कुछ साल पूर्व पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में प्लेग का प्रकोप फैला था। इससे पूर्व 1994 में गुजरात के सूरत शहर में फैली प्लेग हमारे लिये चेतावनी है। सौभाग्य से पिछले दिनों फैली प्लेग की तत्काल पहचान हो गयी और इस पर तुरंत काबू पा लिया गया। आखिर प्लेग खत्म क्यों नहीं हो रहा है। हमारे देश में सरकारी महकमों के साथ-साथ लोगों की लापरवाही प्लेग जैसी बीमारियों की वापसी का प्रमुख कारण है। खास तौर पर शहरी इलाकों में जहां-तहां फैले कूड़े-कचरे के अंबार चूहों तथा प्लेग फैलाने वाले उनके पिस्सुओं के लिये प्रजनन स्थल बनते जा रहे हैं। ऐसे में भविष्य में प्लेग के प्रकोप होने के खतरे हमेशा बने रहेंगे। आज समय रहते चेतने की जरूरत है। इसके लिये सरकारी सतर्कता तथा लोगों की जागरूकता जरूरी है।
क्या है प्लेग
काली मौत के नाम से कुख्यात प्लेग मुख्य तौर पर जंगली चूहों तथा उन पर पलने वाले पिस्सुओं की बीमारी है जो मनुष्यों को भी संक्रमित कर सकती है और इलाज नहीं होने पर मौत का कारण बन सकती है। पिस्सुओं अथवा लाल मक्खियों के काटने से चूहे इस बीमारी से संक्रमित हो जाते हैं। जिन मनुष्यों को प्लेग से ग्रस्त पिस्सु काटते हैं उन्हें भी यह बीमारी हो जाती है। जीव- जन्तुओं से फैलने वाली जूनोटिक बीमारियों में से प्लेग अत्ंयत गंभीर बीमारी है जिसका इलाज नहीं होने पर मौत की आशंका 50 से 60 फीसदी तक हो सकती है।
काली मौत
प्लेग इतिहास में अनेक बार भयावह महामारी का कारण बनती रही है। चैदहवीं शताब्दी में इसे काली मौत (ब्लैक डेथ) का नाम दिया गया था। उस दौरान करीब पांच करोड़ लोग इसकी चपेट में आकर मौत के ग्रास बन गये थे। इनमें से आधे लोग एशिया और अफ्रीका के थे तथा शेष आधे लोग यूरोप के थे। इस बीमारी के कारण यूरोप की एक - चैथाई आबादी खत्म हो गयी थी।
प्लेग के लक्षण एवं इलाज
प्लेग संक्रमित पिस्सुओं के काटने के बाद दो दिन से एक सप्ताह के भीतर रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। आरंभिक स्थिति में रोगी को तेज बुखार, कफ, सीने में दर्द, रक्तस्राव तथा कमजोरी जैसी समस्यायें हो सकती है। एक सप्ताह बाद जब प्लेग के जीवाणु लिम्फ या रक्त में पहुंचते हैं तब वहां मोटी गांठ बननी शुरू हो जाती है। यह गांठ धीरे-धीरे बड़ी होने लगती है और गुर्दे तथा हृदय जैसे महत्वपूर्ण अंगों की कार्यप्रक्रिया बाधित कर देती है। इसके बाद जीवाणु रोगी के मस्तिष्क पर भी असर करने लगते हैं। इसके बाद रोगी की मौत हो जाती है। आधुनिक चिकित्सा और एंटीबायोटिक दवाइयों के विकास के कारण आज प्लेग लाइलाज एवं जानलेवा नहीं रह गयी है। रोग के आरंभिक स्थिति में एंटीबायोटिक दवाइयां अत्यंत कारगर होती हंै। इसलिये प्लेग प्रभावित क्षेत्रा के लोगों को समय पूर्व ही चिकित्सक से परामर्श कर एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन करना चाहिये।
संक्रमण
