वायरल फीवर का प्रकोप 

मौजूदा समय में वायरल बुखार का प्रकोप दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इस मौसम में यह अक्सर महामारी का रूप धारण कर लेता है। नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञ डा. जे.एम. दुआ का कहना है कि फिलहाल इस बुखार की कोई कारगर दवा का विकास नहीं हुआ है , हालांकि विकसित देशों में इसके बचाव के लिये एक टीके का विकास हुआ है। अत्यंत मंहगा होने के कारण भारत में यह टीका फिलहाल प्रचलित नहीं है। 
 बरसात के दिनों में कहर बरपाने वाला वायरल बुखार अत्यंत संक्रामक रोग है जिससे कोई भी व्यक्ति किसी भी समय और कहीं भी ग्रस्त हो सकता है। हालांकि बच्चे और बुजुर्ग इसकी चपेट में अधिक आते हैं। इस बुखार का प्रकोप वैसे तो हर मौसम में होता है लेकिन बरसात में इसका प्रकोप बढ़ जाता है। इसलिये इस मौसम में इसके प्रति विशेष सावधान रहने की जरूरत है।
 नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञ डा. जे. एम. दुआ बताते हैं कि वायरल फीवर के मुख्य लक्षणों में काॅमन कोल्ड, छींक, जुकाम, नाक का बहना, नाक का बंद होना, गले में संक्रमण, अचानक तेज बुखार आदि होता है। कभी-कभी हल्का बुखार भी हो सकता है, लेकिन अधिकतर लोगों में बुखार तेज होता है और साथ ही तेज बदन दर्द भी होता है। इसलिए अगर बदन दर्द और तेज बुखार के साथ सिर दर्द, जुकाम, गला खराब आदि हो तो यह समझ लेना चाहिए कि यह वारयल अटैक है। गले में संक्रमण होने पर सावधानी और एहतियात नहीं बरतने पर संक्रमण फेफड़े में भी जा सकता है। कुछ मामलों में निमोनिया भी हो सकता है। 
 वायरस किसी भी व्यक्ति को संक्रमित कर सकते हैं। चाहे व्यक्ति दुबला हो या तंदुरुस्त, अगर उसकी प्रतिरोधक क्षमता कम है या उसे लंबे समय से कोई गंभीर बीमारी है तो वह जल्द वायरस की चपेट में आ जाता है। बारिश में बाहर निकलने, बारिश में भीग जाने, तेज धूप से अचानक एयर कंडीशन वाले वातावरण में आने, नहाने के बाद शरीर को ठीक से पोंछे बगैर तेज पंखे के सामने आ जाने पर हवा में घूमते रहने वाले वायरस या बैक्टीरिया व्यक्ति को संक्रमित कर देते हैं। 
 डा. दुआ बताते हैं कि वायरल फीवर का कोई मानक इलाज नहीं है। हल्का बुखार और हल्की सर्दी होने पर रोगी अपनी दिनचर्या का काम कर सकता है। लेकिन उसे भाग-दौड़ वाला काम नहीं करना चाहिए, संतुलित भोजन करना चाहिए और आराम करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बिना दवा के ही कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा। बुखार होने पर बुखार की स्थिति और अपनी बर्दाश्त करने की क्षमता के अनुसार पैरासिटामोल, क्रोसिन, कालपोल आदि चार, छह या आठ घंटे पर लिया जा सकता है। पैरासिटामोल से बुखार तो कम होता ही है, बदन दर्द से भी थोड़ी राहत मिलती है। लेकिन इसके साथ अक्सर एक एंटीएलर्जिक दवा भी लेनी पड़ती है ताकि नाक का बहना थोड़ा कम हो जाए। इन दवाओं के साथ कभी-कभी विटामिन 'सी' या विटामिन 'बी' काॅम्प्लेक्स भी दिया जाता है और कभी-कभी तो दोनों ही दे दिया जाता है। विटामिन 'सी' प्रतिरोध क्षमता को बढ़ाता है।
 अगर नाक का बहना बहुत ज्यादा है, बुखार बहुत बढ़ गया है, गले का बलगम सफेद न होकर पीला या हरानुमा आ रहा हो तो वायरल के साथ-साथ बैक्टीरियल संक्रमण की भी आशंका होती है और ऐसी स्थिति में एंटीबायोटिक दवा लेने की जरूरत पड़ सकती है। ऐसा होने पर नियमतः खून की जांच, अगर छाती में कुछ तकलीफ है तो छाती का एक्स-रे, बलगम की जांच आदि करानी चाहिए। लेकिन चूंकि ऐसी सुविधाएं हर जगह उपलब्ध नहीं होती हैं और न ही हर व्यक्ति इतना खर्च वहन कर सकता है इसलिए वह डाॅक्टर की परामर्श से एक हल्की एंटीबायोटिक दवा, जो ज्यादा महंगी न हो, तीन, पांच या सात दिनों तक ले सकता है। एंटीबायोटिक दवा कम से कम तीन दिन तक तो अवश्य ही लेना चाहिए वरना वह कारगर नहीं होता है। 
 डा. दुआ का सुझाव है कि मरीज को अपना इलाज अपने आप नहीं करना चाहिए। खास कर एंटीबायोटिक दवा अपने आप नहीं लेना चाहिए। हालांकि बिना कारण भी एंटीबायोटिक दवा लेने से 80-90 प्रतिशत लोगों को इससे कोई खास नुकसान नहीं होता है, लेकिन 10-20 प्रतिशत लोगों को इससे कुछ नुकसान हो सकता है। इससे होने वाला नुकसान सीधे तौर पर दिखाई नहीं देता है, लेकिन कुछ लोगों में गैस्ट्राइटिस, एसिडिटी, खारिश आदि हो सकती है। ऐसा नहीं है कि डाॅक्टर के परामर्श से एंटीबायोटिक लेने पर खारिश नहीं होगी और खुद लेने पर खारिश हो जाएगी। लेकिन बिना जरूरत दवा लेने पर इससे नुकसान हो सकता है और आगे उस दवा का असर कम होगा क्योंकि जीवाणु दवा के विरुद्ध प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेते है और इस कारण दवा को जितना काम करना चाहिए, उससे कम काम करेगी। ऐसे में जीवाणु अधिक तेजी से वृद्धि करेंगे और संक्रमण अधिक फैल सकता है। बिना जरूरत के एंटीबायोटिक के सेवन में सिर्फ रोगी की ही गलती नहीं होती, बल्कि कुछ हद तक डाॅक्टरों की भी गलती होती है क्योंकि डाॅक्टर कई बार बिना जरूरत के भी एंटीबायोटिक दे देते हैं।   
 वायरस और बैक्टीरिया के वृद्धि करने के लिए यह मौसम बहुत ही अच्छा है। जगह-जगह पानी भरे हैं, गंदगी पड़ी है, बारिश की वजह से नाले भर गए हैं, काई जम गई है। तापमान में अचानक उतार-चढ़ाव होता है, वातावरण में आर्द्रता काफी  अधिक है। ऐसे माहौल में वायरस और बैक्टीरिया तेजी से वृद्धि करते हैं। वायरल फीवर के अलावा इस मौसम में अक्सर पेट भी खराब रहता है। बाहर का खाना खाने और पानी पीने, कटे फल या बिना धुले फल या गंदे पानी से धुले फल खाने, बाहर का जूस पीने से गैस्ट्राइटिस या गैस्ट्रोइंटेराइटिस हो सकता है। इसमें पेट खराब हो सकता है, दस्त लग सकते हैं, पेट में दर्द हो सकता है, पेट में गैस बन सकती है, उल्टी हो सकती है। इस मौसम में पीलिया और टायफायड बुखार की भी शिकायत अक्सर सुनने को मिलती है।
 नवंबर और मार्च के महीने में भी वायरल फीवर का अधिक प्रकोप होता है। इस समय मौसम में अचानक बदलाव आ रहा होता है, दिन में गर्मी होती है और रात में ठंड। रात और दिन के तापमान में काफी ज्यादा अंतर होता है। इससे ठंड लगने की अधिक आशंका होती है। मौसम में बदलाव से संबंधित बीमारियों के लिए खास तौर पर कोई दवा नहीं है। इसमें सिर्फ शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं। नियमित सैर करना, शरीर को बचा कर रखना, समय पर साफ-संतुलित भोजन करने से इनसे काफी हद तक बचा जा सकता है।  - विनोद विप्लव


सर्दी ने बढ़ाई बीमारियां 

कड़ाके की ठंड हमारी सेहत पर कहर ढा रही है। पिछले दिनों पारे में हुयी रेकार्ड गिरावट उच्च रक्त चाप, दिल की बीमारियों, मधुमेह और जोड़ों की समस्याओं से ग्रस्त मरीजों के लिये आफत साबित हुयी। पिछले दिनों की कड़ाके की ठंड के दौरान छाती में दर्द अथवा भारीपन और सांस लेने में दिक्कत जैसी शिकायतें लेकर अस्पताल आने वाले मरीजों की संख्या में भारी इजाफा देखा गया। 
हृदय रोग विशेषज्ञों के अनुसार अधिक ठंड दिल के मरीजों के लिये घातक साबित हो सकती है। वैसे तो हर साल का जाड़ा दिल के मरीजों के लिये खतरनाक होता है लेकिन इस साल देश के अनेक इलाकों में पारे के शून्य के आसपास पहुंच जाने के कारण दिल के दौरे, उच्च रक्त चाप, रक्त वाहिनियों की बीमारियों और मधुमेह के प्रकोप में करीब 20 फीसदी की वृद्धि हुयी है। 
जाड़े के दिनों में हाइपोथर्मिया, उच्च रक्त चाप, मधुमेह, दमा तथा दिल के दौरे के कारण हर साल लाखों लोगों की मौत हो जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार सर्दियों में न केवल तेज ठंड से उत्पन्न हाइपोथर्मिया, उच्च रक्त चाप, दिल के दौरे, दमा और मधुमेह के कारण असामयिक मौत की घटनायें कई गुना बढ़ जाती हैं। हमारे देश में हर साल ऐसी मौतों की संख्या लाखों में होती हैं। अधिक ठंड के कारण फ्लू जैसी बीमारियां निमोनिया और ब्रोंकाइटिस आदि में तब्दील हो सकती हैं। 
हृदय और मस्तिष्क के स्ट्रोक 
प्रमुख ह्रदय रोग चिकित्सक तथा नौएडा स्थित मैट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीच्यूट्स के चेयरमैन डा. पुरुषोत्तम लाल ने राष्ट्रीय सहारा के साथ विशेष बातचीत में बताया कि जाड़े के दिनों में अधिक ठंड के कारण ह्रदय के अलावा मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंगों की धमनियां सिकुड़ती हैं जिससे रक्त प्रवाह में रूकावट आती है और रक्त के थक्के बनने की आशंका अधिक हो जाती है। ऐसे में न केवल ह्रदय के, बल्कि मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंगों में पक्षाघात/स्ट्रोेक पड़ने के खतरे अधिक होते हैं। 
दिल का दौरा 
गर्मियों में तापमान 35 डिग्री सेल्शियस के आसपास होता है जो जाड़े में घट कर 10 डिग्री सेल्शियस से भी कम हो जाता हैं। जाड़ों में तापमान कम होने के कारण शरीर से कम पसीने और कम लवण निकलते हैं लेकिन हम जाड़े के दिनों में भी गर्मियों की तरह ही पर्याप्त मात्रा में नमक लेते हैं। शरीर से कम नमक निकलने के कारण भी रक्त क्लाॅट बनने की प्रक्रिया तेज हो जाती है। हालांकि शरीर से कम लवण के बाहर आने से सामान्य ह्रदय को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है, लेकिन कमजोर ह्रदय वाले लोगों और खास कर उन्हें जिन्हें पहले दिल के दौरे पड़ चुके होते हैं, दोबारा दिल के दौरे पड़ने के खतरे बढ़ जाते हैं। 
डा. लाल बताते हैं कि जाड़ों में दिल के दौरे पड़ने की आशंका बढ़ने का एक कारण यह भी है कि जाड़ों में श्वसन संबंधी संक्रमण अधिक होते हैं। इन संक्रमणों के कारण रक्त नलिकाओं में सूजन पैदा होती है और उनमें होने वाले रक्त प्रवाह में रूकावट आती है।
रक्त चाप
जाड़ों में मांसपेशियों में खिंचाव आता है जिससे रक्त नलिकायें संकरी हो जाती हैं और हृदय के अलावा शरीर के अन्य अंगों में रक्त आपूर्ति बाधित होती है। इससे रक्त चाप भी बढ़ता है और बढ़ा हुआ रक्त चाप दिल के दौरे की आशंका को बढ़ाता है। इस तरह यह सिलसिला चलता रहता है। यह देखा गया है कि जिन लोगों को रक्त दाब अधिक होते हैं, उन्हें जाड़ों में दिल के दौरे पडने के खतरे अधिक होते हैं।
मधुमेह 
दिल्ली डायबेटिक रिसर्च सेंटर के अध्यक्ष डा. अशोक कुमार झिंगन के अनुसार जाड़ों में मधुमेह के मरीजों को दिल के दौरे पड़ने की आशंका अधिक रहती है। जाड़ों में काफी लोग अधिक मात्रा में शराब, निकोटिन और मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं, इससे भी शरीर की रोग प्रतिरक्षण क्षमता घटती है और विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होने के खतरे बढ़ते हैं। 
हाइपोथर्मिया
जाड़ों में काफी लंबे समय तक ठंड के संपर्क में रहने पर हाइपोथर्मिया होने का खतरा बहुत अधिक होता है। हाइपोथर्मिया में शरीर का तापमान बहुत अधिक गिर जाता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब शरीर अपने तापमान को सामान्य बनाये रखने के लिये पर्याप्त ऊर्जा पैदा कर नहीं पाता। हाइपोथर्मिया की स्थिति में दिल के दौरे पड़ने पर मौत होने की आशंका बहुत अधिक होती है। 
हाइपोथर्मिया का खतरा एक साल से कम उम्र के बच्चों तथा बुजुर्गों को बहुत अधिक होता है। अनुमान है कि जब कभी भी तापमान सामान्य से एक डिग्री सेल्षियस घटता है तब आठ हजार और बुजुर्ग मौत के हवाले हो जाते हैं। 
हाइपोथर्मिया के कारण मौत का षिकार होने वालों में ज्यादातर लोग मानसिक रोगी, दुर्घटना में घायल लोग, मधुमेह, हाइपोथाइराइड, ब्रांेकोनिमोनिया और दिल के मरीज तथा शराब का अधिक सेवन करने वाले होते हैं। 
बेघर लोगों तथा ठंड से बचाव की सुविधाआंे से वंचित लोगों को हाइपोथर्मिया से मौत का खतरा   अधिक होता है। पर्वतारोहियों को अत्यधिक ठंड से प्रभावित होने का खतरा अधिक होता है, लेकिन आम तौर पर पर्वतारोही ऐसी आपात स्थिति की तैयारी करके पर्वतारोहण करते हैं।
विभिन्न अध्ययनों एवं आंकड़ों के अनुसार हाइपोथर्मिया से होने वाली करीब 50 प्रतिषत मौतें 64 वर्ष या उससे अधिक उम्र के लोगों में होती है। बुजुर्गों को कम उम्र के लोगों की तुलना में हाइपोथर्मिया से पीड़ित होने की आषंका बहुत अधिक होती है, क्योंकि ठंड से बचाव की शरीर की अपनी प्रणाली उम्र के साथ कमजोर पड़ती जाती है। इसके अलावा उम्र बढ़ने के साथ सबक्युटेनियस वसा में कमी आ जाती है और ठंड को महूसस करने की क्षमता भी घट जाती है। इसके अलावा शरीर की ताप नियंत्रण प्रणाली भी कमजोर पड़ जाती है। 
बचाव
मैट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीच्यूट्स के ह्रदय रोग चिकित्सक डा. परनीस अरोड़ा बताते हैं कि जाड़े में दिल की हिफाजत का सबसे अच्छा तरीका शरीर को गर्म रखना, अधिक समय तक ठंड के संपर्क में रहने से बचना और खुली जगह में शारीरिक श्रम करने से परहेज करना है। इसके अलावा शराब, मादक पदार्थों, अधिक वसा वाले भोजन तथा मिठाइयों से भी बचना चाहिये। 


