ठंड बढ़ने से जोड़ों में दर्द, ब्रेन स्ट्रोक और माइग्रेन की समस्याएं बढ़ी

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में तापमान में भारी गिरावट होने के साथ कंपकपाने वाली ठंड के कारण स्ट्रोक, जोड़ों की समस्याएं, माइग्रेन एवं अन्य स्वास्थ्य समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। पिछले कुछ दिनों के दौरान एनसीआर में न्यूनतम तापमान चार डिग्री के नीचे पहुंच गया और इसके कारण स्वास्थ्य समस्याओं में बढ़ोतरी हो रही है।


फोर्टिस हॉस्पिटल (नौएडा) के न्यूरो एवं स्पाइन सर्जन डॉ. राहुल गुप्ता बताते हैं कि सर्दियों में ब्रेन स्ट्रोक और खास तौर पर हेमोरेजिक स्ट्रोक के मामले अन्य महीनों की तुलना में करीब तीन गुना अधिक बढ़ जाते हैं। उनके अनुसार सर्दियों में शरीर का रक्त चाप बढ़ता है जिसके कारण रक्त धमनियों में क्लॉटिंग होने से स्ट्रोक होने के खतरे बढ़ जाते हैं। ब्रेन स्ट्रोक का एक प्रमुख कारण रक्त चाप है। रक्तचाप अधिक होने पर मस्तिष्क की धमनी या तो फट सकती है या उसमें रुकावट पैदा हो सकती है


इसके अलावा इस मौसम में रक्त गाढ़ा हो जाता है और उसमें लसीलापन बढ़ जाता है, रक्त की पतली नलिकाएं संकरी हो जाती है, रक्त का दबाव बढ़ जाता है। धमनियों की लाइनिंग अस्थायी रूप से क्लॉट के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। अधिक ठंड पड़ने या ठंडे मौसम के अधिक समय तक रहने पर खासकर उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों में स्थिति अधिक गंभीर हो जाती है। इसके अलावा सर्दियों में लोग कम पानी पीते हैं जिसके कारण रक्त गाढ़ा हो जाता है और इसके कारण स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। उनका सुझाव है कि सर्दियों में अधिक मात्रा में पानी तथा तरल पीना चाहिये।


डॉ. राहुल गुप्ता के अनुसार बहुत ठंड के कारण हृदय के अलावा मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंगों की धमनियां सिकुड़ती हैं, जिससे रक्त प्रवाह में रुकावट आती है और रक्त के थक्के बनने की आशंका अधिक हो जाती है। ऐसे में ब्रेन स्ट्रोक, दिल के दौरे तथा शरीर के अन्य अगों में पक्षाघात होने के खतरे अधिक होते हैं। डॉ. राहुल गुप्ता के अनुसार कई अध्ययनों से पता चला है कि कम तापमान होने पर स्ट्रोक होने तथा स्ट्रोक के कारण मौत होने का खतरा बढ़ता है, खास तौर पर अधिक उम्र के लोगों में। इसलिये लोगों को अपने शरीर को गर्म रखने के लिये अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए। इसके अलावा स्ट्रोक से बचने के लिये शराब और धूम्रपान का सेवन कम करना चाहिए।


डा. राहुल गुप्ता के अनुसार सर्दी के महीनों में, जिन लोगों को न्यूरोलॉजिकल समस्याएं हैं उनकी समस्याएं बढ़ सकती है। तापमान घटने से नर्व में दर्द बढ़ सकता हैडॉ. राहुल गुप्ता का सुझाव है कि जिन लोगों को नर्व दर्द, रीढ़ में दर्द, ट्राइजेमिनल न्यूरेल्जिया, मांसपेशियों में कड़ापन और संवेदना में कमी जैसी न्यूरोलॉजिकल समस्याएं हैं उन्हें अधिक ठंड से बचना चाहिए।


डा. राहुल गुप्ता बताते हैं कि सर्दियों में तापमान बहुत अधिक कम हो जाने के साथ ही गर्दन दर्द, पीठ दर्द और कमर दर्द जैसी समस्याएं बढ़ने लगती हैं।


नई दिल्ली के वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज एवं सफदरजंग अस्पताल के बाल चिकित्सा एवं बाल स्वास्थ्य के डॉ. मुर्तजा कमाल कहते हैं कि अत्यधिक ठंड का मौसम शुरु होते ही, बच्चों में सिर दर्द होने का खतरा 15-20 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। ऐसा विषेश रूप से उन बच्चों को अधिक होता है जो माइग्रेन से ग्रस्त होते छोटे बच्चे सिर दर्द या अन्य समस्याओं के बारे में ठीक से नहीं बता पाते हैं, बल्कि वे इसे अन्य तरीकों से प्रकट करते हैं। जैसे, वे चिड़चिड़े और जिद्दी हो जाते हैं और उन्हें सोने और खाने में समस्या हो सकती है। उनके अनुसार अत्यधिक ठंडा मौसम नर्व को प्रभावित करता है जो विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं। यह प्रभाव उसी प्रकार का होता है जैसा तेज या बहुत कर्कश आवाज का होता है। यह विशेष रूप से वैसे बच्चों को अधिक प्रभावित करता है जिन्हें वंशानुगत कारणों से अक्सर माइग्रेन के रूप में सिर दर्द होता है। इसके अलावा, सर्दी के इस मौसम में बच्चों को वायरल संक्रमण और नाक, कान एवं गले (ईएनटी) की समस्याओं से भी ग्रस्त होने की अधिक संभावना होती है। ठंड के कारण बच्चों में सिर दर्द की समस्या तब अधिक होती है, विशेषशकर तब, जब बच्चे सिर और कान जैसे बाहरी अंगों की ठीक से सुरक्षा नहीं करते हैं।


 


बहुत अधिक चंचल और शरारती बच्चे अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) का शिकार हो सकते हैं

अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) बहुत ही सामान्य बाल मानसिक विकार है जिसके कारण बच्चों में एकाग्रता की कमी हो जाती है और वे बहुत अधिक चंचल एवं शरारती हो जाते हैं और इस विकार के कारण बच्चों के मानसिक विकास एवं उनकी कार्य क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अगर बच्चे पढ़ाई या किसी अन्य काम में अपना ध्यान नहीं लगा पाते, बहुत ज्यादा बोलते हों, किसी भी जगह टिक कर नहीं बैठते हों, छोटी-छोटी बातों पर बहुत अधिक गुस्सा करते हों, बहुत अधिक शरारती और जिद्दी हों तो वे अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर से ग्रस्त हो सकते हैं। अक्सर माता-पिता इस विकार से ग्रस्त बच्चे को काबू में रखने के लिए उनके साथ डांट-फटकार और मारपीट का सहारा लेते हैं लेकिन इसके कारण बच्चों में नकारात्मक सोच आ जाती है और वह पहले से भी ज्यादा शरारत करने लगते हैंविश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की पूर्व संध्या पर नौएडा के मानस गंगा क्लिनिक में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. मनु तिवारी ने कहा कि अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर का इलाज आसान है। जरूरत इस बात की है कि ऐसे बच्चे की सही समय पर पहचान हो और उसे इलाज के लिए मनोचिकित्सकों के पास लाया जाए। माता-पिता को चाहिए कि अगर उन्हें अपने बच्चे में एडीएचडी के लक्षण दिखे तो वे बच्चे के साथ डांट-डपट करने या बच्चे की शरारत की अनदेखी करने के बजाए मनोचिकित्सक से परामर्श करें और अपने बच्चे को ठीक होने का मौका दें।


गौरतलब है कि अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर के बारे में जागरूकता कायम करने के उद्देश्य से अक्तूबर विश्व एडीएचडी जागरूकता माह के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने बताया कि नौएडा के मानस गंगा क्लिनिक ने अब तब इस समस्या से ग्रस्त सैकड़ों बच्चों को ठीक होने में मदद की है। मानस गंगा क्लिनिक का लक्ष्य है कि समाज में इस बीमारी के प्रति जागरूकता आए और इस समस्या से ग्रस्त बच्चे को इलाज के लिए मनोचिकित्सक के पास लाया जा सके ताकि बच्चे अपनी पूरी क्षमता को हासिल कर सकेंडॉ. मनु तिवारी ने बताया कि इस समस्या के कारण बच्चों में आत्म विश्वास की कमी हो सकती है, बच्चों में उदासीनता (डिप्रशन) और चिडचिड़ापन जैसी समस्या हो सकती है और बच्चे की कार्य क्षमता प्रभावित हो सकती है इसलिए ऐसे बच्चे का समय पर इलाज कराना चाहिएमानस गंगा क्लिनिक एवं मेट्रो हास्पीटल्स की मनोचिकित्सक डॉ. अवनी तिवारी का कहना है कि सबसे पहले लक्षणों की पहचान होते ही अभिभावकों को इस बीमारी के प्रति जागरुक होना पड़ेगा। बच्चे के अलावा अभिभावकों की काउंसलिंग की जरुरत होती हैइसके इलाज से पूर्व बच्चे की क्लिनिकल एवं साइकोलॉजिकल जांच की जाती है। इसके आधार पर काउंसलिंग की जाती है। बिहैवियर थिरेपी की जा सकती है। जरूरत पड़ने पर दवाइयां दी जाती है जो बच्चों में एकाग्रता बढ़ाने में मददगार साबित होती


