बच्चों को दौरे पड़ने को लेकर बहुत से अंध्विश्वास प्रचलित हैं। इनमें मुख्यतः दौरे पड़ने को बच्चे पर भूत-प्रेत का साया पड़ना समझा जाता है। वास्तव में यह सब इसलिए है क्योंकि लोगों को दौरे पड़ने के सही व वैज्ञानिक कारणों का पता नहीं है। बच्चों में दौरे दिमाग के सेरेब्रल हारमोन्स की प्रतिवर्ती क्रिया के असामान्य होने की वजह से होते हैं। लेकिन उचित इलाज के बाद ये बच्चे पूरी तरह ठीक हो सकते हैं। बच्चे को दौरे पड़ने जन्म के बाद किसी भी उम्र में शुरू हो सकते हैं। ये दौरे कई तरह के होते हैं।
1.बच्चे के हाथ-पैरों का कड़ा होना और हाथ-पैरों का असामान्य हरकतें करना, दाँत भिंचना व मुँह से झाग निकलना।
2.बच्चे का बार-बार कोई असामान्य हरकत करना।
3.कुछ पल के लिए बच्चे की हालत बेहोशी जैसी हो जाना।
4.नवजात शिशु के चेहरे (मुँह और आँख) की माँसपेशियों की असामान्य हरकत, बच्चे का एकदम तेज चीखना, बच्चे का हाथ-पैर कड़ा करना आदि।
अगर बच्चे में यह दौरा बार-बार आता है तो इसे एपिलेप्सी कहते हैं। अगर किसी बच्चे को 30 मिनट से ज्यादा देर तक दौरा पड़े तो इसे स्टेटस एपिलेपटिकस कहते हैं। यह एक आपात स्थिति है, जिसमें बच्चे को तुरन्त अस्पताल में भर्ती करके इलाज कराना जरूरी है। बच्चे के किसी भी दौरे का इलाज करने के लिए दौरे का कारण जानना बहुत जरूरी है। बच्चों को बुखार की वजह सेे जन्म के समय की घटनाओं, उपापचय की क्रिया में गड़बड़ी, दिमाग में संक्रमण आदि के कारण दौरे पड़ सकते हैं।
तकरीबन 4-5 फीसदी बच्चों में बुखार की वजह से दौरे आ सकते हैं। लेकिन यह कहने से पहले, कि दौरा बुखार की वजह से है, कुछ प्रमुख कारण जैसे मेनिनजाइटिस (दिमाग की झिल्ली का संक्रमण) का आवश्यक डाॅक्टरी परीक्षण करना जरूरी है। बुखार के कारण आने वाले दौरे दो प्रकार के होते हैं, सामान्य बुखार वाले दौरे और एटिपिकल फैब्रिल सीज्योर।
सामान्य बुखार के कारण आने वाले दौरे छह माह से छह वर्ष के बीच में पड़ते हैं। सामान्यतः 100 डिग्री फाॅरेनहाइट से ज्यादा बुखार होने पर दौरा शुरू होता है। इस दौरे में दोनों हाथ-पैर असामान्य हरकतें करते हैं, मुँह से झाग आता है और दाँत भी भिँच सकते हैं। दौरे के बाद बच्चों को बेहोशी या तो बिल्कुल नहीं होती या बहुत थोड़े समय के लिए होती है। दौरे के बाद बच्चों में कोई तंत्रिकातंत्रा संबंधी विकार, जैसेे हाथ-पैर को फालिज मारना आदि नहीं होते हैं। इसमें बच्चे का ई.ई.जी. कराने पर बिल्कुल सामान्य निकलता है। इस तरह के दौरे को रोकने के लिए यह जरूरी है कि बच्चे को बुखार 100 डिग्री फाॅरेनहाइट से आगे न बढ़ने दिया जाए और बुखार की वजह का जल्द से जल्द उचित इलाज किया जाय। इस तरह के दौरे में बच्चे को दौरे रोकने की कोई दवा देने की जरूरत नहीं है। ऐसे दौरे छह वर्ष की उम्र के बाद अपने आप ठीक हो जाते हैं।
