रह्युमेटिक बुखार से हृदय को बचाइये

गरीबों को खास तौर पर शिकार बनाने वाले रह्युमेटिक रोग के कारण करीब दो करोड़ लोग हृदय वाल्वों में खराबी से ग्रस्त हैं। अपने देश में इस रोग की व्यापकता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विभिन्न अस्पतालों में भर्ती होने वाले 30 से 50 प्रतिशत हृदय रोगी इसी रोग से पीड़ित होते हैं।
नयी दिल्ली, नौएडा, मेरठ, आगरा, फरीदाबाद आदि में फैले मेट्रो ग्रूप आफ हास्पिटल्स समूह के चेयरमैन तथा नौएडा स्थित मेट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीट्यूट के निदेशक सुप्रसिद्ध हृदय रोग चिकित्सक पद्मभूशण डा. पुरुशोत्तम लाल बताते हैं कि रह्युमेटिक हृदय रोग स्टेप्टोकोकाई- ए नामक जीवाणुओं के संक्रमण के कारण होता है। ये जीवाणु मुख्य तौर पर गंदी और तंग बस्तियों में रहने वाले लोगों को ही अपना शिकार बनाता है। इन जीवाणुओं के हृदय पर असर के कारण एक या एक से ज्यादा हृदय वाल्व बंद या संकरे हो जाते हैं या  रिसने लगते हैं। कई बार पैदाइशी तौर पर भी वाल्व खराब हो जाते हैं।
सबसे अधिक एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंटिंग करने का श्रेय हासिल करने के लिये इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से सम्मानित डा. लाल के अनुसार इस बीमारी का समय पर इलाज होने पर हृदय वाल्व खराब होने से बच जाते हैं। लेकिन इसके ज्यादातर मरीज  अज्ञानता एवं आर्थिक विवशता के कारण इसका समय पर समुचित इलाज नहीं करा पाते हैं और कुछ समय बाद वाल्व इतने खराब हो जाते हैं कि मरीज की जान बचाने के लिये इन वाल्वों को या तो आपरेशन के जरिये बदलना जरूरी हो जाता है या बैलून तकनीक पर आधारित बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी की मदद से इन वाल्वों की खराबी को दूर करना जरूरी हो जाता है।
हृदय रोगों के आपरेशन बगैर उपचार की अनेक तकनीकों को विकसित करने वाले डा. लाल ने बताया कि रह्युमेटिक हृदय रोग के दुष्प्रभाव के कारण चार वाल्वों में से आम तौर पर माइट्रल अथवा एयोर्टिक वाल्व प्रभावित होते हैं। वाल्व के सिकुड़ जाने पर बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी की मदद ली जाती है और वाल्व के बंद होने, रिसाव होने तथा बहुत ज्यादा सिकुड़न होने पर रुग्न वाल्व को काट कर दूसरा वाल्व लगा दिया जाता है। इसे माइट्रल अथवा एयोर्टिक वाल्व रिप्लेसमेंट कहा जाता है।
डा. बी. सी. राय राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डा. लाल बताते हैं कि जब वाल्व बहुत ज्यादा सिकुड़े नहीं होते हैं और उसमें कैल्शियम जमा नहीं होता है तब उसे बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी की मदद से ही खोला जा सकता है। आम तौर पर 98 प्रतिशत मामलों में वाल्व को इस तकनीक के जरिये ही खोला जाता है। आज बैलून तकनीक काफी कारगर साबित हो चुकी है। पिछले 10-15 सालों से इसका व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। इस तकनीक के इस्तेमाल में आने से सीना खोल कर की जाने वाली ओपन हार्ट सर्जरी  की जरूरत काफी कम हो गयी है। बैलून तकनीक से इलाज के दौरान मरीज को कोई चीरा नहीं लगता जबकि ओपन सर्जरी में सीने पर लंबा चीरा लगाना पड़ता है। इसके कारण खास तौर पर महिलाओं को कुंठा एवं मानसिक त्रासदी का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को ओपन हार्ट सर्जरी से बहुत अधिक खतरा रहता है। कई बार सर्जरी के दौरान पेट में पल रहे बच्चे की जान चली जाती है। बैलून तकनीक में मरीज को विकिरण लगने का भी खतरा नहीं होता है और बहुत कम समय में वाल्व को खोला जा सकता है।
डा. लाल के अनुसार आपात स्थिति में वाल्व बदलने पर मरीज की जान जाने का खतरा 50 प्रतिशत तक होता है लेकिन सामान्य स्थिति में वाल्व बदलने पर खतरा मात्र चार-पांच प्रतिशत ही होता है। ऐसे में मरीज तीसरे-चैथे दिन से ही चल-फिर सकता है। वाल्व खोलने की प्रक्रिया में एक-दो प्रतिशत मरीजों के वाल्व फट भी सकते हैं। ऐसी स्थिति में मरीज की जान पर खतरा मंडराने लगता है। ऐसी स्थिति में मरीज का वाल्व आपरेशन के जरिये तत्काल बदलना जरूरी होता है। इसलिये बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी के दौरान शल्य चिकित्सकों की टीम का होना आवश्यक होता है। बैलून वाल्वयूलोप्लास्टी से वाल्व खोलने में मरीज को बेहोश नहीं करना पड़ता है तथा मरीज को खून नहीं चढ़ना पड़ता है। मरीज को मात्र एक दिन अस्पताल में रुकना पड़ता है। 
डा. पुरूषोत्तम लाल बताते हैं कि फेफड़े में जाने वाली पल्मोनरी स्टिनोसिस नामक नस वाला वाल्व अगर बचपन से ही खराब हो तो उसे बिना आपरेशन बैलून की मदद से खोल सकते हैं। इसके अलावा एयोर्टिक वाल्व अगर संकरा हो जाये तो उसे बैलून की मदद से खोला जा सकता है। इस वाल्व से हृदय का रक्त निकल कर बाहर जाता है।