नैनोमेडिसीन से होगा क्षतिग्रस्त स्नायुओं का इलाज

वैज्ञानिकों ने नैनो तकनीक के जरिये स्पाइनल कार्ड के क्षतिग्रस्त स्नायुओं का इलाज करने का तरीका विकसित किया है।
यह कामयाबी हासिल की है अमरीका के परडयू यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने। इसके तहत किसी दुर्घटना के तुरत बाद इस नैनो-पदार्थों को रक्त में इंजेक्ट कर स्पाइनल कार्ड के चोटग्रस्त स्नायुओं का इलाज किया जा सकता है। इन सूक्ष्म पदार्थों के व्यास करीब 60 नैनोमीटर है और ये लाल रक्त कोशिका के व्यास से भी 100 गुना छोटे हैं।
अनुसंधानकर्ता इस शोध के तहत् यह पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि सूक्ष्म पदार्थों का इस्तेमाल कैंसर और अन्य बीमारियों के इलाज के लिए षरीर के विभिन्न अंगों में दवाइयां पहुंचाने के लिये किस तरह किया जा सकता है। इसके अलावा यह भी पता करने की कोशिश की जा रही है कि माइसेल्स क्षतिग्रस्त एक्जोन्स की खुद ही मरम्मत कैसे कर सकता है। एक्जोन्स एक फाइबर है जो स्पाइनल कार्ड में विद्युतीय आवेशों को संचारित करता है।  
सुप्रसिद्ध जर्नल ''नेचर नैनोटेक्नोलॉजी'' के ताजा अंक में प्रकाशित इस अनुसंधान में वेल्डन स्कूल ऑफ बायोमेडिकल इंजीनियरिंग एंड डिपार्टमेंट ऑफ केमिस्ट्री में सहायक प्रोफेसर जी-क्सिन चेंग कहते हैं, ''यह बहुत ही आश्चर्यजनक खोज है। अनुसंधान में दवा की डिलीवरी के माध्यम के रूप में माइसेल्स का इस्तेमाल करीब 30 सालों से किया जा रहा है लेकिन किसी ने अभी तक इसका इस्तेमाल सीधे तौर पर दवा के रूप में नहीं किया था।''
माइसेल्स में दो प्रकार के पॉलीमर होते हैं, एक हाइड्रोफोबिक और दूसरा हाइड्रोफिलिक होता है अर्थात् ये या तो पानी के साथ नहीं घुल सकते हैं या पानी के साथ घुल सकते हैं। हाइड्रोफोबिक का सार भाग बीमारी के इलाज करने के लिए दवाइयों से भरा हो सकता है।
माइसेल्स का इस्तेमाल पॉलीइथिलीन ग्लाइकोल सहित अधिक परम्परागत ''मेम्ब्रेन सीलिंग एजेंट'' की जगह किया जा सकता है जो माइसेल्स का बाहरी कवच बनाता है। नैनोस्केल आकार और माइसेल्स के पॉलीइथिलीन ग्लाइकोल कवच के कारण ये न तो किडनी के द्वारा जल्द फिल्टर होते हैं और न ही लीवर के द्वारा कैप्चर होते हैं। ये रक्त प्रवाह में लंबे समय तक बने रहते हैं और उतकों को क्षतिग्रस्त करते हैं।
चेंग कहते हैं, ''इस अनुसंधान में माइसेल्स जरूरी सांद्रण के स्तर पर गैर-विषैला पाया गया। माइसेल्स के साथ आपको रेगुलर पॉलिइथिलीन ग्लाइकोल के करीब एक लाखवें सांद्रण की ही जरूरत होगी।''
सेंटर फॉर पारालिसिस रिसर्च के निदेशक रिचर्ड बोरगन्स और स्कूल ऑफ वेटेरिनरी मेडिसीन में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर मैरी हुलमैन जार्ज के नेतृत्व में किये गए अनुसंधान में पॉलीइथिलिन ग्लाइकोल या पी ई जी को स्पाइनल कार्ड में चोट वाले जानवरों में लाभदायक पाया गया।
इस शोध में पाया गया कि पी ई जी क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को विशेष रूप से लक्ष्य करता है और चोटग्रस्त क्षेत्र को सील कर आगे क्षति होने से बचाता है। इस शोध में यह भी पाया गया कि विशेष पदार्थ से बने सार भाग क्षतिग्रस्त एक्जोन्स की मरम्मत में अन्य की तुलना में बेहतर कार्य करते हैं।
शोध में यह भी पाया गया कि माइसेल्स इलाज एक्जोन की रिकवरी को करीब 60 प्रतिशत बढ़ा देता है। इस शोध में यह पता करने की भी कोशिश की गई कि माइसेल्स क्षतिग्रस्त नर्व कोशिकाओं की किस तरह मरम्मत करता है और साथ ही स्पाइनल कॉर्ड की सिग्नल को ट्रांसमीट करने की क्षमता का भी पता लगाया गया। शोध में पाया गया कि माइसेल्स का इस्तेमाल एक सामान्य प्रकार का स्पाइन इंजरी कंप्रेशन इंजरी के द्वारा क्षतिग्रस्त एक्जोन की मरम्मत के लिए किया जा सकता है।
अनुसंधानकर्ताओं ने चूहों में मरे हुए माइसेल्स की भी खोज की और यह पता किया कि नैनोकण क्षतिग्रस्त जगह पर किस तरह सफलतापूर्वक पहुंचे। इसके अलावा यह भी पता किया गया कि माइसेल्स से इलाज किये गए जानवर किस प्रकार अपने चारों पैर को नियंत्रित करने में सफल रहे जबकि परम्परागत पॉलीइथिलिन ग्लाइकोल से इलाज में ऐसा संभव नहीं था।  


मिनी फेटल मॉनीटर से होगी माता और बच्चे के जीवन की सुरक्षा

हर माता एक स्वस्थ बच्चे को जन्म देना चाहती है और चिकित्सक गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की जांच के लिए अल्ट्रासाउंड का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अल्ट्रासाउंड से बच्चे की हर गतिविधि और खतरे का पता लगाना संभव नहीं होता। लेकिन अब एक सेलफोन के आकार के यंत्र की मदद से गर्भस्थ शिशु की चौबीसों घंटे निगरानी की जा सकेगी और किसी भी खतरे के लक्षण की समयपूर्व पहचान कर  बच्चे की जिंदगी बचायी जा सकेगी।
अमरीका के बाल्टीमोर में यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड मेडिकल सेंटर के हाई रिस्क प्रिगनेंसी विशेषज्ञों ने एक ऐसे फेटल मॉनीटरिंग यंत्र का निर्माण किया है जो गर्भ में बच्चे की स्थिति और उसकी गतिविधि का पता लगाएगा और साथ ही बच्चे और माता की हृदय की धड़कन की भी जानकारी देगा। यह यंत्र लगातार चौबीस घंटे तक आंकड़ों को संग्रह करने में समर्थ है। यह यंत्र पोर्टेबल और पहनने योग्य है और इसका आकार एक मोबाइल फोन जितना ही है। इस यंत्र के पांच इलेक्ट्रोड को माता के पेट के चारों तरफ रखा जाता है जो हृदय की मॉनीटरिंग करने वाले ईकेजी की तरह ही इलेक्ट्रिक सिग्नलों को पकड़ते हैं। विशेष तौर पर डिजाइन किया गया सॉफ्टवेयर माता और बच्चे के हृदय के धड़कनों को अलग करता है। इससे प्राप्त आंकड़े यूएसबी में इकट्ठा होते हैं जिसे चिकित्सक किसी भी कम्प्यूटर में देख कर किसी भी खतरे के संकेत को समयपूर्व देख सकते है। इस तरह यह यंत्र खतरे की स्थिति में चिकित्सक को माता और बच्चे की जिंदगी बचाने के लिए समय देता है और चिकित्सक की मदद करता है।   
बाल्टीमोर में यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड मेडिकल सेंटर के हाई रिस्क प्रिगनेंसी विशेषज्ञ डा. अहमत बास्कट कहते हैं, ''प्रसव और स्त्री रोग चिकित्सक गर्भस्थ बच्चे के हृदय की धड़कन का पता लगाने और खतरे के लक्षण का पता लगाने के लिए अक्सर अल्ट्रासाउंड का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन यह परिपूर्ण तकनीक नहीं है। हाई रिस्क प्रिगनेंसी के लिए विशेषज्ञ बच्चे पर अधिक निगरानी रखना चाहते हैं। अल्ट्रासाउंड भ्रूण की गतिविधियों के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं देता है, न ही यह माता के स्वास्थ्य के बारे में पूरी जानकारी देता है और न ही माता के यूटेरस के बारे में जानकारी देता है। लेकिन नया यंत्र माता और बच्चे दोनों के हृदय की धड़कन की निगरानी करता है, गर्भ में बच्चे की स्थिति और गतिविधियों की पूरी जानकारी देता है और माता के यूटेरस के संकुचन पर भी निगरानी रखता है।''
डा. बास्कट कहते हैं, ''यह यंत्र बहुत ही सुविधाजनक है। इसे आप अपने कपड़े के अंदर रखकर भी कहीं आ-जा सकते हैं। आप इसे एक मोबाइल फोन की तरह ही एक बेल्ट से लटकाकर रख सकते हैं और इसे लंबे समय तक पहन सकते हैं।''


वर्षों पहले पता चल जायेगा कैंसर का

वैज्ञानिकों ने मैमोग्राफी अथवा कोलोनोस्कोपी की तरह की एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिसकी मदद से कैंसर होने से वर्षों पहले बीमारी का पता चल जायेगा तथा उसी समय बीमारी का इलाज कर दिया जायेगा। इन वैज्ञानिकों को विश्वास है कि आने वाले समय में इस विधि का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होने लगेगा।  
इस तकनीक का विकास यूनिवर्सिटी ऑफ रोडे आईलैंड के सहायक प्रोफेसर और जैवभौतिकविज्ञानी याना रेशेटनियाक और ओलेग एंड्रीव ने की है। इस विधि से इलाज करने पर कैंसरजन्य ट्यूमर के आसपास की स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान नहीं पहुंचता।
यह तकनीक कोशिकाओं की अम्लीयता के स्तर पर आधारित है। जहां सामान्य कोशिकाओं में पी एच 7.4 या उसके आसपास होता है वहीं कैंसर कोशिकाओं में ऊर्जा का तेजी से विस्तार होता है। हालांकि वैज्ञानिक ट्युमर अम्लीयता के बारे में सालों से जानते हैं लेकिन वे इसे लक्ष्य करने के तरीके की खोज नहीं कर पाये।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस पद्धति का इस्तेमाल अन्य बीमारियों के विकास की जांच और इलाज में भी किया जा सकता है। यह आर्थराइटिस, इंफ्लामेशन, इंफेक्शन, इंफ्रैक्शन और स्ट्रोक के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
कैंसरस ट्युमर का लक्ष्य करने के अलावा इन अनुसंधानकर्ताओं ने एक असाधारण डिलीवरी एजेंट एक मोलेकुलर नैनोसिरींज की भी खोज की है जो कैंसर कोशिकाओं में जांच करने वाले या इलाज करने वाले एजेंट को डिलीवर और इंजेक्ट कर सकता है। वैज्ञानिकों का विष्वास है कि यह अनुसंधान कैंसर का रेडियेशन से इलाज का एक नया, अधिक प्रभावी, महत्वपूर्ण और संभावित उपाय है। 
न्यूयार्क के मैनहैटन में मेमोरियल स्लोअन-केटरिंग कैंसर सेंटर के रेडियोकेमिस्ट्री सर्विस के प्रमुख जैसन एस. लेविस कहते हैं, ''यह अनुसंधान बहुत ही उत्साहवर्द्धक है। इससे ट्यूमर के सूक्ष्म वातावरण को समझने में मदद मिलेगी। इसके अलावा कैंसर के तेजी से प्रसार में ट्यूमर का पी एच महत्वपूर्ण माना जाता है।
हाल में विकसित ये दोनों तकनीक नॉन-इनवैसिव होगी, यह कैंसर के संभावित फैलाव की भविष्यवाणी करने के साथ-साथ संभावित चिकित्सा के प्रभावी होने की निगरानी भी करेगी। ये तकनीक भविष्य में रोगियों के लिए व्यक्तिगत थेरेपियों की भी सुविधा उपलब्ध करायेंगी।


खतरनाक हो सकता है मेंटोस के साथ कोक का सेवन

दिमाग की बत्ती जलाने के दावे के साथ प्रचारित किये जाने वाले मेंटोस खाने के बाद या पहले आप कोक जैसे सोडायुक्त पेय कतई नहीं पीयें अन्यथा आपके जीवन की बत्ती खतरे में पड़ सकती है। 
कई अध्ययनों से पता चला है कि कोक की बोतल में मेंटोस डालने पर विस्फोट जैसा प्रभाव पैदा होता है। कोक में कृत्रिम स्वीटनर, पोटाषियम बेंजोएट (प्रीजरवेटिव) और कैफीन तथा मेंटोस में गम अरेबिक और जिलाटीन जैसे झरने जैसे प्रभाव पैदा करने वाले अन्य सक्रिय अवयव होते हैं और जब ये एक साथ मिलते हैं तो रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जो सोडा पर सभी घुलनषील कार्बनडाइक्साइड को एक ही बार में छोड़ने के लिए दबाव डालता है। इस तरह कार्बनिक पानी की तुलना में यह अधिक घातक विस्फोट पैदा करता है। 
लेकिन ऐसा मिंट युक्त मेंटोंस के साथ ही होता है। गैर-मिंट के ऊपर एक चमक होती है और वे इस तरह कार्य नहीं करती। ये सिर्फ मिंट की तरह कार्य करते हैं क्योंकि उनकी सतह गैस को बाहर निकलने के लिए थोड़ा रास्ता खोलती है। 
मेंटोस और कोक के मिलने से झरने जैसा प्रभाव पैदा होना एक गूढ़ रहस्य है जानकारों का मानना है कि यह आयन परिवर्तन के कारण होता है। 
केवल मेंटोस ही नहीं बल्कि पुराना टेबल नमक भी कोक के संपर्क में आने पर इसी तरह का प्रभाव पैदा करता है और केवल कोक ही नहीं, कोई भी कृत्रिम मीठा कार्बोनेटेड सोडा इस तरह का कार्य कर सकता है। अगर आप मुंह में कोक को भरकर दो मेंटोस मुंह में डाल लें तो आपकी नाक से काफी मात्रा में सोडा बाहर आने लगेगा। आप सिर्फ सोडा को पीकर भी इसका आनंद ले सकते हैं और कैंडी बाद में कभी खा लें। हालांकि इसे करना और देखना बहुत मजाकिया है लेकिन इसके पीछे विज्ञान है। यह प्रक्रिया ''न्यूक्लियेषन'' कहलाती है जिसमें मेंटोस कैंडी के विषेश रसायन कार्बोनेटेड डाइट कोक के रसायन के साथ प्रतिक्रिया कर कार्बनडाइक्साइड गैस पैदा करते हैं जो तरल से अचानक बाहर आते हैं और बाहर निकलने के लिए ये किसी भी चीज को तोड़ सकते हैं। 
मेंटोस कैंडीज और सोडा पॉप का संयोजन एक घातक प्रतिक्रिया करते है, संदेह से परे हैं। इसकी पुश्टि के लिए यूट्यूब पर ऐसे लगभग 10000 वीडियो देख सकते हैं। 
कार्बोनेटेड पेय पदार्थों के साथ मेंटोंस को लेने से मृत्यु होना एक अलग मुद्दा है। मेंटोस और कोक पर पिछले छह महीने से प्रयोग हो रहे हैं लेकिन इससे किसी व्यक्ति की मृत्यु होने या षारीरिक नुकसान पहुंचने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। फिर भी इसे साथ लेने की कोषिष कभी न करें।
इन दोनों ही अवयवों को मिश्रित होने की इस झागयुक्त प्रक्रिया को इस प्रकार भी समझा जा सकता है। सोडा में दबावयुक्त कार्बनडाइक्साइड होता है। यह क्रमिक विस्तार करता है और बुलबुले के रूप में इस दबावयुक्त गैस को छोड़ता है जो कार्बोनेटेड पेय को अपनी सनसनाहट वाली विषेशता देता है। जल के अणुओं के साथ इसका मजबूत बंधन गैस को एक बार निकलने से रोकता है।
जब इसमें मेंटोस मिलता है तो दो संभावित दोशी कैंडी जिलेटिन और गम अरेबिक में संयोजी के द्वारा सतह तनाव (सरफेस टेंषन) बाधित होता है और मेंटोस का बाहरी सतह ''न्यूक्लियेषन साइट्स'' उपलब्ध कराता है जो बुलबुले के निर्माण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए उत्साहित करता है। जब आप कार्बोनेटेड पेय में मेंटोस डालते हैं तो अचानक दबावयुक्त गैस निकलता है जो सोडा बोतल के संकीर्ण गले के द्वारा उपर की ओर फव्वारे की तरह बाहर निकलता है।
मेटोस प्लस कोक का अर्थ मौत है, यह अफवाह 70 के दषक में एक षहरी बच्चे के बारे में एक दंतकथा के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक दावे के अनुसार एक लाइफ सीरियल टीवी विज्ञापन में नकचढ़े ''छोटे मिकी'' की भूमिका कर रहा एक बाल अभिनेता एक ही समय में पॉप रॉक और सोडा के सेवन के बाद पेट के विस्फोट के बाद मर गया। जबकि वास्तव में, इस अभिनेता का नाम जॉन गिलक्रिस्ट है और 30 साल के बाद भी अभी वह जीवित और स्वस्थ है। और अब तक पॉप रॉक और सोडा के सेवन से किसी भी ज्ञात हताहत का पता नहीं चला है।
कुछ समय पहले भी यह दावा किया था कि कुछ समय पहले ब्राजील में एक छोटा सा लड़का एक साथ मेंटोस खाने और कोकाकोला पीने के बाद मर गया। एक साल पहले भी ब्राजील के ही एक अन्य लड़के के साथ यही घटना हुई थी।
हालांकि इन मामलों में सच्चाई का पता नहीं चल पाया लेकिन खासकर बड़ी मात्रा में मेंटोस और कोक का सेवन हानिकारक हो सकता है। इसके अब तक सुरक्षित पाये जाने के कोई सबूत नहीं मिले हैं। इसके एक घूंट पीने के बाद ही पेट में बुलबुले निकलने लगते हैं, इससे पेट काफी फैल सकता है और इस अतिरिक्त दबाव के निकलने के लिए रास्ता बनाता है। इससे उल्टी भी हो सकती है और व्यक्ति बीमार हो सकता है। इसलिए इसे दोहराने की मूर्खता न करें और अपने पेट के फैलने की सीमा की जांच न करें। यहां तक कि ऐसा करने के बारे में सोंचे भी नहीं।
इसलिए समझदारी इसी में है कि आप कोक और मेंटोस का सेवन अलग-अलग करें। यहां तक कि सुरक्षा की दृश्टि से ओरल मेंटोस और डाइट कोक का प्रयोग करने से भी बचना चाहिए। जबकि मनोरंजन और षिक्षा के लिए नॉन ओरल प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन बच्चों को यह प्रयोग किसी जिम्मेदार व्यक्ति की निगरानी में करना चाहिए।
पिछले साल अप्रैल में ब्राजील के ही प्राथमिक स्कूल में पढ़ रहा 10 साल का एक बच्चा क्लासरूम में ही बेहोष हो गया। स्कूल में ही उसे प्राथमिक चिकित्सा दी गयी और अस्पताल ले जाने के दौरान ही उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मौत का कारण उसका फूला हुआ पेट और घुटन थी। जांच में पाया गया कि उसकी वैसी स्थिति एक ऐसे पदार्थ के खाने से हुई जिसने उसके पेट में विस्फोट पैदा किया। दरअसल उसने एक बोतल कोकाकोला लाइट पीने के बाद मेंटोस मेंथॉल स्वीट खा लिया था। बच्चे की मौत का कारण इन दोनों के मिश्रण से हुआ विस्फोट था।
फ्रांस के केमिकल इंस्टीच्यूट यू एस पी के वैज्ञानिक अलेक्जेंडर बी. मर्जेंथेलर ने व्यावहारिक रूप से यह साबित किया कि कोकाकोला लाइट में पाया जाने वाला पदार्थ 'एसेसुलफेम के आईएनएस 930' मेंटॉस स्वीट के साथ मिलकर 'टीए9वी4' नामक एक घातक रासायनिक प्रतिक्रिया करता है। बहुत थोड़े समय में ही यह संयोजन एक विस्फोट के रूप में उच्च दबाव के साथ भारी मात्रा में गैस को छोड़ता है। 
लेकिन इस घटना के बाद मीडिया में इस संबंध में रिपोर्ट आने और सार्वजनिक प्रतिक्रिया के बाद भी कोकाकोला और मेटॉस पर कोई सार्वजनिक बयान जारी नहीं किया गया। इस संबंध में न ही ब्राजील में और न ही दुनिया के किसी भी देष में कोई खबर प्रकाषित हुई कि कोक और मेंटॉस के सेवन से किसी बच्चे की मृत्यु हुई है। सिर्फ अलेक्जेंडर बी. मर्जेंथेलर ने चेतावनी संदेष जारी किया है। 