एटिपिकल फैब्रिल सीज्योर में बच्चे को छह माह के पहले या छह वर्ष के बाद भी बुखार के साथ दौरे आते हैं। दौरा अन्य तरह का हो सकता है, जैसे बच्चे का असामान्य व्यवहार। दौरे में अकड़न शरीर के केवल एक ही हिस्से में सीमित होती है। दौरे के बाद बच्चे को बेहोशी हो सकती है या शरीर के किसी हिस्से में कमजोरी हो सकती है या कोई तंत्रिका संबंधी परेशानी हो सकती है। बच्चे का ई.ई.जी. असामान्य रहता है। इस तरह के दौरे के आगे चलकर मिर्गी में बदल जाने की आशंका ज्यादा होती है। इसलिए ऐसे बच्चों का उचित इलाज जरूरी है।
बच्चे में दौरे की दूसरी प्रमुख वजह जन्म के समय हुई समस्याएँ जैसे बर्थ एस्फिक्सिया (जन्म के समय व तत्पश्चात बच्चे के दिमाग को आक्सीजन की उचित मात्रा न मिलना), बर्थ ट्राॅमा, बच्चे को अधिक समय तक पीलिया होना, जन्म के पश्चात् बच्चे को लंबी बीमारी होना आदि हो सकती है। इसलिए किसी भी दौरे वाले बच्चे की बर्थ हिस्ट्री विस्तारपूर्वक लेने की जरूरत पड़ती है। अगर गर्भवती महिला की देखरेख और बच्चे का जन्म किसी विशेषज्ञ की निगरानी में हो तो इस प्रकार के दौरों से बच्चों को बचाया जा सकता है।
बच्चे में दौरे का तीसरा प्रमुख कारण बच्चे के दिमाग में हुए विभिन्न संक्रमण हैं। इनमें प्रमुख हैं-
1. दिमागी तपेदिक—अगर इस बीमारी से पूरा शरीर प्रभावित हो तो इसे ट्यूबरक्यूलर मेनिनजाइटिस कहते हैं। यह बहुत ही घातक बीमारी है, जिसमें तपेदिक ठीक होने के बाद भी बच्चे को दौरे आने की संभावना रहती है। अगर शरीर का कोई खास हिस्सा ही इस बीमारी से प्रभावित हो तो इसे ट्यूबरकोलोमा कहते हैं।
2. न्यूरोसाइटिसिरोसिस—यह बीमारी टीनिया कीटाणु के कारण होती है। इसके अंडे बिना धुले हुए फल व सब्जियों के खाने से बच्चे के पेट में पहुँच जाते हैं, जहाँ पर साइटिसेरेकस नाम का लार्वा बनता है। कुछ तत्वों में यह लार्वा दिमाग में पहुँच जाता है। वहाँ पहुँचकर इसकी मृत्यु हो जाती है और यह केल्सीफाइड यानी पत्थर की तरह कठोर हो जाता है। इसके दिमाग में पहुँचने से लेकर केल्सीफाइड होने तक कभी भी बच्चे को दौरे पड़ सकते हैं। अगर यह बच्चे के दिमाग के दाएँ भाग में होता है तो दौरा शरीर के बाएँ भाग में पड़ता है और अगर यह दिमाग के बाएँ भाग में होता है तो दौरा शरीर के दाएँ भाग में पड़ता है। इसका पता सी.टी. स्कैन या एम.आर.आई. से चलता है।
3. बैक्टीरियल और वायरल मेनिनजाइटिस—विभिन्न वायरस जैसे एनसेफालिटीज वायरस, हरपीज वायरस और पोलियो वायरस एवं बैक्टीरिया जैसे साल्मोनेला, मेनिनगोकस और हेमोलीज इंफ्लुएंजा-बी भी दिमाग की झिल्ली में सूजन पैदा कर सकते हैं, जिससे बच्चे को दौरा आ सकता है। यह घातक बीमारी है। इसका पता जल्दी चल जाए और सही तरह से इलाज हो जाए तभी इस बीमारी के पूरी तरह ठीक होने की आशा की जा सकती है, अन्यथा इन बच्चों में ठीक होने के बाद भी दिमागी कमजोरी और दौरे आने का खतरा रहता है।
