के बीच आपकी त्वचा अलग हो जाएगी।
सरकमफेरेंशियल एब्डोमिनोप्लास्टी
— इसमें पेट के पीछे का क्षेत्र भी शामिल होता है। जब पेट के साथ-साथ कमर में बहुत अधिक वसा होता है, तो आपके लिए कमर के लिपोसक्शन या सरकमफेरेंशियल एब्डोमिनोप्लास्टी का विकल्प सही हो सकता है। बाद की प्रक्रिया में कूल्हे और कमर के क्षेत्रों से त्वचा और वसा दोनों को हटाया जाता है, जो आपके शरीर के आकार को तीनों आयाम में सुधार करती है।
टमी टक के बाद, आपके पेट में चीरे की जगह को सिल दिया जाएगा और बैंडेड कर दिया जाएगा और आपके सर्जन आपको सर्जरी के बाद एक लचीली बैंडेड या कंप्रेशन वाले कपड़े पहना सकते हैं।
आपको यह भी निर्देश दिया जाएगा कि आपके लिए बैठने या लेटने का कौन सी मुद्रा सही है जिससे आपको दर्द को कम करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, आपको चार से छह सप्ताह तक कड़ा व्यायाम करने की आवश्यकता होगी। आपका डॉक्टर आपको उपचार की अवधि के दौरान कुछ चीजों से परहेज करने की भी सलाह देगा।
मुझे टमी टक के लिए किस प्रकार तैयार होना चाहिए?
● सर्जरी से पहले और बाद में कम से कम दो सप्ताह तक, निकोटीन के सभी रूपों - गम, पैच और ई-सिगरेट का सेवन पूरी तरह से बंद कर दें।
● अच्छी तरह से संतुलित और परिपूर्ण भोजन करें। सर्जरी से पहले ज्यादा डाइटिंग करने से बचें।
● सर्जरी से पहले और बाद में एक निश्चित अवधि के लिए आपकी कौन सी दवाएँ और आहार लेना बंद करना है, इस बारे में डॉक्टर की सलाह लें। यदि आप रक्त को पतला करनी वाली कोई दवा ले रहे हैं तो अपने सर्जन को बताएं।
टमी टक से होने वाली जटिलताएं / दुष्प्रभाव
सर्जरी के बाद दर्द और सूजन हो सकती है। सूजन कई हफ्तों या महीनों तक रह सकती है। इस दौरान सुन्नपन, इंजुरी और समग्र थकान जैसे लक्षण भी हो सकते हैं। 
किसी भी अन्य सर्जरी के विपरीत, इसके जोखिम भी होते हैं। यदि आपका रक्त परिसंचरण खराब है, आपको मधुमेह, हृदय, फेफड़े या लीवर की बीमारी है या आप धूम्रपान करते हैं, तो टमी टक में कई तरह की जटिलताएं होने का खतरा बढ़ सकता है। उनमें से कुछ जटिलताएं हैं:
— सर्जरी के निशान
— हेमेटोमा (रक्तस्राव)
— संक्रमण
— सेरोमा (द्रव जमा हो जाना)
— घाव का धीरे- धीरे भरना
— त्वचा को नुकसान
— रक्त के थक्के
— एनीस्थिसिया से संबंधित जोखिम
— त्वचा के रंग और बनावट में परिवर्तन
— फैट नेक्रोसिस (त्वचा के भीतर गहराई में स्थित फैटी ऊतक की मौत)
— घाव अलग से दिखना
— विषमता (असमानता या असंतुलन)
टमी टक के बाद जीवन
आम तौर पर, ज्यादातर लोग इस प्रक्रिया को कराने के बाद नए रूप को पसंद करते हैं। हालाँकि, आप  सर्जरी के महीनों बाद अपने आप को पहले की तरह सामान्य महसूस नहीं कर सकते हैं। यह एक बड़ी भावनात्मक, शारीरिक और आर्थिक प्रतिबद्धता है। अंत में, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप अपने नए रूप को बनाए रखने के लिए उचित आहार और व्यायाम का पालन करें।


 


हिप रिप्लेसमेंट (टोटल हिप आथ्रोप्लास्टी)

इस प्रक्रिया के तहत, सर्जन कूल्हे के जोड़ के क्षतिग्रस्त हिस्सों को हटा देता है, और आम तौर पर उनकी जगह धातु और बहुत कठोर प्लास्टिक से बने प्रोस्थेसिस को लगा देता है। यह प्रोस्थेसिस दर्द को कम करने में मदद करता है और चलने-फिरने की क्षमता एवं गतिशीलता में सुधार करता है।
हिप रिप्लेसमेंट क्यों किया जाता है?
- ऑस्टियोआर्थराइटिस - यह स्लिक कार्टिलेज को नुकसान पहुंचाता है जो हड्डियों के सिरों को ढंकता है और जोड़ों को सुचारू रूप से मूव करने में मदद करता है।
- रह्युमेटाॅयड आर्थराइटिस - यह प्रतिरक्षा प्रणाली के अति-सक्रिय हो जाने के कारण होता है और एक प्रकार का इंफ्लामेशन पैदा करता है जो हड्डी और कार्टिलेज को नुकसान पहुंचाता है और जोड़ों को खराब कर देता है।
- ओस्टियोनेक्रोसिस - यह कूल्हे के जोड़ों के बाॅल वाले हिस्से में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति के कारण होता है, जिसके कारण हड्डी टूट सकती है और खराब हो सकती है।
यदि आप कूल्हे के दर्द से पीड़ित हैं जो दर्दनिवारक दवा के सेवन के बावजूद बना रहता है और चलने पर बढ़ जाता है, इसके कारण आपकी नींद मे व्यवधान पड़ता है और आपको चलने-फिरने में दिक्कत होती है, तो आपको डॉक्टर को अवश्य दिखाना चाहिए।
हिप रिप्लेसमेंट कैसे किया जाता है?
अगर आपको किसी दुर्घटना या अन्य कारण से आपातकालीन चिकित्सा की जरूरत नहीं होती है, तब आपकी सर्जरी कई सप्ताह पहले ही निर्धारित कर ली जाएगी। यह 1-3 घंटे की लंबी प्रक्रिया है और जेनरल या लोकल एनीस्थिसिया देकर की जाती है जो आपके स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा।
प्रक्रिया के बाद
सर्जरी समाप्त होने के बाद स्वास्थ्यकर्मी आपके महत्वपूर्ण संकेतों की निगरानी करेंगे और आपको दर्द के लिए दवा देंगे। आपकी हालत स्थिर होने पर आपको अस्पताल के वार्ड में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। आपको अस्पताल में 3-5 दिनों तक रहना पड़ सकता है।
सर्जरी के एक दिन बाद, फिजिकल थेरेपिस्ट आपको उठने और कुछ कदम चलने में मदद करेंगे। कुछ रोगी अस्पताल से छुट्टी के तुरंत बाद घर जा सकते हैं, हालांकि उन्हें ओपीडी में फिजिकल थेरेपिस्ट से लगातार फिजियोथेरेपी कराना जारी रखना पड़ता है, जबकि कुछ रोगी अतिरिक्त देखभाल और इन-पेशेंट थेरेपी के लिए रिहैबिलिटेशन फैसिलिटी में जाने का विकल्प चुन सकते हैं। सीमेंटेड ज्वाइंट प्रोस्थेसिस को रिकवरी में लंबा समय लगता है। 


केरैटेक्टॉमी (लेसिक आई सर्जरी)

लेसिक का अर्थ है लेजर इन-सीटू केरेटोमिलेसिस। यह एक लोकप्रिय सर्जरी है जो निकट दृष्टि दोश वाले, दूर दृश्टि दोश वाले या एस्टिगमैटिक लोगों में दृष्टि को सही करने के लिए की जाती है। दृष्टि में सुधार करने वाली सभी लेजर सर्जरी में कॉर्निया को फिर से सही आकार दिया जाता है।
लेसिक आई सर्जरी के क्या लाभ हैं?
- लगभग 96 प्रतिशत रोगियों में उनकी इच्छानुसार दृष्टि प्राप्त होती है
- बहुत कम दर्द होता है
- सर्जरी के लगभग तुरंत बाद या अगले दिन दृष्टि सही हो जाती है
- पट्टी करने या टाँका लगाने की आवश्यकता नहीं होती है
- दृष्टि में परिवर्तन होने के मामले में दृष्टि को और सही करने के लिए सालों बाद भी समायोजन संभव है
- चश्मा या कॉन्टैक्ट लेंस पर निर्भरता में आश्चर्यजनक रूप से कमी आती है
लेसिक आई सर्जरी के नुकसान क्या हैं?
- जब डॉक्टर फ्लैप बनाते हैं, उस समय बहुत ही दुर्लभ स्थिति में (लगभग नगण्य) समस्याएं हो सकती हैं, जो दृष्टि को स्थायी रूप से प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए, लेसिक आई सर्जरी कराने के लिए अनुभवी सर्जन का चुनाव करना चाहिए।
- आपने कांटैक्ट लेंस का उपयोग करते समय या चश्मा पहनने पर जिस उच्चतम स्तर की दृश्टि पाई, कभी- कभार (लगभग नगण्य) वह ''सर्वश्रेष्ठ'' दृष्टि प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
लेसिक आई सर्जरी के संभावित दुष्प्रभाव क्या हैं?
- चमक
- छवियों के चारों ओर प्रभामंडल (हैलो) का दिखना
- रात में गाड़ी चलाने में कठिनाई
- दृष्टि में उतार-चढ़ाव
- ड्राई आई
लेसिक आई सर्जरी कैसे की जाती है?
(क) लेसिक लोकल एनीस्थिसिया के तहत की जाती है। मरीज हल्का बेहोश करने का भी अनुरोध कर सकते हैं।
(ख) लेसिक के दौरान, माइक्रोकेराटोम या फेमटोसेकंड लेजर का उपयोग कॉर्निया में एक पतली फ्लैप बनाने के लिए किया जाता है, जिसे बाद में हटा दिया जाता है जिसमें दर्द नहीं होता है और दूसरे लेजर का इस्तेमाल कर मूल कॉर्निया के ऊतक को पुनः आकार दिया जाता है।
(ग) कॉर्निया को पुनः आकार देने के बाद, कॉर्निया फ्लैप को वापस रखा जाता है और सर्जरी पूरी हो जाती है।
सर्जरी के बाद
(क) आपकी आँखें अस्थायी रूप से शुष्क हो जाएंगी, हालांकि आप ऐसा महसूस नहीं कर सकते हैं।
(ख) आपको संक्रमण, इंफ्लामेशन और ड्राई आई को रोकने के लिए आई ड्राॅप लेने की सलाह दी जाएगी।
(ग) रिकवरी आम तौर पर बहुत तेजी से होती है।
(घ) सर्जन द्वारा विशिष्ट फौलो-अप का समय निर्धारित किया जाएगा।


