असली जैसे काम करेंगे कृत्रिम घुटने

गठिया, आस्टियो आर्थराइटिस अथवा दुर्घटना के कारण चलने-फिरने में लाचार हो चुके मरीजों को कई बार घुटना बदलवाने की जरूरत पड़ जाती है लेकिन कई बार घुटना बदलवाने के बाद भी उनके घुटने प्राकृतिक घुटने की तरह काम नहीं करते। लेकिन अब ऐसे कृत्रिम घुटने का भी निर्माण होने लगा है जो आकार-प्रकार में प्राकृृतिक घुटनों के समान होने के अलावा प्राकृतिक घुटनों की तरह काम करते हैं।
अमरीका के मैक्स मेडिकल ने एनयूआरबीएस तकनीक की मदद से ''फ्रीडम नी'' नामक कृत्रिम घुटने का निर्माण शुरू किया है जिनकी संरचना, गतिशीलता एवं कार्य प्रणाली प्राकृतिक घुटने के समान होते है। ''फ्रीडम नी'' को खास तौर पर एशियाई और भारतीय लोगों के घुटने के आकार -प्रकार तथा भारतीय लोगों की कद-काठी, उनकी जरूरतों एवं उठने-बैठने को तौर-तरीकों को ध्यान में रखकर भी डिजाइन किया गया है और इस कारण इसे स्थानीय घुटने अथवा ''एशियन नी'' भी कहा जाता है। 
एनयूआरबीएस (नाॅन यूनिफार्म रैशनल सपलाइन सरफेसस) तकनीक थ्री डायमेंशनल (3 डी) जियोमेट्री पर आधारित ऐसी विधि है जिसकी मदद से किसी भी तरह के जटिल से जटिल त्रिआयामी (3 डायमेंशनल) स्वरूप बनाये जा सकते हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल अब कृत्रिम घुटनों में निर्माण में भी होने लगा है जिसके कारण इस तकनीक की मदद से बनने वाले कृत्रिम घुटने बिल्कुल प्राकृतिक घुटने के सदृश होते हैं और प्रत्यारोपण के बाद प्राकृतिक घुटने की तरह काम करते हैं तथा मरीज को किसी भी तरह की दिक्कत नहीं आती है। 
दरअसल भारतीय लोगों को उठने-बैठने की अपनी आदतों तथा रोजमर्रे के कामकाज को निबटाने के लिये घुटने को अधिक मोड़ना पड़ता है। इसके अलावा पश्चिमी देशों की तुलना में एशियाई लोगों के घुटने छोटे एवं अलग आकार के होते हैं। साथ ही साथ ओस्टियोपोरोसिस एवं इलाज में देरी के कारण घुटने की हड्डी का घनत्व एवं उसकी गुणवत्ता खराब होती है और यही कारण है कि भारतीय एवं एशियाई मरीजों में घुटने के ज्यादातर आपरेशनों के दौरान अपेक्षाकृत अधिक हड्डी काटने या छिलने की जरूरत पड़ जाती है। साथ ही घुटने बदलने के आपरेशन के बाद भी मरीज को घुटने में दर्द, सूजन एवं अन्य समस्यायें बनी रहती है। लेकिन फ्रीडम नी के विकास के बाद यह समस्या खत्म हो गयी है। 
ये घुटने अत्यधिक लचीले (फ्लेक्सिबल) होते हैं और आपरेषन के बाद भी मरीज आलथी-पालथी मार कर बैठ सकता है। इस विशेष कृत्रिम घुटने को प्रत्यारोपित करने के दौरान रक्त की बहुत कम क्षति होती है और इस कारण से मरीज को रक्त नहीं चढ़ाना पड़ता है। यह आपरेशन एक छोटे से चीरे के सहारे ही कर दिया जाता है। आपरेशन के लिये कम मांसपेशियों एवं हड्डियों को काटना पड़ता है जिसके कारण मरीज शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है और आपरेशन के बाद उसे प्राकृतिक घुटने की तरह महसूस होता है। मरीज आपरेशन के दूसरे दिन ही बिना किसी सहारे के चलने-फिरने लगता है तथा तीसरे दिन सीढ़ियां चढ़ने-उतरने लगता है। मरीज को तीन-चार दिन से अधिक समय तक अस्पताल में नहीं रहना पड़ता है।
(नयी दिल्ली के शालीमार बाग स्थित मैक्स हाॅस्पिटल के वरिष्ठ आर्थोपेडिक सर्जन तथा आर्थोपेडिक्स एंड ज्वाइंट रिप्लेसमेंट के संयुक्त निदेशक डाॅ. पलाश गुप्ता से बातचीत पर आधारित)