कृत्रिम अंडाशय की बदौलत कैंसर और बांझपन की शिकार महिलायें भी मां बन सकेंगी

कृत्रिम अंडाशय की बदौलत कैंसर एवं बांझपन की शिकार  महिलायें भी मां बन सकेंगी। वैज्ञानिकों ने ऐसा पहला कृत्रिम मानव अंडाशय का आविश्कार किया है जिससे कैंसर रोगियों में बांझपन के इलाज में सहायता मिल सकती है। इस कृत्रिम मानव अंडाशय का विकास अमरीका के ब्राउन विश्वविद्यालय और वुमेन एंड इंफैंट्स हाॅस्पीटल के अनुसंधानकर्ताओं ने किया है। 
ब्राउन विश्वविद्यालय के वारेन अल्पर्ट मेडिकल स्कूल के प्रसूति एवं स्त्री रोग के प्रोफेसर और वुमेन एंड इंफैंट्स हाॅस्पीटल में रिप्रोडक्टिव इंडोक्राइनोलाॅजी एंड इनफर्टिलिटी विभाग के निदेशक सैंड्रा कार्सन कहते हैं कि अंडाषय तीन मुख्य प्रकार की कोशिकाओं से बना होता है और ऐसा पहली बार हुआ है कि इसे ट्रिपल सेल लाइन के साथ 3-डी टिश्यू संरचना के साथ बनाया गया है। 
कार्सन कहते हैं कि यह अंडाशय न सिर्फ यह जानने के लिए एक जीवित प्रयोगशाला उपलब्ध कराती है कि स्वस्थ अंडाशय कैसे कार्य करती है, बल्कि यह विषैले पदार्थों या अन्य रसायनों के संपर्क जैसी समस्याओं का पता लगाने के लिए टेस्टबेड की तरह भी कार्य कर सकती है, अंडे की परिपक्वता और स्वास्थ्य को बाधित कर सकती है। 
हाॅस्टन के प्रजनन चिकित्सक स्टीफन क्रोट्ज कहते हैं कि कृत्रिम अंडाशय कैंसर का इलाज कराने वाली महिलाओं में भविश्य में प्रजनन को संरक्षित रखने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कीमोथेरेपी या रेडियेषन की शुरुआत से पहले अपरिपक्व अंडों को फ्रीज कर बचाया जा सकता है और उसके बाद रोगी के षरीर से बाहर कृृत्रिम अंडाशय में इसे परिपक्व किया जा सकता है। 
अंडाशय को बनाने के लिए अनुसंधानकर्ताओं ने थीका कोषिकाओं का छत्ता बनाया। इसके लिए अस्पताल में प्रजनन उम्र (25-46 वर्श) की रोगियों के द्वारा दान दिये गए अंडों का इस्तेमाल किया गया। थीका कोशिकाओं के छत्ते के आकार में विकसित होने के बाद दान दिये गए ग्रैनुलोसा कोशिकाओं के गोलाकार भाग को थीका कोशिकाओं से ढके ग्रैनुलोसा और अंडों में प्रवेष कराया गया जैसा कि असली अंडाशय में होता है। उसके बाद यह परीक्षण किया गया कि यह संरचना एक अंडाशय की तरह कार्य कर सकती है और यह अंडे को परिपक्व कर सकती है। प्रयोग में यह संरचना अंडों को पोषण करने और इन्हें पूर्ण रूप से परिपक्व करने में सक्षम पायी गयी। इस आविष्कार से इन विट्रो ऊसाइट परिपक्वता के लिए 3-डी टिश्यू इंजीनियरिंग के सिद्धांतों के इस्तेमाल में पहली बार सफलता मिली है।
हालांकि कार्सन कहते हैं कि उनका इरादा कभी कृृत्रिम अंगों का आविष्कार करना नहीं था बल्कि एक अनुसंधान वातावरण का निर्माण करना था जिसमें वह अध्ययन कर सकें कि थीका और ग्रैनुलोसा कोशिकाएं तथा ऊसांइटस किस तरह प्रतिक्रिया करती हैं।


वजन घटाना है तो सही समय पर खाइये 

वजन कम करने के लिए लोग आम तौर पर एक ही उपाय करते हैं कम खाना और अधिक व्यायाम करना। लेकिन वजन कम करने का एक और मंत्र मिल गया है-दिन में सही समय पर खाना।
नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के नेतृत्व में किये गए एक अध्ययन में पाया गया है कि खाने पीने के समय में अनियमितता उतना ही नुकसानदेह है जितना मध्य रात्रि में खाना क्योंकि उस समय शरीर सोना चाहता है और उस समय खाना खाने पर शरीर वजन प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित होता है। शरीर की जैविक प्रक्रिया के द्वारा उर्जा का नियंत्रण इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। भोजन का समय और वजन में वृद्धि के आपसी संबंध पर किया गया यह संभवतः पहला अध्ययन है।
वीनबर्ग कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज में न्यूरोबायोलॉजी और फिजियोलॉजी के प्रोफेसर और सेंटर फॉर स्लीप एंड सरकेडियन बायोलॉजी के प्रोफेसर फ्रेड टुरेक कहते हैं, ''कोई व्यक्ति कैसे और क्यों वजन प्राप्त कर लेता है यह समझ पाना बहुत ही मुश्किल है लेकिन यह सिर्फ कैलोरी ग्रहण करने और कैलोरी के खर्च करने पर निर्भर नहीं होता है। मोटापे की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए कुछ अन्य कारक भी जिम्मेदार होते हैं। मोटापा की प्रवृत्ति को धीमा करने में भोजन का सही समय एक मुख्य कारक है।''
हेल्थ एंड मेडिसीन में प्रकाशित इस अध्ययन में कहा गया है कि मनुष्य में मोटापा को नियंत्रित करने के लिए इस अध्ययन का सहारा लिया जा सकता है। इस समय दुनिया भर में 30 करोड़ से अधिक लोग मोटापे के षिकार हैं। 
इस अध्ययन के प्रमुख और टुरेक के प्रयोगशाल में डॉक्टोरल के छात्र डियाना एम. अरबल कहते हैं, ''हमारा एक अनुसंधान शिफ्ट में काम करने वाले कर्मचारियों पर केंद्रित है जिनमें मोटापे की प्रवृत्ति अधिक होती है। उनकी दिनचर्या ऐसी होती है जिसमें उनके भोजन का एक समय नहीं होता है जिससे उनके शरीर की प्राकृतिक लय प्रभावित होती है। इस अध्ययन के नतीजे ने हमें यह सोचने के लिए बाध्य किया कि दिन में गलत समय पर खाने से वजन में वृद्धि हो सकती है और इसी सोच को आधार मानते हुए हमने अपना अध्ययन शुरू किया।''
अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि सिर्फ खाने के समय में परिवर्तन करने से ही शारीरिक वजन प्रभावित हो जाता है। अनुसंधानकर्ताओं ने चूहों पर किये गए इस अध्ययन में पाया कि जिन चूहों ने सोने के सामान्य समय के दौरान अधिक वसा युक्त आहार का सेवन किया उन्होंने उन चूहों की तुलना में अधिक वजन प्राप्त कर लिया जिन्होंने सामान्य रूप से जागृत समय के दौरान उसी प्रकार के और उसी मात्रा में भोजन किया था। सोने के सामान्य समय के दौरान भोजन करने वाले चूहों ने सामान्य वजन से 48 प्रतिशत अधिक वजन प्राप्त कर लिया जबकि सामान्य रूप से जागृत समय के दौरान भोजन करने वाले चूहों ने 20 प्रतिशत अधिक वजन प्राप्त किया। दोनों प्रकार के चूहों ने एक समान कैलोरी ही ली थी और उनकी सक्रियता भी एक समान ही रखी गयी।
इस अध्ययन के तहत छह महीने तक दोनों समूहों के चूहों को उनके भोजन के 12 घंटे के समय के दौरान उनकी इच्छानुसार अधिक वसायुक्त आहार दिया गया था। चूंकि चूहे निशाचर होते हैं इसलिए सोने के सामान्य समय के दौरान दिन में भोजन करने वाले चूहों को दिन में 12 घंटे के दौरान भोजन दिया गया और रात्रि में जागने के सामान्य समय के दौरान भोजन करने वाले चूहों को रात में 12 घंटे के दौरान भोजन दिया गया। दूसरे 12 घंटे के दौरान उन्हें भोजन नहीं दिया गया था। 
हमारी जैविक घड़ी दिन और रात के चक्र को ध्यान में रखते हुए हमारे रोजमर्रा के खाने, शारीरिक सक्रियता और नींद पर नजर रखती है। इस अध्ययन में पाया गया कि शरीर की अंदरूनी घड़ी भी हमारे द्वारा उर्जा के इस्तेमाल को नियंत्रित करती है। इस तरह वह कैलोरी ग्रहण और खर्च के बीच संतुलन में भोजन के समय को भी ध्यान में रखने का सुझाव देती है।     


अनचाहे बाल, जब करें परेशान


अनचाही बाल ऐसी अनचाही बला है जिससे हर महिलायें छुटकारा पाना चाहती है। चेहरेहाथोंपैरों और शरीर के अन्य हिस्से में उगे अनचाहे बाल अच्छे खासे सौंदर्य एवं व्यक्तित्व में ग्रहण लगा देते हैं। फैशन के इस जमाने में जब केप्री एवं स्लीवलेस परिधानों का प्रचलन बढ़ रहा है तब अनचाहे बाल हीनभावना एवं षर्मिंदगी के कारण भी बन रहे हैं। कई महिलायें अपने चमकते-दमकते चेहरे एवं शरीर के विभिन्न अंगों पर उगे अनचाहे बालों को हटाने के लिये प्लंकिंग, थरेडिंगवैक्सिंगब्लीचिंगशेविंगइलेक्ट्रोलिसिसथर्मोलाइसिसथर्मोहर्ब और क्रीम जैसे अनेक उपायों का सहारा लेती हैं लेकिन ये परम्परागत उपाय कष्टदायक एवं दुष्प्रभाव युक्त होने के साथ-साथ अनचाहे बालों से स्थायी तौर पर निजात नहीं दिला पाते हैं।


नयी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश-1 (ई - 34) स्थित काॅस्मेटिक लेजर सर्जरी सेंटर आफ इंडिया (सीएलएससीआई) के निदेशक तथा जाने माने कास्मेटिक चिकित्सक डा. पी. के तलवार बताते हैं कि इन परम्रागत उपायों से अनचाहे बाल हटाने पर त्वचा में संक्रमणखुजली एवं दाग होने की आशंका रहती है। यही नहीं कई बार इन अस्थायी उपायों से अस्थायी तौर पर हटाये गये बाल भद्दे खूंट की तरह उग आते हैं जिससे चेहरा और शरीर के अन्य भाग पहले से भी खराब लगने लगते हैं। जबकि लेजर तकनीक से स्थायी तौर पर इन बालों को हटाना जा सकता है। यह तकनीक पूरी तरह से दुष्प्रभाव एवं कष्ट रहित है। वैसे तो इसके लिये अनेक तरह के लेजर का विकास हुआ है लेकिन अनचाहे बालों को हटाने में एपाइलेशन लेजर काफी कारगर साबित हो रहा है।


नयी दिल्ली के मैक्स हास्‍पीटल से जुड़े डा. तलवार बताते हैं कि चेहरे एवं शरीर के विभिन्न अंगों पर अनचाहे बालों के उगने के अनेक कारण हैं जिनमें हार्मोन असंतुलन प्रमुख हैं। किशोरावस्था के दौरान शरीर में होने वाले परिवर्तनों के कारण हार्मोन उत्पन्न करने वाली एंडोक्राइन ग्रंथियां ज्यादा क्रियाशील हो जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप किशोरियों में ऊपरी होठों के ऊपर तथा ठुड्डी पर अनचाहे बाल आ जाते हैं। गर्भावस्था के दौरान हारमोन के संतुलन में गड़बड़ी आने से शरीर के कुछ भागों पर अनचाहे बाल उग सकते हैं। हालांकि प्रसव के बाद जब शारीरिक स्थिति सामान्य हो जाती है तब ऐसे अनचाहे बालों का उगना बंद हो जाता है। इसके अलावा गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से भी शरीर पर अनचाहे बालों के उगने की आशंका रहती है। इन दवाइयों के सेवन से शरीर में होने वाले हार्माेन संबंधी असंतुलन अनचाहे बालों की उत्पत्ति के कारण बन सकते हैं। कार्टीसोन जैसी उच्च शक्ति वाली दवाइयों के सेवन से भी अनचाहे बाल उग सकते हैं। इसके अलावा अत्यधिक व्यस्तता एवं तनाव के कारण थायराॅइड गं्रथि के बहुत अधिक सक्रिय हो जाने के कारण या नर्वसनेस की समस्या से भी अनचाहे बाल उग सकते हैं। शारीरिक वजन बढ़ने से भी अनचाहे बाल उग सकते हैं।



लेजर सर्जरी पर आधारित विषेश वेबसाईट www.clsci.net के अनुसार लेजर की मदद से बहुत कम समय में काफी बड़े क्षेत्र से अनचाहे बालों को हटाया जा सकता है। शरीर के अनचाहे बालों को हटाने के लिये प्रयुक्त लेजर केवल बालों की जडों अथवा रोम कूपों (हेयर फालिकल्स) पर असर डालता है और बाकी भाग को अप्रभावित छोड़ देता है। इस कारण आसपास की त्वचा को कोई नुकसान पहुंचे बगैर अनचाहे बाल हमेशा के लिये समाप्त हो जाते है। लेजर मशीन से निकलने वाली प्रकाश किरणें बालों के रोमकूप से अवशोषित होती हैं। लेजर ऊर्जा एक सेकेंड से भी कम समय में रोमकूप को नष्ट कर देती है। लेजर से न केवल चेहरे के अनचाहे बालों को बल्कि ऊपरी होठों के ऊपरी हिस्सेबांहोंटांगोंहाथोंजांघोंपेटछातीगर्दनपीठकंधोंठुड्डी जैसे शरीर के विभिन्न अंगों पर उगे बालों को बिना किसी दुष्प्रभाव एवं कष्ट के समाप्त किया जा सकता है।


अनचाहे बालों को हटाने के लिये एपाइलेशन लेजर का प्रयोग करने वाले इने-गिने कास्‍मेटिक सर्जनों में से एक डा. पी.के.तलवार बताते हैं कि अनचाहे बालों को स्थायी तौर पर हटाने के लिये सबसे पहले रूबी लेजर का विकास हुआ। लेकिन रूबी लेजर की सीमाओं एवं जटिलताओं के मद्देनजर बाद में कई तरह के लेजर का विकास हुआ जिनमें एपाइलेशन लेजर सबसे कारगर एवं सुरक्षित साबित हुआ है क्योंकि एपाइलेशन नामक आधुनिकतम श्रेणी के लेजर से त्वचा को नुकसान होने की आशंका नहीं होती है।


 

ट्रैफिक जाम से बढ़ रहे हैं दिल के दौरे

महानगरों एवं बड़े षहरों में सड़कों पर वाहनों की लगने वाली लंबी-लंबी कतारें न केवल खून के उबाल को बल्कि दिल के दौरे के खतरे को बढ़ा रही हैं।
राजधानी में पिछले दिनों भारी वर्शा के कारण दिल्ली की सड़कों पर कई घंटे के लिये वाहनों की आवाजाही ठप्प पड़ गयी। कई लोगों को अपने घर पहुंचने में घंटों का समय लगा, लेकिन ऐसी स्थिति का सबसे अधिक खामियाजा उठाना पड़ता है। 
कार्डियोलाजिस्ट डा. पुरूषोत्तम लाल ने बताया कि हालांकि भारत में इस तरह के अध्ययन नहीं किये गये हैं लेकिन यह ज्ञात तथ्य है कि सड़क जाम के दौरान हवा में प्रदूशण एवं सूक्ष्म प्रदूषित कणों का स्तर तथा जाम में फंसे लोगों में एंग्जाइटी एवं तनाव बढ़ जाता है और ये दिल के दौरे का कारण बन सकते हैं। 
डा. पुरूषोत्तम लाल ने बताया कि ट्रैफिक जाम दिल के मरीजों पर दोतरफा मार करता है। एक तो जाम के कारण गुस्सा, तनाव तथा एंग्जाइटी पैदा होते हैं जो दिल को नुकसान पहुंचाते हैं और साथ ही साथ वाहनों से निकलने वाले धुंयें भी दिल तथा फेफड़े पर बुरा असर डालते हैं। 