नैनोटेक्नोलॉजी निकालेगी खाद्य संकट का हल

सन् 2030 तक विश्व की जनसंख्या के 9 अरब हो जाने का अनुमान है और इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए भोजन की मांग को पूरा करना कृषि के लिए एक चुनौती होगी। लेकिन सिंथेटिक बायोलॉजी, नैनोटेक्नोलॉजी, जेनेटिक इंजीनियरिंग और बायोटेक्नोलॉजी की बदौलत इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भविष्य में स्वास्थ्यकर और प्रचुर मात्रा में जानवर आधारित खाद्य जरूरतों को बायोटेक्नोलॉजी पूरा कर सकती है।
मास्को के मालिक्ययुलर फिजियोलॉजिस्ट और पषुओं में मांसपेशियों के विकास पर अध्ययन करने वाले रॉड हिल कहते हैं, ''तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण आने वाले दशकों में स्वास्थ्यकर, पौष्टिक और पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करना कृषि और विज्ञान के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती होगी।'' 
पिछले 10 हजार सालों के सभ्यता और कृषि के इतिहास को देखकर हमें संदेह है कि पृथ्वी किसी तकनीकी सहयोग के बगैर भी पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करती रह सकती है।''
यूनिवर्सिटी ऑफ इडाहो एनिमल के खाद्य वैज्ञानिक रॉड हिल और लैरी ब्रेनेन हिल कहते हैं, ''किसी तकनीकी सहायता के बगैर खाद्य उत्पादन एक अलभ्य विचार है। मौजूदा समाज में तकनीकीगत हस्तक्षेप कृषि क्रांति को आधार प्रदान करता है और विश्व की खाद्य जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करता है।''
यूनिवर्सिटी ऑफ मिसौरी के प्रोफेसर केविन वेल्स का विश्वास है कि आनुवांशिक रूप से रूपान्तरित जानवर मानवता के मंच पर भविष्य में स्थान रखेगा जैसा कि आनुवांशिक रूप से रूपांतरित पौधे अभी कर रहे हैं।
बायोप्रोसेसिंग इंजीनियरिंग और नैनोटेक्नोलॉजी के लिए अमरीकी कृशि राश्ट्रीय कार्यक्रम के के प्रमुख हांग्डा चेन विश्व की सुरक्षित और स्वास्थयकर आहार की बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए नैनोटेक्नोलॉजी जैसी वैज्ञानिक विधियों  के इस्तेमाल पर कार्य कर रहे हैं। जबकि जे. क्रेग वेंटर इंस्टीट्यूट में पॉलिसी विश्लेषक माइकल गारफिंकेल जीन या क्रोमोसोम के सृजन की नवीनतम विधियों के इस्तेमाल सिंथेटिक बायोलॉजी पर कार्य कर रहे हैं। वे मानव जीनोम की सिक्वेंसिंग के पथप्रदर्शक रहे हैं।
यूनिवर्सिटी पर नेवाडा लास वेगास की प्रोफेसर सुसाना प्रिस्ट के अनुसार आम लोगों के द्वारा नयी तकनीकों को स्वीकार करना या परित्याग करना भविष्य की खाद्य आपूर्ति को सुनिश्चित कर सकता है। उनके अनुसार ऐसी तकनीकों पर आम लोगों के व्यवहार को जानने के लिए लोगों से चर्चा करना जरूरी है।
ब्रेनेन भी सुसाना प्रिस्ट की मत से सहमत हैं। वह कहते हैं, ''हमने ऐसी ढेर सारी तकनीकें देखी हैं जिन्हें हम इस्तेमाल में नहीं ला सके क्योंकि उपभोक्ताओं ने इसे स्वीकार नहीं किया।''
ब्रेनेन कहते हैं, ''इन तकनीकों के जरिये 50 सालों में खाद्य क्रांति संभव है लेकिन हम लोगों ने अभी तक इन तकनीकों के इस्तेमाल को नहीं अपनाया है क्योंकि इसे लेकर हमारे मन में एक तरह का डर है और हममें समझ का भी अभाव है। इसलिए इस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है। हम सिर्फ तकनीक पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते हैं बल्कि हमें तकनीक के सामाजिक और राजनीतिक पहलूओं को भी ध्यान में रखना होगा।''    


नैनोमेडिसीन से होगा क्षतिग्रस्त स्नायुओं का इलाज

वैज्ञानिकों ने नैनो तकनीक के जरिये स्पाइनल कार्ड के क्षतिग्रस्त स्नायुओं का इलाज करने का तरीका विकसित किया है।
यह कामयाबी हासिल की है अमरीका के परडयू यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने। इसके तहत किसी दुर्घटना के तुरत बाद इस नैनो-पदार्थों को रक्त में इंजेक्ट कर स्पाइनल कार्ड के चोटग्रस्त स्नायुओं का इलाज किया जा सकता है। इन सूक्ष्म पदार्थों के व्यास करीब 60 नैनोमीटर है और ये लाल रक्त कोशिका के व्यास से भी 100 गुना छोटे हैं।
अनुसंधानकर्ता इस शोध के तहत् यह पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि सूक्ष्म पदार्थों का इस्तेमाल कैंसर और अन्य बीमारियों के इलाज के लिए षरीर के विभिन्न अंगों में दवाइयां पहुंचाने के लिये किस तरह किया जा सकता है। इसके अलावा यह भी पता करने की कोशिश की जा रही है कि माइसेल्स क्षतिग्रस्त एक्जोन्स की खुद ही मरम्मत कैसे कर सकता है। एक्जोन्स एक फाइबर है जो स्पाइनल कार्ड में विद्युतीय आवेशों को संचारित करता है।  
सुप्रसिद्ध जर्नल ''नेचर नैनोटेक्नोलॉजी'' के ताजा अंक में प्रकाशित इस अनुसंधान में वेल्डन स्कूल ऑफ बायोमेडिकल इंजीनियरिंग एंड डिपार्टमेंट ऑफ केमिस्ट्री में सहायक प्रोफेसर जी-क्सिन चेंग कहते हैं, ''यह बहुत ही आश्चर्यजनक खोज है। अनुसंधान में दवा की डिलीवरी के माध्यम के रूप में माइसेल्स का इस्तेमाल करीब 30 सालों से किया जा रहा है लेकिन किसी ने अभी तक इसका इस्तेमाल सीधे तौर पर दवा के रूप में नहीं किया था।''
माइसेल्स में दो प्रकार के पॉलीमर होते हैं, एक हाइड्रोफोबिक और दूसरा हाइड्रोफिलिक होता है अर्थात् ये या तो पानी के साथ नहीं घुल सकते हैं या पानी के साथ घुल सकते हैं। हाइड्रोफोबिक का सार भाग बीमारी के इलाज करने के लिए दवाइयों से भरा हो सकता है।
माइसेल्स का इस्तेमाल पॉलीइथिलीन ग्लाइकोल सहित अधिक परम्परागत ''मेम्ब्रेन सीलिंग एजेंट'' की जगह किया जा सकता है जो माइसेल्स का बाहरी कवच बनाता है। नैनोस्केल आकार और माइसेल्स के पॉलीइथिलीन ग्लाइकोल कवच के कारण ये न तो किडनी के द्वारा जल्द फिल्टर होते हैं और न ही लीवर के द्वारा कैप्चर होते हैं। ये रक्त प्रवाह में लंबे समय तक बने रहते हैं और उतकों को क्षतिग्रस्त करते हैं।
चेंग कहते हैं, ''इस अनुसंधान में माइसेल्स जरूरी सांद्रण के स्तर पर गैर-विषैला पाया गया। माइसेल्स के साथ आपको रेगुलर पॉलिइथिलीन ग्लाइकोल के करीब एक लाखवें सांद्रण की ही जरूरत होगी।''
सेंटर फॉर पारालिसिस रिसर्च के निदेशक रिचर्ड बोरगन्स और स्कूल ऑफ वेटेरिनरी मेडिसीन में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर मैरी हुलमैन जार्ज के नेतृत्व में किये गए अनुसंधान में पॉलीइथिलिन ग्लाइकोल या पी ई जी को स्पाइनल कार्ड में चोट वाले जानवरों में लाभदायक पाया गया।
इस शोध में पाया गया कि पी ई जी क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को विशेष रूप से लक्ष्य करता है और चोटग्रस्त क्षेत्र को सील कर आगे क्षति होने से बचाता है। इस शोध में यह भी पाया गया कि विशेष पदार्थ से बने सार भाग क्षतिग्रस्त एक्जोन्स की मरम्मत में अन्य की तुलना में बेहतर कार्य करते हैं।
शोध में यह भी पाया गया कि माइसेल्स इलाज एक्जोन की रिकवरी को करीब 60 प्रतिशत बढ़ा देता है। इस शोध में यह पता करने की भी कोशिश की गई कि माइसेल्स क्षतिग्रस्त नर्व कोशिकाओं की किस तरह मरम्मत करता है और साथ ही स्पाइनल कॉर्ड की सिग्नल को ट्रांसमीट करने की क्षमता का भी पता लगाया गया। शोध में पाया गया कि माइसेल्स का इस्तेमाल एक सामान्य प्रकार का स्पाइन इंजरी कंप्रेशन इंजरी के द्वारा क्षतिग्रस्त एक्जोन की मरम्मत के लिए किया जा सकता है।
अनुसंधानकर्ताओं ने चूहों में मरे हुए माइसेल्स की भी खोज की और यह पता किया कि नैनोकण क्षतिग्रस्त जगह पर किस तरह सफलतापूर्वक पहुंचे। इसके अलावा यह भी पता किया गया कि माइसेल्स से इलाज किये गए जानवर किस प्रकार अपने चारों पैर को नियंत्रित करने में सफल रहे जबकि परम्परागत पॉलीइथिलिन ग्लाइकोल से इलाज में ऐसा संभव नहीं था।  


वजन घटाना हो तो भी आलू खायें

आलू को मोटापा बढ़ाने वाला माना जाता है और यही कारण है कि लोग आलू का अधिक सेवन करने से बचते हैं जबकि वैज्ञानिकों का कहना है कि आलू ऐसा खाद्य पदार्थ है जो वजन तो घटाता है लेकिन सेहत नहीं। 
अमरीका के डेविस स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया तथा इलिनोइस इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के नेषनल सेंटर फॉर फूड सैफ्टी एंड टेक्नोलॉजी के षोधकर्ताओं ने अपने ताजा अध्ययन से पाया है कि लोग अपने आहार में आलू को षामिल करके अपना वजन कम कर सकते हैं। 
इस अध्ययन के तहत् वजन को कम करने में आलू की भूमिका और ग्लिसेमिक सूचकांक का विस्तृत रूप से अध्ययन किया गया क्योंकि कुछ लोग वजन को कम करने के लिए सेवन किये जाने वाले आहार में आलू को षामिल करना उचित नहीं मानते हैं क्यांकि यह हाई ग्लिसेमिक इंडेक्स (एच जी आई) भोजन है। 
मुख्य अनुसंधानकर्ता डा. ब्रिट बुरटन-फ्रीमैन कहते हैं, ''इस अध्ययन के निश्कर्श से स्वास्थ्य कर्मियों और पोशण विषेशज्ञों द्वारा सालों से कहे जा रहे इस बात की पुश्टि हुई है कि वजन को कम करने के लिए कुछ खास तरह के भोजन या भोजन के समूहों का सेवन नहीं करने की बजाय अपने आहार में कैलोरी की मात्रा को कम करना चाहिए। इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि आलू को स्वास्थ्यवर्द्धक तरीके से पकाए जाने पर इसके सेवन से वजन बढ़ता है। वास्तव में, हम इसे वजन को कम करने के कार्यक्रम का एक हिस्सा बना सकते हैं।''
इस अध्ययन के तहत् अनुसंधानकर्ताओं ने अधिक वजन के 86 पुरुश और महिलाओं पर
आलू के साथ कम कैलोरी वाले रूपांतरित ग्लिसेमिक इंडेक्स वाले आहार के प्रभाव का 12 सप्ताह तक अध्ययन किया। इन लोगों को तीन समूहों में बांटकर प्रत्येक समूह को आहार में हर सप्ताह आलू के पांच से सात सर्विंग दिये गये। लेकिन परिणामस्वरूप तीनों समूहों के लोगों का वजन कम हो गया।
एक समूह को उनके दैनिक आहार में कम ग्लिसेमिक सूचकांक (एल जी आई) वाले आहार दिये गए। दूसरे समूह को उनके दैनिक आहार में उच्च ग्लिसेमिक सूचकांक (एच जी आई) वाले आहार दिये गये। दोनों समूहों ने अपने दैनिक आहार में 500 कैलारी का कम सेवन किया जबकि हर सप्ताह उन्होंने पांच से सात सर्विंग आलू का भी सेवन किया। तीसरे समूह को ''नियंत्रित समूह'' का नाम दिया गया और उन्हें अपने दैनिक आहार और कैलोरी के सेवन का चुनाव खुद ही करने को कहा गया। लेकिन उन्हें अमरीकी आहार दिषानिर्देषों और फूड गाइड पिरामिड का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। तीनों समहों के आहार में समानता यह थी कि तीनों समूहों ने ही अपने आहार में हर सप्ताह आलू के पांच से सात सर्विंग को षामिल किया। निश्कर्श के तौर पर पाया गया कि सभी तीन समूहों के लोगों के वजन में कमी आयी और लो तथा हाई ग्लिसेमिक इंडेक्स समूहों के लोगों के वजन की कमी में कोई खास अंतर नहीं पाया गया।
इस अध्ययन के उप प्रमुख कैथलिन त्रियोउ कहते हैं कि आलू प्रेमियों के लिए यह एक सुखद समाचार है और जो लोग भोजन में संतुश्टि के लिए आलू का सेवन करना चाहते हैं वे अपने आहार में आलू को षामिल कर सकते हैं। एक मध्यम आकार (5.3 औस) के छिलके वाले आलू में प्रति सर्विग केवल 110 कैलोरी होती है, एक केला की तुलना में अधिक पोटाषियम (620 ग्राम) होता है, रोजमर्रा की जरूरत का करीब आधा विटामिन सी (45 प्रतिषत) होता है और कोई वसा, सोडियम या कोलेस्ट्रॉल नहीं होता है। 


कैंसर के बाद संभव होगा स्तन का पुनर्विकास

स्तन कैंसर का सबसे प्रभावी इलाज मास्टेक्टोमी अर्थात् कैंसर ग्रस्त स्तन को पूरा काटकर निकाल देना माना जाता है लेकिन स्तन निकाल देने के कारण महिला को ताउम्र भयानक मानसिक त्रासदी एवं हीन भावना से गुजरना पड़ता है। लेकिन अब आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने सर्जरी की एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिसकी मदद से स्तन कैंसर से पीड़ित महिला में मास्टेक्टोमी के बाद स्तन को दोबारा विकसित करना संभव हो सकता है। इससे रोगी महिला के शारीरिक सौंदर्य पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और न ही उसे कोई मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ेगा।
इस तकनीक के तहत् महिला के वसा उतक का सैंम्पल युक्त स्तन के आकार का चैम्बर छाती की त्वचा के नीचे प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। उसके बाद वसा उतक से एक रक्त नलिका को जोड़ दिया जाता है ताकि यह चैम्बर छह से आठ महीनों में वसा उतक से पूरी तरह से भर जाए।
मेलबर्न के बरनार्ड ओ'ब्रियेन इंस्टीट्युट ऑफ माइक्रोसर्जरी के नेतृत्व में विकसित इस तकनीक से 24 महीनों के अंदर एक बायोडिग्रेडेबल चैम्बर विकसित हो जाने की उम्मीद है। यह चैम्बर एक बार भर जाने के बाद घुल जाएगा।
इंस्टीट्युट के मुख्य सर्जन डा. फिलिप मारजेला कहते हैं, ''हमलोगों ने कुछ जानवरों के मॉडलों में इस तकनीक का परीक्षण कर लिया है ताकि मनुष्यों में इसके परीक्षण से पहले हम यह सुनिश्चित कर लें कि यह तकनीक पूरी तरह से सुरक्षित है। हमलोग अगले तीन से छह महीनों में एक आदर्श परीक्षण शुरू कर रहे हैं। यह परीक्षण पहले पांच-छह महिलाओं में यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाएगा कि शरीर स्तन में अपने वसा की आपूर्ति दोबारा कर सकता है।''
मारजेला कहते हैं कि यह तकनीक शरीर के अपने अंदरूनी रिक्त जगहों को भरने के व्यवहार पर आधारित है। लेकिन इसमें वसा के विकास को उत्तेजित करने के लिए जेल की तरह का एक पदार्थ भी इंजेक्ट किया जा सकता है।
मारजेला कहते हैं, ''प्रकृति किसी रिक्त स्थान से नफरत करता है इसलिए चूंकि चैम्बर भी खाली है इसलिए इसे शरीर के द्वारा भरा जाना चाहिए।''
इस शोध में शामिल महिलाओं ने या तो मास्टेक्टोमी या आंशिक मास्टेक्टोमी कराया है लेकिन फिर भी उनके स्तन में कोई कमी या विषमता रह गयी है। इस जांच में एक पूरे स्तन का विकास नहीं किया जाएगा बल्कि इस तकनीक की व्यवहारिकता को साबित करने के लिए स्तन के क्षतिग्रस्त क्षेत्र में वसा का विकास किया जाएगा।
मारजेला कहते हैं, ''यह पुनरुत्पादक तकनीक स्तन कैंसर से पीड़ित महिलाओं को मास्टेक्टॉमी के बाद परम्परागत स्तन पुनर्निमाण और प्रत्यारोपण के बजाय एक नया विकल्प दे सकता है। इस तकनीक का इस्तेमाल शरीर के अन्य क्षतिग्रस्त हिस्सों के मरम्मत में भी किया जा सकता है।
मारजेला कहते हैं, ''अब हमलोग इसी सिद्धांत पर शरीर के अन्य अंगों पर भी कार्य करने की योजना बना रहे हैं। एक ऐसा चैम्बर जो कोशिकाओं को सुरक्षा प्रदान करे और कोशिकाओं की वृद्धि होने पर उसे सुरक्षित रखे ताकि वह अंग अपने सामान्य क्रियाकलापों को पुनः स्थापित कर सके। 
आस्ट्रेलिया के नेशनल ब्रेस्ट एंड ओवेरियन कैंसर सेंटर ने कहा है कि यदि यह नयी तकनीक सफल हो जाती है तो हम स्तन कैंसर के समाधान में एक महत्वपूर्ण कदम और आगे बढ़ा लेंगे। सेंटर की डा. हेलन जोरबा कहती हैं, ''मास्टेक्टोमी करा चुकी महिलाओं के लिए टिशू इंजीनियरिंग का यह विचार वास्तव में उत्साहवर्द्धक है।''  


