सेरोगेसी के मामलों में हो रही है वृद्धि 

निःसंतान दम्पतियों के लिए सेरोगेसी एक वरदान के समान है। यही कारण है कि भारत सहित दुनिया भर सेरोगेसी के मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। कहा जाता है कि सेरोगेसी की परम्परा महाभारत जितनी पुरानी है। प्रकाशित तथ्यों के अनुसार सेरोगेसी का पहला मामला अमरीका में 1985 में सामने आया था। यूं तो 1970 के दशक से ही आइवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) तकनीक का प्रयोग कृत्रिम गर्भधारण के लिए किया जा रहा है। परंतु हाल के वर्षो में भारत में कृत्रिम गर्भधारण के बढ़ते मामलों और 'सेरोगेटेड मदर' की अवधारणा के प्रचार बढ़ने से इस विषय पर कानूनविदों और समाजशास्त्रियों में बहस छिड़ गई है। 
प्रजनन विषेषज्ञ डा.सोनिया मलिक बताती हैं कि सेरोगेटेड मदर की अवधारणा के तहत एक औरत किसी दूसरे दंपति के बच्चे को अपनी कोख में पालती और फिर जन्म देती है। अमरीकन सोसायटी फाॅर रिप्रोडक्टिव मेडिसीन से संबद्ध साउंथेंड रोटंडा सेंटर फाॅर ह्यूमन रिप्रोडक्षन की प्रमुख डा. मलिक के अनुसार सेरोगेसी दो तरह से सम्पन्न हो सकती है। पहली प्रक्रिया के तहत निःसंतान दंपति में पति के शुक्राणु और पत्नी के अंडे ले कर प्रयोगशाला में इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक की मदद से भ्रूण विकसित किया जाता है। इसके बाद इस भ्रूण को किराये की कोख देने वाली या सेरोगेट मां की भूमिका निभाने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया से उत्पन्न शिशु पर सेरोगेट महिला का कोई आनुवांशिक (जेनेटिक) प्रभाव नहीं होता। 
नयी दिल्ली के वसंत विहार के होली एंजिल्स हाॅस्पीटल स्थित प्रजनन केन्द्र की निदेशक डा. मलिक बताती है कि दूसरी स्थिति में जब निःसंतान दम्पति में पत्नी अंडे उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होती है तो पति के शुक्राणु को ही सेरोगेट महिला के गर्भ में इंजेक्ट किया जाता है। इस स्थिति में भ्रूण सेरोगेट महिला के गर्भ में ही विकसित होता है और इसलिए इस भ्रूण से विकसित होने वाला शिशु जेनेटिक रूप से सेरोगेट महिला से जुड़ा होता है। 
भारत में गुजरात के आनंद स्थित आकांक्षा क्लिनिक में सेरोगेट की पहली प्रक्रिया का इस्तेमाल किया गया, क्योंकि सेरोगेट मदर की भूमिका निभाने वाली महिला की निःसंतान पुत्री के अंडाशय तो बिल्कुल सामान्य थे लेकिन गर्भाशय में गड़बड़ी थी। 
सेरोगेसी को कोख किराये पर देना कहा जाता है, क्योंकि इसमें एक दंपति किसी दूसरी महिला की कोख का प्रयोग अपना बच्चा पालने और जन्म देने के लिए करते हैं। सेरोगसी और कृत्रिम गर्भधारण की तकनीकों का प्रयोग सारी दुनिया में किया जा रहा है और साथ-साथ इसके संवैधानिक और नैतिक पहलुओं पर बहस भी छिड़ी हुई है। पश्चिमी देशों में पिछले कुछ वर्षों में बनाए गए विशेष कानूनों के तहत् इस प्रकार के मामलों के संवैधानिक पक्षों का संचालन किया जा रहा है। भारत में ये मामले साक्ष्य अधिनियम के अनुच्छेद 112 के तहत आते हैं। इसके अनुसार कृत्रिम गर्भधारण द्वारा उत्पन्न शिशु वैधानिक रूप से उसके माता-पिता का ही होगा। माता-पिता द्वारा शिशु पाने के लिए प्रयोग किये गए कृत्रिम तरीकों से इसकी वैधानिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
