हर्निया का माइक्रोस्कोपी उपचार
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महिला ने फाइब्रॉएड निकाले जाने के बाद बच्चे को जन्म दिया
दिल्ली की एक महिला ने लैपरोस्कोपी सर्जरी के जरिये 1.4 किलोग्राम के फाइब्रॉएड को निकाले जाने के बाद हाल ही में गर्भ धारण कर एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया है। इससे गर्भाशय के फाइब्रॉएड से पीड़ित कई महिलाओं में उम्मीद पैदा हो सकती है।
श्रीमती रेखा दीक्षित (बदला हुआ नाम) की तीन साल पहले शादी हुई थी, लेकिन वह गर्भ धारण नहीं कर पा रही थीं। जांच में उनके गर्भाशय में बड़े फाइब्रॉएड पाये गये। उन्होंने कैलाश कॉलोनी स्थित नोवा स्पेशियलिटी हॉस्पिटल्स में फाइब्रॉएड को निकलवाने के लिए लैपरोस्कोपी सर्जरी करायी और एक सप्ताह के अंदर वह अपने काम पर वापस आ गयीं। कई फाइब्रॉएड से पीड़ित किसी महिला को लैपरोस्कोपी से फाइब्रॉएड को निकलवाने पर उसके गर्भाशय को निकालने की जरूरत नहीं पड़ती है।
श्रीमती दीक्षित ने जनवरी 2014 में गर्भ धारण किया और वह चेकअप के लिए नियमित रूप से हॉस्पिटल आती रहीं। उन्हें पूर्व नियोजित योजना के तहत 6 अक्टूबर, 2014 को सी-सेक्शन के लिए हॉस्पिटल में भर्ती किया गया और उन्होंने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया।
इस सर्जरी को अंजाम देने वाली कैलाश कॉलोनी स्थित नोवा स्पेशियलिटी हॉस्पिटल्स में स्त्री रोग विशेषज्ञ एवं लेप्रोस्कोपिक सर्जन डॉ. शीतल अग्रवाल ने कहा, ''स्बच्चे पैदा करने की उम्र के दौरान हर चार में से एक महिला को फाइब्रॉएड होता है। गर्भाशय के फाइब्रॉएड से पीड़ित महिलाएं मातृत्व का आनंद प्राप्त करने में असमर्थ होती हैं। फाइब्रॉएड गर्भाशय की दीवार में नॉन-कैंसरस वृद्धि होती है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति की बदौलत, यहां तक कि बहुत बड़े फाइब्रॉएड को भी लैपरोस्कोपी से निकाला जा सकता है और रोगी की तेजी से रिकवरी होती है और उसके गर्भाधान की दर भी बढ़ जाती है।''
मरीज ने कहा, ''फाइब्रॉएड के कारण तेज दर्द और रक्तस्राव के कारण मैं बहुत चिंतित रहती थी। लेकिन जब मैंने पहली बार बच्चे को गोद लिया तो मेरा दर्द और मेरी चिंता खत्म हो गयी।''
फाइब्रॉएड से पीड़ित महिलाओं में आम तौर पर भारी, लंबे समय तक और अनियमित रक्तस्राव होता है। उनके पैल्विक में तेज दर्द होता है और मूत्राशय पर दबाव जैसे लक्षण हो सकते हैं। उन्हें यौन संबंध के दौरान भी तेज दर्द हो सकता है।
इसका इलाज आमतौर पर उम्र को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। युवा, बच्चे पैदा करने में असमर्थ रोगियों की लैप मायोमेक्टमी की जाती है जबकि अधिक उम्र की महिलाओं में जिन्होंने अपने परिवार पूरे कर लिये हैं, उनकी लैप हिस्टरेक्टमी की जा सकती है। लेकिन अगर वह चाहें तो उनके अंडाशय के कार्यों को सुरक्षित रखा जा सकता है।
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फ्यूजन स्पाइन सर्जरी ने लकवाग्रस्त मरीज को बनायी दोबारा चलने-फिरने लायक
मध्य पूर्व के 32 वर्षीय कबीर (बदला हुआ नाम) को पिछले 3 वर्षों से कमर में तेज दर्द था। कबीर का पेशा ऐसा था जिसमें उसे घंटों कुर्सी पर बैठकर काम करना पड़ता था जिसके कारण उसे काफी परेशानी आ रही थी। दर्द होने पर वह अक्सर दर्द निवारक दवा ले लेता था। बाद में दवा के कम असर करने पर वह धीरे- धीरे दवा की खुराक बढ़ाने लगा। उसका दर्द हर दिन बढ़ रहा था और वह दर्दनाक जीवन जीने के लिए मजबूर हो गया था।
तीन महीने पहले से उसके बायें पैर में भी दर्द होने लगा जिसके कारण उसे चलने में परेशानी होने लगी। वह चल नहीं पा रहा था। उसे चलने में इतना दर्द होता था कि वह खुद को कुछ फीट तक भी घसीट कर ले जाता था। धीरे - धीरे दर्द कबीर के पैर के निचले हिस्से में भी फैल गया और उसका दोनों पैर लकवाग्रस्त हो गया। कबीर अपाहिज हो गया था।
उसने नोवा आर्थोपेडिक एंड स्पाइन हॉस्पिटल में चिकित्सकों से सलाह ली। समस्या का पता लगाने के लिए एमआरआई की गयी। रिपोर्ट से पता चला कि उसके स्पाइन का एक बड़ा डिस्क बाहर की ओर आ गया है और पैर के निचले हिस्से को नियंत्रित करने वाले नर्व को दबा रहा है।
नोवा आर्थोपेडिक एंड स्पाइन हॉस्पिटल के निदेशक डॉ. हर्षवर्द्धन हेगड़े के अनुसार, ''हमने इस मरीज का इलाज 'फ्यूजन प्रौद्योगिकी' से करने का फैसला किया। इस प्रकार भारत में यह सर्जरी पहली बार सफलतापूर्वक की गयी।''
लम्बर स्पाइन फ्यूजन सर्जरी की ऐसी तकनीक है जिसके तहत स्पाइन की एक या अधिक कशेरुकाओं (वर्टिब्री) को उनके अलगाव और अलाइनमेंट को बनाए रखने के लिए और एक दूसरे के खिलाफ जाने से उन्हें रोकने के लिए एक साथ जोड़़ (फ्यूज) दिया जाता है। ऐसा प्रभावित वर्टिब्री के बीच बोन ग्राफ्ट या बोन ग्राफ्ट सब्सटिच्यूट को रखकर किया जाता है।
डॉ. हेगड़े ने कहा, ''इस मामले में हमने पीक (पीईईके) से बने तीसरी पीढ़ी (नवीनतम) के विशेष जोड़ों का इस्तेमाल किया क्योंकि यह भार वहन करने वाले इम्प्लांट की जैव अनुकूलता को बढ़ाता है। यह इम्प्लांट को हड्डी के अधिक अनुकूल बनाता है और यह धातु के इम्प्लांट की तुलना में डायग्नोस्टिक इमेजिंग के साथ अधिक सुसंगत है।
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गर्भाशय फाइब्रॉएड की मरीजों के लिये वरदान है एनडीवीएच
