मौजूदा समय में वायरल बुखार का प्रकोप दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इस मौसम में यह अक्सर महामारी का रूप धारण कर लेता है। नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञ डा. जे.एम. दुआ का कहना है कि फिलहाल इस बुखार की कोई कारगर दवा का विकास नहीं हुआ है , हालांकि विकसित देशों में इसके बचाव के लिये एक टीके का विकास हुआ है। अत्यंत मंहगा होने के कारण भारत में यह टीका फिलहाल प्रचलित नहीं है।
बरसात के दिनों में कहर बरपाने वाला वायरल बुखार अत्यंत संक्रामक रोग है जिससे कोई भी व्यक्ति किसी भी समय और कहीं भी ग्रस्त हो सकता है। हालांकि बच्चे और बुजुर्ग इसकी चपेट में अधिक आते हैं। इस बुखार का प्रकोप वैसे तो हर मौसम में होता है लेकिन बरसात में इसका प्रकोप बढ़ जाता है। इसलिये इस मौसम में इसके प्रति विशेष सावधान रहने की जरूरत है।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञ डा. जे. एम. दुआ बताते हैं कि वायरल फीवर के मुख्य लक्षणों में काॅमन कोल्ड, छींक, जुकाम, नाक का बहना, नाक का बंद होना, गले में संक्रमण, अचानक तेज बुखार आदि होता है। कभी-कभी हल्का बुखार भी हो सकता है, लेकिन अधिकतर लोगों में बुखार तेज होता है और साथ ही तेज बदन दर्द भी होता है। इसलिए अगर बदन दर्द और तेज बुखार के साथ सिर दर्द, जुकाम, गला खराब आदि हो तो यह समझ लेना चाहिए कि यह वारयल अटैक है। गले में संक्रमण होने पर सावधानी और एहतियात नहीं बरतने पर संक्रमण फेफड़े में भी जा सकता है। कुछ मामलों में निमोनिया भी हो सकता है।
वायरस किसी भी व्यक्ति को संक्रमित कर सकते हैं। चाहे व्यक्ति दुबला हो या तंदुरुस्त, अगर उसकी प्रतिरोधक क्षमता कम है या उसे लंबे समय से कोई गंभीर बीमारी है तो वह जल्द वायरस की चपेट में आ जाता है। बारिश में बाहर निकलने, बारिश में भीग जाने, तेज धूप से अचानक एयर कंडीशन वाले वातावरण में आने, नहाने के बाद शरीर को ठीक से पोंछे बगैर तेज पंखे के सामने आ जाने पर हवा में घूमते रहने वाले वायरस या बैक्टीरिया व्यक्ति को संक्रमित कर देते हैं।
डा. दुआ बताते हैं कि वायरल फीवर का कोई मानक इलाज नहीं है। हल्का बुखार और हल्की सर्दी होने पर रोगी अपनी दिनचर्या का काम कर सकता है। लेकिन उसे भाग-दौड़ वाला काम नहीं करना चाहिए, संतुलित भोजन करना चाहिए और आराम करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बिना दवा के ही कुछ दिनों में ठीक हो जाएगा। बुखार होने पर बुखार की स्थिति और अपनी बर्दाश्त करने की क्षमता के अनुसार पैरासिटामोल, क्रोसिन, कालपोल आदि चार, छह या आठ घंटे पर लिया जा सकता है। पैरासिटामोल से बुखार तो कम होता ही है, बदन दर्द से भी थोड़ी राहत मिलती है। लेकिन इसके साथ अक्सर एक एंटीएलर्जिक दवा भी लेनी पड़ती है ताकि नाक का बहना थोड़ा कम हो जाए। इन दवाओं के साथ कभी-कभी विटामिन 'सी' या विटामिन 'बी' काॅम्प्लेक्स भी दिया जाता है और कभी-कभी तो दोनों ही दे दिया जाता है। विटामिन 'सी' प्रतिरोध क्षमता को बढ़ाता है।
