दिमागी ट्यूमर को आम तौर पर मौत का दूत माना जाता है लेकिन अब रेडियो तरंगों की मदद से किसी भी तरह की चीर-फाड़ के बगैर इस जानलेवा बीमारी का कारगर उपचार संभव हो गया है। एक समय ट्यूमर के उपचार के लिये खोपड़ी को खोलकर दिमाग के अंदर चीर-फाड़ करनी पड़ती थी लेकिन रेडियो तरंगों पर आधारित गामा नाइफ जैसी तकनीकों के इस्तेमाल की बदौलत अब दिमागी ट्यूमर का इलाज कष्ट रहित एवं आसान हो गया है। हमारे देश में दिमागी फोड़े (ट्यूमर) से हर दो सौ में से एक व्यक्ति पीड़ित है। दिमागी फोड़े मुख्य तौर पर दो तरह के होते हैं- कैंसरस अथवा मेलिगनेंट और नाॅन कैंसरस अथवा बिनाइन। मस्तिष्क के लगभग 50 प्रतिशत ट्यूमर कैंसरस होते हैं। ट्यूमर चाहे कैंसरस हो या बिनाइन- समान रूप से खतरनाक होते हैं। कार्यक्षमता में कमी, हाथ-पैर या किसी विशेष अंग में लगातार कमजोरी, सोचने-समझने की क्षमतां में कमी, सिर दर्द, उल्टी, अत्यधिक उत्तेजना के बगैर भी दिमागी दौरे, आंखों की रोशनी घटना या समाप्त हो जाना, सुनने की क्षमता का लोप आदि ट्यूमर के लक्षण हंै जिन्हें नजरअंदाज करना मौत को दावत देने के समान है। ट्यूमर के लक्षण एवं प्रभाव ट्यूमर के आकार-प्रकार के अलावा इस बात पर भी निर्भर करता है कि मस्तिष्क में उसकी स्थिति क्या है। मिसाल के तौर पर ट्यूमर के आंखों की नस के पास होने पर देखने की शक्ति और कान की नस के पास होने पर सुनने की क्षमता या तो कम हो जाती है या समाप्त हो जाती है।
कुछ समय पहले तक ट्यूमर के मरीजों की मौत हो जाती थी क्योंकि जब तक इसके लक्षण उभरते थे और ट्यूमर होने की पुष्टि होती थी तब तक काफी देर हो चुकी होती थी लेकिन आज न केवल सी टी स्कैन एवं एम आर आई की मदद से ट्यूमर का आरंभिक अवस्था में पता लगाया जा सकता है बल्कि गामा नाइफ एवं एक्स नाइफ जैसी तकनीकों की मदद से मस्तिष्क में चीर-फाड़ किये बगैर ट्यूमर का सफाया किया जा सकता है।
एक समय दिमागी ट्यूमर के इलाज के लिये आम तौर पर आपरेशन का ही सहारा लिया जाता था। इसके लिये ट्यूमर के आकार-प्रकार एवं उसकी स्थिति के अनुसार या तो खोपड़ी खोलनी पड़ती थी या खोपड़ी में छेद करना पड़ता था। लेकिन अब ट्यूमर के इलाज के लिये आपरेशन के अलावा रेडियो थिरेपी का भी व्यापक इस्तेमाल होनेे लगा है।
गामा नाइफ के आविर्भाव के बाद ट्यूमर तथा दिमागी बीमारियों के इलाज में क्रांति का सूत्रपात हुआ है। आधुनिक समय में लगभग हर तरह के ट्यूमर खास तौर पर कैंसर रहित अर्थात बिनाइन ट्यूमर के कष्टरहित तथा कारगर इलाज के लिये गामा नाइफ का सफलता पूर्वक उपयोग हो रहा है। कैंसरस ट्यूमर के इलाज में गामा नाइफ का सीधे-सीधे तौर पर इस्तेमाल नहीं होता लेकिन जब आपरेशन और रेडियोथिरेपी से भी कैंसरस ट्यूमर के मरीज को फायदा नहीं मिलता है तब गामा नाइफ के इस्तेमाल करने का विचार किया जाता है। गामा नाइफ के इस्तेमाल से कैंसरस ट्यूमर कुछ समय के लिये नियंत्रित हो जाता है। गामा नाइफ की मदद से आॅपरेशन के बाद छूटे हुये ट्यूमर को भी हटाया जा सकता है। साथ ही इसकी मदद से मस्तिष्क में गहराई में स्थित ट्यूमर का इलाज किया जा सकता है क्योंकि शल्य क्रिया की मदद से उस ट्यूमर तक पहुंचना कई बार संभव नहीं होता होता है। केवल कुछ मामले में जब ट्यूमर बहुत बड़ा होता है और वह मस्तिष्क में महत्वपूर्ण नसों को दबा रहा होता है तब ट्यूमर को गामा नाइफ की बजाय खुले आॅपरेशन से ही निकालना उचित माना जाता है क्योंकि मरीज अधिक समय तक इंतजार नहीं कर पाता है।