गर्भाशय के फाइब्रॉएड से पीड़ित महिला मरीजों के लिए एक अच्छी खबर है। नोवा स्पेषियलिटी हॉस्पीटल ने न्यूनतम इनवेसिव शल्य प्रक्रिया ''नॉन- डिसेंट वेजाइनल हिस्टेरेक्टॉमी (एनडीवीएच)'' की शुरूआत की है। इस नई प्रक्रिया में पेट में कोई चीरा लगाये बगैर ही फाइब्रॉएड के साथ गर्भाशय को योनि के माध्यम से निकाल दिया जाता है।
38 वर्षीय काजल अग्रवाल (बदला हुआ नाम) स्त्री रोग संबंधित समस्याओं से पीड़ित थी। जांच करने पर उनके गर्भाशय में फाइब्रॉएड पाया गया। चिकित्सकां ने फाइब्रॉएड को निकालने के लिए सर्जरी कराने की सलाह दी।
लेकिन पेट में एक बड़ा चीरा लगाकर या लेप्रोस्कोपी से गर्भाशय को निकालने जैसी परंपरागता प्रक्रियाओं की बजाय, काजल ने नॉन- डिसेंट वेजाइनल हिस्टेरेक्टॉमी (एनडीवीएच) कराया। नॉन- डिसेंट वेजाइनल हिस्टेरेक्टॉमी (एनडीवीएच) न्यूनतम इनवेसिव सर्जरी की एक अत्याधुनिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के 24 घंटे बाद वह दोबारा सामान्य जिंदगी जीने लगी।
नई दिल्ली स्थित नोवा स्पेषियलिटी हॉस्पीटल के प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग की वरिश्ठ कंसल्टेंट डॉ. षीतल अग्रवाल ने कहा, ''इस प्रक्रिया के तहत एड्रेनालाईन को खारे पानी के साथ मिलाकर योनि के माध्यम से गर्भाषय के चारां ओर इंजेक्ट कर दिया जाता है, जो ऊतकों को आराम पहुंचाता है और अधिक जगह बनाता है। यह प्रक्रिया हाइड्रो-डिसेक्षन कहलाती है। इसके बाद सरल शल्य चिकित्सा उपकरणों की मदद से योनि के माध्यम से फाइब्रॉएड और गर्भाशय को निकाल दिया जाता है। पूरी प्रक्रिया में लगभग 30 मिनट का समय लगता है।
एनडीवीएच प्रक्रिया में रक्तस्राव नहीं के बराबर होता है। ओपन सर्जरी जैसे पारंपरिक तरीकों में, बड़े चीरे लगाने के कारण काफी अधिक रक्त की हानि होती है और रोगियों को सामान्य होने में अधिक समय लगता है। यहां तक कि लेप्रोस्कोपिक सर्जरी में भी छोटा चीरा लगाया जाता है और कुछ रक्त की हानि होती है, लेकिन यह प्रक्रिया महंगी है और जटिलतायें होने का खतरा रहता है। डॉ. षीतल ने कहा, ''पेट को फुलाने के लिए इस्तेमाल किया गया विषाक्त कार्बन डाइऑक्साइड करीब साढ़े तीन घंटे तक शरीर में रहता है। यह दिल पर दबाव डाल सकता है और समस्याएं पैदा कर सकता है।
इस प्रक्रिया के दौरान चूंकि पेट में चीरा नहीं लगाया जाता है, इसलिए सर्जरी के बाद पेट पर कोई निषान भी नहीं रहता और रोगी की तेजी से स्वास्थ्य लाभ करता है। गर्भाशय के फाइब्रॉएड और सिस्ट से पीड़ित महिलाओं को इस प्रक्रिया से काफी फायदा होता है। उन्हें अस्पताल में कम दिनों तक रहना पड़ता है। डॉ. षीतल ने कहा, ''एनडीवीएच काफी प्रभावी साबित हो रही है। इस प्रक्रिया में कम समय तक अस्पताल में रहने के कारण हिस्टेरेक्टॉमी का खर्च 30 प्रतिशत तक कम हो जाता है।''
डॉ. शीतल ने कहा, ''इस प्रक्रिया में हम अंडाषय को बचा सकते हैं जबकि अन्य प्रक्रियाआें में अंडाषय नष्ट हो जाता है। इस प्रक्रिया से हर महिला को फायदा नहीं हो सकता है। यह प्रक्रिया उन महिलाओं के लिए लाभदायक है जिनका सामान्य प्रसव हुआ हो।
करीब एक महीने पहले इस प्रक्रिया को शुरु करने के बाद, अस्पताल में अब तक 40 रोगियों पर यह प्रक्रिया की गयी है।
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घुटना प्रत्यारोपण में कारगर है किक टेक्नोलॉजी
62 वर्शीय सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी श्रीमती षालिनी षर्मा (बदला हुआ नाम) को सीढ़ियां चढ़ने- उतरने में घुटने में काफी दर्द होता था जिसके कारण उन्होंने सुबह की सैर पर जाना बंद कर दिया। ओस्टियोआर्थराइटिस के कारण उन्हें अब अपने रोजमर्रे के सामान्य कार्य करने में भी परेषानी आ रही थी और उनका चलना- फिरना काफी मुष्किल हो रहा था। उन्होंने कई प्रकार के वैकल्पिक उपचार कराये लेकिन उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ। फिर उन्हें टोटल नी रिप्लेसमेंट सर्जरी कराने की सलाह दी गयी क्योंकि घुटने में हुई क्षति की भरपाई करने और दर्द मुक्त जिंदगी के लिए यही एकमात्र समाधान था।
श्रीमती षर्मा नोवा आर्थोपेडिक एंड स्पाइन हॉस्पिटल (एनओएसएच) के प्रसिद्ध आर्थोपेडिक सर्जन एवं चिकित्सा निदेषक डॉ. ़हर्षवर्धन हेगड़े से मिलीं। डॉ. हेगड़े ने बताया, ''हमने ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी को करने के लिए मिनीमली इन्वैसिव कम्प्यूटर नैविगेषन ''किक'' टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया। यह कम्प्यूटर पर आधारित तकनीक है जो सर्जन को सही ढंग से नी रिप्लेसमेंट करने में सक्षम बनाता है। इसमें अस्पताल में बहुत कम समय तक भर्ती रहने की आवश्यकता होती है, और संक्रमण या जटिलताओं के होने का खतरा कम होता है।''
इसके अलावा उन्होंने पिन लेस नेविगेशन के बारे में बताया कि इसके तहत कंप्यूटर इंफ्रा रेड किरणों का इस्तेमाल कर रोगी की शारीरिक रचना को दर्षाता है और शल्य ब्लू प्रिंट उपलब्ध कराता है। यह हर रोगी की षारीरिक रचना के अनुसार नये इम्प्लांट को सही ढंग से फिट करने के लिए सही स्थिति का फैसला करने में सर्जन को मदद करता है। यह वैसी त्रुटियों और क्षति की भी पहचान कर सकता है जिसका पता आम तौर पर नहीं चल पाता और यह आसपास के ऊतक और लिगामेंंट की क्षति को रोकने में मदद करता है। यह इम्प्लांट अधिक समय तक कारगर रहता है और रोगी की जल्द रिकवरी हो जाती है।
