गर्दन दर्द से वैसे तो हर व्यक्ति को दो चार होना पड़ता है, लेकिन कई बार यह दर्द इस कदर असहनीय हो जाता है कि विकलांगता जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है और मरीज को दर्द से मुक्ति दिलाने के लिये सर्जरी की जरूरत पड़ जाती है। नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ स्पाइन एवं न्यूरो सर्जन डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि मौजूदा समय में माइक्रोसर्जरी की बदौलत गर्दन की सर्जरी आसान हो गयी है। इस सर्जरी के दौरान मरीज को कम दर्द होता है, उसे कम समय तक अस्पताल में रहने की जरूरत होती है तथा वह जल्द कामकाज कर सकता है।
गर्दन दर्द ऐसी सामान्य समस्या है जिसका सामना हर व्यक्ति को किसी न किसी रूप में अवश्य करना पड़ता है। लेकिन कई लोग लापरवाही अथवा नासमझी के कारण जीवन भर का आफत मोल ले लेते हैं। कई लोग गर्दन दर्द की अनदेखी करते रहते हैं जबकि कई लोग इसका इलाज कराने के लिये नीम हकीमों अथवा नाईयों के पास चले जाते हैं और अपनी गर्दन तुड़वा बैठते हैं। दरअसल प्रकृति ने हमारी गर्दन को इस तरह का लचीला बनाया है कि उसे शरीर के अन्य अंगों की तुलना में सबसे अधिक मोड़ा और घुमाया जा सके। लेकिन इस विशिष्ट व्यवस्था के कारण गर्दन अन्य अंगों की तुलना में नाजुक बन गयी है। इस कारण मामूली चोट या झटके भी गर्दन में फ्रैक्चर या डिस्क घिसकने का कारण बन सकते हैं।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ स्पाइन एवं न्यूरो सर्जन डा. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं कि उम्र बढ़ने पर गर्दन की हड्डी या उसकी डिस्क को कुछ न कुछ क्षति होती ही है और इस कारण हर व्यक्ति को अधिक उम्र होने पर किसी न किसी स्तर पर गर्दन दर्द का सामना करना पड़ता है लेकिन सोने, बैठने और चलने-फिरने के दौरान सही मुद्रायें अपनाकर, गर्दन के व्यायाम करके, शारीरिक वजन पर नियंत्रण रखकर तथा धूम्रपान से परहेज करके गर्दन दर्द से काफी हद तक बचा जा सकता है।
डा. प्रसाद के अनुसार गर्दन की हड्डी (सर्वाइकल स्पाइन) रीढ़ का ही हिस्सा होती है। इसकी संरचना इस प्रकार की होती है ताकि हम गर्दन को पीठ की तुलना में अधिक घुमा सकें। हमारी रीढ़ 24 छोटी- छोटी हड्डियों (वर्टिब्रा) के अलावा सैकरम एवं टेलबोन (कौक्सिक्स) से बनी होती है। हर दो हड्डियों (वर्टिबा) के बीच (डिस्क) होती है। डिस्क रीढ़ को लचीला बनाती है और आघात झेलने का काम करती है। स्नायु रीढ़ की हड्डी में डिस्क के पीछे एक गुफा (कैनाल) होती है जिसमें दिमाग से आती हुयी स्पाईनल कार्ड होती है और जिसमें से नसें निकल कर हाथों और पैरों में जाती हैं। रोजमर्रे के झटके और दबाव झेलने के कारण उम्र के साथ डिस्क पतला और चपटा होता जाता है और इसका लचीलापन घटता जाता है। ऐसा गर्दन सहित रीढ़ के किसी भी हिस्से में हो सकता है। इसके कारण गर्दन में दर्द एवं गर्दन हिलाने-डुलाने एवं घुमाने में तकलीफ होती है।
गर्दन की डिस्क की समस्या किसी भी व्यक्ति को हो सकती है। कई बार इसके कोई तकलीफदेह लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। डिस्क के घिस जाने या क्षतिग्रस्त हो जाने पर स्नायु की कार्यप्रणाली में भी बाधा पड़ती है। उदाहरण के तौर पर डिस्क के बाहरी हिस्से के घिसने के कारण भीतर के मुलायम पदार्थ बाहर आ सकते हैं। इसे हर्नियेट डिस्क कहा जाता है। इससे वहां की स्नायु पर दबाव पड़ सकता है। इसके अलावा आस-पास की दो वर्टिब्रा आपस में रगड़ खा सकती है जिससे स्नायु को नुकसान पहुंच सकता है। कई बार डिस्क से गुजरने वाले स्पाइनल कार्ड पर दबाव पड़ सकता है। इन सभी कारणों से गर्दन दर्द, सुन्नपन, कमजोरी और गर्दन को घुमाने में तकलीफ हो सकती है। फ्रैक्चर, ट्यूमर और संक्रमण के कारण भी गर्दन की समस्यायें हो सकती हैं। तनाव और उच्च रक्त चाप भी गर्दन दर्द का कारण बन सकते हैं।
