मानसिक रोगियों को इलाज के लिए 50 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है


  • केवल 49 प्रतिशत मरीजों को उनके घर के 20 किलोमीटर के दायरे में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती है।

  • भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर हुए अब तक के सबसे बड़े स्वतंत्र सर्वेक्षण से हुआ बड़ा खुलासा।

  • विश्व मानसिक स्वास्थ्य फेडरेशन (डब्ल्यूएफएमएच) के सहयोग से नई दिल्ली स्थित कासमोस इंस्टीच्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस (सीआईएमबीएस) की ओर से किया गया यह सर्वेक्षण।

  • सात राज्यों में 10,233 हजार लोगों पर सर्वेक्षण किया गया।


नई दिल्ली: मौजूदा समय में मानसिक बीमारियां महामारी का रूप ले रही है लेकिन हमारे देश में मानसिक बीमारियों से ग्रस्त ज्यादातर लोगों के लिए इलाज की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। इस सर्वेक्षण से पता चला कि हमारे देश में कई क्षेत्रों में मानसिक बीमारियों के इलाज के लिए मरीजों को 50 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।  

विश्व मानसिक स्वास्थ्य फेडरेशन (डब्ल्यूएफएमएच) के सहयोग से नई दिल्ली स्थित कासमोस इंस्टीच्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस (सीआईएमबीएस) की ओर से देश के सात राज्यों में 10 हजार लोगों पर किए गए एक व्यापक अध्ययन से यह निष्कर्ष सामने आया है। इस अध्ययन की रिपोर्ट विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की पूर्व संध्या पर आज यहां आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में जारी किया गया। 

इस अध्ध्यन में शामिल 43 लोगों ने कहा कि उनके परिवार या दोस्तों में मानसिक रोगी हैं लेकिन इनमें से करीब 20 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके घर के 50 किलोमीटर के दायरे में कोई मानसिक चिकित्सा केन्द्र या क्लिनिक नहीं है। हमारे देश में केवल 49 प्रतिशत मरीजों को उनके घर के 20 किलोमीटर के दायरे में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाती है। 

इसी तरह से 48 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे जानते हैं कि उनके परिवार या दोस्तों में कोई व्यक्ति नशे की लत का शिकार है लेकिन इनमें से 59 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके घर के आसपास नशा मुक्ति केन्द्र नहीं है। 

इस अध्ययन की रिपोर्ट जारी करते हुए सीआईएमबीएस के निदेशक डॉ. सुनील मित्तल ने कहा कि ''मानसिक बीमारियां न केवल मरीजों के लिए बल्कि पूरे परिवार के लिए अत्यंत दुखदाई और तकलीफदेह होती है और यह आज के समय की बहुत बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है। हालांकि इन बीमारियों का इलाज पूरी तरह से संभव है लेकिन हमारे देश में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों में से ज्यादातर को इलाज नहीं मिल पाता है। इसका कारण मानसिक बीमारियों को लेकर समाज में कायम गलत धारणाएं, इन बीमारियों को लेकर जागरूकता का अभाव तथा मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं का सुलभ नहीं हो पाना है।

यह अध्ययन भारत में मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता, मानसिक बीमारियों के प्रति लोगों के व्यवहार एवं इन बीमारियों के उपचार की सुलभता की स्थिति का पता लगाने के लिए किया गया जो इस विषय पर भारत में किया गया सबसे बड़ा स्वंतत्र सर्वेक्षण है। इस सर्वेक्षण से भारत में मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता, मानसिक बीमारियों के प्रति लोगों के व्यवहार एवं इन बीमारियों के उपचार की सुलभता के बारे में बहुत ही चौंकाने वाली जानकारी मिली है। इस सर्वेक्षण को वल्र्ड डिग्निटी प्रोजेक्ट के तहत सहायता प्रदान की गई।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे (एनएमएचएस), 2015-16 के अनुसार हमारे देश में मानसिक बीमारियों का प्रकोप 13.7 प्रतिशत है जबकि मानसिक बीमारियों के कारण आत्महत्या करने का खतरा 6.4 प्रतिशत है। इस सर्वे में मानसिक बीमारियों के प्रकोप तथा इन बीमारियों के लिए उपचार सुविधाओं की उपलब्धता में भारी अंतर का पता चला। 

