मांसाहार एवं अधपके भोजन से सिस्टीसरकोसिस का खतरा

यदि सोचने की शक्ति और याददाश्त कमजोर हो रही हो, भुलक्कड़ प्रवृत्ति पनप रही हो, छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट होती हो, बिना कारण किसी पर खीझ आती हो, अचानक चक्कर आते हों, नींद कम आती हो, कभी-कभी कुछ सेकेंड मात्र के लिए बेहोशी आती हो, काम करने की इच्छा नहीं होती हो, आंखों की रोशनी दिन ब दिन घट रही हो, यौन शक्ति क्षीण पड़ती जा रही हो, शरीर का कोई अंग सुन्न हो जाता हो, फड़कने लगता हो या कमजोर पड़ जाता हो तो समझिये कि ये लक्षण आपमें मौत का कहर बरपाने वाले सिस्टीसरकी नामक परजीवी (पारासाइट) के पलने के संकेत हो सकते हैं जो सिस्ट बनकर किसी भी क्षण आपको सिस्टीसरकोसिस की खौफनाक बीमारी का शिकार बना सकते हैं। 
केन्द्रीय स्नायु तंत्र को प्रभावित करने वाली सस्टीसरकोसिस की बीमारी टीनिया सोलियम नाम फीता कृमि (टेप वर्म) परजीवियों के संक्रमण से होता है। मुख्य तौर पर यह बीमारी फीता कृमि से संक्रमित मांस खास तौर पर सूअर का मांस, अधपकी सब्जियां और बिना धुला सलाद खाने से होती है। यह बीमारी पालतू कुत्तों से भी फैलती है। किसी नस्ल के पालतू कुत्ते के सिरटीसरकोसिस के परजीवियों से संक्रमित होने पर पालने वाले को छूने मात्र से यह रोग हो सकता है। 
वैसे तो सिस्टीसरकोसिस पैदा करने वाले फीता कृमि विश्वभर में मौजूद हैं लेकिन अमरीका जैसे विकसित देशों की तुलना में भारत जैसे विकासशील देशों में इस बीमारी का प्रकोप बहुत अधिक है। यह बीमारी उन ग्रामीण क्षेत्रों एवं मलिन बस्तियों में बहुत अधिक है जहां गंदगी अधिक है तथा सूअर खुले में घूमते रहते हैं तथा मानव मल खाते रहते हैं। इससे फीता कृमियों को अपना जीवन चक्र पूरा करने में मदद मिलती है।
सिस्टीसरकोसिस पैदा करने वाली टीनिया सोलियम नामक फीता कृमि(टेप वर्म)हमारे देश में इस बीमारी के फैलने के अनुकूल माहौल मौजूद हैं क्योंकि यहां सूअर का गोश्त बहुत ही आसानी से प्रचूर मात्रा में और काफी सस्ता मिलता है। देश के एक जाति विशेष का तो सूअर का मांस ही मुख्य भोजन है। देश में मांस जांच संबंधी कानून होने के बावजूद सरकारी लापरवाही से फीता कृमि से संक्रमित सूअर का मांस धड़ल्ले से बिकता है। 
फीता कृमि से संक्रमित भोजन खाने से या संक्रमित पानी पीने से फीता कृमियों के लार्वे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ये शरीर के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं लेकिन इसके लक्षण मुख्य तौर पर तब प्रकट होते हैं जब इसके लार्वे मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते हैं। इन लार्वों के मस्तिष्क में पहुंचने के हफ्ते से महीने बाद बीमारी के लक्षण प्रकट हो सकते हैं। 
सिस्टीसरकोसिस की परजीवियों के लार्वे जब दिमाग में विकसित होकर सिस्ट बनने लगते हैं तो उस व्यक्ति में इस खतरनाक बीमारी के लक्षण उभरने लगते हैं। फीता कृमि संक्रमण से मिर्गी भी होती है इसलिए संक्रमित मरीज को सिस्टीसरकोसिस और मिर्गी साथ भी हो सकती है। 
18 साल की उम्र के बाद मिर्गी होने का एक कारण सिस्टीसरकोसिस हो सकती है। एक अध्ययन के अनुसार मिर्गी के हर पांचवें रोगी का कारण भी सिस्टीसरकोसिस ही है। 
मरीज में पनप रहे सिस्टीसरकोसिस के परजीवियों का पता सी.टी. स्कैन या एम.आर.आई. जांच से चल जाता है। यदि बीमारी का प्रारम्भिक अवस्था में पता चल जाए तो इसका इलाज काफी आसान होता है वरना स्थिति बिगड़ जाती है। संक्रमित मांस का पूर्व में पता चल जाए तो इस बीमारी से बचा जा सकता है । जो लोग पालतू कुत्ते रखते हैं उन्हें अपनी और अपने कुत्ते की सिस्टीसरकोसिस संबंधी जांच अवश्य करा लेनी चाहिए और बतौर सावधानी एक समयान्तराल से कुत्ते की नियमित जांच करानी चाहिए।
इस बीमारी का इलाज दवाइयों से किया जाता है लेकिन गंभीर स्थिति में इसके इलाज के लिये सर्जरी की जरूरत पड़ती है। सिस्ट के मरने पर उसके चारों तरफ एक कड़ी कवच बन जाती है। इससे मस्तिष्क में सूजन होती है और स्नायुओं पर दवाब पड़ता है। ऐसे में सर्जरी के जरिये सिस्ट को निकालना जरूरी हो जाता है अन्यथा मरीज की मौत तक हो सकती है।
जब यह सिस्ट मस्तिष्क की पानी की थैलियों (वेंट्रीकल) में फंस जाती है तो पानी का बहाव रूकने के कारण हाइड्रोसेफलस नामक बीमारी हो जाती है। हाइड्रोसेफलस के परम्परागत इलाज के तहत मस्तिष्क में एक सुराख करके एक नली डाल दी जाती है और इस नली के दूसरे हिस्से को त्वचा के अंदर ही अंदर लाकर पेट में डाल दिया जाता है। मस्तिष्क से कीड़े के अंडे को बाहर निकालने के लिये किये जाने वाले आपरेशन में मस्तिष्क में पीछे से चैथे वेंट्रिकल को खोलकर कीड़े के अंडों को बाहर निकाल लिया जाता है सिस्टीसरकोसिस का समुचित इलाज नहीं होने पर मरीज की जान जाने का भी  खतरा भी हो सकता है।


सिस्टीसरकोसिस से बचाव के उपाय
— सूअर अथवा अन्य तरह के कच्चे अथवा अधपके मांस का सेवन नहीं करें।
— शौच से आने के बाद तथा खाना खाने से पहले हाथों को साबुन से अच्छी तरह धो लें।
— सभी तरह की सब्जियों को पानी से अच्छी तरह से धोने के बाद और अच्छी तरह पकाने के बाद खायें।
— सलाद तथा फलों को अच्छी तरह से धों लें।
— गंदे पानी या मल में उगे सब्जियों का सेवन नहीं करें।
— पीने के लिये उबले अथवा विसंक्रमित पानी का ही प्रयोग करें।