वजन घटाने वाले आहार से मस्तिक घात का खतरा कम

वजन घटाने वाले पौष्टिक आहार का लंबे समय तक सेवन करने से कैराटिड (मस्तिष्क की मुख्य धमनी) के कड़ापन (एथेरोस्क्लेरोसिस) का खतरा आश्चर्यजनक रूप से कम हो जाता है। कैरोटिड एथेरोस्क्लेरोसिस मस्तिश्क के स्ट्रोक और दिल के दौरे की एक मुख्य वजह है। एथेरोस्क्लेरोसिस एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो उम्र के साथ-साथ बढ़ती है।
बेन गुरियन यूनिवर्सिटी ऑफ द नेगेव (बीजीयू) के डा. इरिस शाई के नेतृत्व में किया गया यह अध्ययन इस कारण महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिक वजन वाले और मोटे लोगों में ऐसे आहार के सेवन से उनमें एथेरोस्क्लेरोसिस की बीमारी को ठीक किया जा सकता है।
अमेरिकन हार्ट असोसिएशन की प्रमुख जर्नल ''सरकुलेशन'' में प्रकाशित इस अध्ययन में अनुसंधानकर्ताओं ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि आहार एथेरोस्क्लेरोसिस की प्रक्रिया को किस प्रकार उल्टा करती है, अध्ययन के शुरुआत में और फिर दो साल के बाद कैरोटिड धमनी की नलिकाओं में प्लेक की मोटाई में आने वाले परिवर्तन को मापा। उन्होंने पाया कि वजन कम करने वाले पौष्टिक आहार के दो साल तक सेवन से कैरोटिड नलिकाओं की दीवार के आयतन में पांच प्रतिशत की कमी आयी और कैरोटिड धमनी की मोटाई में करीब एक प्रतिशत की कमी आयी। 
नेगेव के बेन-गुरियन यूनिवर्सिटी के इपिडेमियोलॉजी विभाग में एस. डेनियल अब्राहम इंटरनेशनल सेंटर फॉर हेल्थ एंड न्यूट्रिशन के अनुसंधानकर्ता डा. इरिस शाई के अनुसार यह आहार वैसे लोगों पर अधिक प्रभावी साबित हुई जिनका वजन साढे पांच किलो से अधिक कम हुआ और रक्त चाप 7 एमएमएचजी से अधिक कम हुआ। इस आहार के सेवन से लिपोप्रोटीन के स्तर में परिवर्तन आने से रक्त चाप में भी कमी आती है। लिपोप्रोटीन कोरोनरी आर्टरीज के लिए  अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। 
न्यूक्लियर रिसर्च सेंटर के मेडिकल क्लिनिक के निदेशक डा. डैन स्वार्जफुक्स के अनुसार ''कम वसा, कम कार्बोहाइड्रेट और मेडिटेरेनियन आहार कैरोटिड एथेरोस्क्लेरोसिस की प्रक्रिया में कमी लाते हैं।'' 
    


मधुमेह और हृदय रोगों का बड़ा कारण है कोल्ड ड्रिंक्स

पिछले कुछ सालों में मीठे सॉफ्ट ड्रिक्स के सेवन में तेजी से वृद्धि हुई है। एक अमरीकी अध्ययन के अनुसार मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स की बढ़ती खपत के कारण पिछले दशक में मधुमेह के एक लाख 30 हजार और हृदय रोग के 14 हजार नये मामले सामने आए हैं।
सैन फ्रांसिस्को के युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में मेडिसीन की एसोसिएट प्रोफेसर और इस अध्ययन की प्रमुख डा. किर्सटेन बिबन्स डोमिंगो कहती हैं, ''हमलोगों ने पहले सॉफ््ट ड्रिंक्स के खतरों का कम कर आंका था क्योंकि पहले किये गए अध्ययन 35 या उससे अधिक उम्र के लोगों पर किये गए थे जबकि युवाओं में इनका सेवन तेजी से बढ़ रहा है। इसलिए इस अध्ययन में युवाओं को भी षामिल किया गया।'' 
डोमिंगो कहती हैं, ''काफी बड़ी आबादी आबादी पर किये गए अध्ययनों में पाया गया है कि पिछले कुछ सालों में सॉफ्ट के सेवन में तेजी से वृद्धि हुई है जबकि अन्य पेय पदार्थों के सेवन में गिरावट आयी है। अधिक सॉफ्ट पेय पीने का हानिकारक प्रभाव उसमें पाये जाने वाले मीठे पदार्थों के कारण होता है।''
अमेरिकन बिवेरेज असोसिएशन के साइंस पॉलिसी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मारीन स्टोरे कहते हैं, ''जैसा कि हम जानते हैं कि हृइस रोग और मधुमेह दोनों ही जटिल स्थिति है और इनका कोई एक कारण नहीं है और न ही इनका कोई एक समाधान है। हालांकि हृदय रोगों के बढ़ने का एक मुख्य कारण मधुमेह का बढ़ता प्रकोप है लेकिन इसके लिए मोटापा भी काफी हद तक जिम्मेदार है। इसलिए हमें लोगों को प्रशिक्षित करना होगा कि शारीरिक सक्रियता के लिए भोजन से ली जाने वाली कैलोरी और पेय पदार्थों से ली जाने वाली कैलोरी के बीच संतुलन रखें।''
बिबन्स डोमिंगों का कहना है कि हमें ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे सॉफ्ट पेय की खपत में कमी लायी जा सके। उनके अनुसार ऐसी ही एक नीति शुगर आधारित मीठे पेय पर अधिक टैक्स लगाना है। हालांकि यह एक विवाद का विषय है लेकिन अध्ययन में पाया गया है कि पुरुषों के द्वारा रोजाना एक केन से अधिक मीठे पेय लेने और महिलाओं द्वारा एक केन से भी कम मीठे पेय के सेवन से मधुमेह और हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है। 
अमेरिकन हार्ट असोसिएशन ने भी सोडा पॉप जैसे शुगर आधारित मीठे पेय की सीमित खपत की सलाह दी है। यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोरैडो के मेडिसीन के प्रोफेसर और असोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष राबर्ट एच. इकेल  ने इनकी जगह वैकल्पिक पेय का सेवन करने की सलाह दी है। इकेल ने शुगर आधारित मीठे पेय की जगह फलों का रस पीने की सलाह दी है क्योंकि फलों  के रस पौष्टिकता से भरपूर होते हैं और इनमें कार्बोहाइड्रेट नहीं होते हैं या बहुत कम होते हैं।


पेट को दर्द दिये बगैर पेट दर्द से छुटकारा

पेट दर्द की परिणति कई बार खतरनाक या जानलेवा स्थितियों के रूप में होती है। कई बार तो अनपच, गैस एवं अम्लता जैसे मामूली कारण पेट दर्द के सबब बनते हैं लेकिन कई बार पथरी, कोलोन कैंसर, एपेंडिसाइटिस और अल्सर जैसी खतरनाक स्थितियां पेट दर्द का कारण बनती हैं। एक समय इन खतरनाक स्थितियों को दूर करने के लिये पेट चीर कर ऑपरेशन का सहारा लेना पड़ता था लेकिन आज लैपरोस्कोपी एवं माइक्रो लैपरोस्कोपी की मदद से इन समस्याओं को आसानी से दूर किया जा सकता है।
सुप्रसिद्ध लैपरोस्कोपी सर्जन तथा फरीदाबाद स्थित एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (ए आई एम एस) के चेयरमैन डा. नरेन्द्र कुमार पाण्डे बताते हैं कि लैपरोस्कोपी एवं माइक्रो लैपरोस्कोपी तकनीक की मदद से पित्त की थैली, बच्चेदानी, आंतों और किडनी जैसे पेट के विभिन्न अंगों की समस्याओं को दूर किया जा सकता है।
पेट दर्द की असहनीय पीड़ा से शायद ही कोई व्यक्ति अनजान होगा। आम तौर पर पेट दर्द के अनेकानेक कारण होते हैं। अक्सर पेट दर्द की तीव्रता का संबंध बीमारी की गंभीरता से नहीं होता है। उदाहरण के तौर पर कई बार तेज पेट दर्द अनपच, गैस, अम्लता और आंतों में एेंठन जैसे मामूली कारणों से हो सकते हैं जबकि मामूली पेट दर्द कोलोन कैंसर अथवा एपेंडिसाइटिस और अल्सर जैसी जानलेवा स्थितियों का सूचक हो सकता है। लेकिन इसके बावजूद अक्सर देखा गया है कि लोग पेट दर्द होने पर कोई दर्दनिवारक दवाई खा लेते हैं और पेट दर्द ठीक होने पर वे निश्चिंत हो जाते हैं।
एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इंडिया (एएसआई) के अध्यक्ष डा. पाण्डे बताते हैं कि पेट दर्द जिन कारणों से हो सकते हैं उनमें खाद्य विषाक्तता, संक्रमण, अल्सर, मासिक स्राव, अंडोत्सर्ग, हर्निया, उपापचय में गड़बड़ियां, एपेंडिसाइटिस, पेल्विक संक्रमण, इंडोमेट्रियोसिस, इरिटिबल बाउल सिंड्रोम, पेट में रक्त स्राव, कैंसर, पथरी, गांठ या ट्यूमर के अलावा पित्त नली, यकृत, वृक्क (रीनल), मूत्राशय, जननागों और मूत्रमार्ग, रक्त वाहिनियों और अग्न्याशय की बीमारियां शामिल हैं। दरअसल पेट दर्द के इतने कारण हैं जिन्हें गिनाना संभव नहीं होता है। पेट दर्द के कारणों को जानने में पेट दर्द शुरू होने के समय, दर्द की अवधि, दर्द की जगह, दर्द की प्रकृति, दर्द की तीव्रता आदि महत्वपूर्ण होते हैं।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हाथों प्रतिष्ठित डा. बी सी राय पुरस्कार से सम्मानित डा. पाण्डे बताते हैं कि पेट दर्द के उपचार के लिये उसके कारण की सही-सही पहचान जरूरी होती है। हालांकि पेट दर्द के कारणों की जांच में अल्ट्रासाउंड एवं इंडोस्कोपी जैसी जांच तकनीकों एवं उपकरणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन लैपरोस्कोपी एवं माइक्रो लैपरोस्कोपी तकनीक के विकास के बाद पेट दर्द के कारणों की सही-सही पहचान एवं पेट दर्द के कारगर उपचार के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात हुआ है। लैपरोस्कोपी एवं माइक्रो लैपरोस्कोपी की मदद से न केवल पेट दर्द के कारणों का सही-सही पता चलता है बल्कि कई मामलों में मरीज को अधिक कष्ट दिये बगैर उन कारणों को दूर भी किया जा सकता है।
डा. पाण्डे बताते हैं कि लैपरोस्कोपी के तहत् अत्यंत पतले एवं टेलीस्कोपनुमा उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है। लैपरोस्कोपी एक ऐसी तकनीक है जिसकी मदद से पेट के किसी भी भाग तक सीधे पहुंच कर पेट के भीतर जांच-पड़ताल की जा सकती है। अगर पेट में कोई गांठ या पथरी है तो उसकी जांच की जा सकती है और आगे की जांच के लिये उसके ऊतक लिये जा सकते हैं।
लैपरोस्कोपी आधारित सर्जरी के विकास से पेट के चीर-फाड़ की आवश्यकता समाप्त हो गयी है। लैपरोस्कोपी सर्जरी के तहत् किसी भी मांसपेशी को काटे या मांसपेशियों में चीर-फाड़ किये बगैर उदर के निचले हिस्से की त्वचा में मात्र आधे इंच का चीरा लगाकर मांसपेशियों के बीच अत्यंत पतली ट्यूब (कैनुला) प्रवेश करायी जाती है। इस ट्यूब के जरिये लैपरोस्कोप डाला जाता है। यह लैपरोस्कोप अत्यंत सूक्ष्म कैमरे से जुड़ा होता है। फाइबर आप्टिक तंतु के जरिये भीतर की तस्वीरों को परिवर्द्धित आकार में उससे जुड़े टेलीविजन के मॉनिटर पर देखा जा सकता है। टेलीविजन मॉनिटर पर तस्वीरों को देखते हुये इस पतली ट्यूब के रास्ते आधे इंच के व्यास वाली एक और पतली ट्यूब प्रवेश करायी जाती है। इससे पित्त की थैली के सभी विकार, अपेंडिक्स तथा सभी प्रकार के हर्निया का इलाज सफलतापूर्वक किया जा सकता है। डा. अनिल जैन बताते हैं कि लैपरोस्कोपी ऑपरेशन के बाद मरीज शीघ्र काम-काज करने लायक हो जाता है और उसे अधिक समय तक अस्पताल में नहीं रहना पड़ता है।
अमरीका में किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि परम्परागत ऑपरेशन के बाद मरीज को करीब 48 दिन आराम करने की जरूरत होती है जबकि नयी तकनीक से ऑपरेशन करने के बाद करीब नौ दिन का आराम पर्याप्त होता है।
मौजूदा समय में लैपरोस्कोपी का अधिक विकसित रूप माइक्रो लैपरोस्कोपी के रूप में सामने आया है। भारत में यह तकनीक एआईएमएस सहित कुछ गिने-चुने चिकित्सा केन्द्रों में उपलब्ध हो गयी है। इस ऑपरेशन में मरीज को उतना ही कष्ट होता है मानो उसे सुई चुभोई जा रही है। परम्परागत माइक्रोस्कोप ऑपरेशन के लिये 11 मिली मीटर व्यास का चीरा लगाने की जरूरत होती है जबकि माइक्रोलैपरोस्कोपी ऑपरेशन के तहत् मात्र पांच मिली मीटर व्यास का चीरा लगाना ही पर्याप्त होता है। यही नहीं माइक्रोलैपरोस्कोपी ऑपरेशन के बाद टांके को हटाने की जरूरत नहीं पड़ती है। इस तरह दूर-दराज के मरीजों को दोबारा सर्जन के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे मरीज स्थानीय चिकित्सक से ही चेकअप आदि करवा सकते हैं। लैपरोस्कोपी एवं माइक्रो लैपरोस्कोपी तकनीक की मदद से हर्निया के अलावा पित्त की थैली, बच्चेदानी, आंतों और किडनी जैसे पेट के सभी अंगों के ऑपरेशन किये जा सकते हैं। 


सुपर रेत से साफ होगा पानी

रेत से पानी को छानने की परंपरा सदियों पुरानी है लेकिन अब वैज्ञानिकों ने भी इस पर मुहर लगा दी है। वैज्ञानिकों ने साधारण रेत से पानी को फिल्टर करने का तरीका विकसित किया है। इस रेत का इस्तेमाल दुनिया भर में पीने के पानी को षुद्ध करने के लिये किया जाएगा। इस ''सुपर रेत'' में सामान्य रेत की तुलना में पानी को फिल्टर करने की पांच गुना अधिक क्षमता होती है। इस नये पदार्थ से विकासषील देषों में कम खर्च में ही पानी को षुद्ध किया जा सकेगा जहां एक अरब से अधिक लोगों को पीने के लिए षुद्ध पानी नहीं मिल पाता है।
मैनक मजुमदार और उनके सहयोगियों को जब यह पता लगा कि पानी को षुद्ध करने के लिए 6 हजार से भी अधिक वर्शों से रेत का इस्तेमाल किया जा रहा है तथा रेत और रेत से छने पानी को विष्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मान्यता दी है, तो उन्होंने रेत से पानी को वैज्ञानिक तरीके से षुद्ध करने के तरीकों पर षोध करना षुरू किया। ग्रैफाइट ऑक्साइड (जी ओ) नामक नैनो पदार्थ पर किये गए इस अध्ययन में कहा गया है कि इसे रेत के द्वारा पानी के षुद्धीकरण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और कम लागत में ही रेत से पानी को षुद्ध करने के तरीके का इजाद किया जा सकता है।
अनुसंधानकर्ताओं ने रेत के कणों पर ग्रैफाइट से कोटिंग के लिए एक सरल विधि का इस्तेमाल कर ''सुपर रेत'' का इजाद किया और इससे पारा और डाई अणु को पानी से सफलतापूर्वक निकाल दिया। वैज्ञानिकों ने पाया कि पारा के परीक्षण में, साधारण रेत 10 मिनट के फिटरेषन पर संतृप्त हुआ जबकि सुपर रेत 50 मिनट से अधिक समय में भारी धातुओं को अवषोशित कर पाया। इसके फिल्टरेषन की क्षमता व्यावसायिक रूप से उपलब्ध कुछ सक्रिय कार्बन के बराबर पायी गयी। वे अब ऐसे ग्रैफाइट ऑक्साइड कणों को बनाने की रणनीति पर विचार कर रहे हैं जिसमें संदूशकों को प्रभावी ढंग से हटाने की क्षमता हो।
इस अध्ययन को एसीएस की सुप्रसिद्ध जर्नल अप्लायड मैटैरियल्स एंड इंटरफेस में प्रकाषित किया गया है। 


 


ब्रिटेन के वैज्ञानिक बना रहे हैं कृत्रिम रक्त

ब्रिटेन के वैज्ञानिक विश्व में पहली बार असीमित मात्रा में कृत्रिम रक्त बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। इस कृत्रिम मानवीय रक्त का निर्माण इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं से किया जा रहा है जिसका इस्तेमाल आकस्मिक अवस्था में संक्रमण रहित रक्त संचरण के लिए किया जाएगा। इससे किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति से लेकर युद्ध में हताहत हुए सैनिकों को यह कृत्रिम रक्त चढ़ाकर उनकी जान बचाने में मदद मिल सकेगी। इससे ताजा रक्त उपलब्ध कराने वाले रक्त दाताओं पर भी निर्भरता कम होगी।
इस अनुसंधान में एन एस एस ब्लड एंड ट्रांसप्लांट, द स्कॉटिश नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन सर्विस और विश्व की सबसे बड़ी मेडिकल रिसर्च चैरिटी वेलकम ट्रस्ट शामिल है। इस तरह इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं से रक्त विकसित करने की विश्व दौड़ में ब्रिटेन की मुख्य भूमिका होगी। अनुसंधानकर्ता 'ओ-निगेटिव' ब्लड ग्रूप को विकसित करने के लिए आई वी एफ इलाज के बाद के अवशेष मानवीय भ्रूण की जांच करेंगे। 'ओ-निगेटिव' ब्लड ग्रूप व्यापक रक्त दाता ग्रूप है जिसे रक्त उतकों के द्वारा अस्वीकृति के डर के बगैर किसी भी व्यक्ति में चढ़ाया जा जा सकता है। यह रक्त ग्रूप अपेक्षाकृत कम लोगों में लगभग सात प्रतिशत लोगों में ही होता है। लेकिन प्रयोगशाला में इसके अनंत मात्रा में गुणित होने की क्षमता के कारण इसे इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं से असीमित मात्रा में उत्पन्न किया जा सकता है। 
इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं को उत्तेजित करने का उद्देश्य आकस्मिक अवस्था में ऑक्सीजन को वहन करने वाली परिपक्व लाल रक्त कोशिकाओं को विकसित करना है। ऐसे रक्त से एच आई वी और हेपेटाइटिस जैसे विषाणुओं या 'मैड काऊ' रोग के मानवीय रूप से संक्रमित होने का खतरा नहीं होगा। खासकर मिलिट्री में यृद्ध की स्थिति में जब रक्त दाताओं से सामान्य रक्त आपूर्ति कम हो सकती है तब ताजा व्यापक डोनर रक्त की लगातार जरूरत रहती है। 
हालांकि आई वी एफ भ्रूण के अवशेष से रक्त विकसित करने पर लोग नैतिकता पर सवाल उठाएंगे क्योंकि वे स्टेम कोशिका बनाने के लिए भ्रूण को नष्ट करने के विचार से खुश नही होंगे। इससे अनुचित दार्शनिक सवाल भी उठ खड़े होगे कि कृत्रिम रक्त किसी ऐसे व्यक्ति से आया है जो कभी था ही नहीं। लेकिन सैद्धांतिक रूप से यह एक अनिवार्य जरूरत है।
वेलकम ट्रस्ट ने इस प्रोजेक्ट के खर्च के लिए 3 एमख्र  देने की योजना बनायी है ताकि आगे के निष्कर्ष स्काटलैंड, इंग्लैंड और वेल्स की रक्त संचरण सेवाओं से आ सके। ईरिश सरकार के भी इसमें शामिल होने के संकेत हैं। वेलकम ट्रस्ट के एक प्रवक्ता का कहना है कि सभी पार्टियों के द्वारा उठाए गए नैतिक मुद्दों को नजरअंदाज करना अब भी जारी है। आने वाले सप्ताह में जल्द ही इस संबंध में एक घोषणा की जानी है।
इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर  और स्कॉटिश नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन सर्विस के डायरेक्टर प्रोफेसर मार्क टर्नर करेंगे। प्रोफेसर टर्नर इस अध्ययन में भी शामिल रहे हैं कि दान में दिए गए  रक्त को वैरिएंट सी जे डी जैसे संक्रमण पैदा करने वाले एजेंटों और 'मैड काऊ' के मानवीय रूप से मुक्त कैसे किया जाए। कुछ वी सी जे डी  रोगियों को रक्त चढ़ाये जाने से इस रोग से ग्रस्त होते पाया गया है।   
इस अनुसंधान में यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के मेडिकल रिसर्च काउंसिल के सेंटर फॉर रिजेनेरेटिव मेडिसीन के वैज्ञानिकों और रॉसिन इंस्टीट्यूट में शामिल हो चुकी रॉसिन सेल्स कंपनी, जहां 1996 में डॉली नामक भेड़ का क्लोन तैयार किया गया था, भी शामिल हैं।
स्वीडन, फ्रांस और आस्ट्रिया जैसे अन्य देशों के वैज्ञानिक भी इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं से कृत्रिम रक्त के विकास पर कार्य कर रहे हैं। पिछले साल अमरीकी बायोटेक्नोलॉजी कंपनी एडवांस सेल टेक्नोलॉजी ने घोषणा की थी कि उन्होंने इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं से करोड़ों की संख्या में क्रियाशील लाल रक्त कोशिकाओं को उत्पन्न करने में सफलता हासिल कर ली है। लेकिन अमरीका में बुश प्रशासन ने इम्ब्रियोनिक स्टेम कोशिकाओं के कार्य पर रोक लगा दी, हालांकि अब मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस नीति को उल्टा कर दिया है।
ब्रिटेन में भी हालांकि 'ट्रांसलेशनल' रिसर्च के लिए कोष की दिक्कत के कारण यह प्रोजक्ट अभी रूका हुआ है। इसके अगले चरण में इसके व्यावसायिक विकास के शुरुआती अवस्था में प्रयोगशाला में वैज्ञानिक अध्ययन की जानी है।