बाल न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. रेखा मित्तल बताती हैं कि इस समस्या से ग्रस्त बच्चों की जिन लक्षणों के आधार पर पहचान की जा सकती है वे हैं – एकाग्रता की कमी, ध्यान में कमी, अति चंचलता, अति आवेग, स्कूल में पढ़ाई में कमजोर, स्कूल में अक्सर चीजें छोड़ कर आना, एक जगह पर शांत नहीं बैठना, जानकारी एवं बौद्धिक क्षमता के बावजूद परीक्षा में अच्छे


नम्बर नहीं आना, किसी भी कार्य से जल्दी मन उचट जाना. तेज गस्सा आना. स्कल और खेल मैदान में बात-बात पर झगड़ा करना, धैर्य की कमी और खेल-कूद में अपनी बारी आने का इंतजार नहीं कर पाना। डॉ. मनु तिवारी कहते हैं कि मुख्य तौर पर आनुवांशिक कारणों से यह समस्या उत्पन्न । होती है। यह देखा गया है कि जिन बच्च्चों में यह समस्या होती है वे स्मार्ट फोन आदि का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं। आधुनिक जीवन शैली तथा भागदौड भरी अत्यंत व्यस्त जिंदगी के कारण अक्सर माता-पिता बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते। शहरों में एकल परिवार में अक्सर बच्चे अकेलेपन से जूझ रहे हैं। इन सब कारणों से बच्चे गुस्सैल, चिड़चिड़े या हाइपर एक्टिव हो रहे हैं। कई माता-पिता जागरूकता के अभाव में अपने बच्चों में पनप रही हाइपर एक्टिविटी को या तो पहचान नहीं पाते या उसकी अनदेखी कर देते हैं।


उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) के बारे में लोगों में तथा चिकित्सकों में अधिक जागरूकता आई है और इस कारण पहले की तुलना में आज अधिक बच्चे इलाज के लिए मनोचिकित्सकों के पास लाए जाने लगे हैं


विभिन्न अध्ययनों के अनुसार स्कूल जाने वाले 2 से 14 प्रतिशत बच्चे एडीएचडी से ग्रस्त होते हैं और लड़कियों की तुलना में लड़कों में यह समस्या अधिक पाई जाती है।


माता-पिता के लिए ध्यान देने योग्य बातें


• डांट या मार समस्या का समाधान नहीं है।


• माता-पिता को चाहिए कि हाइपरएक्टिव बच्चे की उर्जा को बचपन से ही सकारात्मक काम में लगाने की कोशिश करें अगर ऐसे बच्चों की उर्जा को सही दिशा में में लगाया जाए वे बहुत ही इनोवेटिव काम कर सकते


• माता पिता को जितना मुमकिन हो उतना बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ाना चाहिए।


• अगर बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लगता है तो इसमें मदद करनी चाहिए


• एडीएचडी से ग्रस्त बच्चे अपने माता-पिता एवं शिक्षकों का पूरा अटेंशन चाहते हैं।


• अगर माता-पिता उनकी तरफ ध्यान देंगे, तो वे एग्रेसिव नहीं होते हैं


• बेहतर है कि उसे अकेले में प्यार से समझाएं कि कब कौन सा काम उसे करना चाहिए और कौन सा नहीं।


• कई बार हाइपर एक्टिव बच्चे पैरेंट्स का ध्यान अपनी तरफ करने के लिए बार-बार सवाल पूछते हैं।


लेजर से तिल-तिल कर मारेगा तिल

तिल और दाग-धब्बे न केवल अच्छे भले चेहरे को विकृत कर देते हैं बल्कि ये कई बार कैंसर जैसी बीमारियों के संकेत होते हैं। प्रसिद्ध कास्मेटिक सर्जन एवं नई दिल्ली के ग्रेटर कैलाश, पार्ट-1 स्थित कास्मेटिक लेजर सर्जरी सेंटर आफ इंडिया के निदेशक डा. पी. के तलवार कहते हैं कि चेहरे की सुंदरता को बदसूरत करने वाले इन तिलों एवं दाग-धब्बों को केमिकल पीलिंग एवं सर्जरी के जरिये हटाया जा सकता है लेकिन कार्बन डाई ऑक्साइड लेजर की मदद से तिलों को हमेशा के लिये हटाया जा सकता है।


तिल त्वचा के स्वास्थ्य की दृष्टि से अहानिकर धब्बे (लीशन) हैं ।  लेकिन ये चेहरे और शरीर के खुले रहने वाले अंगों की खूबसूरती बिगाड़ देते हैं।  चिकित्सकीय भाषा में इन्हें मेलानोसाइटिक अथवा पिगमेंटेड नैवी कहा जाता है। तिल त्वचा के समतल या उभरे हुये हो सकते हैं। इनके आकार एवं रंग अलग-अलग हो सकते हैं। ये गुलाबी, गहरे भूरे से लेकर काले रंग के हो सकते हैं। किस व्यक्ति को कितने और किस तरह के तिल होंगे यह आनुवांशिक कारणों और धूप के संपर्क पर निर्भर करता है। तिल का उगना जन्म के बाद से ही शुरू हो जाता है लेकिन नये तिल किसी भी उम्र में उग सकते हैं। धूप में अधिक समय तक रहने तथा गर्भावस्था के दौरान तिल का रंग काला होता जाता है। वयस्क होने पर तिल रंग छोड़ सकते हैं और अधिक उम्र में ये गायब भी हो सकते हैं। जन्म के समय से मौजूद तिल को कंजेनिटल पिगमेंटेड नेवस कहा जाता है। अनुमानों के अनुसार करीब एक सौ शिशुओं में से एक शिशु को जन्म से ही तिल होता है। जन्मजात तिल का आकार अलग-अलग हो सकता है। कुछ तिल का व्यास कुछ मिलीमीटर हो सकता है जबकि कुछ शिशु की पूरी त्वचा के आधे हिस्से में फैला हो सकता है। बहुत बड़े तिल के बाद में कैंसर में तब्दील होने की आशंका होती है। इसलिये जन्मजात तिल में कोई बदलाव नजर आने पर चिकित्सक से जांच करानी चाहिये।


कई बार तिल के चारों तरफ की त्वचा रंग खोकर सफेद हो जाती है। इस स्थिति को हालो नैवस कहा जाता है। ऐसा बच्चों और किशोरों में अधिक होता हैयह हानिरहित होता है और कुछ समय बाद तिल और उसके चारों तरफ के सफेद घेरे गायब हो जाते हैं। गोरे गोरे लोगों खास तौर पर लाल बालों एवं भूरी आंखों वाले लोगों में छोटे-छोटे भूरे समतल तिल अधिक सामान्य होते हैं। इन्हें फ्रीक्लस कहा जाता है। ये तिल शरीर के उन हिस्सों में होते हैं जो धूप के सीधे संपर्क में आते रहते हैं। गर्मी के दिनों में इनका रंग काला होता जाता हैकुछ तरह के तिलों को एटाइपिकल नैवी कहा जाता है और ये कैंसरजन्य तिलों (मेलोनोमा) से मिलते-जुलते हैं। ये तिल कैंसर में बदल सकते हैं। 


हालांकि ज्यादातर तिल अहानिकर होते हैं लेकिन ये कई बार सौंदर्य को बिगाड़ देते हैं इसलिये इन्हें कई बार हटाना लाजिमी हो जाता है। लेकिन कई तिल कैंसर एवं अन्य बीमारियों के संकेत हो सकते हैं और इसलिये इनकी जांच कराकर इनका इलाज कराया जाना चाहियेखास कर उन तिलों का इलाज जरूरी है जिनसे रक्त निकलता हो, जिनका आकार असामान्य हो, जो तेजी से बढ़ रहे हों, जिनके रंग बदल रहे हों और कपड़े, कंघी या रेजर के संपर्क में आने पर जिनमें खुजलाहट होती हो। बदसूरती पैदा करने वाले तिलों को हटाने के लिये केमिकल पीलिंग जैसी अनेक विधियों से हटाया जा सकता है लेकिन आजकल इन्हें कारगर एवं कष्टरहित तरीकों से दूर करने के लिये लेजर का इस्तेमाल हो रहा है। लेजर के बाद त्वचा को धूप से बचाना जरूरी होता है। तिलों को मिटाने के लिये कार्बन डाइ ऑक्साइड लेजर का इस्तेमाल होता है। जब इस लेजर की किरणें त्वचा पर डाली जाती है तो यह केवल त्वचा के ऊपरी सतह पर असर डालता है। इस लेजर का प्रयोग तिल आदि को हटाने में होता है। इन लेजर किरणों के प्रयोग से त्वचा से रक्त नहीं निकलताचिकित्सक तिल के आधार पर यह तय करता है कि कितनी देर तक लेजर किरणें डाली जाये ताकि त्वचा को किसी तरह की हानि नहीं हो। इन किरणों से तिल की परत को जला दिया जाता है लेकिन भीतरी त्वचा सुरक्षित रखी जाती है। 