टाइम्पेनोप्लास्टी

टाइम्पेनोप्लास्टी को इयरड्रम रिपेयर भी कहा जाता है। यह एक प्रकार की सर्जरी है जो टाइम्पेनिक झिल्ली में छेद (इयरड्रम) या मध्य कान की छोटी हड्डियों के पुनर्निर्माण के लिए की जाती है। बार-बार कान में संक्रमण, सर्जरी, या चोट से आपके कान की हड्डी या मध्य कान की हड्डियों को नुकसान हो सकता है जिसे सर्जरी से ठीक किया जा सकता है।
यह प्रक्रिया क्यों की जाती है?
टाइम्पेनोप्लास्टी इयरड्रम में छेद, और कभी-कभी मध्य कान की हड्डियों की मरम्मत करने के लिए की जाती है। टाइम्पेनिक झिल्ली ग्राफ्टि करने की भी जरूरत पड़ सकती है। ग्राफ्ट आम तौर पर कान के लोब पर नस या फैसिया ऊतक से लिया जाता है। यदि रोगी की पहले भी सर्जरी हो चुकी है और सीमित ग्राफ्ट उपलब्ध हो तो सिंथेटिक पदार्थ विकल्प हो सकता है।
जोखिम
— चेहरे के नर्व या स्वाद को नियंत्रित करने वाले नर्व को नुकसान
— मध्य कान की हड्डियों को नुकसान, जिसके कारण सुनने में कमी आ सकती है
— चक्कर आना
— ईयरड्रम में छेद का पूरी तरह से ठीक नहीं होना
— कोलेस्टीटोमा (ईयरड्रम के पीछे त्वचा की असामान्य वृद्धि)
प्रक्रिया से पहले
अपने चिकित्सक को उन दवाओं के बारे में बताएं, जिन्हें आप ले रहे हैं। इसके अलावा अगर आपको किसी दवा, लेटेक्स, या एनेस्थेसिया से एलर्जी है, तो वह भी बताएं। सर्जरी से पहले आधी रात के बाद आपको भोजन या तरल पदार्थ नहीं लेने के लिए कहा जा सकता है। यदि दवा लेने की आवश्यकता है, तो उन्हें पानी के केवल एक छोटे घूंट के साथ लें।
प्रक्रिया के बाद
(क) सर्जरी के बाद डाॅक्टर आपके कान को रूई के पैक से भर देंगे जो सर्जरी के बाद 5-7 दिनों के लिए आपके कान में रहेगा।
(ख) सुरक्षा के लिए आपके पूरे कान पर एक पट्टी बांधी जाएगी।
(ग) आपको तुरंत छुट्टी दे दी जा सकती है।
(घ) आपको ईयरड्राॅप लेने की सलाह दी जा सकती है।
(ङ) रिकवरी के दौरान आपके कान में पानी को प्रवेश करने से रोकने की आवश्यकता होगी।
(च) भीड़-भाड़ वाले स्थानों और बीमार लोगों के पास न जाने का प्रयास करें क्योंकि इससे कान के संक्रमण का खतरा रहता है।
(छ) आप अपने कान में दर्द महसूस कर सकते हैं या ऐसा महसूस कर सकते हैं जैसे कि कान तरल से भरा हो। आप अपने कानों में फक्क, खट-खट या अन्य आवाजें भी सुन सकते हैं। ये सभी लक्षण बहुत हल्के होते हैं और धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं।


पेट का माइग्रेन (ऐब्डामनल माइग्रेन) क्या है?

पेट के माइग्रेन (ऐब्डामनल माइग्रेन) में बार- बार पेट दर्द और उल्टी होती है जो आम तौर पर 2 से 10 वर्ष की आयु के बच्चों में होती है। हालांकि यह वयस्कों में भी हो सकता है। ये लक्षण आम तौर पर एक घंटे से तीन दिनों तक रह सकते हैं। ये लक्षण हफ्तों या महीनों तक प्रकट नहीं हो सकते हैं और फिर से शुरू हो जा सकते हैं। समय के साथ, ये लक्षण आम तौर पर अपने आप खत्म हो जाते हैं। हालांकि, जिन बच्चों में पेट का माइग्रेन (ऐब्डामनल माइग्रेन) होता है, उन्हें वयस्क होने पर माइग्रेन सिरदर्द होने की अधिक संभावना होती है।
पेट के माइग्रेन (ऐब्डामनल माइग्रेन) के कुछ सामान्य लक्षण
— दर्द या तकलीफ
— थकान
— चक्कर आना
— मतली या उल्टी
निदान और उपचार
निदान - पेट के माइग्रेन के लिए कोई जांच नहीं है। डॉक्टर लक्षणों के आधार पर बीमारी की पहचान करते हैं। चूंकि पेट के माइग्रेन के लक्षण अन्य बीमारियों के समान होते हैं, इसलिए अन्य समस्याओं की पहचान करने के लिए डॉक्टर को परीक्षण करने की आवश्यकता हो सकती है।
उपचार - जब इस बीमारी के लक्षण पहली बार प्रकट होते हैं, तो डाॅक्टर द्वारा सलाह दी गई उल्टी रोकने की दवा से पेट के माइग्रेन के एपिसोड को कभी-कभी रोका जा सकता है।
1. एक बार उल्टी शुरू होने के बाद, डॉक्टर अंधेरे, शांत कमरे में बिस्तर पर रहने की सलाह देते हैं।
2. यदि अधिक उल्टी आ रही है, तो डिहाइड्रेशन को रोकने के लिए इंट्रावेनस फ्ल्युड चढ़़ाने के लिए अस्पताल की इमरजेंसी में जाने की सलाह दी जाती है।
3. बीटा ब्लॉकर्स और अन्य दवाएं भी कुछ रोगियों में पुनरावृत्ति को रोकने में मदद कर सकती हैं।
पेट के माइग्रेन के एपिसोड के दौरान और उसके बाद, बहुत सारे तरल पदार्थ पीना और इलेक्ट्रोलाइट्स को लेना महत्वपूर्ण है।
महत्वपूर्ण जानकारी
1. अगर आपके बच्चे को 6 से 12 घंटे से अधिक समय तक उल्टी हो रही है या कोई अन्य लक्षण है तो तुरंत डॉक्टर को बुलाएं।
2. अगर अधिक उल्टी हो रही है, तो तुरंत अपने डॉक्टर को फोन करें या अस्पताल की इमरजेंसी में ले जाएं।
3. गंभीर डिहाइड्रेशन को रोकने के लिए इंट्रावेनस फ्ल्युड चढ़ाना आवश्यक हो सकता है।
4. पेट के माइग्रेन को बढ़ाने वाले कारकों, जैसे तनाव या कुछ खाद्य पदार्थों की पहचान करें और उनसे बचने का प्रयास करें।


एसीएल नी इंजुरी

एसीएल नी इंजुरी क्या है?
एसीएल इंजुरी तब होती है जब घुटने के अंदर ऐंटीरीअर कोलैटेरल लिगामेंट फट जाता है या अधिक स्ट्रेच हो जाता है। आपका लिगामेंट आंशिक रूप से फट सकता है या पूरा फट सकता है। एसीएल अक्सर खेल या अन्य गतिविधियों के दौरान चोटिल हो सकता है जिसके कारण आपको अपनी गतिविधियों को अचानक रोकना पड़ सकता है। यदि आपको एसीएल इंजुरी हुई है, तो आपके घुटने में चटकने की तेज आवाज सुनाई दे सकती है या घुटने में तेज दर्द या सूजन हो सकती है। ऐसा भी महसूस हो सकता है कि आपका घुटना अस्थिर है। एसीएल को ठीक करने के लिए आपको सर्जरी कराने की आवश्यकता हो सकती है।
एसीएल नी इंजुरी के कुछ सामान्य लक्षण
कमजोरी, जकड़न या गति कम हो जाना, जोड़ से चटकने या तड़कने की आवाज आना, जोड़ में दर्द, वजन सहन करने में असमर्थता, सूजन, जोड़ में अस्थिरता, चलने में कठिनाई, गार्डिंग या फेवरिंग ज्वाइंट
निदान और उपचार
निदान - एसीएल इंजुरी का निदान करने के लिए, डॉक्टर आपके चिकित्सीय इतिहास की जानकारी लेगा और शारीरिक परीक्षण करेगा। डॉक्टर एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, एमआरआई या आथ्रोस्कोपी कराने की भी सलाह दे सकता है।
उपचार - एसीएल इंजुरी के उपचार में शामिल हो सकते हैं:
1. एंटी- इंफ्लामेट्री दवाएं
2. फिजियोथेरेपी
3. सर्जरी, अगर डॉक्टर ने सलाह दी हो
खुद की देखभाल: एसीएल इंजुरी होने पर डॉक्टर से इलाज कराने की जरूरत होती है। लेकिन आप घर पर खुद भी एसीएल इंजुरी के लक्षणों को कम करने में मदद कर सकते हैं:
1. अपने घुटने पर जोर नहीं देने के लिए आप बैसाखी का उपयोग करें।
2. हर कुछ घंटे में लगभग 20 मिनट के लिए अपने घुटने पर आईस पैक को पतली तौलिया में लपेटकर रखें।
3. अपने घुटने को ऊपर रखें।
4. इबुप्रोफेन जैसी बिना नुस्खे वाली दर्द निवारक दवा लें।
महत्वपूर्ण जानकारी
यदि आपको एसीएल इंजुरी के कोई लक्षण हैं, जैसे इंजुरी के समय चटकने की तेज आवाज, घुटने में दर्द, सूजन, कोमलता, या ऐसा महसूस करना कि आपका घुटना स्थिर नहीं है, तो अपने डॉक्टर को दिखाएं। चोट लगने के बाद यदि आपके घुटने नीले दिखते हैं या ठंडक महसूस होती है तो तुरंत अस्पताल की इमरजेंसी में दिखाएं।


ऐब्सेस (फोड़ा)

