महिलाओं को बाहर काम करने में अभी भी आ रही हैं बाधायें  

सभी जातियों और वर्गों में भारतीय महिलाओं से हर उम्र में- जन्म से लेकर मृत्यु तक, घरों में परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से अवैतनिक कार्य करने की उम्मीद की जाती है। लेकिन, महिलाओं को घर के बाहर कार्य करने के अधिकार को अक्सर मंजूरी नहीं दी जाती है। भारत में महिलाओं के लिए, चाहे वे कहीं भी रहती हों, लाभकर रोजगार के अधिकार उनके जीने के लिए संघर्ष की तुलना में काफी दूर है। कई महिलाओं के लिए रोजगार एवं नौकरी घर की चारदीवारी के बाहर कदम रखने और अन्य महिलाओं से मिलने और बातचीत करने के सिर्फ अवसर प्रदान करते हैं। यदि वे अपने आर्थिक कार्यो के आधार पर अच्छा वेतन प्राप्त करें, आत्मसम्मान हासिल करें और अपनी आय पर नियंत्रण करना भी सीख लें, तो वे अपने परिवार में स्वायत्तता हासिल कर सकती हैं। 


कितनी भारतीय महिलाएं श्रमिक हैं?
अधिकतर भारतीय महिलाएं सारी जिंदगी काम करती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि सरकारी तौर पर इनकी पहचान नहीं की जाती है। उदाहरण के लिए, 1997 में ग्रामीण भारत में सिर्फ 22 प्रतिशत महिलाएं ही श्रमिक के रूप में दर्ज थीं। राष्ट्रीय आंकड़े संग्रह करने वाली एजेंसियों ने इस तथ्य को स्वीकारा है कि महिलाओं के श्रमिक के रूप में योगदान को बहुत ही कमतर आँका जाता है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार 17 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं और करीब 6 प्रतिशत शहरी महिलाएं गलत रूप से 'गैर श्रमिक' के रूप में दर्ज हैं। दर्ज आँकड़ों और वास्तविकता में भारी अंतर का एक कारण आँकड़े संग्रह करने का गलत तरीका है। दूर से पानी लाने, ईंधन और चारा इकट्ठे करने, भोजन बनाने, सफाई करने तथा बच्चों और बूढ़ों की देखभाल करने जैसे कई घरेलू कार्य वैतनिक होते हैं लेकिन महिलाएं इन कामों को अवैतनिक करती हैं। ये कार्य अप्रत्यक्ष एवं अगोचर होते हैं और इन्हें कार्य के रूप में दर्ज नहीं किया जाता है।   


महिलाओं पर कार्य दवाब
आर्थिक गतिविधियों में कामकाजी वयस्क महिलाओं का प्रतिशत महिलाओं की स्थिति का एक स्वीकृत सूचक है। यह महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम (जेंडर इम्पावरमेंट मेजर: जी ई एम) का एक अवयव है। हालाँकि कई अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर जोर दिया है कि आर्थिक कार्यों में योगदान की अधिक दर हमेशा अधिक स्वायत्तता या महिलाओं के ऊँचे स्टेटस का सूचक नहीं है। भारत में, जहाँ अमीर घरों के अंदर महिलाओं के एकाकीपन को स्टेटस सिम्बल के रूप में देखा जाता है, वहीं गरीब परिवारों और दलित समुदायों की महिलाओं पर आर्थिक कार्यों का भारी दबाव रहता है।


अक्सर कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना जाता है, 'हमलोग प्रतिष्ठित परिवार से हैं और हमारे यहाँ महिलाएं नीची जाति की महिलाओं की तरह बाहर काम करने नहीं जाती हैं।' वास्तव में, ग्रामीण भारत में भूमिहीन परिवारों और निचली जाति की महिलाएं ही कृषि कार्यों में वैतनिक मजदूरी करती हैं और ये महिलाएं ऊँची जाति के परिवारों की एकांत में रह रही महिलाओं की तुलना में अधिक निर्भय होती हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ती भी हैं। लेकिन निचली जाति के जिन परिवारों का सामाजिक रुतबा बढ़ जाता है और वे समृद्ध हो जाते हैं, तो इन्हीं परिवारों में महिलाओं पर ऊँची जाति की महिलाओं के तौर-तरीकों को अपनाने पर दवाब डाला जाता है। पंजाब का मामला इसका सटीक उदाहरण है। पंजाब में हरित क्राँति से लोगों की आमदनी बढ़ने के बाद कृषिगत कार्यों में महिलाओं की भागीदारी काफी कम हो गई। 