कृत्रिम गर्भधारण के मामले में जब केवल पति शामिल होता है और उसका आनुवांशिक अंश शुक्राणु के रूप में किसी दूसरी महिला के गर्भ में कृत्रिम रूप से पहुंचाया जाता है तो इस प्रक्रिया को लेकर नैतिक प्रश्न नहीं उठाए जाते, क्योंकि इसे शादी के सामान्य प्रतिमानों का उल्लंघन नहीं समझा जाता। परंतु यदि कोई महिला मातृत्व सुख के लिए अपने पति के बजाय किसी और पुरुष के शुक्राणु प्रत्यारोपित करती है तो यहां नैतिक और संवैधानिक दोनों प्रकार के प्रश्न खड़े हो जाते हैं और खासतौर से तब जब इसमें पति की रजामंदी शामिल न हो।
पति की सहमति से यदि कोई महिला किसी दूसरे पुरुष के शुक्राणु द्वारा कृत्रिम गर्भधारण तकनीक से गर्भधारण करती है तो यह व्यभिचार का मामला नहीं समझा जाता। परंतु बगैर पति की सहमति के पत्नी का दूसरे पुरुष के शुक्राणु द्वारा गर्भधारण करना तलाक कानून के तहत व्यभिचार का मामला बन सकता है। 
क्या महिला का इस प्रकार कृत्रिम गर्भधारण में किसी दूसरे पुरुष के शुक्राणु द्वारा गर्भधारण करना अनुचित या व्यभिचार माना जाना चाहिए? स्काटलैंड में 1958 में मैकलेनन बनाम मैकलेनन मामले में इसी मुद्दे पर हुई लम्बी सुनवाई के बाद अदालत ने फैसला सुनाया कि संवैधानिक रूप से यह व्यभिचार का मामला नहीं है, क्योंकि पत्नी के कृत्रिम गर्भधारण में कहीं भी पुुरुष से 'यौन संपर्क' नहीं हुआ है। भारत में भी ऐसे मामलों में यही विचार अपनाया जा सकता है, क्योंकि भारतीय दंड संहिता में भी 'शारीरिक पहलू' पर ज्यादा जोर दिया गया है। इसके अतिरिक्त दंड संहिता में विशेष तौर से उल्लेख किया गया है कि व्यभिचार के मामले में महिला को दंड नहीं दिया जा सकता।
ब्रिटेन में 1990 में बना 'ह्यूमन फर्टिलाइजेशन एंड इम्ब्रियोलाॅजी एक्ट' कृत्रिम गर्भधारण मामलों के लिए बने कानूनों में से सबसे नया है। अमरीका के कई राज्यों में अपनाये जा चुके 'यूनिफार्म पेरेंटेज एक्ट' 1973 के अलावा पश्चिमी आस्ट्रेलिया के 'आर्टीफिशियल कंसेप्शन एक्ट' 1985 और दक्षिण वेल्स में 1984 में बने इसी तरह के कानून इन मामलों को ध्यान में रख कर बनाये गए हैं। ये सभी कानून मुख्यतः दो बातें कहते हैं। पहला, यदि कोई महिला पति की मर्जी से दूसरे पुरुष के शुक्राणु से कृत्रिम गर्भधारण करती है तो इससे उत्पन्न शिशु वैधानिक रूप से उस महिला और उसके पति का होगा। दूसरे, यदि महिला पति की रजामंदी के बगैर गर्भधारण करती है तो भी शिशु पर शुक्राणु दान करने वाले पुरुष का कोई अधिकार नहीं होगा। परंतु यह बच्चा उस महिला और उसके पति की शादी से हुआ बच्चा भी नहीं माना जाएगा। 
क्या होगा यदि कोई अविवाहित महिला कृत्रिम रूप से गर्भधारण करना चाहे? क्या चिकित्सकों को उस महिला की मदद करनी चाहिए? इंग्लैंड की 'राॅयल काॅलेज आफ आब्स्टीट्रीशियन्स एंड गायनेकोलाॅजिस्ट्स' ने अपने सदस्यों को दिशानिर्देश जारी किये हैं कि कृत्रिम गर्भधारण की प्रक्रिया का प्रयोग केवल विवाहित महिलाओं पर उनके पति की सहमति होने पर ही किए जाएं। हालांकि एक अविवाहित महिला यदि प्राकृतिक या कृत्रिम तरीके से गर्भधारण कर लेती है तो कानूनी तौर से इसे अपराध नहीं माना जा सकता। परंतु समाज इस प्रकार के आचरण की अनुमति नहीं देता। खासतौर से भारत का समाज तो बिल्कुल नहीं। इसके अलावा इस प्रकार उत्पन्न शिशु अवैध या नाजायज समझा जायगा और यह बच्चे के प्रति गलत होगा। 
भारत में कृत्रिम गर्भधारण धीरे-धीरे प्रचलित होता जा रहा है। आने वाले समय में यहां भी इससे जुड़े नैतिक और संवैधानिक प्रश्नों का खड़ा होना स्वाभाविक है। इसलिए यह जरूरी है कि हम इस संबंध में नैतिक और वैधानिक पहलुओं की पड़ताल करके किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहे।