हकलाहट ऐसी समस्या है जिसके कारण इससे ग्रस्त व्यक्ति को घर-बाहर अक्सर मजाक का पात्र बनना पड़ता है और इसके कारण उसमें कुंठा और अन्य मनोवैज्ञानिक विकार जन्म लेते हैं। समय पर इसका इलाज नहीं होने पर हाथ मलने, आंखें मटकाने, पैर हिलाने, तरह-तरह से मुंह बनाने जैसी आदतें भी विकसित हो जाती हैं। नयी दिल्ली स्थित विद्यासागर इंस्टीच्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (विमहांस) में स्पीच पैथोलाॅजिस्ट अनुप्रिया का कहना है कि हमारे समाज में अज्ञानता या गलत धारणा के कारण हकलाहट लाइलाज जन्मजात विकृति माना जाता है लेकिन ज्यादातर मामलों में मोडिफायड एयरफ्लो तकनीक जैसी नयी विधियों की मदद से हकलाहट पूरी तरह से दूर की जा सकती है।
बाइस वर्षीय सुरेन्द्र इन दिनों भयानक कुंठा एवं मानसिक परेशानी से गुजर रहा है। किसी से बात करना उसके लिये भारी समस्या बनी हुयी है। किसी से बात शुरू करने से पूर्व ही उसका दिल जोरों से धड़कने लगता है। नौकरियों के लिये होने वाले साक्षात्कार देने की वह हिम्मत नहीं जुटा पाता है। समय-समय पर दोस्तों के उपहास का पात्र बनता है। ऐसा नहीं है कि उसमें किसी तरह की कमी है लेकिन हकलाने की आदत के कारण उसका जीवन मुसीबतों से भर गया है। वह कई बार इस कदर कुंठित हो जाता है कि आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगता है।
हकलाहट अर्थात अटक-अटक कर बोलना एक सामान्य स्वर विकार है जिससे ग्रस्त बच्चे या वयस्क आम लोगों की तरह धारा प्रवाह और स्पष्ट न बोलकर बीच-बीच में रूक कर, शब्दों को तोड़-तोड़ कर या मुख्य शब्द को दुहरा कर बोलते हैं। बोलते समय उनमें कभी-कभी हिचक भी आ जाती है या वे झिझक का भी अनुभव करते हैं। ऐसे बच्चे कई बार बोलना चाहते हैं, लेकिन बोल नहीं पाते हैं। हमारे समाज में हकलाहट के बारे में कायम गलत धारणा के कारण हकलाहट या तुतलाहट को लाइलाज किस्म की जन्मजात विकृति मान ली जाती है जिसके फलस्वरूप ज्यादातर लोग स्वर विकार का इलाज कराने या उस पर काबू पाने की कोशिश करने के बजाय अंदर ही घुटते एवं कुंठित होते रहते हैं जिससे उनका स्वर विकार और बढ़ जाता है।
नयी दिल्ली स्थित विद्यासागर इंस्टीच्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (विमहांस) में स्पीच पैथोलाॅजिस्ट अनुप्रिया का कहना है कि हकलाहट शारीरिक विकार नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक विकार है और 90 प्रतिशत मामलों में इसका इलाज संभव है। हकलाने वाले व्यक्ति के शरीर के अंग या स्वर तंत्र में कोई खराबी नहीं होती। अनुप्रिया के अनुसार यह विकार लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक पाया जाता है। इसकी शुरूआत आम तौर पर बाल्यावस्था में ही हो जाती है।
नयी दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ स्पीच पैथोलाॅजिस्ट हिमांशु खन्ना का कहना है कि तीन से चार वर्ष की आयु में बच्चे पर अच्छा बोलने का इतना अधिक दबाव होता है कि हर बच्चे में एक अवस्था आती है जिसे नार्मल नाॅनफ्लुएंसी कहते हैं जिसके दौरान हर बच्चा अटक-अटक कर बोलता है। यह अवस्था 15 दिन से एक माह तक रहती है। तत्पश्चात् यह खुद-ब-खुद ठीक हो जाती है। परन्तु इस अवस्था में यदि बच्चे को कोई छेड़े या बच्चे के अटकने पर प्रसन्नता जाहिर करे तो धीरे-धीरे यही अवस्था हकलाहट बन जाती है। परिवार के लोगों और मित्रों के ताने सुन-सुनकर हकलाहट और परिपक्व हो जाती है और एंग्जाइटी (घबराहट) और हेजीटेशन (हिचकने) से संबंधित हो जाती है। इससे बच्चा अपरिचित, अपने से बड़े और विपरीत लिंग के व्यक्तियों से बोलने से घबराता और हिचकता है। कुछ खास परिस्थितियों में हकलाहट बढ़ जाती है लेकिन परिचित लोगों के सामने उसकी बोली सामान्य रहती है।
