आईवीएफ में अंडे और शुक्राणु दाताओं के कानूनी अधिकार

इनफर्टिलिटी हर देश में सबसे अधिक व्यापक चिकित्सा समस्याओं में से एक है जिससे अधिक से अधिक लोग प्रभावित हो रहे हैं। अनुमान लगाया गया है कि दुनिया में सभी दम्पतियों में से करीब 15 प्रतिशत दम्पति बच्चे जनने में असमर्थ हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि माता- पिता बनना सबसे  मूल्यवान और आशीर्वादों और वरदानों में से एक है और यह हर किसी के लिए एक बुनियादी मानव अधिकार है।
हाल के वर्षों में, वैसे लोगों या दम्पतियों में, जो गर्भ धारण करने या स्वाभाविक रूप से बच्चे पैदा करने में असमर्थ हैं, तीसरे पक्ष के द्वारा बच्चे पैदा करने की व्यवस्था उनके माता- पिता बनने के सपने को पूरा करने के लिए काफी लोकप्रिय हो गयी है। माता- पिता बनने के लिए एक स्वस्थ अंडे को एक स्वस्थ शुक्राणु से निषेचित होकर एक स्वस्थ गर्भ में प्रत्यारोपित होना होता है। दम्पति में से किसी एक में भी किसी प्रकार की कमी होने पर, अंडा या शुक्राणु दान और सरोगेसी के रूप में तीसरे पक्ष की सहायता की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
सरोगेसी और इसकी मदद से जन्मे बच्चे की कस्टडी और माता- पिता के अधिकारों से संबंधित विवादों के खतरों के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सरोगेट मां के द्वारा शोषण या गर्भावस्था के नौ महीनों के दौरान बच्चे से भावनात्मक लगाव की वजह से इस तरह की समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। हालांकि, युग्मक दाताओं (अंडा या शुक्राणु दाता) के अधिकारों, भूमिका और जिम्मेदारियों पर अब तक कम ध्यान दिया गया है जो एक किराए की मां के विपरीत, असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक (एआरटी) से पैदा हुए बच्चे से आनुवंशिक रूप से जुड़े होते हैं।
हालांकि भारत में वर्तमान में ऐसा कोई भी कानून नहीं है, जो विशेष रूप से असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीकों को कवर करता हो। असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक (विनियमन) विधेयक संसद में लंबित है और जल्द ही इसके पारित हो जाने की उम्मीद है। यह इनफर्टिलिटी क्लीनिक और मानव शरीर के बाहर शुक्राणु और अंडों को निषेचन कराने वाले असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक बैंको की मान्यता की प्रक्रियाओं को विनियमित करेगा और इन क्लीनिक और असिस्टेड रिप्रोडक्टिव तकनीक बैंको पर निगरानी रखेगा। इस प्रकार यह नैतिकता और अच्छी चिकित्सा प्रक्रियाओं के ढांचे से संबंधित सभी वैध अधिकारों की रक्षा करेगा।
अब तक, इस क्षेत्र में 2005 में पारित भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के दिशा निर्देषों पर आधारित एआरटी विधेयक के तात्कालिक संस्करण की चर्चा होती रही है। ये दिशा निर्देश एआरटी क्लीनिकों पर नैतिकता के रूप में कार्य करते हैं। एआरटी विधेयक के साथ-साथ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के 2005 के दिशा निर्देशों में अंडे और शुक्राणु दाताओं के कर्तव्यों की इस प्रकार व्याख्या की गयी है:
1) दाता की पहचान को गुप्त रखना जाना चाहिए: एआरटी विधेयक और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशा निर्देशों (2005) के अनुसार, दाता की पहचान को उजागर करने वाली किसी भी जानकारी को प्राप्तकर्ता को नहीं बताया जाएगा। दाता के नाम, पता या दाता की पहचान को उजागर करने वाले किसी भी तथ्य के बारे में प्राप्तकर्ता को नहीं बताया जाएगा। दूसरे शब्दों में, दाताओं को गुमनाम रखा जाना चाहिए।
