लीवर (यकृत) कैंसर

लीवर कैंसर तब होता है जब लीवर की असामान्य कोशिकाएं अनियंत्रित ढंग से विकसित होने लगती हैं।
लीवर, पेट के ऊपरी दाएं हिस्से में स्थित होता है। यह शरीर के सबसे बड़े अंगों में से एक है। लीवर का काम खून से अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालना, चर्बी के पाचन में मदद हेतु पित्त बनाना, ऊर्जा के लिए शरीर द्वारा प्रयोग होने वाले शक्कर का संग्रहण करना है।1
लीवर कैंसर के प्रकार
लीवर कैंसर मुख्यतः दो प्रकार के होते  हैं और इनका नाम लीवर के उस हिस्से पर रखा जाता है जिसमें कैंसर सबसे पहले विकसित होता है।
लीवर कैंसर का सबसे आम प्रकार लीवर की प्रमुख कोशिकाओं में शुरू होता है। यह हीपेटोसेलुलर कार्सिनोमा कहलाता है। जबकि कोलेंजियोकार्सिनोमा पित्त नली को ढकने वाली कोशिकाओं में शुरू होता है।
लीवर कैंसर के लक्षण 
लीवर कैंसर के सबसे आम लक्षण निम्न हैं -
— पेट के ऊपरी दाएं हिस्से में असहजता का अहसास
— पेट के दाएं हिस्से में, पंजर के नीचे एक कठोर गांठ होना।
— पीठ के ऊपरी हिस्से में, दायां स्कंधास्थि (शोल्डर ब्लेड) के आसपास पीड़ा होना
— बिना किसी कारण के वजन कम होना
— त्वचा का पीला पड़ना और आंखों का सफेद होना 
— असामान्य थकान
— भूख की कमी और/या मितली
हालांकि ऐसे लक्षण सिर्फ लीवर कैंसर में ही नहीं, बल्कि अन्य बीमारियों में भी हो सकते हैं। लेकिन ऐसे लक्षण प्रकट होने पर डॉक्टर से सलाह-मषविरा अवष्य लेना चाहिए।
जैसा कि नाम से ही जाहिर है लीवर कैंसर (हेपैटोसेलुलर कारसिनोमा) की शुरूआत लीवर से होती है। इसे प्राथमिक (प्राइमरी) कैंसर या हेपैटोमा भी कहा जाता है। लीवर विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से बना होता है (उदाहरण के लिए पित्त नलिकाओं, रक्त वाहिकाओं और वसा का संग्रह करने वाली कोशिकाएं)। हालांकि, लीवर कोशिकाएं (हेपैटोसाइट्स) 80 प्रतिशत लीवर ऊतकों का निर्माण करती हैं। इस तरह, अधिकतर प्राइमरी कैंसर (90-95 प्रतिशत से अधिक) लीवर कोशिकाओं से पैदा होते हैं और उन्हें हेपैटोसेलुलर कैंसर या कारसिनोमा कहा जाता है। लीवर कैंसर इस मायने में बेहद खतरनाक होता है कि जब तक मरीज को यह पता चलता है कि वह इस रोग से पीड़ित है तब तक यह लीवर से बाहर शरीर के दूसरे अंगों में भी फैल चुका होता है और सिर्फ 5 प्रतिशत मरीज ही ऐसे होते हैं जो रोग से ग्रस्त होने के बाद बिना इलाज के पांच वर्ष भी जिंदा रह पाते हैं। ऐसे में उम्मीद की बस एक ही किरण बच जाती है कि जिन मरीजों को लीवर कैंसर का खतरा हो वे अपनी निरंतर रूप से जांच करवाते रहें ताकि शुरूआती दौर में ही इसका पता लगाया जा सके। 
इलाज
शुरूआती लीवर कैंसर का इलाज सर्जरी के माध्यम से टयूमर को हटाकर (रिसेक्शन), उसे नष्ट कर या लीवर प्रतिरोपण के द्वारा किया जाता है। हालांकि, शुरूआती लीवर कैंसर की पहचान से संबंधित जांच के जो तकनीक हैं वे उतने सक्षम नहीं हैं लेकिन बहुत सारी नई तकनीकों से संबंधित शोध जारी हैं और वे उम्मीद जगाते हुए भी प्रतीत होते हैं। लीवर कैंसर से जुड़े हुए सबसे आम रोग हैं वायरल हेपटाइटिस, अल्कोहलिम और सिरोसिस। हालांकि, क्रॉनिक वायरल हेपटाइटिस अल्कोहलिम में सामान्य है और वायरल हेपटाइटिस और अल्कोहलिम दोनों ही सिरोसिस का कारण बनते हैं जो कि अक्सर ही कैंसर में विकसित हो जाता है। लीवर कैंसर दुनिया भर में विकसित होने वाला तीसरा सबसे सामान्य कैंसर है। यह जानलेवा होता है और इससे ग्रस्त अधिकतर रोगियों की साल भर के अंदर ही मौत हो जाती है। लीवर कैंसर के रोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसका कारण मधुमेह, मोटापा और हेपटाइटिस सी है जो कि लीवर में संक्रमण पैदा कर लीवर कैंसर का कारण बनता है।