मनुष्य प्लेग के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वे प्लेग से प्रभावित होते रहते हैं। प्लेग से संक्रमित जंगली चूहों और मनुष्यों में अप्रत्यक्ष संचारण आम तौर पर पिस्सुओं के काटने से होता है। जब पालतू जानवर उस क्षेत्र में रहने वाले प्लेग से संक्रमित चूहों एवं अन्य जीवों के संपर्क में आते हैं तो वे भी प्लेग से संक्रमित हो जाते हैं और मनुष्यों को बड़े पैमाने पर संक्रमित करते हैं। इसलिये जंगली जानवरों के आस - पास रहने वाले लोगों को सतर्क रहने की जरूरत होती है। ऐसी जनआबादी पर लगातार निगरानी रखी जानी चाहिये। प्लेग ग्रस्त जीव जब मर जाते हैं तो संक्रमित पिस्सु रक्त चूसने के लिए दूसरे जानवर के शरीर पर चले जाते हैं और उन्हें भी प्लेग से ग्रस्त कर सकते हैं। पिस्सु मनुष्यों को भी काट सकते हैं और उन्हें प्लेग से संक्रमित कर सकते हैं। संक्रमित व्यक्ति भी सांस के जरिये दूसरों को संक्रमित कर सकता है।
प्लेग की किस्में
मनुष्यों में तीन तरह की प्लेग होती हैं। ये हैं बुबोनिक, सेप्टिसेमिक एवं न्यूमोनिक। बुबोनिक प्लेग मक्खियों के काटने से होती है। इसमें प्लेग के जीवाणु (यरसीपनिया पेस्टिस) लसीका संबंधी (लिम्फेटिक ) प्रणाली के जरिये निकटतम लिम्फ नोड तक पहुंच जाते हैं जिससे वहां सूजन पैदा होने लगती हैं। सूजन सामान्य तौर पर उरू-मूल (ग्रोइन) क्षेत्रा में होती है। इसी कारण इस तरह की प्लेग को बुबोनिक प्लेग कहा गया है क्योंकि इस तरह की सूजन को बुबेनिस कहा जाता है जिसका ग्रीक भाषा में अर्थ होता है ग्रोइन। हालांकि ग्रोइन क्षेत्रा के अलावा गर्दन और कांख में भी सूजन हो सकती है। हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में पिछले दिनों फैली प्लेग बुबोनिक किस्म की थी।
सेप्टिसेमिक किस्म की प्लेग तब होती है जब संक्रमित पिस्सु मनुष्यों के रक्त में प्लेग जीवाणुओं को प्रविष्ट करा देते हैं। यह प्लेग हमेशा घातक साबित होती है। न्यूमोनिक प्लेग फेफड़े को प्रभावित करती है। यह एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में संक्रमित कपड़े या अन्य संक्रमित सामानों से फैलती है।
प्लेग का इतिहास
मनुष्यों में प्लेग का प्रकोप प्राचीन काल से ही होता रहा है। मनुष्यों में प्लेग का पहला मामला ईसा पूर्व 1320 में फिलीस्तीनियों में दर्ज किया गया। इसका उल्लेख बाइबिल में किया गया है।
भारत में प्लेग के प्रकोप में वृद्धि बीसवीं शताब्दि के पूर्वाद्ध में हुयी। भारत में 1954, 1963 और तीस वर्ष बाद 1994 में भी प्लेग का प्रकोप हुआ। हालांकि यहां होने वाले प्लेग के प्रकोपों के कम मामलों में ही वास्तविक कारणों का पता चल पाया लेकिन 1994 में होने वाले प्लेग के प्रकोप का कारण 1993 के सितंबर में आये भूकम्प के कारण होने वाले पर्यावरण संबंधी बदलाव रहा। इस बदलाव के कारण घरेेलू चूहों और उनके पिस्सुओं की आबादी में परिवर्तन हुआ। इसके अलावा भारी वर्षा और बाढ़ के कारण काफी लोग एक जगह पर रहने को मजबूर हुये जिससे भी भी प्लेग को महामारी के रूप में फैलने में मदद मिली।
क्या फिर लौटेगा प्लेग का प्रकोप
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