ऐब्सेस (फोड़ा) क्या है?
स्किन ऐब्सेस (त्वचा के फोडे़) एक प्रकार की सूजन होती है जिसमें मवाद भरा रहता है और जो त्वचा की सतह के नीचे विकसित होती है। इसके कारण त्वचा पर सूजन हो जाती है, वहां दर्द होता है और वहां की त्वचा कोमल हो जाती है। इसे फोड़ा भी कहा जाता है। त्वचा के फोड़े (स्किन ऐब्सेस) अक्सर उन जगहों पर होते हैं जहां आपको पसीना आता है या जहां की त्वचा रगड़ खाती है, जैसे कांख, ग्रोइन, नितंब, चेहरा या गर्दन। स्टैफिलोकोकस ऑरियस और स्ट्रेप्टोकोकी संक्रमण इसके मुख्य कारण हैं। ये बैक्टीरिया त्वचा पर कट, खरोंच और इंफ्लामेशन वाले रोम छिद्र के माध्यम से त्वचा में प्रवेश कर सकते हैं। कुछ त्वचा के फोड़े अपने आप फट जाते है और इनसे अपने आप मवाद निकल जाती है जबकि कुछ का इलाज डॉक्टर से कराने की जरूरत होती है। यदि त्वचा के फोड़े से बैक्टीरिया रक्तप्रवाह, लिम्फ नोड्स या गहरे ऊतक में फैल जाते हैं तो ये खतरनाक साबित होते हैं।
ऐब्सेस के कुछ सामान्य लक्षण
बुखार, ठंड लगना, गांठ या उभार, त्वचा का लाल होना, स्पर्श करने पर कोमल महसूस होना, दर्द या बेचैनी, ग्लैंड का बढ़ जाना या ग्लैंड में सूजन, त्वचा पर खुला घाव, छूने पर गर्म महसूस होना, पानी या मवाद निकलना।
निदान और उपचार
निदान: डॉक्टर रोगी के चिकित्सीय इतिहास के बारे में जानकारी लेगा और फोड़ा और इसके चारों ओर ऊतक की जांच करेगा। डॉक्टर लिम्फ नोड्स में सूजन भी महसूस कर सकते हैं या घाव का कल्चर, रक्त परीक्षण या इमेजिंग करा सकते हैं।
उपचार: फोड़े के उपचार में शामिल हो सकते हैं:
● गर्म सिंकाई
● जरूरत पड़ने पर डॉक्टर द्वारा चीरा लगाना और पानी निकालना
● एंटीबायोटिक्स का कोर्स
खुद की देखभाल: त्वचा के छोटे फोड़े को साफ करने और किसी भी फोड़े से संक्रमण को रोकने में मदद करने के लिए:
1. दिन में चार बार, लगभग 30 मिनट के लिए गर्म सिंकाई करें।
2. त्वचा के फोड़े को छूने से पहले और बाद में हमेशा अपने हाथ धोएं।
3. इससे मवाद निकालने के लिए फोड़े को कभी भी दबाएं नहीं।
4. यदि फोड़ा अपने आप फट जाता है, तो वहां पर एंटीबायोटिक मरहम लगाएं और इसके आस-पास के क्षेत्र को साफ रखें।
5. फोड़े को साफ पट्टी से ढक कर रखें।
6. फोड़े को एंटीबायोटिक साबुन से दिन में दो बार धीरे- धीरे धोएं।
7. फोड़े के संपर्क में आने वाले कपड़ों, चादरों, तौलियों और अन्य सामानों को साबुन और गर्म पानी में धोएं।
महत्वपूर्ण जानकारी
1. अगर त्वचा का फोड़ा आधा इंच से बड़ा है, ठीक नहीं हो रहा है, बड़ा होता जा रहा है, मलाशय या कमर के क्षेत्र में है, या घाव में या त्वचा के नीचे कुछ है तो डाॅक्टर को दिखाएं।
2. इसके अलावा अगर आपको 100.4 डिग्री फारेनहाइट या उससे अधिक बुखार है तो डॉक्टर को दिखाएं।
3. एड्स, मधुमेह, कैंसर, सिकल सेल रोग या पेरिफेरल वैस्कुलर रोग जैसी पुरानी बीमारी से पीड़ित लोगों को किसी भी त्वचा के फोड़े के लिए डॉक्टर को दिखाना चाहिए।
4. यदि आपको त्वचा का फोड़ा हो गया है, और वह हट गया है लेकिन आपको बुखार है या उस क्षेत्र की त्वचा लाल होती जा रही है या दर्द हो रहा है तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें।


 


ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म

ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म क्या है?
ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म शरीर (महाधमनी) को रक्त की आपूर्ति करने वाली प्रमुख नाड़ी के निचले हिस्से में होने वाला उभार है। महाधमनी (आओर्टा) हमारे हृदय से हमारी छाती और पेट के बीच से होकर गुजरती है और यह शरीर की सबसे बड़ी रक्त वाहिका है। ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म के फट जाने पर यह घातक साबित हो सकता है। महाधमनी का इलाज एन्यूरिज्म के आकार और इसके बढ़ने की गति के आधार पर निर्भर करता है।
ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म के कुछ सामान्य लक्षण
ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म अक्सर धीरे-धीरे बढ़ते हैं और कोई लक्षण प्रकट नहीं करते हैं, जिसके कारण उनका पता लगाना काफी मुश्किल हो जाता है। कुछ एन्यूरिज्म कभी भी फटते नहीं हैं। लेकिन, यदि आपको ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म है और वह बढ़ रहा है, तो आप निम्न लक्षण महसूस कर सकते हैं:
— आपके पेट के अंदर या बगल में लगातार तेज दर्द
— कमर दर्द
— आपकी नाभि के करीब धड़कन महसूस होना
कारण और जोखिम कारक
ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म के विकास के लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं:
● धमनियों का सख्त होना (एथेरोस्क्लेरोसिस): जब रक्त वाहिका की लाइनिंग पर वसा और अन्य पदार्थ जमा हो जाते हैं।
● उच्च रक्तचाप महाधमनी की दीवारों को नुकसान पहुंचाता है और कमजोर करता है।
● रक्त वाहिका संबंधी रोगों के कारण रक्त वाहिकाओं में सूजन हो जाती है।
● ट्रामा भी ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म पैदा कर सकता है।
जोखिम कारक
● तम्बाकू का सेवन। जितना अधिक समय तक आप धूम्रपान करते हैं या तंबाकू चबाते हैं, ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म होने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।
● उम्र। एन्यूरिज्म 65 से अधिक उम्र के लोगों में सबसे अधिक होता है।
● पुरुष होना। पुरुषों में महिलाओं की तुलना में ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म अधिक होते हैं।
● पारिवारिक इतिहास। ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म के पारिवारिक इतिहास होने से यह बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है।
● अन्य एन्यूरिज्म। घुटने के पीछे महाधमनी या छाती में महाधमनी जैसी अन्य बड़ी रक्त वाहिका में एन्यूरिज्म होने पर ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म होने का खतरा बढ़ सकता है।
निदान और उपचार
निदान: ऐब्डामनल आओर्टिक एन्यूरिज्म का पता आम तौर पर अन्य कारण से जांच के दौरान या हृदय या पेट के अल्ट्रासाउंड जैसे नियमित चिकित्सा परीक्षणों के दौरान चलता है। डॉक्टर आपके चिकित्सीय और पारिवारिक इतिहास के बारे में जानकारी लेंगे और शारीरिक परीक्षण करेंगे। इसके अलावा, इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ विशेष परीक्षण भी किये जा सकते हैं:
● पेट का अल्ट्रासाउंड
● सीटी स्कैन
● एमआरआई
उपचार: उपचार का लक्ष्य - एन्यूरिज्म को फटने से रोकने के लिए या तो दवा से इलाज किया जाता है या सर्जरी की जाती हैै। आपका इलाज आओर्टिक एन्यूरिज्म के आकार और यह कितनी तेजी से बढ़ रहा है, इस पर निर्भर करता है। लेकिन इसके लिए आपको निरंतर चिकित्सीय देखरेख में रखने की आवश्यकता होगी।
● सर्जरी - सर्जरी की सलाह आम तौर पर तब दी जाती है जब आपका एन्यूरिज्म 1.9 से 2.2 इंच (4.8 से 5.6 सेंटीमीटर) या इससे बड़ा हो या तेजी से बढ़ रहा हो।
● ओपन एब्डॉमिनल सर्जरी - इसमें एक महीने में पूरी रिकवरी होने की संभावना होती है। हालांकि एंडोवैस्कुलर रिपेयर अधिक बार करने की जरूरत पड़ती है। डॉक्टर एक पतली ट्यूब (कैथेटर) के अंत में एक सिंथेटिक ग्राफ्ट लगाते हैं और उसे आपके पैर की धमनी के माध्यम से आपकी महाधमनी तक ले जाते हैं।
● ग्राफ्ट - धातु की जाली से कवर की गई एक वुवेन ट्यूब को एन्यूरिज्म की जगह पर रखा जाता है, उसे फैलाया जाता है और वहां चिपका दिया जाता है जो महाधमनी के कमजोर हिस्से को मजबूत करता है और फटने से रोकता है।
सर्जरी के बाद, आपको यह सुनिश्चित करने के लिए नियमित इमेजिंग परीक्षण कराने की आवश्यकता होगी कि रिपेयर लीक तो नहीं हो रही है।
महत्वपूर्ण जानकारी
जटिलताएं
महाधमनी की दीवार की एक या एक से अधिक परतों में टूट-फूट (महाधमनी विच्छेदन) या एन्यूरिज्म के फटने जैसी जटिलताएं हो सकती हैं। आपके आओर्टिक एन्यूरिज्म के फटने के निम्न लक्षण हो सकते हैं:
● पेट या कमर में अचानक, तीव्र और लगातार दर्द, जिसे टियरिंग सेंसेषन कहा जा सकता है
● निम्न रक्तचाप
● नाड़ी का तेज चलना
आओर्टिक एन्यूरिज्म उस क्षेत्र में रक्त के थक्के बनने के जोखिम को भी बढ़ाता है। यदि रक्त का थक्का एन्यूरिज्म की अंदर की दीवार से ढीला हो जाता है और आपके शरीर में कहीं भी रक्त वाहिका को अवरुद्ध करता है, तो इसके कारण दर्द हो सकता है या पैर, पैर की उंगलियों, गुर्दे या पेट के अंगों में रक्त प्रवाह को अवरुद्ध कर सकता है।
रोकथाम
आओर्टिक एन्यूरिज्म को रोकने के लिए या आओर्टिक एन्यूरिज्म को और गंभीर होने से रोकने के लिए, आपको निम्न बातों का पालन करना चाहिए:
● धूम्रपान या तंबाकू चबाने से परहेज करना
● स्वस्थ आहार का सेवन करना
● अपने रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रण में रखना
● नियमित व्यायाम करना
● आपके डॉक्टर आपको भारी सामान उठाने और कठिन शारीरिक गतिविधि से बचने की सलाह देंगे
● संघर्षपूर्ण और तनावपूर्ण स्थितियों से बचें।