डा. पी के तलवार, वरिष्ठ कास्मेटिक सर्जन एवं निदेशक, कास्मेटिक लेजर सर्जरी सेंटर आफ इंडिया, ग्रेटर कैलाश-पार्ट-1, नई दिल्ली


जननी सुरक्षा योजना क्या है और कैसे लें इसका लाभ

जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एचएचएम) के तहत सुरक्षित मातृत्व क्रियाकलाप है। इसे गर्भवती महिलाओं के बीच संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के द्वारा मात एवं नवजात शिश मत्य दर को कम करने के उद्देश्य के साथ लागू की जा रही हैजेएसवाई केन्द्रीय प्रायोजित योजना है जो प्रसव व प्रसवोत्तर __परिचर्या को नकद सहायता से एकीकृत करती है। यह योजना सरकार व गर्भवती महिलाओं के बीच प्रभावी संबंध के रूप में प्रत्यायित समाजिक कार्यकर्त्ता (आशा) के रूप में निर्धारित की गई है।


जेएसवाई की प्रमुख विशेषताएं


यह योजना गर्भवती महिलाओं पर केन्द्रित है, जिसमें कम संस्थागत प्रसव दर वाले राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, राजस्थान. ओडिशा और जम्मू कश्मीर के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। इन राज्यों को कम निष्पादन वाले राज्य (एलपीएस) के रूप में नामित किया गया है। शेष राज्यों को उच्च निष्पादन वाले राज्यों (एचपीएस) का नाम दिया गया है। 3.5.2 नकद सहायता के लिए पात्रता जननी सुरक्षा योजना के तहत नकद सहायता के लिए पात्रता नीचे दर्शाई गई है:



संस्थागत प्रसव के लिए नकद सहायता (रुपए में) सभी श्रेणी की माताओं के लिए नकद पात्रता इस प्रकार है:



*ग्रामीण क्षेत्र में 600 रुपए के आशा पैकेज में एएनसी घटक के लिए 300 रुपए तथा संस्थागत प्रसव हेतु गर्भवती महिलाओं को लाने के लिए 300 रुपए हैं। *शहरी क्षेत्र में 400 रुपए के आशा पैकेज में एएनसी घटक के लिए 200 रुपए तथा संस्थागत प्रसव हेतु गर्भवती महिलाओं को लाने के लिए 200 रुपए हैं।


सीजेरियन सेक्शन की छूट-प्राप्त लागत


जेएसवाई योजना में सरकारी संस्थानों में प्रसूति समस्याओं के प्रबंधन हेतु अथवा सीजेरियन सेक्शन करने हेतु निजी विशेषज्ञों की सेवाएं लेने का प्रावधान है जहां सरकारी विशेषज्ञ पदस्थ नहीं है।


घर पर प्रसव के लिए नकद सहायता


घर पर प्रसव को प्राथमिकता देने वाली गरीबी रेखा से नीचे की गर्भवती महिलाएं प्रति प्रसव के लिए 500 रुपए की नकद सहायता के लिए पात्र होती हैं भले ही उनकी आयु कुछ भी हो और उनके कितने भी बच्चे हों।


निजी स्वास्थ्य संस्थान को प्रत्यायित करना


प्रसव परिचर्या संस्थानों के विकल्प में बढोतरी के लिए राज्यों को प्रसव सेवाएं प्रदान करने के लिए कम से कम दो इच्छुक निजी संस्थान प्रति ब्लाक प्रत्यायित करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है।


जेएसवाई के तहत प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी)


जननी सरक्षा योजना के तहत भगतान प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) भुगतान प्रक्रिया के माध्यम से किए जा रहे हैं। इस पहल के अंतर्गत आधार से जुड़े बैंक खातों/इलेक्ट्रोनिक निधि अंतरण के माध्यम से गर्भवती महिलाएं सीधे जेएसवाई लाभ प्राप्त करने के लिए हकदार होती हैं।


वास्तविक और वित्तीय प्रगति


इस योजना में कवर की गई माताओं की संख्या तथा स्कीम पर किए गए व्यय दोनों के संदर्भ में जेएसवाई की सराहनीय सफलता रही हैं। वर्ष 2005-06 में 7.39 लाख लाभार्थियों के औसत आंकड़ों से यह स्कीम फिलहाल प्रति वर्ष एक करोड़ से अधिक लाभार्थियों को लाभ प्रदान करती है। साथ ही स्कीम के व्यय वर्ष 2005-06 में 38 करोड़ से बढ़ाकर वर्ष 2016-17 में 1835 करोड़ रुपए कर दिया गया है। वित्तीय वर्ष 2018-19 में सूचित व्यय 1743.46 करोड़ रुपए (अनंतिम) है।


जेएसवाई की वर्ष-वार वास्तविक और वित्तीय प्रगति निम्नानुसार है:



* वि.व. 18-19 के आंकड़े अनंतिम है।


उपलब्धि के संदर्भ में जेएसवाई को प्रसव परिचर्या सेवाओं के लिए गर्भवती महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों के अधिकाधिक उपयोग में महत्वपूर्ण कारकों में से एक के रूप में माना जाता है जैसाकि नीचे दर्शाया गया है:



  • सांस्थानिक प्रसवों में बढ़ोतरी, जो 47% (जिला स्तरीय घरेलू सर्वेक्षण-III, 2007-08) से बढ़कर 78.9% (एनएफएचएस-4, 2015-16) हो गई है मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर), जो वर्ष 2004-06 में 254 मातृ मौतें प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों से गिरकर वर्ष 2014-16 के दौरान 130 मातृ मौतें प्रति 1,00,000 जीवित जन्म तक रह गई हैं

  • आईएमआर वर्ष 2005 में 58 प्रति 1000 जीवित जन्मों से कम होकर वर्ष 2017 में 34 प्रति 1000 जीवित जन्मों तक रह गई है

  • नवजात शिशु मृत्यु दर (एनएमआर) वर्ष 2006 में 37 प्रति 1000 जीवित जन्मों से कम होकर वर्ष 2016 में 24 प्रति 1000 जीवित जन्म रह गई है


भारत में जन्म देते समय कितनी माताओं की मौत होती है


मातृ और किशोर स्वास्थ्य 


मातृ स्वास्थ्य महिलाएं किसी भी जीवंत समाज की मजबूत स्तंभ होती हैं। इस प्रकार देश का सतत विकास तभी हो सकता है जब हम अपनी महिलाओं और बच्चों की समग्र देखभाल करेंगेमातृ स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत भारी और रणनीतिक निवेश किया गया है। बढ़ती समानता और घटती गरीबी को देखते हुए किसी भी देश के विकास के लिए मातृ स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण पहलु हैंमाताओं की उत्तरजीविता तथा कल्याण न केवल उनके अपने अधिकार हैं अपितु वे व्यापक आर्थिक, सामाजिक और विकासपरक चुनौतियों से निपटने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं


मातृ मृत्यु दर अनुपात (एमएमआर)


भारत में मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) वर्ष 1990 में काफी अधिक था अर्थात् प्रति सौ हजार जीवित जन्मों पर बच्चों को जन्म देते समय 556 महिलाओं की मृत्यु हो जाती थी। गर्भावस्था और बाल जन्म से जडी जटिलताओं के कारण प्रतिवर्ष लगभग 1.38 लाख महिलाओं की मृत्यु हो रही थी। उस समय वैश्विक एमएमआर 385 पर अत्यंत कम था। तथापि, भारत में एमएमआर में तेजी से गिरावट आती रही है। देश में एमएमआर में वैश्विक 216 एमएमआर (2015) के मुकाबले 130 (एसआरएस 2014-16) तक गिरावट आई है। मातृ मौतों की संख्या में 77 प्रतिशत तक कमी आई है।


एमएमईआईजी की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक मातृ मौतों में भारत की हिस्सेदारी में अत्यधिक गिरावट आई है सतत् विकास लक्ष्य (एमडीजी) 3 मातृ स्वास्थ्य से संबंधित है जिसका लक्ष्य मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) में कमी लाना है। (वर्ष 2030 तक प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 70 से कम एमएमआर किया जाना है


वैश्विक रूप से 2.3% की औसत वार्षिक गिरावट के साथ वर्ष 1990 में 385 की एमएमआर से वर्ष 2015 में अनुमानित 216 मातृ मौतों में प्रति 100,000 जीवित जन्म तक विगत 25 वर्षों के दौरान विश्व के एमएमआर में लगभग 44 प्रतिशत तक की गिरावट आई। भारत में 25 वर्षों में मातृ मृत्यु में 77% की गिरावट दर्ज की गई है।


                       वैश्विक संदर्भ में एमडीजी-5 पर भारत की प्रगति



स्रोतः “मातृ मृत्यु दर में रुझान वर्ष 1990 से 2015 तक यूएन इंटर एजेंसी एक्सपर्ट समूह तथा आरजीआई - एसआरएस


गिरता हुआ मातृ मृत्यु दर अनुपात (एमएमआर) मात संबंधी मौतौं का डाटा भारतीय महापंजीयक (आरजीआई) द्वारा अपनी प्रतिदर्श पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) के जरिए मातृ मृत्यु दर अनुपात (एमएमआर) के रूप में उपलब्ध करवाया जाता है। भारत के महापंजीयक प्रतिदर्श पंजीकरण


प्रणाली (आरजीआई-एसआरएस) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, भारत की एमएमआर ने वर्ष 2007-09 की अवधि में 212 प्रति 100,000 जीवित जन्मों से वर्ष 2011-13 की अवधि में 130 प्रति 100,000 जीवित जन्मों तक गिरावट दर्शाई है।


भारत के संबंध में एमएमआर में गिरावट की तेज गति



स्रोतः आरजीआई – एसआरएस


 


 


क्या दीवाली के बाद स्मॉग के कारण आपकी तबियत खराब रहती है?

