डीप ब्रेन स्टिमुलेशन से पार्किंसोनिज्म का इलाज

अब तक लाइलाज माने जाने वाली पार्किंसोनिज्म जैसी मूवमेंट डिसआर्डर बीमारियों का डीप ब्रेन स्टिमुलेशन नामक नवीनतम तकनीक से कारगर एवं सफल इलाज संभव हो गया है। 
पार्किंसन आम तौर पर अधिक उम्र के लोगों की बीमारी है। इसके मरीज के एक हाथ-पैर या दोनों हाथों-पैरों में इतने कंपन होते हैं कि व्यक्ति खुद ग्लास तक नहीं पकड़ पाता और न ही अपने कपड़े पहन पाता है। कभी-कभी तो इतना अधिक कंपन होता है कि रोगी को अपने हाथ दबा कर रखना पड़ता है। कंपन के कारण उसे चोट लगने की भी संभावना रहती है। डीप ब्रेन स्टिमुलेशन पार्किंसोनिज्म के अलावा कम उम्र के उन स्नायु मरीजों के लिये भी कारगर साबित हो रही है जिनके मस्तिष्क का कोई खास क्षेत्र ट्यूमर या अन्य कारणों से क्षतिग्रस्त हो गया है। मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने के कारण इन मरीजों के हाथ-पैर में बहुत ज्यादा कंपन होता है। इस वजह से न तो वे चल-फिर पाते हैं और न ही हाथ से कोई काम कर पाते हैं। 
मरीज को एक तरह अपाहिज बना देने वाली पार्किंसोनिज्म जैसी स्नायु बीमारियों से पूरी दुनिया की आबादी में से 0.01 प्रतिशत लोग अर्थात हर दस हजार लोगों में से एक व्यक्ति पीड़ित है। मौजूदा समय में बुजुर्गों की संख्या बढ़ने के कारण पार्किंसोनिज्म रोगियों की संख्या बढ़ने लगी है। एक अनुमान के अनुसार भारत में तकरीबन छह लाख लोग पार्किंसोनिज्म से पीड़ित हैं। केवल अमरीका में यह बीमारी हर साल करीब 50 हजार लोगों को मानसिक एवं शारीरिक तौर पर अपंग बना देती है।
पार्किंंसोनिज्म आम तौर पर 40 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन करीब 20 प्रतिशत मरीजों में यह बीमारी 20 साल की उम्र के बाद ही आरंभ हो सकती है। 
पार्किंसोनिज्म के इलाज का सबसे सरल तरीका यह है कि मरीज को जिस रसायन की कमी है वह मरीज को दिया जाये। इसके लिये डोपामिन नामक दवा का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। डोपामिन देने से मरीज के मस्तिष्क में डोपामिन जमा होने लगता है और पार्किंसन के मरीज को राहत मिलने लगती है। लेकिन पार्किंसन के 10 प्रतिशत मरीजों पर दवाईयां कोई असर नहीं कर पाती हैं। जैसे-जैसे मरीज की उम्र बढ़ती जाती है दवाईयों का असर घटता जाता है। इस कारण उम्र बढ़ने के साथ दवा की खुराक बढ़ायी जाती है। कुछ मरीजों में अधिक समय तक दवाईयों के सेवन के दुष्प्रभाव भी देखे गये हैं। इन दुष्प्रभावों के कारण कुछ मरीजों के हाथ-पैर बहुत तेजी से हिलने लगते हैं। जो रोगी दवाईयों से ठीक नहीं हो पाते हैं अथवा जिन पर दवाईयों के दुष्प्रभाव होते हैं उनका इलाज आपरेशन से किया जाता है। ये आपरेशन पिछले 30 सालों से इस्तेमाल में आ रहे हैं। आपरेशन के जरिये मस्तिष्क के अंदर कुछ खास-खास स्थानों पर चोट पहुंचायी जाती है। पहले किये जाने वाले आपरेशन के तहत मस्तिष्क के भीतर इंजेक्शन के जरिये एक विशेष रसायन पहुंचाया जाता है। इस रसायन के प्रभाव से मस्तिष्क का वह हिस्सा गल जाता है और रोगी ठीक हो जाता है। एक अन्य तरह के आपरेशन के तहत मस्तिष्क के अंदर एक गर्म सलाई डाली जाती है। इसकी मदद से मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को जला दिया जाता है। आधुनिक समय में मस्तिष्क के रुग्न हिस्से को रेडियो तरंगों की मदद से भी जलाया जाता है।
हाल के अनुसंधानों से पता चला कि पुराने आॅपरेशनों की मदद से मस्तिष्क के भीतर सही-सही जगह पर पहुंचना संभव नहीं हो पाता है जिससे मरीज को स्थायी फायदा नहीं होता है। ऐसे आपरेशन के बाद मरीज को अक्सर दोबारा पार्किंसन होने का खतरा रहता है। कई मरीजों पर ऐसे आपरेशनों के दुष्प्रभाव भी होते हैं।
आधुनिक समय में पार्किंसोनिज्म एवं मूवमेंट डिसआर्डर की अन्य बीमारियों के इलाज के लिये डीप ब्रेन स्टिमुलेशन नामक नवीनतम तकनीक का विकास हुआ है। भारत के कुछ चुने हुये चिकित्सा केन्द्रों में इस तकनीक का इस्तेमाल आरंभ हो गया है। इस तकनीक से इलाज के तहत मरीज के मस्तिष्क के थैलेमस क्षेत्र में एक इलेक्ट्रोड डालकर तथा छाती में किसी भी जगह त्वचा के नीचे एक पेसमेकर रखकर वहां से एक इलेक्ट्रोड या कैथेटर मस्तिष्क के कैथेटर से जोड़ दिया जाता है। इस इलेक्ट्रोड से प्रवाहित होने वाला करंट थैलेमस को उत्तेजित करता है। करंट को रिमोट कंट्रोल के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह पेसमेकर दिल के पेसमेकर की तरह ही होता है। अगर इस मशीन का लगातार इस्तेमाल किया जाये तो इसकी बैटरी पांच साल चलती है और अगर रात में बंद कर दिया जाये तो बैटरी 10 साल चलती है। उसके बाद बैटरी बदलनी पड़ती है। 
हालांकि इन बीमारियों का इलाज पहले दवाईयों से ही किया जाता है। लेकिन अगर मरीज को दवाईयों से कोई फायदा नहीं हो रहा हो, मरीज दवाईयों को लेने में असमर्थ हो या दवाईयों के बहुत ज्यादा दुष्प्रभाव हो रहे हों तब कई मरीजों का इलाज डीप ब्रेन स्टिमुलेशन तकनीक से किया जाता है और उन्हें इस तकनीक से फायदा भी होता है। 
यह सर्जरी सामान्य एनीस्थिसिया देकर ही की जाती है और रोगी होश में रहता है जिससे पता चल जाता है कि यह तकनीक मरीज में कारगर होगी या नहीं। मरीज को पहले सामान्य एनीस्थिसिया देकर उसे हल्का सा करंट से उत्तेजित करके देखा जाता है कि उसके हाथ-पैर का कंपन नियंत्रित हो गया या नहीं। कंपन नियंत्रित होने पर ही मशीन लगायी जाती है। उसके बाद इसके सही डोज और करंट का निर्धारण किया जाता है। जिस मरीज में लगता है कि यह तकनीक कारगर नहीं होगी उसे यह मशीन नहीं लगायी जाती है। हालांकि अभी यह मशीन बहुत महंगी है और भारत में इस तकनीक से इलाज करने में तीन से पांच लाख रुपये का खर्च आता है।