मधुमेह के नियंत्रण के लिए नया पैरामीटर

मधुमेह के नियंत्रण में प्रबंधन में ग्लिसेमिक वैरिएशन की शुरुआत होने से इसके नियंत्रण में एक नयी उपलब्धि हासिल हुई है। यह इस निष्कर्ष पर आधारित है कि ग्लूकाज का अस्थिर स्तर, यहां तक कि मधुमेह रोगियों में ग्लूकोज के पूरी तरह से नियंत्रण के बाद भी हृदय रोग के लिए एक बड़ा खतरा पैदा करता है


आरएसएसडीआई के अध्यक्ष डा. राजीव चावला ने ग्लिसेमिक वैरिएशन को लेकर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता बताते हुए कहा, "ग्लिसेमिक वैरिएशन के द्वारा हम मधुमेह के रोगियों में भोजन के पहले और बाद में ग्लूकोज के स्तर में गैर एकरूपता का पता लगा सकते हैं। यह अक्सर हो सकता है लेकिन ग्लाइकोसिलेटेड हीमोग्लोबिन (एचबीए1सी) जैसे मार्करों के नियंत्रण में इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा सकता है। और यह परिवर्तन रक्त वाहिकाओं में इंजुरी पैदा करने में सक्षम है और यह रक्त वाहिकाओं में इंजुरी पैदा कर इससे संबंधित कई अंगों/ भागों विशेषकर हृदय, आंख और किडनी में डिसफंक्शन पैदा करता है"


यह परिवर्तन क्यों होता है, इस बारे में आरएसएसडीआई के सचिव डा. बी एम मक्कड़ कहते हैं, "मधुमेह एक मेटाबोलिक डिसआर्डर है जिसमें इंसुलिन और ग्लूकोज के बीच असंतुलन हो जाता है। चिकित्सकीय हस्तक्षेप के लिए जीवन शैली में परिवर्तन कर, ग्लूकोज और इंसुलिन में संतुलन पैदा कर मधुमेह का प्रबंधन किया जाता है। उपवास या अधिक स्नैक्स लेने जैसी किसी भी नयी स्थिति के पैदा होने पर यह संतुलन बिगड़ जाता है और रक्त ग्लूकोज कभी अधिक तो कभी कम हो सकता है और यह क्षति पहुंचा सकता है।


जी बी पंत अस्पताल के एंडोक्राइनोलॉजी विभाग के विभागाध्यक्ष डा. एस वी मधु कहते हैं, "प्राटोकॉल में चिकित्सक के द्वारा मल्टी प्वाइंट मानीटरिंग की सुविधा जुड़ जाने से रोगी को परामर्श देना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जायेगामधुमेह में आहार में परिवर्तन सिर्फ चीनी से बचना नहीं है। बल्कि नियमित अंतराल पर भोजन लेना और अधिक कैलोरी युक्त या अधिक ग्लिसेमिक इंडेक्स वाले खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना महत्वपूर्ण है।"


मधुमेह के बारे में


मधुमेह के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मधुमेह फेडरेशन के अनुसार भारत में वर्ष 2011 में मधुमेह के 62 लाख 40 हजार रोगी थे जबकि वर्ष 2010 में 50 लाख 80 हजार मधुमेह रोगी थे। वर्ष 2030 में यहां एक करोड़ मधुमेह रोगी हो जाने का अनुमान है। देश में टी2डी का प्रसार 9 प्रतिशत है लेकिन दिल्ली मे 10.9 प्रतिशत है। इसकी व्यापकता शहरी क्षेत्रों में अधिक है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में भी इसका प्रसार बढ़ रहा है। आईजीटी (इम्पेयर्ड ग्लूकोज टोलेरेन्स) का प्रसार शहरी क्षेत्रों में 9 प्रतिशत है ओर ग्रामीण क्षेत्रों में 7.8 प्रतिशत है। अनुमान लगाया गया है कि आईजीटी के 35 प्रतिशत रोगी मधुमेह रोगी में तब्दील हो जायेंगे जिससे इस रोग का बोझ और बढ़ेगाइस बोझ को कम करने के लिए, मधुमेह और इससे जुड़ी जटिलताओं की रोकथाम या इलाज के लिए नये दिशा निर्देश अनिवार्य हैं.


 


 


कैसे करें थायरॉयड कैंसर की पहचान और रोकथाम 

गले में किसी भी प्रकार के गांठ या सूजन का पता लगाने के लिए गले के हिस्से का शारीरिक परीक्षण किया जाता है। एक रक्त परीक्षण की मदद से षरीर में थायरॉयड को उत्तेजित करने वाले हार्मोन के स्तर का पता लगाया जाता है। अल्ट्रासाउंड जैसी इमेंजिंग जांच से गांठ की प्रकृति का पता लगाया जाता है और बढ़े हुए लिम्फ नोड्युल को देखा जाता है। कैंसर कोषिकाओं की जांच के लिए चिकित्सक थायरॉयड ग्रंथि की बायोप्सी कर सकते हैं जिसके तहत् वे थायरॉयड ऊतक या ग्रंथि के एक हिस्से से छोटे से टुकड़े को निकालकर इसकी जांच करते हैं।
थायरॉयड नोड्युल बहुत सामान्य है, और सभी नोड्युल कैंसर वाले नहीं होते हैं। इसलिए किसी लक्षण के बगैर अधिक परीक्षण की जरूरत नहीं है क्योंकि यदि किसी नोड्युल की पहचान होती है, तो वैसे लोगों में भी जिन्हें थायरॉयड कैंसर नहीं हैं उनमें भी यह कैंसर की गलत धारणा दे सकता है। कैंसर का पता लगाने के लिए, कभी-कभी अनावष्यक स्कैन और फाइन निडल एस्पिरेषन कर दी जाती है और यह एक अनावष्यक तनाव देता है। इसलिए बेहतर यह है कि किसी व्यक्ति में थायरॉयड कैंसर के विषिश्ट लक्षण का पता लगने पर वह जल्द से जल्द चिकित्सक को दिखाए।
क्या इसे रोका जा सकता है ? 
मेडुलरी थायरॉयड कैंसर एक दुर्लभ प्रकार का कैंसर है जो आनुवांषिक होता है और यदि आनुवांषिक परीक्षण में इसके होने की अधिक संभावना का पता चलता है तो वह व्यक्ति अपनी थायरॉयड ग्रंथि को हटवा सकता है। इसके अलावा, अधिकतर थायरॉयड कैंसर को रोका नहीं जा सकता।    
लेकिन जोखिम कारकों के साथ-साथ लक्षणों के बारे में जागरूकता किसी भी व्यक्ति को सतर्क कर सकती है और थायरॉयड कैंसर सं संबंधित किसी भी प्रकार के परिवर्तन का संदेह होने पर वह जल्द से जल्द चिकित्सक से परामर्ष कर सकता है। इसके अलावा, जल्द पहचान कैंसर के दुश्प्रभाव से बचने में मदद कर सकता है।
थायरॉयड कैंसर के मामलों में वृद्धि होने के साथ-साथ इसकी पहचान के लिए बेहतर इमेजिंग तकनीकों के ईजाद के कारण थायरॉयड कैंसर के मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन ज्ञान वह शक्ति है जिससे लोग इस घातक बीमारी के डर को दूर कर सकते हैं।


जागरूकता से जीतें थायरॉयड कैंसर के खिलाफ जंग

थायरॉयड कैंसर के लक्षणों और इसके जोखिम कारकों के बारे में जागरूकता की मदद से बीमारी की शुरुआती अवस्था में ही पहचान करने में सहायता मिल सकती है, जो इसके इलाज के लिए महत्वपूर्ण है और यदि इस बीमारी से किसी व्यक्ति को अधिक खतरा है तो उसे इस संबंध में जागरूक करने में सहायता मिल सकती है।
किसी व्यक्ति में कैंसर की पहचान होने पर अब तक यह उसके लिए मौत की सजा मानी जाती रही है। लेकिन चिकित्सा तकनीकों और थिरेपियों में विकास होने के साथ- साथ कई गंभीर और पुरानी बीमारियों का इलाज अब संभव हो गया है। उनमें से एक सबसे आसानी से इलाज हो सकने वाला कैसर थायरॉयड कैंसर है, जो गले के निचले हिस्से में स्थित थायरॉयड ग्रंथि को प्रभावित करता है। यह ग्रंथि कुछ महत्वपूर्ण हार्मोन का स्राव करती है और चयापचय को नियंत्रित करती है।
लेकिन थायरॉयड कैंसर के इलाज के लिए बीमारी का जल्द पता लगाना महत्वपूर्ण है। इसके संभावित कारणों, लक्षणों, रोकथाम और इलाज के बारे में जागरुकता कई लोगों की जिंदगी बचाने में मदद कर सकती है और थायरॉयड कैंसर के जोखिम कारकों या प्रारंभिक लक्षणों के होने पर लोग सतर्क हो सकते हैं।
इसके कारणों और लक्षणों को समझें
किसी भी बीमारी की रोकथाम के लिए उसके कारणों और जोखिम कारकों को समझना जरूरी है। पूरी तरह से जानकारी प्राप्त और जागरूक व्यक्ति यदि जोखिम की श्रेणी में आता है और उसके षरीर में किसी भी प्रकार का असामान्य परिवर्तन होता है तो वह डॉक्टर से परामर्ष अवश्य लेगा। 
थायरॉयड कैंसर के कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हैं। लेकिन थायरॉयड कैंसर के पारिवारिक इतिहास वाले लोगों में इस बीमारी का खतरा निश्चित रूप से अधिक होता है। चिकित्सीय परीक्षण या थिरेपियों के दौरान या परमाणु संयंत्र आपदाओं के दौरान रेडियेशन के संपर्क में आने वाले लोगों में इस बीमारी को खतरा बढ़ सकता है।
इसके अन्य संभावित कारकां में अधिक षारीरिक वजन, आयोडीन की कमी और आहार में फलों और सब्जियों की कमी हो सकती है। हालांकि अभी तक यह निष्चित नहीं हो पाया है कि इनमें से कौन सा कारक थायरॉयड कैंसर में योगदान करता है। लेकिन हर व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य की देखभाल के दौरान इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
लक्षणों के बारे में जानना भी उतना ही आवश्यक है। थायरॉयड कैंसर का सबसे स्पष्ट और सामान्य चेतावनी संकेत गले के हिस्से में गांठ या सूजन है। कोई भी व्यक्ति जितनी जल्दी इस परिवर्तन को पहचान लेता है उसे परीक्षण के लिए जल्द से जल्द चिकित्सक से अवष्य संपर्क करना चाहिए। इसके अन्य लक्षणों में गले में दर्द, खांसी, निगलने में परेशानी, सांस लेने में कठिनाई, आवाज का बैठना या आवाज में परिवर्तन षामिल है। इन लक्षणों को नजर अंदाज कर देने पर बीमारी फैलती जाती है और रोगी के जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है और बीमारी के इलाज के लिए अधिक कठिन इलाज की जरूरत पड़ती है।


कैसे किया जाता है थायरॉयड कैंसर का इलाज?