श्रम के बोझ तले दबा जीवन
केन्द्रीय साँख्यिकीय संगठन (सेंट्रल स्टैटिस्टिकल आरगेनाइजेशन) की ओर से 1998-99 में देश भर में 18 हजार 600 महिलाओं और पुरुषों के बीच किये गए एक सर्वेक्षण में निम्नलिखित तथ्य पाए गए।
— महिलाएं पुरुषों की तुलना में औसतन दो घंटे कम सोती हैं।
— महिलाएं घरेलू कार्यों में पुरुषों की तुलना में 10 गुणा अधिक समय देती हैं। यहाँ तक कि जिन परिवारों में महिलाएं बाहर काम करती हैं, उन पर भी यह बात समान रूप से लागू होती है। 
— पुरुषों को रोजाना दो घंटे से अधिक का अवकाश मिलता है, जबकि महिलाओं को सिर्फ 5 मिनट का ही अवकाश मिलता है।
— पुरुष हर सप्ताह भोजन बनाने में एक घंटे से भी कम समय देते हैं जबकि महिलाएं हर सप्ताह 15 घंटे का समय देती हैं। 


राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान को कमतर आँकने के कारण खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में महिला श्रमिकों के अनुपात में कुछ विचित्र उतार-चढ़ाव देखा गया। सन् 1961 में 31 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं श्रमिक के रूप में दर्ज थीं। सन् 1971 में यह संख्या गिरकर 16 प्रतिशत हो गई। सन् 1981 में फिर बढ़कर यह 23 प्रतिशत हो गई और फिर 1991 में गिरकर 22 प्रतिशत हो गई। इसका एक कारण जनगणना में 'श्रमिक' की परिभाषा का इस्तेमाल किया जाना है जिसमें चुने हुए महिला श्रमिक को शामिल करना है। 


1961 की जनगणना में जिन महिलाओं ने जनगणना के दौरान किसी भी तरह के आर्थिक लाभ वाले कार्य में कम से कम 15 दिन का भी योगदान दिया था, उन्हें श्रमिक माना गया। कृषि और  घरेलू लघु उद्योगों के मौसमी कार्य करने के मामले में भी जिस महिला ने कार्य वाले मौसम में रोजाना नियमित रूप से एक घंटे भी काम किया, उसकी गणना श्रमिक के रूप में की गई। जबकि 1971 की जनगणना में, सिर्फ आर्थिक रूप से उत्पादक कार्यों में पूरी तरह से सक्रिय लोगों को ही श्रमिक माना गया और बाकी लोगों को गैर श्रमिक माना गया। घरेलू उद्योगों में शामिल महिलाएं जो घरेलू कार्य भी करती थीं, उन्हें श्रमिक के रूप में शामिल नहीं किया गया क्योंकि उनकी भागीदारी पूरे समय के लिए नहीं थी। सन् 1981 की जनगणना में, मुख्य श्रमिक और हाशिये के श्रमिक के बीच अंतर किया गया। साल में छह महीने या उससे अधिक समय तक कार्य करने वाले लोगों को मुख्य श्रमिक के रूप में जबकि मौसमी कृषि कार्यों में शामिल काफी महिलाओं को सीमाँत श्रमिक के रूप में दर्ज किया गया। 


किस तरह के कार्य करती हैं महिलाएं
बहुत कम भारतीय कामकाजी महिलाओं की श्रमिक और आय प्राप्त करने वाली महिला के रूप में अधिकृत रूप से पहचान हो पायी है। जबकि कृषि और पशुपालन उद्योग में मेहनताना प्राप्त करने वाली काफी संख्या में महिला श्रमिक हैं। कई महिलाएं तो कई तरह के कार्य करती हैं। उदाहरण के तौर पर कृषि के मौसम के दौरान खेतों में काम करने वाली कई महिलाएं घरों में कपड़ा बुनने और बर्तन बनाने जैसे परम्परागत व्यवसाय भी करती हैं और खाद्य उत्पाद, हैंडीक्राफ्ट्स या अन्य छोटी मोटी चीजें बना-बेच सकती हैं।


ग्रामीण श्रम आयोग ने 1991 में अनुमान लगाया था कि सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में करीब दो करोड़ महिलाएं तरह-तरह के घरेलू कार्य कर रही हैं। शहरों में कपड़े बुनने, टेक्सटाइल, चमड़े के सामान, कृत्रिम जेवर, बीड़ी बनाने और बिजली के सामान बनाने जैसे विभिन्न उद्योगों में काफी संख्या में महिलाएं कार्य कर रही हैं।