दिवाली को रोशनी का त्यौहार कहा जा सकता है। हालांकि आजकल यह आतिशबाजी और उसके कारण पैदा हुए धुएं और सांस से संबंधित बीमारियों का पर्याय बन गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार पटाखों के जलने से बड़ी मात्रा में वायु प्रदूषक, विशेष रूप से सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर कण वायुमंडल में छोड़े जाते हैं। किसी बच्चे को बीमार देखना हालांकि कष्टदायक होता है लेकिन अगर बच्चे को सांस की बीमारियों के कारण सांस लेने में कष्ट होते देखना माता-पिता के लिए सबसे अधिक कष्टकारी होता है। हालांकि ज्यादातर माता-पिता को अपने बच्चों को ऐसी जगहों पर ले जाने की सलाह दी जाती है जहां अपेक्षाकृत कम प्रदूषण हो। लेकिन कुछ माता-पिता कई कारणों से अपना शहर को नहीं छोड़ सकते हैं। प्रसिद्ध होम्योपैथ विशेषज्ञ डॉ. बत्रा ग्रूप ऑफ कंपनीज के संस्थापक और सेवानिवृत अध्यक्ष डॉ. मुकेश बत्रा ने ऐसे सुझाव दिये हैं, जिन पर अमल कर प्रदूषण से संबंधित श्वास की समस्याओं और श्वसन रोगों से निपटने में आपको मदद मिलेगी और आप अपने शहर में ही अपने को अपने कमरे में बंद रखने के बजाय आप दिवाली का आनंद उठा सकेंगे। पर्यावरण से संबंधित समस्याओं के लिए कुछ सलाह एयर प्युरिफायर खरीदें और इसे साफ रखें। अपने एयर कंडीशनर (एसी) के फ़िल्टर को साफ रखें। • घरों के अंदर कम प्रदूषण करें - फर्नीचर की डस्टिंग करें पुरानी कुशन और तकिए को धो दें जिनमें शायद वर्षों से धूल कण जमा हो गए हैं। रेस्पिरेटर पहनें – हालांकि फेस मास्क आपको बड़े प्रदूषक कणों से बचाते हैं, जबकि रेस्पिरेटर मास्क चेहरे को पूरी तरह से ढक लेते हैं और दूषित हवा को आपके मुंह या नाक में प्रवेश करने से रोकने के लिए फ़िल्टर करते हैं। ऑफ-आवर में व्यायाम करें – लोकप्रिय धारणा के विपरीत, बिल्कुल सुबह या देर शाम में व्यायाम न करें क्योंकि दिन के इन समय के दौरान ठंडी हवा प्रदूषकों के कारण भारी होती है जो पृथ्वी के करीब आ जाती हैं। अस्थमा प्रबंधन के लिए कुछ टिप्स अपने घर में धूल और पराग कणों को साफ करेंपराग के मौसम के दौरान, खिड़कियों को बंद रखें और एयर कंडीशनर का उपयोग करें। टाइल या लकड़ी के फर्श पर कालीनों को बदलकर धूल को कम करें। वैसे पर्दे और ब्लाइंड का इस्तेमाल करें जिन्हें धोया जा सकता है। • वैक्यूम- गद्दे वाले फर्नीचर और मैट्रेस की नियमित रूप से सफाई करें और साथ ही अपने पालतू जानवर के बिस्तर भी साफ रखेंधूल साफ करते समय या बाहर जाने के दौरान अपनी नाक और मुंह पर एक स्कार्फ पहन लें। खुली हवा में योग व्यायाम या एक्सरसाइज करें।


• छींक आते ही आरंभ में ही ठंड और फ्लू का इलाज करेंब


च्चों के लिए कुछ टिप्स


• घर के अंदर रहें


- वायु प्रदूषण से बचने के लिए सबसे स्पष्ट समाधान इससे दूर रहना है, विशेष रूप से उस समय जब स्मॉग अपने चरम पर रहता है। स्कूल या चिकित्सक के पास जाने जैसी बहुत जरूरी गतिविधियों के दौरान अपने बच्चों के प्रदूषण के जोखिम को कम करने का प्रयास करें


कई गतिविधियों को एक साथ करें - यदि आपको और आपके बच्चों को बाहर जाने की ज़रूरत है, तो रोज के काम / गतिविधियों को एक ही साथ करने का प्रयास करें ताकि आप कई बार बाहर जाने से बच सकें। शहर के मुख्य इलाकों और वाणिज्यिक इलाकों में जाने से परहेज करें और वैसे जगहों की तलाश करने का प्रयास करें जो उपनगरों में स्थित हों या धुएं और प्रदूषण के स्रोतों से दूर हों।


कचरा नहीं जलाएं – दुर्भाग्य से कई भारतीय घर अभी भी कचरे के प्रबंधन के रूप में ऐसा करते हैं। प्लास्टिक जैसी ज्वलनशील चीजें हवा की गुणवत्ता को और खराब कर सकती हैं। कचरे से छुटकारा पाने के लिए पर्यावरण के अनुकूल और टिकाऊ उपाय की तलाश करेंकाफी मात्रा में तरल पदार्थ पीएं – परिवार में सभी को, विशेष रूप से बच्चों को काफी मात्रा में तरल पदार्थ का सेवन की सलाह दी जाती है। यह शरीर को डिटॉक्सिफाइ करने और शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करता है जो लक्षणों को बढ़ा सकते हैं। कठिन गतिविधि से बचें – जब बच्चे श्रमसाध्य खेल खेलते हैं तो वे हांफने लगते हैं। वे तेजी से सांस लेने लगते हैं। इससे उनकी सांस के जरिये आसपास के विभिन्न प्रदूषकों के उनके शरीर में प्रवेश करने की दर में वृद्धि हो जाती है। स्वच्छ हवा वाले दिनों में ही खेल और भारी गतिविधियां करें। समुचित आहार का सेवन करें - अधिक वायु प्रदूषण के समय के दौरान, अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाएं। ऐसे फलों और सब्जियों का सेवन करें जिनमें विटामिन सी और ओमेगा फैटी एसिड अधिक मात्रा में हों। घरों में हवा को शुद्ध करने वाले पौधे लगाएं - अपने घर की हवा को साफ रखने का एक प्राकृतिक तरीका वैसे इनडोर पौधों को रखना है जो हवा को शुद्ध करते हों। अरेका पाम, एलो वेरा, अजलेआ और तुलसी जैसे पौधे आपके घर में ताजापन का अहसास कराने में मदद करते हैं।


तेरी आंखों के सिवा इस दुनिया में रखा क्या है।

आंखें कुदरत की अनमोल वरदान हैं। आंखें सबसे बड़ी नेमत हैं। अगर आंखों न होती तो इस दुनिया में क्या रखा होता। इस दुनिया की सारी खूबसूरती हमारी आंखों की बदौलत है जो खुद इतनी खूबसूरत हो सकती है कि किसी पर जादू कर दे। आंखें चेहरे के सौंदर्य का आधार हैं। काली कजरारी आंखें, झील से गहरी आंखें, नीले गगन सी आंखें, बिल्लौरी आंखें, मदभारी शराबी आंखों इस धरती के सबसे कीमती, सबसे खूबसूरत और बेहतरीन नगीने हैं।


कुदरत ने इन आंखों को केवल देखने की शक्ति ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की क्षमता भी दी है। इसलिये तो आंखों को दिल की जुबान कहा गया है। आंख कुछ बोले बगैर भी सब कुछ बोल देती हैं। आंखों की अभिव्यक्ति की यह क्षमता कथकली जैसी उत्कृष्ट नृत्य कला का आधार है। हमारी भाव भंगिमा आंखों पर ही आधारित है।