एनओएसएच ने श्रीमती शर्मा जैसे कई लोगों में उनके घुटने के जोड़ों में गतिषीलता और लचीलापन को आष्चर्यजनक रूप से बढ़ाकर उन्हें उनकी पुरानी तेज रफ्तार जिंदगी में वापस लाने में मदद की है। यहां देष में सबसे अधिक अनुभवी आर्थोपेडिक सर्जनों की सबसे बड़ी टीम है जिनके पास ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी में सुरक्षा और सफलता दर का रिकार्ड है।
दर्दनिवारक दवाओं के इस्तेमाल, फिजियोथेरेपी या जीवन षैली में परिवर्तन करने से अस्थायी रूप से तो दर्द से राहत मिलती है लेकिन इससे मुख्य कारण का इलाज नहीं हो पाता। घुटने के क्षतिग्रस्त होन, घिसने तथा उस पर दबाव पड़ते रहने के कारण उसकी स्थिति में गिरावट आती जाती है जिससे घुटने और आसपास के उतकों में स्थायी क्षति आ जाती है इसके कारण दीर्घकालिक समाधान पर भी प्रभाव पड़ता है।
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प्रौद्योगिकी एवं विषेशज्ञता से ‘‘टोटल हिप रिप्लेसमेंट’’ बना अधिक प्रभावी
हममें से अधिकतर लोगों को अपने जीवन में कभी न कभी विषेशकर 50 साल की उम्र के बाद जोड़ों की समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। ये समस्याएं आर्थराइटिस, दुर्घटना और किसी अन्य कारण से हो सकती हैं। जोड़ों की समस्याएं तेजी से बढ़ती हैं और इनसे जोड़ों को काफी क्षति हो सकती है और इस क्षति को ठीक नहीं किया जा सकता है। जब ये स्थितियां कुल्हे के जोड़़ को प्रभावित करती हैं, तो लोगों को दवा लेने के बावजूद लगातार दर्द होता रहता है, उन्हें सीढ़ियां चढ़ने-उतरने में कठिनाई होती है और यहां तक कि लंबे समय तक बैठने में भी परेषानी होती है। इन चिकित्सकीय स्थितियों के अलावा, वयस्क लोगों में फ्रैक्चर जैसी कुछ अन्य स्थितियों में भी कुल्हे के जोड़ प्रभावित हो सकते हैं। कुल्हे के जोड़ षरीर के भार को वहन करते हैं, इसलिए इसमें किसी भी प्रकार की खराबी होने पर इसके कार्य करने की क्षमता प्रभावित होमी है और व्यक्ति के चलने-फिरने पर इसका सीधा असर होता है। ऐसी स्थितियों से निजात दिलाने के लिए टोटल हिप रिप्लेसमेंट एक क्रांतिकारी चिकित्सा के रूप में सामने आयी है। टोटल हिप रिप्लेसमेंट से कई लोगों को वापस अपने पैरों पर खड़े होने और चलने-फिरने में मदद मिली है।
70 वर्षीय राम प्रसाद जब दो सीढ़ी उपर से फिसल गिर गये तो उनका कुल्हा टूट गया। उन्हें स्थित नोवा आर्थोपेडिक एंड स्पाइन हॉस्पीटल लाया गया। विशेषज्ञ ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन ने उनके मामले का परीक्षण किया और उनकी चलने - फिरंने की क्षमता को बनाये रखने के लिए और उन्हें दर्द से राहत दिलाने के लिए हिप रिव्लेसमेंट सर्जरी कराने की सलाह दी। राम प्रसाद और उनके परिवार में इस सर्जरी को लेकर संदेह को देखते हुए चिकित्सक ने उन्हें समझाया कि यह एक सुरक्षित प्रक्रिया है जो शल्य चिकित्सा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण और अधिक सरल और सटीक हो गयी है। उन्हें कुल्हे की जोड़ के क्षतिग्रस्त हिस्से को हटाना होगा और उनकी जगह कृत्रिम अंग (प्रोस्थेटिक्स) का प्रत्यारोपण करना होगा। ये इम्प्लांट न सिर्फ क्षतिग्रस्त हिस्सों की जगह लेते हैं बल्कि जोड़ों की सक्रियता को भी बनाये रखने में मदद करते हैं। इस सर्जरी से जोड़ के आसपास के किसी भी कटे-फटे लिगामेंट की भी मरम्मत की जाती है जिससे इम्प्लांट को सहारा देने में मदद मिलती है सामान्य मूवमेंट को बनाये रखने में मदद मिलती है। इस सर्जरी के फायदे को समझने के बाद, राम प्रसाद ने सर्जरी कराने का निर्णय लिया। सर्जरी के बाद कुछ महीनों तक नियमित रूप से फिजियोथेरेपी और व्यायामक करने के बाद, अब वे बिना किसी सहारे के चलने लगे हैं।
नोवा आर्थोपेडिक एंड स्पाइन हॉस्पिटल के वरिश्ठ ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जन, डॉ राकेश मट्टू ने बताया कि टोटल हिप रिप्लेसमेंट कुल्हे की जोड़ में आर्थराइटिस या चोट के कारण चलने-फिरने में असमर्थ और चलने की उम्मीद खो चुके लोगों को वापस चलने -फिरने में समर्थ बनाता है। षल्य चिकित्सा तकनीकों में होने वाले प्रगति के कारण, अब यह प्रक्रिया सरल और सुरक्षित हो गयी है और इसके अधिक अच्छे परिणाम मिलने लगे हैं।
हिप रिप्लेसमेंट सर्जरी लंबे समय से होने वाले दर्द से राहत पाने और जीवन में गतिशीलता को बनाये रखने के लिए एक सुरक्षित और प्रभावी प्रक्रिया है। नोवा आर्थोपेडिक एंड स्पाइन हॉस्पिटल में इसकी सारी सुविधाएं उपलब्ध है और यह उन्नत प्रौद्योगिकी और नई तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए बेहतर आर्थोपेडिक देखभाल और उपचार प्रदान करता है। यहां आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ विश्व स्तर की सुविधा उपलब्ध है और यह हड्डी रोग की पहचान और उपचार में नवीनतम तकनीकों का इस्तेमाल करता है। नोवा के विशेषज्ञ सर्जन कौषल में विषेशज्ञ है जिससे उन्हें कृत्रिम अंग (प्रोस्थेसिस) को सही जगह पर स्थापित कर हिप रिप्लेसमेंट करने में मदद मिलती है। रोगी की चलने-फिरने की प्राकृतिक प्रक्रिया को बहाल रखने के लिए रोगी की षारीरिक संरचना के अनुसार ही प्रतिस्थापित किये जाने वाले जोड़ की प्रतिकृति बनायी जाती है।
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मधुमेह पर प्रभावी नियंत्रित के लिए चिकित्सकों को भी अपने कौशल में करना होगा सुधार