बच्चे में दौरे का चौथा प्रमुख कारण उपापचय संबंधी है। इसमें प्रमुख हैं—हाइपोग्लेसिमिया (बच्चे के खून में शर्करा की मात्रा कम होना), हाइपोकेलसिमिया (बच्चे के खून में कैल्सियम का कम होना), हाइपोनेटेमिया अर्थात बच्चे के खून में सोडियम की कमी। साल भर से कम उम्र के किसी बच्चे को अगर दौरा आता है तो उपरोक्त स्थितियों का ध्यान रखना जरूरी है। दौरे का एक अन्य कारण है किसी वजह से दिमागी चोट। इस चोट की वजह से या तो केवल दिमाग की झिल्ली में थोड़ी सूजन आ सकती है या फिर दिमाग के अंदर रक्तस्राव हो सकता है। ज्यादातर बच्चों को चोट लगने के तुरन्त बाद ही दौरे आते हैं। लेकिन कुछ बच्चों में ये दौरे चोट लगने के कई वर्षों बाद भी आ सकते हैं। तकरीबन 25-30 प्रतिशत बच्चों में दौरे का कारण ही पता नहीं चल पाता है। इसे इडियोपैथिक एपिलेप्सी कहते हैं।
बच्चों को अधिकतर दौरा घर में या स्कूल में पड़ता है। दौरे के समय बच्चे को तुरन्त एक करवट सुला दें और किसी स्टील की चम्मच में चारों तरफ कोई मुलायम कपड़ा या पट्टी बाँधकर चम्मच को बच्चे की जीभ व दाँत के बीच में रखें ताकि बच्चे की जीभ को क्षति न हो। साथ ही बच्चे को तुरन्त किसी पास के अस्पताल में ले जाकर प्राथमिक उपचार कराएँ।
बच्चे के दौरे का इलाज शुरू करने से पहले उसकी पूरी जाँच-पड़ताल करना जरूरी है। जरूरत होने पर एम.आर.आई., सी.टी., ई.ई.जी. आदि नवीनतम तकनीकों की सहायता लेने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।
बच्चे में दौरे का इलाज एक बहुत ही जटिल समस्या है। यह इलाज किसी विशेषज्ञ की निगरानी में ही होना चाहिए। दौरे के इलाज के लिए समाज में प्रचलित झाड़-फूंक, टोटका आदि से बचना चाहिए। कई बार अभिभावक परेशान होकर नीम-हकीमों और टोने-टोटके वालों के पास चले जाते हैं। इससे समस्या और जटिल हो सकती है और बच्चे का भी अनावश्यक उत्पीड़न होता है। इलाज के दौरान माता-पिता और सगे-संबंधियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस बीमारी से संबंधित अंध्विश्वासों, बच्चे की पढ़ाई और शादी-ब्याह का क्या होगा, इत्यादि व अन्य किसी पहलू पर बच्चे के सामने विचार-विमर्श न करें क्योंकि इससे बच्चे के मनोवैज्ञानिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। घर के सारे सदस्यों का बच्चे के प्रति बर्ताव बिल्कुल सामान्य होना चाहिए। इसका इलाज लंबे समय तक चलता है। लेकिन माता-पिता का अच्छा सहयोग मिलने पर ये बच्चे पूर्णतया ठीक हो जाते हैं।
बच्चों में दौरे लाइलाज नहीं
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