हम अपनी आंखों को सजाने, संवारने के लिए तरह-तरह के जतन करते हैं। आंखों को सुंदर बनाने के लिए काजल लगाने का तरीका प्राचीन काल से चला आ रहा है। लेकिन आज कॉस्मेटिक कांटैक्ट लेंस का इजाद हो चुका है जिसकी बदौलत आंखों को मनचाहा रंग दिया जा सकता है। अगर आप अपने भूरे रंग की आंखों से संतुष्ट नहीं हैं तब अपने मनचाहे रंग वाले कांटेक्ट लेंस लगा कर आंखों को मनचाहा आकर्षण एवं सौंदर्य प्रदान कर सकते हैं। आप चाहें तो हर दिन आंखों का रंग बदल सकते हैं। अगर आप हाई सोसायटी के हैं तो आप हर दिन अपनी आंखों को अपनी पसंद का रंग देना चाहेंगे। कॉस्मेटिक कांटेक्ट लेंसों की बदौलत काली कजरारी, गहरी व हल्की नीली, भूरी, एवं हल्की भूरी, बिल्लौरी आसमानी आंखों पायी जा सकती हैं। फैशन, ब्यूटी तथा प्रतिस्पर्धा के आज के युग में


फैशन, ब्यूटी तथा प्रतिस्पर्धा के आज के युग में आधुनिक पीढ़ी युवक, युवतियों की आंखों में निहित सुंदरता एवं सफलता को जान लिया है और वे आंखों को खूबसूरत बना कर अपने व्यक्तित्व को निखारने की कोशिश करने में किसी से पीछे नहीं रहना चाहते। लेकिन कुदरत ने कुछ लोगों की आंखों में ऐसे नुक्श छोड़ दिये हैं जिनके कारण उनकी आंखों को चश्में की बैशाखी की जरूरत पड़ जाती है जिसके कारण उनकी आंखों की खूबसूरती नहीं बल्कि मानों उनका व्यक्तित्व ही चश्में में दब सा जाता हैइन नुक्श के कारण व्यक्ति को पास या दूर अथवा पास एवं दूर दोनों की चीजें साफ नहीं दिखती। इन्हें मायोपिया एवं


हाइपरमेट्रोपिया कहा जाता है। इसके लिये व्यक्ति को चश्मा लगाने की जरूरत पड़ जाती है। लेकिन फैशन एवं प्रतिस्पर्धा के युग में यह चश्मा अक्सर सुदरता और सफलता के मार्ग में बाधक बन जाता है। मृदुला पेशे से मॉडल है लेकिन अपने दृष्टिदोष के कारण नहीं चाहकर भी चश्मा पहनने को मजबूर है। वह कहती है चश्में के बगैर मैं इस दुनिया को नहीं और चश्में के कारण दुनिया मुझे नहीं देख सकती। मोनिका को मिस इंडिया बनने की तमन्ना है लेकिन अपने दृष्टि दोष के कारण वह अपने इस सपने को मन में ही कुचल देती है। विवेक पायलट बनना चाहता था लेकिन वह पायलट बन नहीं सकता क्योंकि मायोपिया नामक इस दृष्टि दोष के कारण उसे चश्मा पहनना पड़ता है।


हालांकि आधुनिक चिकित्सा तकनीकों के कारण इन दृष्टि दोषों का इलाज कराकर चश्में से मुक्ति पाना संभव हो गया है। कांटेक्ट लेंस इनसे उबरने का सस्ता और सुरक्षित साधन है। इन कांटैक्ट लेंसों को सोने से पहले उतारना


इन कांटैक्ट लेंसों को सोने से पहले उतारना और जागने पर आंखों में चिपकाना पड़ता है। कई लोगों के लिये ऐसा करना परेशानी का कारण होता है। इसके अलावा कांटैक्ट लेंस के कारण आंखें में संक्रमण होने का भी खतरा रहता है। आधुनिक तकनीक ने इस परेशानी का भी हल पेश किया है। यह हल एक्जाइमर एवं लै सिक लेजर के रूप में सामने आया है। इसके विकास से पहले आंखों में हीरे की चाकू से चीरे लगाकर चश्में से मुक्ति दिलायी जाती थी। लेकिन अब आंखों में किसी तरह के चीरे लगाने की जरूरत नहीं रही। नयी दिल्ली के प्रसिद्व नेत्रा चिकित्सक डा. संजय चौधरी का कहना है कि लै सिक लेजर को दुनिया भर में चश्में से मुक्ति दिलाने वाली सर्वश्रेष्ठ तकनीक के रूप में स्वीकारा गया है और लाखों लोगों ने इसका फायदा उठाया है।


नयी दिल्ली के दरियागंज स्थित चौधरी आई सेंटर एवं लेजर विजन में सैकड़ों लोगों को चश्मे से छुटकारा दिलाकर उनकी सुदरता एवं सफलता के सपने को सरकार करने वाले डा. संजय चौधरी का कहना है कि नयी पीढ़ी के लोग इस तकनीक का विशेष तौर पर फायदा उठा रहे हैं। कई लोग चश्में से मुक्ति पाने के बाद वर्षों से दबी कुठा से भी मुक्ति पा लेते हैं। उनमें आत्म विश्वास आ जाता है। 


 


रिश्ते में आता खुलापन 

हाल के वर्षों में भारतीय समाज में परम्परागत मूल्यों और जीवन के तौर-तरीकों में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। इन बदलावों की एक कड़ी है - पारिवारिक रिश्तों में आने वाला खुलापन। आज ज्यादातर माता-पिता बच्चों के साथ डांट-डपट करने के बजाय दोस्ताना व्यवहार करने लगे हैं और उन्हें हर संभव खुश रखने की कोशिश करते हैं। आज ज्यादातर महिलायें मां के बजाय अपनी बेटी की दोस्त कहलाने पर गर्व महसूस करती हैं। वे अपनी बेटियों के मामले में दखलअंदाजी या रोक-टोक नहीं करतीं और न ही उन पर अपने विचार या निर्णय थोपती हैं। इस तरह का खुलापन दाम्पत्य संबंधों में भी आया है। आज कई पति-पत्नी एक दूसरे के मामले में पहले की तरह दखलअंदाजी नहीं करते हैं।
पारिवारिक संबंधों में आ रहे बदलाव जैसे विषयों पर देश-विदेश में 200 से अधिक संगोष्ठियों का आयोजन करने वाले दिल्ली के विशेषज्ञ डा. पतंजलि देव नैयर कहते हैं कि ज्यादातर युवा दोस्ताना व्यवहार करने वाले माता-पिता और अपने दोस्तों के बीच स्पष्ट अंतर नहीं कर पाते हैं। जो माता-पिता बच्चों के सिर्फ दोस्त होते हैं वे उन्हें केवल लाड़-न्यार और सुरक्षा देते हैं लेकिन अन्य बातों की ओर ध्यान नहीं देते। बच्चे कौन से मूल्य सीख रहे हैं और किसी तरह की गतिविधियों में लिप्त हो रहे हैं, इसके बारे में वे ज्यादा ध्यान नहीं देते। इस कारण बच्चे गलत रास्ते पर भी बढ़ सकते हैं। पहले के समय में माता-पिता बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखते थे, लेकिन उस समय बच्चों को समझाने का उचित वातावरण नहीं था जिसके कारण बच्चों को ऐसा लगता था कि माता-पिता उन पर अपने विचार थोप रहे हैं। हालांकि इससे बच्चों की चेतना और सोच प्रभावित होती थी, लेकिन बच्चों के गलत गतिविधियों में लिप्त होने की आशंका कम रहती थी।
दिल्ली में रहने वाली 18 वर्षीय स्नेहा और 15 वर्षीय नेहा की मां मधु कहती हैं, ''हमलोग भी उस समय छोटे स्कर्ट पहनते थे और बॉयफ्रैंड रखते थे, लेकिन हमारी सीमाएं बिल्कुल स्पष्ट थीं। हमलोग देर रात तक घरों से बाहर नहीं रहते थे और हमारे हर क्रियाकलापों की जानकारी माता-पिता को रहती थी। लेकिन अब चीजें तेजी से बदल रही हैं। अब माता-पिता और बच्चों में बहुत अधिक वाद-विवाद होता है और वे अपने विचार एक दूसरे पर थोपने की कोशिश करते हैं। बच्चों को आजादी देने से पूर्व बच्चों को मूल्यों की शिक्षा देनी चाहिए और उसके बाद बच्चों के विवेक पर छोड़ देना चाहिये कि वे क्या करना चाहते हैं। लेकिन बच्चों को मूल्यों की शिक्षा कड़ाई और डांट-डपट कर नहीं दी जानी चाहिये।''
दूसरी तरफ मॉडलिंग एवं अभिनय के क्षेत्र में जगह बनाने की कोशिश कर रही दिल्ली की श्वेता  कृष्णन कहती हैं, ''पहले लोगों की यह शिकायत होती थी कि उनके माता-पिता हर समय उनके साथ रहते हैं। लेकिन मेरी मां ने मुझे स्वतंत्र छोड़ दिया। मैं अब किसी भी परिस्थिति का मुकाबला स्वयं कर सकती हूं।''
उनकी मां उमा कहती हैं कि हमारे जमाने और आज के जमाने में बहुत बदलाव आ गया है। मां और बच्चा दो अलग-अलग प्राणी होते हैं इसलिए एक दूसरे की जिंदगी में दखल कैसे दिया जा सकता है। कृष्णन कहती हैं कि जब मैं और मॉम किसी पार्टी में एक साथ जाते हैं तो हमलोग मां-बेटी कम और दोस्त ज्यादा होते हैं।
देश के दूसरे भागों में भी मां-बेटी का रिश्ता दोस्ताना होता जा रहा है। जब कल्पना ने 28 साल पहले अपने माता-पिता का घर छोड़ा था उस समय लोगों में एक दूसरे के मामले में दखल देने की आदत बहुत अधिक थी। माता-पिता यहां तक कि पड़ोसी और रिश्तेदार भी हर मामले में दखलअंदाजी करते थे, लेकिन जब कल्पना की बेटी जूही ने उनका घर छोड़ा तो उसने अपनी मां को एक मददगार के रूप में पाया। जब कल्पना को महसूस हुआ कि उसकी बेटी अलग रहना चाहती है तो उसने तुरंत सहमति दे दी। हालांकि जूही को अपने पति को इसके लिए तैयार करना पड़ा था। लेकिन जूही को लगता है कि उसकी मां अपने घर में अपने ढंग से अकेली रहकर भी खुश रहेगी। जूही को काम के सिलसिले में अक्सर रात भी बाहर बितानी पड़ती है, लेकिन उसके पड़ोसी उसके मामले में कभी ताक-झांक नहीं करते।
दिल्ली के एक कॉलेज की प्रोफेसर सोनाली सिंह रिश्तों में खुलापन आने से खुश हैं। वे कहती हैं कि खुलापन आने से वह और उनके विद्यार्थी बिना किसी रोक-टोक के अपनी मर्जी से रह सकते हैं। लड़के-लड़कियों के रिश्ते में खुलापन आने से किसी लड़की को छेड़ना मुश्किल होता जा रहा है। लड़कियां किसी लड़के पर अधिक समय तक निर्भर रहना पसंद नहीं करती हैं और वे परिवर्तन चाहती हैं। लेकिन अधिकतर युवा इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करना नहीं चाहते। उनके कॉलेज की एक छात्रा कहती है कि मैं जब भी जहां जाना चाहती हूं, चली जाती हूं। इसके बारे में सिर्फ अपने माता-पिता को बता देती हूं।
हमारे देश में संबंधों में आ रहे खुलापन में अब भी सबसे बड़ी बाधा शादी है। ज्यादातर पति आज भी अत्यंत व्यस्त रहने वाली पत्नी से अपने लिए अलग से समय चाहते हैं। पति के लिए समय और पति का आदर करना हमारे समाज का मूल मंत्र है। जबकि घरेलू कार्यों में पति का सहयोग अब भी नहीं के बराबर ही है। अध्ययनों से पता चलता है कि घरेलू कार्यों का जिम्मा अब भी महिलाओं यहां तक कि कामकाजी महिलाओं पर भी है।