शरीर में सभी थायरॉयड कैंसर कोशिकाओं को हटाने या उसे नष्ट करने के लिए सर्जरी और उसके बाद रेडियोएक्टिव आयोडीन उपचार किया जाता है। हर व्यक्ति में इसका इलाज उसके प्रकार- पैपिलरी, फोलिकुलर, मेडुलरी, एनाप्लास्टिक और थायरॉयड लिम्फोमा पर निर्भर करता है और साथ ही कैंसर की अवस्था पर भी निर्भर करता है।
थायरॉयडेक्टोमी से या तो पूरी थायरॉयड ग्रंथि को या उसके एक हिस्से को निकाल दिया जाता है और यदि बीमारी गले में लिम्फ नोड तक फैल चुकी हो तो उसके साथ लिम्फ नोड को भी निकाल दिया जाता है। थायरॉयड कैंसर होने पर ग्रंथि को निकालने के लिए अधिकतर मामलों में थायरॉयडेक्टोमी ही की जाती है और यह रेडियोएक्टिव इलाज और थायरॉयड रिप्लेसमेंट थिरेपी को भी अधिक प्रभावी बनाता है।
इन दिनों, थायरॉयड कैंसर के छोटे ट्युमर को निकालने के लिए दागरहित सर्जरी भी की जाती है जिसमें इस प्रक्रिया के दौरान कांख (एक्जिला) में चीरा लगाया जाता है जो रोबोट के द्वारा किया जाता है या दूरबीन की मदद से किया जाता है।
बीमारी के छूट जाने या बीमारी के दोबारा होने की संभावना का खत्म करने के लिए शरीर में बची हुई किसी भी थायरॉयड कैंसर कोषिकाओं और थायरॉयड कोषिकाओं को नष्ट करने के लिए सर्जरी के बाद रेडियोएक्टिव आयोडीन थिरेपी दी जाती है जिसे रेमनेंट एब्लेषन भी कहते हैं। इस इलाज के तहत् रोगी को रेडियोएक्टिव आयोडीन युक्त पेय या कैप्सूल दी जाती है। थायरॉयड कोशिकाएं आयोडीन को अवषोशित कर लेती हैं लेकिन गैर- थायरॉयड कोशिकाओं को इससे कोई नुकसान नहीं होता। सर्जरी और रेडियोएक्टिव आयोडीन चिकित्सा के बावजूद यदि शरीर में कैंसर मौजूद रह जाये तो कीमोथेरेपी का इस्तेमाल किया जा सकता है।
पूरे इलाज के बाद भी रोगी को अपनी बाकी जिंदगी थायरॉयड हार्मोन की गोलियां लेनी पड़ती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सर्जरी के दौरान छूट गये लिम्फ नोड या थायरॉयड ऊतक के छोटे टुकड़ों में थायरॉयड कैंसर के दोबारा प्रकट होने, या फेफड़ों या हड्डियों जैसे षरीर के अन्य हिस्सों में कैंसर की जांच के लिए चिकित्सक समय-समय पर रक्त परीक्षण या थायरॉयड का स्कैन कराने की सलाह देते हैं। लेकिन अच्छी खबर यह है कि यदि थायरॉयड कैंसर दोबारा होता है और यदि यह अधिक फैला न हो तो इसका इलाज किया जा सकता है।
थायरॉयड कैंसर के इलाज के लिए ओंकोलॉजी विशेषज्ञ, इंडोक्राइनोलॉजी विशेषज्ञ, रेडियोलॉजी विशेषज्ञ, पैथोलॉजी विशेषज्ञ, क्लिनिकल साइकोलॉजी विशेषज्ञ और आहार विशेषज्ञ जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में विशेषज्ञ स्वास्थ्य चिकित्सकों को एकत्रित करने की जरूरत होती है। इन सभी विशेषज्ञों और प्रशिक्षित नर्सों की निगरानी में रोगी का विशेष ख्याल रखने पर रोगी जल्द स्वस्थ होता है और उसे कम शारीरिक और मानसिक परेषानियों का सामना करना पड़ता है।
अस्पताल में प्रशिक्षित चिकित्सकों की अनुभवी टीम की निगरानी में इलाज होने पर कैंसर रोगियों के इलाज की सफलता दर अच्छी होती है इसलिए रोगी के इलाज के दौरान होलिस्टिक देखभाल का अवश्य चुनाव करना चाहिए।


बीमारियों से बचकर सर्दियों का लुत्फ उठायें

सर्दी का मौसम बहुत ही आनंददायक हो सकता है, लेकिन देष के ऊतरी भाग में रहने वाले लोगों के लिए यह मौसम जानलेवा भी हो सकता है। तापमान में गिरावट आने के साथ स्वास्थ्य समस्याओं में कई गुना वृद्धि देखी जाने लगी है। इस मौसम के षुश्क होने और हर दिन पारा के नीचे जाने के साथ हर रोज अस्पतालों, नर्सिंग होम और क्लिनिकों में सामान्य से तेज बुखार और छाती में जकड़न के साथ आने वाले रोगियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। दिन, रात और सुबह के तापमान में काफी अंतर होने के कारण चिकित्सक मौसम में हो बदलाव के कारण होने वाली बीमारियों के प्रति लोगों को पर्याप्त सावधानी बरतने की सलाह दे रहे हैं।   
नयी दिल्ली के कैलाष कॉलोनी के नोवा स्पेषियलिटी सर्जरी के इंटरनल मेडिसीन के डा. नवनीत कौर कहते हैं, ''सर्दियों में होने वाली बीमारियों का मुख्य कारण बैक्टीरिया और वायरस का संक्रमण है। ठंड के मौसम में धूप की कमी और कम तापमान वायरस और बैक्टीरिया के संक्रमणों के लिए आदर्ष स्थिति होती है जो खांसी, जुकाम, गले में सूजन, फ्लू और सर्दियों की अन्य बीमारियों को पैदा कर सकता है। इसके अलावा अधिक ठंड के मौसम में षरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी कमजोर हो जाती है जिसके कारण षरीर विभिन्न प्रकार के वायरस और बैक्टीरिया के हमलों के प्रति अति संवेदनषील हो जाता है।'' 
सर्दियों के आते ही त्वचा में सूखापन आने लगता है और त्वचा से पपड़ी सी उखड़ने लगती है, इसके अलावा त्वचा में खुजली भी होने लगती है। ऐसी स्थिति में दिन में कई बार मॉइस्चराइजर लोषन लगाने से भी फायदा नहीं होता। इससे प्रभावित व्यक्ति को त्वचा को सामान्य साबुन से धोकर और कभी-कभी साबुन मुक्त क्लींजर से त्वचा को साफ कर थोड़ी गीली त्वचा में ही तुरंत मॉइष्चराइजर लगाना चाहिए। स्नान करने या त्वचा को साफ करने के लिए कमरे के तापमान का पानी या हल्का गर्म पानी का इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन बहुत अधिक गर्म पानी का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए। धूप से त्वचा को बचाने के लिए हाथों में उपयुक्त सनब्लॉक का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि सर्दी की धूप त्वचा को नुकसान पहुंचा सकती है। इस मौसम में डैंड्रफ से बचने के लिए डैंड्रफ रोधी षैम्पू का इस्तेमाल करना चाहिए।
सर्दी का मौसम आपकी आंखों को विषेश रूप से नुकसान पहुंचा सकता है। घर के अंदर की सूखी हवा आपकी आंखों में जलन पैदा कर सकती है और दृश्टि को नुकसान पहुंचा सकती है। नयी दिल्ली के मेडफोर्ट हॉस्पीटल के नेत्र विषेशज्ञ डा. त्याग मूर्ति षर्मा कहते हैं, ''सर्दी में आंखों की सबसे सामान्य षिकायत आंखों में सूखापन है जो आंखों में जलन या खुजली पैदा करता है या ऐसा महसूस होता है जैसे आंखों में कोई बाहरी चीज चली गयी हो। इसका कारण आपके घर या दफ्तर के अंदर खिड़कियों के बंद होने और वहां के तापमान के अधिक होने के कारण नमी के स्तर का कम होना हो सकता है। सर्दियों में ठंडी हवा में बाहर समय गुजारने पर भी आंखों में  सूखापन हो सकता है।'' जब आप जाग रहे हों और आपकी आंखें खुली हों तो अधिक मात्रा में तरल का सेवन करें और और गर्म या ठंडा एयर ह्युमिडिफायर का इस्तेमाल करें। आंखों को गीली रखने वाले आई ड्रॉप को डालने से आंखों को आराम मिलता है। जब आप कम्प्यूटर का इस्तेमाल जैसे दृश्टि संबंधित कोई जटिल कार्य कर रहे होते हैं तो आप आंखों को बार-बार नहीं झपकाते हैं जो सर्दियों के आंखों के सूखापन को बढ़ावा दे सकता है। अगर कार्य करते समय आपकी आंखें सूखी महसूस हो रही हों तो आंखों को बार-बार झपकाएं।   
अध्ययनों से पता चलता है कि सर्दियों में हृदय रोग और स्ट्रोक की घटनाओं के कारण मौत और अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या में 50 प्रतिषत की वृद्धि हो जाती है। नयी दिल्ली के नेषनल हार्ट इंस्टीच्यूट के कार्डियोलॉजी के प्रमुख डा. विनोद षर्मा कहते हैं, ''मुंह के द्वारा बहुत ठंडी हवा को अंदर लेने से कोरोनरी धमनियां को ठंड पहुंचती है जिससे वे संकुचित हो जाती हैं। यह दिल के लिए पंप हो रहे रक्त की मात्रा को खतरनाक रूप से कम कर सकती है। सर्दियों के महीनों के दौरान षरीर को गर्म रखने के लिए हमारे हृदय को अधिक कार्य करना पड़ता है। यह अतिरिक्त दबाव दिल के दौरे के खतरे को बढ़ा सकता है। जब आप घर में हों तो खुद को गर्म रखें और जब आप घर से बाहर जा रहे हों तो भी खुद को गर्म रखने के लिए पर्याप्त कपड़े पहनने में सावधानी बरतें।   
सर्दियों के दौरान, काफी बच्चे अपने कान में दर्द, खांसी और छाती में भारी जकड़न की समस्या को लेकर चिकित्सक के पास आते हैं। नयी दिल्ली के कैलाष कॉलोनी के नोवा स्पेषियलिटी सर्जरी के ईएनटी विषेशज्ञ डा. ललित मोहन पराषर के अनुसार ठंड या एलर्जी कड़ाके की ठंड की वजह से सूजन के कारण इयूस्टैचियन ट्यूब को बंद कर सकता है। यह ट्यूब नाक के हिस्से से कान को जोड़ने वाला एक संकीर्ण रास्ता है। चिकित्सकों के अनुसार यह स्थिति विषेशकर छोटे बच्चों में पायी जाती है क्योंकि उनकी ट्यूब अपेक्षाकृत छोटी और अधिक क्षैतिज होती है। इस रास्ते में रुकावट आने से कान में दर्द और संक्रमण हो सकता है।   
घुटनों के दर्द से ग्रस्त मरीजों के लिए, यह मौसम बुरा हो सकता है क्योंकि सर्दियों में घुटनों का दर्द बढ़ सकता है। नयी दिल्ली के षालीमार बाग के फोर्टिस हेल्थकेयर के आर्थोपेडिक सर्जन डा. सुभाश जांगिड़ के अनुसार, ''सर्दियों में घुटनों के दर्द के बढ़ने के कई कारण हैं। जैसे-जैसे तापमान गिरता है आर्थराइटिस के बढ़ने की प्रवृति बढ़ती जाती है क्योंकि सर्दियों में ठंडा मौसम जोड़ों की जकड़न को बढ़ा देता है जिससे घुटनों में तेज दर्द होता है। तापमान में अधिक परितर्वन सूजन वाले जोड़ों के आसपास के हिस्सों में भी सूजन पैदा कर सकता है, उसके आसपास के नर्व्स को भी प्रभावित कर सकता है जो जोड़ों में दर्द और जकड़न को बढ़ा देता है।'' दबाव में कमी षरीर के ऊतकों के प्रसार को बढ़ाकर पहले से सूजन वाले क्षेत्रों में सूजन और दर्द को और बढ़ा देता है। 


