त्वचा की बीमारियों को लेकर जरूरी है जागरूकता 

हमारे देश में त्वचा रोगों तथा त्वचा की सेहत को लेकर जागरूकता का बहुत ​अधिक अभाव है। आम लोगों में मुंहासे, फंगल संक्रमण, कुष्ठ रोग, विटिलिगो और त्वचा की अन्य समस्याओं को लेकर काफी अधिक भ्रांतियां मोजूद है। ''कुष्ठ रोग, विटिलिगो और अन्य त्वचा संक्रमण आदि के खिलाफ समाज में काफी गलत धारणाएं मौजूद हैं। भारत वर्तमान में दुनिया में सबसे बड़ा कुष्ठ रोग उन्मूलन कार्यक्रम 'राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनएलईपी)' चला रहा है। कुष्ठ रोग हो जाने के बाद लोगों को समाज से बहिश्कार कर दिया जाता है, नौकरी से निकाल दिया जाता है और कभी-कभी तो उन्हें उचित मकान मिलने में भी परेषानी हो सकते हैं। 


आईएडीवीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डाॅ. मुकेश गिरधर ने कहा, ''ल्यूकोडरर्मा के सामान्य नाम से जानी जाने वाली विटिलिगो त्वचा की बीमारी है जिसमें आपके शरीर कीं स्वस्थ कोशिकाएं प्रभावित होती हैं। विटिलिगो दुनिया भर में लगभग 0.5 प्रतिशत से एक प्रतिषत लोगों को प्रभावित करती है लेकिन भारत में इसका प्रसार काफी अधिक 3 प्रतिशत है और यहां इस बीमारी को लेकर कई मिथ्या भी प्रचलित है। यह बीमारी किसी भी उम्र में शुरू हो सकती है, लेकिन विटिलिगो से प्रभावित करीब आधे लोगों में यह 20 साल की उम्र से पहले ही हो जाती है और करीब 95 प्रतिशत लोगों में यह 40 वर्ष से पहले होती है। यह दोनों लिंग, सभी नस्लों और सभी जातियों को प्रभावित करती है। विभिन्न लोगों में रोग की प्रवृत्ति अलग- अलग होती है। विटिलिगो से संबंधित कई मिथकों के कारण इससे प्रभावित लोगों का अक्सर बहिष्कार किया जाता है। विटिलिगो व्यक्ति की दैनिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं करता है। यह सामाजिक कलंक है जिसे दूर करने की आवश्यकता है और इस संबंध में जागरूकता जरूरी है।''


कुष्ठ रोग पर उपलब्ध आंकड़ों के बारे में बात करते हुए आईएडीवीएल के संयुक्त सचिव डॉ. दिनेश कुमार देवराज ने कहा, ''लेप्रोसी केस डिटेक्शन कम्पेन (एलसीडीसी) के कारण भारत में वर्तमान में प्रति 10 हजार व्यक्ति में से 0.66 व्यक्ति को कुष्ठ रोग है। कुश्ठ रोग से अधिक प्रभावित क्षेत्रों की पहचान की जा रही है इसलिए अब यह नियंत्रण में है। दोनों ही कारकों के बिल्कुल अलग होने, नैदानिक पुष्टि और सार्वजनिक जागरूकता की कमी के कारण कुष्ठ रोग के निदान में देरी होती है। कुश्ठ रोग से अधिक प्रभावित क्षेत्रों में कुष्ठ रोग के मामलों की जल्द पहचान करने के लिए अब सरकार के द्वारा एलसीडीसी के रूप में कई प्रयास किए जा रहे हैं । 


डॉ. रोहित बत्रा ने बताया, ''नीमहकीम किसी भी चिकित्सा क्षेत्र और मुख्य रूप से त्वचा देखभाल के मामले में प्राथमिक चिंता का विशय है। आवागमन में बाधा, ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की कमी आदि जैसी कई बाधाएं हैं जिसके कारण भारत में नीमहकीमों में संख्या में वृद्धि हो रही हैं। आवश्यक पेशेवर योग्यता और डिग्री के बिना ही डॉक्टर न केवल बीमारियों का इलाज कर सकते हैं बल्कि इस स्थिति को और भी खराब कर सकते हैं। हाल ही में जारी किए गए मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार देश में 50 प्रतिषत से ज्यादा डॉक्टर औपचारिक डिग्री के बिना ही प्रैक्टिस कर रहे हैं।