इंटरवेंसनल रेडियोलौजिस्ट कैथेटर के माध्यम से शरीर के सभी भागों में वैसकुलर सिस्टम के प्रयोग द्वारा इलाज करने में समर्थ होते हैं। कैंसर के मरीजों के इलाज के मामले में इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिस्ट दवा के बगैर ही या शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित किए बगैर ही शरीर के अंदर जाकर कैंसर के टयूमर पर हमला कर पाने में सक्षम होते हैं। मिनिमली इंवेसिव इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिकल थेरैपी को टयूमर के इलाज में बहुत ही प्रभावकारी माना जा रहा है और इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले समय में यह थेरैपी, सर्जरी की अन्य सभी तकनीकों को पीछे छोड़ते हुए उनका स्थान ले लेगी। ट्रांसआर्टिरियल केमोएंबोलाइजेशन थेरैपी की सफलता से इस बात की संभावना बनती है कि भविष्य में इसके माध्यम से लीवर कैंसर के रोगियों का अच्छी तरह से उपचार हो पाएगा।
ट्रांसआर्टिरियल केमोएंबोलाइजेशन थेरैपी की प्रक्रिया के दौरान इंटरवेंशनल रेडियोलॉजिस्ट सबसे पहले पेट के निचले हिस्से की त्वचा में बहुत ही बारीक छेद कर उसमें एक कैथेटर डालता है। उसी के सहारे केमोथेरैपी दवा को इंजेक्शन के माध्यम से धमनियों में पहुंचाया जाता है जिससे ये धमनियां अवरोधित हो जाती हैं। इस अवरोध के कारण रक्त टयूमर तक नहीं पहुंच पाता और टयूमर तक अधिक मात्रा में दवाओं को पहुंचाया जाता है। 
इस प्रक्रिया के कई लाभ हैं। इसकी सहायता से सामान्य इंफ्यूजन के मुकाबले टयूमर तक अधिक मात्रा में दवा पहुंचाई जा सकती है। सामान्य लीवर के सेलों को पोर्टल सर्कुलेशन और विकारग्रस्त कोशिकाओं को हेपेटिक धमनी के द्वारा रक्त पहुंचाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि टयूमर तक शरीर के अन्य भागों को किसी भी तरह से प्रभावित किए बगैर दवा पहुंचाई जा सकती है जिससे उन्हें नष्ट करना आसान हो जाता है। इंटरवेंसनल रेडियोलॉजिस्ट इस प्रक्रिया के अंतर्गत एंबोलाइजेशन का भी इस्तेमाल करते हैं। एंबोलाइजेशन एक स्थापित इंरवेंशनल रेडियोलॉजी तकनीक है जिसे ट्रॉमा के शिकार लोगों, बच्चे के जन्म के बाद अगर रक्त का बहना न रूके तब और टयूमर के इलाज में प्रयोग किया जाता है। कैंसर के मरीजों का इलाज करते हुए इंटरवेंशनल रेडियोलॉजिस्ट एंबोलाइजेशन का प्रयोग टयूमर को हो रही रक्त की आपूर्ति को रोकने, टयूमर के विकिरण तथा इस तकनीक को केमोथेरैपी के साथ जोड़कर कैंसर की दवाओं को टयूमर तक सीधे पहुंचाने के लिए करते हैं। 
इसके अलावा इंटरवेंशनल रेडियोलॉजिस्ट इमेजिंग का भी इस्तेमाल करते हैं ताकि रेडियोफ्रिक्वेंसी गर्मी को त्वचा के रास्ते कैंसर कोशिकाओं को जलाने या मारने के लिए टयूमर तक सीधे पहुचाया जा सके। कैंसर के प्रभाव वाले लीवर टयूमर को नष्ट करने के लिए रेडियोफ्रिक्वेंसी एबलेशन यानी आरएफए एक गैर-शल्य चिकित्सकीय एवं रोग से प्रभावित हिस्से तक ही सीमित रहने वाला समाधान प्रस्तुत करता है जो अपनी गर्मी के द्वारा टयूमर कोशिकाओं को तो मार डालता है, लेकिन लीवर का जो स्वास्थ्यप्रद ऊतक है उसे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करता। इस तरह यह सिस्टेमिक थेरैपी के मुकाबले मरीजों के हिसाब से सरल इलाज है। रेडियोफ्रिक्वेंशी ऊर्जा मरीज के सर्वांगीन स्वास्थ्य को प्रभावित किए बगैर दी जा सकती है और इस कारण से अधिकतर लोग कुछ दिनों के अंदर ही अपनी सामान्य दिनचर्या को फिर से शुरू कर सकते हैं। आरएफए केवल 4 सेंटीमीटर के टयृूमर का ही इलाज कर सकता है। अगर टयूमर का आकार बड़ा है तो केमोएंबोलाइजेशन के माध्यम से उसका आकार घटाने के बाद आरएफए की प्रक्रिया को अपनाया जाता है। इस प्रक्रिया से टयूमर को इतना घटाया जा सकता है कि बाद में सर्जरी कर उसे निकाला जा सके। इससे दर्द में भी बहुत राहत मिलती है और अन्य दुष्प्रभावों को भी कम किया जा सकता है। इससे कोई टॉक्सिक असर भी नहीं होता और न ही सामान्य शल्य चिकित्सा की तरह ऑपरेशन होने वाले अंगों पर निशान पड़ता है।