महिलाओं में तनाव का कारण होता है जैविक

तनाव पुरुशों की तुलना में महिलाओं को क्यों अधिक प्रभावित करता है और महिलाएं तनाव से संबंधित मनोचिकित्सीय विकारों से अधिक पीड़ित क्यों होती हैं? यह एक पेचीदा विशय है लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार इसका कारण जैविक होता है।
चूहों के मस्तिश्क में स्ट्रेस सिग्नल अणुओं का अध्ययन करने पर अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि नर की तुलना में मादा मुख्य स्ट्रेस हार्मोन के कम स्तर के प्रति अधिक संवेदनषील होती हैं और इसके अधिक स्तर को ग्रहण करने में वे कम समर्थ होती हैं।
चिल्ड्रेन्स हॉस्पीटल ऑफ फिलाडेल्फिया की बिहेवियरल न्यूरो साइंटिस्ट और इस अध्ययन की प्रमुख रीटा जे. वैलेंटिनो के अनुसार यह लैंगिक अंतर पर पहला साक्ष्य है। 
रीटा के अनुसार महिलाओं में डिप्रेषन, पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसआर्डर और अन्य एंग्जाइटी डिसआर्डर की घटना अधिक होती है। इस लैंगिक अंतर का कारण मस्तिश्क कोषिका की सतह पर अणुओं की संरचना है जो रिसेप्टर कहलाती है और यह स्ट्रेस सिग्नलिंग अणुओं के ट्रैफिक को नियंत्रित करती है। रीटा कहती हैं, ''हालांकि मनुश्यों के संदर्भ में इसे सुनिष्चित करने के लिए कुछ और अध्ययनों की जरूरत है। इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि महिलाएं पुरुशों की तुलना में तनाव से संबंधित विकारों के प्रति दोगुनी संवेदनषील क्यों होती हैं।''
इस अनुसंधान को कोर्टिकोट्रोपिन-रिलीजिंग फैक्टर (सीआरएफ) पर केंद्रित किया गया। सीआरएफ ऐसा हारमोन है जो स्तनधारियों में तनाव के प्रति प्रतिक्रिया को व्यवस्थित करता है। चूहों के मस्तिश्क के विष्लेशण के दौरान तनाव की जांच करने पर अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि मादा चूहों में मस्तिश्क कोषिकाओं के सीआरएफ के रिसेप्टर नर चूहों की तुलना में कोषिका सिग्नलिंग प्रोटीन से अधिक कसकर जुडे होते हैं। इसलिए मादा में रिसेप्टर स्ट्रेस हार्मोन के प्रति अधिक मजबूती से प्रतिक्रिया करती हैं।
रीटा कहती हैं, ''तनावयुक्त नर चूहे अपनी मस्तिश्क कोषिकाओं में रूपान्तरित प्रतिक्रिया करते हैं जो इंटरनलाइजेषन कहलाता है। ये कोषिकाएं सीआरएफ रिसेप्टर की संख्या को कम कर देती हैं और हार्मोन के प्रति कम प्रतिक्रिया करती हैं। मादा चूहों में ऐसा नहीं होता है क्योंकि यह विषेश प्रोटीन उस तरह से सीआरएफ रिसेप्टर से जुड़ा नहीं होता है जैसा कि इस रूपान्तरण के लिए जरूरी होता है। 
रीटा कहती हैं, ''हालांकि हम पूरे विष्वास के साथ नहीं कह सकते हैं कि मनुश्यों में भी इसी तरह की जैविक प्रक्रिया होती है। मनुश्यों में अन्य प्रक्रियाएं और हार्मोन की भी भूमिका हो सकती है। लेकिन चूंकि मनुश्यों में भी तनाव से संबंधित मनोचिकित्सीय विकारों में सीआरएफ रेगुलेषन बाधित होती है। इसलिए यह अनुसंधान मानव जीव विज्ञान के मामले में भी सही साबित हो सकती है।'' 


डायलिसिस मशीन को कहें गुडबॉय

डायलिसिस के रोगियों को सप्ताह में दो या तीन बार डायलिसिस केन्द्र जाकर तकलीफदेह डायलिसिस कराना पड़ता है। डायलिसिस के रोगियों को इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए अनुसंधानकर्ताओं ने डायलिसिस के रोगियों के लिए पहनने वाली कृत्रिम किडनी का विकास किया है।
क्लिनिकल जर्नल ऑफ द अमेरिकन सोसायटी ऑफ नेफ्रोलॉजी (सी जे ए एस एन) के ताजा अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यू सी एल एल ए के डेविड गेफेन स्कूल ऑफ मेडिसीन के विक्टर गुरा कहते हैं, ''हमलोग पहनने वाली कृत्रिम किडनी के रूप में ऐसा यंत्र विकसित कर रहे हैं जो डायलिसिस के रोगियों को चौबीसों घंटे और सप्ताह में सातों दिन डायलिसिस की सुविधा उपलब्ध कराएगी।
यह यंत्र एक छोटी डायलिसिस मशीन है जिसे बेल्ट के रूप में पहना जाएगा। इसका वजन करीब 10 पाउंड है और इसे नौ वोल्ट की दो बैटरी से चार्ज किया जाएगा। इस यंत्र को पहनने पर रोगियों को बड़े डायलिसिस मशीन के साथ बंधे रहने की आवश्यकता नहीं होगी और वे स्वतंत्र रूप से टहल सकते हैं, अपना कार्य कर सकते हैं या सो सकते हैं जबकि यह यंत्र उनकी किडनी की डायलिसिस करती रहेगी और किडनी के कार्य करती रहेगी। 
गुरा कहते हैं, ''इस यंत्र के ईजाद से डायलिसिस रोगियों के इलाज में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ सकता है। पहनने वाली कृत्रिम किडनी न सिर्फ डायलिसिस के रोगियों की मृत्यु दर और तकलीफ को कम करेगी बल्कि इससे उनके इलाज में भी कम खर्च आएगा।'' डायलिसिस के रोगियों को हर सप्ताह घंटों तक डायलिसिस की पीड़ा सहने, रोजमर्रा की गतिविधियों तथा आहार पर नियंत्रण के साथ-साथ अपने रहन-सहन पर विशेष ध्यान देने के बावजूद काफी संख्या में डायलिसिस रोगियों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है और उनकी मृत्यु हो जाती है। अमरीका में अभी चार लाख से अधिक डायलिसिस के रोगी हैं और उन पर सालाना 30 बिलियन डालर का खर्च आता है।
गुरा कहते है, ''पहनने वाली कृत्रिम किडनी की सफलतापूर्वक जांच हो चुकी है और डायलिसिस के रोगियों पर भी इसके दो अध्ययन हो चुके हैं। इस नये अध्ययन में तकनीकीगत पहलूओं की जांच-पड़ताल की गयी है। 'हालांकि इस तकनीक के डायलिसिस रोगियों पर लंबे समय तक प्रभाव का भी क्लिनिकल अध्ययन जरूरी है ताकि इस यंत्र के इस्तेमाल से डायलिसिस के रोगियों के जीवन में महत्वपर्ण परिवर्तन लाया जा सके।'' 


 


नौकरी खोने का डर स्वास्थ्य के लिए खतरनाक

नौकरी नहीं होने की तुलना में नौकरी खो जाने का डर स्वास्थ्य पर अधिक खतरनाक प्रभाव डालता है। 
हाल में किये गये दो अध्ययनों में वैज्ञानिकों ने पाया है कि नौकरी खो चुके लोगों की तुलना में नौकरी खोने को लेकर चिंतित लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर इसका हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की समाजशास्त्री सारा बरगर्ड कहती हैं, ''हमने दोनों ही अध्ययनों में नौकरी खो चुके और नौकरी खोने को लेकर चिंतित लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का अध्ययन करने पर पाया कि जो लोग भविष्य में अपनी नौकरी के खोने को लेकर चिंतित रहते हैं उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य सहित पूरे स्वास्थ्य पर ही इसका बहुत खराब असर पड़ता है। जबकि एक अध्ययन में यह भी पाया गया कि नौकरी खोकर दोबारा नौकरी पाने वाले लोगों की तुलना में पहले से नौकरी कर रहे लेकिन नौकरी खोने का डर पाले लोगों में डिप्रेशन अधिक होता है।
बरगर्ड कहती हैं, ''वास्तव में धूम्रपान या उच्च रक्तचाप की तुलना में नौकरी की असुरक्षा लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है। इसका एक सामान्य कारण असुरक्षा की भावना के कारण पैदा हुआ तनाव है।''
दूसरे अध्ययन में पाया गया है कि तनाव स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकता है। यह लोगों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है और किसी भी व्यक्ति की जिंदगी को छोटा कर सकता है।
बरगर्ड और उनके सहयोगियों ने राष्ट्रीय स्तर पर अमरीकी लोगों के दो सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों का परीक्षण किया। दोनों सर्वेक्षण अध्ययन में शामिल लोगों के दो साक्षात्कारों पर आधारित था। पहला सर्वेक्षण वर्ष 1986 से 1989 के बीच और दूसरा सर्वेक्षण वर्ष 1995 से 2005 के बीच किया गया। 
प्रसिद्ध जर्नल सोशल साइंस एंड मेडिसीन में प्रकाशित इस अध्ययन में कहा गया है कि अमरीकी श्रम बाजार में नौकरी की असुरक्षा के संदर्भ में नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच का बंधन कमजोर हुआ है। बरगर्ड कहती हैं कि इस अनुबंध पर भी अध्ययन करने की जरूरत है कि यह अनुबंध स्वास्थ्य पर किस तरह हानिकारक प्रभाव डालता है।
बरगर्ड कहती हैं, ''भविष्य को लेकर अनिश्चितता की स्थिति,, किसी के खिलाफ कार्रवाई करने में असमर्थता और संस्थान की ओर से किसी भी तरह की मदद के अभाव के कारण लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है।''
अनुसंधानकर्ताओं ने जाति, वैवाहिक स्थिति, शिक्षा और नौकरी के चरित्र जैसे अन्य कारकों को नियंत्रित करने पर पाया कि असुरक्षा और स्वास्थ्य के बीच का संबंध वास्तव में किसी और चीज पर आधारित नहीं था और उनका स्वास्थ्य सिर्फ असुरक्षा भी भावना के कारण ही खराब हुआ था। 
बरगर्ड कहती हैं कि जब आप यह सोचते हैं कि आपकी आमदनी बंद होने वाली है तो आप स्वास्थ्य बीमा और रिटायरमेंट लाभ जैसी कई सुविधाओं को भी देखते हैं इसलिए नौकरी की असुरक्षा इतना तनावपूर्ण है।
बरगर्ड कहती हैं कि नौकरी की असुरक्षा नयी बात नहीं है लेकिन वैश्विक मंदी के कारण मौजूदा नौकरी की असुरक्षा काफी अधिक तनावपूर्ण मानी जा रही है इसलिए आज के संदर्भ में यह अध्ययन बिल्कुल सटीक साबित हो रहा है। 


पुरुषों में क्या देखती हैं महिलायें 

पुरुषों के लिये हमेशा से यह जिज्ञासा का विषय रहा है कि महिलाओं को पुरुशों की क्या चीजें आकर्षित करती हैं। इस विषय पर किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि महिलाएं पुरुषों खासकर अपने संभावित बॉयफ्रैंड में सेक्स का आकर्षण और चेहरे का सौंदर्य चाहती हैं और अपने बॉयफ्रैंड का चुनाव करते समय वे इन्हीं बातों को ध्यान में रखती हैं।
अमरीका के पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधार्थी रॉबर्ट जी फ्रैंकलिन कहते हैं, ''हमने अपने अध्ययन में पाया है कि महिलाएं किसी पुरुष के चेहरे के आकर्षण का दो स्तर पर मूल्यांकन करती हैं- एक यौन स्तर पर जो कि जबड़े की हड्डी, गाल की हड्डी और ओठ जैसे चेहरे की विशेष बनावट पर आधारित होता है और दूसरा, यौन इतर स्तर पर जो कि पूरी तरह से सुंदरता पर आधारित होता है। यौन स्तर पर आकर्षण एक ऐसे गुण का प्रतिनिधित्व करता है जो कि निषेचन जैसे संभावित प्रजनन को बढ़ा सकता है जबकि बगैर यौन स्तर पर आकर्षण पूरे तौर पर देखा जाता है जहां दिमाग पूरे शारीरिक अंगों को जिस रूप में देखता है उसके आधार पर सुंदरता का निर्धारण करता है। ''
इस अध्ययन के तहत् मनोवैज्ञानिकों ने 50 बिषमलिंगी कॉलेज छात्राओं को लड़के और लड़कियों के विभिन्न प्रकार के चेहरों को दिखाकर उनसे पूछा कि उन्होंने काल्पनिक डेट पार्टनर और काल्पनिक लैब पार्टनर के तौर पर उनमें क्या देखा।
उनका पहला सवाल यौन आधार पर आकर्षण का निर्धारण करने से था जबकि दूसरा सवाल सौंदर्य पर आधारित था। इन दोनों सवालों के जवाब के आधार पर ही आगे का अध्ययन शुरू किया गया।
उसके बाद मनोवैज्ञानिकों ने उन्हीं चेहरों को 50 अन्य बिषमलैंगिक छात्राओं को दिखाया। हालांकि उनमें से कुछ चेहरों को क्षैतिज रूप से विभाजित किया गया था। उनके उपरी और निचले आधे भाग को विपरीत दिशा में लगा दिया गया था।
वैज्ञानिकों ने उन छात्राओं से विभाजित किये गये चेहरे और पूरे चेहरे के आकर्षण को एक ही मानक पर तय करने को कहा। उन छात्राओं से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर उन्होंने यह तय किया कि महिलाएं आकर्षण का निर्धारण करने के लिए चेहरे की विशेष बनावट पर अधिक विश्वास करती हैं।
उन्होंने पाया कि यौन आधार तब विशेष भूमिका अदा करता है जब छात्राओं ने काल्पनिक लैब पार्टनर के बजाय काल्पनिक डेट के लिए चेहरों को देखा।      


हमारी बुद्धि और विवेक को कम करते हैं बर्गर और चिप्स 

फास्ट फूड का अत्यधिक सेवन न सिर्फ आपको शरीर से बल्कि बुद्धि से भी मोटा बना देता है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार बर्गर, चिप्स, करी और कबाब जैसे अधिक वसा युक्त आहार आपकी बुद्धि और याददाश्त को कम कर सकते हैं।
चूहों पर किये गए इस अनुसंधान के तहत चूहों को 10 दिन से भी कम समय तक अधिक वसा युक्त आहार देने से न सिर्फ उनकी बुद्धि और याददाश्त में कुछ समय के लिए कमी आ गयी बल्कि उनकी मानसिक सजगता भी कम हो गयी। इसके अलावा उनकी व्यायाम करने की क्षमता में भी काफी कमी आ गयी।
इस अध्ययन के प्रमुख एंड्रयू मुरे के अनुसार लोगों के खाने, सोचने और शरीर के प्रदर्शन के बीच गहरा संबंध होता है। उनके खान-पान की आदतों से न सिर्फ उनकी सोच प्रभावित होती है बल्कि उनका शारीरिक प्रदर्शन भी प्रभावित होता है।
मुरे कहते हैं, ''पश्चिमी आहार में परम्परागत रूप से अधिक वसा होती है जिसका संबंध मोटापा, मधुमेह और दिल के दौर जैसी बीमारियों से है। हालांकि ऐसे आहार के सेवन से कम समय में कोई गंभीर दुष्प्रभाव सामने नहीं आते हैं इसलिए लोग इस पर ध्यान नहीं देते हैं।''
मुरे कहते हैं, ''इस अध्ययन से अब लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक होंगे। उन्हें अपने स्वास्थ्य में सुधार के साथ-साथ बुद्धि क्षमता में सुधार और सजगता में वृद्धि के लिए अपने आहार में वसा को कम करने पर गंभीरता से सोचना होगा।''  
सुप्रसिद्ध जर्नल 'फेडरेशन ऑफ द अमेरिकन सोसायटीज फॉर एक्सपेरिमेंटल बायलोजी' में प्रकाशित इस अध्ययन के तहत अनुसंधानकर्ताओं ने कुछ चूहों को कम वसा युक्त आहार और कुछ चूहों को जंक फूड जैसे अधिक कैलोरी वाले वसा युक्त आहार दिया। चार दिनों तक ऐसे आहार के सेवन के बाद उन्होंने दोनों प्रकार के चूहों में तुलना करने पर पाया कि अधिक वसायुक्त आहार का सेवन करने वाले चूहों की मांसपेशियां व्यायाम के लिए जरूरी उर्जा की जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन का इस्तेमाल करने में कम समर्थ थीं। उनमें अनकपलिंग प्रोटीन 3 नामक प्रोटीन का स्तर बढ़ गया था जिसने चूहों को दौड़ने के लिए जरूरी उर्जा के लिए कोशिकाओं को ऑक्सीजन के इस्तेमाल में कम सक्षम कर दिया। अधिक वसायुक्त आहार के सेवन के कारण उनका वजन भी बढ़ गया था और उनके हृदय को अधिक काम करना पड़ रहा था। जब दोनों प्रकार के चूहों के बीच दौड़ करायी गयी तो कम वसा का सेवन करने वाले पतले चूहे अधिक वसा का सेवन करने वाले मोटे चूहों की तुलना में करीब डेढ़ गुना अधिक तेजी से भागे। 