सीआईएमबीएस की क्लिनिकल साइकोलाजिस्ट सृष्टि जाजू ने कहा कि हमारे देश में चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता एक बड़ा मुद्दा है और आज के समय में टेक्नोलाजी जैसे, मोबाइल फोन, एप्स और टेली मेडिसीन इस दिशा में काफी मददगार साबित हो सकते हैं। 

इस अध्ययन से एक चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया कि इस सर्वेक्षण में शामिल 80 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके पास या तो स्वास्थ्य बीमा नहीं है या वे यह नहीं जानते कि मानसिक बीमारियों का उपचार स्वास्थ्य बीमा के दायरे में आता है। सीआईएमबीएस की साइकिएट्रिस्ट डॉ. शोभना मित्तल ने कहा कि इस सर्वेक्षण में देखा गया कि केवल आठ प्रतिशत लोगों को यह पता था कि मानसिक बीमारियों का इलाज चिकित्सा बीमा के दायरे में आता है तथा केवल 26 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सरकार मानसिक रोगियों के इलाज की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराती है।

डॉ. शोभना मित्तल ने कहा कि इस सर्वेक्षण के आधार पर कहा जा सकता है कि लोगों को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 के बारे में जानकारी बहुत कम है जिसमें चिकित्सा बीमा कंपनियों को शारीरिक बीमारियों के इलाज की तरह ही मानसिक बीमारियों के इलाज के लिए बीमा प्रदान करने का निर्देश दिया गया है लेकिन इस बारे में जागरूकता की कमी के कारण काफी मरीज मानसिक बीमारियों का इलाज नहीं करा पाते या बीमे का लाभ नहीं ले पाते। 

डॉ. सुनील मित्तल ने कहा कि इस सर्वेक्षण के आधार पर मानसिक स्वास्थ्य सेवा को बढ़ावा देने के लिए तीन प्रमुख सुझाव सामने आए हैं। करीब 37 प्रतिशत लोगों ने अधिक से अधिक संख्या में मानसिक चिकित्सा केन्द्र खोलने का सुझाव दिया, 28 लोगों ने कहा कि मानसिक रोगियों की सेवा - सुश्रुशा करने वाले लोगों के लिए प्रक्रिया को आसान बनाया जाए ताकि वे मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों का इलाज सुगमता से करा सकें तथा 24 प्रतिशत लोगों ने लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाने का सुझाव दिया। 

मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए सक्रिय रूप से शामिल सुप्रीम कोर्ट के वकील मृणाल कंवर ने कहा, ''राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम को अपर्याप्त मेंटल हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को संबोधित करने के लिए 1982 में शुरू किया गया था और 1996 में हर जिले में एक मानसिक स्वास्थ्य सेवा केंद्र शुरू करने की योजना बनाई गई थी। लेकिन, दशकों बाद भी, इसके इंफ्रास्टक्चर में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है।''

मृणाल कंवर ने कहा कि इसका मुख्य कारण अधिकारों के बारे में जागरूकता का अभाव है। नया कानून व्यक्तियों को कई अधिकार प्रदान करता है, लेकिन व्यक्ति इनका लाभ तब तक नहीं उठा पाते हैं जब तक कि उन्हें जागरूक और तैयार नहीं किया जाता है।''

सीआईएमबीएस की मनोचिकित्सक डॉ. दीपाली बंसल ने कहा कि 55 प्रतिशत लोग मानसिक बीमारियों वाले लोगों को खतरनाक मानते हैं। लेकिन यह एक गलत धारणा है। मानसिक बीमारी वाले लोग दूसरों के लिए तो खतरनाक साबित नहीं होते हैं लेकिन उनके दूसरों के द्वारा दुव्र्यवहार या पीड़ित होने की अधिक संभावना होती है। लोगों में ऐसी धारणा को सिनेमा जैसे मनोरंजन के लोकप्रिय माध्यम ने अधिक बढ़ावा दिया है।

मिताली श्रीवास्तव ने कहा, ''सर्वेक्षण में एक दिलचस्प बात पायी गयी कि केवल 43 प्रतिशत लोगों ने महसूस किया कि मानसिक समस्या से पीड़ित व्यक्ति को अस्पताल ले जाने की नौबत आ सकती है, जबकि 44 प्रतिशत लोगों ने महसूस किया कि व्यक्ति को परिवार के सदस्यों द्वारा काउंसलिंग की जा सकती है या स्थानीय चिकित्सक या बाबा / तांत्रिक के पास ले जाया जा सकता है।''