1991 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल महिला श्रमिकों में से 34.2 प्रतिशत खेतिहर मजदूरी, 44.9 प्रतिशत कृषि श्रम, 1.6 प्रतिशत पशुपालन और वनरोपण, 0.3 प्रतिशत खनन उद्योग और खदान, 3.5 प्रतिशत घरेलू उत्पादों के निर्माण, 3.9 प्रतिशत अन्य वस्तुओं के निर्माण, 0.7 प्रतिशत निर्माण कार्य, 2.3 प्रतिशत व्यापार और वाणिज्य, 0.3 प्रतिशत ट्रांसपोर्ट और सूचना तथा 8.3 प्रतिशत अन्य सेवाओं में कार्यरत हैं। हालाँकि ये आय प्राप्त करने वाली महिलाएं हैं लेकिन राष्ट्रीय आँकड़ों में इन महिलाओं की अनदेखी कर दी जाती है क्योंकि वे घर में काम करती हैं और उनके काम को घरेलू काम का ही हिस्सा माना जाता है। यही कारण है कि सर्वेक्षण के दौरान इनमें से कई महिलाओं ने खुद को  गृहिणी (हाउसवाइफ) कहा जबकि वे आय प्राप्त करने के लिए रोजाना 14-16 घंटे श्रम करती हैं। 


महिलाएं प्राकृतिक संसाधनों की अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता और प्रबंधक दोनों रूपों में मुख्य भूमिका निभाती हैं। वे पानी, ईंधन और चारा इकट्ठा करने के साथ-साथ गाँव में चारागाह, पानी और जंगल जैसे सामान्य संसाधनों का प्रबंधन भी करती हैं। ग्रामीण महिलाएं पर्यावरण विनाश के खतरों को सीधे तौर पर झेलती हैं। उन्हें मीलों चलकर पीने का पानी, चारा और जलावन की लकड़ियाँ लानी पड़ती है। लेकिन राष्ट्रीय आँकड़ों से इन कार्यों के महत्व और मूल्य को पूरी तरह से गायब कर दिया जाता है।  


कितना आय प्राप्त करती हैं महिलाएं
कानूनी रूप से, वर्तमान न्यूनतम वेतन नियम यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त है कि नियोक्ता श्रमिकों का शोषण न करें या पुरुष और महिला के वेतन में किसी प्रकार का भेदभाव न करें। लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है-महिलाओं के वेतन पुरुषों के वेतन की तुलना में औसतन 30 प्रतिशत कम होते हैं।


कृषि और घरलू कार्यों के लिए न्यूनतम वेतन कानून को लागू करने का कोई इंतजाम नहीं है। भारत में ऐसा कोई भी राज्य नहीं है जहाँ महिला और पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाता है। तर्क यह दिया जाता है कि महिलाएं और पुरुष अलग-अलग तरह के काम को अंजाम देते हैं। महिलाओं के कामों को हल्के काम या बिना कौशल वाले कामों के वर्ग में रखा जाता है। उदाहरण के लिए, कृषि में निराई का काम सामान्यतः महिलाओं के लिए आरक्षित है और इसके लिए सबसे कम मजदूरी का प्रावधान है। धान की रोपाई का काम एक कौशल भरा काम है और यह भी महिलाओें के लिए आरक्षित है, लेकिन किसी भी राज्य में इसके लिए अधिक मजदूरी नहीं दी जाती है। घरलू कार्यों के लिए महिलाएं सबसे कम आय प्राप्त करती हैं। उदाहरण के लिए, सेवा (एस ई डब्ल्यु ए) द्वारा 14 व्यवसायों का अध्ययन करने पर पाया गया कि 85 प्रतिशत महिलाएं सरकारी निर्धनता स्तर आय का सिर्फ 50 प्रतिशत आय प्राप्त करती हैं। महिलाएं घरेलू श्रमिक की भूमिका में होती हैं और इस कारण उन्हें बच्चों की देखभाल संबंधी भत्ते, स्वास्थ्य बीमा या अधिक उम्र पेंशन जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभों से वंचित कर दिया जाता है। 