कामकाजी महिलाओं में हृदय रोग का दोगुना खतरा

नये अध्ययनों से इस बात की पुश्टि हुयी है कि अधिक तनाव वाली नौकरी में कार्यरत महिलाओं में कम तनाव वाली नौकरी में कार्यरत महिलाओं की तुलना में दिल का दौरा सहित हृदय बीमारियों का खतरा 40 प्रतिषत तक बढ़ जाता है। इसके अलावा, असुरक्षित नौकरी और नौकरी खोने का डर भी महिलाओं में उच्च रक्त चाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल और मोटापा जैसे हृदय रोग के खतरे को बढ़ाता है। हालांकि दिल के दौरे, स्ट्रोक, दिल की इनवैसिव प्रक्रियाओं या हृदय रोग के कारण मौत का इससे सीधा संबंध नहीं है। नौकरी का तनाव एक प्रकार का मानसिक तनाव है, लेकिन इसका प्रभाव मानसिक के साथ-साथ षारीरिक रूप से भी पड़ता है।
अमेरिकन हार्ट असोसिएषन के वैज्ञानिक सत्र 2010 में पेष एक अनुसंधान के अनुसार बोस्टन के ब्रिघम एंड वुमेन्स हॉस्पीटल के सहायक फिजिषियन और इस अध्ययन के प्रमुख मिषेल ए. अल्बर्ट के अनुसार इस अध्ययन में महिलाओं में नौकरी से संबंधित तनाव का प्रभाव तत्काल और लंबे समय के बाद भी पाया गया। किसी भी महिला की नौकरी उसके स्वास्थ्य को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित कर सकती है। इसलिए किसी भी कामकाजी महिला को यह मान कर चलना चाहिए कि नौकरी से संबंधित तनाव उसकी जिंदगी का एक हिस्सा है।
इस अध्ययन के तहत्् अनुसंधानकर्ताओं ने करीब साढ़े 17 हजार कामकाजी महिलाओं पर नौकरी से संबंधित तनाव का विष्लेशण किया। इन महिलाओं की औसत उम्र 57 वर्श थी और इन्हें नौकरी से संबंधित तनाव, नौकरी की असुरक्षा और हृदय रोग के रिस्क फैक्टर के बारे में जानकारी दी गयी। अनुसंधानकर्ताओं ने नौकरी से संबंधित तनाव के मूल्यांकन के लिए एक प्रष्नावली की मदद ली। इस प्रष्नावली में ''मेरी नौकरी में बहुत तेज काम करने की जरूरत है'', ''मेरी नौकरी में कठिन कार्य करने की आवष्यकता होती है'', ''मैं दूसरों की मांग को पूरा करने से स्वतंत्र हूं।'' जैसे सवाल पूछे गये। 
इनमें से 40 प्रतिषत महिलाओं में नौकरी से संबंधित अत्यधित तनाव पाया गया जिसकी परिणति दिल का दौरा, इस्कीमिक स्ट्रोक, कोरोनरी आर्टरी बायपास सर्जरी या बैलून एंजियोप्लास्टी और मौत के रूप में सामने आयी। इन महिलाओं में दिल के दौरा का खतरा 88 प्रतिषत पाया गया जबकि बासपास सर्जरी या इंवैसिव प्रक्रिया का खतरा करीब 43 प्रतिषत पाया गया। 
बोस्टन में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी सेंटर ऑन द डेवलपिंग चाइल्ड के पोस्टडॉक्टोरल रिसर्च फेलो और मुख्य अनुसंधानकर्ता नेटल स्लोपेन कहते हैं कि महिलाओं में काम की अधिक मांग और खुद पर कम नियंत्रण लंबे समय में हृदय रोग के खतरे को बढ़ाता है।
षोधकर्ताओं के अनुसार कुछ काम तो होते ही तनाव पैदा करने वाले हैं। मिसाल के तौर पर अगर एक ही काम को बार-बार करते रहना हो, तो उसमें नवीनता व उत्साह ही भावना नहीं रहती और काम करने वाला व्यक्ति बोरियत महसूस करने लगता है। 
जिन नौकरियों में षिफ्ट के हिसाब से काम होता है, वहां की समस्याएं तो अलग ही किस्म की होती है। यदि आप रात भर काम करते हैं और दिन में सोते हैं तो इससे आपके षरीर की स्वाभाविक अवस्था पर बुरा असर पड़ता है। यह समस्या तब और बढ़ जाती है जब थोड़े-थोड़े दिनों में षिफ्ट बदलनी पड़ती है। कार्यस्थल पर आपसी अनबन, ईर्श्या, प्रतिस्पर्धा तथा एक दूसरे के काम में मीन-मेख निकालने की आदत काम के साथ-साथ कर्मचारी के स्वास्थ्य पर भी असर डालती है। इसके अलावा बसों की धक्का-मुक्की, बॉस का नाराजगी, दफ्तर का षोरयुक्त वातावरण, ताजी हवा की कमी, काम का दबाव, वेतन में कटौती जैसे कई कारण हैं जिससे तनाव बढ़ता है।


सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि जब महिला की नौकरी पुरुष की तुलना में अधिक समय और श्रमसाध्य होती है तब भी महिला को घर के सभी काम-काज करने पड़ते हैं और पति घर में आराम फरमाते हैं। आज भी ज्यादातर घरों में कामकाजी महिलायें दफ्तर से लौटने के बाद घर के काम- काज में जुट जाती हैं जिसके कारण उन्हें दोहरे तनाव का सामना करना पड़ता है।


घर और बच्चों को पूरा समय न दे पाने की वजह से उनमें ग्लानि की भावना पनपने लगती है। इन सबसे उनके स्वास्थ्य पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ता है। इससे उनमें घबराहट, उदासीनता, थकावट और कई प्रकार की मानसिक और शारीरिक बीमारियां पैदा हो सकती हैं। किसी महिला के अधिक दिनों तक तनावग्रस्त रहने पर सिरदर्द, आधासीसी (माइग्रेन), कमर दर्द जैसी सामान्य बीमारियों से लेकर दमा, दाद-खाज, जोड़ों का दर्द, बदहजमी, दस्त लगना, कब्ज, नींद की गड़बड़ी, दिल की धड़कन बढ़ना, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर जैसी गंभीर समस्यायें भी पैदा हो सकती हैं।
     
ज्यादातर पुरुषों का मानना होता है कि महिलायें पेशागत काम करने तथा निर्णय लेने के मामले में पुरुषों के समान सक्षम नहीं होती हैं। पुरुषों के मन में महिलाओं के प्रति उक्त धारणा महिलाओं के समक्ष अनेक तरह की बाधायें खड़ी करती है। उक्त धारणा के कारण महिलायें आम तौर पर अपनी योग्यता और क्षमता के अनुरूप नौकरी या पद पाने से वंचित रह जाती हैं जिससे महिलाओं में कुंठा पैदा होती है। महिलाओं को असमान वेतन, पदोन्नति में देरी और सहकर्मियों के अभद्र व्यवहार जैसे भेदभाव का भी उसे सामना करना पड़ता है। नियोजकों के मन में भी महिलाओं की जो छवि होती है उससे भी कामकाजी महिलाओं के लिए समस्यायें उत्पन्न होती हैं। बराबर मेहनत करने पर भी उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम तनख्वाह में गुजारा करना पड़ता है।


अल्बर्ट कहते है, ''सार्वजनिक स्वास्थ्य के नजरिये से नियोक्ताओं, संभावित रोगियों, सरकार और अस्पताल के कर्मचारियों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे कर्मचारियों के काम से संबंधित तनाव की निगरानी करें और नौकरी से संबंधित तनाव को कम करने के लिए पहल करें। इससे नौकरीपेषा लोगों में हृदय रोग में कमी लाने में मदद मिलेगी।''


 


कम नींद लेने से बढ़ जाता है मधुमेह और दिल के रोग का खतरा

नींद हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है। नींद वास्तव में हमारे षरीर की जरूरत है। थकान मिटाने, रोग प्रतिरोधक क्षमता को सुचारू रूप से कार्यरत रखने और अनेक हार्मोन संबंधित कार्यों के लिए नींद आवष्यक होती है। नींद एक ऐसी औशधि है जो चौबीस घंटे में मनुश्य को कम से कम एक तिहाई समय के लिए समस्त चिंताओं से मुक्त करके विश्राम देती है।
सुप्रसिद्ध हृदय रोग विषेशज्ञ पद्म विभूशण डा. पुरूशोत्तम लाल का कहना है कि जो लोग हफ्ते में 60 घंटे से अधिक काम करते हैं और पूरी नींद नहीं लेते हैं उन्हें दिल का दौरा पड़ने की संभावना अधिक होती है। कम नींद के कारण इंसुलिन की बाधा उत्पन्न होती है। अधिक काम और नींद की कमी से रक्तचाप बढ़ता है जो मधुमेह तथा दिल के रोग का कारण बन सकता है। कम नींद लेने के साथ-साथ अधिक कैलोरी के सेवन और शारीरिक निष्क्रियता से मधुमेह और दिल के रोग का खतरा बढ़ जाता है।
मैट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीट्यूट्स (नौएडा) के मुख्य इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट तथा मैट्रो गु्रप ऑफ हास्पीटल्स के चेयरमैन डा. पुरूशोत्तम लाल ने बताया कि हफ्ते में 60 घंटे से अधिक काम करने वाले और छह घंटे से कम सोने वाले पुरुशों को दिल का दौरा पड़ने का खतरा उन पुरुशों के मुकाबले दोगुना होता है जो 40 घंटे या उससे कम काम करते हैं और आठ घंटे सोते हैं। सप्ताह में केवल दो दिन औसतन पांच घंटे या उससे कम की नींद से दिल का दौरा पड़ने का खतरा दोगुना या तिगुना तक हो सकता है। 
सबसे अधिक एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंटिंग करने का श्रेय हासिल करने के लिये इंडियन मेडिकल एसोसिएषन की ओर से सम्मानित डा. पुरूशोत्तम लाल ने बताया कि हर व्यक्ति की नींद की अवधि अलग-अलग होती है। कोई आठ घंटे सोता है तो किसी के लिए मात्र पांच घंटे की नींद भी काफी होती है। लेकिन फिर भी एक निष्चित अवधि से थोड़ी सी भी कम नींद अपना असर दिखा सकती है। नींद पूरी न कर पाने वाले लोगों में मोटापे के लक्षण नजर आने लगते हैं। लगातार छह दिनों तक पूरी नींद न लेने से षरीर में ग्लूकोज का संचार अवरोधित होता है जिससे मधुमेह का खतरा काफी बढ़ जाता है। कम नींद लेने से षरीर में दोपहर और फिर षाम होते-होते कोर्टिसोल नामक हार्मोन की मात्रा बढ़ती है जिससे तनाव पैदा होता है। तनाव के कारण हृदय गति में वृद्धि के साथ ही रक्तचाप भी बढ़ता है जो उच्च रक्तचाप, मधुमेह तथा दिल की बीमारी का कारण बनता है। 
नयी दिल्ली, नौएडा, मेरठ, आगरा, फरीदाबाद आदि षहरों में काम कर रहे मेट्रो गु्रप ऑफ हास्पीटल्स समूह के चेयरमैन डा. लाल बताते हैं कि कम नींद लेना और शारीरिक निष्क्रियता पश्चिमी जीवन शैली का एक सामान्य पहलू है। आजकल विकसित देशों के अधिकतर लोग और भारत जैसे विकासशील देशों के पश्चिमी सभ्यता का पालन करने वाले लोग रात में छह घंटे से भी कम सोते हैं। कम देर तक सोने का एक परिणाम यह भी होता है कि अधिक समय तक जगे रहने के कारण लोग सामान्य से अधिक खाते हैं। अधिक खाने और कम सोने से मोटापा और मधुमेह होने का खतरा बढ़ जाता है। स्वस्थ जीवन शैली में सिर्फ खान-पान की स्वास्थ्यकर आदतों और पर्याप्त मात्रा में शारीरिक सक्रियता ही शामिल नहीं है बल्कि पर्याप्त मात्रा में नींद भी जरूरी है।
डा. बी. सी. राय राश्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डा. लाल कहते हैं कि अच्छी और पर्याप्त नींद लेने से हृदय को बल मिलता है इसलिए यदि संभव हो तो रोजाना आठ घंटे की नींद लें और किसी भी हालत में सात घंटे से कम न सोएं।ं  


 


जानलेवा मोटापे से निजात देने वाली आधुनिक सर्जरी अब भारत में

हृदय रोगों, उच्च रक्त चाप, मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों के जनक माने जाने वाले अत्यधिक मोटापे से स्थायी तौर पर छुटकारा दिलाने वाली आधुनिक शल्य चिकित्सा अब भारत में भी उपलब्ध हो गयी है। 
लैपरोस्कोपी आधारित बैरिएट्रिक सर्जरी नामक यह शल्य चिकित्सा 100 किलोग्राम से अधिक वजन वाले लोगों के लिए कारगर विकल्प साबित हो रही है।
एक बार लैपरोस्कोपिक सर्जरी कराने वजन 30 से 40 किलोग्राम का शारीरिक वजन घट जाता है। विदेशों में इस सर्जरी पर 30 से 40 लाख रूपये का खर्च आता है लेकिन भारत में यह सर्जरी 3 से 4 लाख में ही हो जाती है। यही कारण है कि इस सर्जरी को कराने के लिये विदेश से भी काफी संख्या में लोग भारत आने लगे हैं।
बैरिएट्रिक सर्जरी के विशेषज्ञ डा. अरूण प्रसाद बताते हैं कि अमरीका और यूरोप में यह सर्जरी काफी कारगर एवं सफल साबित हुयी है और अब भारत में भी यह तेजी से लोकप्रिय हो रही है।
नई दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के लैपरोस्कोपिक सर्जन डा. प्रसाद कहते हैं कि आज के समय में विलासितापूर्ण जीवन शैली तथा वसायुक्त एवं डिब्बाबंद आहार के बढ़ते प्रचलन के कारण लोगों में मोटापे की समस्या तेजी से बढ़ रही है। 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में एक अरब 20 करोड लोग मोटे लोगों की श्रेणी में हैं। विकसित देशों में मोटापा एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है और यह समस्या भारत जैसे विकासशील देशें में भी बढ़ रही है। एक अनुमान के अनुसार केवल भारत में ढाई करोड लोग मोटापे से ग्रस्त हैं। 
रोजमर्रे की सक्रियता तथा जीवन काल को घटा देने वाले मोटापे को मधुमेह, उच्च रक्त चाप, कोरोनरी आर्टरी डिजिज, हाइपरलिपिडेमिया, जोड़ों की समस्याओं और यहां तक कि कैंसर के लिये भी जिम्मेदार पाया गया है। 
डा. प्रसाद बताते हैं कि सामान्य मोटापे से डायटिंग और नियमित व्यायाम की मदद से कुछ हद तक निजात पाया जा सकता है लेकिन अत्यधिक मोटापे की स्थिति में ये उपाय मददगार नहीं होते लेकिन बैरिएट्रिक सर्जरी की मदद से अत्यधिक मोटापे से छुटकारा पाया जा सकता है। 
डा़ प्रसाद के अनुसार भारत में कई बड़े अस्पतालों में इस सर्जरी की शुरूआत हो गयी है हालांकि अभी भारत में जो लोग इस सर्जरी का लाभ ले रहे हैं उनमें ज्यादातर विदेशों में रहने वाले लोग ही हैं। इसका कारण है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में इस सर्जरी पर कम खर्च आता है। धीरे-धीरे भारतीयों में भी इस सर्जरी को लेकर जानकारी एवं दिलचस्पी बढ़ रही है। 
डा. प्रसाद के अनुसार बैरिएट्रिक सर्जरी दो तरीकों से की जाती है -  बैंडिंग और गैस्ट्रिक बाईपास । बैंडिग में पेट के उपर एक बैंड लगा दिया जाता है जबकि जबकि गैस्ट्रिक बाईपास में आंत में लैपेरोसोपिक बाईपास सर्जरी की जाती है।
गैस्ट्रिक बाइपास और गैस्ट्रिक बैंडिंग की मदद से की जाने वाली इस सर्जरी के द्वारा अमाशय का आकार छोटा कर दिया जाता है जिससे मरीज अधिक नहीं खा पाता है और उसका अपने आप वजन घट जाता हैं। 
लैपरोस्कोपिक गैस्ट्रिक बाइपास एवं गैस्ट्रिक बैंडिंग सर्जरी भारतीयों के लिये अनुकूल है क्योंकि वे कार्बोहाइड्रेट युक्त आहार ग्रहण करते हैं। भारतीयों में जो मोटापा प्रचलित है वह पेट से जुड़ा हुआ है और इस तरह का मोटापा मधुमेह, रक्त चाप और अधिक कालेस्ट्राल जैसी समस्याओं को जन्म दे सकता है और इनकी परिणति किडनी एवं दिल की बीमारियों के रूप में हो सकती है।
गैस्ट्रिक बैंडिंग वजन घटाने के लिये यूरोप और आस्ट्रेलिया और यूरोप में की जाने वाली सबसे प्रचलित सर्जरी है जबकि लैपरोस्कोपिक गैस्ट्रिक बाइपास अमरीका में अधिक लोकप्रिय है।
डा. अरूण प्रसाद बताते हैं कि लैपरोस्कोपिक गैस्ट्रिक बैंडिंग सर्जरी में पेट के उपरी भाग पर सिलिकन पटटी लगा दी जाती है ताकि उसकी क्षमता घट जाये। यह बहुत ही सुरक्षित सर्जरी है और इसके लिये केवल एक रात अस्पताल में रहने की जरूरत होती है। इससे व्यक्ति कम भोजन ग्रहण करता है और इसके बार नियमित रूप से वजन घटता रहता हैं। जबकि लैपरोस्कोपित गैस्ट्रिक बाइपास बड़ी सर्जरी है और इसके लिये चार दिन अस्पताल में रहना पड़ता हैं। इस सर्जरी में स्टेपल्स की मदद से अमाशय में छोटे-छोटे पॉच बना दिये जाते हैं इससे व्यक्ति की खाने की क्षमता घट जाती है।
यह सर्जरी न केवल भोजन खाने की क्षमता को कम करता है बल्कि भोजन पचाने की क्षमता को भी घटा देती है। अमाशय में बनाये गये छोटे पॉच के कारण पेट जल्द ही मस्तिक को पेट भर जाने और तृप्त हो जाने का संकेत भेज देता हैं इस दोहरे असर के कारण इस सर्जरी में वजन तेजी से घटता है।


हर्निया का माइक्रोस्कोपी उपचार

आधुनिक समय में लोगों में मोटापे की बढ़ती समस्या तथा व्यायाम एवं शारीरिक श्रम से बचने की बढ़ती प्रवृतियों के कारण हर्निया का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है। मोटापा तथा व्यायाम के कारण मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। जांघ के विशेष हिस्से की मांसपेशियों एवं लिगामेंट के बहुत अधिक कमजोर हो जाने के कारण पेट (आंत) के हिस्से मांसपेशियों से होकर बाहर निकल जाते हैं। इसे ही हर्निया कहा जाता है। 
हर्निया के कारण 
सुप्रसिद्ध लैपरोस्कोपी सर्जन एसोसिएषन ऑफ सर्जन्स आफ इंडिया (एएसआई) तथा इंटरनेषनल कॉलेज ऑफ सर्जन्स की भारतीय षाखा के अध्यक्ष डा. नरेन्द्र कुमार पाण्डे बताते हैं कि हर्निया के जन्मजात कारण भी होते हैं। बच्चों में आम तौर पर जन्मजात कारणों से ही हर्निया होती है। कई मामलों में बचपन से ही हर्निया होती है लेकिन इसके लक्षण 23 से 30 साल के बीच उस समय उभरते हैं जब मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। बच्चों एवं पुरुषों में जन्मजात अथवा अचानक वजन बढ़ने जैसे अन्य कारणों से होने वाली हर्निया जांघ में जांघिया वाले क्षेत्र (ग्रोइन एरिया) में ही होती है। पुरुषों में अधिक उम्र में वजन में अचानक परिवर्तन के अलावा प्रोस्टेट की समस्या, खांसी, कब्ज और मूत्र त्यागने में दिक्कत जैसे कारणों से भी हर्निया होने की आशंका बढ़ती है क्योंकि इन कारणों से पेट पर अधिक जोर पड़ता है। हर्निया की समस्या हालांकि पुरुषों एवं महिलाओं दोनों में पायी जाती है लेकिन पुरुषों में यह बीमारी महिलाओं की तुलना में तकरीबन आठ गुना अधिक व्यापक है। हर्निया के रोगियों को असहनीय कष्ट सहना पड़ता है। हर्निया के बहुत अधिक समय तक रहने के कारण आंत के फटने जैसी समस्या हो सकती है। 
हर्निया के उपचार की तकनीकें 
फरीदाबाद स्थित एषियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (ए आई एम एस) के चेयरमैन डा. पाण्डे बताते हैं कि हर्निया के इलाज के लिये एकमात्र उपाय ऑपरेशन है लेकिन अब लैपरोस्कोपी  की मदद से हर्निया का ऑपरेशन अत्यंत कष्टरहित एवं कारगर बन गया है। हर्निया के परम्परागत ऑपरेशन के तहत हर्निया को काट कर निकाल लिया जाता है लेकिन इस ऑपरेशन के साथ मुख्य समस्या यह है कि मरीज को ऑपरेशन के बाद औसतन डेढ़ महीने तक आराम करने की जरूरत होती है। यही नहीं इस ऑपरेशन के बाद दोबारा हर्निया होने की आशंका बनी रहती है। परम्परागत ऑपेरशन के बाद दोबारा हर्निया होने की आशंका करीब 20 प्रतिशत तक होती है। परम्परागत ऑपरेशन की तुलना में लीशटेंस्टियन रिपेयर नामक तकनीक अधिक कारगर है और इस तकनीक से ऑपरेशन करने पर ऑपरेशन के बाद दोबारा हर्निया होने की आशंका एक प्रतिशत से भी कम होती है। इस तकनीक के तहत् कम से कम टांके लगाये जाते हैं और कमजोर मांसपेशियों पर एक विशेष नेट रोपित कर दिया जाता है। हालांकि इस तरीके से ऑपरेशन करने पर भी मांसपेशियों में चीर-फाड़ करने की जरूरत पड़ती है और मरीज को ऑपेरशन के दौरान कष्ट सहना पड़ता है और ऑपरेशन के बाद काफी समय तक विश्राम करना पड़ता है। 
राश्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हाथों प्रतिश्ठित डा. बी सी राय पुरस्कार से सम्मानित डा. पाण्डे बताते हैं कि अब लैपरोस्कोपी आधारित सर्जरी के विकास के बाद हर्निया के ऑपरेशन के लिये मांसपेशियों में चीर-फाड़ करने की आवश्यकता समाप्त हो गयी है। 
डा. पाण्डे के अनुसार अब लैपरोस्कोपी का अधिक विकसित रूप माइक्रो लैपरोस्कोपी के रुप में सामने आया है। भारत में अब यह तकनीक कुछ गिने-चुने चिकित्सा केन्द्रों में उपलब्ध हो गयी है। इस नयी तकनीक के कारण हर्निया का ऑपरेशन और अधिक कष्टरहित एवं कारगर बन गया है। इसमें मरीज को उतना ही कष्ट होता है मानो उसे सुई चुभोई जा रही है। माइक्रोलैपरोस्कोपी ऑपरेशन के तहत् मात्र पांच मिलीमीटर व्यास का चीरा लगाना ही पर्याप्त होता है। यही नहीं माइक्रोलैपरोस्कोपी ऑपरेशन के बाद टांके को हटाने की जरूरत नहीं पड़ती है। इस तरह दूर-दराज के मरीजों को दोबारा सर्जन के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे मरीज स्थानीय चिकित्सक से ही चेकअप आदि करवा सकते हैं।
लैपरोस्कोपी सर्जरी के तहत् किसी भी मांसपेशी को काटे या मांसपेशियों में चीर-फाड़ किये बगैर उदर के निचले हिस्से की त्वचा में मात्र आधे इंच का चीरा लगाकर मांसपेशियों के बीच अत्यंत पतली ट्यूब (कैनुला) प्रवेश करायी जाती है। इस ट्यूब के जरिये लैपरोस्कोप डाला जाता है। यह लैपरोस्कोप अत्यंत सूक्ष्म कैमरे से जुड़ा होता है। फाइबर आप्टिक तंतु के जरिये भीतर की तस्वीरों को परिवर्द्धित आकार में उससे जुड़े टेलीविजन के मॉनिटर पर देखा जा सकता है। टेलीविजन मॉनिटर पर तस्वीरों को देखते हुये इस पतली ट्यूब के रास्ते आधे इंच के व्यास वाली एक और पतली ट्यूब प्रवेश करायी जाती है। इस ट्यूब की मदद से हर्निया को हटाकर वहां एक विशेष जाली (नेट) फिट कर दी जाती है जिससे भविष्य में दोबारा हर्निया होने की आशंका समाप्त हो जाती है। 
हालांकि फिलहाल लैपरोस्कोपी ऑपरेशन परम्परागत ऑपरेशन की तुलना में दोगुना महंगा है क्योंकि इसके लिये जरूरी उपकरण विदेशों से आयातित होते हैं लेकिन लैपरोस्कोपी ऑपरेशन के बाद मरीज शीघ्र काम-काज करने लायक हो जाता है और उसे अधिक समय तक अस्पताल में नहीं रहना पड़ता है। लैपरोस्कोपी ऑपरेशन पर आम तौर पर 25 से 40 हजार रुपये का खर्च आता है। 


हृदय के रुकने के आनुवांशिक कारण की खोज

वैज्ञानिकों ने हृदय गति रुकने के लिये जिम्मेदार प्रोटीन की खोज की है। इस खोज की मदद से हृदय के रुकने के उपचार का मार्ग प्रषस्त हो सकेगा।  
हीडेलबर्ग यूनिवर्सिटी हॉस्पीटल के डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसीन के उपाध्यक्ष डा. वोल्फगैंग रॉटबायर ने इस प्रोटीन की खोज की है। उनका कहना है कि इस प्रोटीन का म्यूटेशन ही हृदय गति के रुकने का कारण है।
नेचर मेडिसीन के ताजा अंक में प्रकाशित इस शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारा हृदय पूरी जिंदगी के दौरान लगभग 25 करोड़ लीटर रक्त पंप करता है। हृदय की मांसपेशियों का फाइबर अत्यधिक टिकाऊ और मजबूत होता है। लेकिन हृदय के पंप के कार्य में गड़बड़ी आने के साथ-साथ हृदय की मांसपेशियों की बीमारी के कारण हृदय के चैम्बर के बड़ा होने का खतरा बढ़ जाता है जिसे डायलेटेड कार्डियोमायोपैथी कहते हैं। यह हृदय गति रुकने का सबसे सामान्य कारणों में से है। हर साल ऐसे हर एक लाख मामलों में छह नये मामले जुड़ जाते हैं और इनमें से 20 प्रतिशत मामले आनुवांशिक होते हैं। हृदय की बीमारी हृदय कोशिकाओं को कमजोर कर देती है और हृदय पर्याप्त रूप से लंबे समय तक पंप नहीं कर पाता है जिससे हृदय के चैम्बर के बढ़ने का खतरा बढ़ता है।
मांसपेशियों की सक्रियता मांसपेशी के फाइबर की सबसे छोटी इकाई सैक्रोमेयर में होती है। इसी सैक्रोमेयर की सक्रियता के लिये उक्त प्रोटीन जिम्मेदार है। अगर यह प्रोटीन (नेक्सिलीन) उत्परिवर्तित होता रहे तो मांसपेशी के गतिमान तत्व लंबे समय तक स्थायी रूप से स्थिर नहीं रह पाते हैं। ऐसे में मांसपेशियां शक्ति खोने लगती हैं और हृदय कमजोर हो जाता है। 


युवाओं में बढ़ रहे हैं दिल के दौरे

आधुनिक जीवनश्ौली और छोटी उम्र में काम के तनाव के कारण युवकों में हृदयरोग का प्रकोप तेजी से बढ़ता जा रहा है। दिल के दौरे के खतरे अब षहरी और अमीर युवकों तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि ये खतरे ग्रामीण और गरीब युवकों में भी तेजी से बढ़ रहे हैं। 
आंकड़े बताते हैं कि भारत में 40 प्रतिषत से अधिक हृदय रोगी 50 साल से कम उम्र के हैं और 25 प्रतिषत से अधिक हृदय रोगी 40 वर्श से कम उम्र के हैं। यही नहीं, अब 20 से 25 साल के युवा भी दिल के रोग की चपेट में हैं। गले व पेट में दर्द की षिकायत वाले कई लोगां की ईसीजी के बाद पता चलता कि वे दिल के मरीज हैं। 
सुप्रसिद्ध हृदय रोग विषेशज्ञ पद्म विभूशण डा. पुरूशोत्तम लाल का कहना है कि गांवां के तेजी से शहरीकरण होने के कारण ग्रामीण युवा भी दिल के रोगां से अधिक दूर नहीं रह गए हैं। जहां शहरी युवाओं का बॉडी मास इंडेक्स 24 है वहीं ग्रामीण युवाओं का 20 पाया गया है। ग्रामीण युवा नौकरी और अच्छे जीवन की तलाष में तेजी से शहरां की ओर पलायन कर रहे हैं। षहरों के नए वातावरण में वे पहले की अपेक्षा अधिक आरामतलब जिंदगी जीने लगते। यहां वे अधिक कैलोरी वाले आहार लेने लगते हैं। धूम्रपान और शराब का सेवन भी षुरू कर देते हैं। फास्ट फूड के रूप में अधिक नमक और वसा खाने लगते हैं। जिसके कारण कम उम्र में ही उनके रिस्क फैक्टर में काफी इजाफा हो जाता है और कम उम्र में वे उच्च रक्तचाप, अधिक कोलेस्ट्रॉल, मोटापा आदि की समस्या से पीड़ित हो जाते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि शहरी लोगां की शादीशुदा जिंदगी में तनाव और नौकरी से असंतुष्टि दिल के दौरे का सबसे बड़ा कारण बन गया है।
मैट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीट्यूट्स (नौएडा) के मुख्य इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट तथा मैट्रो गु्रप ऑफ हास्पीटल्स के चेयरमैन डा. पुरूशोत्तम लाल ने बताया कि लाइफस्टाइल और खानपान में बदलाव जहां लोगां को दिल की बीमारियां की सौगात दे रहा है, वहीं शादीशुदा जिंदगी में मनमुटाव और मनपसंद जॉब न मिलने या काम का ज्यादा दबाव दिल के दौरे की वजह बन रहा है। यही कारण है कि अमेरिका में सोमवार की सुबह लोगां को सबसे ज्यादा हार्ट अटैक होते हैं। अध्ययन के मुताबिक, पति-पत्नी के बीच जब 'वो' यानी किसी तीसरे शख्स का दखल बढ़ जाता है, तब भी हार्ट अटैक होने की आशंका बढ़ जाती है क्यांकि ऐसे लोग हर समय एक तरह के डर के साये में जीते हैं। 
सबसे अधिक एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंटिंग करने का श्रेय हासिल करने के लिये इंडियन मेडिकल एसोसिएषन की ओर से सम्मानित डा. पुरूशोत्तम लाल ने बताया कि पिछले कुछ वर्षो में पेश्ोगत कार्यो से संबंधित तनाव, कार्य के घंटे बढ़ने और गलत रहन-सहन एवं खान-पान, धूम्रपान, फास्ट फूड और व्यायाम नहीं करने जैसे कारणां से युवाओं में दिल के दौरे एवं हृदय रोगां का प्रकोप तेजी से बढ़ रहे है जबकि पहले ये बीमारियां अधिक उम्र में होती थी। उन्हांने बताया कि पिछले कुछ समय से कम उम्र के वैसे मरीज अधिक संख्या में आ रहे हैं, जो वेतन और अन्य सुविधायें तो अधिक पा रहे है, किन्तु तनावपूर्ण कार्य स्थितियां एवं गलत खान-पान एवं रहन-सहन के कारण उच्च रक्तचाप एवं दिल की बीमारियां के भी षिकार हो रहे है। 
नयी दिल्ली, नौएडा, मेरठ, आगरा, फरीदाबाद आदि षहरों में काम कर रहे मेट्रो गु्रप ऑफ हास्पीटल्स समूह के चेयरमैन डा. लाल बताते हैं कि लंबे समय तक तनाव में रहने अथवा लंबे समय तक विपरीत एवं तनावपूर्ण कार्यस्थितियां में कार्य करने के कारण एड्रनिल एवं कोर्टिसोल जैसे हार्मोनां का स्तर बढ़ जाता है और इससे रक्तचाप बढ़ने, हृदय की रक्त नलियां में रक्त के थक्के बनने और दिल के दौरे पड़ने के खतरे बढ़ जाते है।
डा. बी. सी. राय राश्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डा. लाल कहते हैं कि आनुवांषिक तौर पर भी भारतीयां को हमेशा से ही दिल के रोग का जोखिम होता है। अमेरिकियां के मुकाबले भारतीयां को दिल का रोग होने का जोखिम 3-4 गुना, चीनियां के मुकाबले 6 गुना और जापानियां के मुकाबले 20 गुना अधिक होता है। अब 45 वर्ष से कम उम्र के भारतीयां में एक्यूट मायोकार्डियल इंफ्राक्शन (एएमआई) के 25-40 प्रतिशत मामले दर्ज किए जा रहे हैं। हृदय रोग के प्रमुख कारण धूम्रपान, उच्च कोलेस्ट्रॉल, उच्च रक्तचाप और मधुमेह हैं।
विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के एक अध्ययन के अनुसार देश में सबसे ज्यादा दिल के रोगी केरल के बाद दिल्ली में हैं। इनमें भी मध्यम वर्ग के लोग सबसे ज्यादा हैं। क्यांकि अमीर लोग फिट रहने के लिए दिल खोलकर पैसे खर्च करते हैं और गरीब षारीरिक काम इतना ज्यादा करते हैं कि उन्हें दिल की बीमारी होने का खतरा काफी कम होता है। लेकिन कम समय में ज्यादा पाने की होड़ में लगे मध्य वर्ग के लोग इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं और बीमारी के षिकार बन रहे हैं। जबकि आहार और व्यायाम पर ध्यान देने से दिल की बीमारी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। डा. लाल का कहना है कि लोग हृदय रोग को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं जिसके कारण दिल के दौरे की नौबत आ जाती है। छोटे शहरां में यह प्रवृत्ति खतरनाक है। हृदय रोग से बचने और स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रकृति के नजदीक रहें, खाने में फल-सब्जियां को प्राथमिकता दें और नियमित रूप से व्यायाम करें। रोग से बचाव के लिए जीवन श्ौली को व्यवस्थित करना खान-पान व रहन-सहन में सावधानी और नियमां का पालन करना जरूरी हो गया है।


छोटी सी उम्र में बड़ों के रोग

नवीं क्लास में पढ़ने वाला 14 वर्शीय राजन मल्होत्रा को कुछ समय से एंग्जाइटी और पल्पीटेषन की समस्या रह रही थी। उसका वजन सामान्य था इसलिए उसके माता-पिता इस समस्या को लेकर अधिक परेषान नहीं थे। वे सामान्य जांच के लिए उसे डॉक्टर के पास लेकर गए तो उन्होंने पाया कि उसका रक्तचाप बहुत अधिक था। उसका लिपिड प्रोफाइल भी सामान्य स्तर से काफी अधिक था और उसकी ईसीजी (इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम) में हल्की असमान्यता पायी गयी जो हृदय रोग की ओर इषारा कर रही थी। डॉक्टर को भी 14 साल के बच्चे के हृदय रोग से पीड़ित होने पर आष्चर्य हुआ। डॉक्टर ने राजन के रहन-सहन की जांच करने पर पाया कि उसे पढ़ाई से संबंधित बहुत अधिक तनाव था। वह रोजाना स्कूल जाने के अलावा तीन-तीन ट्यूषन पढ़ता था। डॉक्टर ने उसे स्कूल और ट्यूषन से छह महीने की छुट्टी लेने को कहा और योग, व्यायाम करने को कहा।
नये अध्ययनों से पता चला है कि देष के महानगरों एवं बड़े षहरों के बच्चे हाइपरटेंषन, मधुमेह और हृदय रोग जैसी जीवन षैली से जुड़ी बीमारियों के तेजी से षिकार हो रहे हैं। हाल के एक अध्ययन के अनुसार षहरों में रहने वाले करीब 25 प्रतिषत किषोर और युवा बच्चों को हृदय रोग का खतरा है। पिछले कुछ सालों में रहन-सहन एवं खान-पान की आदतों में बदलाव तथा स्थूल जीवन षैली तथा बढ़ते तनाव के कारण षहरी बच्चों में मोटापा 20-25 प्रतिषत बढ़ा है। 
नेषनल डायबिटीज, ओबेसिटी एंड कोलेस्ट्रॉल डिसआर्डर फाउंडेषन (एनडीओसीडी) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) द्वारा हाल में दिल्ली के 40 स्कूलों में 14 साल से अधिक उम्र के बच्चों में कराए गए अध्ययन में पाया गया कि हानिकारक संतृप्त वसा उनके आहार का हिस्सा बन गए हैं। एनडीओसीडी की प्रियाली षाह बताती हैं कि आजकल बच्चे जरूरत से चार गुना ज्यादा वसा का सेवन कर रहे हैं। वह कहती हैं कि आजकल पिज्जा, पास्ता, पैस्ट्री, बर्गर जैसे अधिक वसायुक्त खाद्य पदार्थ बच्चों के भोजन का मुख्य हिस्सा बन गये है। इसके अलावा आज के बच्चों में आधुनिक युग का तनाव भी बढ़ रहा है। 
हृदय रोग विषेशज्ञ तथा नौएडा स्थित मेट्रो हास्पीट्ल्स एंड हार्ट इंस्टीच्यूट के निदेषक डा. पुरूशोत्तम लाल बताते हैं कि आजकल किषोरों में भी हृदय रोग के संकेत मिलने लगे हैं। देष के षहरी इलाकों में स्कूल जाने वाले बच्चों में खान-पान की खराब आदतों, तनावपूर्ण जीवन और बहुत अधिक टेलीविजन देखने और अधिक समय तक कम्प्यूटर से संबंधित गतिविधियों में संलग्न रहने, व्यायाम नहीं करने, आरामतलबी और सिगरेट एवं षराब बढ़ते सेवन के कारण हृदय रोग के खतरे बढ़ रहे हैं।
गत वर्श देष के कुछ षहरों में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि खराब रहन-सहन, कम उम्र में धूम्रपान, विटामिन डी की कमी, मधुमेह आदि के कारण किषोर उम्र के बच्चों में भी हृदय रोग के खतरे बढ़ रहे हैं। किषोरों में हृदय रोग चिंताजनक है क्योंकि यह बुजुर्गावस्था की बीमारी मानी जाती है।
एक अध्ययन में पाया कि उत्तरी भारत के युवाओं में कम उम्र में ही मेटाबोलिक डिसआर्डर की समस्या बढ़ रही है जिससे उनमें हृदय रोग का खतरा बढ़ रहा है। 
पदम विभूशण एवं डा. बी सी राय राश्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित डा. पुरूशोत्तम लाल कहते हैं कि भारत में कम उम्र के लोगों और खास तौर पर बच्चों में हृदय रोगों में बढ़ोतरी होने का एक चिंताजनक पहलू यह है कि जहां अमरीका में 10 साल के उम्र से ही बच्चों की हृदय रोग संबंधित स्क्रीनिंग षुरू हो जाती है वहीं भारत में मध्यम उम्र का व्यक्ति भी हृदय रोग की जांच-पड़ताल नहीं कराता। जबकि मौजूदा स्थिति को देखते हुए बच्चों की जल्द से जल्द खासकर पारिवारिक इतिहास होने पर स्क्रीनिंग जरूरी है ताकि जरूरत पड़ने पर रोकथाम के उपाय किये जा सकें। 
हृदय रोगों की तरह उच्च रक्तचाप की समस्या भी बच्चों में तेजी से बढ़ती जा रही है। उच्च रक्त चाप (हाई ब्लड प्रेषर ) को आमतौर पर नजरंदाज कर दिया जाता है, लेकिन यह बीमारी जानलेवा साबित हो सकती है। यह बीमारी हृदय रोगों एवं दिल के दौरे का सबसे प्रमुख कारण है। उच्च रक्त चाप से ग्रस्त ज्यादातर लोगों को मधुमेह होने तथा उनके कालेस्ट्रॉल में वृद्धि होने की आषंका होती है। उच्च रक्त चाप के जिन मरीजों को मधुमेह के साथ-साथ कालेस्ट्रॉल भी बढ़ा होता है उन्हें कार्डियोवैस्कुलर बीमारियां होने की आषंका कई गुना बढ़ जाती है। 
डा. पुरूशोत्तम लाल के अनुसार भारत में युवा बच्चों में पाये जाने वाले हृदय रोगों में एथेरोस्क्लेरोसिस मुख्य है। इसमें धमनी की दीवारें कॉलेस्टेरॉल जैसे वसीय पदार्थों के निर्माण से मोटी हो जाती है। वसायुक्त जंक फूड का अधिक सेवन करने वाले बच्चे इसके प्रति अत्यधिक संवेदनषील होते हैं। कोलेस्ट्रॉल प्लाक बहुत तेजी से बढ़ने वाली प्रक्रिया है और यह यहां तक कि बाल्यावस्था में ही षुरू हो सकती है। इसके अलावा कावासाकी रोग और रह्युमेटिक बुखार जैसी बीमारियां भी बच्चों में हृदय रोग के लिए जिम्मेदार हैं। रह्युमेटिक बुखार में सामान्य वायरल संक्रमण जैसे लक्षण ही होते हैं लेकिन यह हृदय की धमनियों में सूजन पैदा कर हृदय को प्रभावित करता है। रह्युमेटिक बुखार के रोगियों में अक्सर उनके हृदय की मांसपेषियों में सूजन होती है।
सिर्फ षहरों में ही नहीं, गांव और छोटे षहरों के बच्चों में भी हृदय रोग के मामले सामने आ रहे हैं। गांव में रहने वाला 13 वर्शीय देबकुमार महतो कोलकाता के एक अस्पताल में रह्युमेटिक हार्ट का इलाज करा रहा है। यह एक एक्वायर्ड वाल्वुलर रोग है। बच्चों में यह बीमारी प्रदूशण, पोशण की कमी और तंग जगहों में रहने के कारण होती है। बच्चों में हृदय रोग के विकास का एक मुख्य कारण गर्भावस्था में माता का खराब पोशण भी है।  
हृदय रोग की ही तरह उच्च रक्तचाप को भी सिर्फ वयस्कों की बीमारी मानी जाती है लेकिन अब बच्चे और किषोर भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। यहां तक कि कुछ षिषुओं में भी उच्च रक्तचाप पाया गया है। हालांकि बच्चों में विकास के साथ-साथ रक्त दबाव में परिवर्तन आता रहता है और किषोरावस्था में पहुंचने पर उनका रक्त दाब स्थिर हो जाता है। 10 साल के कम उम्र के बच्चों में उच्च रक्तचाप का कारण समयपूर्व जन्म, बच्चे का कम विकास और किडनी की समस्या होती है लेकिन 10 साल से अधिक उम्र के बच्चों में इसका कारण अधिक वजन, अत्यधिक वसा और नमक का सेवन तथा व्यायाम की कमी जैसी जीवन षैली से जुड़ी समस्याएं है। वयस्कों की तरह बच्चों में उच्च रक्त चाप के कोई लक्षण नहीं होते हैं। लेकिन कुछ बच्चों में सिर दर्द, ध्यान केंद्रित न कर पाना, सीने में दर्द, अत्यधिक थकावट, सांस लेने में दिक्कत और धुंधली दृश्टि जैसे लक्षण हो सकते हैं। कुछ मामलों में नाक से रक्तस्राव, हृदय की धड़कन का तेज होना, सुस्ती और जी मिचलाना जैसे लक्षण हो सकते हैं। यदि आपके बच्चे में ऐसे लक्षण हैं या वह अधिक वजन का है तो नियमित रूप से उसके रक्तचाप की जांच कराएं। बच्चों या किषोरों में उच्च रक्त चाप का इलाज नहीं कराने पर यह हृदय रोग, स्ट्रोक और किडनी फेलियर जैसी गंभीर समस्याएं पैदा कर सकती है। उच्च रक्तचाप को दवाइयों और जीवन षैली में परिवर्तन कर नियंत्रित रखा जा सकता है।