आज शादी के मानदंड भी अस्पष्ट होते जा रहे हैं और पति-पत्नी के बीच तीसरे या चौथे व्यक्ति का समावेश होता जा रहा है। ऐसा रंगरेलियां मनाने के उद्देश्य से नहीं किया जा रहा है, बल्कि पति या पत्नी के अलावा एक संवेदनशील साथी की जरूरत के कारण ऐसा हो रहा है। 
दीपाली कहती हैं, ''पति के अलावा मेरा एक पुरुष दोस्त भी है जिससे मुझे काफी सहयोग मिलता है। मेरे पति को मेरे रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन मुझे पता है कि वे उससे कुछ दूरियां चाहते हैं। ऐसा मेरे साथ भी होता है। जब भी मैं अपने पति के साथ किसी महिला को देखती हूं तो उनकी नजदीकियों से मुझे ईर्ष्या होने लगती है। लेकिन इन सब बातों का प्रभाव हमारी शादी पर नहीं पड़ता।'' 
दूसरी तरफ एक प्राइवेट कंपनी में कार्य करने वाले अविवाहित राकेश गुप्ता का कहना है कि शादी के पहले या शादी के बाद दोस्त के साथ होने वाला भावनात्मक लगाव प्यार में भी बदल सकता है। ऐसा तब होता है जब पति और पत्नी एक साथ एक दफ्तर में कार्य नहीं करते हैं और घर में एक साथ बहुत कम समय बिताते हैं जबकि सहकर्मी के साथ रोजाना 12 से 15 घंटे बिताने पड़ते हैं।
मनोचिकित्सकों का कहना है कि सीमा से परे संबंधों का प्रचलन आजकल पूरे विश्व में तेजी से बढ़ रहा है, इसलिए शादी के नियमों को फिर से लिखा जाना चाहिए। हालांकि ऐसे संबंध वास्तव में बहुत गंभीर नहीं होते हैं। फिर भी अधिकतर पति को पत्नी से और पत्नी को पति से दोस्त रखने पर तब तक कोई आपत्ति नहीं होती है जब तक कि उसमें सेक्स शामिल नहीं होता है।
एक पी.आर. कंपनी में कार्य करने वाले सुमित और बीमा कंपनी में कार्य करने वाली अनुराधा में शादी के बाद तीन साल साथ रहने के बाद तलाक हो गया। अनुराधा कहती हैं कि तलाक के बाद भी हम अच्छे दोस्त हैं। हमलोग एक दूसरे के दोस्तों को अच्छी तरह जानते हैं। तलाक के कारण के बारे में वह बताती हैं कि सुमित नहीं चाहता था कि मैं कोई प्राइवेसी रखूं लेकिन वह अक्सर शाम में एक महिला दोस्त के साथ होता था और उस समय मुझे कोई अहमियत नहीं देता था।
दूसरी तरफ सुमित का कहना है, ''मैंने इस बात पर कभी ध्यान नहीं दिया कि मेरी पत्नी अपने पुरुष दोस्त के साथ फिल्म देखने या कॉफी पीने जा रही है। यह बात मुझे जरूर चुभती थी कि देर रात में दफ्तर का काम खत्म होने पर जब उसके दोस्त उसे घर छोड़ने आते थे और उसे उनका एहसान जताना पड़ता था। हमलोग परिस्थिति में बदलाव नहीं ला सकते थे, इसलिए अलग हो जाना ही उचित समझा।''
काउंसलर रीमा माथुर कहती हैं, ''दोस्ती शादीशुदा जिंदगी में ताजगी का झोंका लाती है। मेरा पति एक बीमा कंपनी में कार्य करता है। कभी-कभी उसे देर रात तक दफ्तर में रुकना पड़ता है। उसके पास गाड़ी नहीं है लेकिन उसके कई पुरुष और महिला दोस्तों के पास गाड़ी है और वे उसे देर रात में घर छोड़ने आते हैं। लेकिन मुझे उसके महिला दोस्तों से कोई ईर्ष्या नहीं होती है। मैं खुद भी कार्य के दौरान कई हैंडसम पुरुषों से मिलती हूं। लेकिन अगर मिलने-जुलने वालों से और सहकर्मी से प्यार होने लगता तो अब तक मैं दर्जर्नोंं पुरुषों से प्यार कर चुकी होती।''
आशा बनर्जी कहती हैं कि विपरीत लिंग के साथ दोस्ती के मूल्य गिरते जा रहे हैं। यदि किसी की शादी किसी तीसरे व्यक्ति के कारण टूटती है तो यह स्वभाविक है कि तीसरे व्यक्ति के साथ पति या पत्नी की दोस्ती बंधनों को तोड़ चुकी है। जब कोई पति या पत्नी विपरीत लिंग वाले दोस्त के बारे में अधिक सोचने और उसकी अधिक परवाह करने लगता है तो यह अपने पार्टनर के साथ विश्वासघात होता है। इसलिए समझदार लोग दोस्ती की खातिर अपनी शादीशुदा जिंदगी को जोखिम में नहीं डालते। 


 


