हमारे देश में तपेदिक की समस्या बहुत ही सामान्य है। देश में काफी संख्या में लोग इनसे पीड़ित होते रहे हैं। बच्चे, बुढ़े, युवा किसी भी उम्र के व्यक्ति इस रोग से प्रभावित हो सकते हैं लेकिन 10-20 साल के बच्चों में यह अधिक देखा जाता है। वैसे तो तपेदिक हड्डी, स्पाइन या शरीर के किसी भी अंग में हो सकती है।
हड्डी की तपेदिक फेफड़े की तपेदिक से भिन्न है। यह फेफड़े की तपेदिक की तरह संक्रामक तो नहीं है लेकिन फेफड़े की तपेदिक से इसका थोड़ा संबंध है। फेफड़े की तपेदिक एक मरीज से दूसरे मरीज में संक्रमण से सीधे तौर पर फैल सकती है। मरीज के खांसने, छींकने, सांस छोड़ने से तपेदिक के जीवाणु वातावरण में फैल जाते हैं और दूसरे व्यक्ति के सांस के द्वारा वह शरीर के अंदर प्रवेश कर उसे संक्रमित कर देते हैं। लेकिन हड्डी की तपेदिक हवा के द्वारा नहीं फैलती है बल्कि किसी अन्य अंग की तपेदिक होने के बाद ही यह तपेदिक होती है। किसी अंग में तपेदिक होने पर इसके जीवाणु रक्त में संचरण करते- करते किसी छोटी रक्त वाहिका में जाकर फंस जाते हैं और वाहिका के कुछ हिस्से में अवरोध पैदा कर रक्त आपूर्ति में बाधा पहुचाते हैं। जीवाणु वहीं पर प्रजनन कर अपनी संख्या बढ़ाते रहते हैं, मवाद बनाते हैं और उस स्थान पर हड्डी की तपेदिक हो जाती है। हड्डी की तपेदिक इसलिए भी संक्रामक नहीं है क्योंकि फेफड़े की तपेदिक की तुलना में इसमें तपेदिक के जीवाणु माइक्रो बैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस तादाद में बहुत कम होते हैं। कुछ साल पहले तक हड्डी की तपेदिक में मुख्य तौर पर बुखार, रात में पसीने आने और कंपकंपी जैसे लक्षण उभरते थे लेकिन अब रोगी में ऐसे लक्षण नहीं उभरते हैं। रोग के लक्षणों में परिवर्तन जीवाणुओं में म्यूटेशनल परिवर्तन के कारण हुआ है।
जीवाणु अब तपेदिक की दवाइयों के प्रति प्रतिरोधी होते जा रहे हैं इसलिए इसके इलाज में भी सावधानी बरतने की जरूरत होती है। पहले सिर्फ खराब माहौल और गरीब परिवार में ही यह बीमारी देखी जाती थी लेकिन अब संपन्न घरों में भी लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं। फिर भी स्वच्छ वातावरण तथा संपन्न लोगों में यह बीमारी कम होती है। हमारे देश में उत्तर प्रदेश, बिहार, पहाड़ी इलाकों तथा औद्योगिक इलाकों में यह बीमारी सामान्य है। विकसित देशों में यह बीमारी बहुत कम होती है।
हड्डी की तपेदिक में सबसे सामान्य और खतरनाक तपेदिक रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) की तपेदिक है। हड्डी में तपेदिक होने पर वहां की हड्डी कमजोर हो जाती है और भारी वजन उठाने, खड़े होने और चलने-फिरने पर हड्डी दब सकती है। सामान्य व्यक्ति जब कोई वजन उठाता है तो हड्डियों से उसका भार जमीन तक पहुंचता है और उस वजन का उस पर कोई असर नहीं होता। लेकिन हड्डी की तपेदिक से ग्रस्त व्यक्ति जब कोई वजन उठाता है तो हड्डी के कमजोर होने के कारण उसका भार जमीन तक नहीं पहंुच पाता और उस भार को बर्दाश्त करने की ताकत खत्म हो जाने के कारण हड्डी दब जाती है जिससे मवाद इधर-उधर फैल जाता है। जब मवाद किसी जगह पर जमा हो जाता है तो वहां सूजन आ जाती है जिसे एब्सेस या कोल्ड एब्सेस कहते हैं। जब यह एब्सेस किसी महत्वपूर्ण संरचना पर दवाब डालने लगता है तो व्यक्ति इससे अधिक प्रभावित होता है। शरीर का सबसे संवेदनशील भाग स्पाइनल कार्ड होते हैं। जब एब्सेस स्पाइनल काॅर्ड को दबाने लगता है तो व्यक्ति की हाथ-पैर चलाने की शक्ति खत्म हो जाती है। जब यह एब्सेस हड्डियों से निकलकर स्पाइनल कैनाल में चली जाती है तो यह नर्व्स को दबाने लगता है। यह फेफड़ों और हृदय के पास जाकर उसे भी दबा सकता है। इसी प्रकार एब्सेस खाने और सांस की नली को दबा सकते हैं जिससे निगलने और सांस लेने में कष्ट हो सकता है।
हड्डी की तपेदिक से एब्सेस शरीर के किसी भी हिस्से में जाकर वहां की हड्डी या नर्व्स को दबा सकता है। बीमारी से कमजोर रीढ़ की हड्डी दबने से रीढ़ की हड्डी बाहर निकल जाती है और वह आगे की ओर झुक जाता है। जिसे हम आम भाषा में कूबड़ कहते हैं।