दाता के बारे में प्राप्तकर्ता को न बताये जाने के साथ- साथ प्राप्तकर्ता की पहचान के बारे में भी दाता को नहीं बताया जायेगा। विधायिका की मंशा वैसे दाताओं के हितों की रक्षा करना है जो अपनी पसंद और गोपनीयता के साथ यह कार्य करते हैं, बच्चे के पालन- पोषण के दायित्व से खुद को मुक्त रखना चाहते हैं और प्राप्तकर्ता के पक्ष में दान किये गये युग्मक के उपर अपने सभी अधिकारों को त्यागना चाहते हैं।
2) दाताओं के बारे में जानकारी की गोपनीयता: एआरटी विधेयक और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशा निर्देशों के अनुसार, दाताओं के बारे में सभी जानकारी गोपनीय रखी जानी चाहिए और दाता की सहमति या सक्षम न्यायालय की अदालत के किसी आदेश के अलावा स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के केंद्रीय डेटाबेस के अलावा अन्य किसी के लिए खुलासा नहीं किया जा सकता। दान गोपनीयता का कार्य है और इसकी पवित्रता को बनाए रखा जाना चाहिए।
3) बच्चे पर माता पिता का कोई अधिकार और जिम्मेदारी नहीं: एक दाता को अपने युग्मक से गर्भ धारण या जन्मे बच्चे पर कोई अधिकार और जिम्मेदारी नहीं होती है। जैसा कि दाता की गुमनामी और गोपनीयता के बारे में एआरटी विधेयक और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशा निर्देशों के तहत कहा गया है उसका अर्थ दाता के अधिकार की रक्षा करना है।
उपर बताये गये दाताओं के विशिष्ट अधिकार के अलावा, उनके कुछ अधिकार एआरटी क्लीनिकों और एआरटी बैंकों के कर्तव्यों से भी पैदा होते हैं।
1) दान करने, विशेषकर अंडा दान करने के मामले में इससे जुड़े चिकित्सीय खतरों और की जाने वाली चिकित्सीय प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए दाता को चिकित्सीय परामर्श करने का अधिकार होता है।
2) दाता को अपनी सहमति देने से पहले उसकी अपनी भूमिका, अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में कानूनी रूप से जागरूक होना चाहिए। दाता के द्वारा दी गयी सहमति सूचित सहमति होनी चाहिए।
3) अंडे दान करने के लिए एआरटी विधेयक के अनुसार निर्धारित उम्र मापदंड महिला के लिए 21 से 35 वर्ष (दोनों वर्ष शामिल) और वीर्य दाता के लिए 21 से 45 वर्श (दोनों वर्ष शामिल) के बीच होना चाहए।
4) अंडा दाता दान अंडे के प्राप्तकर्ता के लिए सरोगेट माता नहीं हो सकती।
5) दाता को आर्थिक रूप से मुआवजा पाने का अधिकार है, इसलिए उसे बात की जानकारी होनी चाहिए कि मुआवजा किस प्रकार लिया जाएगा। एआरटी क्लिनिक डोनर कार्यक्रम में शामिल किसी भी तरह के व्यावसायिक मामले में शामिल नहीं हो सकती।
6) कोई भी महिला अपने जीवन में छह बार से अधिक अंडे दान नहीं कर सकती और अंडा लेने  के बीच कम से कम से कम तीन महीने का अंतराल होना चाहिए।
7) शादीशुदा दाता के मामले में, पति की सहमति अनिवार्य है।
8) दाता को उस कार्य के बारे में जिसके बारे में वह सहमति दे रहा हो / रही हो, उसके बारे में उचित समझ और जागरूकता होनी चाहिए। इस प्रकार, दाता को शारीरिक रूप से फिट और पूरी तरह स्वस्थ होने के अलावा, मानसिक रूप से फिट होना चाहिए और उसकी उचित मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग की जानी चाहिए।
9) दाता को चिकित्सा जोखिम और विवादों से बचने के लिए सही और सटीक जानकारी और चिकित्सा के बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
इसके अलावा, एआरटी विधेयक में यह प्रावधान है कि इनफर्टिलिटी के इलाज के लिए किसी असिस्टेड रिप्रोडक्टिव क्लीनिक के इस्तेमाल के अलावा, भारत के बाहर और भारत में किसी पार्टी के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अंडों, शुक्राओं, युग्मनजों और भ्रूण की बिक्री एक अपराध माना जाएगा।