नई दिल्ली स्थित नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट के मधुमेह रोग विशेषज्ञ डॉ. विनोद गुजराल ने बताया, ''वर्तमान में मधुमेह देखभाल में वायदों और वास्तविकता में काफी अंतर है। कई रोगियों को इलाज के बाद भी उचित लाभ नहीं मिल पाता और उनमें कई तरह की गंभीर जटिलताएं पैदा हो जाती हैं जिससे उनकी जिंदगी और जीवन की गुणवत्ता में कमी आ जाती है।'' डॉ. गुजराल के द्वारा एक साल से भी कम समय से लेकर 25 साल तक मधुमेह से पीड़ित करीब 1660 रोगियों से, एक साल से थोड़ा समय तक (सितंबर 2013 से जुलाई 2014 तक) प्राप्त आंकड़ों से पता चला कि उनमें से करीब 70 प्रतिशत रोगियों ने रोग की किसी भी अवस्था में सामान्य चिकित्सक से अपना इलाज कराया, 11 प्रतिशत रोगी पोस्टग्रैजुएट या इंडोक्राइनोलॉजिस्ट के पास गये और करीब 19 प्रतिशत रोगियां ने विशेषज्ञ से अपना इलाज कराया।
चिकित्सा विशेषज्ञों ने कहा है कि बीमारी के बारे में समुचित जागरूकता और मरीजों की उचित देखभाल की बदौलत भारत मधुमेह की चिकित्सा के मामले में अग्रणी बन सकता है। आज भारत को मधुमेह की विश्व राजधानी माना जाता है औरयहां होने वाली मौतों में से 40 प्रतिशत से अधिक मौतों के लिए मधुमेह, हृदय रोग और कैंसर जिम्मेदार हैं। सिर्फ 70 साल से कम उम्र में ही, ये बीमारियां 60 प्रतिशत मौतों का कारण बनती हैं। अंतर्राष्ट्रीय मधुमेह फेडरेशन की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, मधुमेह से पीड़ित साढ़े 6 करोड़ लोग भारत में रहते हैं जो कि कुल आबादी का लगभग छह प्रतिशत है।
देश में सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में करीब 381 मेडिकल कॉलेज हैं और इनमें भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) में लगभग 50,000 एमबीबीएस सीटें पंजीकृत हैं। सरकारी कॉलेजों में पीजी सीटों की कुल संख्या 10,798 है और निजी कॉलेजों में यह संख्या 6536 है। मधुमेह का इलाज करने वाले विशेषज्ञों की संख्या सिर्फ 6.5 प्रतिशत (एम. डी. मेडिसीन 4.4 प्रतिशत और डी एम इंडो 2.1 प्रतिशत) है। डॉ. गुजराल ने बताया, ''भारत में मधुमेह का इलाज करने वाले विशेषज्ञों की कमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) ने एमबीबीएस चिकित्सकों को मधुमेह का इलाज करने के लिए अधिकृत किया है और उन्हें मधुमेह के इलाज की मान्यता दी गयी है, इसके लिए उन्हें उपयुक्त प्रशिक्षित प्रदान किया गया है और उन्हें समय-समय पर अपडेट किया जाता है।''
मधुमेह का इलाज पाठ्य संदर्भ पुस्तकें और व्यावहारिक प्रशिक्षण की पुस्तकें जैसे दो स्तरीय साहित्य के माध्यम से किया जाना चाहिए और इसके लिए जनरल प्रैक्टिशनरों को सक्षम और सुयोग्य बनाया जाना चाहिए। इस अवसर पर डॉ. गुजराल ने मधुमेह के प्रबंधन पर शुगर 'क्योर' नामक हैंडबुक का विमोचन किया, जो पिछले 15 सालों में उनकी छठी पुस्तक है। यह पुस्तक मधुमेह रोगियों और वैसे व्यक्तियों जिनमें मधुमेह विकसित हाने का अत्यधित खतरा हो, के लिए उपयोगी हो सकती है। यह पुस्तक ग्लिटरिंग इंक पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गयी है। इस पुस्तक को आरएसएसडीआई (दिल्ली चैप्टर) के माननीय जनरल सेक्रटरी डॉ. विनोद मित्तल ने जारी किया।
इस अवसर पर 'क्योर' को मधुमेह को नियंत्रित करने के लिए एक रणनीति के रूप में जारी किया गया। 'सी' का अर्थ काउज टू बी अंडरस्टूड (कारण जिन्हें समझना है) , 'यू' का अर्थ अंडरस्टैंडिंग द इनडिविजुवल नीड्स (व्यक्तिगत जरूरत को समझना), 'आर' का अर्थ रिस्क रिडक्शन ऑफ मेजर कम्प्लीकेशन्स (प्रमुख जटिलताओं के खतरों को कम करना) और 'ई' का अर्थ 'इनस्योर गुड क्वालिटी ऑफ लाइफ एंड लांगेविटी (अच्छी गुणवत्ता वाली और लंबी जिंदगी को सुनिश्चित करना) है।
नेशनल हार्ट इंस्टीच्यूट के इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. विनोद शर्मा ने बताया, ''पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में मधुमेह की शुरुआत आम तौर पर दो दशक पहले हो जाती है। इस तरह मधुमेह लोगों को उनकी जिंदगी के महत्वपूर्ण सालों में प्रभावित करती है और इससे न सिर्फ स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर चिकित्सा संबंधी बोझ बढ़ता है, बल्कि यह समाज पर भी काफी आर्थिक बोझ डालता है। धमनियों को संकुचित करने वाली समस्या एथरोस्क्लेरोसिस की प्रक्रिया मधुमेह के चिकित्सकों द्वारा पहचान से पहले ही शुरू हो जाती है। इसलिए अक्सर दिल के दौरे या स्ट्रोक के समय मधुमेह की पहचान होना आश्चर्य की बात नहीं है।''
मधुमेह के साथ जीवन व्यतीत करना जीवन भर के लिए मजबूरी बन जाती है। मधुमेह ग्रस्त लोगों को यह जानकारी देना जरूरी है कि उन्हें अपने मधुमेह पर निगरानी रखनी चाहिए। जो रोगी अपने चिकित्सकों से अधिक सलाह लेना चाहते हैं, वे अक्सर द्फ्तर के उचित संपर्क में नहीं रहने के कारण निराश हो जाते हैं। डॉ. विनोद गुजराल ने हाल ही में 'डॉ. गुजराल्स स्पेशियलिटी क्लिनिक्स' नामक एक मोबाइल एप्लिकेशन का शुभारंभ किया है जिससे सामान्य चिकित्सक को अपने स्मार्ट फोन पर प्रोटोकॉल को पाने के लिए सिर्फ एक क्लिक करना पड़ता है। यह एप्लिकेशन ''मोबाइल हेल्थ'' - स्वास्थ्य सेवा में स्मार्टफोन जैसी मोबाइल प्रौद्योगिकी के उपयोग में नवीनतम अनुसंधानों में से एक है। यह एप्लिकशन ट्रैक करने के लिए और देखभाल करने वालों और देखभाल की सुविधा पाने वालों को आपस में जुड़े रहने के लिए रोमांचक नए तरीके की शुरुआत की है।