डा. प्रसाद बताते हैं कि गर्दन की एक अत्यंत तकलीफदेह अवस्था स्पाइनल स्टेनोसिस है। यह तब उत्पन्न होती है जब गर्दन की जोड़ों में आथ्र्राइटिस हो जाती है और इन जोड़ों के आसपास की हड्डी बढ़ने लगती है। हड्डी बढ़ने से स्पाइनल नर्व पर दबाव पड़ता है जिससे गर्दन एवं बांहों में दर्द और सुन्नपन महसूस हो सकता तथा चलने-फिरने में तकलीफ हो सकती है।
गर्दन की तकलीफ होने पर कारणों की जांच के लिये गर्दन की एक्स-रे और एमआरआई की जरूरत पड़ सकती है।
गर्दन की तकलीफ की शुरूआती अवस्था में आराम, गर्दन के व्यायाम, नाॅन स्टेराॅयडल एंटी इंफ्लामेट्री ड्रग्स (एन एस ए आई डी), सिंकाई और काॅलर की मदद से राहत मिलती है। सोते वक्त गर्दन एवं सिर के नीचे पतला तकिया लेने से भी आराम मिलता है। कई बार गर्दन की ट्रैक्शन की भी सलाह दी जाती है लेकिन किसी सुयोग्य चिकित्सक की देखरेख में ट्रैक्शन लगाना चाहिये और व्यायाम करना चाहिये। बहुत अधिक दर्द होने पर स्पाइनल कार्ड के बाहर स्टेराॅयड अथवा एनेस्थेटिक दवाईयों के इंजेक्शन (इपीड्यूरल इंजेक्शन) दिये जा सकते हैं। इन उपायों से फायदा नहीं होने पर सर्जरी की जरूरत पड़ती है।
डा. प्रसाद बताते हैं कि मौजूदा समय में माइक्रोडिस्केटोमी जैसी माइक्रोसर्जरी की मदद से डिस्क निकालना आसान हो गया है। कई मरीजों को माइक्रोडिस्केटोमी के अलावा अस्थि प्रत्यारोपण की तथा कई मरीजों को अस्थि प्रत्यारोपण और प्लेटिंग की भी जरूरत पड़ती है। आधुनिक तकनीकों की मदद से आपरेशन करने पर मरीज को कम दर्द होता है, कम समय तक अस्पताल में रहने की जरूरत होती है तथा वह जल्द कामकाज कर सकता है। मौजूदा समय में कृत्रिम डिस्क का विकास हुआ है जिसे निकाले गये डिस्क के स्थान पर लगाया जा सकता है। ऐसा करने पर गर्दन की गतिशीलता बरकरार रहती है।
डा. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार स्पाइनल स्टेनोसिस का इलाज अधिक कठिन है और इसके लिये अधिक जटिल सर्जरी की जरूरत पड़ती है। इसके लिये स्पाइनल स्नायु एवं स्पाइनल कार्ड को सामने या पीछे से डिकंप्रेस करना पड़ता है। लेकिन ज्यादा हड्डी को हटाने से सर्वाइकल स्पाइन अस्थिर हो जाता है। बची हुई हड्डी को हड्डी, प्लेट या धातु के केज के साथ जोड़ना आवश्यक है। हड्डी रोगी के शरीर से ही लिया जाना चाहिए। इसके लिए आम तौर पर कुल्हे या पैर के निचले हिस्से से हड्डी ली जाती है।
सर्जरी से 90 प्रतिशत से अधिक रोगियों को दर्द से पूरी तरह से राहत मिल जाती है। सर्जरी के बाद रोगी को एक सप्ताह तक अस्पताल में रहना पड़ता है। सर्जरी के एक या दो दिन बाद रोगी को चलने की सलाह दी जाती है ताकि रक्त के थक्के (डीप वेनस थ्रोम्बोसिस) नहीं बने। रोगी को पूरी तरह से ठीक होने में पांच सप्ताह लग सकते हैं। लेकिन सर्जरी के कुछ महीने बाद तक रोगी को भारी काम करने की सलाह नहीं दी जाती है। सर्जरी की आधुनिक तकनीकों की बदौलत मौजूदा समय में सर्जरी के दुष्प्रभाव काफी कम हो गये हैं तथा मरीज के स्वस्थ होने की संभावना काफी बढ़ गयी है।