सस्ता महिला श्रम का बढ़ता इस्तेमाल भूमि मालिकों के लिए कृषि में खर्च कम करने के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीति बन गई है। एक कृषि श्रमिक संध ने आंध्रप्रदेश के पाँच जिलों में सर्वेक्षण करने पर पाया कि धान की कटाई, रूई, मिर्च, हल्दी, तम्बाकू और फूलो को तोड़ने के व्यवसाय में पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं कार्यरत हैं। नियोक्ता का कहना है कि वे इस काम के लिए पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक तरजीह देते हैं क्योंकि वे अधिक उद्यमशील होती हैं, बिना रूके काम करती रहती हैं और पुरुषों की तुलना में 30-50 प्रतिशत कम पारिश्रमिक पर ये उपलब्ध हो जाती हैं।


वैसे निर्माण निकायों में, जहाँ कानून का क्रियान्वयन अधिक आसान होना चाहिए वहाँ महिलाओं के साथ सबसे अधिक भेदभाव किया जाता है। सन् 1988 में, इस निकाय में महिलाओं का वेतन पुरुषों की तुलना में आधा था। इसका कारण इस निकाय में कार्य का पृथक्करण है। यहाँ महिलाएं घरेलू स्तर पर कार्य निष्पादन अथवा उत्पाद की गिनती की दर से काम करती हैं। यहाँ नियोक्ता और कर्मचारी का संबंध एक उत्पादन श्रृंखला में होता है जिसमें कुछ ठेकेदार शामिल होते हैं और यहाँ कर्मचारियों को सामान्यतः न्यूनतम से भी कम वेतन दिया जाता है।


कुछ निर्माण उद्योगों में शिफ्ट के आधार पर काम लिया जाता है। यहाँ पूर्णकालिक श्रमिक की बजाय श्रमिकों से सिर्फ रोजगार कांट्रैक्ट किया जाता है। दिखावे के तौर पर तो यहाँ महिलाओं को पूरी सुरक्षा, नौकरी की सुरक्षा ओर न्यूनतम से अधिक मजदूरी दी जाती है, लेकिन वास्तव में यहाँ न तो महिलाओं की सुरक्षा और न ही उनकी नौकरी की सुरक्षा दी जाती है। यही नहीं इन्हें वेतन भी नयूनतम से कम ही दिया जाता है। इन्हें कभी भी नौकरी से निकाला जा सकता है। इन उद्योगों में आम तौर पर अकेली रहने वाली महिलाएं काम करती हैं जिनमें अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिलाएं शामिल होती हैं।
गृह कार्य की कीमत गृहणियों को घरों में दिन-रात खटने और उनके घरेलू योगदान के बदले क्या कोई पारिश्रमिक नहीं मिलनी चाहिएघ् इस सवाल पर ज्यादातर पुरुष शायद यही कहते मिलेंगे कि महिलाओं को घरों में काम करने के बदले कुछ क्यों मिले, आखिर हम भी तो बाहर काम करते हैं। अगर महिला बाहर की जिम्मेदारी संभाल ले तो हमें घर में बैठ कर घर के काम-काज करने में खुशी होगी।