गामा नाइफ में रेडियो तरंगें एक साथ कई स्रोतों से डाली जाती है। इसे मस्तिष्क में एक हेलमेट की तरह पहना दिया जाता है जिसके विभिन्न स्रोतों से गामा-नाइफ निकलने वाली किरणें ट्यूमर पर डाली जाती हंै। ये कोशिकाओं को मार देती हैं। आम तौर पर दिमागी फोड़े के रोगी को पांच हजार रेड (रेडियेशन उर्जा की इकाई) देनी पड़ती है। विमहांस के गामा नाइफ विशेषज्ञों के अनुसार गामा नाइफ एक तरह का न्यूरोसर्जिकल यंत्र है। मस्तिष्क के आपरेशन में सामान्य तौर पर धातु या प्लास्टिक के औजारों से या लेजर की किरणों से मस्तिष्क के प्रभावित हिस्सों को काटा जाता है, लेकिन गामा नाइफ में किसी धातु या प्लास्टिक के औजारों के बगैर ही गामा किरणों की मदद से मस्तिष्क के प्रभावित हिस्से को काटा जाता है।
आज मस्तिष्क के ट्यूमर के इलाज में गामा नाइफ का व्यापक इस्तेमाल होने का कारण यह है कि परम्परागत आपरेशन के दौरान रक्त स्त्राव होने, मस्तिष्क के सामान्य हिस्सों को क्षति पहुंचने, आपरेशन के बाद मस्तिष्क के भीतर ट्यूमर के छूट जाने या ट्यूूमर के साथ-साथ मस्तिष्क के और भी हिस्सों को स्थायी क्षति पहुंचने जैसे कई दुष्प्रभाव होते हैं। हालांकि अब परम्परागत आपरेशन के दौरान माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल शुरू होने के कारण मस्तिष्क में बहुत छोटा सा छेद करके ही गहराई में आपरेशन किया जा सकता है, परंतु इसमें भी ऐसे दुष्प्रभाव हो सकते हैं। गामा नाइफ से आपरेशन करने के दौरान मरीज को बेहोश नहीं करना पड़ता। मरीज की चमड़ी को सुन्न करके मस्तिष्क पर धातु का एक फ्रेम (बैकिलियोफ्रेम) कसा जाता है और इसके ऊपर विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक बाॅक्स लगाए जाते हैं। इसके बाद एम.आर.आई., सी.टी.स्कैन या एंेजियोग्राम किया जाता है और इन तस्वीरों को कम्प्यूटर में डाल दिया जाता है। इस दौरान मरीज पूरे होश में रहता है। वह बात भी कर सकता है और सब कुछ देख-सुन सकता है। जब कम्प्यूटर के अंदर सारी तस्वीरें पहुंच जाती हैं तो उसका विश्लेषण करके यह पता किया जाता है कि आॅपरेशन करने के स्थान के आस-पास कोई ऐसी चीज तो नहीं है जिसमें किरणें जाने से उसे क्षति पहुंचे। इन सब को ध्यान में रखकर ही रोगी को रेडियेशन (विकिरण) दिया जाता है। इसके लिए रोगी को मात्र 48 घंटे ही अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता है। जिस दिन रोगी को भर्ती किया जाता है, उस दिन उसका सिर्फ निरीक्षण ही किया जाता है और वह आराम करता है। अगले दिन सुबह इलाज शुरू होता है जो शाम तक खत्म हो जाता है। इसके बाद रोगी आराम करता है और अगले दिन वह घर जा सकता है। यही नहीं वह उसी दिन से काम पर भी लौट सकता है।
गामा नाइफ से इलाज काफी हद तक एम.आर.आई. पर निर्भर करता है। मस्तिष्क में किसी खराबी का पता करने के लिए सबसे विकसित तकनीक एम.आर.आई. ही है। जब एम.आर.आई. में कोई ट्यमूर स्पष्ट और पूरा दिख रहा होता है तो उसे गामा नाइफ से पूरी तरह से ठीक कर दिया जाता है लेकिन पांच-दस प्रतिशत ट्यूमर ऐसे होते हैं जो एम.आर.आई. में पूरा नहीं दिख पाते हैं, उनका कोई किनारा या हिस्सा छूट जाता है तो ऐसी स्थिति में उस हिस्से को सामान्य मान कर ही इलाज किया जाता है और उस पर अधिक तीव्रता का रेडियेशन नहीं दिया जाता है क्योंकि इलाज के दौरान आस-पास के हिस्सों को रेडियेशन से बचाना बहुत जरूरी होता है। ऐसी स्थिति में वहां दोबारा ट्यूमर बनने की संभावना तीन प्रतिशत तक होती है।