यह रोग आम तौर पर एक हड्डी से दूसरी हड्डी में नहीं फैलती है। लेकिन मल्टी फोकल ट्यूबर कुलोसिस में यह एक से अधिक हड्डियों में हो जाती है।
हड्डी की तपेदिक में चूंकि अन्य अंगों की तपेदिक की तुलना में जीवाणुओं की संख्या कम होती है इसलिए इस रोग की पहचान देर से हो पाती है और रोग गंभीर रूप धारण कर लेता है। इसका इलाज काफी लंबा कभी-कभी तो डेढ़-दो साल तक चलता है। तपेदिक होने पर जरा सा भी दवाब पड़ने पर हड्डी टूट सकती है। सामान्य हड्डी की तुलना में तपेदिक से ग्रस्त हड्डी के टूटने पर इसके जुड़ने में चार-पांच गुना अधिक समय लगता है।
हड्डी की तपेदिक में सबसे ज्यादा तकरीबन 50 फीसदी मामलों में स्पाइन की तपेदिक होती है। यह काफी गंभीर होता है। इसमें एब्सेस, एब्सेस संबंधित जटिलताओं के साथ-साथ विकलांगता भी आ जाती है। वर्टीब्रल बाॅडी में तपेदिक होने पर जीवाणु हड्डी को खाकर मवाद भी बनाता रहता है जिससे हड्डी कमजोर हो जाती है। वजन लेकर चलने, दौड़ने और व्यायाम करने पर हड्डी कोलैप्स कर जाती है जिससे विकलांगता आ जाती है जिसे काइफोसिस या कूबड़ कहते हैं। इसके अंदर का मवाद इधर-उधर जाकर एब्सेस बनाता है। जब यह मवाद शरीर के किसी महत्वपूर्ण भाग जैसे नर्व्स आदि में पहुंच जाता है तो वहां पैराप्लीजा पैदा कर देता है। इसी तरह फेफड़े पर दवाब पड़ने पर फेफड़े की तकलीफ, हृदय पर दवाब पड़ने पर हृदय की तकलीफ शुरू हो जाती है और फैरिंग्स पर दवाब पड़ने पर बोलने और निगलने की ताकत खत्म हो सकती है।
रोगी को अगर पैराप्लीजा या फालीज हो गया हो, वह हवा में अपना पैर सीधा नहीं उठा पाता हो, पैर हिला-डुला भी नहीं पाता हो तो ऐसा सिर्फ स्पाइनल काॅर्ड के पस से दबने की वजह से नहीं होता है बल्कि उसमें कोई ठोस चीज डिस्क मैटेरियल, सेक्वेसट्रम, फाइबर टिश्यू का लेयर भी है जो उसे दबा रहा है। डिग्री आफ पैराप्लीजा से यह पता चल जाता है कि किस तरह का दवाब है, मवाद की वजह से है या मवाद के साथ-साथ कोई ठोस पदार्थ जैसे डिस्क, सेक्वेसट्रम, फाइबर टिश्यू आदि भी है क्योंकि गंभीर लकवा इन्हीं की वजह से होता है। दवाब के आधार पर ही इसका उपचार किया जाता है। अगर पैराप्लीजा सिर्फ मवाद की वजह से है तो दवाइयों से ही मवाद सूख जाता है और रोगी ठीक हो जाता है लेकिन जब पैराप्लीजा मवाद के साथ- साथ किसी ठोस पदार्थ के कारण होता है तो यह दवाइयों से ठीक नहीं होता है और इसके लिए आपरेशन करना जरूरी हो जाता है। आपरेशन के जरिये काॅर्ड को दबाने वाली बोन सेक्वेसट्रम, फाइब्रस टिश्यु, डिस्क आदि को निकालना पड़ता है।
पैराप्लीजा या पैरों की कमजोरी इस बीमारी से सीधे तौर पर संबंधित नहीं होती है। यह तो मवाद और ठोस पदार्थ से स्पाइनल काॅर्ड पर पड़ने वाले दवाब या खून की आपूर्ति कम होने की वजह से होता है। लकवा होने पर जितनी जल्दी संभव हो रोगी का इलाज कराना चाहिए। पैराप्लीजा नहीं होने पर कीमोथेरेपी दवाइयों से ही इसका इलाज हो जाता है। सर्जरी सिर्फ दवाब को हटाने के लिए की जाती है। इसके लिए एंटीट्यूबरकुलो कीमोथेरेपी दवाइयां देनी पड़ती है।
हड्डी की तपेदिक का पता लगाने के लिए एक्स- रे, एम.आर.आई. तथा खून की जांच की जाती है।
हड्डी की तपेदिक में थोड़ी सी भी लापरवाही खतरनाक साबित हो सकती है। स्पाइन की तपेदिक में रोगी के हाथ- पैर, पेशाब- टट्टी पर से नियंत्रण खत्म हो सकता है, बेड शोर हो सकता है और व्यक्ति की पूरी कार्यक्षमता प्रभावित हो सकती है। अगर दवाब लंबे समय तक बना रहता है तो अक्सर दवाब को हटा देने के बाद भी वह पूरी तरह से ठीक नहीं होता। आपरेशन के बाद भी यह निश्चित नहीं है कि ताकत वापस आ ही जाएगी। इलाज में देर करने पर इसके ठीक होने की संभावना कम होती जाती है।
स्पाइन की तपेदिक होने पर झुककर भारी चीज नहीं उठाना चाहिए, व्यायाम नहीं करना चाहिए, आराम करना चाहिए, लेटे रहना चाहिए, खराब वातावरण में नहीं रहना चाहिए, खाने-पीने का ध्याान रखना चाहिए, विशेषकर प्रोटीन का अधिक सेवन करना चाहिए, जितना जल्दी संभव हो इलाज शुरू कर देना चाहिए और डाॅक्टर के निर्देशानुसार नियमित रूप से दवा लेना चाहिए।
संक्रामक नहीं है हड्डी की तपेदिक
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