सवाल गृहणियों को उनके काम के बदले कोई पारिश्रमिक या वेतन देने का नहीं, बल्कि उनके कार्यों एवं श्रम का सही मूल्याँकन कर उन्हें उचित दर्जा देने का है। आज हमारे समाज में यही सोच कायम है कि बाल-बच्चे एवं घर-गृहस्थी संभालना गैर उत्पादक कार्य है और इससे आय का सृजन नहीं होता। आय का सृजन तो घर के बाहर कल-कारखानों एवं दफ्तरों में कार्य करने से होता है। औद्योगिकीकरण के पूर्व घर-परिवार ही परिवार की आर्थिक एवं उत्पादन संबंधी गतिविधियों का केन्द्र हुआ करता था। उस समय परिवार की जरूरतों की पूर्ति के लिये घर के पुरुष एवं महिला सदस्य मिल-जुल कर काम करते थे। खेती, कताई-बुनाई अथवा अन्य कार्य में परिवार का हर व्यक्ति चाहे वह पुरुष हो या महिला एक-दूसरे का हाथ बंटाता था। इस तरह किसी परिवार की आमदनी, रहन-सहन के स्तर तथा परिवार की इज्जत केवल पुरुषों के नहीं, बल्कि महिलाओं के काम से भी तय होता था। लेकिन औद्योगिकीकरण के साथ उत्पादन गतिविधियों में काफी बदलाव आ गया। औद्योगिकीकरण के साथ-साथ काम-काज का बंटवारा शुरू हो गया। अब घर की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए घर से बाहर किसी फैक्टरी या किसी आफिस में काम करने की जरूरत थी। ऐसे में आरंभ में घर के पुरुष सदस्यों ने घर के बाहर काम करना शुरू किया और महिलाओं पर घर और बाल-बच्चे संभालने की जिम्मेदारी आ गई। धीरे-धीरे पैसे कमाने वाले पुरुषों के काम की तुलना में घर के काम करने वाली महिलाओं के काम को गैर उत्पादक एवं गैर आर्थिक समझा जाने लगा। हालाँकि आज काफी बड़ी संख्या में महिलाएं घर से बाहर निकल कर आर्थिक गतिविधियों के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने लगी हैं। महिलाएं वैसे तो पहले से ही कृषि एवं निर्माण कार्यों में संलग्न थीं लेकिन अब उनके कार्य का दायरा काफी व्यापक हुआ है। शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र है जिसमें महिलाएं योगदान नहीं दे रहीं हंै। लेकिन इसके बावजूद नौकरी एवं रोजगार में जुटे पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या बहुत कम है। भारत में महानगरों एवं कुछ शहरों को छोड़ दिया जाए तो देश के शेष हिस्से में महिलाएं मुख्य तौर पर घरेलू काम-काज ही कर रही हैं। इसी वजह से आज भी महिलाओं को बिना पैसे के काम करने वाली श्रमिकों से अधिक नहीं समझा जा रहा है। इस परम्परागत सोच के कारण गृहणियों के दर्जे एवं उनके प्रति सम्मान में एवं उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। 


माक्र्सवादी नारीवादी विचारक जे. बेंटसन का कहना है कि जब तक महिलाओं को भारी घरेलू कामकाज और बच्चे संभालने की जिम्मेदारी से मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक उनकी मुक्ति दूर की कौड़ी बनी रहेगी। लिंग समानता एवं महिलाओं को पुरुषों के बराबर के दर्जे सुनिश्चित करने के लिए पुरुषों और महिलाओं की सभी परम्परागत सामाजिक भूमिकाओं को समाप्त करना होगा। हालाँकि रोजगार पाने के मामले में महिलाओं को पुरुषों के समान कानूनी एवं संवैधानिक अधिकार प्राप्त है लेकिन महिलाओं की परम्परागत घरेलू भूमिका के कारण वे घर के बाहर नौकरी-रोजगार करने में अपने को मुश्किल में पाती हंै। इंटरनेशनल वुमेन काउंट नेटवर्क (आई.डब्ल्यू.सी.एन.) के प्रतिनिधियों ने पेइचिंग में महिलाओं के बारे में आयोजित संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन में सदस्य देशों के बीच इस बात के लिए सहमति कायम करने में सफलता पाई कि बिना वेतन के घरेलू कार्य का मूल्याँकन किया जाए। यह पहला मौका था जब विभिन्न देशों की सरकारों ने माना कि महिलाओं के घरेलू कार्यों एवं उनकी जिम्मेदारियों का मूल्याँकन हो।  


नारीवादियों को उम्मीद है कि महिलाओं के काम-काज के मूल्यांकन की बदौलत महिलाओं के प्रति मौजूदा धारणाओं में बदलाव आएगा। अगर राष्ट्रीय आँकड़ों में महिलाओं के काम-काज एवं उनके योगदान को दर्ज किया जाए तो इस धारणा को समाप्त करने में मदद मिलेगी कि पुरुष ही दुनिया के लिये रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। महिलाओं के श्रम के मूल्याँकन के कारण यह पता चलेगा कि महिलाओं का समाज के लिये क्या योगदान है। 


संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं का योगदान इतना विशाल है कि अगर उनका सही आकलन किया जाए तो मौजूदा सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के प्रति हमारी समझ पूरी तरह बदल जा सकती है। तारजानी वाकिल का कहना है कि महिलाओं के घरेलू कामकाज के महत्व एवं उनके योगदान को सम्मान नहीं देने का रवैया महिलाओं के प्रति घिसी-पिटी सोच एवं धारणा का ही परिचायक है। 


संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में आकलन किया गया है कि महिलाओं द्वारा वेतन बगैर किये जाने वाले कार्य का मूल्य करीब 16 खरब अमरीकी डालर के बराबर है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं की गरीबी एवं उनके निम्न दर्जे का संबंध उनके काम का मूल्याँकन नहीं किए जाने से है।