डा. लाल ने बताया कि धुयें के अलावा कारों से बहुत महीन एवं चिकने कण निकलते हैं जो बहुत छोटे होने के कारण फेफड़े में बहुत गहराई में चले जाते हैं जिसके कारण फेफड़े एवं हृदय को नुकसान पहुंचता है। 
कार्डियोलॉजिस्ट डा. के. के. सक्सेना ट्रैफिक जाम के कारण दिल के दौरे का खतरा बढ़ने पर सहमति जताते हुये कहते हैं कि ट्रैफिक जाम का खतरा खास तौर पर वैसे लोगों को होता है जिन्हें पहले दिल का दौरा पड़ चुका हो।
हृदय रोग चिकित्सक डा. ओ पी यादव कहते हैं कि उनके पास इस तरह का कोई आंकड़े या व्यक्तिगत अनुभव नहीं है जाम के दौरान हवा में सूक्ष्म निलंबित कणों और प्रदूशण तथा जाम में फंसे व्यक्ति का स्ट्रेस का स्तर बढ़ने से इस तरह का खतरा हो सकता है। अगर जाम काफी लंबे समय तक जाम लगा हो और वाहन में एयर कंडिषनर, पीने का पानी आदि की व्यवस्था नहीं हो डिहाइड्रेषन बढ़ता है। साथ ही बहुत देर तक एक ही स्थिति में बैठे रहने पर रक्त के थक्के बढ़ने की आषंका बढ़ सकती है क्योंकि ऐसे में लोग अपने हाथ-पैर एवं षरीर को अधिक हिला-डुला नहीं पाते। 




गौरतलब है कि कुछ समय पूर्व पर अमेरिकन हार्ट असोसियेशन के 49 वें वार्षिक सम्मेलन मे पेश ''कार्डियोवैस्कुलर डिजीज एपिडेमियोलॉजी एंड प्रीवेंशन'' पर जर्मन में दिल के दौरे के रोगियों हुये अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया कि एक घंटे में तीन से अधिक बार ट्रैफिक जाम में फंसने पर ऐसे रोगियों में दिल का दौरा पड़ने का खतरा रहता है। हालांकि इस रिपोर्ट के इस निश्कर्श की सत्यता की पुश्टि अलग से नहीं हुयी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ट्रैफिक जाम में फंसने के छह घंटे के अंदर दिल के दौरे का खतरा बढ़ जाता है। रिपोर्ट के अनुसार ट्रैफिक जाम के दौरान सामान्य परिस्थितियों की तुलना में दिल के दौरे का खतरा 3.2 गुना अधिक हो जाता है। महिलाओं, बुजुर्ग पुरुष, बेरोजगार रोगियों और जिनके परिवार में एंजाइना का इतिहास रहा हो, ट्रैफिक से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
दक्षिणी जर्मनी में शोधकर्ताओं ने एक हजार 454 रोगियों से साक्षात्कार कर आंकड़े जुटाये। इन रोगियों के करीबी लोगों से यह जानने की कोशिश की गयी ये रोगी दिल के दौरे के दिन उन्होंने क्या-क्या किया था, वे कहां गये थे, किस तरह के वाहन से गये थे और ट्रैफिक में उन्होंने कितना समय बिताया था। इस अध्ययन में पता चला कि दिल के दौरे से पहले इन लोगों में करीब 8 प्रतिशत लोग ट्रैफिक में फंसे थे। 
 


राउंडटूहेल के यूट्यूब चैनल पर एक करोड़ सब्स्क्राइवर

राउंड2हेल (Round2Hell) चैनल को 84 करोड़ बार देखा गया। 
कॉमेडी शैली वाले यूट्यूब चैनल राउंड2हेल (Round2Hell) ने एक करोड़ सब्स्क्राइवर के लक्ष्य को पार कर लिया है। इस चैनल को 84 करोड़ बार देखा गया है जो अपने आप में मील का पत्थर है। 
इस चैनल की शुरुआत वर्ष 2015 में तीन जिगरी दोस्तो —ज़ैन, वसीम और नाज़िम ने की थी। इन तीनों ने लोगों को हंसाने के जुनून के साथ इस चैनल को शुरू किया और धीरे—धीरे इस चैनल की पहुंच को बढ़ाया। 
राउंड2हेल (Round2hell) को विशेष रूप से BrandzUp Media (VCOI) Video Creators Of India (VCOI) द्वारा संचालित किया जाता है। 
ज़ायन ज़ाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली से कॉलेज ड्रॉपआउट हैं जबकि वसीम और नाज़िम ने क्रमशः आलम कॉलेज (मुरादाबाद) और मॉडर्न पब्लिक स्कूल, (मुरादाबाद) से इंटरमीडिएट पास किया है। तीनों को पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी और उन्होंने फुटबाल ट्यूटोरियल वीडियो को लेकर यूट्यूब चैनल शुरू किया। लेकिन उन्हें उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली। फिर, उन्होंने मजाकिया वीडियो ऑनलाइन पोस्ट करने के बारे में सोचा और यह कामयाब होने लगा। उन्हें लोगों से अपार प्रतिक्रिया मिलने लगती है। हालांकि शुरूआत में तो उनके दोस्तों में से एक दोस्त आलम सैफी को छोड़कर किसी ने भी इस तिकड़ी का समर्थन नहीं किया।
तीनों ने YouTube फैनफेस्ट में भी भाग लिया और उसमें भी परफार्म किया। कुछ ही समय के भीतर, Round2Hell हंसी—मजाक वाला लोकप्रिय कामेडी चैनल बन गया। लोग अपने तनाव को दूर करने के लिए इस चैनल पर आते हैं और यहां पोस्ट किए गए वीडियो को देखकर अपने गम और तनाव भुलाते हैं। चैनल के संस्थापक निकट भविष्य में कुछ वेब श्रृंखला, लघु फिल्में और विज्ञान कथा फिल्में बनाने योजना बना रहे हैं।


कैप्टन अमरिंदर सिंह ने श्री गरुु नानक देव जी के जीवन को दर्शाती प्रदर्शनियों का किया उद्घाटन

चंडीगढ़/सुल्तानपुर लोधी, 5 नवंबर: मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आज पर्यटन एवं सांस्कृतिक विभाग व पंजाब डिजिटल लाइब्रेरी की ओर से श्री गुरु नानक देव जी के जीवन, उनकी साखियों, शिक्षाओं व उदासियों को दर्शाती प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। इसके बाद उन्होंने पंजाब स्मॉल इंडस्ट्री एंड एक्सपोर्ट कारपोरेशन की ओर से पुड्डा के मैदानों में लगाई  गई आर्ट एंड क्राफ्ट प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया । इस मौके पर तकनीकी शिक्षा व पर्यटन एवं सांस्कृतिक मामले मंत्री पंजाब चरणजीत सिंह चन्नी भी विशेष तौर पर मौजूद थेे।


पर्यटन विभाग के इस बेहतरीन प्रयास की प्रशंसा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा यह प्रदर्शनी न सिर्फ श्री गुरु नानक देव जी के जीवन व फलसफे की मुंह बोलती तस्वीर पेश कर रही है वहीं इस प्रदर्शनी के माध्यम से गुरु जी से संबंधित हर पहलू को विस्तार से बताया गया है।  उन्होंने कहा कि इस प्रदर्शनी में तत्कालिन समय के सिक्को को प्रर्दशित किया गया है जो उस समय के तत्कालिन शासकों द्वारा गुरु नानक देव जी के नाम पर जारी किए गए हैं। इन सिक्को में सोने के सिक्कों के अलावा अन्य प्रकार के सिक्के भी शामिल हैं।


इस दौरान पंजाब डिजिटल लाइब्रेरी के कार्यकारी निदेशक दविंदर पाल सिंह ने बताया कि  इस प्रदर्शनी में जहां विभिन्न देशों में गुरु नानक देव जी के अलग-अलग नामों को दिखाया गया है वहीं विभिन्न चित्रकारों की ओर से गुरु साहिब के बनाए गए लगभग ४१ चित्रों को भी दिखाया गया है। उन्होंने बताया कि प्रदर्शनी में श्री गुरु नानक देव जी के जीवन से लेकर उदासियों तक के सफर को नक्शों के माध्यम से दिखाया गया है, जो लोगों के लिए विशेष आर्कषण का केंद्र बना हुआ है। इसके अलावा गुरु जी की साखियों को भी कैलीग्राफी के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। गुरु जी ने तत्कालीन समय में जो सामाजिक परिवर्तन किए थे उनसे संबंधित तथ्यों को भी बाखुभी प्रदर्शित किया गया है।


उन्होंने बताया कि प्रदर्शनी में एलईडी स्क्रीनों पर श्री गुरु नानक देव जी की जीवनी को दर्शाया गया है जो खूब पसंद की जा रही है। उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा कि १५ नवंबर तक चलने वाली इस प्रदर्शनी को जरुर देखें तथा श्री गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं पर चलते हुए अपने जीवन को सफल करें।


इसके बाद मुख्यमंत्री ने पंजाब स्मॉल इंडस्ट्री एंड एक्सपोर्ट कारपोरेशन की ओर से पुड्डा के मैदानों में लगाई  गई आर्ट एंड क्राफ्ट प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया । इस  प्रदर्शनी में १८ विभिन्न सरकारी विभागों के अलावा पंजाब के विभिन्न हिस्सों से कलाकारों व सैल्फ हैल्प ग्रुपों की ओर से बनाई गई कलाकृतियों को भी प्रदर्शित किया गया। इसके अलावा इस प्रदर्शनी में इन कलाकारों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों को सेल के लिए भी रखा गया है। मुुख्यमंत्री ने बताया कि यह प्रदर्शनी दस्तकारी को बढ़ावा देने के लिए बहुत बड़ा आधार साबित होगी।


इस मौके पर कैबनिट मंत्री सुंदर शाम अरोड़ा, विजय इंदर सिंगला, पीपीसीसी प्रेज़ीडैंट सुशील कुमार जाखड़, एमपी जसवीर सिंह डिंपा, एमएलए नवतेज सिंह चीमा, सुखपाल सिंह भुल्लर, एससीएस विन्नी महाजन, एमडीपीएस आईईसी सिबन सी के अलावा भारी संख्या में लोग मौजूद थे।


विज्ञान महोत्सव ज्ञान की कमी दूर करने का अवसर : डॉ हर्ष वर्धन

कोलकाता।केन्द्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पृथ्वी विज्ञान और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ हर्ष वर्धन ने कहा है कि भारत भारतीय अंतर्राष्ट्रीय जैसा मंच ज्ञान की कमी दूर करने और जनता विशेष रूप से बच्चों को जागरूक बनाने के लिए उनके नजदीक विज्ञान को पहुंचाने का एक अवसर है। मेगा विज्ञान प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए डॉ हर्ष वर्धन ने कहा कि कोलकाता अपनी परंपरा संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के कारण समूचे देश के लिए गौरवपूर्ण स्थान है।


उन्होंने कहा कि डॉ सी वी रमन, आचार्य जगदीश चंद्र बोस, डॉ मेघनाथ साहा और डॉ सत्येन्द्र नाथ बोस जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के कारण कोलकाता की गरिमा बढ़ी है। इस वैज्ञानिक प्रदर्शनी का आयोजन करने के लिए विज्ञान प्रयोगशालाओं के निदेशकों और वरिष्ठ वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए उन्होंने कहा कि अतीत के समय के वैज्ञानिकों ने उपलब्धियां हासिल की हैं और अपने कार्य के बल पर देश का नाम रोशन किया है। उन्होंने यह भी कहा ये वैज्ञानिक समुदाय की जिम्मेदारी बनती है कि वे सामान्यजनों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के व्यापक क्षेत्र और महत्व की जानकारी दें। डॉ हर्ष वर्धन ने सामान्यजनों विशेष रूप से बच्चों के घर तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि इससे उनके दैनिक जीवन को बेहतर बनाने की एक आवश्यक जिम्मेदारी बनती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित और बच्चों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति प्रेरित करने से अवसरों के एक राष्ट्र निर्माण में और देश की प्रगति के लिए ज्ञान का आधार बनाने में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि पहली बार पांचवें भारत भारतीय विज्ञान महोत्सव का उद्घाटन प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी वीडियो कान्फ्रेंस के माध्यम से करने वाले हैं और वे इस मंच का उपयोग देश के नागरिकों के जीवन में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की व्यापक जागरूकता लाने के लिए प्रेरणा देंगे।


Kamar Dard - Karan, Bachav Aur Upchar


by Dr. Rahul Gupta


डॉ हर्ष वर्धन ने यह भी कहा कि भारत अवसरों की भूमि है जहां उच्च शिक्षा और अनुसंधान तथा विकास में वैज्ञनिकों की भागीदारी लोगों के सशक्तीकरण तथा विकास में अहम भूमिका निभाती है। महोत्सव में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के भाग लेने पर केन्द्रीय मंत्री ने कहा कि इससे भारत का मस्तक ऊंचा होगा और यह उच्चतम स्तर तक प्रगति कर सकेगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि वैज्ञानिक विकास के दायरे में बच्चों को शामिल किए जाने से देश में वृद्धि और विकास का एक नया आयाम जुड़ेगा।


उन्होंने कहा कि यह महोत्सव विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व के तीन शीर्ष देशों में भारत को 2030 तक विकसित बनाने की प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सोच के अनुरूप है। डॉ हर्ष वर्धन ने कहा वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक उपलब्धियां और विकास तेजी से हो रहा है और इस महोत्सव का मंच युवा जनसंख्या वाले देश में जज्बे को और अधिक सक्रिय और ऊर्जावान बनाएगा। उन्होंने वैज्ञानिक समुदाय से अपील की कि वे बच्चों को वैज्ञानिक विकास की भावना और जज्बे से परिपूर्ण वातावरण बनाने के लिए प्रोत्साहित करें।



डॉ हर्ष वर्धन ने कहा कि इस कार्यक्रम में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के शामिल होने और प्रदर्शनी को देखने के लिए आने वाले लोगों के उत्साह से पता चलता है कि इस देश के विज्ञान क्षेत्र में विकास और खुशहाली के लिए कितने लक्ष्य हासिल करने बाकी हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग और सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी भी इस अवसर पर उपस्थित थे।


पैनिक डिसआर्डर : हादसों के बाद का मानसिक खौफ

पैनिक डिसआर्डर एक एंग्जाइटी डिसआर्डर है जिसमें रोगी को अचानक तीव्र डर का असंभावित और बार-बार अटैक होता है। कभी-कभी यह अटैक कुछ मिनटों को होता है तो कभी-कभी लंबा भी होता है। पैनिक अटैक किसी भी समय, कहीं भी और बिना कोई पूर्व लक्षण के हो सकता है। इसलिए अधिकतर रोगी दूसरा अटैक होने को लेकर भयभीत रहते हैं और उस स्थान में जाने से डर सकते हैं जहां उन्हें पहले अटैक हुआ हो। कुछ लोगों पर तो डर इतना हावी हो जाता है कि वे अपने घरों में नहीं रहना चाहते।


पैनिक डिसआर्डर पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक सामान्य है। पैनिक अटैक के दौरान दिल की धड़कन बढ़ जाती है और रोगी को पसीना आने लगता है, कमजोरी महसूस होती है, बेहोशी या चक्कर आने लगता है। हाथ में झुनझुनी या सुन्नपन महसूस हो सकता है और रोगी उत्तेजित या ठंड का अनुभव कर सकता है। उसका जी मिचला सकता है, छाती में दर्द या कुछ उत्तेजना, कुछ अनहोनी होने का डर या सर्वनाश होने का डर या खुद पर नियंत्रण खत्म हो सकता है। अधिकतर लोग इलाज से ठीक हो जाते हैं। इसकी थिरेपी के तहत रोगी को यह सीखाया जाता है कि वे अपने सोचने के तरीको में कैसे परिवर्तन लायें। इसके साथ ही रोगी को दवाइयां भी दी जाती है।


पैनिक डिसआर्डर के रोगियों में शारीरिक प्रतिक्रियाएं भी होती है। वह दिल के दौरे की तरह महसूस कर सकता है। पैनिक डिसआर्डर से पीड़ित व्यक्ति हतोत्साहित हो सकता है और लज्जा महसूस कर सकता है क्योंकि वे दूकान से सामान लाने या ड्राइविंग करने जैसे सामान्य दिनचर्या का पालन नहीं कर सकते। यह बीमारी उनके स्कूल या काम को भी प्रभावित कर सकता है।
डा. सुनील मित्तल बताते हैं कि पैनिक डिसआर्डर ऐसा एंग्जाइटी डिसआर्डर है जिसका इलाज संभव है। इसलिए पैनिक डिसआर्डर के लक्षण होने पर व्यक्ति को सामान्य चिकित्सक या मानसिक चिकित्सक से जल्द से जल्द मिलना चाहिए। चिकित्सक के पास जाने से पहले अपने लक्षणों की सूची बना लेनी चाहिए जिससे चिकित्सक को आपकी बीमारी को समझने में आसानी हो। चिकित्सक बीमारी को सुनिश्चित करने के लिए रोगी का परीक्षण करते हैं। बीमारी की पहचान हो जाने पर रोगी को मानसिक चिकित्सक या मानसिक रोग विशेषज्ञ के पास भेज दिया जाता है। चिकित्सक रोगी की गंभीरता और पैनिक अटैक की आवृत्ति को कम करने के लिए कुछ दवाईयां देते हैं जिसे प्रभावी होने में कुछ सप्ताह का समय लग जाता है। रोगी को एंटीडिप्रेशेंट, एंटीएंग्जाइटी और बीटा ब्लॉकर्स दवाइयां दी जाती हैं। काउंसलर या मनोचिकित्सक के द्वारा साइकोथेरेपी या टॉक थेरेपी से भी पैनिक अटैक के लक्षणों को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। हालांकि पैनिक डिसआर्डर का कोई स्थायी इलाज नहीं है लेकिन दवा और/या साइकोथेरेपी से इलाज कराने पर अधिकतर रोगी सामान्य जीवन जीते हैं।


पैनिक डिसआर्डर कभी-कभी आनुवांशिक भी होता है लेकिन जरूरी नहीं है कि परिवार के हर सदस्य को यह बीमारी हो। जब मस्तिष्क में रसायन एक निश्चित स्तर में नहीं होता है तो वह व्यक्ति पैनिक डिसआर्डर को शिकार हो जाता है। दवाइयों से इसके लक्षणों को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है क्योंकि दवाइयां मस्तिष्क के रसायन को सही स्तर तक लाने में मदद करती है। हालांकि वैज्ञानिक इसके इलाज से संबंधित कई अध्ययन कर रहे हैं। एक अनुसंधान के तहत वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि अधिकतर रोगियों के लिए कौन सा इलाज अच्छा होगा या विभिन्न लक्षणों के लिए कौन सी दवाइयां बेहतर काम कर सकती हैं। वैज्ञानिक यह भी समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मस्तिष्क किस तरह कार्य करता है ताकि वे इसका नया इलाज खोज सकें।


बुनियादी अधिकारों से महरूम आधी आबादी

भारत में नारियों को देवी माना जाता है। यही नहीं, हमारे देश के प्राचीन इतिहास में कई महिला विद्वान और महिला शासकों के उदाहरण भरे पड़े हैं। पौराणिक कथाओं और लोक कथाओं में भी इस बात को उजागर किया गया है कि यहां महिलाओं को हमेशा सम्मान और आदर दिया गया है। भारत ही दुनिया का ऐसा पहला देश है जहां सबसे पहले महिलाओं को मताधिकार दिया गया। भारतीय संविधान विश्व में सबसे अधिक प्रगतिशील संविधानों में से एक है जो पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकारों की गारंटी देता है। जाहिर है कि यह दिखाने के लिये तर्कों की कमी नहीं है कि भारत की महिलाएं स्वतंत्र हैं और इन्हें समाज में बराबरी के अधिकार हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा ही है यह अब भी विवाद का विषय है। दूसरी तरफ, कई ऐसे तर्क और तथ्य भी हैं जिनके आधार पर यह दिखाया जा सकता है कि आजादी के वर्षों बाद भी भारत में महिलाएं अपने मूल अधिकारों से बंचित हैं और वे सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर गैरबराबरी एवं भेदभाव की शिकार हैं। 
आंकड़ों में महिलाओं की स्थिति एवं उनके अधिकार
 भारत में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है जबकि कुछ देशों में स्थिति इसके उलट है। भारत में सन् 1991 में 1000 पुरुषों पर सिर्फ 927 महिलाएं थीं जबकि सन् 2001 में 1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं थीं। इस असंतुलन के कई कारण हैं जिनमें नारी भ्रूण हत्या और बालिकाओं के साथ बचपन से ही होने वाले भेदभाव प्रमुख हैं।
 कई महिलाएं खराब पोषण के कारण अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठती हैं- वे एनीमिया से ग्रस्त और कुपोषित हो जाती हैं। लड़कियां और महिलाएं परिवार में पोषण संबंधी भेदभाव का सामना करती हैं और परिवार के सभी सदस्यों के खाना खा लेने के बाद बचा-खुचा भोजन खाती हैं।
 औसतन भारतीय महिलाएं 22 साल की उम्र से पहले ही पहले बच्चे को जन्म दे चुकी होती हैं। प्रजनन इच्छा और प्रजनन स्वास्थ्य पर भी उनका नियंत्रण नहीं होता है।
 हमारे देश में 65.5 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में सिर्फ 50 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं। लड़कों की तुलना में बहुत कम लड़कियां स्कूल जाती हैं। यहां तक कि जिन लड़कियों का स्कूल में दाखिला होता है उनमें से ज्यादातर को बाद में स्कूल से निकाल लिया जाता है।
 पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम पारिश्रमिक दिया जाता है। महिलाओं के श्रम को कम कर आंका जाता है और उनके श्रम की कोई पहचान नहीं होती है। ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां महिलाएं कृषिगत एवं अन्य कार्यों में पुरुषों के समान वेतन पाती हैं। महिलाओं की श्रम की अवधि पुरुषों की तुलना में अधिक लंबी होती है और उनके श्रम का घरेलू और सामाजिक कार्यों में अधिक योगदान होने के बावजूद उन्हें उनके श्रम के एवज में कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है और उनके श्रम को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
महिलाओं को सरकारी एवं गैर सरकारी विभागों में नीति निर्धारक एवं अन्य महत्वपूर्ण पदों एवं स्थानों पर प्रतिनिधित्व के बहुत कम अवसर दिये जाते हैं। वर्तमान में, विधायिका में 8 प्रतिशत से कम, कैबिनेट में 6 प्रतिशत से कम तथा उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में 4 प्रतिशत से भी कम सीटों पर महिलाएं विराजमान हैं। प्रशासनिक अधिकारियों और प्रबंधकों में 3 प्रतिशत से भी कम महिलाएं हैं।
 महिलाओं को भूमि और संपत्ति के अधिकारों में भी कानूनी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अधिकतर महिलाओं के नाम उनकी अपनी कोई संपत्ति नहीं होती है और वे पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं पाती हैं।
 महिलाओं को ताउम्र परिवार के अंदर और बाहर हिंसा, अत्याचार एवं भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पुलिस आंकड़ों से पता चलता है कि देश में हर 26 मिनट में एक महिला के साथ छेड़खानी होती है,, हर 34 मिनट में एक बलात्कार होता है, हर 42 मिनट में यौन प्रताड़ना की एक घटना होती है, हर 43 मिनट में एक महिला का अपहरण होता है और हर 93 मिनट में एक महिला मारी जाती है।
महिला पुरूष का बिगड़ता अनुपात
भारत में महिलाओं और बच्चों में स्वास्थ्य सुविधाओं और पोषण में काफी सुधार होने के कारण यहां आबादी में महिलाओं की संख्या में वृद्धि होने की संभावना व्यक्त की गई थी, लेकिन यहां उल्टा हुआ। पिछले 70 सालों में यहां महिला और पुरुष अनुपात और भी बिगड़ गया है। यह अनुपात यह बयान करता है कि भारत में अब भी महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिकता ही हासिल है। इन सब से यह साबित होता है कि भारत में महिलाओं को जन्म से लेकर उनकी जिंदगी की हर अवस्था में उन्हें उनके अधिकारों और हकों से वंचित किया जाता है और उनके साथ कई तरह के भेदभाव किये जाते हैं। 
गुम हो चुकी महिलाएं
भारत में यदि महिलाओं और पुरुषो के साथ समान व्यवहार किया जाता रहता तो यहां हर 100 पुरुष पर 105 महिलाएं हो सकती थीं। इस तरह यहां की एक अरब तीन करोड़ की वर्तमान आबादी में 51 करोड 20 लाख महिलाएं  हो सकती थी। जबकि नवीनतम अनुमान के अनुसार यहां की आबादी में अभी 49 करोड 60 लाख महिलाएं हैं। इससे यह पता चलता है कि भारत में तीन करोड़ 20 लाख महिलाएं गुम हो चुकी हैं। इनमें से कुछ को तो जन्म से पहले ही मार दिया गया और बाकी को जन्म के बाद के वर्षों में मारा गया और उनसे जीने का अवसर छीन लिया गया।
नारी भू्रण हत्या
इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़ा हमारा समाज एक तरफ जहां लड़कियों को बराबरी का दर्जा देने का दावा और वादा कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ बेटियों के प्रति इतना निष्ठुर भी होता जा रहा है कि उन्हें जन्म लेने के अधिकार से ही वंचित कर देने पर आमादा है। 
हालांकि 'मादा' शिशु की हत्या की वीभत्स प्रथा अब काफी कम हो गई है, लेकिन उसका स्थान अब नारी भ्रूण हत्या ने ले लिया है। ऐमनियोसेंटियोसिस और अल्ट्रासाउंड तकनीक ने जहां गर्भ में ही भ्रूण के लिंग परीक्षण को संभव बनाया है, वहीं ये तकनीकें कन्या भ्रूणों के लिए अभिशाप बन गई हैं। नारी भ्रूण हत्या और बचपन से लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव और तिरस्कार के मुख्य कारण समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति, दहेज प्रथा और पुरुष प्रधान मानसिकता हैं। 
प्रतिष्ठा के साथ जीवन
यहां कुछ और सवाल भी उठ सकते हैं। भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता का अर्थ क्या है? क्या वे इन अधिकारों को व्यवहार में लाकर प्रतिष्ठा के साथ रह सकती हैं? क्या वे अपनी संभावनाओं एवं क्षमताओं को विकसित करने, जो वे करना चाहती हैं उसे चुनने या जो वे बनना चाहती हैं वह बनने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या वे ज्ञान अर्जित करने, सृजनशाल बनने, कमाऊ बनने और लंबी तथा स्वस्थ जिंदगी जीने के लिये स्वतंत्र हैं? क्या वे हिंसा, भेदभाव, दवाबों, डर और अन्याय से सुरक्षित हैंं? क्या पुरुषों की तरह उन्हें समान शर्तों पर समान मौके चुनने एवं पाने के अधिकार दिये जाते हैं? इसका सार यह है कि आज भारतीय महिलाएं कितना स्वतंत्र हैं? वे पुरुषों के कितना समान हैं? दुर्भाग्य से, इन सवालों का सरल और सीधा जवाब नहीं है। स्वतंत्रता और समानता के विभिन्न आयामों एवं पहलुओं को आसानी से मापा नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर मानवीय प्रतिष्ठा, आत्म सम्मान, मानसिक और भावात्मक सुरक्षा और दूसरों की नजर में सम्मान महिलाओं की जिंदगी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इन्हें मापने के लिए हमारे पास कोई आसान रास्ता नहीं है। इसके बावजूद जीवन स्तर के कुछ ऐसे पहलू भी हैं जिन्हें मापा जा सकता है और इन पहलुओं के आधार पर महिलाओं की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। इन पहलुओं में जनसंख्या असंतुलन, सामाजिक प्रथायें, महिलाओं के प्रति सामाजिक व्यवहार, साक्षरता और स्वास्थ्य का स्तर, आर्थिक आत्मनिर्भरता, निजी एवं सार्वजनिक निर्णय निर्धारण में भूमिका, राजनीतिक वायदे आदि प्रमुख हैं। 


भारत में स्तन कैंसर का बढ़ता प्रकोप

महिलायें अपने रूप पर मुग्ध होते हुये दर्पण के समक्ष अपना काफी समय व्यतीत करती हैं लेकिन यह जानने के लिये अपने स्तन की निगरानी करने के लिये कुछ मिनट का भी समय लगाना भी गवारा नहीं करती कि उनके स्तन पर, उसके आसपास या कांख के क्षेत्र में कोई गांठ या सूजन अथवा स्तन कैंसर का कोई अन्य चिन्ह तो नहीं है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिशद (आई सी एम आर) के एक ताजा आंकड़े से पता चलता है कि भारत में महानगरों में महिलाओं में स्तन कैंसर का प्रकोप सबसे अधिक है और हर 22 भारतीय महिलाओं में से एक को उनके जीवन काल में स्तन कैंसर होने की आषंका होती है।
हमारे आधुनिक विष्व से होने वाले सभी आयातों में स्तन कैंसर की सबसे अधिक संदिग्ध स्थिति है। कभी अमीरों का रोग समझे जाने वाले स्तन कैंसर के प्रकोप ने आज विष्वव्यापी रूप धारण कर लिया है। मेडिकल कैंसर विषेशज्ञों का मानना है कि वे भारत में हर औसतन साल स्तन कैंसर के 80 हजार नये मरीजों को देखते हैं। एक अनुमान के अनुसार गत वर्श विष्व भर में स्तन कैंसर के 13 लाख नये मामलों का पता चला। 
''स्तन कैंसर हमारी आधुनिक जीवन षैली की ही देन है। षारीरिक व्यायाम नहीं करने, मोटापा, रक्त षर्करा, मधुमेह, देर से बच्चा पैदा होने, स्तनपान नहीं कराने के साथ-साथ कैंसर, यौन षिक्षा और प्रजनन स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का अभाव आपको स्तन कैंसर की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं।'' 
देषों का जितना अधिक आधुनिकीरण होगा, उतना ही अधिक महिलाओं में स्थूल तरीके से कार्य करने, देर से बच्चे पैदा करने, अपने प्रजनन जीवन को नियंत्रित करने तथा पष्चिमी खाद्य पदार्थों का सेवन करने की प्रवृति बढ़ेगी। इन कारणों के अलावा भविश्य में महिलाओं के जीवन प्रत्याषा में वृद्धि होने के कारण भी स्तर कैंसर के प्रकोप की दर में निःसंदेह वृद्धि होगी। यह जरूरी है कि महिलाओं में स्तन कैंसर के खतरे के प्रति जागरुकता बढ़ने के साथ-साथ स्तन कैंसर की पहचान एवं उसके उपचार के संबंध में सरकार और चिकित्सक समुदाय के अपेक्षाओं में भी वृद्धि हो। 
''स्तन कैंसर षुरुआती अवस्था में दर्द पैदा नहीं करता है, लेकिन जैसे-जैसे यह बढ़ता है वैसे-वैसे परिवर्तन पैदा करता है जिन्हें जल्द पहचाना जा सकता है। हर महिला के लिये जरूरी है कि वे स्तन कैंसर को जल्द से जल्द पहचानने के तरीकों पर अमल करें।'' ''समय पर इलाज कराने के फायदे हैं और यह नियम स्तन कैंसर में भी लागू होता है।'' 
''स्तन कैंसर का इलाज किया जा सकता है और इसे ठीक किया जा सकता है खास कर तब जब स्तन की स्वयं जांच (बी एस ई) और चिकित्सक द्वारा स्तन की क्लिनिकल जांच (सी बी ई) जैसे स्तन कैंसर के षीघ्र पहचान के तरीकों के जरिये इसे समय रहते ही पता लगा लिया जाये। स्तन कैंसर की पहचान जितनी जल्दी होगी, इसे खत्म करने की संभावना भी उतना ही अधिक होगी। मैमोग्राफी लाभदायक है और 40 साल की उम्र के बाद साल में एक बार या दो साल में एक बार मैमोग्राफी कराने की सलाह जाती है। 50 साल से अधिक उम्र की महिलाओं के लिए यह और भी लाभदायक है क्योंकि तब स्तन का घनत्व कम हो जाता है और धब्बों की पहचान अधिक आसानी से होती है।  
स्तन कैंसर को अक्सर पारिवार का रोग माना गया है लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि जिस परिवार में स्तन कैंसर का इतिहास नहीं है उस परिवार की महिलाएं इससे सुरक्षित हैं। पारिवारिक कारणों से 20 से 30 प्रतिषत महिलाओं मेंं ही स्तन कैंसर होता है जबकि 70 प्रतिषत से अधिक रोगियों में वैसी महिलाएं होती हैं जिनके परिवार में कैंसर का कोई इतिहास नहीं होता है। 
हाल के वर्शों में, स्तन कैंसर के इलाज के लिये जीवन रक्षक उपचार तकनीकों में क्रांतिकारी विकास हुया है जिससे नयी उम्मीद एवं उत्साह का सृजन हुआ है। एक या दो विकल्पों के बजाय आज इलाज के ऐसे अनेक विकल्प उपलब्ध हैं जिनकी मदद से हर महिला में स्तन कैंसर की विषिश्ट तरह की कोषिकाओं से लड़ा जा सकता है।