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गर्भाशय फाइब्रॉएड की मरीजों के लिये वरदान है एनडीवीएच
गर्भाशय के फाइब्रॉएड से पीड़ित महिला मरीजों के लिए एक अच्छी खबर है। नोवा स्पेषियलिटी हॉस्पीटल ने न्यूनतम इनवेसिव शल्य प्रक्रिया ''नॉन- डिसेंट वेजाइनल हिस्टेरेक्टॉमी (एनडीवीएच)'' की शुरूआत की है। इस नई प्रक्रिया में पेट में कोई चीरा लगाये बगैर ही फाइब्रॉएड के साथ गर्भाशय को योनि के माध्यम से निकाल दिया जाता है।
38 वर्षीय काजल अग्रवाल (बदला हुआ नाम) स्त्री रोग संबंधित समस्याओं से पीड़ित थी। जांच करने पर उनके गर्भाशय में फाइब्रॉएड पाया गया। चिकित्सकां ने फाइब्रॉएड को निकालने के लिए सर्जरी कराने की सलाह दी।
लेकिन पेट में एक बड़ा चीरा लगाकर या लेप्रोस्कोपी से गर्भाशय को निकालने जैसी परंपरागता प्रक्रियाओं की बजाय, काजल ने नॉन- डिसेंट वेजाइनल हिस्टेरेक्टॉमी (एनडीवीएच) कराया। नॉन- डिसेंट वेजाइनल हिस्टेरेक्टॉमी (एनडीवीएच) न्यूनतम इनवेसिव सर्जरी की एक अत्याधुनिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के 24 घंटे बाद वह दोबारा सामान्य जिंदगी जीने लगी।
नई दिल्ली स्थित नोवा स्पेषियलिटी हॉस्पीटल के प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग की वरिश्ठ कंसल्टेंट डॉ. षीतल अग्रवाल ने कहा, ''इस प्रक्रिया के तहत एड्रेनालाईन को खारे पानी के साथ मिलाकर योनि के माध्यम से गर्भाषय के चारां ओर इंजेक्ट कर दिया जाता है, जो ऊतकों को आराम पहुंचाता है और अधिक जगह बनाता है। यह प्रक्रिया हाइड्रो-डिसेक्षन कहलाती है। इसके बाद सरल शल्य चिकित्सा उपकरणों की मदद से योनि के माध्यम से फाइब्रॉएड और गर्भाशय को निकाल दिया जाता है। पूरी प्रक्रिया में लगभग 30 मिनट का समय लगता है।
एनडीवीएच प्रक्रिया में रक्तस्राव नहीं के बराबर होता है। ओपन सर्जरी जैसे पारंपरिक तरीकों में, बड़े चीरे लगाने के कारण काफी अधिक रक्त की हानि होती है और रोगियों को सामान्य होने में अधिक समय लगता है। यहां तक कि लेप्रोस्कोपिक सर्जरी में भी छोटा चीरा लगाया जाता है और कुछ रक्त की हानि होती है, लेकिन यह प्रक्रिया महंगी है और जटिलतायें होने का खतरा रहता है। डॉ. षीतल ने कहा, ''पेट को फुलाने के लिए इस्तेमाल किया गया विषाक्त कार्बन डाइऑक्साइड करीब साढ़े तीन घंटे तक शरीर में रहता है। यह दिल पर दबाव डाल सकता है और समस्याएं पैदा कर सकता है।
इस प्रक्रिया के दौरान चूंकि पेट में चीरा नहीं लगाया जाता है, इसलिए सर्जरी के बाद पेट पर कोई निषान भी नहीं रहता और रोगी की तेजी से स्वास्थ्य लाभ करता है। गर्भाशय के फाइब्रॉएड और सिस्ट से पीड़ित महिलाओं को इस प्रक्रिया से काफी फायदा होता है। उन्हें अस्पताल में कम दिनों तक रहना पड़ता है। डॉ. षीतल ने कहा, ''एनडीवीएच काफी प्रभावी साबित हो रही है। इस प्रक्रिया में कम समय तक अस्पताल में रहने के कारण हिस्टेरेक्टॉमी का खर्च 30 प्रतिशत तक कम हो जाता है।''
डॉ. शीतल ने कहा, ''इस प्रक्रिया में हम अंडाषय को बचा सकते हैं जबकि अन्य प्रक्रियाआें में अंडाषय नष्ट हो जाता है। इस प्रक्रिया से हर महिला को फायदा नहीं हो सकता है। यह प्रक्रिया उन महिलाओं के लिए लाभदायक है जिनका सामान्य प्रसव हुआ हो।
करीब एक महीने पहले इस प्रक्रिया को शुरु करने के बाद, अस्पताल में अब तक 40 रोगियों पर यह प्रक्रिया की गयी है।
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सर्जरी की नई तकनीक से होगा इरेक्टाइल डिसफंक्शन का इलाज
इरेक्टाइल डिसफंक्शन का इलाज जब दवा के सेवन से नहीं हो पाता तो इसके लिए सर्जरी का सहारा लिया जाता है। अब इरेक्टाइल डिसफंक्शन के इलाज के लिए सर्जरी का एक नया विकल्प उपलब्ध है जो अत्यंत कारगर साबित हुआ है। कैलाश कॉलोनी के नोवा स्पेशियलिटी हॉस्पिटल के यूरोलॉजी विभाग के वरिष्ठ कंसल्टेंट डॉ. विनीत मल्होत्रा ने बताया, ''इरेक्टाइल डिसफंक्शन से पीड़ित रोगियों में इसके स्थायी समाधान के लिए शिश्न प्रत्यारोपण (पेनिल इंप्लांट) सबसे सफल उपाय बनता जा रहा है।''
पेनिल प्रास्थेसिस लचीली/हवा भरी हुई रॉड होती है जिसे शल्य चिकित्सा की मदद से शिश्न के इरेक्शन चैंबर में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। यह इम्प्लांट शिश्न को सेमी - इरेक्ट बनाता है यहां तक कि जब शिश्न उत्तेजित नहीं हो और उसे थोड़ा उठाने की जरूरत हो या पूरा खड़ा करने की जरूरत हो तो इसे समायोजित किया जा सकता है।
शिश्न प्रत्यारोपण (पेनिल इंप्लांट) छोटा होता है और लिंग के अंदर पूरी तरह से फिट बैठता है। अगर इसे बहुत करीब से न देखा जाए तो इसका पता भी नहीं चलता। सेक्स के दौरान, रोगी कोई अंतर महसूस नहीं करता है क्योंकि यह जोश और लिंग के स्खलित होने को प्रभावित नहीं करता। यहां तक कि सेक्स के दौरान, जब तक महिला को इसके बारे में बताया नहीं गया हो, उसे इसका पता नहीं चलता।
लिंग को कड़ा करने के लिए रोगी को एक पंप को प्रेस करना होता है, जो तरल को जमा रखने वाले कोश से तरल को सिलिं्रडर में भेजता है। इससे सिलेंडर फूल जाता है जिसके कारण लिंग कड़ा हो जाता है। संभोग के अंत में, मरीज को सिलिंडर से हवा निकालने के लिए पंप के आधार पर स्थित डिफ्लेशन वॉल्व को प्रेस करना होता है जिससे लिंग अपनी सामान्य अवस्था में आ जाता है।
इरेक्टाइल डिसफंक्शन के चार सबसे आम कारणों में धूम्रपान, उच्च कोलेस्ट्रॉल, मधुमेह और उच्च रक्तचाप शामिल हैं। इन स्वास्थ्य समस्याओं से रक्त वाहिकाओं को नुकसान पहुंचता है।