युवावस्था में दिल के दौरे से मौत होने वाले परिवारों में कम उम्र में ही हृदय रोग का अधिक खतरा

कम उम्र में दिल के दौरे के कारण मौत होने वाले परिवारों में कम उम्र में ही हृदय रोग होने का खतरा अधिक होता है। यह निष्कर्ष 40 लाख लोगों पर किये गये व्यापक अध्ययन से निकला है। अमेरिकन कॉलेज ऑफ कार्डियोलॉजी के जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में हृदय रोग के वंशानुगत होने की पुष्टि हुई है।    
हृदय रोग से मुक्त लोगों की तुलना में जिन लोगों के बिल्कुल करीबी पिछली पीढ़ी के रिश्तेदारों की हृदय रोग के कारण कम उम्र में मौत हो गयी हो उनमें कम उम्र में ही हृदय रोग होने का खतरा 78 प्रतिषत अधिक पाया गया है। पिछली एक या दो पीढ़ी के रिश्तेदारों में कम उम्र में एक मौत की तुलना में दो या अधिक मौत हृदय रोग के खतरे को दोगुना या इससे भी अधिक बढ़ा देता है। 
फोर्टिस अस्पताल के वरिष्ठ हृदय रोग विषेशज्ञ डा. प्रमोद कुमार कहते हैं कि इस अध्ययन से यह साबित होता है कि हृदय रोग के विकास में पारिवारिक इतिहास यहां तक कि उच्च रक्तचाप, उच्च कॉलेस्ट्रॉल और मधुमेह जैसे दिल को नुकसान पहुंचाने वाले कारणों के गैर मौजूद होने पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए लोगों को अपने परिवार में किसी भी हृदय रोग की घटना के बारे में जानकारी रखना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है और चिकित्सकों को भी हर मरीज से इस संबंध में पूछताछ करनी चाहिए।    
पिछली पीढ़ी के रिश्तेदार में समयपूर्व मौत इस्कीमिक हृदय रोग के खतरे को 2 से 5 गुणा बढ़ाता है और इसका संबंध परिवार के सदस्यों में सभी प्रकार के एरिथमियाज से है। वैसे परिवारों में जिनके दो पीढ़ी पहले के रिष्तेदार की समयपूर्व मौत हो गयी हो उनमें आईएचडी और वेंट्रिकुलर एरिथमिया का खतरा दो गुणा कम हो सकता है।   
दिल्ली के शालीमार बाग स्थित मैक्स हेल्थ केयर के हृदय रोग विषेशज्ञ डा. नित्यानंद त्रिपाठी कहते हैं कि दिल का दौरा धमनियों में रुकावट के अलावा दिल की असामान्य ताल और हृदय की मांसपेशी की समस्याओं जैसी खराब स्वास्थ्य आदतों के कारण भी हो सकती है।  


अधिक शराब से बढ़ सकता है दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा

फर्मा एक्जेक्यूटिव 36 वर्षीय राहुल को शराब के साथ पार्टी का जश्न मनाना पसंद है। वह अक्सर अपने दोस्तों के साथ आधी रात को बैठकर कुछ अतिरिक्त शराब का सेवन कर लेते हैं। वह कहते हैं कि हमलोगों को मस्ती करना पसंद है और शराबके बिना यह अधूरा है। यह पूछने पर कि क्या वह जानते हैं कि यह अचानक दिल का दौरा या स्ट्रोक पैदा कर सकता है, वह सिर्फ ना नहीं कहते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि शराब दिल के लिए अच्छा होता है। 
विशेषज्ञ टी 20 क्रिकेट, एफ 1 रेसिंग जैसे लोकप्रिय खेल को लेकर चिंतित हैं क्योंकि लोग इसे आनंददायक बनाने और इससे इससे जुड़ने के लिए इस दौरान अत्यधिक षराब का सेवन कर लेते हैं। एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में पाया गया है कि विश्व कप के दौरान विषेशकर युवाओं में शराबकी खपत दोगुनी हो जाती है।
मैक्स हेल्थ केयर के हृदय रोग विशेषज्ञ डा. नित्यानंद त्रिपाठी कहते हैं कि शराब और हृदय रोग के बारे में लोगों में बहुत गलफहमी है और जागरुकता की कमी है। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कम मात्रा में शराब का सेवन दिल के लिए अच्छा हो सकता है जबकि इस बात के अधिक साक्ष्य उपलब्ध हैं कि शराब का अधिक सेवन दिल और दिमाग के लिए बहुत खराब हो सकता है।  
डा. त्रिपाठी कहते हैं कि न सिर्फ उन लोगों के लिए जो शराबके आदी रहे हैं बल्कि कभी-कभार अनियंत्रित ढंग से शराब पीने वाले लोगों में भी इसके खतरे हो सकते हैं। यह खतरा कम समय से लेकर लंबे समय तक का हो सकता है। 
फोर्टिस अस्पताल के वरिश्ठ कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. प्रमोद कुमार बताते हैं कि ''बहुत ज्यादा शराब पीने से रक्त में ट्राइग्लिसराइड्स नामक कुछ हानिकारक वसाओं का स्तर बढ़ सकता है। यह उच्च रक्त चाप और हार्ट फेलियर का खतरा पैदा कर सकता है और अधिक कैलोरी मोटापा पैदा करता है। ये सभी सीवीडी के गंभीर रिस्क फैक्टर हैं। शराब के साथ धूम्रपान इस खतरे को और बढ़ाकर स्थिति को और बदतर बना देता है। 
अपोलो अस्पताल के इंटरवेंषनल न्यूरो रेडियोलॉजिस्ट डा. हर्ष रस्तोगी कहते हैं कि अत्यधिक शराब का सेवन स्ट्रोक के खतरे को बढ़ा देता है और मस्तिष्क को रक्त आपूर्ति करने वाली धमनियां फट सकती हैं। इसके सामान्य लक्षण अस्पष्ट आवाज, कमजोरी, तेज सिरदर्द आदि हो सकते हैं। ऐसे असामान्य लक्षणों के होने पर सामान्य दर्दनिवारक लेने से बचना चाहिए क्योंकि ये दुष्प्रभाव पैदा कर सकते हैं।


 


