मस्तिष्क एवं रीढ़ की लाइलाज बीमारियों की कारगर चिकित्सा

आधुनिक समय में डीप बे्रन स्टिमुलेशन, ब्लाडर पेसमेकर, बैक्लोफेन पंप, स्टीरियोटेक्टिक तकनीक, रोबोटिक आर्म, इंडोस्कोपी और माइक्रो डिस्कएक्टमी जैसी नवीनतम तकनीकों की बदौलत मस्तिष्क एवं स्पाइन की लाइलाज और दुसाध्य बीमारियों की चिकित्सा अब आसान हो गयी है। लाइलाज मानी जाने वाली पार्किंसोनिज्म जैसी मूवमेंट डिसआर्डर बीमारियों के इलाज में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन और स्पाइन की कई दुसाध्य बीमारियों एवं समस्याओं के इलाज में ब्लाडर पेसमेकर  और बैक्लोफेन स्पाइनल पंप काफी कारगर साबित हो रहे हैं। यही नहीं आज इंडोस्कोपी, स्टीरियोटेक्टिक एवं रोबोटिक सर्जरी की बदौलत एक समय खतरनाक और अत्यंत असुरक्षित मानी जाने वाली मस्तिष्क और स्पाइन की सर्जरी अत्यंत सुरक्षित, आसान एवं कारगर बन गयी है। 
पार्किंसोनिज्म जैसी मूवमेंट डिसआर्डर की बीमारियों के मरीजों के अलावा कम उम्र के उन स्नायु मरीजों के कारगर उपचार के लिये डीप ब्रेन स्टिमुलेशन की तकनीक का विकास हुआ है जिनके मस्तिष्क का कोई खास क्षेत्र ट्यूमर या अन्य कारणों से क्षतिग्रस्त हो गया है। मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने के कारण इन मरीजों के हाथ-पैर में बहुत ज्यादा कंपन होता है। इस वजह से न तो वे चल-फिर पाते हैं और न ही हाथ से कोई काम कर पाते हैं। भारत के कुछ चुने हुये चिकित्सा केन्द्रों में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन का इस्तेमाल आरंभ हो गया है। 
इस तकनीक से इलाज के तौर पर मरीज के मस्तिष्क के थैलेमस क्षेत्र में एक इलेक्ट्रोड डालकर तथा छाती में किसी भी जगह त्वचा के नीचे एक पेसमेकर रखकर वहां से एक इलेक्ट्रोड या कैथेटर मस्तिष्क के कैथेटर से जोड़ दिया जाता है। इस इलेक्ट्रोड से करंट जाकर थैलेमस को उत्तेजित करता है। रिमोट कंट्रोल से करंट को नियंत्रित किया जा सकता है तथा घटाया-बढ़ाया जा सकता है। यह पेसमेकर दिल के पेसमेकर की तरह ही होता है। अगर इस मशीन का लगातार इस्तेमाल किया जाये तो इसकी बैटरी सात साल चलती है और अगर रात में इसे बंद कर दिया जाये तो बैटरी 14 साल चलती है। उसके बाद बैटरी बदलनी पड़ती है। 
हालांकि इन बीमारियों का इलाज पहले दवाईयों से ही किया जाता है। लेकिन अगर मरीज को दवाईयों से कोई फायदा नहीं हो रहा हो, मरीज दवाईयां लेने में असमर्थ हो या दवाईयों के बहुत ज्यादा दुष्प्रभाव हो रहे हों तब कई मरीजों का इलाज डीप ब्रेन स्टिमुलेशन तकनीक से किया जाता है और उन्हें इस तकनीक से फायदा भी होता है। 
यह सर्जरी बिना एनीस्थिसिया दिये ही की जाती है। सर्जरी के दौरान रोगी होश में रहता है ताकि यह पता चल जाये कि यह तकनीक मरीज में कारगर होगी या नहीं। मरीज को पहले हल्के करंट से उत्तेजित करके देखा जाता है कि इससे मरीज के हाथ-पैर का कंपन नियंत्रित हो गया या नहीं। अगर मरीज के हाथ-पैर का कंपन नियंत्रित हो जाता है तभी इस मशीन को लगाया जाता है। उसके बाद इसके सही करंट का निर्धारण किया जाता है। अभी यह मशीन बहुत महंगी है। भारत में इस तकनीक से इलाज करने में तीन लाख रुपये का खर्च आता है।
आधुनिक न्यूरो सर्जरी की एक और महत्वपूर्ण कामयाबी स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी है। मौजूदा समय में इस सर्जरी में रोबोट एवं कम्प्यूटर की भी मदद ली जाने लगी है जिससे मस्तिष्क की सर्जरी बिल्कुल कारगर बन गयी है। हमारे देश में पहली रोबोटिक सर्जरी अपोलो अस्पताल में हुयी और यहां अब तक सौ से अधिक रोबोटिक आर्म संचालित फ्रेमलेस स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी हो चुकी है। स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी से मस्तिष्क के अंदुरूनी भाग के ट्यूमर की सर्जरी पहले से ज्यादा सुरक्षित हो गयी है और इससे मरीज को होने वाले खतरे कम हो गये हैं। 
