सरस्वती नदी को भारत की सबसे पवित्र और प्रबल नदियों में से एक माना जाता है। ऋग्वेद में कई छंदों में इस नदी का वर्णन एक शक्तिशाली नदी के रूप में किया गया और इसकी सहायक नदियों के साथ-साथ इलाके के कुछ महत्वपूर्ण भौगोलिक विवरण भी प्रदान किए गए। लेकिन अब यह नदी सूख चुकी है। दूसरी तरफ, महाभारत में सरस्वती का वर्णन एक ऐसी नदी के रूप में किया गया जो रेत में गायब हो गई। इस तरह के भौगोलिक विवरणों के कारण 19वीं शताब्दी से ही नदी पर आधुनिक वैज्ञानिक समुदायों में अत्यधिक रुचि पैदा हो गई। सबसे पुरानी (1784 में स्थापित) और भारतीय उपमहाद्वीप की एक प्रतिष्ठित अकादमिक संस्था एशियाटिक सोसाइटी ने विशेष रूप से प्रारंभिक वर्षों के दौरान इस पौराणिक नदी पर जानकारी हासिल करने और इसका प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एशिएशियाटिक सोसाइटी से बनी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (आईएनएसए) ने भी अकादमिक व्याख्यान आयोजित करके इस संबंध में जानकारी का प्रसार करने में पहल की।
इस विलुप्त नदी पर भारत में वैज्ञानिक समुदायों की निरंतर रुचि को ध्यान में रखते हुए और 1970 के दशक से इस नदी प्रणाली पर नयी जानकारी के विस्फोट को ध्यान में रखते हुए, एशियाटिक सोसाइटी और आईएनएसए ने 12 अक्टूबर, 2017 को कोलकाता में “विलुप्त नदी सरस्वती: भूगर्भीय संदर्भ“ पर संयुक्त रूप से एक दिवसीय संगोष्ठी आयोजित की थी। इस विषय पर अनुसंधान करने वाले विशेषज्ञों एवं शोधकर्ताओं की राय यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रोफेसर डी. मुखोपाध्याय के अनुसार जहां तक पुरानी सरस्वती के स्थान की बात है, तो इसके बारे में दो विपरीत विचार प्रकट किये गए हैं। एक विचार के तहत, सरस्वती को यमुना और सतलज के बीच होना चाहिए। वर्तमान दिनों में मौसमी धारा घग्गर- हाकरा अपनी सहायक धाराओं के साथ इस क्षेत्र में बहती है। दूसरा विचार यह है कि सरस्वती को अफगानिस्तान में हेलमंड नदी बेसिन में प्राचीन नदी हरखवती के समान समझा जाना चाहिए। पहली परिकल्पना को बढ़ावा मिला जब लैंडसैट इमेजरी विश्लेषण ने पेलियोचैनेल के स्थान का खुलासा किया। सतलज- यमुना इंटरफ्लूव के भूवैज्ञानिक इतिहास से पता चलता है कि घग्गर के पास विस्तृत चैनल है लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि इस क्षेत्र में नदी चैनलों में कट की कमी है। उपसतह पर जमाओं के अध्ययन से प्राचीन चैनलों की पहचान हुई है। इमेजरी में पैलियोचैनल के साथ चैनल तलछटों के उत्पत्ति स्थान के अध्ययन से पता चलता है कि घग्गर चैनल के साथ बहने वाली पुरानी नदी उत्तर से पुरानी सतलज और पूर्व से पुरानी यमुना द्वारा पोशित होती थी। प्राप्त साक्ष्य से घग्गर- हाकरा क्षेत्र में एक प्राचीन नदी की उपस्थिति का पता चलता हैं, हालांकि इस पर और अधिक विस्तृत अध्ययन करना आवश्यक है। अतीत में इस क्षेत्र में नदी प्रणाली में आष्चर्यजनक परिवर्तन हुए थे, लेकिन ऐसा हड़प्पा पूर्व हुआ था, शायद प्लेस्टोसिन में हुआ था। नदी हड़प्पा सभ्यता के अंत के दौरान घटती हुई अवस्था में थी।“