अगर नाक का बहना बहुत ज्यादा है, बुखार बहुत बढ़ गया है, गले का बलगम सफेद न होकर पीला या हरानुमा आ रहा हो तो वायरल के साथ-साथ बैक्टीरियल संक्रमण की भी आशंका होती है और ऐसी स्थिति में एंटीबायोटिक दवा लेने की जरूरत पड़ सकती है। ऐसा होने पर नियमतः खून की जांच, अगर छाती में कुछ तकलीफ है तो छाती का एक्स-रे, बलगम की जांच आदि करानी चाहिए। लेकिन चूंकि ऐसी सुविधाएं हर जगह उपलब्ध नहीं होती हैं और न ही हर व्यक्ति इतना खर्च वहन कर सकता है इसलिए वह डाॅक्टर की परामर्श से एक हल्की एंटीबायोटिक दवा, जो ज्यादा महंगी न हो, तीन, पांच या सात दिनों तक ले सकता है। एंटीबायोटिक दवा कम से कम तीन दिन तक तो अवश्य ही लेना चाहिए वरना वह कारगर नहीं होता है।
डा. दुआ का सुझाव है कि मरीज को अपना इलाज अपने आप नहीं करना चाहिए। खास कर एंटीबायोटिक दवा अपने आप नहीं लेना चाहिए। हालांकि बिना कारण भी एंटीबायोटिक दवा लेने से 80-90 प्रतिशत लोगों को इससे कोई खास नुकसान नहीं होता है, लेकिन 10-20 प्रतिशत लोगों को इससे कुछ नुकसान हो सकता है। इससे होने वाला नुकसान सीधे तौर पर दिखाई नहीं देता है, लेकिन कुछ लोगों में गैस्ट्राइटिस, एसिडिटी, खारिश आदि हो सकती है। ऐसा नहीं है कि डाॅक्टर के परामर्श से एंटीबायोटिक लेने पर खारिश नहीं होगी और खुद लेने पर खारिश हो जाएगी। लेकिन बिना जरूरत दवा लेने पर इससे नुकसान हो सकता है और आगे उस दवा का असर कम होगा क्योंकि जीवाणु दवा के विरुद्ध प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेते है और इस कारण दवा को जितना काम करना चाहिए, उससे कम काम करेगी। ऐसे में जीवाणु अधिक तेजी से वृद्धि करेंगे और संक्रमण अधिक फैल सकता है। बिना जरूरत के एंटीबायोटिक के सेवन में सिर्फ रोगी की ही गलती नहीं होती, बल्कि कुछ हद तक डाॅक्टरों की भी गलती होती है क्योंकि डाॅक्टर कई बार बिना जरूरत के भी एंटीबायोटिक दे देते हैं।
वायरस और बैक्टीरिया के वृद्धि करने के लिए यह मौसम बहुत ही अच्छा है। जगह-जगह पानी भरे हैं, गंदगी पड़ी है, बारिश की वजह से नाले भर गए हैं, काई जम गई है। तापमान में अचानक उतार-चढ़ाव होता है, वातावरण में आर्द्रता काफी अधिक है। ऐसे माहौल में वायरस और बैक्टीरिया तेजी से वृद्धि करते हैं। वायरल फीवर के अलावा इस मौसम में अक्सर पेट भी खराब रहता है। बाहर का खाना खाने और पानी पीने, कटे फल या बिना धुले फल या गंदे पानी से धुले फल खाने, बाहर का जूस पीने से गैस्ट्राइटिस या गैस्ट्रोइंटेराइटिस हो सकता है। इसमें पेट खराब हो सकता है, दस्त लग सकते हैं, पेट में दर्द हो सकता है, पेट में गैस बन सकती है, उल्टी हो सकती है। इस मौसम में पीलिया और टायफायड बुखार की भी शिकायत अक्सर सुनने को मिलती है।
नवंबर और मार्च के महीने में भी वायरल फीवर का अधिक प्रकोप होता है। इस समय मौसम में अचानक बदलाव आ रहा होता है, दिन में गर्मी होती है और रात में ठंड। रात और दिन के तापमान में काफी ज्यादा अंतर होता है। इससे ठंड लगने की अधिक आशंका होती है। मौसम में बदलाव से संबंधित बीमारियों के लिए खास तौर पर कोई दवा नहीं है। इसमें सिर्फ शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं। नियमित सैर करना, शरीर को बचा कर रखना, समय पर साफ-संतुलित भोजन करने से इनसे काफी हद तक बचा जा सकता है। - विनोद विप्लव
वायरल फीवर का प्रकोप
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