जागरूकता से रूक सकती है स्तन कैंसर से होने वाली मौतें

नई दिल्ली : भारतीय मरीजों में स्तन कैंसर के ग्रेड और चरण अन्य देशों की तुलना में अधिक उच्च होते हैंयहां तक कि पढ़ी-लिखी जो महिलाएं स्तन कैंसर का इलाज कराती हैं वे भी इलाज के लिए वैकल्पिक विधियों को अपनाती हैंकीमोथेरेपी या मास्टेक्टोमी सर्जरी के बारे में कई गलतफहमी और जागरूकता की कमी है और इसके कारण ज्यादातर महिलाएं समय पर इलाज नहीं कराती हैं और ज्याद दातर वैकल्पिक दवाइयों के विकल्प को चुनती हैं। हालांकि प्रारंभ में ऐसे उपचार मरीजों के लिए लुभावने लगते हैं लेकिन जैसे ही बीमारी के चरण बढ़ते हैं और बीमारी उनके नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो वे एलोपैथिक उपचार का विकल्प चुनती हैं। इस कारण वे समय पर इलाज नहीं करा पाती हैं। मैक्स सपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, शालीमार बाग, नई दिल्ली के ब्रेस्ट ओंकोलॉजी की वरिष्ठ कंसल्टेंट डॉ. एस. वेदा पद्म प्रिया ने कहा, " भारत में, सालाना हर पच्चीस में से एक महिला में स्तन कैंसर का निदान किया जाता है, जो अमेरिका / ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की तुलना में कम है जहां सालाना 8 में से 1 रोगी में स्तन कैंसर का निदान किया जाता हैहालांकि इस तथ्य के कारण कि विकसित देशों में जागरूकता की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही है और वहां वहां शुरुआती चरणों में ही ऐसे अधिकतर मामलों का निदान और इलाज किया जाता है और इसलिए वहां जीवित रहने की दर बेहतर होती है। लेकिन जब हम भारतीय परिदृश्य पर विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि यहां उच्च जनसंख्या अनुपात और कम जागरूकता के कारण जीवित रहने की दर काफी कम है। जिन मरीजों में स्तन कैंसर की पहचान होती है उन मरीजों में से हर दो रोगियों में से एक रोगी की अगले पांच वर्षों में मौत हो जाती है जो 50 प्रतिशत मृत्यु दर के लिए जिम्मेदार होते हैं। शहरों में कई रोगियों में रोग की पहचान दूसरे चरण में की जाती है जब टी 2 घाव ऐसे गांठ होते हैं, जिन्हें स्पर्श करने पर महसूस किया जा सकता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के मामलों में, इन घावों का पता मेटास्टैटिक ट्यूमर में परिवर्तित होने के बाद ही चलता है


स्तन कैंसर दुनिया भर में कैंसर से ग्रस्त मरीजों में मृत्यु के प्रमुख कारणों में से एक हैग्लोबैकन 2017 के हाल के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय महिलाओं में स्तन कैंसर दुनिया भर में सबसे ज्यादा होता है। कैंसर की मरीजों के सबंध में नई प्रवृतियां सामने आ रही है और अस्पताल आने वाली नई मरीजों के आयु समूह में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है और यह 55 वर्ष से कम होकर 40 वर्ष से भी कम उम्र तक गिर गया है। आईसीएमआर 2017 में दर्ज आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल भारत में 1.5 लाख से अधिक स्तन कैंसर की मरीजों को दर्ज किया गया है। वैश्विक स्तर पर, 40 साल से कम उम्र की 7 प्रतिशत आबादी स्तन कैंसर से पीड़ित है, जबकि भारत में, यह दर दोगुनी है यानी 15 प्रतिशत है। और जिनमें 1 प्रतिशत रोगी पुरुष हैं, जिसके कारण विश्व स्तर पर भारत से स्तन कैंसर रोगियों की सबसे ज्यादा संख्या हो जाती हैस्तन कैंसर वंशानुगत होता है, इसके अलावा, कई अन्य जोखिम कारक जैसे निष्क्रिय जीवनशैली, शराब का सेवन, धूम्रपान, युवाओं में मोटापा और तनाव में वृद्धि और खराब आहार के सेवन को भी युवा भारतीय महिलाओं में स्तन कैंसर के मामलों में वृद्धि के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। एनसीबीआई 2016 द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, शाकाहारी महिलाओं को स्तन कैंसर होने का खतरा 40 प्रतिशत कम होता है।


पिछले दशक में, हालांकि स्तन कैंसर के मामलों में वृद्धि हुई है, लेकिन कैंसर देखभाल के प्रति जागरूकता, पहुंच और नजरिये में परिवर्तन के कारण स्तन कैंसर से होने वाली मौतें धीरे-धीरे कम हो रही है। सरोज सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल के मेडिकल ओन्कोलॉजी के वरिष्ठ कंसल्टेंट डॉ. पी. एन उप्पल ने कहा, "लोगों में यह जागरूकता पैदा की जानी चाहिए कि प्रारंभिक चरणों में ही अधिकांश स्तन कैंसर का पता लग जाता है, क्योंकि स्तन कैंसर वाली अधिकांश महिला मेटास्टेसिस (जब ट्यूमर शरीर के अन्य अंगों में फैलता है) के बाद अस्पताल आती हैं। कैंसर के मेटास्टैटिक या उन्नत चरणों में, इसका पूरी तरह से इलाज नहीं हो पाता है और उपचार का उद्देश्य रेमिशन (जहां ट्यूमर सिकुड़ता है या गायब हो जाता है) प्राप्त करना होता है।"


 


रौशनी के पर्व दिवाली के मौके पर सेहत के साथ मिठास का लुत्फ उठायें

शिल्पा ठाकुर, प्रमुख आहार विषेशज्ञ, एशियन इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस


दिवाली रौशनी का पर्व है। हर भारतीय इस पर्व का इंतजार करता है। यह भारत का सबसे रंगारंग और खुशियों से भरा पर्व है। मैं जब भी रौशनी के पर्व के बारे में सोचती हूं, मेरे दिमाग में सबसे पहले पटाखों का ख्याल आता है। दिवाली में फोड़े जाने वाले पटाखे दिवाली की मस्ती को बढ़ाते हैं। इसके अलावा मिठाइयां एवं स्नैक्स वे अन्य कारण हैं, जिनके कारण हम दिवाली की प्रतीक्षा करते हैं। हम आपको ऐसे उपाय बताते हैं जिससे आप बिना किसी चिंता एवं तनाव के दीवाली के पकवान का आनंद उठा सकेंगे। दिवाली के बारे में यह सही ही कहा गया है कि 
हे प्रभु
हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो
हमें अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले चलो,
मौत से अमरता की ओर ले चलो
मुझे रास्ता दिखाओ, मेरे प्रभु।
इस ब्रह्माण्ड में शांति का वास हो। 


हिन्दू धर्म की एक प्रार्थना


मिठाइयां मिठी दावत है। मिठाइयां दिवाली उत्सव का मुख्य हिस्सा है और मिठाइयां की सौगात परिवारजनों एवं दोस्तों को भेंट की जाती हैं। इस बात में कोई षक नहीं है कि मिठाइयों में अधिक मात्रा में षक्कर एवं वसा मौजूद होते हैं। लेकिन चूंकि दिवाली एक साल में एक बार आती है और ऐसे में दिवाली में अपने पसंदीदा व्यंजन खाने से परहेज करने की जरूरत नहीं है, केवल इस बात पर ध्यान रखें कि आप कितना खा रहे हैं। यहां कुछ स्वास्थ्यवर्द्धक टिप्स दिये जा रहे हैं जिनकी मदद से मिठाइयों के मजे दोगुने हो जायेंगे। 
दिवाली की मिठाइयां, कुछ अलग हट कर
छुट्टी की भावना में भर कर अपनी मिठाई खुद बनाने के लिये अपने परिवार को साथ लें। इस तरह से कम षक्कर मिलाकर, कम वसा वाले दूध और तेल का इस्तेमाल करके तथा घी के स्थान पर कम वसा वाले स्प्रेड का इस्तेमाल करके अपने परिवार को सेहत मंद रख सकते हैं। मिठाइयों का सेवन आप ज्यादा नहीं कर सकें, इसके लिये एक उपाय यह है कि आप उन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें और उसके साथ सूखे फल एवं नट्स मिला लें। आप मिठाइयों एवं स्नैक्स का चयन सोच-समझ कर करें और स्वास्थ्यकारी विकल्प को अपनायें।
यहां आपके लिये कुछ स्वास्थ्यकारी उपाय बताये जा रहे हैं ताकि आप शानदार दावत का भरपूर आनंद ले सकेंगे। जब आप तरह-तरह के व्यंजनों से घिरे हैं, ऐसे में अपने आप पर से नियंत्रण हट जाना स्वभाविक है लेकिन आप इन विकल्पों को आजमा सकते हैं।
सबसे पहले बादाम के टुकड़े अथवा सूखे फल जैसी कुछ विषेश सामग्रियों को षामिल करें। अथवा विभिन्न तरह की सब्जियां में से चुनाव करें। उन सब्जियों का चुनाव करें जिन्हें आम तौर पर छोड़ दिया जाता है।  
ऽ कुछ हल्के स्नैक्स में पिस्ता बादाम के साथ खजूर अथवा अंजीर अथवा ताजे फल के टुकड़े मिलायें।
ऽ साबुत अनाज अथवा चोकर का इस्तेमाल करें तथा उसमें तेल अथवा नमक मिलाने से परहेज करें। 
ऽ घी अथवा मक्खन के स्थान पर कम मात्रा में तेल का इस्तेमाल करें।
ऽ घर पर ही कम वसा वाले दूध की पनीर बनायें और टुकड़ों को तलने के बजाय ग्रिल करें। 
ऽ अधिक तले हुए प्रचलित स्नैक्स की बजाय, उन्हें हल्के तेल में भुनने की कोशिश करें या गर्म ओवन में सुनहरा होने तक बेक करें।
ऽ देर शाम में नियमित भोजन करें और भारी भोजन लेने से परहेज करें। यह आपको स्नैक्स लेने को रोकने और दिन के दौरान अतिरिक्त मीठा लेने से रोकने में मदद करेगा।
ऽ जब आप खा रहे हों तो समय पर थोड़ी मात्रा में खाने की कोशिश करें। और दूसरी बार लेने से परहेज करने की कोषिष करें, यहां तक अगर आप अपने किसी अजीज रिष्तेदार के साथ भी हों तब भी अपने पर नियंत्रण रखें। यह सुनिश्चित करें कि आप दिन के दौरान काफी मात्रा में पानी पीयें। हालांकि जब आप व्यस्त हों तो इसे भूलना आसान है।
ऽ मधुमेह रोगियों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है कि वे एक जगह नहीं बैठें। यहां तक कि वे षुगर फ्री मिठाइयों विशेषकर सुक्रोलोज या एफडीए स्वीकृत चीजों का सेवन कर अपना इलाज कर सकते हैं जो सेवन के लिए सुरक्षित हैं।
ऽ रंगयुक्त मिठाइयों के सेवन से बचें क्योंकि इन्हें गैर खाद्य पदार्थों से तैयार किया जा सकता है।
ऽ रोजाना थोड़ा सक्रिय रहें। यदि आप वास्तव में थोड़ी कैलोरी जलाना चाहते हैं तो स्थानीय मंदिर/पार्क तक परिवार के साथ पैदल जाने की कोशिश करें।
इस तरह आप उत्सव के दौरान कुछ स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों के स्वाद का आनंद ले सकते हैं। और इस तरह सिर्फ कुछ परिवर्तन कर अपनी दीवाली को थोड़ा स्वस्थ रूप से मना सकते हैं। दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएं।