दुनिया का सबसे बड़ा हत्यारा है सेक्स, अल्कोहल और वसा

स्वास्थ्य के सिर्फ पांच कारणों का मुकाबला कर लाखों लोगों की समयपूर्व मृत्यु को रोका जा सकता है और लोगों की आयु औसतन पांच साल बढ़ सकती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में हर साल होने वाली 60 मिलियन समयपूर्व मुत्यु में से करीब एक चौथाई मृत्यु का कारण बाल्यावस्था में खराब पोषण, असुरक्षित यौन संबंध, शराब का सेवन, शौचालय और हाइजिन की खराब व्यवस्था तथा उच्च रक्तचाप  है। 
गरीब देशों में जहां खराब पोषण स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है वहीं अमीर देशों में मोटापा और अधिक वजन स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा है। विश्व में कम वजन के कारण होने वाली मुत्यु की तुलना में मोटापा और अधिक वजन मृत्यु का एक बड़ा कारण बन गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व स्वास्थ्य के कुछ बड़े और विस्तृत खतरों का सामना कर रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 24 बड़े स्वास्थ्य खतरों का परीक्षण कर उनकी पहचान करने और मूल्याकंन करने की सिफारिश की है जिससे नीति निर्माताओं को विस्तृत रूप से और कम खर्च में ही स्वास्थ्य में सुधार के लिए रणनीति बनाने में मदद मिलेगी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य में सुधार के फायदे कई गुना होते हैं। गरीबों में बीमारी का भार कम होने पर उनकी आमदनी में वृद्धि हो सकती है जिससे बाद में स्वास्थ्य समस्याओं को कम करने में सहायता मिलेगी।
रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि हालांकि धूम्रपान, मोटापा और अधिक वजन जैसे स्वास्थ्य के कुछ बड़े और खतरनाक कारणों का संबंध आम तौर पर उच्च आय वाले देशों से होता है लेकिन विश्व में बीमारियों का कुल भार का तीन चौथाई से अधिक गरीब और विकासशील देशों में पैदा होता है।
रिपोर्ट में कहा गया है, ''स्वास्थ्य के खतरे अभी परिवर्तन के दौर में हैं। एक तरफ तो संक्रामक बीमारियों पर सफलता पाने के कारण लोगों की उम्र बढ़ी है लेकिन दूसरी तरफ शारीरिक सक्रियता और भोजन, अल्कोहल तथा तम्बाकू की खपत के तौर-तरीकों में बदलाव आया है। विश्व स्वास्थ्य में सुधार के लिए स्पष्ट और प्रभावकारी रणनीतियों को बनाने में इन खतरों की भूमिका को समझना महत्वपूर्ण है।''
जेनेवा की यू. एन. हेल्थ एजेंसी ने विश्व में मृत्यु के सबसे अधिक खतरों के रूप में उच्च रक्तचाप, तम्बाकू का इस्तेमाल, उच्च रक्त शर्करा, शारीरिक निष्क्रियता और मोटापा या अधिक वजन को नामांकित किया है। उच्च रक्तचाप विश्व में 13 प्रतिशत मृत्यु के लिए जिम्मेदार है जबकि तम्बाकू का इस्तेमाल 9 प्रतिशत मृत्यु के लिए, उच्च रक्त शर्करा 6 प्रतिशत मृत्यु के लिए, शारीरिक निष्क्रियता 6 प्रतिशत मृत्यु के लिए और मोटापा या अधिक वजन 5 प्रतिशत मृत्यु के लिए जिम्मेदार हैं। 
ये कारण पुरानी बीमारियों और हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसे सबसे बड़े हत्यारे का खतरा बढ़ाते हैं और सभी देशों के उच्च, मध्यम और निम्न आय वर्ग वाले सभी समूहों को प्रभावित करते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किये गए इस अध्ययन में सन् 2004 से लेकर ताजा उपलब्ध आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया और इसमें यह देखा गया कि स्वास्थ्य किस तरह एक विश्व समस्या बनती जा रही है। संगठन ने चेतावनी दी है कि विकासशील देशों को अब स्वास्थ्य के खतरों का दोगुना सामना करना पडे़गा। 
रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिक गरीब देश निर्धनता, कुपोषण, असुरक्षित यौन संबंध, असुरक्षित पानी और शौचालय के कारण अब भी स्वास्थ्य समस्या का अधिक सामना कर रहे हैं। साथ ही साथ गलत खान-पान के कारण उच्च रक्त चाप, कोलेस्ट्रॉल और मोटापा, शारीरिक सक्रियता में दोगुनी कमी बीमारियों के कुल भार को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं।


स्टेंट से रिस्टेनोसिस का दूर होता खतरा

हृदय की बाईपास सर्जरी अथवा एंजियोप्लास्टी के बाद हृदय की रक्त धमनियों के दोबारा हृदय की बाईपास सर्जरी अथवा एंजियोप्लास्टी के बाद हृदय की रक्त धमनियों के दोबारा बंद होने या उनमें रूकावट उत्पन्न होने की आशंका बनी रहती है। लेकिन औषधि लेपित स्टेंट की मदद से अब यह आशंका काफी हद तक दूर हो गयी है।


हृदय रोग चिकित्सक पद्मभूषण डा. पुरुषोत्तम लाल का कहना है कि दुनिया भर में कई अध्ययनों में औषधि लेपित स्टेंट को कारगर एवं सुरक्षित पाये जाये के बाद अमरीका, यूरोपीय देशों और भारत जैसे विकासशील देशों में इनका तेजी से इस्तेमाल होने लगा है। हाल के दिनों में इन स्टेंटों की कीमतों में भी काफी गिरावट आयी है।


अनेक अध्ययनों में औषधि लेपित स्टेंट के अधिक कारगर एवं सुरक्षित पाये जाने के बाद दुनिया के विभिन्न देशों में बंद रक्त धमनियों को खोलने के लिये एंजियोप्लास्टी के दौरान औषधि लेपित स्टेंट का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा है। औषधि लेपित स्टेंट को साइफर अथवा टेक्सस भी कहा जाता है।


डा. पुरुषोत्तम लाल बताते हैं कि स्टेंट धातु की जालीनुमा ट्यूब होती है जिसे एजियोप्लास्टी की मदद से हृदय की बंद धमनियों को खोलने के बाद वहीं पर हमेशा के लिये छोड़ दिया जाता है ताकि धमनियां दोबारा नहीं सिकुड़े। सामान्य स्टेंट से औषधि लेपित स्टेंट इस अर्थ में भिन्न है कि उस पर रैपामाइसिन (सिरोलिमस) अथवा टेक्सोल नामक औषधि की परत चढ़ी होती हैस्टेंट से धीरे-धीरे यह औषधि निकलती रहती है और वहां नये ऊतकों को बनने या कॉलेस्ट्राल जमा नहीं होने देती हैअध्ययनों से पाया गया है कि नये स्टेंट से हृदय की रक्त धमनियों के दोबारा बंद होने (रिस्टेनोसिस) की आशंका करीब दो-तिहाई घट जाती है। साइफर स्टेंट स्टेनलेस स्टील का जालीनुमा यंत्र होता है जिसमें प्रति वर्ग सेंटीमीटर में 140 माइक्रोग्राम रैपामाइसीन होती हैटेक्सस स्टेंट पर टेक्सोल दवा की परत होती है। स्टेंट में लगी दवा कोशिकाओं में वृद्धि को रोकती है


डा. लाल बताते हैं कि औषधि लेपित स्टेंट एक से डेढ़ माह तक नियंत्रित तरीके से धीमी गति से रैपामाइसिन अथवा टेक्सोल छोड़ता है और वहां नयी कोशिकाओं को बनने नहीं देता हैइस तरह से रिस्टेनोसिस की आशंका घटती हैयह दवाई कोशिकाओं की अतिरिक्त वृद्धि को भी रोकती है और कोशिकाओं को नष्ट नहीं करती हैभारत में औषधि लेपित स्टेंट के दाम में काफी गिरावट होने की संभावना है


संभावना है हृदय रोगों के आपरेशन बगैर उपचार की अनेक तकनीकों को विकसित करने वाले डा. लाल के अनुसार इस समय कई तरह के स्टेंट उपलब्ध हैं। इसे एक छोटे से गुब्बारे पर रख कर धमनी में संकरे या जमाव के स्थान तक पहुंचा कर फुला दिया जाता है। अमरीका में बंद रक्त धमनियों को खोलने के लिये हर साल आठ लाख एंजियोप्लास्टी होती है। अनुमानतः 15 से 30 प्रतिशत मरीजों में एंजियोप्लास्टी से खोली गयी धमनियां दोबारा बंद हो जाती हैं


इस स्थिति को रिस्टेनोसिस कहा जाता है। इसके एक साल बाद मरीज की जान बचाने के लिये एंजियोप्लास्टी या बाईपास सर्जरी करने की जरूरत पड़ जाती है। लेकिन स्टेंट और खास तौर पर औषधि लेपित स्टेंट के इस्तेमाल की बदौलत धमनियों में दोबारा अवरोध की आशंका नहीं के बराबर रह गयी है


सबसे अधिक एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंटिंग करने का श्रेय हासिल करने के लिये इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से सम्मानित डा. लाल के अनुसार जिन मरीजों को साइरोलिमस अथवा स्टील से एलर्जी है उनमें साइफर या टेक्सस स्टेंट नहीं प्रत्यारोपित किये जाने चाहिये। इसके अलावा उन लोगों में भी औषधि लेपित स्टेंट के इस्तेमाल में सावधानी बरती जानी चाहिये जिन्हें हाल में दिल की सर्जरी हुयी है अथवा जो महिलाएं आने वाले दिनों में गर्भधारण करने वाली हैं और जो अपने शिशु को स्तनपान करा रही हैं।


हृदय रोगों के आपरेशन बगैर उपचार की अनेक तकनीकों को विकसित करने वाले डा. लाल ने बताया कि एंजियोप्लास्टी, स्टेंट एवं रैपामाइसिन लेपित स्टेंट को महत्वपूर्ण चिकित्सकीय उपलब्धियां बताते हुये कहते हैं कि इन तकनीकों के ऑपरेशन की तुलना में कई फायदे हैं। सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि इनमें चीर-फाड़ की जरूरत नहीं पड़ती हैमरीज को एनेरिथसिया आदि देकर बेहोश नहीं करना पड़ता तथा ऑपरेशन की तुलना में इसमें बहुत कम समय (आधा से एक घंटा) लगता है। इस कारण मरीज जल्दी स्वास्थ्य लाभ करता है। मरीज को संक्रमण होने तथा मौत होने की आशंका ऑपरेशन की तुलना में बहुत कम होती है। मरीज को दूसरे ही दिन अस्पताल से छुट्टी दी जा सकती है। इस समय केवल बैलून अथवा एंजियोप्लास्टी के जरिये 75 प्रतिशत रोगियों का इलाज हो सकता है जबकि एंजियोप्लास्टी के साथ स्टेंट का प्रयोग करने पर 90 प्रतिशत रोगियों का इलाज संभव हो गया हैडा. पुरूषोत्तम लाल के अनुसार मधुमेह के मरीजों या उन मरीजों को जिनकी एक से अधिक डा. पुरूषोत्तम लाल के अनुसार मधुमेह के मरीजों या उन मरीजों को जिनकी एक से अधिक धमनियों में रूकावट है या जिनकी धमनी में जमाव का क्षेत्र बहुत लंबा है उनका इलाज भी औषधि लेपित स्टेंट से हो सकता है जबकि पहले इनकी जान बचाने के लिये हृदय की सर्जरी करनी पड़ती थीभारतीय लोगों की धमनियां पश्चिमी देशों के लोगों की तुलना में संकरी होती हैं और यहां के लोगों में मधुमेह का प्रकोप भी अधिक होता है जिसके कारण यहां के लोगों की धमनियों में थोड़ा सा भी अवरोध होने पर धमनियां ब्लॉक हो जाती हैं तथा धमनियों को खोलने के बाद भी उनमें दोबारा ब्लॉक होने की आशंका अधिक होती है. ऐसे में औषधि लेपित स्टेंट भारतीयों के लिये विशेष तौर पर लाभदायक साबित हो सकता है.


 


 


 


 


 


 


 


 


रोबोट के जरिये शरीर के भीतरी भाग के ट्यूमर की सर्जरी

• शरीर के नीचले हिस्से से रक्त को हृदय तक पहुंचाने वाली बड़ी नली "इंफेरियर वेना कावा __(आईवीसी)" के निकट बड़े आकार के रिट्रोपेरिटोनियल स्क्वानोमा की सर्जरी


• असाधारण आकार वाले रिट्रोपेरिटोनियल स्क्वानोमा की माप 13 गुणा 9 गुणा 7 सेंमी


सर गंगा राम हॉस्पिटल के आईएमएएस (इंस्टीच्यूट ऑफ मिनिमल एक्सेस, मेटाबोलिक एंड बैरिएट्रिक सर्जरी) ने रोबोटिक असिस्टेड रिट्रोपेरिटोनियल स्क्वानोमा एक्सिजन की सफलता पूर्वक सर्जरी कीइस तरह की सर्जरी का यह दुनिया में पहला मामला है। सर गंगा राम हॉस्पिटल के इंस्टीच्यूट ऑफ मिनिमल एक्सेस, मेटाबोलिक एंड बैरिएट्रिक सर्जरी के अध्यक्ष डा. प्रवीण भाटिया ने सर्जरी के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने की आज यहां घोषणा कहते हुये बताया कि रोबोटिक तकनीक का इस्तेमाल इसके – त्रिआयामी "3 डी" मैग्नीफिकेशन तथा प्रेसिजन के लिए कई प्रकार की सर्जरी की प्रक्रियाओं में किया जाता है, लेकिन भारत में और संभवतः विश्व में पहली बार इस रोबोटिक तकनीक का इस्तेमाल दाहिनी तरफ के ट्यूमर को रिसेक्ट करने के लिए किया गया है। रिट्रोपेरिटोनियल स्क्वानोमा का रिसेक्शन आम तौर पर एंटेरियर रिट्रोपेरिटोनियल विधि का इस्तेमाल करके किया जाता हैयह एक प्रकार का असामान्य ट्यूमर है जो 5 से 6 सेमी की व्यास से अधिक नहीं होता है। इस ट्यूमर की स्थिति में मरीज का इलाज करने के लिये ऑपरेशन ही मुख्य उपाय होता हैसर गंगा राम अस्पताल में की गयी इस सफल सर्जरी से पता चलता है कि रिट्रोपेरिटोनियल हिस्से में रोबोटिक रिसेक्शन संभव है। रोबोटिक सर्जरी करने पर परपंरागत ओपन सर्जरी की तलना में बहत कम एवं बहुत छोटे चीरे लगाने की जरूरत पड़ती है


सर गंगा राम हॉस्पिटल के इंस्टीच्यूट ऑफ मिनिमल एक्सेस, मेटाबोलिक एंड बैरिएट्रिक सर्जरी के अध्यक्ष डा. प्रवीण भाटिया कहते हैं, "ट्यूमर एक तरफ आईवीसी से और दूसरी तरफ दाहिने गुर्दे, अग्नाशय और छोटी आंत में फंस गया थाइस मुश्किल स्थिति में सर्जरी के दौरान कम रक्त की हानि, कम निशान, उच्च परिशुद्धता के साथ बहुत कम दर्द और सर्जरी के बाद मरीज के शीघ्र स्वस्थ्य होने के लिए रोबोटिक सर्जरी (दा विंची सी एचडी सर्जिकल सिस्टम) के इस्तेमाल के विकल्प को चुना गयाऐसे दुर्लभ मामले के कारण डा. प्रवीण भाटिया और डा. विवेक बिंदल को शिकागों के इलिनोइस विश्वविद्यालय के क्लिनिकल रोबोटिक सर्जरी असोसिएशन के सम्मेलन में इस मामले के अध्ययन को प्रस्तुत करने और इस अनूठी सर्जरी द्वारा प्राप्त अनुभव को साझा करने के लिए आमंत्रित किया गया हैमामले की रिपोर्ट : 45 वर्षीय महिला को दो साल से दाहिने पैर के निचले हिस्से के हाइपोहाइड्रोसिस के साथ पेट के दाहिने हिस्से में भारीपन की शिकायत थी। रिट्रोपेरिटोनियल गांठ दाहिने हाइपोकोंड्रियम और लंबर क्षेत्र


में साफ दिखाई दे रहा थापेट की सीटी और एमआरआई से पता चला कि यह गांठ 12.2 गुणा 8.5 गुणा 8.2 सेंटीमीटर का था और इस गोलाकार आकृति में कैल्शिफिकेशन की फोसी के साथ घाव था जो नेक्रोसिस मीडियल से दाहिने गुर्दे और पार्श्व से आईवीसी तक था और दोनों की रिनल वाहिकाओं को अपनी जगह से हटा रहा था। उसमें लिम्फेडेनोपैथी नहीं था और सीरम एएफपी, बीटा-एचसीजी और एलडीएच सामान्य सीमा में थेमरीज के बायें पार्श्व हिस्से में दा विंची एसआई एचडी सर्जिकल प्रणाली एवं ट्रांस-पेरिटोनियल विधि का


मरीज के बायें पार्श्व हिस्से में दा विंची एसआई एचडी सर्जिकल प्रणाली एवं ट्रांस-पेरिटोनियल विधि का इस्तेमाल करते हुये ट्यूमर का रोबोटिक विच्छेदन किया गया। दा विंची सर्जिकल प्रणाली की मदद से छोटी सी जगह में भी नाजुक विच्छेदन किया जा सकता है। इस तरीके से आसपास के अंगों एवं महत्वपूर्ण धमनियों को नुकसान पहुंचाये बगैर ट्यूमर को पूरी तरह निकाल लिया गया। एक कैमरा आर्म पोर्ट के साथ रोबोटिक उपकरणों के आर्म का इस्तेमाल किया गया। नैदानिक लैपरोस्कोपी से पता चला कि ट्यूमर के दायें रेट्रोपेरिटोनियल हिस्से में एक बड़ी गांठ है और वह गांठ कोलोन पर एक तरफ दबा रहा था और इस कारण वहां सर्जरी संबंधी प्रक्रिया करने के लिये बहुत कम जगह बची थी। लेकिन रोबोटिक प्रक्रिया के जरिये आईवीसी, ड्यूडेनम, पैंक्रियाज के अगले सिरे और किडनी के दाहिने हिस्से से ट्यूमर के पूरे के पूरे हिस्से को अलग करके निकाल लिया गयापरिणाम


परिणाम ऑपरेशन में 240 मिनट का समय लगा तथा करीब 200 मिली लीटर रक्त का नुकसान हुआऑपरेशन के दौरान या ऑपरेशन के बाद कोई जटिलता नहीं हुयी और मरीज को ऑपरेशन के तीसरे दिन अस्पताल से छुट्टी दे दी गयीहिस्टोपैथोलॉजी रिपोर्ट से पता चला कि यह 13 गुना 9 गुना 7 सेंटीमीटर लंबा, कैंसर या रोग रहित स्क्वानोमा ट्यूमर था जो एक 1100 के लिये पॉजिटिव तथा एसएमए, सीडी 117 और सीडी 34 के लिये निगेटिव थानिष्कर्ष


निष्कर्ष आईएमएएस के कंसल्टेंट एवं टीम में शामिल डा. विवेक बिंदाल ने बताया, "रोबोटिक तकनीक के इस्तेमाल से रेट्रोऑपरिटोनियल ट्यूमरों को सुरक्षित एवं कारगर तरीके से निकाला जा सकता है तथा इसमें कम से कम चीरा लगाने की जरूरत पड़ती है। यह 3 डी दृष्टि, इंडोरिस्टेड उपकरणों, ट्रेमोर फिल्ट्रेशन एवं मोशन स्कैलिंग तकनीक के कारण संभव हुआ है।"


 


उत्तर भारत में 36 प्रतिशत मधुमेह मरीज इरेक्टाइल डिसफंशन से ग्रस्त

उत्तर भारत में 36 प्रतिशत मधुमेह रोगी "हाइपोगोनाडोट्रॉपिक हाइपोगोनाडिज्म नामक विशेष स्थिति से ग्रस्त हैं जिसके कारण लिंग में कड़ापन एवं फैलाव लाने वाले हार्मोनों का उत्सर्जन करने वाली सेक्स ग्रंथियों के उत्तेजित होने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। यह निष्कर्ष हाल में उत्तर भारत में किये गये अध्ययन से निकला है


इस अध्ययन के आधार पर रिसर्च सोसायटी फॉर द स्टडी ऑफ डायबेटिस इन इंडिया (आरएसएसडीआई) का सुझाव है कि 40 साल से अधिक उम्र के हर मधुमेह मरीज की एडम स्कोर जांच होनी चाहियेइस अध्ययन के तहत 35 से 60 वर्ष की उम्र वाले 200 पुरुषों पर अध्ययन किया गया और पाया गया कि जो लोग मधुमेह से पीडित नहीं होते हैं उनकी तुलना में मधुमेह रोगियों में यौन हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन का स्तर बहुत कम होता है। टेस्टाटेरॉन वह रासायनिक पदार्थ है जो पुरुषों में यौन सक्रियता को बनाये रखता है और यह वीर्यकोष से उत्सर्जित होता है


यह अध्ययन आरएसएसडीआई की दिल्ली शाखा के अध्यक्ष एवं मधुमेह विशेषज्ञ एवं शोधकर्ता डा. राजीव चावला की निगरानी में हुआ. उन्होंने आज यहां आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में बताया कि हमारा अनुमान है कि मध्यम वय के मधुमेह ग्रस्त 50 से 60 प्रतिशत लोग इरेक्टाइल डिसफंक्शन से ग्रस्त होते हैं। इरेक्टाइल डिसफंक्शन की स्थिति में यौन संबंध या यौन उत्तेजना के समय लिंग में कड़ापन नहीं आ पाता हैयह अध्ययन मधुमेह रोगियों में इरेक्टाइल डिसफंक्शन की समस्या का प्रकोप बहुत अधिक होने के अनुमान की पुष्टि करता है। ऐसे रोगियों के हार्मोन असंतुलन को ठीक करके उनके स्वस्थ्य यौन जीवन को दोबारा वापस लाया जा सकता है।


डा. चावला बताते हैं कि ऐसे रोगियों की एडम स्कोर जांच भी की जानी चाहिये ताकि "इरेक्टाइल डिसफंशन" के आरंभिक लक्षणों की पहचान हो सके और उनका शीघ्र इलाज शुरू हो सकेएडम स्कोर जांच प्रश्नावलियों पर आधारित जांच विधि है जिसके तहत मरीज को दस सवालों के जवाब देने होते हैं। यह निःशुल्क किंतु कारगर परीक्षण हैडा. चावला कहते हैं कि आमतौर पर लोग अपने यौन जीवन की बातों को बताने से हिचकते हैं ऐसे में इस परीक्षण के जरिये यह पता लगाया जा सकता है कि मरीज किस तरह की यौन दिक्कत से गुजर रहे हैं