बंगाल में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आयुर्वेदिक आंदोलन चरम पर था। यूरोपीय शासन ने ब्रिटिश शासन के दौरान इस देश में पश्चिमी चिकित्सा की शुरुआत की। आयुर्वेद ग्रामीण इलाकों में लोकप्रिय रहा और शहरी इलाकों में पश्चिमी दवाओं के साथी उसकी प्रतिद्वंद्विता जारी रही। हालांकि ब्रिटिश ने पारंपरिक प्रणाली को अवैज्ञानिक करार दिया। लेकिन, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राष्ट्रवादियों के उत्साह ने इस प्राचीन स्वदेशी प्रणाली के अध्ययन और अनुसंधान के पुनरुत्थान की मांग को उठाया। इससे कई प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सकों और निजी संगठनों का पुनरुद्धार हुआ और लोगों का आयुर्वेदिक चिकित्सा, उपचार और इलाज में गहरी दिलचस्पी पैदा हुई। बंगाल के विभिन्न जिलों में आयुर्वेदिक दवाखाने की शुरुआत हुई जो गरीबों के लिए निःशुल्क उपचार प्रदान करती थी।
द एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता से सम्बद्ध सरबानी सेन के अनुसार आंदोलनों के मुख्य अग्रदूत गंगा प्रसाद सेन, जामिनी भूषण राय, गणनाथ सेन जैसे बंगाल के प्रसिद्ध कविराज थे। उन्होंने चिकित्सा प्रणालियों के संश्लेषण और आयुर्वेद के संस्थाकरण के लिए काम किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अंत में स्वदेशी चिकित्सा प्रणालियों पर बंगाली में काफी संख्या में पुस्तकों और पत्रिकाओं ने आम लोगों को आयुर्वेद की जानकरी देने में योगदान किया।
उन्होंने बताया कि भीसक दर्पण, चिक्तिसाक, चिकित्सा-सम्मिलनी, स्वास्थ्य और आयुर्वेद संजीवनी कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में षामिल थी। बीसवीं सदी की शुरुआत से, बंगाल में प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सकों के द्वारा आयुर्वेद महाविद्यालयों की स्थापना की गई। यह आंदोलन प्राचीन, पूर्व-औपनिवेशिक स्वदेशी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की एक सरल, रैखिक पृथक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि काफी जटिल था जो उपनिवेशवाद के तहत परिवर्तित और बदलती परिस्थितियों में परंपरा पर बल देता था।
औपनिवेशिक बंगाल में आयुर्वेद का वर्चस्व था
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