प्रोफेसर के. एस. वाल्दिया के अनुसार 1970 के दशक से रिमोट सेंसिंग और भूगर्भीय, भूभौतिकीय, संरचनात्मक, तलछट संबंधी और क्षेत्र के परिदृश्य तत्वों के आइसोटोपिक गुणों की फील्ड और प्रयोगशाला-आधारित जांच की मदद से व्यवस्थित वैज्ञानिक अनुसंधान किस प्रकार हुए। इसने 'विलुप्त' हो चुकी सरस्वती को फिर से सुनिष्चित किया। उन्होंने नदी के व्यापक विकासवादी चरणों के साथ-साथ घाटी क्षेत्र में मानव बस्तियों और संस्कृति के विकास में इसके योगदान की भी व्याख्या की। उनके अनुसार, हिमालयी तलछटी में अभी के घग्गर नदी से सिंध में नारा नदी के डेल्टाई हिस्से और विषाल रन आॅफ कच्छ तक काफी मात्रा में तलछट पड़े हुए हैं जो दो बड़ी हिमालयी नदियों, पूर्व में टोंस और पष्चिम में सतलज के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं। तब से बार-बार टेक्टोनिक गतिविधियों ने इन दोनों नदियों को घग्गर नदी घाटी से दूर स्थानांतरित कर दिया, यानी, टोन पूर्व में यमुना से मिल गई और सतलज पश्चिम में सिंधु से मिल गई, जिससे घग्गर नदी सूख गयी। बाद में जलवायु में हुए चैतरफा परिवर्तनों ने और फिर अनुकूल पर्यावरण में बदलाव ने भी नदी के विलुप्त होने में भूमिका निभाई।
प्रोफेसर राजीव सिन्हा बताया कि घग्गर नदी की सूखी घाटी और सतलज के कुछ पेलियोचैनलों में कई गहरे तलछट क्षेत्रों के विश्लेषण के माध्यम से पूर्व सतलज के पुनर्निर्मित पेलियो- घाटियों को दिखाया। वर्तमान (का बीपी) से - 4 हजार साल पहले और - 80 का बीपी के बीच के पुरानी धारा समय के साथ पुराने चैनल जब समय के साथ सूख गइ। नदी गतिशीलता के संदर्भ में तलछट का विश्लेषण किया गया, तो उन्होंने एक सामान्य जलीय धाराओं के बिल्कुल प्रासंगिक और अप्रत्याषित माइग्रेटरी व्यवहार का खुलासा किया, जिसे 'एवुल्षन' कहा जाता है जिसमें आम तौर पर सदी से लेकर सहस्राब्दी तक का समय लग जाता है और यह नदी या प्रवाह के नए या अलग हो चुके चैनलों में विपथन को बढ़ावा देता है। अलगाव के दौरान वर्तमान दिन कोसी नदी के व्यापक रूप से बदलते व्यवहार की जानकारी के आधार पर, अलगाव को बढ़ावा देने वाली घुमावदार प्रक्रियाओं के कंप्यूटर सिमुलेशन मॉडलिंग और घग्गर घाटी में तलछट अनुक्रमों के ऑप्टिकल सिमुलेशन डेटिंग के बारे में उन्होंने सुझाव दिया कि घग्गर घाटी के माध्यम से सतलज का प्रवाह पूर्व-हड़प्पा और हरप्पन बस्तियों (-् 4.8 - 3.9 का बीपी) की खोज से काफी पहले समाप्त हो गया था और सतलज के वर्तमान जलमार्ग में विपथन - 8 के बाद शीघ्र ही पूरा हो गया था। उन्होंने तर्क दिया कि घग्गर की सूखी घाटी के साथ शुरुआती बस्तियों को सतलज जैसी सक्रिय हिमालयी नदी की बजाय एक चिन्हित घाटी के साथ स्थापित किया गया था। ऐसा मुख्य रूप से जल के अप्रत्याशित आवेग और बाढ़ के कारण बड़े नुकसान के जोखिम से बचने और जल स्रोतों से लाभ उठाने के लिए किया गया था। सतलज में रुकावट के कारण इसकी वर्तमान छिन्न-भिन्न स्थिति के बाद घग्गर घाटी से इसके दूर जाने से इसके अलग हो चुके चैनलों में फिर से आने की संभावना कम हो जाती है, जिससे घग्गर घाटी के साथ शुरुआती बस्तियों को दीर्घकालिक स्थिरता मिल सके।