'' स्तन कैंसर का इलाज कैंसर की स्थिति पर निर्भर करता है। हर महिला की स्थिति एवं उनके कैंसर का स्तर अलग होता है। उपचार की जो विधि किसी एक महिला के अनुकूल है वह दूसरी महिला के लिये अनुकूल नहीं होता है।''


सर्जरी और उसके बाद संभवतः रेडिएषन, हारमोनल (एंटी-इस्ट्रोजेन) थिरेपी और/अथवा कीमोथिरेपी जैसे निर्णयों का स्तन कैंसर के उपचार में गहरा असर होता है। 
यह अक्सर देखा जाता है कि स्तर कैंसर के बाद जीवित बचने वाली मरीज वह जीवन नहीं जी पाती है जो उसने कैंसर का पता चलने से पहले जीया था। ये महिलायें इस आषंका को लेकर जीती हैं कि कहीं फिर से कैंसर नहीं हो जाये। यही नहीं उन्हें हृदय रोग होने के खतरे तथा पेरीफेरल न्यूरोपैथी एवं जोड़ों में दर्द जैसे कैंसर के उपचार के दीर्घकालिक दुश्प्रभाव हो सकते हैं। विषेश हारमोन थिरेपियां के कारण उन्हें इंडोमेट्रायल कैंसर होने का अधिक खतरा होता है। 
चिकित्सकों का अनुमान है कि कैंसर पीड़ित 20 महिलाओं में से से एक (पांच प्रतिषत) महिला में जब तक स्तन कैंसर का पता चलता है तब तक कैंसर षरीर के दूसरे हिस्सों में भी फैल चुका होता है। यह अक्सर देखा जाता है कि इनमें से हर पांच महिलाओं में से एक महिला (पांच प्रतिषत) कैंसर का पता चलने के बाद कम से कम पांच साल तक तथा  25 महिलाओं में से एक महिला (चार प्रतिषत) दस साल से अधिक समय तक जीती हैं। 


कितना कारगर होगा नया बाल विवाह कानून

''मैं उन बदनसीब हिंदू औरतों में हूं, जो बाल विवाह के बंधन में जकड़ दिये जाने के कारण न जाने कितने अनाम दुःख सहती है। बाल विवाह की इस क्रूर बुराई ने मेरी जिंदगी की खुशियां छीन ली। यह मेरे और मेरी ख्वाहिशों, यानी पढ़ाई और मानसिक विकास के बीच आ गई है। बेकसूरवार होने के बावजूद मैं एकाकीपन को अभिशप्त हूं। अपनी अनपढ़ बहनों से ऊपर उठने की मेरी हर इच्छा को शक की नजर से देखा जाता है और इसे बेहद गलत ढंग से पेश किया जाता है।''
बाल विवाह की शिकार हुई रुकमाबाई के एक पत्र का अंश जो 26 जून 1885 को ''टाइम्स ऑफ इंडिया'' में प्रकाशित हुआ था और जिसे जया सगाडे की पुस्तक ''चाइल्ड मैरिजेज इन इंडिया'' (ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित) में भी शामिल किया गया है।  
बाल विवाह के कारण अभिशप्त जीवन भोगने को विवश रूकमाबाई की व्यथा के सामने आने के एक सदी और 21 साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी आज आजाद भारत में लाखों अभागी लड़कियां बाल विवाह के बेड़ियों में जकड़ी हैं। आज से करीब 77 साल पहले 1927 में बाल विवाह की रोकथाम के लिये शारदा कानून के अस्तित्व में आने के बावजूद हमें शर्मसार करने वाला एक तथ्य यह है कि आज हमारे देश में जितनी लड़कियों की शादी होती है उनमें से 65 प्रतिशत लड़कियां 18 साल से भी कम उम्र की होती हैं। कुछ राज्यों में तो स्थिति और भी खराब है। बिहार में 84 प्रतिशत, राजस्थान में 82 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 80 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 80 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 79 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 65 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 62 प्रतिशत, कर्नाटक में 61 प्रतिशत, हरियाणा में 60 प्रतिशत, उड़ीसा में 58 प्रतिशत, गुजरात में 54 प्रतिशत, तमिलनाडु में 42 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 38 प्रतिशत, केरल में 27 प्रतिशत और पंजाब में 23 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही कर दी जाती है। बाल विवाह को रोकने के लिए जन्म और शादी का पंजीकरण अनिवार्य कर दिये जाने के बावजूद बाल विवाह कानून का कम ही पालन किया जाता है। 


बाल विवाह के खतरे

केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से हर बार ऐसे वक्तव्य जारी किये जाते हैं कि बाल विवाह गैरकानूनी है, लेकिन इसका लोगों पर बहुत कम ही प्रभाव पड़ता है। हर साल हजारों लड़कियों की शादी बाल्यावस्था में ही कर दी जाती है, शादी के बाद वह जल्द ही किशोरावस्था में पहुंच जाती हैं, और मां बन जाती हैं। यह सामाजिक प्रथा अनेक इलाकों में इस कदर जड़ जमाये हुए है कि लोग कम उम्र में होने वाली शादी के कारण वर-वधु के भविष्य तथा उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गंभीर दुष्प्रभावों के बारे में सोच भी नहीं पाते। लड़कियों की शादी मातृत्व के लिए शारीरिक और जैविक रूप से तैयार होने से पहले ही होने से उनके समय से पूर्व मां बनने का खतरा पैदा होता है। महिलाओं में अपनी प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण या गर्भधारण रोकने के लिए जरूरी जानकारियों के अभाव के कारण काफी महिलाएं अपनी शादी के पहले साल में ही गर्भवती हो जाती हैं। इस तरह 10-15 प्रतिशत महिलाओं को किशोरावस्था में ही बच्चे को जन्म देना पड़ता है। करीब 60 प्रतिशत शादीशुदा महिलाएं यहां तक कि केरल जैसे विकसित राज्यों में भी काफी महिलाएं 19 साल से पहले ही मां बन जाती हैं। 
बाल विवाह की परंपरा महिलाओं के अधिकारों का हनन करने के अलावा जन्म दर में तीव्र वृद्धि, निर्धनता, कुपोषण, अशिक्षा, शिशु मृत्यु दर और खासकर महिलाओं के जीने की संभाव्यता में कमी जैसी समस्यायें पैदा करती है। 
हाल में राजस्थान में पांच हजार से अधिक महिलाओं पर किये गए एक सर्वेक्षण में पता चला कि वहां 56 प्रतिशत लड़कियों की शादी 15 साल से कम उम्र में ही कर दी गई। उनमें से 18 प्रतिशत लड़कियां शिक्षित थीं और सिर्फ तीन प्रतिशत लड़कियां परिवार नियोजन के लिए बंध्याकरण के बजाय अन्य उपायों का इस्तेमाल कर रही थीं। इन महिलाओं के चार साल से कम उम्र के 63 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित थे।
हैदराबाद में महात्मा गांधी अस्पताल में 15 साल की एक लड़की को आपात कक्ष में लाया गया। उसे दौरे से पड़ रहे थे और वह दर्द से कराह रही थी। बाद में उस लड़की के बारे में डॉक्टर से बात करने पर डॉक्टर ने बताया कि उसे प्रसव पीड़ा हो रही है। उसका रक्त दाब बहुत अधिक है और चूंकि उसका शरीर अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ है इसलिए उसका पेल्विक का रास्ता बहुत संकरा है और बच्चा वहां फंस सकता है। इसलिए उसका प्रसव ऑपरेशन के जरिये कराया जाएगा। बाद में डॉक्टर ने बताया कि वह लड़की बहुत भाग्यशाली थी। उसके बचने की संभावना कम थी क्योंकि वैसी स्थिति में उसे दो सौ किलोमीटर दूर से अस्पताल लाया गया था। 
लेकिन अधिकतर माताएं वैसी परिस्थिति में भी घर पर ही बच्चे को जन्म देती हैं और अक्सर माता और बच्चे दोनों की मृत्यु हो जाती है। भारत में प्रसव से संबंधित माता ओर बच्चे की मृत्यु दर बहुत अधिक है। इसके अलावा यहां शादी के बाद लड़कियों की अन्य कारणों से होने वाली मृत्यु भी काफी अधिक है।


कार्डियोमायोपैथी का आपरेशन बगैर इलाज

- पद्मभूषण डा. पुरूषोत्तम लाल (डा.बी.सी राय राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित), निदेशक, मेट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इन्स्टीच्यूट, नौएडा


हाइपरट्रोपिक कार्डियोमयोपैथी हृदय मांसपेशियों की वंशानुगत बीमारी है जिससे मरीज की अचानक मौत तक हो सकती है। यह बीमारी हृदय मांसपेशियों की उन बीमारियों (कार्डियोमायोपैथी) में शुमार है जो हृदय की रक्त धमनियों की आम बीमारियों (कोरोनरी एथरोस्क्लेरोसिस) के विपरीत किसी भी उम्र यहां तक कि बचपन या युवावस्था में भी हो सकती है। 


कार्डियोमायोपैथी में हृदय की मांसपेशियां रक्त को पंप करने की क्षमता खो देती हैं। कुछ मरीजों में हृदय की लयबद्धता गड़बड़ा जाती है जिससे हृदय की धड़कन असामान्य हो जाती है। अभी तक हृदय की मांसपेशियों के कमजोर होने के कारणों का ठीक तरह से पता नहीं चल पाया है। अमरीका में करीब पचास हजार लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं। इस बीमारी के अनेक रोगी को हृदय का प्रत्यारोपण करने की भी जरूरत पड़ती है। 


कार्डियोमायोपैथी कई तरह की होती है जिसमें हाइपरट्रोपिक कार्डियोमायोपैथी का प्रकोप काफी अधिक है। यह बीमारी एथलीटों और शारीरिक श्रम करने वालों के लिये अचानक मौत का कारण बनती है। हाइपरट्रोपिक कार्डियोमायोपैथी में हृदय मांसपेशियों के फाइबर का विकास एवं समायोजन असामान्य होता है जिससे हृदय  की मांसपेशियां मोटी हो जाती हैं। इस बीमारी में मुख्य तौर पर हृदय के प्रमुख  पंपिंग चैम्बर (बायें निलय) खास तौर पर दांयें तथा बायें निलय (वेंट्रिकल) को विभाजित करने वाली दीवार(सेप्टम) में मोटापे की घटना होती है। हृदय मांसपेशियों के मोटे होने से पंपिंग चैम्बर का आकार छोटा हो जाता है और रक्त प्रवाह में रूकावट होती है। परिणामस्वरूप हृदय की पंपिंग क्षमता घट जाती है। 


यह बीमारी पुरुषों एवं महिलाओं दोनों को किसी भी उम्र में हो सकती है। इसके लक्षण आम तौर पर वयस्क होने पर प्रकट होते हैं। आम तौर पर इसके लक्षण 20 से 60 साल की उम्र के बीच प्रकट होते हैं लेकिन कुछ मरीजों में कोई अन्य लक्षण प्रकट हुये बगैर उनकी अचानक मौत हो जाती है। यह बीमारी पैदाइशी और वंशानुगत होती है। इसलिये जिस परिवार में इस रोग का इतिहास हो उस परिवार के सदस्यों को इस रोग के लिये नियमित जांच करानी चाहिये। 
इस बीमारी में छाती में तकलीफ, चक्कर, सांस लेने में दिक्कत, थकावट, कमजोरी, शारीरिक श्रम, भाग-दौड़ या व्यायाम के दौरान बेहोशी, हृदय की धड़कन बहुत अधिक बढ़ जाने जैसे लक्षण हो सकते है। बांये निलय में रक्त प्रवाह में रूकावट बढ़ने के साथ मरीज की हालत गंभीर होती जाती है। 


इस बीमारी की जांच की सबसे अच्छी विधि इकोकार्डियोग्राफी है। इसमें ध्वनि तरंगों की मदद से हृदय मांसपेशियों में मोटापे तथा हृदय की कार्यक्षमता का आकलन किया जा सकता है। इस बीमारी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिये रेडियो न्यूक्लियाइड अध्ययन किये जा सकते हैं। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर छाती के एक्स-रे, कार्डियेक कैथेराइजेशन और हृदय मांसपेशियों की बायोप्सी की मदद भी ली जा सकती है। 


इस बीमारी के इलाज के लिये आम तौर पर दवाइयों, पेस मेकर एवं सर्जरी की मदद ली जाती है। हाल में एंजियोप्लास्टी की तकनीक पर आधारित एक नयी विधि का भी इस्तेमाल होने लगा है जिसमें किसी भी तरह की चीर-फाड़ की जरूरत नहीं पड़ती और मरीज बहुत जल्द ठीक हो जाता है। इस बीमारी के आरंभिक अवस्था में बीटा ब्लाकर्स जैसी दवाइयों की मदद से हृदय की पंपिंग को धीमा करके मरीज को आराम पहुंचाया जाता है। इसके अलावा कैल्शियम चैनल ब्लाकर्स की मदद से हृदय पर रक्त दाब घटाया जाता है। एंटीएरिथमिक दवाइयों  की मदद से हृदय के रूकने की आशंका टाली जाती है।  हालांकि दवाइयों का सभी मरीजों में लाभ नहीं होता है और कुछ मरीजों में फेफड़े में पानी भर जाने, रक्त दाब गिर जाने और अचानक मौत होने जैसे इसके गंभीर दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। कुछ मरीजों को पेसमेकर और सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है। अभी हाल तक गंभीर रोगियों के लिये एकमात्र विकल्प ऑपरेशन ही था। ऑपरेशन के लिये हृदय को खोल कर हृदय की मांसपेशियों के बढ़े हुये भाग को काटना पड़ता है ताकि रक्त प्रवाह में रूकावट समाप्त हो जाये। 


इस बीमारी के इलाज के लिए बैलून एंजियोप्लास्टी आधारित एक नयी तकनीक का विकास हुआ है। इस तकनीक की मदद से चीर-फाड़ के बगैर हृदय की मांसपेशियों के अतिरिक्त हिस्से को निकाल लिया जाता है। इस तकनीक में एक्स - रे एवं इकोकार्डियोग्राफी की निगरानी में खास सेप्टम आर्टरी में गाइड वायर (तार) डाली जाती है। इसके बाद तार से प्रभावित भाग तक बैलून ले जाया जाता है और उसकी मदद से आर्टरी के अंदर शुद्ध अल्कोहल इंजेक्ट कर दिया जाता है। इससे हृदय मांसपेशियों का अतिरिक्त हिस्सा मृत हो जाता है। इस चिकित्सा से रक्त प्रवाह सुचारू हो जाता है। इस तकनीक से 90 प्रतिशत मरीजों में सफलता मिलती है। मरीज को मात्र दो-तीन दिन अस्पताल में रहना पड़ता है। यह तकनीक नयी है लेकिन बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है।


