जब देव आनंद ने 30 रूपए में बेच दिया डाक टिकटों का बेशकीमती अलबम

देव आनंद फिल्मों में कैरियर बनाने के लिए मुंबई पहुंचे थे जहां वह शुरू में कुछ समय फिल्म पत्रकार ख्वाजा अहमद अब्बास के घर में रहते थे। लेकिन बाद में उन्होंने वहां से कहीं और रहने का फैसला किया और अब्बास साहब के घर से निकल गए। जब वह अब्बास साहब के घर से निकले थे तो उनके पास कोई पैसे नहीं थे, लेकिन देव आनंद के पास हिम्मत और उत्साह की कमी नहीं थी। उन्हें हर हाल में अपने बहुरंगी सपनों को संवारना था। वह सामने आती एक बस में बैठ गये और “विक्टोरिया टर्मिनस” पहुंच गये। बस से उतरकर हॉर्नबाई रोड की तरफ पैदल चलने लगे। उन्हें जोर की भूख लगी थी। उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला कि शायद जेब में एक-दो रुपया पड़ा हो। लेकिन सभी जेबें खाली थीं। जेब में केवल एक रुमाल पड़ा था और कुछ नहीं। पैदल चलते हुये ही देव आनंद शिवाजी पार्क पहुंच गये। उस समय तक भूख और बढ़ गयी। सड़क के दोनों ओर मिठाइयों, फलों और जूस की दुकानें थी जो उनकी भूख और प्यास को और बढ़ा रही थी। सामने पुराने टिकटों को बेचने वाला दिख गया। अचानक उन्हें अपनी जरूरत को पूरी करने का रास्ता सूझ गया। उन्हें उस आदमी के पास टिकटों का अपना अनमोल अलबम बेच दिया जिसे वह वर्षों से संभाल कर रख रहे थे। इस अलबम को बेचने पर उन्हें 30 रूपये मिले जिससे कुछ और दिनों तक बंबई में गुजारा कर सकते थे। उन्हें अपनी प्यास मिटाने के लिये लेमनेड की एक बोतल खरीदी। उन्हें इतनी तेज की प्यास लगी थी कि एक घूंट में लेमनेड की आधी बोलत गटक गये। इसके बाद आधा दर्जन केले खाकर भूख मिटायी।
अपनी प्यास और भूख मिटाकर जब आगे बढ़ रहे थे तो उन्हें किसी ने आवाज दी। उन्होंने घूम कर देखा - उन्हें आवाज देने वाला कोई और नहीं उनके बचपन का दोस्त तारा था। तारा ने उन्हें बताया कि वह अपने भाई के साथ परेल में एक चाल में रहता था। तारा ने देव आनंद को अपने साथ रहने की पेशकश की। कृष्णा निवास नाम की यह  यह चाल परेल में केईएम हॉस्पिटल के सामने थी। पांच फ्लोर वाली इस चाल में एक-एक कमरे वाले मकान थे और हर मकान में अलग-परिवार रहते थे। हर फ्लोर पर रहने वाले सभी परिवारों के लिये एक बाथरुम था। देव आनंद उस चाल में तारा और उसके भाई के साथ कुछ महीने बिताए। तारा और उनके भाई ने हमेशा देव आनंद को प्रोत्साहित किया और मदद भी की। तारा और देव आनंद सुबह चाल से निकल जाते थे और काम की तलाश में दिन भर भटकते रहते थे। हर शाम जब दोनों दिन भर थककर लौटते तो चाल  की गली के कोने पर स्थित उदीपी रेस्टोरेंट गरमा-गरम इडली और मसाला डोसा खाते थे जो वहां काफी मशहूर था। जल्द ही टिकटों के एलबम बेच कर कमाये गये 30 रुपये खत्म हो गये। 
सदाबहार आनंद — देवानंद नामक पुस्तक से।