डॉ. अमल कर ने ''सरस्वती नदी प्रणाली के मानचित्रण और समझ पर अनुसंधान प्रतिमानों'' के आधार पर बताया कि जेम्स रेनेल (1788) और उनके सर्वे ऑफ इंडिया (एसओआई) टीम को सिंधु से समुद्र में स्वतंत्र बहने वाली एक बड़ी हिमालयी नदी के अवशेषों के पहले स्पष्ट मैपिंग के लिए क्रेडिट देना चाहिए, जिसे उन्होंने उप-हिमालयी मैदानों को सुरसुटी, कैगर और केनकर के रूप में, और फिर चोलिस्तान और सिंध के माध्यम से एक बिंदुओं की रेखा के रूप में चिह्नित किया था। अगली एक शताब्दी में सर्वे ऑफ इंडिया (एसओआई) इस क्षेत्र में छोड़ी गई धाराओं और घग्गर की सूखी घाटी को सटीक रूप से मैपिंग कर लेगा। सीएफ ओल्डहम (1874) ने घग्गर- हाकरा- नारा को “सरस्वती“ का नाम दिया, और तर्क दिया कि इसका अस्तित्व सतलज से जल की आपूर्ति पर निर्भर था। रेनेल-ओल्डहम की इस खोज ने क्षेत्र में सभ्यता और पर्यावरण परिवर्तन पर विशेष रूप से घग्गर की सूखी घाटी पर भविष्य के अध्ययन की नींव रखी। जिक्रोन डेटिंग और तलछट के आइसोटोपिक संरचना पैटर्न के माध्यम से हालिया उद्भव अध्ययन, तलछट के जमने की प्रक्रिया में सतलज नदी के भारी योगदान का खुलासा करते हैं। सरस्वती और इसकी सहायक नदियों में से एक - पंजाब के मैदानी इलाकों और थार रेगिस्तान में दृषादवती के कुछ अवषेशों की पहली सैटेलाइट आधारित खोज घोश, कर और हुसैन (1979) तथा कर और घोस (1984) ने की थी। बाद में कर और शुक्ला (1993, 2000) ने जैसलमेर के रेगिस्तान इलाके में एक उथले जलीय जल के साथ इन निष्कर्षों को जोड़कर रेगिस्तान में इस काम को आगे बढ़ाया गया, और पेलियोचैनलों के साथ भूजल प्रबंधन, क्षेत्र में जमाव आदि पर जोर देते हुए रेगिस्तान में सरस्वती अनुसंधान के उद्देष्य से उचित रूप से इसका विस्तार किया।
डॉ. अनिल के. गुप्ता ने “सरस्वती नदी के उपग्रह आधारित अध्ययन निष्कर्षों और निहितार्थों के आधार पर बात की, और हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में इसरो के द्वारा किए गए अध्ययनों, विशेष रूप से नदी के बंद हो चुके चैनलों को फिर से खोजने और उनकी आर्थिक और पुरातात्विक क्षमता की तलाष करने के बारे में बताया। पुराने नक्शे, पुरातात्विक अभिलेख, भूमिगत विषेशताओं, तलछट की विशेषताओं, धारा प्रवाह, भूजल, आदि से डेटा का उपयोग कर चिह्नित मार्र्गों को मान्यता दी गयी थी। निष्कर्षों के आधार पर, हरियाणा सरकार ने हरियाणा सरस्वती हेरिटेज बोर्ड के माध्यम से राज्य में सरस्वती के पुनरुत्थान की योजना शुरू की।
प्रोफेसर मिशेल डैनिनो ने “सरस्वती नदी: मुद्दे और बहस“ पर अपने शोध पत्र में तर्क दिया कि शक्तिशाली सरस्वती का अस्तित्व उन्नीसवीं शताब्दी में किए गए अध्ययनों में सिद्ध हुआ था, जबकि इस विलुप्त नदी के साथ पुरातात्विक खोजों ने पहले के निष्कर्षों को और मजबूत किया। पिछले तीन दशकों से, नदी की घाटी क्षेत्र में कई नई भू-वैज्ञानिक जांच से समय के साथ नदी के जीवन के कई जटिल विवरण सामने आए हैं, जिनमें परिपक्व हड़प्पा अवधि के दौरान इसका फैलाव और स्थिति और अंत में इसके विलुप्त होने की स्थिति शामिल है।
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