खरार्टे और स्लिप एप्निया लाइलाज नहीं समझें

खर्राटे भरने वाले व्यक्ति को दुत्कारा जाता है। कभी-कभी इसकी परिणति तलाक के रूप में होती है। ऐसे व्यक्ति अक्सर हास-परिहास के भी कारण बनते हैं। लेकिन दुनिया की लगभग आधी आबादी नींद में खर्राटे लेती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रत्येक 10 वयस्क में से एक व्यस्क खर्राटे अवश्य लेता है।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ ई. एन. टी. सर्जन डा. संदीप सिंधु बताते हैं कि खर्राटे लेने वालों में अधिकतर 40 वर्ष से अधिक उम्र के होते हैं। एक अध्ययन में पाया गया है कि किसी भी उम्र के लोगों मे यहां तक कि बच्चों में भी यह बीमारी हो सकती है हालांकि पुरुषों की तुलना में कम महिलाएं खर्राटे लेती हैं। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत पुरुष और 45 प्रतिशत महिलाएं नींद में खर्राटे लेते हैं। पुरुषों में 65 वर्ष की उम्र के बाद और महिलाओं में रजोनिवृति के बाद खर्राटे आने बढ़ जाते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती जाती है खर्राटे की आवाज भी बढ़ती जाती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि खर्राटे लेने वाले लगभग 80 प्रतिशत लोगों को यह पता नहीं होता कि वे नींद में खर्राटे लेते हैं।
डा. सिंधु के अनुसार कुछ साल पहले तक खर्राटे को एक सामान्य सामाजिक समस्या मानी जाती थी लेकिन हाल में किए गए कई अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि खर्राटे का संबंध उच्च रक्त चाप, हृदय रोग, मायोकार्डियल एवं ब्रेन इंफ्रैक्शन जैसी कई गंभीर बीमारियों से भी है। यही नहीं खर्राटे के कारण स्मरण शक्ति और एकाग्रता का Ðास, अनिद्रा, सुबह के समय सिर दर्द और थकावट, कार्य क्षमता का ह्रास, नपुंसकता तथा कार्य क्षमता में ह्रास जैसी कई समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं।
जब व्यक्ति सो रहा होता है तब उसकी जीभ पीछे की ओर पलट कर तालु से चिपक जाती है जिसके कारण सांस लेने के दौरान मुंह के भीतर आने वाली हवा के कारण जीभ और तालु में एक दूसरे के विरुद्व कंपन होता है जिससे खर्राटे आने लगते हैं।
डा. संदीप सिंधु बताते हैं कि खर्राटे की एक खतरनाक स्थिति अब्स्ट्रक्टिव स्लीप एप्निया है जिसके कारण हर साल कई लोग नींद में ही मौत के ग्रास बन जाते हैं। खर्राटे भरने वाले लगभग 30 प्रतिशत लोग इस खतरनाक बीमारी से ग्रस्त रहते हैं। इसमें गहरी नींद के दौरान जीभ पीछे की ओर पलट कर गले की मांसपेशियों के बीच इस कदर फंस जाती है कि व्यक्ति 10, 20 या 30 सेकेण्ड तक सांस ही नहीं ले पाता है। इस क्षणिक अवधि के दौरान कोई आवाज नहीं निकलती। लेकिन श्वास क्रिया बंद होते ही व्यक्ति की जीवन रक्षा पद्धति सक्रिय हो जाती है जिससे नींद खुल जाती है और व्यक्ति तुरन्त जीभ को आगे कर लेता है। इससे वायुमार्ग खुल जाता है और श्वसन आरम्भ हो जाता है। लेकिन जैसे ही व्यक्ति गहरी नींद में जाता है उक्त क्रिया फिर से शुरू हो जाती है।
अभी तक स्लीप एप्निया के कारणों का पूरी तरह से पता नहीं चला है, लेकिन कुछ विशेषज्ञों के अनुसार इस बीमारी के शिकार लोगों की सांस नली अपेक्षाकृत अधिक संकरी होती है। इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को कभी भी गहरी नींद नहींं आती और उसकी नींद बार-बार टूटती है। इसके अलावा ऐसे व्यक्ति को दिल के दौरे पड़ने और मस्तिष्क घात की अधिक आशंका होती है। नींद के दौरान बार-बार श्वसन अवरुद्व अथवा बंद होने के कारण व्यक्ति को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती जिससे हृदय को शरीर के सभी अंगों को ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति करने के लिए अत्यधिक मेहनत करनी पड़ती है जिससे हृदय को क्षति पहुंचती है। ऐसे लोगों का रक्त दाब भी ज्यादा हो जाता है।
गले में किसी भी तरह की सूजन यहां तक कि बढ़े हुए टांसिल और थायरॉयड की थोड़ी-बहुत समस्या के कारण भी खर्राटे आ सकते हैं। बच्चों में भी खर्राटे का एक बड़ा कारण गले की बनावट और टांसिल का बड़ा होना माना जाता है। सामान्य से 30 प्रतिशत ज्यादा स्थूल शरीर वालों को यह बीमारी अधिक सताती है। खास कर गर्दन में ज्यादा चर्बी होना बहुत नुकसानदायक साबित हो सकता है क्योंकि इससे गर्दन से ऊपर की ओर जाने वाली हवा के रास्ते (नलिकाएं) संकरे हो जाते हैं जिसके कारण खर्राटे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
कई बार खर्राटे का कारण नाक की हड्डी बढ़ना होता है जिसे ऑपरेशन द्वारा ठीक कर खर्राटे को रोका जा सकता है। कुछ लोग सोते समय नाक के बजाय मुंह से सांस लेने लगते हैं। जिसके कारण मुंह के अंदर गले के पास वाली त्वचा में कंपन होता है और आवाज उत्पन्न होती है। यह आवाज हमें खर्राटे के रूप में सुनाई पड़ती है। मुंह से सांस लेने का एक कारण पीठ के बल सोना है। जब व्यक्ति पीठ के बल गहरी नींद में सोया होता है तो उसकी जीभ पीछे की ओर गले की तरफ होती है जिससे श्वास नली कुछ हद तक अवरुद्ध हो जाती है और व्यक्ति को सांस लेने में कठिनाई होती है जिसके कारण खर्राटे की आवाज निकलती है। ऐसे व्यक्ति को अगर करवट करके सुला दिया जाए तो उसकी जीभ सही स्थिति में आ जाती है और उसके खर्राटे बंद हो जाते हैं।
स्लीप एप्निया और खर्राटे के स्थायी इलाज के लिये युवुलोपेलेटो प्लास्टी नामक ऑपरेशन का सहारा लिया जाता है जिसके तहत गले के भीतर की ढीली और लटकती मांसपेशियों को ऑपरेशन के जरिये ठीक कर दी जाती है ताकि वे श्वास के मार्ग में रूकावट नहीं डाल सकें। 
डा. सिंधु के अनुसार अब आधुनिक चिकित्सा के तहत ऑपरेशन के बजाय लेजर से खर्राटे तथा स्लीप एप्निया के स्थायी उपचार की कारगर तकनीक विकसित हुई है जिसे ''लौप'' अर्थात लेजर एसिस्टेड युवुलोपेलेटोप्लास्टी कहा जाता है। यह चिकित्सा इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल सहित देश के प्रमुख चिकित्सा केन्द्रों में उपलब्ध है। इस ऑपरेशन के लिये मरीज को अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ता। यह लेजर ऑपरेशन मरीज को बेहोश किये बगैर किया जा सकता है। ऑपरेशन के तुरन्त बाद मरीज बिना दिक्कत के सभी काम-काज सामान्य रूप से कर सकता है।
इस ऑपरेशन के जरिये तालु और जीभ के पिछले भाग के फालतू भाग को लेजर ऊर्जा के जरिये हटा दिया जाता है। इससे उनका आकार छोटा हो जाता है और नासा ग्रसनी (नैसोफेरिंगल) वायु मार्ग खुल जाता है। जरूरत पड़ने पर टांसिल, आवश्यकता से अधिक बड़े टर्बिनेट और जीभ के पीछे के हिस्से की खराबी को भी लेजर से ठीक कर दिया जाता है। 
लेजर आधारित इस ऑपरेशन के दुष्परिणाम नहीं के बराबर हैं। वैसे तो इस ऑपरेशन के दौरान बहुत ही कम रक्त बहता है लेकिन कुछ लोगों में ऑपरेशन के बाद रक्तस्त्राव होता रहता है, लेकिन इसे आसानी से नियंत्रित कर लिया जाता है। किसी भी रोगी को रक्त चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती। खर्राटे का लेजर से उपचार अत्यन्त आसान और कष्टरहित है। कुल मिलाकर लेजर ऑपरेशन से होने वाले दुष्परिणाम या दुष्प्रभाव परम्परागत् ऑपरेशन युवुलोपेलेटो फेरिंजोप्लास्टी की तुलना में नगण्य हैं। परम्परागत् ऑपरेशन के लिये मरीज को बेहोश करना पड़ता है और कई बार अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ती है। कई बार मरीज को खून चढ़ाने की जरूरत पड़ जाती है। 


छरहरा बनने के चक्कर में सेहत से खिलावाड़ करती महिलायें

फिल्मों और टेलीविजन के बढ़़ते प्रभाव के कारण छरहरा बनाने की अंधी होड़ न केवल कम उम्र की लड़कियों बल्कि उम्रदराज महिलाओं की सेहत पर कहर ढा रही है। ताजे अध्ययनों से पता चला है कि न केवल कम उम्र लड़कियां और युवतियां बल्कि साठ साल से अधिक उम्र की महिलायें अपने अपने वजन और शारीरिक आकार को लेकर दुखी और तनावग्रस्त रहने लगी हैं और इस चक्कर में वे खान-पान संबंधी अनिमितताओं (इटिंग डिसआर्डर) की शिकार हो जाती हैं।


हालांकि आम तौर पर खान-पान संबंधी अनिमितताओं से जुड़ी एनोरेक्सिया नरवोसा और बुल्मिया जैसी बीमारियों को मुख्य तौर पर किशोरियों एवं युवतियों की समस्याएं मानी जाती रहीं हैं, लेकिन कुछ ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं जिनसे पता चलता है कि मध्य वय और उससे अधिक उम्र की महिलाएं भी इटिंग डिसआर्डर की शिकार होती हैं और अपनी कद-काया को लेकर तनावग्रस्त रहती हैं। 


वैज्ञानिकों के अनुसार छरहरा बनने के चक्कर में डायटिंग और स्लिमिंग पिल्स जैसे उपायों का सहारा लेने के कारण आज लड़कियों और महिलाओं में एनोरेक्सिया नरवोसा, बुल्मिया, डिसमोर्फिया, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, बांझपन, हृदय रोग और डिप्रेशन जैसी स्वास्थ्य समस्यायें तेजी से बढ़ रही हैं। 


फिल्मों एवं टेलीविजन के बढ़ते प्रभाव के कारण आज ज्यादातर महिलायें मोटापा को अपना दुश्मन मानने लगी हैं। इस सोच के चलते वे खातीं क्योंकि उन्हें डर होता है कि  अधिक खाने से वे मोटी हो जाएंगीं। इस कारण आज 5-12 साल उम्र की बच्चियां के अलावा उम्रदराज महिलायें भी एनोरेक्सिया नरवोसा तथा डिसमोर्फिया जैसी गंभीर मानसिक बीमारियों से पीड़ित होकर मनोचिकित्सक से अपना इलाज करा रही हैं। इस प्रवृति को बढ़ाने में ब्यूटी पार्लरों, कॉस्मेटिक सर्जरी सेंटरों तथा स्लिमिंग केन्द्रों की भी मुख्य भूमिका है। 
आस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने हाल में किये गए एक अध्ययन में पाया कि 60 से 70 साल की 475 महिलाओं में से करीब 60 फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे अपने शरीर से असंतुष्ट हैं और करीब चार फीसदी महिलाएं इटिंग डिसआर्डर का इलाज करा रही थीं। इन्सब्रक मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और इस अध्ययन की प्रमुख डा. बारबरा मैंगवेथ मैटजेक के अनुसार आश्चर्यजनक बात तो यह है कि उम्रदराज महिलाओं की बड़ी संख्या में इटिंग डिसआर्डर से ग्रस्त होने के बावजूद चिकित्सक उनकी इस समस्या से अनभिज्ञ हैं। इसका कारण यह है कि उम्रदराज महिलाओं की शारीरिक बनावट और उनके इटिंग डिसआर्डर पर अब तक कोई अनुसंधान नहीं हुआ है। 


इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इटिंग डिसआर्डर के नवंबर 2006 के अंक में प्रकाशित इस शोध रिपोर्ट में मैंगवेथ मैटजेक और उनके सहयोगियों के अनुसार उन्होंने उम्रदराज महिलाओं शारीरिक बनावट और उनकी खाने की आदतों के लक्षण पर यह सर्वेक्षण किया। उन्होंने इस अध्ययन में पाया कि 60 फीसदी से अधिक महिलाएं अपने शरीर को लेकर असंतुष्ट थीं। इनमें वैसी महिलाएं भी शामिल थीं जिनका वजन सामान्य था। तकरीबन 90 फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे अपने शरीर में चर्बी महसूस कर रही हैं।


मैंगवेथ मैटजेक के अनुसार इस अध्ययन से इस विचार को बल मिलता है कि एक बार यदि कोई महिला स्लिम रहना चाहती है तो उसकी यह सोच उम्र के साथ भी खत्म नहीं होती है। बल्कि उम्र बढ़ने पर भी उनके विचार, इच्छाएं और पसंद पहले जैसे ही रहते हैं। 
इस अध्ययन में 18 महिलाएं या करीब 4 फीसदी महिलाएं अपने शरीर में विकृति महसूस कर रही थीं और उनमें इटिंग डिसआर्डर के लक्षण काफी अधिक थे। अन्य 4 फीसदी महिलाओं में इटिंग डिसआर्डर के एक ही लक्षण थे और अधिकतर महिलाओं का अपने खान-पान पर नियंत्रण था, या उनमें शिथिलता थी या वे वजन को कम करने के लिए डाइयुरेटिक्स का इस्तेमाल कर रही थीं।


मैंगवेथ मैटजेक के अनुसार उम्रदराज महिलाओं में इटिंग डिसआर्डर की पहचान करना बहुत चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उम्रदराज लोगों में उपापचय में परिवर्तन और वजन कम होते जाने के साथ-साथ कमजोरी भी सामान्य समस्या है। और इस समस्या को समझने के लिए अभी और भी अनुसंधान की जरूरत है।


आजकल लड़कियों और महिलाओं में छरहरा बनने की बढ़ती होड़ का फायदा उठाते हुये बड़े शहरों यहां तक कि कस्बों में वजन घटाने और छरहरा बनाने का दावा करने वाली स्लिमिंग क्लिनिकों की भरमार हो गयी है। लेकिन कई बार ऐसी क्लिनिक लड़कियों को छरहरा तो नहीं बनाती उन्हें अनेक बीमारियों से पीड़ित अवश्यक कर सकती हैं। ऐसी ज्यादातर क्लिनिकों में सुप्रशिक्षित आहार विशेषज्ञ भी नहीं होती जबकि इनका होना अत्यन्त आवश्यक होता है ताकि वे बता सकें कि स्लिमिंग पिल्स से वजन कम करने के दौरान किस तरह के खाद्य पदार्थ लेने चाहिए ताकि कम खाने के बावजूद व्यक्ति पर अधिक दुष्प्रभाव नहीं हो। स्लिमिंग पिल्स लेने से पहले व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक जांच भी जरूरी है। अगर व्यक्ति को कोई ऐसी बीमारी हो जिसमें स्लिमिंग पिल्स लेने पर बीमारी के बढ़ने या कोई अन्य बीमारी होने का खतरा हो तो ऐसी हालत में स्लिमिंग पिल्स लेने की सलाह नहीं देनी चाहिए। 