महिलाओं में पेट का मोटापा दिल के लिए खतरनाक

महिलाओं में रजोनिवृति के दौरान टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन का स्तर बढ़ जाने से पेट का मोटापा बढ़ता है जो हृदय रोग के खतरे को बढ़ाता है।
सुप्रसिद्ध हृदय रोग विषेशज्ञ डा. पुरूशोत्तम लाल का कहना है कि मध्य वय की महिलाओं में पेट का मोटापा हृदय रोग का एक प्रमुख कारण है। हालांकि पेट के मोटापे का उम्र से कोई संबंध नहीं है लेकिन महिलाओं में रजोनिवृति के दौरान हार्मोन असंतुलन के कारण पेट का मोटापा बढ़ता है। इसके अलावा इसी दौरान टेस्टोस्टेरॉन का स्तर बढ़ने से भी पेट की वसा में वृद्धि होती है जो हृदय रोग के खतरे को बढ़ाता है।
कमर के चारों ओर की वसा त्वचा के नीचे की सबक्यूटेनियस वसा से अलग होती है। पेट की वसा समयपूर्व एथेरोस्क्लेरोसिस की समस्या को बढ़ाता है और एक्यूट कोरोनरी सिंड्रोम के खतरे पैदा करता है।
रजोनिवृति की अवस्था किसी महिला के जीवन का निर्णायक मोड़ है। रजोनिवृति के बाद महिला को कोरोनरी रोगों से बचाने वाले हारमोनों का बनना बंद हो जाता है जिससे उनके हृदय रोगों की चपेट में आने की आशंका बढ़ जाती है। महिलाओं के शरीर में रजोनिवृति से पूर्व एस्ट्रोजेन एवं प्रोजेस्ट्रॉन नामक दो हारमोन उत्सर्जित होते हैं। ये हारमोन रक्त धमनियों में कोलेस्ट्रोल के जमाव को रोकते हैं। इसलिये रजोनिवृति के पूर्व महिलाओं में हृदय रोगों का खतरा कम होता है। इस वजह से सामान्य महिलाओं के हृदय रोगों से ग्रस्त होने का खतरा पुरुषों की तुलना में चार गुना कम होता है। लेकिन रजोनिवृति के बाद इस्ट्रोजन हार्मोन की कमी और टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन की अधिकता से महिलाओं में दिल का दौरा पड़ने और उनके कोरोनरी समस्याओं से ग्रस्त होने की आषंका पुरुशों के बराबर हो जाती है। 
डा. बी. सी. राय राश्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डा. लाल कहते हैं कि पहले यह माना जाता था कि इस्ट्रोजन हार्मोन रजोनिवृति से पूर्व महिलाओं में कार्डियोवैस्कुलर बीमारी से सुरक्षा प्रदान करता है और रजोनिवृति के बाद इस्ट्रोजन हार्मोन में कमी आने के कारण महिलाओं की यह सुरक्षा खत्म हो जाती है और कार्डियावैस्कुलर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन हाल के अध्ययनों मे यह पाया गया है कि यह खतरा सिर्फ इस्ट्रोजन हार्मोन की कमी के कारण नहीं बढ़ता है बल्कि टेस्टोस्टेरॉन की अधिकता के कारण भी बढ़ता है। रजोनिवृति के बाद इस्ट्रोजन हार्मोन की कमी और टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन की अधिकता के कारण हार्मोन असंतुलन पैदा हो जाता है जो पेट की वसा को बढ़ाता है जिसके कारण कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
डा. लाल बताते हैं कि हालांकि पुरुशों की तरह ही महिलाओं में भी धूम्रपान, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल की अधिक मात्रा, परिवार में दिल के दौरे का इतिहास आदि ऐसे कारण हैं जो हृदय रोग के खतरे को बढ़ाते हैं। महिलाओं में गर्भनिरोधक गोलियां का सेवन भी इसकी एक मुख्य वजह है। इसके अलावा आधुनिक समय में महिलाओं पर घर के साथ-साथ दफ्तर की भी जिम्मेदारियां आ जाने से उन्हें ज्यादा तनाव का सामना करना पड़ता है। ये तनाव एक साथ मिलकर चिंता, दबाव और उच्च रक्त चाप पैदा करते हैं। यही कारण है कि रजोनिवृति की अवस्था पार कर लेने वाली हर चार महिलाओं में से एक महिला को यह रोग होता है तथा 65 साल से अधिक उम्र वाली दो महिलाओं में से एक महिला को यह रोग होता है।
सबसे अधिक एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंटिंग करने का श्रेय हासिल करने के लिये इंडियन मेडिकल एसोसिएषन की ओर से सम्मानित डा. पुरूशोत्तम लाल ने बताया कि महिलाओं में हृदय रोगों के तेजी से बढ़ने का एक कारण यह भी है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के हृदय का आकार छोटा होता है और उनकी रक्त धमनियां पतली होती हैं। मौजूदा समय में महिलाओं में हृदय रोगों के प्रकोप में वद्धि होने का एक कारण उनमें धूम्रपान का बढ़ता प्रचलन भी है। पश्चिमी देशों में धूम्रपान की प्रवृति घट रही है, जबकि भारत सहित विकासशील देशों में पुरुषों और महिलाओं में धूम्रपान का प्रचलन बढ़ रहा है। इसके अलावा व्यायाम नहीं करने की प्रवृति भी हृदय रोगों को बढ़ावा देती है। व्यायाम नहीं करने वाली महिला अगर गर्भनिरोधक गोलियों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ धूम्रपान भी करती हैं, तब उसे दिल का दौरा पड़ने का खतरा 40 प्रतिशत अधिक हो जाता है।
डा. लाल के अनुसार आम तौर पर भारतीय महिलायें पुरुषों की तुलना में अधिक मोटी होती हैं। औसत भारतीय महिलाओं का वजन सामान्य वजन से करीब 20 प्रतिशत अधिक होता है। चिकित्सकों के अनुसार मोटापा और स्थूलता हृदय रोगों का एक बड़ा कारण है।
डा. लाल बताते हैं कि जैविक एवं शारीरिक कारणों से महिलाओं में हृदय रोग बहुत तेजी से बढ़ते हैं और इसलिये महिलाओं में हृदय रोगों के लक्षण प्रकट होने पर किसी तरह की लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है। लेकिन सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि महिलायें इलाज के लिए अस्पताल तभी आती हैं जब उनका हृदय रोग गंभीर हो चुका होता है। महिलायें आम तौर पर चिकित्सकों के पास तभी जाती हैं, जब बहुत देर हो चुकी होती है। वैसे भी पुरुशों के मुकाबले महिलाओं में दिल के दौरे के बाद बचने की संभावना कम होती है। पहली बार दिल का दौरा झेल चुकी महिलाओं में दूसरे दौरे को झेल पाने की क्षमता काफी कम रह जाती है। 40 साल से अधिक उम्र की जो महिलाएं पहले दौरे को झेलकर बच जाती हैं उनमें से 43 प्रतिषत महिलाएं पांच के अंदर दूसरे दिल के दौरे या दिल की अन्य तकलीफ का षिकार बन जाती हैं। 
सबसे पहले तो महिलाओं को यह जानना होगा कि उनमें दिल के दौरे के लक्षण पुरुशों से कुछ अलग होते हैं। दिल के दौरे के सामान्य लक्षण हैं- सीने में तेज दर्द या दबाव जो कंधे, गर्दन या बांं तक फैल जाता है, सांस फूलना, पसीना आना, सीने में जकड़न, सीने में जलन या अपच की षिकायत, सीने में बेचैनी महसूस होना, उल्टी आना, अचानक उनींदापन या कुछ समय के लिए बेहोष हो जाना, बिना कारण कमजोरी और थकान, कुछ बुरा घटने जैसा महसूस होना। इनमें से कोई भी लक्षण प्रकट होने पर तुरत चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। बेहतर होगा कि मोटापा और उच्च रक्तचाप जैसी सामान्य समस्याओं के प्रति ही महिलाओं को सचेत हो जाना चाहिए ताकि उनमें दिल के दौरे की नौबत ही न आए। 
   


 


 


स्कूली बच्चों में सिर दर्द का बढ़ता प्रकोप

बच्चों में मोटापे, व्यायाम से बचने की प्रवृति तथा धूम्रपान की समस्या बढ़ रही है और हाल के अध्ययन बताते हैं कि इन कारणों से बच्चों में सिरदर्द की षिकायत बढ़ रही है। 
एक नये अध्ययन में पाया गया है कि जो बच्चे अधिक वजन के होते हैं, कम व्यायाम करते हैं और धूम्रपान करते हैं उन्हें अन्य बच्चों की तुलना में तीन से चार गुना सिरदर्द होने की आषंका होती है।
नार्वे में किये गये अध्ययन के अनुसार जिन बच्चों में मोटापे, व्यायाम नहीं करने तथा धूम्रपान की तीनों नाकारात्मक आदतें या प्रवृतियां होती हैं उनमें से आधे से अधिक 55 प्रतिषत बच्चों में अक्सर सिरदर्द की समस्या होती है। जिन बच्चों में इन तीन में से दो नाकारात्मक आदतें होती हैं उन्हें 1.8 गुना सिरदर्द होने की संभावना होती है। मोटे बच्चों को सामान्य बच्चों की तुलना में सिरदर्द होना की संभावना 40 प्रतिषत अधिक होती है। 
फास्ट फूड के बढ़ते चलने, कम्प्यूटर तथा टेलीविजन के सामने अधिक समय तक समय बीताने तथा व्यायाम नहीं करने के कारण बच्चों में मोटापा तेजी से बढ़ रहा है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस) तथा नेषनल डायबेटिक्स, आबेसिटी एंड कालेस्टेरॉल डिसआर्डर्स (एनडीओसीडीएफ) की ओर से दिल्ली में किये गये एक अध्ययन से पता चला है स्कूल-कॉलेज जाने वाले किषोर जरूरत से चार गुना अधिक वसा का सेवन कर रहे हैं। उनके खाने में बर्गर, पैटीज, पैस्ट्रिज, समोसा, छोले-भटूरे, कोक-पेप्सी, नमकीन एवं स्नैक्स की मात्रा बढ रही है जिसके कारण उनमें मोटापा बढ़ रहा है।  
सुप्रसिद्ध न्यूरो विषेशज्ञ तथा नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिश्ठ न्यूरो सर्जन डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि विभिन्न कारणों से बच्चों में सिरदर्द की समस्या बढ़ रही है। कई बार बच्चों में सिरदर्द का कारण दिमागी रसौली(ट्यूमर) भी हो सकती है। यह देखा गया है कि माता-पिता बच्चों 
के सिरदर्द को मामूली बीमारी समझ कर नजरअंदाज कर देते हैं। कई बार बच्चा जब सिरदर्द की शिकायत करता है तब मां-बाप यह मान बैठते हैं वह पढ़ाई अथवा स्कूल जाने से बचने का बहाना कर रहा है। हालांकि बच्चे का सिरदर्द अक्सर सामान्य कारणों से होता है लेकिन इसके बावजूद इसे मामूली नहीं समझना चाहिये क्योंकि यह दिमागी रसौली का भी संकेत हो सकता है। 
डा. प्रसाद बताते हैं कि हालांकि बच्चों में सिर दर्द आम तौर पर आंखों में कमजोरी, साइनस एवं सर्दी-जुकाम जैसे कारणों से अधिक होते हैं जबकि बड़े लोगों में सिर दर्द का सामान्य कारण तनाव होता है जो बच्चों में आम तौर पर नहीं पाया जाता है। लेकिन बच्चों के साथ-साथ बड़े लोगों में सिर दर्द कई बार इन मामूली कारणों के अतिक्ति मस्तिष्क की रसौली अर्थात् ब्रेन ट्यूमर, हाइड्रोसेफलस एवं मेनिनजाइटिस जैसे गंभीर कारणों से भी होता है। इसलिये सिर दर्द को हमेशा गंभीरता से लेना चाहिये। ट्यूमर की आरंभिक अवस्था में तो केवल सिर दर्द होता है लेकिन ट्यूमर जब बड़ा होकर आंखों से जुड़े स्नायु तंत्र को दबाने लगता है तब नेत्र की रोशनी घटने लगती है और बच्चा अंधा भी हो सकता है।


 


बीमारियों से बचने के लिये धोने के बाद हाथ सुखायें 

हाथों को धोने के बाद अगर आप अपने हाथों को अच्छी तरह नहीं सुखाते हैं तो इससे बीमारियां फैलाने वाले जीवाणुओं का फैलाव बढ़ सकता है और आप बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं। अक्सर खाना खाने से पहले साबुन से हाथ धोने की सलाह दी जाती है, लेकिन हाथ को सुखाने के बारे में कुछ नहीं कहा जाता है, जबकि नये वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि हाथ धोने के बाद हाथ सुखाना भी जरूरी है। 
कई लोग हाथों को धोने के बाद उन्हें अच्छी तरह सुखाने की बजाय कपड़ों में पोंछ लेते हैं। जबकि हाथों को सुखाने के लिए पेपर टॉवल या पारंपरिक इलेक्ट्रिक हैंड ड्रायर का इस्तेमाल बेहतर विकल्प है। हाथ की स्वच्छता संक्रमण को रोकने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और हाथ धोने के बाद उन्हें अच्छी तरह सुखाना इस प्रक्रिया का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है।
ब्रिटेन स्थित ब्रैडफोर्ड यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किये गए एक अध्ययन में हाथों को सुखाने की विभिन्न विधियों पर अध्ययन किया गया और हाथ से अन्य सतहों पर जीवाणुओं के स्थानांतरण पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन किया गया। इन विधियों में पेपर टॉवल, पारंपरिक हैंड ड्रायर जो पानी को वाश्पीकृत कर देता है और एक नये किस्म का हैंड ड्रायर जो अत्यधिक वेग वाले एयर जेट के द्वारा पानी को तेजी से निचोड़ लेता है, षामिल है।
हमारे षरीर पर प्राकृतिक रूप से जीवाणु होते हैं जिन्हें सहभोजी कहते हैं। हालांकि कच्चे मांस जैसे अन्य स्रोतों से भी जीवाणु हाथ में आ सकते हैं और अन्य सतहों पर आसानी से हस्तांतरित हो सकते हैं जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है। हाथ को धोने पर त्वचा की सतह से काफी संख्या में जीवाणु निकल जाते हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि ये पूरी तरह से निकल जाएंगे। हाथों को धोने के बाद अगर हाथों में नमी रह गयी हो तो ये जीवाणु अधिक तेजी से अन्य सतहों पर स्थानांतरित हो जाते हैं।
इस अध्ययन के तहत्् अनुसंधानकर्ताओं ने हाथ को सुखाने के प्रभाव का अध्ययन किया और हाथ सुखाने की विभिन्न विधियों के पहले और बाद में हाथ के विभिन्न हिस्सों पर जीवाणुओं की संख्या को मापा। स्वयंसेवकों को हाथ धोने के बाद जीवाणुरहित प्लेट पर हाथ रखने को कहा और उसके बाद प्लेट पर जीवाणुओं की वृद्धि को मापा। उसके बाद स्वयंसेवकों को अपने हाथों को एक साथ रगड़े बिना या तो हैंड टॉवल या तीनों में से किसी भी प्रकार के हैंड ड्रायर से हाथ सुखाने को कहा और जीवाणुओं के स्तर को फिर से मापा।
इस अध्ययन में डा. स्नेलिंग और उनके सहयोगियों ने पाया कि हाथों को धोने के बाद हाथों को एक साथ रगड़ने के बाद पारंपरिक हैंड ड्रायर के इस्तेमाल से जीवाणुओं की संख्या में कमी आ सकती है। उन्होंने किसी भी प्रकार के हैंड ड्रायर के इस्तेमाल से जीवाणुओं की संख्या में तुलनात्मक कमी एक समान ही पाया। अध्ययन में पाया गया कि हाथों को सुखाने के दौरान हाथों को एक साथ रगड़ने पर हाथों को धोने के बाद भी त्वचा पर बच गए जीवाणु सतह पर गिर गए और अन्य सतहों पर स्थानांतरित हो गए। अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि जीवाणुओं की संख्या को कम रखने का सबसे प्रभावकारी उपाय पेपर टॉवल से हाथों को सुखाना है। इलेक्ट्रिक ड्रायर में वैसा मॉडल अधिक प्रभावकारी पाया गया जो हाथों से तेजी से नमी सोख लेता है और अन्य सतहों पर जीवाणुओं को स्थानांतरित होने से रोकता है।
जर्नल ऑफ अप्लायड माइक्रोबायलॉजी में प्रकाषित इस अध्ययन में डा. स्नेलिंग कहते हैं कि हाथों की अच्छी स्वच्छता के लिए हाथों को बार-बार धोने की बजाय हाथों को अच्छी तरह से सूखा रखना बेहतर विकल्प है। हाथों को सूखा रखने का सबसे बेहतर उपाय पेपर टॉवल या हैंड ड्रायर का इस्तेमाल है लेकिन इनके इस्तेमाल के समय हाथों को आपस में रगड़ना ठीक नहीं है।   


 


धरती की बढ़ती गर्मी बढ़ा रही है किडनी में पथरी 

वैज्ञानिकों ने धरती के तापमान में हो रही बढ़ोतरी ( ग्लोबल वार्मिंग)के कारण किडनी की पथरी की समस्या में वृद्धि होने की आषंका जतायी है। यू टी साउथ वेस्टर्न मेडिकल सेंटर और यू टी डलास के अनुसंधानकर्ताओं ने हाल में किये गए अध्ययन के आधार पर निश्कर्श निकाला है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण किडनी में पथरी की समस्या में तेजी से वृद्धि होगी खास कर कुछ विशेष क्षेत्रों में इस समस्या में तेजी से वृद्धि होने का अनुमान है। इन क्षेत्रों को ''किडनी स्टोन बेल्ट'' का नाम दिया गया है। 
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार किडनी में पथरी का एक मुख्य कारण डिहाइड्रेशन है और ग्लोबल वार्मिंग डिहाइड्रेशन की समस्या में और वृद्धि करेगा। 
अनुसंधानकर्ताओं ने यह अनुमान लगाया है कि अधिक तापमान के कारण सन् 2050 तक 16 लाख से 22 लाख अतिरिक्त लोगों में किडनी की पथरी की समस्या होगी। कुछ क्षेत्रों में किडनी की पथरी के मामलों में 30 प्रतिशत तक की वृद्धि होने का अनुमान है।
यू टी साउथ वेस्टर्न मेडिकल सेंटर के यूरोलॉजी विभाग के प्रोफेसर और इस अध्ययन के प्रमुख  डा. माग्रेट पीयर्ले के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का मनुष्य पर पड़ने वाले चिकित्सीय प्रभाव पर किया गया यह पहला अध्ययन है।  इस अध्ययन को नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज के ताजा अंक में प्रकाशित किया गया है।
एसोसिएषन आफ सर्जन्स आफ इंडिया के अध्यक्ष डा. एन के पाण्डे के अनुसार किडनी में पथरी की बीमारी या नेफ्रोलाइथियेसिस एक सामान्य बीमारी है। किडनी में पथरी ठोस क्रिस्टल होते हैं और मूत्र में घुलनशील लवण से बनते है। ये पर्यावरण और मेटाबोलिक समस्याओं के कारण बनते हैं। कम मात्रा में तरल पदार्थों के सेवन या डिहाइड्रेशन के कारण शरीर से अधिक मात्रा में तरल के निकलने के कारण पेशाब का बनना कम हो जाता है जिससे पथरी का निर्माण करने वाले नमक का सांद्रण बढ़ जाता है और इस कारण पथरी बनने का खतरा बढ़ जाता है। 
अमरीका के अपेक्षाकृत गर्म क्षेत्रों में किडनी की पथरी अधिक सामान्य है। साउथइस्ट ''किडनी स्टोन बेल्ट'' के नाम से जाना जाता है क्योंकि अल्बामा, अरकनास, फ्लोरिडा, जार्जिया, लुइसियाना, मिसिसिपी, नार्थ कैरोलिना, साउथ कैरोलिना और टेनेसी में रहने वाले लागों में किडनी की पथरी की समस्या अधिक है। 
वातावरण में आ रहे बदलाव के कारण विश्व के अन्य ''किडनी स्टोन बेल्ट'' में भी किडनी में पथरी की समस्या में वृद्धि होने का अनुमान है। डा. पियर्ले और उनके सहयोगी अब अन्य अध्ययनों के जरिये वातारण के तापमान और पेशाब की मात्रा में संबंध का अघ्ययन करेंगे।


हृदय रोगों से बचने के लिये खाइये लहसुन

वैज्ञानिकों ने लहसुन को हृदय रोगों की रोकथाम में कारगर पाया है। खासकर मधुमेह रोगियों में कार्डियोमायोपैथी नामक हृदय रोग से बचाव में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। कार्डियोमायोपैथी एक प्रकार का हृदय रोग है। मधुमेह के रोगियों में डायबिटिक कार्डियोमायोपैथी होने का खतरा बहुत अधिक होता है। यही नहीं यह मधुमेह ग्रस्त लोगों में मौत का एक प्रमुख कारण है।
अमेरिकन केमिकल सोसायटी की पाक्षिक जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल एंड फूड केमिस्ट्री में प्रकाषित इस षोध रिपोर्ट के अनुसार मधुमेह रोगियों में हृदय रोग के कारण मृत्यु का खतरा अन्य लोगों की तुलना में कम से कम दोगुना होता है। मधुमेह से संबंधित मौतों में से करीब 80 प्रतिषत मौत के लिए हृदय रोग ही जिम्मेदार है। मधुमेह रोगी एक विषेश प्रकार के हृदय रोग डायबिटिक कार्डियोमायोपैथी के प्रति विषेश रूप से संवेदनषील होते हैं। यह हृदय की मांसपेषी के ऊतकों को उत्तेजित करता है और कमजोर कर देता है। कार्डियोमायोपैथी में हृदय की मांसपेषियां रक्त को पंप करने की क्षमता खो देती है। ऐसी स्थिति में हृदय फैलकर बड़ा हो जाता है। उसके इर्द-गिर्द पानी भर जाता है, रोगी की सांस फूलने लगती है, थकान रहती है, पैरों में सूजन आ जाती है और दिल की धड़कन बढ़ जाती है। ये लक्षण धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं। इसके इलाज के लिए कार्डियोमायोप्लास्टी ऑपरेषन की एकमात्र उपाय है।
इस षोध के प्रमुख वी-वेन क्यो कहते हैं कि पहले के अध्ययनों में लहसुन को सामान्य हृदय रोगों से बचाव और रक्त षर्करा के असामान्य स्तर को सामान्य करने में कारगर पाया गया था। लेकिन इस अध्ययन में लहसुन को कार्डियोमायोपैथी से बचाव में भी कारगर पाया गया। हालांकि उनका कहना है कि डायबिटिक कार्डियोमायोपैथी पर लहसुन के प्रभाव को देखने के लिए अभी कुछ और अध्ययन करने की जरूरत है।
इस अध्ययन के तहत् वैज्ञानिकों ने प्रयोगषाला में मधुमेहग्रस्त चूहों पर लहसुन के तेल या मकई के तेल के प्रभाव पर अध्ययन किया। लहसुन के तेल का प्रयोग करने वाले चूहों में हृदय की क्षति से सुरक्षा संबंधित कई लाभदायक परिवर्तन देखे गये। वैज्ञानिकों के अनुसार यह लाभदायक परिवर्तन लहसुन के तेल में पाये जाने वाले एंटीऑक्सीडेंट गुण के कारण हुआ। इसके अलावा उन्होंने लहसुन के तेल में 20 से अधिक ऐसे पदार्थों की पहचान की जो हृदय रोग से बचाव में कारगर हैं।     
  


 


फिटनेस फंडा : क्या है  सोनू सूद के फिटनेस का राज

पेशे से इंजीनियर सोनू सूद के सुगठित शरीर और ग्लैमरस चेहरे ने उन्हें ग्लैमर की दुनिया में खींच लाया। पंजाब के सोनू ने इलेक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग का कोर्स करने के लिए नागपुर का रुख किया और कोर्स के साथ-साथ उन्होंने छोटे-छोटे फैशन शो में भी हिस्सा लेना षुरू किया। मॉडलिंग में सफलता मिलने के बाद वह काम के सिलेसिले में दिल्ली आये। दिल्ली आकर उन्होंने ''मिस्टर इंडिया'' कांटेस्ट में हिस्सा लिया। उसके बाद मॉडलिंग में उनकी रुचि कम हो गयी और वे मुम्बई चले गये। थोड़े संघर्श के बाद ही उन्हें भगत सिंह पर बनी फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने का मौका मिल गया। उसके बाद ''युवा'' में भी उन्हें दमदार भूमिका मिली। फिल्म ''सिंह इज किंग'' और ''जोधा अकबर'' में उनकी भूमिका थोड़ी छोटी जरूर थी, लेकिन दमदार थी। हिंदी फिल्मों के साथ-साथ उन्होंने तेलुगु फिल्मों में भी काम किया। अभी बड़े बैनर की कई फिल्मों में काम कर रहे हैं सोनू सूद से जानते हैं उनके फिटनेस और गठीले शरीर का राज।
आपकी शारीरिक बनावट को देखकर लगता है कि आप फिटनेस को लेकर काफी सतर्क हैं।
मैं फिटनेस को काफी अहमियत देता हूं। मैं रोजाना करीब दो घंटे का समय जिम में बिताता हूं और 40 मिनट तक जॉगिंग करता हूं।  
आप किस तरह का व्यायाम करते हैं?
मैं हर हफ्ते अलग-अलग व्यायाम करता हूं। यदि मैं एक हफ्ते स्ट्रेचिंग करता हुं तो अगले हफ्ते वेट ट्रेनिंग करता हूं। हालांकि मैं अधिक भारी वजन वाले व्यायाम नहीं करता हूं। मैं हल्के वजन का ही व्यायाम करता हूं और व्यायामों की संख्या बढ़ाता जाता हूं। 
किसी अभिनेता के लिए शारीरिक रूप से फिट दिखना कितना महत्वपूर्ण है?
किसी भी अभिनेता के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसका फिटनेस ही होता है। हमारी दिनचर्या काफी व्यस्त होती है और शूटिंग के दौरान आराम के लिए बिल्कुल समय नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में यदि आप षारीरिक रूप से फिट हैं तो आप अपना काम आसानी से कर लेते हैं। इसके अलावा आपकी षारीरिक बनावट आपके व्यक्तित्व को निखारती भी है। इसलिए हर दृष्टिि से हमें फिट दिखना और फिट रहना जरूरी है। 
आप हमेशा फिटनेस को लेकर सचेत रहे हैं या इस ग्लैमर इंडस्ट्री ने आपको ऐसा बनने के लिए बाध्य किया?
मैं हमेषा फिटनेस को लेकर सतर्क रहा हूं। कॉलेज के दिनों में भी मैं नागपुर में अपना काफी समय जिम में बिताता था। वहां मेरे एक दोस्त का अपना जिम था और हम सभी दोस्त वहां रोजाना दो घंटे व्यायाम करते थे। कई बार तो हमलोग रात में दो बजे भी जिम चले जाते थे। जब मैं मुम्बई आया तो यहां भी मुझे कुछ दोस्त ऐसे मिले जो अपने फिटनेस के लिए काफी समय जिम में बिताते थे। जब मुझे रात में नींद नहीं आती है तो मैं जिम चला जाता हूं। 
शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रहने के साथ-साथ मानसिक रूप से भी फिट रहना कितना महत्वपूर्ण है?
मेरे हिसाब से दोनों ही बराबर महत्वपूर्ण हैं। जब आप शारीरिक रूप से फिट रहते हैं तो आप मानसिक रूप से भी अच्छा महसूस करते हैं। आपका आत्मविश्वास बढ़ जाता है। 
आप मेडिटेशन भी करते हैं?
मैंने मेडिटेषन करने की काफी कोशिश की लेकिन मैं सफल नहीं हो सका। योग में मेरा काफी विष्वास है। योग न सिर्फ षरीर को मेंटेन रखता है बल्कि यह कई रोगों से हमें सुरक्षा भी प्रदान करता है। 
क्या आप महसूस करते हैं कि फिटनेस व्यक्तित्व की सुंदरता को बढ़ाता है?
फिटनेस हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व को दर्षाता है। निष्चित रूप से यह व्यक्तित्व को निखारता भी है। आकर्षक षारीरिक व्यक्तित्व वाला व्यक्ति किसी व्यक्ति को बहुत जल्द अपनी ओर आकर्शित कर लेता है। फिट व्यक्ति में अधिक आत्मविष्वास होता है और वे आलसी तो कतई भी नहीं दिखते हैं।
आपकी नजर में इस ग्लैमर इंडस्ट्री में सबसे अधिक फिट व्यक्ति कौन है?
मेरे हिसाब से इस इंडस्ट्री में सबसे फिट व्यक्तियों में सलमान खान, अक्षय कुमार और संजय दत्त हैं। वैसे, आज इंडस्ट्री में हर व्यक्ति फिट है क्योंकि वे फिटनेस के महत्व को जानते हैं।
पाठकों को कोई सलाह देना चाहेंगे?
फिटनेस बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसलिए आप अपने षरीर की हमेषा देखभाल और आदर करें। अपने आहार पर भी विषेश ध्यान दें। जंक फूड का सेवन बिल्कुल न करें क्योंकि यह कुछ समय के बाद आपके स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक साबित होगा।        


बच्चों में सिर दर्द पैदा कर सकते हैं पारिवारिक झगड़े

बच्चों में सिर दर्द आम समस्या हो गयी है। कई माता-पिता इसे बच्चों का बहाना समझकर बच्चे के सिर दर्द की अनदेखी करते हैं जबकि बच्चे के सिर दर्द का कारण वे खुद और उनके पारिवारिक झगड़े हो सकते हैं। इसके अलावा समय की कमी भी बच्चों में सिर दर्द पैदा कर सकता है। 
एक अध्ययन के अनुसार जेनिफर गासमैन और उनके सहयोगियों ने ''बच्चे, किशोर और सिर दर्द'' पर तीन साल तक बड़े पैमाने पर अनुसंधान किया। इस अध्ययन के तहत् उन्होंनें सन् 2003 से 2004 तक बच्चों से संबंधित आंकड़ें एकत्र कर उनका विश्लेषण किया। इस अध्ययन में उन्होंने अन्य कारणों के साथ-साथ बच्चे के परिवार और खाली समय को भी शामिल किया। 
इस अध्ययन के अनुसार जो लड़के सप्ताह में एक से अधिक बार पारिवारिक झगड़े का अनुभव करते हैं उनमें सिर दर्द होने का खतरा 1.8 गुना बढ़ जाता है जबकि जिन लड़कों के पास अपने लिए समय की कमी होती है उनमें सिर दर्द होने का खतरा 2.1 गुना अधिक हो जाता है।
गासमैन के अनुसार जब बच्चे सिर दर्द की शिकायत करते हैं तो माता-पिता का व्यवहार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। माता-पिता से सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया से भी बच्चों में सिर दर्द से फायदा या नुकसान हो सकता है। खासकर लड़कियों में सिर दर्द के लक्षणों पर माता-पिता की प्रतिक्रिया का अधिक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता की खराब प्रतिक्रिया दोबारा सिर दर्द के खतरे को 25 प्रतिशत बढ़ा देती है।
दुनिया में 30 प्रतिशत से अधिक बच्चे हर सप्ताह कम से कम एक बार सिर दर्द की शिकायत करते हैं। लेकिन लड़कों और लड़कियों में सिर दर्द की आवृति अलग-अलग होती है। लड़कों की तुलना में दोगुनी लड़कियां सप्ताह में कम से कम एक बार सिर दर्द की शिकायत करती हैं। हालांकि बच्चे की उम्र का सिर दर्द पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।


ऑफिस में मन लगाकर काम करना सुखी पारिवारिक जीवन का आधार

उत्साह पूर्वक काम करने वाले और काम के प्रति समर्पित कर्मचारी अपने सकारात्मक कार्य के अनुभव के कारण खुशहाल पारिवारिक जिंदगी जीते हैं। 
कनास स्टेट यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने हाल में किये गए एक अध्ययन के तहत् यह पता लगाने की कोशिश की कि सकारात्मक कार्य के अनुभव किस तरह पारिवारिक जिंदगी को खुशहाल रखते हैं और पारिवारिक मेलजोल को बढ़ाने में किस तरह योगदान करते हैं। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि जो कर्मचारी अपने काम के प्रति व्यस्त रहते हैं अर्थात् जिनमें रोजमर्रा की गतिविधियों के प्रति अधिक उत्साह, अधिक समर्पण और तल्लीनता रहती है वे अच्छे मूड में रहते हैं और घर में भी अधिक संतुष्ट रहते हैं।
के-स्टेट के अनुसंधानकर्ताओं साइकोलॉजी के प्रोफेसर क्लिव फुलगर, साइकोलॉजी की सहायक प्रोफेसर सैटोरिस कुलबर्टसन तथा मैनहाटन में साइकोलॉजी के ग्रैजुएट विद्यार्थी मौरा मिल्स के द्वारा किये गए इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग काम के दौरान संतुष्टि का अनुभव करते हैं और जो लोग अपने अनुभवों को दूसरे लोगों के साथ आदान-प्रदान करते हैं वे अपने घरेलू मामलों को सुलझाने में भी अधिक समर्थ होते हैं, बेहतर सहयोगी होते हैं और घरेलू वातावरण में अधिक प्रभावी होते हैं।
अनुसंधानकर्ताओं ने दैनिक कार्यों में व्यस्तता और पारिवारिक कार्यों में मदद के बीच संबंध को सुनिश्चित करने के लिए दो सप्ताह तक इसे प्रभावित करने वाले 67 कारकों का अध्ययन किया। उन्होंने इस अध्ययन में शामिल लोगों का रोजाना दो बार सर्वेक्षण किया-पहला दैनिक कार्य खत्म होने के बाद और दूसरा रात में बिस्तर पर जाने से पहले। उन्होंने इससे अलग एक और सर्वेक्षण किया-दो सप्ताह के सर्वेक्षण शुरू करने से पहले और दूसरा सर्वेक्षण के आखिर में। 
कुलबर्टसन कहती हैं कि कार्य के दौरान तनाव और घरेलू तनाव के बीच गहरा संबंध है और ये एक दूसरे के प्रभाव को कई तरह से प्रभावित करते हैं। अध्ययन में पाया गया कि व्यस्तता का रोजमर्रा के मूड से गहरा संबंध है और मूड का पारिवारिक संतुष्टि के कार्यों से सकारात्मक संबंध है। अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि कार्यों में व्यस्तता और पारिवारिक संतुष्टि के लिए किये गए कार्य रोज-ब-रोज परिवर्तित होते हैं।
कुलबर्टसन कहती हैं, ''यदि कोई कर्मचारी अपने काम के प्रति सोमवार को समर्पित नहीं रहता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह मंगलवार को भी काम में व्यस्त नहीं रहेगा अथवा यदि कोई कर्मचारी सोमवार को काम में व्यस्त रहता है तो जरूरी नहीं है कि वह मंगलवार को भी काम में व्यस्त रहेगा। इसके अलावा किसी भी व्यक्ति का घरेलूं कार्य उसके उस दिन के कार्य पर निर्भर करता है।''
अनुसंधानकर्ताओं ने यह भी पाया कि दैनिक कार्यों में व्यस्तता कार्य के भार को नियंत्रित करने के बाद पारिवारिक जिंदगी पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। इसका इस बात से कोई संबंध नहीं है कि उस दौरान उस पर कार्य का अधिक भार था या कम भार था।
कुलबर्टसन कहते हैं कि नौकरी में काम के प्रति दीवानगी या काम का नशा जैसे काम के अधिक नकारात्मक रूप में शामिल होना और सकारात्मक रूप से कार्यों में शामिल होना घरेलू जिंदगी पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। काम के प्रति दीवानगी या काम का नशा पारिवारिक कार्य से संबंधित झगड़े को बढ़ाता है। इसके विपरीत व्यस्तता पूर्वक संतुलित रूप से कार्य करने और पारिवारिक कार्य के प्रति योगदान झगड़े को कम करता है। 
कुलबर्टसन कहती हैं कि इस अध्ययन के निष्कर्ष पर अमल करते हुए संगठनों को कार्यस्थल की जांच-पड़ताल करनी चाहिए। संगठनों को कर्मचारियों के काम और उनकी व्यक्तिगत जिंदगी में संतुलन स्थापित करने में मदद करनी चाहिए। संगठन को कार्यस्थल पर कर्मचारियों की जरूरत से अधिक व्यस्तता को परिस्थितिजन्य कारकों से नियंत्रित करना चाहिए। आखिरकार कर्मचारियों की सहायता करने से संगठन की ही सहायता होगी