अनुप्रिया का कहना है कि समय रहते हकलाहट का इलाज नहीं कराने पर यह विकराल रूप ले लेती है और घबराहट एवं हिचक के साथ और भी द्वितीयक लक्षण जैसे- हाथ मलना, आंखें मटकाना, पैर हिलाना, तरह-तरह से मुंह बनाना आदि आ जाते हैं। इससे किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते बच्चे का व्यक्तित्व बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है।
हकलाने वाले बच्चे या वयस्क हर समय नहीं हकलाते हैं, बल्कि उनका हकलाना परिस्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे कोई बच्चा किसी खास वाक्य को सामान्य परिस्थिति में बोलने पर नहीं हकलाता है, लेकिन उसी वाक्य को विपरीत परिस्थिति में बोलने पर हकलाने लगता है। इसी तरह रटे-रटाये वाक्यों को बोलने या गाना गाते वक्त कोई बच्चा नहीं हकलाता है। हकलाने वाले व्यक्ति को गाना गाते वक्त अपने ऊपर आत्मविश्वास होता है, उसे गाना रटा हुआ होता है, गाना लयबद्ध होता है और वह तनाव रहित होता है, इसलिए नहीं हकलाता है। हकलाने वाले व्यक्ति छोटे स्वर जैसे अ, इ, उ वाले शब्दों में ज्यादा हकलाते हैं जबकि बड़े स्वर जैसे आ, ई, ऊ वाले शब्दों में कम हकलाते हैं। उदाहरण के तौर पर 'कप' बोलने पर वे ज्यादा हकलाते हैं जबकि कापी बोलने में वे कम हकलाते हैं। हकलाने वाला व्यक्ति जितना अधिक तेजी से बोलेगा, उतना ही अधिक हकलायेगा। मामूली किस्म की हकलाहट में मरीज को सिर्फ बोलने में हिचक होती है या वह कम हकलाता है जबकि तीव्र किस्म की हकलाहट में व्यक्ति बोलते समय आंखें झपकाता है, गर्दन हिलाता है या हाथों को जोर-जोर से मारता है।
अनुप्रिया कहती हैं कि समय रहते इलाज शुरू करने से बहुत थोड़े समय में बच्चे की बोली में सुधार किया जा सकता है। किशोरावस्था में भी इलाज कराने पर अच्छे नतीजे पाए जा सकते हैं।
हकलाहट के उपचार में टीम वर्क का महत्वपूर्ण योगदान है। इसमें स्पीच थेरेपिस्ट (वाक् चिकित्सक) की मुख्य भूमिका है। साथ ही मनोवैज्ञानिक की भी जरूरत पड़ती है। यदि परिवार के लोग और मित्रों का भी सहयोग रहे तो आश्चर्यजनक नतीजे प्राप्त हो सकते हैं।
विमहांस के सीपीएएचसी (चाइल्ड डेवलपमेंट एंड एडलोसेंट हेल्थ सेंटर) के स्पीच थेरेपी विभाग में कार्यरत अनुप्रिया बताती हैं कि आजकल मोडिफायड एयरफ्लो तकनीक का प्रयोग कर बहुत अच्छे नतीजे प्राप्त होते हैं। इसके तहत हकलाने वाले व्यक्ति को खास संचालन की प्रक्रियाएं, लयबद्ध तरीके से पढ़ने की तकनीकें, उच्चारण क्रियाएं, वार्तालाप में अभ्यास आदि का प्रयोग सिखाया जाता है। घबराहट और हिचकिचाहट का उपचार मनोवैज्ञानिक करता है। बच्चों को ये सभी प्रक्रियाएं खेल-खेल में सिखायी जाती है। सामान्यतः यदि व्यक्ति परामर्श का दृढ़तापूर्वक पालन करे तो वह 15-20 दिन के भीतर लयबद्ध और बिना अटके बोल सकता है। अन्य लोगों में हकलाहट अत्यंत कम हो जाती है।
अनुप्रिया के अनुसार हकलाट के इलाज के लिये स्पीच थेरेपी द्वारा रिलेक्सेशन (तनाव रहित होने) और प्रोलौंगेशन विधि का भी सहारा लिया जाता है। इसमें यह देखा जाता है कि शरीर के किसी हिस्से में खिंचाव तो नहीं है। प्रोलौंगेशन के लिए एक खास मशीन का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें बच्चा बोलता है तो हेड फोन से वाणी की गति कम आती है जिसे सुनकर बच्चा भी धीरे बोलता है और उसकी हकलाहट कम हो जाती है।
अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ वाक् चिकित्सक श्री हिमांशु खन्ना का कहना है कि बच्चों के उपचार में थोड़ा अधिक समय लग सकता है।