नयी दिल्ली स्थित विद्यासागर मानसिक एवं स्नायु रोग संस्थान (विमहांस) के मनोचिकित्सक डा. जीतेन्द्र नागपाल ेके पास हर महीने कम से कम दो लोग स्लिमिंग फिल्स का शिकार होकर आते हैं। यह एक नया चलन है और 15-30 वर्ष की आयु वालों में ज्यादा है। 
उनके अनुसार जब कोई व्यक्ति तक स्लिमिंग पिल्स लेता है, उसका वजन कम होता रहता है, लेकिन दवा का सेवन बंद कर देने पर उसका वजन पहले से भी अधिक हो जाता है क्योंकि दवा बंद करते ही उसकी भूख बढ़ जाती है और वह ज्यादा खाने लगता है। अगर कोई व्यक्ति बचपन से ही अपौष्टिक आहार ले रहा हो और अपना वजन कम करने के लिए स्लिमिंग पिल्स लेना शुरू कर दे तो कम खाने के कारण उसके शरीर में अनिवार्य पोषक तत्वों की कमी हो जाएगी और वह कुपोषण का शिकार हो जाएगा।


नयी दिल्ली स्थित दिल्ली साइक्रेटिक सेंटर के मनोविशेषज्ञ डा. सुनील मित्तल  के अनुसार कुछ युवतियां और महिलायें छरहरा दिखने और मोटापा कम करने के लिए स्लिमिंग पिल्स और डायटिंग के साथ- साथ व्यायाम का भी सहारा लेते हैं। वे खाने में कैलोरी तो कम लेते हैं लेकिन अपनी शारीरिक क्षमता से अधिक व्यायाम करते हैं जिससे कुछ ही दिनों में उनका वजन बहुत कम हो जाता है। लेकिन साथ ही वे अनेक बीमारियों से घिर जाते हैं। इनमें सबसे सामान्य बीमारी एनोरेक्सिया नरवोसा, बुलीमिया, डिसमोर्फिया आदि हैं। 


कई महिलायें बाजार में छरहरा बनाने के दावे के साथ बेची वाली दवाइयां भी आज काफी संख्या में उपलब्ध हो गयी है, लेकिन ये मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस में स्थित भूख को नियंत्रित करने वाले केन्द्र को प्रभावित करती हैं जिससे खाने की इच्छा कम हो जाती है और कम खाने के कारण व्यक्ति का वजन कम होने लगता है। इसके साथ ही ये दवाइयां कमजोरी, थकावट, हदय की धड़कन में असमान्य वृद्धि, अनिद्रा, कब्ज, डायरिया, जी मिचलाने, अवसाद (डिप्रेशन), आलस्य, कामेच्छा में कमी, चिड़चिड़ाहट, रक्त चाप में कमी या वद्धि, चेहरे में सूजन, यौन संबंधों में ठंडापन एवं बांझपन, दृष्टि भ्रम, मिजाज में अचानक परिवर्तन जैसी बीमारियां पैदा करती हैं।


 बच्चों के खरार्टे को मामूली नहीं समझें

कई माता-पिता अपने बच्चों की खर्राटे लेने की आदत को लड़कपन समझ बैठते हैं और इसे  को गंभीरता से नहीं लेते हैं। लेकिन जब बच्चे खासकर छोटे बच्चे के खर्राटे की आवाज तेज हो, तो आप सचेत हो जाएं, क्योंकि यह ऑब्सट्रक्टिव स्लिप एप्निया नामक जानलेवा स्थिति का संकेत हो सकता है। यह स्थिति नींद में मौत का कारण बन सकती है। खर्राटे भरने वाले लगभग 30 प्रतिशत बच्चे अब्स्ट्रक्टिव स्लीप एप्निया से ग्रस्त रहते हैं। इसमें गहरी नींद के दौरान जीभ पीछे की ओर पलट कर गले की मांसपेशियों के बीच इस कदर पफंस जाती है कि बच्चा 10 से 30 सेकेण्ड तक श्वसन सांस ही नहीं ले पाता है। इस क्षणिक अवधि के दौरान कोई आवाज नहीं निकलती। लेकिन श्वास क्रिया बंद होते ही बच्चे की जीवन रक्षा पद्धति सक्रिय हो जाती है जिससे नींद खुल जाती है और बच्चा जीभ को आगे कर लेता है। इससे वायुमार्ग खुल जाता है और श्वसन आरम्भ हो जाता है। लेकिन जैसे ही वह गहरी नींद में जाता है उक्त क्रिया फिर से शुरू हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार करीब आठ से 12 प्रतिशत बच्चे खर्राटे से जबकि करीब दो से तीन प्रतिशत बच्चे स्लिप एप्निया से पीड़ित होते हैं। अब्स्ट्रक्टिव स्लीप एप्निया से ग्रस्त लोगों के नींद में ही मौत हो जाने का खतरा बहुत अध्कि होता है। 
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ ई. एन. टी. सर्जन डा. संदीप सिंधु बताते हैं कि बच्चों में आब्स्टस्लिप स्लिप एप्निया के लक्षण स्पष्ट नहीं होते हैं इसलिए माता-पिता को बच्चों के व्यवहार एवं उनकी आदतों पर ध्यान रखना चाहिए, क्योकि हाइपरएक्टिविटी, ए डी एच डी, स्कूल में खराब प्रदर्शन, खर्राटे, मुंह से सांस लेने, बिस्तर गीला करने, असंयमित अथवा उग्र व्यवहार जैसे लक्षण आब्स्टस्लिप स्लिप एप्निया अथवा नींद संबंधी बीमारी के संकेत हो सकते हैं। 
बच्चों में अनिद्रा, खर्राटे और स्लिप एप्निया जैसी समस्याओं का शुरू में ही पता चल  जाने पर दवाइयों से ही इलाज किया जा सकता है। आम तौर पर बच्चों में स्लिप एप्निया का कारण साइनुसाइटिस, टांसिल अथवा एडेनॉयड का बड़ा होना हो सकता है। साइनुसाइटिस का इलाज एंटीबायोटिक दवाइयों से जबकि बढ़े हए एडेनॉयड का इलाज सर्जरी से किया जाता है। सर्जरी के जरिये प्रभावित टांसिल और एडेनॉयड को निकाल दिया जाता है। 
युवावस्था में खर्राटे को बिल्कुल नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। माध्यमिक स्कूल में खराब शैक्षणिक प्रदर्शन करने वाले बच्चों के बाल्यावस्था के शुरूआती अवस्था में ही खर्राटे से प्रभावित होने की संभावना होती है। खर्राटे लेने वाले युवा बच्चों के दमा और रात के समय कफ से भी प्रभावित होने की संभावना होती है। अमेरिकन कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजिशियन (एसीसीपी) द्वारा प्रकाशित चेस्ट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि स्कूल जाना शुरू नहीं करने वाले खर्राटे लेने वाले 40 प्रतिशत बच्चों में रात में कफ की समस्या विकसित हो गई और जांच करने में उनमें दमा पाया गया।  
खर्राटे लेने वाले माता-पिता के बच्चों में खर्राटे की अधिक संभावना होती है। चेस्ट जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार खर्राटे नहीं लेने वाले माता-पिता के बच्चे की तुलना में माता-पिता में से किसी एक के भी खर्राटे लेने पर उनके बच्चे में खर्राटे की संभावना तीन गुना बढ़ जाती है। इस अध्ययन से इस बात को बल मिलता है कि खर्राटे में आनुवांशिक कारकों का भी योगदान होता है। 
दरअसल खर्राटे स्लिप डिसआर्डर ब्रिदिंग का प्राथमिक लक्षण है। बच्चों में इसका संबंध सीखने की अक्षमता, चयापचय और कार्डियोवैस्कुलर डिसआर्डर से भी होता है। खर्राटे की शुरूआती अवस्था में ही पहचान और इलाज से बच्चों में स्लिप डिसआर्डर ब्रिदिंग के कारण मृत्यु की आशंका को कम किया जा सकता है। 
डा. संदीप सिंधु की सलाह है कि एक साल से अधिक उम्र के बच्चे यदि खर्राटे लेते हैं तो रूटीन जांच में डॉक्टर को यह बात अवश्य बतानी चाहिए और ऐसी स्थिति में डॉक्टर को बच्चे की जरूरी जांच अवश्य कराना चाहिए क्योंकि गंभीर खर्राटे अक्सर आब्सट्रक्टिव स्लिप एप्निया सिंड्रोम के लक्षण होते हैं। इसमें श्वांस नली के उतक अस्थायी रूप से बीमार हो जाते हैं जिससे पूरी रात सांस लेने में बाधा आती है। लेकिन स्लिप एप्निया के बगैर भी गंभीर खर्राटे अपने आप में एक समस्या है। मोटापा इस खतरे को और बढ़ा सकते हैं। श्वांस नली के चारों ओर वसा के जमा होने से यह नली संकुचित हो जाती है और पेट में जमा वसा डायफ्राम को सहीं ढंग से काम करने में बाधा पहुंचाता है। 20 से 40 प्रतिशत मोटे बच्चे आब्सट्रक्टिव स्लिप एप्निया सिंड्रोम से प्रभावित होते हैं।
युवाओं की तरह ही जिन बच्चों की खर्राटे लेने की आदत होती है, यहां तक कि जिनमें स्लिप एप्निया की शिकायत नहीं होती है, वे रात में गहरी नींद नहीं सो पाते हैं, जिसके कारण वे दिन भर सुस्ती महसूस करते हैं। सुस्ती महसूस करने वाले कुछ बच्चे अन्य बच्चों की तरह दौड़-धूप नहीं कर पाते हैं।
यदि कोई बच्चा आब्सट्रक्टिव स्लिप एप्निया सिंड्रोम से पीड़ित है तो उसे ऑक्सीजन बहुत कम मात्रा में, लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड बहुत अधिक मात्रा में मिलने लगता है। इससे उसके हृदय और फेफड़े के विकास तो प्रभावित होते ही है, उसे व्यवहार संबंधी समस्याएं भी हो जाती हैं और इलाज नहीं कराने पर उसकी मृत्यु भी हो सकती है। लेकिन यदि इसका पता शुरूआती अवस्था में ही चल जाए तो रोगी पूरी तरह से ठीक हो सकता है।
डा. संदीप सिंधु नई दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में वरिष्ठ ई.एन.टी. चिकित्सक हैं। इससे पूर्व वह नयी दिल्ली के ही सफदरजंग अस्पताल एवं सर गंगाराम अस्पताल में काम कर चुके हैं। उनसे निम्नलिखित फोन नम्बरों पर सम्पर्क किया जा सकता है। 


कानून नहीं होने की आड़ में अस्पतालों में मरीजों की जान से खिलवाड़ 

नयी दिल्ली। भारत में मरीजों की जान समुचित कानून के अभाव में चिकित्सकों एवं स्वास्थ्यकर्मियों की मेहरबानी पर टिकी हैं। देश में ज्यादातर अस्पतालों में शल्य क्रियाओं एवं इंडोस्कोपी जैसी चिकित्सकीय प्रक्रियाओं के दौरान वैसे उपकरणों (सिंगल यूज डिवाइसेस) का दोबारा इस्तेमाल हो रहा है जो केवल एक बार इस्तेमाल के लिये बनाये गये हैं। ऐेसे उपकरणों को संशोधित (रिप्रोसेस) करके दोबारा इस्तेमाल किये जाने के कारण मरीज हेपेटाइटिस और एच.आई.वी. से ग्रस्त होने के खतरे को झेल रहे हैं। 
विश्व के अन्य देशों में कड़े कानून होने के कारण रिप्रोसेस किये हुये सिंगल यूज डिवाइसेस के दोबारा इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन भारत में इस संबंध कोई कानून नहीं होने के कारण यह सिलसिला बेरोकटोक चल रहा है। यह पाया गया है कि अस्पतालों में सर्जरी एवं अन्य चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से पूर्व मरीजों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती कि उनपर किस तरह के उपकरण इस्तेमाल में लाये जायेंगे। उनसे यह पूछा नहीं जाता है कि अपनी सर्जरी अथवा चिकित्सकीय प्रक्रियाओं के लिये वे बिल्कुल नये उपकरण चाहते हैं अथवा पूर्व में इस्तेमाल में लाये गये उपकरण। लेकिन इस बारे में कानून बन जाने पर स्वास्थ्यकर्मी मरीजों पर रिप्रोसेस किये हुये सिंगल यूज डिवाइसेस का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे। 
वालेंटरी आरगेनाइजेशन इन इंटरेस्ट आफ कंज्युमर एजुकेशन (वॉयस) ने उपभोक्ता संरक्षण  अभियान के तहत देश के अस्पतालों में सिंगल यूज डिवाइसेस के दोबारा इस्तेमाल के संबंध में मरीजों की सहमति लेने की व्यवस्था कायम किये जाने का आह्वान किया है। वॉयस की ओर से किये गये एक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि चिकित्सक मरीजों को कोई जानकारी दिये बगैर या उनकी सहमति लिये बगैर पूर्व में इस्तेमाल की गयी सिंगल यूज बायप्सी फोरसेप्स का इस्तेमाल करते हैं लेकिन अपने सगे - संबंधियों के लिये बिल्कुल नयी बायप्सी फारसेप्स को चुनते हैं। 
वॉयस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री बेजॉन मिश्रा बताते हैं, '' हमने अपने सर्वेक्षण में यह पाया  कि अस्पतालों में मरीजों को यह नहीं बताया जाता है कि उनकी सर्जरी में इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरण क्या पहले किसी अन्य मरीज की सर्जरी के लिये भी उपयोग में लाये जा चुके हैं। मेरा मानना है कि यह बहुत महत्वपूर्ण बात है जिसे मरीज को बतायी जानी चाहिये। ''
उन्होंने कहा कि मरीजों को सिंगल यूज डिवाइसेस को रिप्रोसेस करके दोबारा इस्तेमाल में लाये जाने के बारे में अपनी सहमति या असहमति देने का मौका दिया जाना चाहिये। यहां तक कि चिकित्सकीय प्रक्रियाओं और उपकरणों के चुनाव में मरीजों की भी भागीदारी होनी चाहिये। 
सिंगल यूज डिवाइसेस वैसे उपकरण हैं जो शरीर के किसी हिस्से पर केवल एक बार इस्तेमाल के लिये बनाये जाते हैं। प्रथम इस्तेमाल में ही मरीज के रक्त एवं अन्य तरह के शारीरिक तरल पदार्थों के संपर्क में आ जाने के कारण ये उपकरण पूरी तरह से बेकार हो जाते हैं। इन उपकरणों में छोटे-छोटे दरार, छल्ले और जोड़ होने के कारण इन्हें समुचित रूप से साफ और किटाणुरहित करना मुश्किल होता है। दरअसल इन्हें दोबारा साफ तथा किटाणुरहित करने के लिये बनाया नहीं ही नहीं जाता है और इस कारण जब इन्हें रिप्रोसेस करके दोबारा इस्तेमाल किया जाता है तो इनकी कार्यक्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। 
सिंगल यूज डिवाइसेस को लेकर हुये अध्ययनों से पता चला है कि एक बार इस्तेमाल के बाद उन पर उतक और शारीरिक तरल रह जाते हैं, ये पूरी तरह से किटाणु रहित नहीं हो पाते और उनकी कारगरता खत्म हो जाती है। यह भी पाया गया है कि रिप्रोसेसिंग की सामान्य स्टेरेलाइजेशन तकनीकें ऐसे उपकरणों पर से जैविक उतकों के अवशेषों को हटाने में सक्षम नहीं हो पाती हैं इस कारण इनपर अत्यंत नुकसानदायक रोगाणु , विषाणु और अन्य सूक्ष्म जीवाणु रह जाते है इस कारण जब इनका दोबारा इस्तेमाल किया जाता है तक ये जीवाणु दूसरे मरीज के शरीर में जा सकते हैं। 


मध्य प्रदेश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शीर्ष 3 बेस्‍ट वेल्‍यू डेस्‍ट‍िनेशन में शामिल