आधुनिक समय में माइक्रो डिस्कएक्टमी और इंडोस्कोपी डिस्कएक्टमी नामक तकनीक का भी विकास हुआ है। इसमें माइक्रोस्कोप और इंडोस्कोपी की मदद से लम्बर डिस्क एक्टमी की जाती है। इसमें भी डेढ़ से दो इंच का चीरा लगाया जाता है। इस आपरेशन के लिये मरीज को कई बार बेहोश भी नहीं करना पड़ता है, बल्कि स्थानीय एनीस्थिया से भी आपरेशन हो सकता है। मरीज दूसरे ही दिन घर जा सकता है। अब पिट्यूटरी ट्यूमर को भी इंडोस्कोपी के जरिये निकाला जाना संभव हो गया है। इसके लिये मस्तिष्क में किसी तरह की चीर-फाड़ करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके लिये नाक के जरिये इंडोस्कोपी यंत्र डालकर ट्यूमर को निकाल लिया जाता है।
मौजूदा समय में बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं के कारण मस्तिष्क के साथ-साथ स्पाइन में चोट लगने की समस्याएं बढ़ रही हैं। इन दुर्घटनाओं में स्पाइन इस कदर क्षतिग्रस्त हो जाती है कि मरीज अपाहिज हो जाता है। आजकल स्पाइन की समस्याओं के इलाज के लिये ब्लाडर पेसमेकर तथा बैक्लोफेन पंप का भी इस्तेमाल होने लगा है। 
सामान्य लोगों में यूरिनरी ब्लाडर मूत्र से भरने के बाद सिकुड़ जाता है। इससे कुछ घंटे तक पेशाब नियंत्रित रहता है। बाद मांसपेशियों के सिकुड़ने से ब्लाडर खाली होता है। लेकिन अगर ब्लाडर के सिकुड़ने के कारण नर्व के क्षतिग्रस्त होने या पेशाब को निकलने से रोकने वाली मांसपेशियों में कमजोरी आने या किसी अन्य कारणवश अगर यूरिनरी ब्लाडर पर से यह नियंत्रण खत्म हो जाए तो ब्लाडर पेसमेकर लगाकर सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है। इसके अलावा स्पाइनल इंजुरी के कारण स्पाइनल काॅर्ड और नर्व के क्षतिग्रस्त होने और टीबी, ट्यूमर या रेडियेशन से स्पाइन के क्षतिग्रस्त होने जैसी स्थितियों में भी यह पेसमेकर कारगर है। इस पेसमेकर को रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित किया जाता है। इस तकनीक से इलाज करने में तकरीबन दो लाख रुपये खर्च होते हैं। कुछ लोगों के यूरिनरी ब्लाडर कभी-कभी सिकुड़ना बंद कर देते हैं या ठीक से नहीं सिकुड़ते हैं। ऐसे रोगियों को छह से आठ घंटे तक कैथेटर पर रहना पड़ता है। जिन लोगों को लगातार कैथेटर अंदर डालकर रखना पड़ता है उन्हें बार-बार कैथेटर डालने से पेशाब का संक्रमण हो जाता है। इस संक्रमण से कभी -कभी किडनी क्षतिग्रस्त हो जाती है। लेकिन ऐसे रोगियों में यह पेसमेकर लगा देने से उनमें इन समस्याओं से बचाव होता है।   
स्पाइनल इंजुरी, फ्लूरोसिस जैसी कई स्पाइन संबंधित बीमारियों, तपेदिक, ट्यूमर या रेडियेशन से स्पाइन को क्षति पहुंचती है। स्पाइनल काॅर्ड और नसों में क्षति होने से हाथ-पैर में जकड़न आ जाती है और कभी-कभी तो जकड़न इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि रोगी का चलना भी मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी कंपन भी होने लगता है। आम तौर पर इसका इलाज दवा से किया जाता है और यह समस्या बैक्लोफेन दवा से अक्सर ठीक हो जाती है। लेकिन कभी-कभी इतनी गंभीर क्षति होती है कि बैक्लोफेन दवा की डोज बढ़ानी पड़ती है। लेकिन दवा की डोज बढ़ाने से मरीज को उल्टी होने लगती है और चक्कर आने लगते हैं। ऐसी स्थिति में मुंह के जरिये बैक्लोफेन की दो खुराक देने से पूरा फायदा नहीं होता और इससे ज्यादा खुराक देने पर मरीज बर्दाश्त नहीं कर पाता। लेकिन यही दवा जब पंप के जरिये  सीधे स्पाइन में पहुंचायी जाती है तो मरीज को फायदा हो जाता है। चूंकि यह दवा सीधे स्पाइन में भेजी जाती है इसलिए बैक्लोफेन दवा की बहुत ही कम खुराक से काम चल जाता है। यह पंप त्वचा के अंदर रखी जाती है। एक बार में यह पंप तीन-चार महीने तक काम करती है।  इसके बाद पंप को दोबारा भरना पड़ता है। बैक्लोफेन स्पाइनल पंप में भी रिमोट कंट्रोल होता है।           
स्पाइन के क्षेत्र में दूसरी बड़ी क्रांति स्पाइनल प्लेटिंग है। चोट, तपेदिक और डिस्क समस्याओं के कारण रीढ़ के कमजोर हो जाने पर रीढ़ में प्लेट लगाकर मरीज को शीघ्र बैठने लायक बनाया जा सकता है और उसे दर्द से मुक्ति दिलायी जा सकती है। इस तकनीक के तहत रीढ़ के रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त अथवा कमजोर भाग पर धातु की प्लेटें प्रत्यारोपित (इम्प्लांट) की जाती हैं। इसे 'स्पाइनल इन्स्ट्रयुमेंटेशन' अथवा प्लेटिंग कहा जाता है। इससे कमजोर या टूटी हुयी रीढ़ को सहारा मिल जाता है। बाद में रीढ़ की हड्डियां जुड़ कर मजबूत हो जाती हैं।