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मोटापे से खराब होती बच्चों की हड्डियां
बच्चों में बढ़ते मोटापे के कारण उनकी हड्डियां बचपन में ही खराब और कमजोर हो रही हैं और वे स्कूल जाने की उम्र से ही आर्थराइटिस एवं ओस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादा मोटे बच्चों में फैट की मात्रा बहुत ज्यादा होती है, जो कमर, पैर के उपरी हिस्सों और कूल्हे पर जमा हो जाती है। बाद में फैट लीवर, मांसपेशियों और हड्डियों में भी जमा हो जाती है। यहां तक कि यह फैट अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में भी जमा होती है और जब इसकी मत्रा अधिक हो जाती है तो कोकिशकाओं के विकसित होने की जगह नहीं बचती है जिससे हड्डियां विकसित नहीं होती है और वे कमजोर हो जाती हैं।
अमृतसर स्थित अमनदीप हास्पीटल के प्रमुख आर्थोपेडिक सर्जन डा. अवतार सिंह बताते हैं कि आस्टियोब्लास्ट्स सेल्स के नाम से से जाने जाने वाली कोशिकाओं से ही हड्डियों के विकास के लिये जरूरी उतकों का निर्माण होता है, लेकिन जब बोन मैरो अतिरिक्त वसा जमा होने से इन कोशिकाओं के विकास के लिये जरूरी जगह नहीं मिल पाती हैकोशिकाओं के विकास होने से हड्डियों का विकास रूक जाता है, हड्डियां कमजोर होने लगती हैं और हल्की सी चोट लगने पर भी फ़ैक्चर का खतरा होता है।
डा. अवतार सिंह कहते हैं कि आज-कल बच्चे हेल्दी डाइट लेने के बजाय जंक फुड, फास्ट फुड और तले हुयी चीजें खाने पर ज्यादा जोर देते हैं। इससे फैट तो बढ़ता है लेकिन शरीर और हड्डियों के लिये जरूरी मिनरल्स की कमी हो जाती हैहड्डियों में भी मिनरल्स का घनत्व कम होता है और हड्डियां कमजोर होने लगती है। नतीजा हड्डियों का आकार प्रभावित होता है और वे कमजोर हो जाती है।
उन्होंने बताया कि पहले इस तरह की धारणा थी कि मोटे शरीर की हड्डियां ज्यादा मजबूत होती हैंपहले माना जाता था कि अधिक वजन वाले शरीर की हड्डियां मजबूत होती है। कुछ विशेषज्ञों का तर्क था कि मोटे शरीर में हड्डियों को सुरक्षा मिलती है लेकिन नये अध्ययनों से साबित हुआ है कि मोटापे से हड्डियां कमजोर होती हैं।
डा. अवतार सिंह के अनुसार मौजूदा समय में मोटापे एवं गलत जीवन शैली के कारण युवकों में भी आर्थराइटिस जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। हमारे देश में तेजी से बढ़ रहे मोटापे के प्रकोप के कारण न केवल अधिक उम्र के लोगों में कम उम्र में भी घुटने एवं जोड़ो की आर्थराइटिस की समस्या बढ़ रही है और इस कारण से 65 साल से कम उम्र के लोगों में भी घुटने एवं अन्य जोड़ को बदलवाने के आपरेशनों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुयी है। आज जिस तेजी से युवकों में आर्थराइटिस की समस्या बढ़ रही है उसे देखते हुये रोकथाम पर अधिक ध्यान देना चाहियेउन्होंने कहा कि मौजूदा समय में शल्य चिकित्सा तकनीकों में सुधार और बेहतर इम्पलांटों के विकास होने के कारण आज घुटना बदलने का आपरेशन अत्यंत आसान, कारगर एवं सुरक्षित हो गया है। यह भी देखा जा रहा है कि लोगों खास कर युवकों के मन में ऐसे आपरेशनों को लेकर डर पहले की तुलना में बहुत कम हो गया है और आज अधिक संख्या में युवा ऐसे आपरेशन कराने के लिये सामने आ रहे हैं।
पोषण विशेषज्ञों के अनुसार शरीर में हड्डियों के समुचित विकास के लिये कैल्शियम की सही मात्रा की जरूरत होती है। शरीर ठीक तरह से कैल्शियम ग्रहण करें और उसे पचाये, इसके लिये विटामिन डी जरूरी है, इसलिये बच्चों को कैल्शियम वाला आहार देना चाहिये और विटामिन डी की कमी नहीं होने देना चाहिये। बच्चों को शुरू से ही कैल्शियम, प्रोटीन, विटामिन और मिनरल्स से भरपूर आहार देना चाहिये। दूध और दूध से बनी चीजों से कैल्शियम की कमी की पूर्ति होती हैहरी सब्जियां, सलाद, फल, दाल, मछली आदि को आहार में शामिल करना चाहिये। बच्चों को जंक फुड एवं तले हुयी चीजों से दर रखना चाहिये। इसके अलावा रोजाना कम से कम एक घंटे के लिये घर के बाहर आउट डोर खेलने चाहिये।
डा. अवतार सिंह का कहना है कि अगर शरीर और हड्डियों में बार-बार दर्द की शिकायत है हड्डियों की जांच करानी चाहियेइसके लिये बोन डेंसिटी टेस्ट कराये जाने चाहियेअगर ओस्टियोपोरोसिस हो तो इसके लिये दवाइयों और व्यायाम से लाभ मिलता है, लेकिन स्थिति गंभीर होने पर सर्जरी कराने की जरूरत हो सकती है।
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"मोटापा विस्फोट” के मुहाने पर खड़ा भारत
नियंत्रित आहार तथा व्यायाम से ही हो सकता है मोटापे के 50 प्रतिशत रोगियों का इलाज : विशेषज्ञ
भारत के बारे में यह सामान्य धारणा है कि यह कुपोषित और कम वजन वाले लोगों का देश है लेकिन इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि भारत "मोटापा विस्फोट" के मुहाने पर खड़ा है जहां की लगभग 15 प्रतिशत आबादी (करीब 20 करोड़ लोग) मोटापे से ग्रस्त हैं जो मधुमेह समेत अनेक गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त हो सकते हैं।
भारत आज मधुमेह की विश्व राजधानी बन गया है और विशेषज्ञों के अनुसार इसका मुख्य कारण यहां के लोगों में मोटापे का बढ़ता प्रकोप है। भारत में मधुमेह के आठ करोड़ मरीज हैंयही नहीं, मोटे लोगों की संख्या के मामले में भारत का स्थान अमरीका और चीन के बाद तीसरा है। भारत में हर तीन में से एक व्यक्ति या तो मोटा है या अधिक वजन का है।