मध्य प्रदेश विश्‍व के शीर्ष 3 बेस्ट वैल्यू डेस्टिनेशन में से एक। लोनली प्‍लानेट द्वारा जारी की गई बेस्‍ट वेल्‍यू डेस्‍ट‍िनेशन 2020 की रैंकिंग में मध्‍य प्रदेश को तीसरा स्‍थान प्राप्‍त हुआ। मध्‍य प्रदेश भारत का एक मात्र ऐसा राज्‍य है जिसे इस विश्‍व स्‍तरीय रैंकिंग में शीर्ष स्‍थान मिला है। मध्‍य प्रदेश में पर्यटन की विविधता, मध्‍य प्रदेश में सभी पर्यटकों (राष्‍ट्रीय / अंतर्राष्‍ट्रीय) की रुचि के अनुसार पर्यटन की अपार संभावनाए उपलब्‍ध है, राज्य में समृद्ध वन्यजीव अनुभव, अद्भुत विरासत, दिव्य तीर्थ स्थान और हर किसी के स्वाद के अनुरूप भोजन की उपलब्‍धता है। साथ ही मध्‍य भारत में स्‍थित इस राज्‍य की हवाई, रेल तथा सड़क मार्ग सेवा उपलब्‍ध है, तथा मध्‍य प्रदेश पर्यटन विभाग द्वारा पर्यटन के लिए मध्य भारत आने वाले यात्रियों को दी जाने वाली उच्‍च स्‍तरीय यात्रा सुविधाओं के कारण मध्‍य प्रदेश को यह गौरव प्राप्‍त हुआ।


लोनली प्लैनेट एक अग्रणी ट्रैवल मीडिया कंपनी और दुनिया का नंबर एक ट्रैवल गाइडबुक ब्रांड है, जो 1973 से हर तरह के यात्रीयों के लिए प्रेरणादायक और भरोसेमंद जानकारी प्रदान करता है।


हर साल, लोनली प्लैनेट के संपादकों तथा शोधकर्ताओं द्वारा स्थानीय लोगों और प्रभावितों के विशाल समुदाय के साथ नामांकन कर न्‍यायधीशों के एक पैनल द्वारा आने वाले वर्ष में यात्रा करने के लिए अद्वितीय, सम्मोहक और सामयिक कारणों के आधार पर गंतव्य की रैंकिंग की जाती है।


मध्य प्रदेश पर्यटन बोर्ड के अधिकारियों ने कहा कि यह हमारे लिए बहुत गर्व का विषय है कि मध्य प्रदेश पर्यटन को दुनिया के शीर्ष 3 सर्वश्रेष्ठ बेस्‍ट वेल्‍यू डेस्टिनेशन के तहत स्थान मिला है, मध्य प्रदेश पर्यटन ने हमेशा लोगों के समर्थन की सराहना की है और नए मील के पत्थर बनाने में उनके प्रयासों को स्वीकार किया है। हम विभिन्न रूपों में पर्यटन उद्योग के योगदान की बहुत सराहना करते हैं और हमेशा आतिथ्य और सेवाओं के क्षेत्र में नए अंतर्राष्ट्रीय मानक स्थापित करने का प्रयास करते हैं।”


मध्य प्रदेश में जानलेवा होता वायु प्रदूषण, लोगों के जीवनकाल में कम हो गए 3.6 वर्ष

एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स के अनुसार भोपाल, भिंड, मुरैना के लोग क्रमशः 3 वर्ष, 7.6 वर्ष और 6.7 वर्ष ज्यादा जी सकते थे, अगर वायु गुणवत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के अनुरूप होती


भोपाल: शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका की शोध संस्था 'एपिक' (Energy Policy Institute at the University of Chicago-EPIC) द्वारा तैयार 'वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक' (Air Quality Life Index - AQLI) का नया विश्लेषण दर्शाता है कि मध्य प्रदेश में  वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति राज्य के नागरिकों की जीवन प्रत्याशा  (Life Expectancy) औसतन 3.6 वर्ष कम करती है, और जीवन प्रत्याशा में उम्र बढ़ सकती है अगर यहां के वायुमंडल में प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों एवं धूलकणों की सघनता 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर (विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताया गया सुरक्षित मानक) के सापेक्ष हो। एक्यूएलआई के आंकड़ों के अनुसार भोपाल के लोग 3 वर्ष ज्यादा जी सकते थे, अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) के दिशानिर्देशों को हासिल कर लिया जाता। वर्ष 1998 में, इसी वायु गुणवत्ता मानक को पूरा करने से जीवन प्रत्याशा में 1.5 साल की बढ़ोतरी होती। लेकिन भोपाल राज्य में प्रदूषित जिलों की सूची में शीर्ष पर नहीं है। मध्य प्रदेश के अन्य जिले और शहर के लोगों का जीवनकाल घट रहा है और वे बीमार जीवन जी रहे हैं। उदाहरण के लिए भिंड के लोगों के जीवनकाल में 7.6 साल की बढ़ोतरी होती, अगर वहां विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का अनुपालन किया जाता। इसी तरह मुरैना, शिवपुर, सतना, शिवपुरी, टीकमगढ़ और सिंगरौली भी इस सूची में पीछे नहीं हैं, जहां के लोगों की जीवन प्रत्याशा में क्रमशः 6.7 वर्ष, 4.4 वर्ष, 4.2 वर्ष, 4.2 वर्ष, 4.2 वर्ष, और 3.9 वर्ष की वृद्धि होती, अगर लोग स्वच्छ और सुरक्षित हवा में सांस लेते।


दरअसल वायु प्रदूषण पूरे भारत में एक बड़ी चुनौती है, लेकिन उत्तरी भारत के गंगा के मैदानी इलाके (Indo-Gangetic Plain), जहां बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख राज्य और केंद्र शासित प्रदेश आते हैं, में यह स्पष्ट रूप से अलग दिखता है। वर्ष 1998 में गंगा के मैदानी इलाकों से बाहर के राज्यों में निवास कर रहे लोगों ने उत्तरी भारत के लोगों के मुकाबले अपने जीवनकाल में करीब 1.2 वर्ष की कमी देखी होती, अगर वायु की गुणवत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक को अनुरूप हुई होती। अब यह आंकड़ा बढ़ कर 2.6 वर्ष हो चुका है, और इसमें गिरावट आ रही है, लेकिन गंगा के मैदानी इलाकों की वर्तमान स्थिति के मुकाबले यह थोड़ी ठीकठाक है।


एक्यूएलआई के अनुसार भारत के उत्तरी क्षेत्र यानी गंगा के मैदानी इलाके में रह रहे लोगों की जीवन प्रत्याशा करीब 7 वर्ष कम होने की आशंका है, क्योंकि इन इलाकों के वायुमंडल में 'प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों और धूलकणों से होने वाला वायु प्रदूषण' यानी पार्टिकुलेट पॉल्यूशन (Particulate Pollution) विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय दिशानिर्देशों को हासिल करने में विफल रहा है। शोध अध्ययनों के अनुसार इसका कारण यह है कि वर्ष 1998 से 2016 में गंगा के मैदानी इलाके में वायु प्रदूषण 72 प्रतिशत बढ़ गया, जहां भारत की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी रहती है। वर्ष 1998 में लोगों के जीवन पर वायु प्रदूषण का प्रभाव आज के मुकाबले आधा होता और उस समय लोगों की जीवन प्रत्याशा में 3.7 वर्ष की कमी हुई होती।


इन निष्कर्षों की घोषणा 'एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स' के मंच पर इसके हिंदी संस्करण में विमोचन करने के दौरान की गई, ताकि वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक उस 'पार्टिकुलेट पॉल्यूशन' पर अधिकाधिक नागरिकों और नीति-निर्माताओं को जागरूक और सूचनासंपन्न बना सके, जो पूरी दुनिया में मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है।


शिकागो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के मिल्टन फ्राइडमैन प्रतिष्ठित सेवा प्रोफेसर और एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (EPIC) के निदेशक डॉ माइकल ग्रीनस्टोन ने कहा कि ''एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स के हिंदी संस्करण की शुरुआत के साथ, करोड़ों लोग यह जानने-समझने में समर्थ हो पाएंगे कि कैसे पार्टिकुलेट पॉल्यूशन उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है, और सबसे जरूरी यह बात जान पाएंगे कि कैसे वायु प्रदूषण से संबंधित नीतियां जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में व्यापक बदलाव पैदा कर सकती हैं।''


अगर भारत अपने 'राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम' (National Clean Air Program-NCAP) के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल रहा और वायु प्रदूषण स्तर में करीब 25 प्रतिशत की कमी को बरकरार रखने में कामयाब रहा, तो 'एक्यूएलआई' यह दर्शाता है कि वायु गुणवत्ता में इस सुधार से आम भारतीयों की जीवन प्रत्याशा औसतन 1.3 वर्ष बढ़ जाएगी। वहीं उत्तरी भारत के गंगा के मैदानी इलाकों में निवास कर रहे लोगों को अपने जीवनकाल में करीब 2 वर्ष के समय का फायदा होगा।


आज दिल्ली में 'एक्यूएलआई' के हिंदी संस्करण के विमोचन के अवसर पर माननीय सांसद और 'वैश्विक युवा नेता, विश्व आर्थिक मंच' (Young Global Leader, World Economic Forum) श्री गौरव गोगोई ने कहा कि ''अव्वल दर्जे की रिसर्च यह संकेत करती है कि वायु प्रदूषण में कमी और जीवनकाल में वृद्धि के बीच स्पष्ट संबंध है। स्वच्छ वायु की मांग के लिए नागरिकों के बीच जागरूकता बेहद महत्वपूर्ण है और एक्यूएलआई सही दिशा में एक कदम है। मैं 1981 के वायु अधिनियम (Air Act) में संशोधन के लिए संसद में एक निजी विधेयक प्रस्तावित कर रहा हूं, जो बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण पैदा हो रहे स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों को रेखांकित करता है।''


एक्यूएलआई से संबंधित स्टडी समकक्ष-विशेषज्ञों के मूल्यांकन एवं अध्ययनों पर आधारित है, जिसे प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन और सह-लेखकों एवं शोधार्थियों की टीम ने चीन के 'यूनिक नैचुरल एक्सपेरिमेंट' (Unique Natural Experiment) से प्रेरित होकर तैयार किया है, जो चीन के 'हुएई रिवर विंटर हीटिंग पॉलिसी' से जुड़ी है। इस 'प्राकृतिक प्रयोग' ने उन्हें वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों को अन्य कारकों से अलग करने का मौका दिया, जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं और इसी क्रम में उन्होंने भारत तथा उन देशों में यह अध्ययन किया, जहां आज प्रदूषित सूक्ष्म तत्वों और धूलकणों की सघनता सबसे ज्यादा है। फिर उन्होंने इन अध्ययनों के परिणामों को विविध क्षेत्रों में बेहद स्थानीय स्तर पर 'वैश्विक सूक्ष्म प्रदूषक मापदंडों' (Global Particulate Pollution Measurement) के साथ संयुक्त रूप से जोड़ दिया। इससे उपयोगकर्ताओं को दुनिया के किसी क्षेत्र या जिले से संबंधित आंकड़ों पर दृष्टिपात करने का अवसर मिलता है और उनके जिले में स्थानीय वायु प्रदूषण के स्तर से उनके जीवन प्रत्याशा पर पड़ रहे प्रभावों को समझने में मदद मिलती है।


 


ज्यादा पानी पीने वाले ध्यान दें...


डा. दिप्ती तेजस, विभाग प्रमुख—हेल्थकेयर, रिसेट, बेंगलूर


क्या आप भी शरीर में तरलता (हाइड्रेशन) बनाए रखने के लिए बहुत ज्यादा पानी पीते हैं? यदि हां, तो सावधान हो जाएं और तुरंत ऐसा करना बंद करें!


क्या आपने कभी यह सोचा है कि पानी को आमतौर पर जीवन का पर्याय क्यों बताया जाता है? 'जल ही जीवन', ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें इंसान के अस्तित्व के लिए जरूरी सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व मौजूद होते हैं। पानी हमारे शरीर में लगभग पूरी पाचन या चयापचय क्रिया (मेटाबॉलिक प्रोसेस) में शामिल होता है।


अक्सर हम एक्सपर्ट्स से पूछते हैं कि हमें कितना पानी पीना चाहिए? दरअसल पानी की मात्रा का ऐसा कोई तय पैमाना नहीं है जो सभी के लिए सही हो। फिर भी आमतौर पर एक दिन में लगभग ढाई से तीन लीटर या आठ से 10 ग्लास पानी पीने की सलाह दी जाती है।


क्यों ओवर हाइड्रेशन भी शरीर और सेहत के लिए अच्छा नहीं है, इससे कई समस्याएं हो सकती हैंः


o             बार-बार पेशाब करना


o             बार-बार सिर में दर्द होना- दरअसल ओवर हाइड्रेशन से दिमाग की कोशिकाओं में सूजन आ जाती है, जिससे सिर पर दबाव बढ़ता है और दर्द होता है।


o             होठों, पैरों या हाथों में सूजन


o             जी मिचलाना, उल्टी होना, शरीर में ऐंठन, लगातार थकान, कोमा जैसी समस्या भी हो सकती है।


ओवर हाइड्रेशन से कई समस्याएं हो सकती हैं और शरीर की क्रियाप्रणाली पर भी इसका असर पड़ सकता है। ओवर हाइड्रेशन के कुछ दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं।


Hyponatremia: Drinking Too Much Water Can Kill You : Interview with Dr. Upendra Singh




 वॉटर पॉइजनिंग (जल विषाक्तता)


वॉटर पॉइजनिंग का मतलब आवश्यकता से अधिक पानी पीने से शरीर में खनिजों की मात्रा असंतुलित होने से है। जैसे हाइपोनाट्रेमिया (सोडियम की कमी होना) आदि। कोशिकाओं में नमक की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है और इसके घुल जाने से उनमें सूजन आ सकती है। स्थिति गंभीर होने पर दिमाग की कोशिकाओं में भी जलजमाव हो सकता है जिसका असर पूरे शरीर की क्रियाप्रणाली पर पड़ सकता है।



  1. उल्टी-दस्त


शरीर में पानी की कमी (डि-हाइड्रेशन) या अधिकता (ओवर हाइड्रेशन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों के कई लक्षण भी समान हैं। जैसे- जी मिचलाना, उल्टी होना, सिर दर्द आदि। इन लक्षणों में शरीर का पानी सोडियम और पोटेशियम जैसे महत्वपूर्ण खनिजों को तरल बनाकर शरीर से बाहर निकाल सकता है। इससे असंतुलन पैदा होता है और उल्टी या दस्त जैसी समस्याएं हो सकती हैं क्योंकि गुर्दे (किडनियां) शरीर में मौजूद पानी की अतिरिक्त मात्रा को सहेजने में सक्षम नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में खनिजों की आपूर्ति ठीक करने की जरूरत होती है।




  1. हृदय पर अत्यधिक दबाव


बहुत अधिक पानी पीने से शरीर की कोशिकाओं में मौजूद नमक तरल बन सकता है, कोशिकाओं में पानी भर जाता है और उनका आकार बढ़ जाता है। ऐसा आमतौर पर नहीं होता है लेकिन फिर भी ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है। इसका स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। अगर ठीक समय पर ध्यान नहीं दिया जाए तो यह जानलेवा भी हो सकता है। पूरे शरीर की कोशिकाओं में सूजन आने से हृदय पर रक्तसंचार (ब्लड पंपिंग) का दबाव बढ़ता है। वहीं शरीर में सोडियम की कमी होने से ब्लड प्रेशर कम होता है जिसका असर हृदय की रक्तसंचार क्षमता पर पड़ता है।



  1. पोटेशियम के स्तर में गिरावट


पोटेशियम एक प्रकार का खनिज पदार्थ है। यह कोशिकाओं के अंदर और बाहर आयनों के विनिमय (आयन एक्सचेंज) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे तंत्रिका कोशिकाओं को मांसपेशियों के संकुचन और आराम जैसी प्रक्रियाओं पर नियंत्रण में मदद मिलती है। ओवर-हाइड्रेशन से शरीर में खनिजों का असंतुलन हो जाता है। शरीर में पानी की मात्रा अधिक होने से सोडियम और पोटेशियम जैसे खनिज तरल रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं जिससे कोशिकाओं में ऐंठन और सूजन जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं।


किसी भी चीज की अति शरीर के लिए खराब होती है, चाहे वह पानी हो! सही मात्रा में पियें।