ई सिगरेट पर से प्रतिबंध वापस लिया जाए

इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट ट्रेड एसोसिएशन ने ई सिगरेट पर प्रतिबंध को लेकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र लिखा


• इस पत्र में इस तथ्य की ओर मुख्यमंत्री का ध्यान आकृष्ट किया गया है कि भारत सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से पारंपरिक सिगरेट के लिए एक सुरक्षित विकल्प पर प्रतिबंध लगाया है। यह एक ऐसा विकल्प है जो मध्य प्रदेश में सिगरेट पीने वाले दस लाख लोगों को उपलब्ध कराया जाना चाहिएपत्र में मप्र सरकार से आग्रह किया गया है कि है कि वह नागरिकों के हितों में काम करते हुए केन्द्र सरकार से कहे कि राज्य के स्वास्थ्य विभाग को पारम्परिक सिगरेट के उभरते हुए विकल्प ई सिगरेट का मूल्यांकन करने के लिए स्वतंत्र अध्ययन करने की अनुमति प्रदान करे जिसे अन्य 70 देशों ने प्रतिबंधित करने के बजाय उनका नियमन किया है।


भारत में ई- सिगरेट पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक अध्यादेश लाने के केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के हालिया कदम के मद्देनजर, स्वयंसेवी संगठन ट्रेंड्स (टीआरईएनडीएस) ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर उनसे इस बात का मूल्यांकन करने का अनुरोध किया है कि वह खुद देखें कि राज्य के नागरिक के सर्वोत्तम हित में क्या है। ट्रेंड्स इलेक्ट्रॉनिक निकोटीन डिलीवरी सिस्टम (ईएनडीएस) उपकरणों के आयातकों, वितरको और विक्रेताओं का एक समूह है जो भारत में इलेक्ट्रॉनिक निकोटीन डिलीवरी सिस्टम (ईएनडीएस) के व्यापार प्रतिनिधियों का स्वैच्छिक संगठन हैमध्य प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री श्री कमलनाथ को लिखे अपने पत्र में, ट्रेंड्स (टीआरईएनडीएस) ने इस बात को रेखांकित किया है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने तंबाक सेवन करने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले विभिन्न तरीकों से जुड़े जोखिमों का तुलनात्मक आकलन या अध्ययन या कोई शोध नहीं किया है और उसने सभी राज्यों को ई सिगरेट पर प्रतिबंध लगाने का परामर्श भेज दिया हैमंत्रालय ने भारत में ई- सिगरेट पर प्रतिबंध लगाने के अपने फैसले को सही ठहराने के लिए अमेरिका से प्राप्त आंकड़ों को आधार बनाया हैट्रेंड्स (टीआरईएनडीएस) के संयोजक प्रवीण रिखी ने मुख्यमंत्री से गुहार लगाते हुए कहा, 'हम आपसे अनुरोध करते हैं कि मध्य प्रदेश के नेता के रूप में आप केंद्र सरकार से कहें कि वह राज्य के स्वास्थ्य विभाग को इस बारे में अपना शोध और अध्ययन करने की अनुमति दे ताकि कोई ऐसा तर्कसंगत फैसला लिया जा सके जो राज्य के ज्यादा से ज्यादा लोगों के हित में हो।" उन्होंने कहा, “स्वास्थ्य राज्य विषयक मामला है और तंबाकू के सेवन से जुड़ी बीमारियों के इलाज पर होने वाले अत्यधिक खर्च का बोझ राज्य के खजाने पर पड़ता है। अगर हमारे पास सिगरेट सेवन का एक सुरक्षित विकल्प है, जो कैंसर होने के मामलों में 50 प्रतिशत तक कमी कर देता है, तो आपके राज्य को धूम्रपान करने वालों के समक्ष इस विकल्प को क्यों नहीं पेश करना चाहिए? खासकर जब मध्य प्रदेश में तंबाकू सेवन करने वालों और सिगरेट पीने वालों का प्रतिशत क्रमशः 34.2 प्रतिशत और 10.4 प्रतिशत है।"


ट्रेंड्स (टीआरईएनडीएस) ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के समक्ष इस बात को रेखांकित किया कि ई सिगरेट पर प्रतिबंध लगाने वाला केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का अध्यादेश "चुनिंदा वैज्ञानिक और चिकित्सकीय राय" पर आधारित है हितधारकों की एक भी बैठक के बगैर इस तरह का फैसला लेना लोकतांत्रिक तौर तरीकों की हत्या के अलावा कुछ और नहीं है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉ. अतुल अंबेर समेत विश्व के प्रसिद्ध चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों ने आईसीएमआर के उन चार दावों में से हर दावे को खारिज किया है जिन दावों के आधार पर ई सिगरेट पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव किया गया और जिन दावों के आधार पर यह प्रतिबंध लगाया गयाट्रेंड्स ने मुख्यमंत्री का ध्यान ई सिगरेट से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर भी दिलाया है जिन पर केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने समुचित ध्यान नहीं दिया। पत्र में कहा गया है कि 70 देशों ने ई- सिगरेट श्रेणी को सुरक्षित तरीके से संबंधित सुरक्षा उपायों के साथ धूम्रपान करने वालों व्यस्कों तक पहुंच को अनुमति दी है। ये सुरक्षा उपाय ई लिक्विड घटकों, विज्ञापन, प्रचार, ट्रेडमार्क, स्वास्थ्य चेतावनी संबंधी लेबल और बाल सुरक्षा मानदंडों समेत बिक्री, उत्पादन, वितरण, उपयोग और उत्पाद डिजाइन से संबंधित हैं। इस समय केवल 28 देशों ने प्रतिबंध लगाया है जिनमें से कई विनियमित करने के बारे में विचार कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर यूएई ने हाल ही में प्रतिबंध हटा लिया। जिन देशों में ई- सिगरेट को विनियमित किया जा रहा है वहां धूम्रपान की दर में काफी गिरावट आई है (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कई अन्य)। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अनेक टेपानी 5 देश की सरकारें एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान परम्परागत सिगरेट की तुलना में ईसिगरेट को काफी हद तक सुरक्षित मानते हैं (पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड, कैंसर रिसर्च, ब्रिटेन, रॉयल कालेज आफ फिजिशियंस, सेंटे प्यूब्लिक फ्रांस और कई अन्य)


आफ फिजिशियंस, सेंटे प्यूब्लिक फ्रांस और कई अन्य)ट्रेंड्स (टीआरईएनडीएस) ने अपने पत्र में मुख्यमंत्री श्री कमलनाथ से अनुरोध किया कि वे पद का उपयोग करते हुए केन्द्र सरकार, खास तौर पर केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से अनुरोध करें कि संसद के अगले सत्र में ई- सिगरेट पर प्रतिबंध लगाने के बारे में अंतिम फैसला लेने से पहले सार्वजनिक स्वास्थ्य, राज्य के खजाने, किसान और व्यापार रोजगार और वयस्क उपभोक्ताओं पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों पर विचार-विमर्श किया जाए।