देश में मोटापे, अधिक शारीरिक वजन और बढ़ते तोंद के कारण रक्तचाप, मधुमेह, हृदय – वाहिका रोगों और ओस्टियोआर्थराइटिस जैसी जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों के बढ़ते प्रकोप के मद्देनजर नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में आज स्वास्थ्य संगोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें दिल्ली तथा अन्य शहरों के चिकित्सा विशेषज्ञों ने मोटापे एवं मधुमेह के विभिन्न पहलुओं तथा इनके नियंत्रण के उपायों तथा उपचार की नयी चिकित्सा विधियों के बारे में चर्चा की गयी
संगोष्ठी का आयोजन इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल की ओर से साउथ देल्ही मेडिकल एसोसिएशन तथा एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इंडिया (एएसआई) के सहयोग से हुआइस संगोष्ठी का आयोजन करने वाले इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ बरिएट्रिक एवं मेटाबोलिक सर्जन तथा ओबेसिटी सर्जरी सोसायटी ऑफ इंडिया (ओएसएसआई) के उपाध्यक्ष डॉ. अरूण प्रसाद ने संगोष्ठी के दौरान दो लाइव रोबोटिक बरिएट्रिक सर्जरी को अंजाम दिया। ये दोनों सर्जरी जिन मरीज पर की गयी उनका वजन 100 किलोग्राम से अधिक था। इनके वजन को संतुलित आहार तथा व्यायाम की मदद से कम करना संभव नहीं हो पा रहा था और अधिक मोटापे के कारण ये दोनों मरीज अनेक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त थे।
कार्यक्रम में बरिएट्रिक सर्जनों के अलावा आर्थोपेडिक सर्जनों, प्लास्टिक सर्जनो के साथ-साथ हृदय रोगों, श्वसन रोगों, स्त्री रोगों और लीवर रोगों के चिकित्सकों ने भी हिस्सा लिया। बैठक में मुंबई की डॉ. जयश्री तोड़कर ने भी हिस्सा लिया जो ओबेसिटी सर्जरी सोसाइटी ऑफ इंडिया की संयुक्त सचिव भी हैं।
बैठक में मौजूद विशेषज्ञों ने मोटापे के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में बताया कि मोटापे के कारण हृदय रोगों तथा उच्च रक्त चाप के खतरे बढ़ जाते हैं और दिल के दौरे के कारण मरीज की मौत की आशंका बढ़ जाती है। इसके अलावा मोटापे के कारण लीवर की बीमारियां, किडनी के खराब होने, कैंसर, स्लीप एप्निया के खतरे बढ़ जाते हैं। महिलाओं में मोटापे के कारण गर्भधारण नहीं होने, बच्चे पैदा नहीं होने और पोलीसिस्टिक ओवरी की आशंका अधिक होती है।
डॉ. अरूण प्रसाद कहते हैं कि कई लोग वजन घटाने के लिये सीधे बरिएट्रिक सर्जरी का सहारा लेना चाहते हैं, लेकिन सबसे पहले नियंत्रित आहार एवं व्यायाम का सहारा लेना चाहिये और अक्सर देखा जाता है कि करीब 50 प्रतिशत मोटे लोगों में इन उपायों के जरिये ही मोटापे का समाधान हो जाता है। वजन घटाने के लिये बरिएट्रिक सर्जरी, लिपोसक्शन अथवा बॉडी कॉन्ट्ररिंग का सहारा तब लिया जाना चाहिये जब आहार नियंत्रण, व्यायाम एवं जीवन शैली में बदलाव आदि के उपाय विफल साबित हो जायें। उन्होंने बताया कि वजन घटाने की सर्जरी बेहोश करके की जाती है और इस सर्जरी के लिये अब रोबोट की मदद ली जाने लगी है जिससे सर्जरी सटीक होती है। यह सर्जरी उन्हीं लोगों पर की जाती है जो 100 किलो से अधिक वजन के होते हैंसर्जरी के बाद छह महीने में ही करीब 20 किलो वजन कम हो जाता है। इस सर्जरी पर करीब ढाई से तीन लाख के बीच खर्च होता है।
डॉ. अरूण प्रसाद ने बताया कि पिछले साल भारत में ऐसी करीब 12 हजार सर्जरी हुयी जबकि हमारे देश में हर साल करीब 50 हजार लोगों को इस सर्जरी की जरूरत हैदेश में करीब 15 प्रतिशत लोग अर्थात करीब 20 करोड़ लोग मोटापे के शिकार हैं और इन्हें मोटापे से निजात दिलाने के लिये आखिरी विकल्प के तौर पर सर्जरी का सहारा लेना चाहिये।
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सतीप्रथा को फिर से पुनर्जीवित करने की नापाक कोशिश
संविधान निर्माता डा.बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने संविधान बनाकर 26 नवम्बर सन 1949 को सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया। यह प्रथा औरतों पर धर्म की अमानवीय कू्रता का उदाहरण था। हिन्दू धर्म में नारी को देवी का दर्जा दिया गया है लेकिन समाज में औरतों की वास्तविक स्थिति क्या थी यह सती प्रथा जैसी कूर और बर्बर प्रथा से पता चल जाता है कि पति के बिना औरतों को जीने का कोई अधिकार नहीं था।
आज हालांकि अबला कहलाने वाली स्त्री सबला बनकर मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के साथ प्रशासनिक अधिकारी और वैज्ञानिक बन रही है लेकिन आज सती प्रथा को दोबारा सही ठहराने की कोशिश कुछ तत्वों द्वारा की जा रही है। दुःख का विषय यह है कि धार्मिक गुलामी की मजबूत जंजीरों में जकड़ी पढ़ी लिखी महिला आज भी अपनी ताकत को नजरअंदाज कर चांद और अंतरिक्ष की सैर कर आने के बाद भी चांद को पति परमेश्वर के रूप में मानकर पूजनें से नहीं चूकती है।
पायल रोहतगी ने सती प्रथा का किया समर्थन, राजा राममोहन पर भी लगाए आरोप
बालीवुड एक्ट्रेस पायल रोहतगी ने अभी हाल में सती प्रथा का समर्थन किया अैर महान समाज सुधारक राजा राम मोहन राय को अंग्रेजों का चमचा बताया। उन्होंने एक ट्वीट को शेयर किया जिसमें लिखा था कि राजा राममोहन राय एक समाज सुधारक थे और उन्होंने ब्रहमो समाज मूवमेंट की स्थापना की थी. उन्होंने देश से सती प्रथा और बाल विवाह को खत्म करने के लिए आंदोलन भी चलाया था. कई इतिहासकार उन्हें भारत में नवयुग का जनक भी कहते रहे हैं.
इस ट्वीट को शेयर करते हुए पायल ने लिखा नहीं वे अंग्रेज़ों के चमचे थे. अंग्रेजों ने राजाराममोहन राय का इस्तेमाल सती प्रथा को बदनाम करने के लिए किया. सती परंपरा देश में अनिवार्य नहीं थी बल्कि मुगल शासकों द्वारा हिंदू महिलाओं को वेश्यावृति से बचाने के लिए इस प्रथा को लाया गया था. सती प्रथा महिलाओं की मर्जी से होता था. सती किसी भी मामले में अनाधुनिकीकृत प्रथा नहीं थी.
हालांकि पिछले कुछ दशकों के दौरान बहुत कुछ सुधरा है परन्तु जितना सुधरा उससे ज्यादा सुधरना अभी और बाकी है। जरा सी ढील हुई कि धार्मिक दरिंदे अब भी इस अत्याधुनिक वैज्ञानिक इक्कीसवीं सदी में भी घात लगाकर बैठे हैं। जब भी मौका मिला पुनः उसी धार्मिक क्रूर काली गहरी खाई में ढकेलने से नहीं चूकेंगे। जहां से बड़ी मेहनत से बुद्ध, फुले, साहू, पेरियार और अम्बेडकर जैसे क्रांतिवीर महामानव बड़ी मेहनत से स्त्री की समानता स्वतंत्रता स्वाभिमान न्याय मानवाधिकार और मौलिक अधिकार की रक्षा करके महिलाओं को ब्राहमण धर्म के ढोंग पाखंड कर्मकाण्ड आडम्बर अंधविश्वास अंधभक्ति के सती प्रथा के अधर्म से निकालकर लाये हैं।*
सती पर प्रतिबंध की पहली कोशिश
सन 1823 ईस्वी की घटना है। एक कोंकण ब्राह्मणी राधाबाई को सती के नाम पर जलाने का प्रबंध किया गया। ओंकारेश्वर के पास उसे चिता पर बैठाया गया। चिता में जब आग लगाई गई। जब राधाबाई चिता की आग को बर्दाश्त नहीं कर पाई। तब वह चिता से बाहर कूद पड़ी। जान बचाने के लिए नदी की तरफ भागी। उसका पूरा शरीर झुलस गया था। फिर भी कोंकणी ब्राह्मणों नें उसे पकड़कर दोबारा चिता में डाल दिया। पुनः भागने पर कोंकणी ब्राह्मणों नें उसे बांसों से ठेल ठेल कर पुनः जलाने का प्रयास किया। चिता के चारों ओर कोंकणी ब्राह्मण बड़े जोर जोर से ढोल पीटकर भजन और मंत्र उच्चारित कर रहे थे। ताकि उसकी चीखें बाहर नहीं जा सकें। घटना के वक़्त वहां से गुजर रहे एक अंग्रेज ने उसे बचाया। शहर में ले जाकर उसका इलाज कराया पर अत्यधिक जलनें के कारण आखिर उसकी तीन दिन बाद मृत्यु हो गयी। इस प्रकार के अमानवीय क्रूर और घृणित कारनामों में हस्तक्षेप करके अंग्रेज अधिकारियों ने उस पर कठोर पाबंदी लगाने का प्रयास किया। कैप्टन राबर्टसन ने ऐलान करवा दिया कि आज के बाद यदि ऐसी घटनाएं दोबारा हुईं तो हत्या समझकर कठोर कार्यवाई की जाएगी। अंग्रेजी सरकार के आदेश को हिन्दू धर्म पर आक्रमण मानकर नासिक, पैठण आदि शहरों के ब्राह्मणों की बैठक हुई और कानून की ओर आंख बन्दकर सती प्रथा को यथावत चालू रखने की नई योजना बनाई गई। सती प्रथा तोड़नें वाला कानून नहीं बनें। इसके लिए कोंकणी ब्राह्मणों नें अपना एक वकील प्रतिनिधि इंग्लैंड भेजा। लेकिन इंग्लैंड की महारानी और वहां की संसद नें सती प्रथा के नाम पर किसी स्त्री को जबरन जिंदा जलाने की अनुमति नहीं दियी।
सती प्रथा को जिंदा रखने के लिए ब्राह्मणों की चाल
चारों ओर से निराश ब्राह्मणों नें कानून को धता बताते हुए सती प्रथा के नाम पर विधवा स्त्री को जबरन जिंदा जलाने की निम्न नई नीति तैयार किए:-
इसके अनुसार सती होने वाली स्त्री को जिंदा जलाने के लिए किसी खास सुनसान जगह पर घास का मंडप बनाकर उस पर गोबर के उपले तथा चंदन की लकड़ियां रखीं जाएं। फिर उसपर सती होने वाली स्त्री को बैठाकर आग लगाई जाए। आग लगने पर यदि वह स्त्री फिर भी किसी तरह चिता से बाहर आ भी जाय और अपनी जान बचा ले तो उसे किसी भी तरह से दोबारा बिरादरी में शामिल नहीं किया जाय। उसे हमेशा के लिए समाज से बहिष्कृत कर दिया जाय। साथ ही साथ उस स्त्री के माँ बाप को भी बिरादरी से बहिष्कृत किया जाय। यही है तथाकथित हिन्दू धर्म के काले कलंक का एक काला सच।
संदर्भ:- दलित दस्तावेज 'पृष्ठ-95-96'*
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